बँटवारा पहले मानचित्र पर स्याह रेखाएं खींचता है फिर धीरे-धीरे लोगों के हृदय पर खंजर चुभोना शुरू करता है जिसका जख़्म समय भी नहीं भर पाता। यही जख़्म हिंदी की प्रख्यात कथा लेखिका एवं जर्नलिस्ट निर्मला भुराड़िया दिल के किसी कोने में भरे बैठी थीं जिसे उन्होंने अपने ताज़ा उपन्यास ‘ज़हरख़ुरानी ‘ में दर्ज़ किया है। इस उपन्यास का एक हिस्सा हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। साम्प्रदायिक उन्माद का विकृत रूप चिंताजनक है। -हरि भटनागर
उपन्यास अंश – ज़हरख़ुरानी :
कोई नहीं जानता था कि इस हमले में गुरुमुख का बंतासिंह बच गया है। कोई जान पाए ऐसी जगह वह छुपा होता तो वह बचता ही कैसे? दुश्मन तो छोड़ो घरवालों को भी नहीं पता था कि वह कब और कैसे पिछवाड़े के विशाल वृक्ष की उस अंधी खोह में घुसकर बैठ गया था।
हुआ यह था कि जब हमले का शुरुआती दिन था, तब वह अपने घर में घरवालों के साथ ही था। मां और दादी उन्हें सबसे बीच वाले कमरे में ले आई, जहां से दिखता कुछ नहीं था, सिर्फ दोनों तरफ से चलने वाली गोलियों की आवाज़ें सुनाई देती थी। उसने कई बार बाहर जाने की कोशिश की, पर मां और दादी ने जाने नहीं दिया। बीच-बीच में दादी बाहर के कमरों में हो आती थी और मां और बुआ हरप्रीत के लिए समाचार लाती थी। वे सिर से सिर भिड़ाकर और फुसफुसाकर बात करतीं फिर भी बंता को कुछ-न-कुछ सुनाई दे ही जाता था। भले सुना हुआ पूरी तरह समझ आए ना आए।
शुरू दिन की बात है दो घंटे तक दोनों तरफ से गोलीबारी हुई थी। फिर कुछ देर रुकी तो दादी बाहर होकर आईं और बताया था, ‘उन्होंने लड़ाई रोक दी है। कहा है कल सुबह तक बारह हजार रुपए इकट्ठे करके दे दो, हम चले जाएंगे।
सरदार हरचंदसिंह और पीले मकान वाले जसवंतसिंह घर-घर से पैसा इकट्ठा कर रहे हैं…।’ उस दिन और उसके दूसरे दिन सुबह तक कोई गोलाबारी नहीं हुई। सबने शपाफकर मनाया। सबके घर में खाना भी बना। किसी से खाते न बना ये बात
और है। बंता और दोनों गुड़ियाओं को भी उस दिन कमरे से बाहर निकलने को मिला था, मगर खिड़कियों और बारादरियों में तो बच्चों को फिर भी जाने नहीं दिया गया था।
दूसरे दिन सुबह दस बजे वे आए और सैकड़ों की संख्या में आए। वही लाठी, बल्लमों, फरसों, कुल्हाड़ियों, बंदूकों, भालों आदि से लैस। और उन्होंने बस्ती को चारों ओर से घेर लिया। दादी ने भीतर आकर शंका जाहिर की थी, ‘बातचीत करने कोई ऐसा आता है क्या फौज-फटाका और असलाह लेकर!’ और दादी की बात सही निकली, बारह हजार रुपए लेने के बाद उन्होंने कुछ और शर्तें रख दीं जो बिलकुल ही नागवार गुजरने वाली थीं।
ये शर्तें थी कि ‘सिख अपने सब हथियार हमारे पास जमा कर दें, जिन सिखों के हाथ से कल मुस्लिम हलाक हुए हैं, उन्हें हमें सौंप दें, अपनी जवान लड़कियां हमें दे दें… फिर हम सबको शांति से यहां से जाने देंगे.. .और हां जो मुसलमान बन जाएगा वो यहीं रह सकेगा, हमेशा की तरह। आगे आपकी मर्जी!’ जाहिर-सी बात है ये बातें मानने वाली बिलकुल नहीं थी। लिहाज़ा लड़ाई फिर चालू हो गई।
