रूबल चिंतन की दुनिया में नवाचार का एक महत्त्वपूर्ण नाम है। हिंदी अंग्रेजी में समान अधिकार से लेखन – कार्य करने वाली रूबल ने स्त्री विमर्श , फ़लस्तीन और साम्राज्यवाद और गांधी चिंतन जैसे आज के ज्वलंत मुद्दों पर गंभीरता से विचार किया है।
प्रस्तुत आलेख भारतीय संदर्भों में स्त्री – चिंतन के सैद्धांतिक रूप को समझने का प्रयास है। रूबल ने स्त्री – चिंतन के अनसुलझे पक्षों को प्रश्नांकित किया है जो न तो भारत की बाइनरी में पश्चिम को रखता है और न ही स्त्री की बाइनरी में पुरुष को। यह संवाद का एक सार्थक प्रयास है जो केंद्र की किसी भी अवधारणा को नकार कर अनेक बिंदुओं और दृष्टिकोणों से समाज में अपनी बात रख सकता है। यह न सिर्फ़ भारतीय सामाजिकी को समझने का अवसर देता है साथ ही उसे विस्तृत स्त्रीवादी चिंतन में दूसरे की बात सुनने और समझने की आज़ादी भी देता है।
– हरि भटनागर

 

आलेख :

किसी भी वृत्त की रचना केंद्र और परिधि से मिलकर होती है। जिस तरह केन्द्रीयता का अस्तित्व परिधि के कारण है ,उसी तरह परिधि भी किसी बिंदु को केंद्र मानने से अस्तित्व में आती है । यहाँ केंद्र और उसकी परिधि दोनों का महत्त्व है। केंद्र के बिन्दुओं में बदलाव परिधि और उसके आकार में बदलाव लाता है।

समाज शास्त्र के सिद्वान्तों के अनुसार किसी भी समाज का आनुभविक (empirical ) अध्ययन एक बिंदु को केन्द्रीय मानकार चलने वाला अभ्यास होता है। इसमें उतनी ही परिधि खींची जाती है जितनी केंद्र को बनाये रखने के लिए ज़रूरी होती है । यहाँ केंद्र का महत्त्व इसलिए होता है , क्योंकि बार बार उसके बदले जाने से उस अध्ययन के निष्कर्षों पर असर पड़ सकता है।

स्पष्ट है कि केंद्र के बिन्दुओं को हिलाने डुलाने से केन्द्रीयता का महत्त्व स्वतः कम होने लगता है । परिणाम स्वरूप न सिर्फ़ उसकी परिधि बदल जाती है साथ ही उसके पूरे आकार में भी बदलाव आ जाता है।

हो न हो इस अनुभवजन्य शोध का स्रोत समाज में मुख्य रूप से मान ली गयी किसी प्रणाली में ही रहा होगा जिससे प्रत्यक्ष –अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होकर इस अभ्यास की नीव पड़ी। ध्यान से देखें तो किसी भी समाज में पौरुष और पितृसत्ता वर्षों से केंद्र के बिन्दु के रूप में स्थापित हैं। इसमें सामाजिक परिधि तभी तक महत्त्वपूर्ण होती है , जब तक केंद्र के अस्तित्व पर कोई ख़तरा नहीं महसूस किया जाए।

इस आकार में कोई भी बदलाव अराजकता और अनिश्चितताओं से भरे समाज का भविष्य होगा। इस तरह के भय से भरी बुनावट को सामाजिक स्मृति में पिरो दिया जाता है। इसके मूल में केंद्रीयता को बचाए रखने का उद्देश्य है ।

स्त्रीवाद या स्त्री अध्ययन इन्हीं बिन्दुओं के केंद्र से हटाने वाली प्रक्रिया का एक स्वरूप है । इसकी व्यापकता में दुनिया की आबादी का लगभग आधा हिस्सा आता है। दूसरे कई आख्यान केंद्र को हटाने की प्रक्रिया में इस व्यापकता में आ मिलते हैं। सभी का वैचारिक मत केंद्र की ताक़त और प्रभुत्व के प्रतिरोध में एक होकर किसी भी आकार के विरोध में खड़ा होना है । यहां निराकार रहना ही उनकी ताक़त है। यही ताक़त बायनरी के दबाव से निकले फिर से किसी और नये केंद्र के बन जाने को लेकर सचेत भी करता है। इसमें आत्म आलोचनात्मक होना सर्वोपरि है ।

