समकालीन हिंदी ग़ज़ल में इन्दु श्रीवास्तव एक चचिॅत नाम है। इन्दु श्रीवास्तव के लिए ग़ज़ल विचार को रूप देने का एक माध्यम है। जीवन की विसंगतियों से उपजे दर्द का आख्यान रचने वाली इन्दु श्रीवास्तव की पक्षधरता स्पष्ट है , यही वजह कि वे पीड़ित अवाम का कलाम लिखती हैं।
प्रस्तुत हैं ,ग़ज़लें और दोहे ।
– हरि भटनागर

ग़ज़लें

1
कोई तो काम हो, जीने के बहाने जैसा
बंद पिंजरों से ,परिन्दों को उड़ाने जैसा

शाम घिरने लगी, बाज़ार में बैठे – बैठे
कोई लम्हा न हुआ, मोल चुकाने जैसा

ये भी मुमकिन है, तुम्हें ये शहर पनाह न दे
मेरा घर है, किसी महफूज़ ठिकाने जैसा

जैसे बचपन के ज़माने नहीं लौटे वापस
क्या कभी तुमने भी सोचा नहीं आने जैसा

जाने क्यूं लिक्खा है उसने गुलाबी काग़ज़ में
ढाई लफ़्जों को, सियासत के फसाने जैसा

कर्ज़ की मार से, बेदम किसान सा मौसम
बीनता रहता है कुछ, खेत में दाने जैसा

बदनसीबी मेरी, बस इस सनद में रहती है
कोई मौक़ा तो मिले,फ़र्ज़ निभाने जैसा

2
रात गहरी है, सुबह सा मश्विरा देते रहो
इस तरह भी अपने होने का पता देते रहो

वक़्त का अंधा सफ़र, आख़िर गुज़र ही जाएगा
उम्र को , ज़िन्दादिली का वास्ता देते रहो

बेख़ुदी में ही गुज़र जाए, तो ग़म किस बात का
ज़िन्दगी को, इश्क़ का धीमा नशा देते रहो

उम्र की दुश्वारियां, उसपर ये जंगल धूप के
तल्ख़ मौसम को, नदी की इत्तिला देते रहो

मुस्कुराने की इजाज़त, दिल अगर देता नहीं
क्या ज़रूरी है कि, होठों को सज़ा देते रहो

हमने तो ठानी है, पिंजरा तोड़ कर उड़ने की जि़द
ऐ हवाओ बन पड़े तो, हौसला देते रहो

जुल्म के बादल, ज़मीं को ले न डूबें इसलिए
आस्मां को, चांद तारों की दुआ देते रहो

3
उनके गिनाएं ऐब, कि अपनी ख़ता कहें
अपने पे बन आई है तो, अब किसको क्या कहें

जिन बस्तियों में, भूख से मरने का हो चलन
किस मुँह से, वहाँ लोग बुतों को ख़ुदा कहें

बीमारियों से, यूं भी है ख़तरा दवाओं को
अब ये न हो, कि आप ज़हर को नशा कहें

ख़ुद खेलना फिर हारना, अपने ही आप को
अब क्या शिकस्त-ए- इश्क़ कहें, क्या वफ़ा कहें

मंज़र कहर की रात के आंखों में क़ैद हैं
अंजाम सामने है, तो क्या वाकया कहें

जैसे भी हो,सुकून के कुछ पल तलाशिए
दिल को सूकून आए,तो फिर कुछ नया कहें

आता नहीं कुछ याद, कि आज कहं से हम
घर की ही सुध नहीं, तो किधर का पता कहें

इस अजनबी शहर में, सभी अपनी धुन में हैं
जिनको बनाएं दोस्त, वही अलविदा कहें

4
चार दिन की ज़िन्दगी, उस पर हुकूमत आपकी
ख़ूब कर ली, अब न कर पाएंगे ख़िदमत आपकी

अपने रस्ते हम चले, अब हों मुबारक आपको
आपके जल्वे सियासी,और सियासत आपकी

बेवज़ह इतना तकल्लुफ़, यूं मेहरबानी कि हाय
कोई साजिश तो नहीं, इतनी शराफ़त आपकी

जाते- जाते हम गए, तो क्या पता लौटेंगे कब
हमको यादों में बचा लें, तो सदाकत आपकी

वक्त ने वैसे भी हम पे, कम नहीं ढाए सितम
और अब क्या गुल खिलाएगी, मुहब्बत आपकी

उफ़ ये वादे, ये अदा ये मुफ़्त की लफ़्फा़जियां
कैसे- कैसे रंग दिखलाए है, फ़ितरत आपकी