हिन्दू और सिख डटकर मुकाबला कर रहे थे, मगर उनकी बंदूकों की गोलियां अब खतम होती जा रही थी। रात होते-न-होते हजार-दो हजार मुसलमान और आ गए थे ढेर सारे और असलाह के साथ। बस्ती के आसपास लड़ाकों का घेरा और बड़ा व और मजबूत हो गया था। गोलियां खत्म होने से सिख आमने-सामने की लड़ाई के लिए तलवारें, भाले, फरसे लेकर घर से बाहर निकल आए थे। हथियारों की धातुओं की टन-टन के साथ चीख-पुकारों की आवाज़ें भी शामिल हो गई थी, साथ में ही अल्ला हो अकबर और बोले सो निहाल सतश्री अकाल के नारे भी बीच-बीच में सुनाई देते थे। कटे हुए सिर, हाथ, पैर। भाला भोंके हुए बदन, मरने के पहले थरथराते बदन जंग के मैदान का मंजर उपस्थित कर रहे थे।
घरों के भीतर सिखनियां रोती जाती थीं, वाहे गुरु का जाप करती जाती थी। बंता की दादी भीतर आई थी और उन्होंने मां और बुआ को कहा था, ‘तैयारी कर लो।’ ऐसा कहते हुए दादी बिलकुल दृढ़ और शांत लग रही थी। मगर वे अब रो नहीं रही थी, तो हंस भी नहीं रही थी। अब वे सब लोग नीचे रसोईघर की ओर उतर रहे थे। दादी ने ढेर सारी मक्खन-मिश्री तैयार रखी थी और वैसा मीठा हलुवा भी जो गुरुद्वारे के कढ़ाह-प्रसाद में बनता है।
‘जी भरकर खा लो सब,’ दादी ने कहा और सबको मक्खन-मिश्री और हलवा दिया। और-तो-और उस दिन दादी ने भी लप्-लप् करके ढेर सारा मक्खन-मिश्री खाया। दादी जो सबसे आखिर में और चुपचाप खाती हैं, आज सबके संग-संग खा रही थी, वो भी ऐसे जैसे फिर कभी मक्खन-मिश्री का स्वाद नसीब ही ना होगा!
खाने की यह दावत शुरू होने के पहले हरप्रीत बुआ ने दादी के इशारे पर अलमारी से अफीम की पुड़िया लाकर दादी के हाथ में थमाई थी। दादी ने दोनों छोटी गुड़ियाओं को अफीम खिलाई थी। बंता ने दादी से पूछा था, इन्हें दस्त तो हो नहीं रहे फिर इन्हें आज अफीम क्यों दे रही हो दादी। दादी ने जवाब दिया, ‘इससे इनकी भूख खुल जाएगी और ये ज्यादा हलुवा खा सकेंगी?’
‘तो फिर मुझे भी दो,’ बंता ने कहा, तो दादी ने साफ मना कर दिया, ‘तेने अब्बी भोत जिंदगी देखनी है पुत्तर, तुझे काहे टुीम दूं?’ बंता को बात समझ नहीं आई, पर उसने ज्यादा ज़िद नहीं की।
इस बीच चौक के रास्ते से बड़े तायाजी की बीवी गुरविंदर ताई आई थी और खुसपुस करती, दादी के पास आकर कुछ कह गई। गुरविंदर ताई का चेहरा पत्थर-सा सख्त हो रहा था, उन्होंने जो कहा उसे सुनकर दादी के नथुने फड़कने लगे थे और ऊपर के होंठ के आसपास का हिस्सा फड़कता-सा महसूस हुआ था। दादी ने गुरविंदर ताई को कहा, ‘वही कर रहे हैं।’
बंता को सिर्फ यह समझ आया कि वे औरतों को गुरुद्वारे के चौक में इकट्ठा होने को कह रही हैं। लकड़ी…घी…अरदास… जैसे शब्द भी सुनाई दिए थे।
‘चल चांदकौर पूरा सिंगार कर ले।’ दादी ने अपनी बहू से कहा और हरप्रीत से कहा तू भी लाल जोड़ा पहन ले जो तेरे ब्याह के लिए रक्खा था, मांग टीका और झुमकी मेरे ले लेना, मैं तो सलमे सितारे वाला दुपट्टा पहनूंगी, जो मेरे सरदारजी को बहुत पसंद है और साथ में छल्ले वाली बालियां…।’
और वे लोग पास के कमरे में बड़े ट्रंक की ओर चल पड़ीं।
‘मैं भी नए कपड़े पहनूंगा बेबे।’ बंता ने ज़िद की तो उसकी मां चांदकौर उसे गले से लगाकर रो पड़ी।