स्त्री अध्ययन इस तरह समाज के पाठ को किसी एक बिंदु से देखने की दृष्टि पर भी सवाल उठाता है । वो स्त्री के पक्ष में रहकर भी दूसरे हर बिंदु और उनके चिन्तन को आत्मसात करने का सतत प्रयास करता है। वर्षों से एक केंद्र और उसकी जड़ता के प्रति वहां क्षोभ है ,साथ ही इस बात की चेतना भी है कि ताक़त किस तरह केंद्र को धीरे – धीरे मजबूत करती है । केंद्र का होना ताक़त और प्रभुत्व का साथ होना है। शायद इसलिए वहां अनेक बिन्दुओं के बनाने का संघर्ष है।

वे जानते हैं कि किसी भी प्रकार का स्पष्ट आकार जड़ता का ही प्रतीक होता है। इसको बचाए रखने के लिए कितने धार्मिक,आध्यात्मिक कर्मकांड रचे गए हैं। इन सबने मिलकर वर्षों से दुनिया को एक नैसर्गिक विभाजन का कार्यक्षेत्र बताया है । वहां जैविक और सामाजिक विवेचन की कितनी ही बार लड़ाइयां लड़ी गयीं जो आज भी जारी हैं। यह इन सबको अपने में शामिल करता समाज की केन्द्रीकृत अवधारणा का पुरजोर विरोध करता है।

स्त्री अध्ययन में निष्कर्ष से ज़्यादा उस प्रक्रिया के महत्त्व की चेतना जुड़ी होती है जो स्त्री और पुरुष के बीच किसी व्यैक्तिक लड़ाई में नहीं , सामाजिक सरंचना की लड़ाई से लड़ी जाये। वहां स्त्री ही स्त्री – दृष्टि की अकेले सिपहसालार नहीं ,पुरुष भी उससे दुनिया को नए रूप से पहचानने का माद्दा रख सकेंगे।

1.

अब प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए कि क्या स्त्री महज एक जैविक इकाई है, जिसकी सार्वभौमिक भूमिका सुनिश्चित की जा सकती है ? क्या स्त्री – दृष्टि की सरंचना किसी दो समाज में एक जैसी हो सकती है? क्या किन्हीं दो भिन्न समाज में स्त्री अध्ययन से निकला उसका स्वरूप और उसके निष्कर्ष एक जैसे हो सकते है ? क्या सामाजिक यथार्थ और स्त्री – प्रश्न एक दूसरे से सीधे- सीधे जुड़े होते है ? यह सभी प्रश्न एक बार नहीं कई बार पूछे गए हैं। वास्तव में इन्हें बार बार पूछा जाना भी चाहिए। कई बार प्रश्नों के उत्तर पर पहुंचने से ज़्यादा उनका बार बार पूछा जाना ज़्यादा जरूरी हो जाता है।

मोटे तौर पर इस तरह के प्रश्नों से उलझने में दो तरह की बातें सामने निकल कर आती हैं । पहली तो यह कि स्त्री कोई निरपेक्ष इकाई न होने के बावजूद पूरी दुनिया में एक ही जैसी सम्वेदनात्मक धारा से बंधी हुई है। यह धारा वैश्विक सिस्टर हुड के महासागर में छोटी – छोटी जलराशियों के समान है। इनका अस्तित्व अलग – अलग होते हुए भी एक ही में विलीन हो जाना है।

दूसरा , स्त्री को केंद्र में रखकर किया जाने वाला कोई भी अध्ययन संस्कृति के प्रश्नों से बिना उलझे कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं रख सकता। वास्तव में, संस्कृति अपने भीतर लैंगिग भेद को बड़े ही पेचीदगी से आत्मसात किये रहती है। वहां कई बार प्रश्नों में ही उलझाव पैदा हुआ देखा जा सकता है कि वह असल में समाज की संस्कृति पर केन्द्रित है या उसके अन्दर पनपे किसी विभाजन को लेकर ।

इस तरह इन दोनों ही की मानें तो स्त्री से जुड़े हुए किसी भी प्रश्न का जितना आधार वैश्विक होगा ,उतना ही वो अपने सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इनके उत्तर तलाशेगा ।

इस बात को यहाँ कहने की ज़रूरत इसलिए भी है क्योंकि स्त्री – अध्ययन के दौरान इस तरह के प्रश्नों से बार बार सामना होता रहता है । अगर इन प्रश्नों को नज़रअंदाज कर दिया जाये तो यह पूरा चिंतन बिना किसी आधार के गोल गोल घूमता रह जाता है। उदाहरण के लिए , कि क्या भारत का स्त्रीवाद यूरोप –अमेरिकन यानि पश्चिम जैसा है या उसमें भारतीय- विशेष जैसा कुछ होना चाहिए? यह एक आधारभूत सवाल है । उसी तरह क्या भारत के स्त्रीवाद की वर्गिकी साथ ही उसकी सरंचना दूसरे- तीसरे देशों के विमर्शों से प्रभावित होनी चाहिए या उसे भारतीयता के बोध के बीच से ही अपना पाठ व अपनी शब्दावली तलाशनी होगी ?