मुंतज़िर हैं बुत यहाँ, इन्सान बनने के लिए
हो कभी भूले से जो नज़र- ए- इनायत आपकी

5
भूख के इश्तिहार गुज़रे हैं
मुफलिसों के बज़ार गुज़रे हैं

मेरे ख़्वाबों से, कामगारों के
क़ाफ़िले बार- बार गुज़रे हैं

इन गए चार- पांच सालों में
हादसे बेशुमार गुज़रे हैं

रास्तों के कहीं निशान नहीं
कितने गर्द -ओ- ग़ुबार गुज़रे हैं

गांव में हादसों के सदमे से
सैकड़ों कर्ज़दार गुज़रे हैं

कैसी बेदारियों में थीं रातें
दिन बड़े शर्मसार गुज़रे हैं

तेरी आंखों की ग़ज़लगाहों से
कितने नग्मानिगार गुज़रे हैं

6
बरसात में मिट्टी का मकां बोल रहा है
हर सांस में,ख़तरे का गुमां बोल रहा है

घायल कोई राही है, कि बेज़ार परिन्दा
ये कौन है, जो मेरी ज़ुबां बोल रहा है

हैवानियत के ख़ौफ़ से खूंख़ार जानवर
इनसान की आवाज़ में, माँ बोल रहा है

गुज़रा है कोई हादसा, इस गांव से हो कर
ख़ामोश चिताओं से धुआँ बोल रहा है

रौशन है ख़ुदा बुत में, कि बच्चे की हँसी में
है क़ैद कहाँ, और कहां बोल रहा है

पानी की एक बूंद सी है उसकी ज़िन्दगी
जो नींद के आलम में, कुआँ बोल रहा है

पिस कर नए वजू़द में, ढलता है आदमी
पत्ती में तेरा रंग, निहां बोल रहा है

7
कभी सैलाब, कभी तश्नगी की बातों से
हार जाता है समंदर, नदी की बातों से

चांद को डूबते देखा, तो कई बार लगा
रात डरती है बहुत,ख़ुदकुशी की बातों से

आज के दौर की, नाजुक मिजाज़ियां समझो
अपना रिश्ता कहाँ, अब उस सदी की बातों से

मौत के जश्न का हरसू ख़ुमार तारी है
कांप उठती है ज़मीं, ज़िन्दगी की बातों से

हार कर भूख से, जब बस्तियाँ भटकती हैं
दिल दहल जाता है, आवारगी की बातों से

हमने ऐसे भी, दवाओं के असर देखे हैं
ज़ख्म भर जाते हैं चारागरी की बातों से

8
लाचारियों के दर्द का रेशा न हो जहाँ
जाएं कहाँ, कि भूख का चर्चा न हो जहाँ

बस्ती में मेरी, घर कोई ऐसा नहीं मिला
बिमारियों का क़ाफ़िला ठहरा न हो जहाँ

ये गांव है, कि एक अंधेरी सुरंग है
तिनका भी, कभी धूप का पहुंचा न हो जहाँ

बाज़ार का ऐसा कोई कोना तलाशिए
पानी का, एक घूंट तो महंगा न हो जहाँ

छिप कर महल की रौशनी में, बच गए जनाब
दंगे, फ़साद, भूख का ख़तरा न हो जहाँ

वो आदमी है, या कोई सूखा दरख़्त है
भूले से परिन्दा कोई, चहका न हो जहाँ

किस ओर उड़ चला या परिन्दों का क़ाफ़िला
दाने हों कम सही, कोई पिंजरा न हो जहाँ

9
रात बैठी है, जम के डेरे में
क्या कभी देर है सवेरे में

तुम नदी में दिए बहा आए
झोपडी़ क़ैद है अन्धेरे में

क्यूं मेरी उम्र भर की कमियाँ हैं
तेरी फ़िक्रों के स्याह घेरे में

यूं दबे पांव, छिप के आया है
फ़र्क़ क्या दर्द में, लुटेरे में

रात से पूछती है, तन्हाई
चांद है किस गली के फेरे में