‘पर पुत्तर कपड़े बदलने से पहले मैंने तेरे केश काट देने है। देख कितने गंदे हो रहे हैं, इतने दिन से धो नहीं पाएं। इतने गंदे केश के साथ नए कपड़े क्या अच्छे लगेंगे।’ बंता को क्या पता था कि मां उसे केश काटने को क्यों फुसला रही है? वही मां जो हमेशा कहा करती थी, ‘सच्चा सिख अपने केश नहीं देता, कब्बी बी नहीं।’
खैर बंता ने तो पलटकर मां पर ही वह जुमला दोहरा दिया, ‘नहीं दूंगा केश, सच्चा सिख केश नहीं देता! और फिर केश दे दूंगा तो सिलक का पग्गड़ कैसे पहनूंगा। मैं नई कमीज के साथ पग्गड़ पहनूंगा बेबे!’
इस पर बेबे ने कुछ नहीं कहा। हमेशा की तरह यह भी नहीं कि इतने छोटे से सिर पर पग्गड़ क्या बांधेगा? तेरे जुट्टा बना के सुंदर-सा रेशमी रूमाल बांध दूंगी।’ नहीं, बेबे ने आज तो यह भी नहीं कहा। जब सब औरतें अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर कर सज-धजकर तैयार हो गईं, तो उन्हें गुरुद्वारे के चौक के लिए निकलना था। बंता ने ज़िद की कि वह भी अरदास के लिए चलेगा। अब मां क्या कहे? वह तो चाहती थी उसका पुत्तर सुरक्षित बच जाए, जिंदा रहे और आगे और जिंदगी देखे।
‘सब जनानियां जा रही हैं बंता, अरदास करने, तू कोई जनानी है क्या?’ बेबे ने कहा तो बंता तनकर खड़ा हो गया, ‘नहीं हूं।’ ‘तो फिर तू यहीं रुक…’ यह कहते हुए बेबे ने बंता को गले लगा लिया और रोने लगी। फिर उसने बहुत प्यार से बंता के कपाल, गाल, पलकों और बांहों को छुआ। उसके सिर पर हाथ फेरा…जैसे उसे छोड़कर जाना नहीं चाहती हो, जैसे उसे आखिरी बार मिल रही हो!
‘अरदास के लिए घी और लकड़ियां क्यों ले जा रही हो बेबे?’
‘ये एक खास अरदास है पुत्तर…ताकि लड़ाई खत्म हो जाए।’
‘तो फिर मुझे भी ले चलो…वाहे गुरु मेरी अरदास जरूर सुनेंगे।’ बंता ठुनका।
चांदकौर खामोश होकर कुछ सोचने लगी फिर बोली, ‘तुझे तो मैं खास से भी खास अरदास बता रही हूं,’ उसने बंता को फुसलाया। तू अटारी पे चढ़ जा, वहां सबसे अंधेरे कोने में बैठकर वाहे गुरु का जाप करना और हां जब तक…’ मां आगे कुछ बोलती इसके पहले ही बुआ हरप्रीत बुलाने आ गई थी। दोनों ने मिलकर बंता को अटारी पर चढ़ा दिया था। बंता ने अटारी पर से ही उन्हें जाते देखा, हरप्रीत के कंधे पर बड़ी वाली गुड़िया और चांदकौर के कंधे पर छोटी वाली थी। दोनों गुड़ियाएं ढुलके सिर में ऐसी निढाल दिखती थी, जैसे निष्प्राण हों।
जाप करते-करते बंता को नींद आ गई थी। नींद खुली तो वह मां को दिया वादा तोड़कर अटारी से उतर आया था। दूसरे दिन की शाम हो गई थी पर मां, दादी, बुआ कोई भी अरदास करके वापस लौटी नहीं थी। उसे भूख लगी थी, वह रसोई में गया और कुछ नहीं दिखा तो हांडी में रखा दही खाया। स्कूल में कई बार दो दल बनाकर नकली तलवारों, पेड़ की डालों की बंदूकों आदि से लड़ाई-लड़ाई खेलते थे। कभी कोई तीर लगने का नाटक करता, कभी कोई ढेर हो जाता और पलभर में ही हंसता खड़ा हो जाता और दुश्मन के गले लग जाता। और देखो आज सचमुच की लड़ाई हो रही है तो किसी ने बंता को बाहर जाने ही नहीं दिया! उसने खिन्न मन से सोचा। जैसे कोई, उसे किसी जीवंत रोमांचक मंजर से रूबरू होने से वंचित कर दिया गया हो!