वैश्विक और स्थानिकता की जद्दोजहद के अलावा एक और स्त्री चिन्तन से जुड़ा पक्ष भारतीय संदर्भों में उठाया जाता है। यहाँ भारत के भीतर की स्थानिकता और उसकी क्षेत्रीयता का प्रभाव महत्त्वपूर्ण रूप से देखा गया है।

वास्तव में,भारतीय समाज में स्त्रीवाद और स्त्री विमर्श इस देश की अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण किसी एक केंद्रीय बिंदु के आसपास अपनी बात नहीं रख सकते। इस बात को कहने के पीछे भारत का अपना उपनिवेशीय यथार्थ और उससे जुड़े अनुभवों की एक लंबी फेहरिस्त है जहाँ प्रतिरोध और उसी के मध्य रास्ते तलाशे गए।

इस बात को बार बार कहा जाता रहा है कि ,चूंकि भारतीय समाज में धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर स्त्रियों की स्थिति बेहद अलग है, यहाँ किसी भी पश्चिमी सैद्वांतिकी को ऐसे के ऐसे लगाकर इस समाज की जानकारी नहीं मिल सकती।

दूसरे शब्दों में पश्चिमी सिद्धांतों के सहारे लग कर किसी भी दृष्टिकोण को जिसे उत्तरउपनिवेशवाद के सिद्धांतकारों ने भारतीय समाज पर लगाकर देखने की कोशिशें भी की हैं वो भारतीय समाज के लिए नाकाफी है।

यह बात तो हो गयी जिसे उत्तर उपनिवेशी सिद्धांतकारों (बाद में ही सही),से लेकर भारतीय विशेषज्ञ सभी कहते आ रहे हैं। लेकिन प्रश्न यह भी है कि फिर उसके बाद क्या?

यहाँ इस प्रश्न को ही दो भाग में विभाजित किया जा सकता है। पहला तो यह कि, अगर पश्चिमी सिद्धांतों की परिधि में भारतीय समाज को समझने की दृष्टि और परिकल्पनाएं किसी भी अर्थ को जन्म नहीं देतीं तब या तो यह माना जा सकता है कि वैश्विक परिकल्पनाएं एक हद तक वैश्विक न होकर स्थानीय ही होती हैं या उनका आकार और अर्थ उसे किसी एक समाज में ही अपना अर्थ खोजने की जगह देता है,या यह सीमित अर्थों में ही अपनी उपयोगिता पाती है।