मेरा साहिल, मुझी को खोजे है
जाल, मछली भंवर, मछेरे में

कौन बारूद रख के आया है
बुलबुलों के नए बसेरे में

10
कोई नशे में गाफ़िल, कोई ख़ुमारियों में
अपनी तो कट रही है, बस कर्ज़दारियों में

उसको कहां की महफ़िल, उसको किधर के जलसे
पुश्तें गुज़र गई हों, जिसकी उधारियों में

गुलशन दहक रहा है, गुन्चे झुलस रहे हैं
दिलचस्पियाँ हैं उनकी, बाद- ए- बहारियों में

किस- किस को रोइए, सब अपनी अना में गुम हैं
कुछ ताज़पोशियों में, कुछ ताज़दारियों में

कहते हैं लोग हमको, कुछ बन के भी दिखाओ
आख़िर धरा ही क्या है, नग्मानिगारियों में

मजबूरियों को उनकी, बाजीगरी न समझो
जो भूख बेचते हैं , रख कर पिटारियों में

हैं फ़ितरतें वही, बस चोले बदल गए हैं
थे रहजनों में कल जो, अब हैं पुजारियों में

 

दोहे

मैं बादल की ओढ़नी, तू धरती की सेज
कब तक हम करते रहें, सूरज से परहेज

मैं तुझसे कुछ ना कहूं, तू भी ना कुछ बोल
दूर गगन में उड़ चलें, बंद परों को खोल

तू कस्तूरी नेह की, मैं हिरनी की प्यास
बन -बन डोलूं बावरी, साजन मेरे पास

तू ही मेरा जोगिया, तू ही मेरा जोग
तू ही मेरा बैद है, तू ही मेरा रोग

मैं तो कोरी गागरी, तू निर्मल जल धार
तुझको भर कर ढाक लूं, देखे सब संसार

तु दुल्हन की पालकी, मैं महुए की छांव
आ दो पल को बैठ ले, दूर पिया का गांव

पत्ता- पत्ता तोड़ के, लिख दूं तेरा नाम
फिर पोछूं फिर- फिर लिखूं, और मुझे क्या काम

मैं जंगल की मोरनी, तू बादल का राग
जितना तुझमें नीर है, उतनी मुझमें आग

मैं बरखा मैं बादरी, मैं बिजली मैं धूप
मेरे इतने रंग हैं, तेरे कितने रूप

मन के मधुबन में बसी, जबसे तेरी प्रीत
केसर से दोहे उगे, और चंदन से गीत


 

 

 

इन्दु श्रीवास्तव
इन्दु श्रीवास्तव मूलतः मध्यप्रदेश सतना जिले के नागौद कस्बे से आती हैं।संगीत में गहरी अभिरुचि के साथ लेखन के प्रति समर्पित रहीं। देश के श्रेष्ठतम ग़ज़लकारों में पहचान बनाने वाली इन्दु श्रीवास्तव तीन दशकों से समकालीन ग़ज़ल के क्षेत्र में सृजनरत हैं। आशियाने की बातें, उड़ना बेआवाज़ परिन्दे, बारिश में जल रहे हैं खेत और ‘क़ंदील जलाओ कोई’ आपके चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हैं। आठ ग़जलों का एल्बम ‘बादलों के रंग’ काफी चर्चित हुआ। ‘ तू ही मेरा जोगिया ‘ दोहा संग्रह, ‘भोर पनिहारिन’ गीत संग्रह , एक मुक्तक संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। रज़ा पुरस्कार, स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान, सुधेश स्मृति सम्मान से सम्मानित हैं।
पता : 38, नालंदा विहार ,कचनार सिटी , विजय नगर जबलपुर.
मो. 9425357858.


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