घर में इस वक्त कोई नहीं था, अत: उसने बाहर जाने की ठानी। हालांकि लोगों की चीखें, बंदूकों की धांय-धांय, नेजों और तलवारों के टकराने की आवाज़ें अब नहीं आ रही थीं। फिर भी वह बाहर आया। दुश्मन जा चुके थे। उसने जिन लाशों को छुआ वे नकली नहीं थी। कोई भी हंसकर उठ खड़ा नहीं हुआ, बल्कि वहां तो बेहद डराने वाला मंजर था। सिर कटी लाशें, कटे अंग, बहकर जम चुका खून…बंता का तो जीते जी खून जम गया।
वह गुरुद्वारे की ओर दौड़ा, वहां चौक में चिताएं और औरतों की जली-अधजली लाशें थी। घी में घुली जली देहों की गंध थी। उसे चांदकौर का चिता से बाहर उड़कर आया अधजला दुपट्टा पहचान में आ गया था…वह दहशत में भरकर पुन: अपने घर की ओर भागा। उसे पीठ पर से सुनाई दिया, ‘अरे ये बच गया है।’ वह और तेजी से भागा। उसने महसूस किया एक-दो लोग उसके पीछे भागे हैं। शायद भागने वाले में से एक किसी चीज में उलझकर गिर गया था और बंता को इतना समय मिल गया था कि वह एकबारगी उन लोगों की आंखों से ओझल होकर भाग पाए। वह अपने घर में घुसा, मगर छुपने के लिए अटारी पर नहीं चढ़ा, उसकी बालबुद्धि में भी अब यह बात आ गई थी कि वे लोग घर में आए तो अटारी पर से उसे ढूंढ़ लाएंगे। वह रसोई की खिड़की से कूदकर पिछवाड़े पेड़ की उस खोह में जा छुपा, जिसे दूर से देखकर भी वह डरता था कि कहीं इसमें सांप न बैठा हों और आज उसको वह सबसे सुरक्षित जगह लगी। इंसान सांप से ज्यादा खतरनाक जो हो चले थे।
सांप तो नहीं पर लाल चींटे, मकड़ियां और दूसरे कई जीव-जंतु थे पेड़ के तने की उस खोह में। बंता को सारे बदन पर बार-बार डंक लग रहे थे और बुरी तरह खुजली चल रही थी। मगर खोह में इतनी जगह नहीं थी कि वह हाथ मोड़कर बदन खुजा लें। वह किसी तरह घुसा बैठा था उसमें। बदन तो छोड़ो चेहरे पर चलती चींटियों और आंख की पलक पर चढ़ आई मकड़ी का भी वह कुछ नहीं कर पाया। बदन पर जीव-जंतु, दिल में दहशत, मन में दुःख…बंता की आंखों से आंसू बहना रुक नहीं रहे थे। बीच-बीच में सिसकियां भी फूट पड़ती थीं।
जैसे-जैसे रात गहराई, सन्नाटा बढ़ता गया और पेड़ की खोह में निपट अंधेरा छा गया। अब बंता बाहर निकला और शरीर की खरोंचे सहलाते और मुंह-हाथ-पैर खुजाते बस्ती के बाहर जाती पगडंडी की ओर चल पड़ा। उसे पता नहीं था वह कहां जाए। उसे तो यह भी पता नहीं था कि जब वह अटारी में सो रहा था, तभी मिलिट्री का ट्रक आया था और बच गए लोगों को वाहा कैम्प में ले गया था। उसने कैम्प शब्द कभी सुना ही नहीं था। वह धीरे-धीरे चलता रहा। चलते-चलते उसे खयाल आया कि वह अपने उस्तादजी के यहां जा सकता है। उसका अनुमान सही था। उस्तादजी ने बंता को अपने घर में पनाह दे दी थी।
स्कूल बंद थे तो क्या उस्तादजी के घर लोगों का आना-जाना तो था ही। खुद के बीवी-बच्चे थे, तो मिलने-जुलने वाले भी। जल्द ही यह खबर फैल गई कि काफिर की औलाद को उस्तादजी ने पनाह दी है।