ऐसे में भारतीय अनुभवों से जुड़े हुए सिद्धांतकार उस अधूरे अर्थों को भर सकते हैं जहां अनुभव उसे वैश्विक सिस्टर हुड की परिकल्पना में अपनी स्थिति स्पष्ट करने में सहायक हो सकता है।
दूसरा, इससे निकला अर्थ एक ऐसी विपरीत परिस्थिति को जन्म देता है जहां पश्चिमी सिद्धांत भारतीय संदर्भों में सिर्फ़ अधूरे ही नहीं बल्कि विपरीत अर्थ समेटे माने जा सकते हैं।
यहां गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक की बात की जाये तो पश्चिमी स्त्रीवाद की परिकल्पनाएं भारतीय समाज को बिलकुल ऐसे समझने की कोशिश करती हैं जैसे वो एक सजातीय समाज हो। जहाँ कोई भी भेद किसी भी परिभाषा को प्रभावित नहीं करता। इस तरह पश्चिमी समाज की भाषा और सैद्धांतिक अवयवों में भारतीय स्त्री का यथार्थ वो बनाया जाता है जिससे उस स्त्री का ही कोई सरोकार नहीं रहता ।
ऐसे में अगर स्पीवाक विशिष्ट भाषा और कठिन शब्दों से भारतीय स्त्री के यथार्थ को समझने का काम सिर्फ़ इसी लिए कर रही हैं क्योंकि ऐसे कर वो पश्चिमी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की सरल और सहज भाषिकता का प्रतिरोध कर रही हैं । तब यह सिर्फ़ उत्तर उपनिवेशवाद के विखंडन से उपजी एक विधि है ,यह प्रतिरोध का एक रास्ता हो सकता है। लेकिन यह भारतीय यथार्थ से बिना जुड़े सिर्फ़ अकादमिक रिटोरिक भर ही रह जाते हैं जिसके आगे सोचा जाना चाहिए।
बात शायद ये नहीं होनी चाहिए कि किस सिद्वांत या परिभाषा को छोड़ा या किसे अपनाया जा सकता है। बात ये होनी चाहिए कि भारतीय संदर्भ में किन सिद्वान्तों को दुनिया के दूसरे भागों से लेकर यहां के सवाल को ध्यान में रखकर उसे समझा जाए। इसके लिए जितना उत्तर- उपनिवेशवाद की सैद्वान्तिकी ज़रूरी है ,उतना ही भारतीय सन्दर्भों में जाकर यहाँ के सामाजिक सांस्कृतिक रूपों का अध्ययन एक ज़रूरी प्रक्रिया है ।वाकई में यह कोई वस्तुगत प्रयास या कोई कार्यप्रणाली नहीं है। फिर भी स्त्री अध्ययन को समग्रता में देखने के लिए इसकी प्रत्येक प्रक्रियाओं पर दृष्टि जानी ज़रूरी है।
कहने की आवश्यकता नहीं ,कि भारतीय स्त्री के सन्दर्भ को न ही सिर्फ़ यूरोप ,अमेरिका बल्कि चीन, अफ्रीका , ईरान और बाकि दुनिया के सभी देशों के साथ उनकी लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया में देखे जाने की ज़रूरत है । भारत में रहने वाली स्त्रियां न सिर्फ अफ्रीका ,मध्य एशिया और अन्य दूसरे देशों की स्त्रियों से बहुत कुछ सीख सकती हैं। उनके साथ वे अपने सम्बन्ध राजनीतिक शब्दावलियों द्वारा दिए गए पदानुक्रम के प्रथम , द्रितीय और तीसरी दुनिया के खांचों से पार ले जाने में भी सक्षम हैं। होने को तो यह भी संभव है कि विभिन्न देशों के संस्कृति के सवाल भिन्न होकर भी स्त्री की केंद्रीय अवधारणा की समझ के साथ इन सभी समाजों की अंदरूनी प्रक्रिया से एक बड़ा स्वर और बड़ी दृष्टि बनाने में सक्षम हो सकें ।
अगर इंटरसेक्शन की ही बात की जाये तो वो वैश्विक स्तर के होने के अलावा लोकल को भी उतना ही ज़रूरी मानेगी। इसमें किसी भी पहले से बनाये गए पदानुक्रम और उनकी व्यावहारिक उपयोगिता से निर्मित मापदंडों का प्रतिरोध किया जाना चाहिए। बिल्कुल उसी तरह कथात्मक इतिहास ( Narrative history) से भारतीय स्त्रियों की बहुत सी छूटी हुई बातें क्रम में सामने लायी जा सकती हैं।
वैश्विक बहनापे के रटे रटाये मुहावरे से आगे बढ़कर भारतीय स्त्री की उसी के परिवेश से जुड़ कर ही किसी भी वैश्विक सन्दर्भ में दखल होनी चाहिए। भारतीय संदर्भ में इसके लिए बिना परिवार की संस्था के भीतर जाये सामाजिक ढांचे की आधी अधूरी ही जानकारी हो सकती है। वास्तव में परिवार की अवधारणा,और उसका क्रमिक विकास स्त्री पुरुष के मध्य सम्बन्धों की सबसे गहरी जड़ों को भारतीय यथार्थ में बेहतर रूप से दिखाने में सक्षम है । उसी के निरंतर प्रक्रियात्मक बाहरी व भीतरी तत्वों से एक लम्बी शुरुआत की जा सकती है।
सिर्फ़ भारत में ही नहीं पूरे विश्व में स्त्री अध्ययन के संदर्भ में परिवारों के अंदर देखे जाने की ज़रूरत है। परिवार की संस्था एक स्थाई रूपक के तौर पर स्त्री और पुरुष के मध्य किस प्रकार संबंध स्थापित करती है इसका एक ऐतिहासिक पाठ होना आवश्यक है। यह संस्था पहले उपनिवेशवाद और फिर बाज़ार के विस्तार से किस प्रकार समाज की प्रत्येक प्रणाली को प्रभावित करती रही है इसको भी विकासवादी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के संदर्भ में भी भारतीय परिवारों में स्त्रियों के प्रति सामाजिक – राजनीतिक समझ को आज के समय से जोड़ कर देखने की ज़रूरत है। ध्यान में यह भी रहे कि परिवार सिर्फ़ एक सांस्कृतिक और सामाजिक इकाई की तरह न माना जाये जिसे कुछ अनुशासन तक सीमित रख इसका हमेशा से राजनीतिक अवमूल्यन होता रहा है। यह जरूरत इसीलिए भी है क्योंकि जिस सामाजिक व्यवस्था को हम इतना अनुकूलित मान उसे अपने जीवन से जुड़ा हुआ मान बैठे हैं , हो सकता है कि उसी व्यवस्था को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने से स्त्री पुरुष के संबंध और बेहतर रूप से समझ में आने लगें ।