तीसरे दिन दोपहर की बात ही होगी। बंता को बुखार था और उस्तानी ने उसके सिर पर ठंडे पानी की पट्टी लगाई थी। तभी किसी ने उस्तादजी के घर का दरवाजा खटखटाया। इतनी जोर से जैसे कि दरवाजा तोड़ ही डालेंगे। उस्तानी को शक हुआ कि कोई शरीफ आदमी तो इस तरह दरवाजा नहीं भड़भड़ाता। उन्होंने खिड़की की झिरीं से झांका। अनुमान सही था। बस्ती के दो नामी गुंडे बाहर खड़े थे, जो तकरीबन अट्ठारह-बीस बरस के ही होंगे और इस कमउम्र में ही वे और उनकी कारगुजारियां मशहूर हो चुकी थीं। जवान खून था, मज़हबी सियासत का असर भी सांप के ज़हर की तरह उन पर खासा चढ़ चुका था और वे उसे काफिरों पर उगलने को तत्पर थे।
उस्तादजी उस वक्त वहीं थे, जहां वे अकसर रहते थे यानी कि पाख़ाने में!
उस्तानी उन लड़कों से खिड़की से ही बात करती रही, लेकिन वे दरवाजा खुलवाकर अंदर आने पर अड़ गए। उस्तानी जानती थी कि बंता को पलंग के नीचे, दरवाजे के पीछे, बड़ी अलमारी के कपाट में, अटारी में: अनाज की कोठियों में कहीं नहीं छुपाया जा सकता। ये वो जगहें हैं जहां वे जरूर तलाशेंगे। उसने पिछवाड़े के चौक में पाख़ाने के बाहर खड़े होकर उस्तादजी से सलाह की और उन्होंने बंता को, उनके साथ पाख़ाने के भीतर ही भेज देने की राय दे डाली! उनकी निगाह में इस वक्त उस बच्चे के लिए यही सबसे महफूज जगह थी, जो उन शोहदों के वहमोगुमान में भी नहीं हो सकती थी।
दरवाजा खोलने में देरी होते देख लड़के फिर जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगे थे। इस बार हाथों से नहीं लातों से। इस भड़भड़ से घबराकर उस्तादजी के बच्चे रोने लगे थे और बंता सन्न-सा हो गया था। बंता को भीतर बैठे उस्तादजी के साथ पाख़ाने में धकेलकर उस्तानी दौड़ती आई और दरवाजा खोल दिया। दोनों लड़के अंदर आ गए और घर का कोना-कोना छानने लगे। उन्हें बंता कहीं नहीं मिला। वे पाख़ाने के बाहर भी खड़े हुए और उस्तादजी से सवाल किए, उस्तादजी ने भीतर से ही जवाब भी दिए। जब लड़कों को खातिरी हो गई उस्तादजी के घर में सब कुछ सामान्य है, तो वे वहां से लौट गए।
इधर निपट रहे उस्तादजी के पीछे पाख़ाने में खड़े बंता की हालत खराब थी। उनकी पेचिश का आंखों और ‘नाकों’ देखा हाल झेलना उसकी मजबूरी थी। इतनी जगह नहीं थी कि वह नाक या आंख पर हाथ ले जाए। आंखें यूं भी बंद नहीं कर सकता था, कभी आंखें बंद कर लेने से पैर डगमगा जाए तो वह जिस गक्के में गिरेगा, उसकी कल्पना से ही उसका जी मिचला गया था। जब उस्तानी ने बाहर आकर आश्वस्त किया कि लड़के पूरा घर उलट-पुलट करके चले गए हैं, तब उस्तादजी और बंता पाख़ाने से बाहर निकले। उस्तादजी बंता को घर के भीतर नहीं लाए। उसे समझाया कि कैसे आम रास्ता पकड़कर कैम्प की ओर जाना है और उसे दीवार पर चढ़ाकर, दीवार फांद लेने को कहा। अब तो यहां रात तक का इंतजार करना भी दुरुस्त नहीं था।