2.

स्त्री चिन्तन का एक ऐसा पक्ष भी है , जो केंद्र की अवधारणा को बचाए रखने वाले टूल से ही उसको चुनौती देता है। वास्तव में, समाज में व्याप्त असमानता को बनाये रखने वाले तत्वों में कुछ इस तरह इस पूरे सामाजिक तंत्र में रचे – बसे हुए है,जिन पर अलग से विचार करना उन्हीं का प्रयोग करना है।भाषा इसका बड़ा उदाहरण है। स्त्री चिंतन के लिए यही भाषा और उसका स्वरूप एक बड़ा प्रतिरोध का साधन बनता है ।

भाषा न सिर्फ़ सामान्य जीवन के क्रम को आकार दे सामाजिक अभिव्यक्ति की रचना करती रही है । इसको सभ्यता और केन्द्रीय अवधाराणाओं के बड़े से फसाद में सैद्वान्तिक रूप से जटिल और बौद्धिक समाज बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

किसी भी समाज में भाषा , संप्रेषण से शुरू करती हुई अपनी राह बौद्धिक तबकों में सिद्धांतों की निर्मिति तक पहुँचती है। इस प्रक्रिया का कोई सीधा या अनुमानित रास्ता नहीं होता और न ही यह कोई तटस्थ भाव से संचालित हो सकता है।

सामान्य तौर पर देखें तो भाषा समाज की संप्रेक्षित प्रणाली है ,जिसे वह अपने कंधों पर साथ लिए हुए समाज की भीतरी हलचलों को दर्ज करती है । यह एक दोहरा रिश्ता है। हालांकि प्रत्येक समय भाषा और उससे आधार पाती सैद्धांतिक अभिव्यक्ति लगातार घर्षण में व्यवस्थित रहती है। इसमें भाषा और उससे ही निकली सैद्वान्तिकी , साधारण और बौद्धिक विमर्शों के भेद के कारण एक दूसरे से अलग – अलग दिखाई पड़ते हैं।

किसी भी समय के समाज के लिए शायद यह दूरी व उससे उपजे मापदंड ही सामाजिक स्तर पर संवाद की आवाजाही को सुनिश्चित करते हैं।

सामाजिक अध्ययन के कई पाठ में भाषा के इस द्वंद्ध की समझ विकसित नहीं की जाती है। साधारण और बौद्धिकता का विभाजन इतना बड़ा होता जाता है जिसे पाटना किसी के लिए भी एक चुनौती बन जाता है।

ऐसे में किसी भी समय की सैद्वान्तिक निर्मिति और भाषा की लोकायत परंपरा पर ध्यान देने से उन दोनों के मध्य हुए प्रवाह को समझा जा सकता है।यह जानते हुए भी कि इस प्रवाह को एक सीधी रेखा से नहीं जोड़ा जा सकता है । साथ ही यह एक प्रवाह की तरह लगातार बने रहने के लिए कोई ठोस आधार की भी पुष्टि नहीं करता। उसके बावजूद इसे देखना बहुत ज़रूरी है ।

विज्ञान में भी भाषा और उसकी सैद्वान्तिक अवस्थिति की कई बार अतिरेक में बदल जाने पर बात होती रहती है। सामाजिक आवश्यकता के नाम पर जब कोई खोज या अविष्कार, सिद्धांत और उसकी प्रक्रिया में अपनी जगह बनाते हैं तब हमेशा ही उन की भाषा और उसकी सामाजिक उपयोगिता पर सवाल उठता है। यह उपयोगवाद से जुड़ता हुआ संबंध है ,जहाँ भाषा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