दीवार फांद कर बंता ने दौड़ लगा दी, उस आम रास्ते की ओर जो उसके घर की छत से भी दिखाई पड़ता था। कभी किसी बैलगाड़ी के नीचे, कभी किसी मकान के पीछे छुपता-छुपाता वह आम रास्ते तक तो पहुंच गया था, मगर रास्ते पर चलकर दिनदहाड़े आगे जाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। लोग आ-जा रहे थे। कोई भी उसे देख सकता था। अत: वह खेत की खड़ी फसल के बीच छुप गया और रात पड़ने का इंतजार करने लगा। बैठे-बैठे उसकी नींद लग गई, जो रात हो जाने पर ही खुली। वह निकलकर बाहर आया, उसने आम रास्ता भी पकड़ा, मगर रात की वजह से कुछ सूझ न पड़ा और वह उस्तादजी की बताई दिशा की विपरीत दिशा में चल पड़ा।
कीड़ों ने तो खेत में भी उसे जगह-जगह काटा था। यहां तक कि वह सोया था तब किसी कीट ने उसकी पलक पर भी काट लिया था। जिससे एक आंख सूज कर बंद हो गई थी। पूरे शरीर में खुजली अलग मची हुई थी मगर वह कभी दौड़ता कभी चलता, कभी बैठकर सुस्ताता रहा और सुबह वह किसी गांव के बाहर था। पौ फट रही थी। कुछ लोग लोटा लेकर खेतों की तरफ जा रहे थे। गांव के मुहाने पर, एक पीपल के नीचे बने चबूतरे पर घुंघरू वाला जोगी बैठा था। डरा-सहमा बंता पीपल के पास पहुंचा तो जोगी ने उसे प्यार से अपने पास बुला लिया।
कई तरह के जोगी देखे थे बंता ने। बंता के गांव में तरह-तरह के जोगी आया करते थे। कनुट्टा जोगी, जिसके कान की लो इतनी बुरी तरह फटी होती थी कि बंता को उसे देखने मात्र से डर लगता था। कनुट्टा जोगी आता तो बंता डर के मारे घर के भीतर भाग आता। बाकी जोगियों के झोले में तो वह खुद दान के लिए रखे कनस्तर में से कटोरा भर-भरकर अनाज डालता था। कित्ते ही तो जोगी और खेल दिखाने वाले आते थे गांव पर। एक करतब दिखाने वाला तो जीभ के आर-पार सरिया निकाल देता था, फिर भी उसकी जीभ को कुछ नहीं होता था। एक आता था धूनीवाला फकीर जो हरा चोगा पहनता था। घर-घर जाकर दुआ की धूनी देता था और फिर ऐसी ही रंग-बिरंगी मालाएं, बदन पर घेरदार महरुनी चोगा पहने, सिर पर कपड़ा और पैर में घुंघरू बांधे आने वाला फकीर भी तो था, जो बुल्ले शाह के गीत गाता था और कभी-कभी तो बिना बात ही नाचने भी लगता था। लोग उसे अलमस्त फकीर कहते थे, तो कोई उसे जनाना फकीर कहकर हंसी भी उड़ाता था, पर उसे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, रूह को जनाना मानकर वह तो ऊपर वाले के इश्क में जोगी बना हुआ होता था।
बंता को यहां जो मिला वह भी वैसा घुंघरू वाला जोगी ही था, मगर न वह बुल्ले शाह के गीत गा रहा था ना नाच रहा था। वह पेड़ के तने से टिक कर खामोश बैठा था और लगातार बस्ती की ओर देख रहा था। फटी आंखों से। कुछ क्षणों बाद उसने पलक झपकाई और बंता को अपने पास बैठा लिया। जोगी के पास बैठकर बंता ने भी गांव की ओर देखा तो धक् रह गया, सामने की एक बस्ती के मकानों से धुआं उठ रहा था। कुएं की जगत पर औंधी बाल्टी के साथ ही दो सिखों की लाश पड़ी थी। एक के बदन में घोंपा हुआ भाला अब भी जस-की-तस घुसा पड़ा था।
जोगी जो हमेशा सातवें आसमान के पार की दुनिया से वास्ता रखता था, इस दुनिया के झमेलों से खुद को ऊपर रखता था, अब जैसे किसी झटके से दुनियावी नक्शे पर उतर आया था। अपने आसपास जो घटित होते वह देख रहा था, उससे दहलकर उसने अपना नाच स्थगित कर दिया था। इस वक्त वह रूहानी नहीं इंसानी काम करना चाहता था, इंसानी भलाई का काम।
‘सुनो बच्चे मैं तुम्हारे लिए फिक्रमंद हूं। अपने बाल दे दो नहीं तो हलाक कर दिए जाओगे…’ फकीर ने कहा तो सुनकर बंता ने न हां में सिर हिलाया न ना में। बस उसकी आंखों से आंसू बहते रहे और हिचकियां बंध गईं। फकीर उसकी पीठ सहलाने लगा। फिर फकीर ने अपनी पोटली में से उसे रोटी निकालकर दी। रोटी खाते-खाते उसने देखा फकीर ने अपने सामान से एक उस्तरा निकाला है। बंता डर गया। कहीं यह भी तो उन्हीं में से नहीं?
‘कौन-से गांव से हो? क्या तुम्हारे घर में कोई नहीं बचा?’ फकीर ने अपनी पोशाक से उस्तरे की जंग पोंछते हुए पूछा। तब बंता ने बताया कि उसके पिता कभी से लाहौर-अमृतसर गए हुए हैं। हमले के वक्त घर पर नहीं थे। वह आम रास्ता पकड़कर लाहौर की ओर ही जाना चाहता था। कैम्प पर नहीं।
‘पर बच्चे तुम तो दोनों हिसाब से ही उलटी दिशा में आ गए हों, अब लाहौर और कैम्प दोनों ही जगह जाना मुश्किल है। रावलपिंडी के गांव-गांव में कतल मचा है। इतने गांव पार करके कैसे जाओगे? और कोई है? कोई रिश्तेदार वगैरह जो और कहीं रहता हो?’ फकीर ने पूछा तो बंता को याद आया। बुआ अमनप्रीत रहती है हड़प्पा में।
‘तो बेहतर होगा हम तुम्हें हड़प्पा छोड़कर आएं,’ फकीर ने कहा। परन्तु केश तो काटना ही पड़ेगा… खतरा बहुत है। अबकी बंता ने कुछ नहीं कहा। फकीर ने उस्तरे से ही उसके केश काट दिए और वही उस्तरा अगले काम में लिया। जब फकीर ने बंता की चक्की उतारी तो बंता की घिग्गी बंध गई। उसने पलक झपकते ही उसका खतना कर दिया था और ठंडी-ठंडी मिट्टी लगा दी थी ताकि दर्द कम महसूस हों अब वह उसे लेकर कच्चे रास्ते पर निकल पड़ा था।
निर्मला भुराड़िया
लेखक, पत्रकार।
तीन उपन्यास-“ऑब्जेक्शन मि लॉर्ड”,” गुलाम मंडी” और “ज़हरख़ुरानी” प्रकाशित।
दो कहानी संग्रह-एक ही कैनवास पर बार-बार और मत हंसो पद्मावती। दो कविता संग्रह-घास के बीज और विश्व सुंदरी।
प्रकाशित गद्य पुस्तकें-फिर कोई प्रश्न करो नचिकेता, खुशी का विज्ञान, कैमरे के पीछे महिलाएं।
देश के महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविता कहानी और आलेख प्रकाशित।
nirmala.bhuradia@gmail.com
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