किसी भी समाज में वही(भाषा) उपयोग से पहले किसी भी वस्तु की उपयोगिता ज़मीन पर खड़ी कर सकती है । इसमें जितनी भूमिका उस समाज के वर्गीय चरित्र की होती है उतनी ही या उससे ज़्यादा ही भाषा पर आश्रित होते सामाजिक संबंधों की सैद्वान्तिकी पर होती है । शायद इस तरह सैद्धांतिक निर्मिति भी रिवर्स तरीके से समाज पर केन्द्रित होती जाती है।

इसमें समाज व दुनिया को किस चीज़ की ज़रूरत है, यह सवाल जरूरी नहीं रह जाता । बल्कि किस ज़रूरत को समाज पर थोपा जाए,उसकी कोशिशें आधारभूत होती हैं। विज्ञान के अंदर हुई इस तरह की कोशिशें और साथ ही उसके इस तरह के सामाजिक-सैद्वान्तिक अंतर्विरोधों को भाषा के आधार पर समझने की कोशिशें पूरे बीसवीं शताब्दी में चलती रहीं। यह बिल्कुल ऐसा है जहाँ समाज और उसी के लिए बनता सिद्धांत एक दूसरे में ही अपनी जड़ें खोज रहा है। इसी प्रक्रिया से एक नयी अनजान और अजनबी भाषा अपने आकार ग्रहण करती दिखती है।
भाषा के इस तरह के अतिरेक रूप ने न जाने कितने अध्ययनों को सामाजिक पृष्ठभूमि से बेदखल कर दिया। प्रतिरोध दर्ज करने की भाषा शुद्ध वैचारिक खानों में रखी जाने लगी ,और सामान्य जीवन की भाषा का उससे कोई संवाद का रास्ता नहीं बचा ।

जड़ों से कटी वैचारिकता और बौद्धिक विवेचन से स्त्री अध्ययन जैसे गहरे और गंभीर विषय को समाज अपनी अकादमिक और अतिविशिष्ट बौद्धिक सीमाओं से पार जाकर वास्तविक दुनिया से जोड़ ही नहीं पाया।

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस तरह की सीमाओं को पहचाना नहीं गया।

उत्तर उपनिवेशवाद व सबाल्टर्न विमर्श भाषाई बौद्धिकता के प्रतिरोध करने की बात करते हैं। यह अलग बात है कि यहाँ कभी भी भाषा को लेकर उनके बौद्विकों में ही आपस में कोई विशेष सहमति नहीं रही । लेकिन यहां भाषा एक बड़ा रूपक है जो दिन प्रतिदिन के प्रतिरोध को दर्ज़ करने की बात करता है।

इसमें माना जाता है कि भाषा के माध्यम से हर उस प्रतिरोध की बात ज़रूर होनी चाहिए जो समाज की केन्द्रीय गतिकी का आधार है। यह पाठ विशिष्ट और बौद्धिकता की सीमा के पार जाने में सक्षम हो । इसका कारण यह है कि सबाल्टर्न वैचारिकता में दिन प्रतिदिन जैसे व्यवहारिक अवयवों की बात की जाती है। वे जानते हैं कि वहां भाषा की व्यावहारिकता सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिए ।
यह ज़रूर है कि इस व्यावहारिकता का आधार समाज के प्रत्येक हिस्से को कितना संप्रेषण देता है,उसपर प्रश्न हमेशा से लगता रहेगा।अब ऐसे में व्यावहारिकता और उसकी संशिलिष्ट सैद्धांतिक अभिव्यक्ति द्वंद्ध में रहने को क्यों अभिशप्त होती है , इसपर विद्वानों ने कितना ध्यान दिया और कितना नहीं , इसपर बहस लंबी चल सकती है।

3.

अंत में कहा जा सकता है कि भारत के सन्दर्भ में स्त्रीवाद या स्त्री अध्ययन किसी एक अवयव पर निर्भर नहीं है। यहाँ सिर्फ़ इसके कुछ बिन्दुओं को रखने का प्रयत्न किया गया है ,जिसके विस्तार में स्त्री अध्ययन और स्त्री चिन्तन अपनी जडें खोजता है। उसको भारतीय समाज की जटिल सरंचना के साथ साथ वैश्विक तौर पर हर उस क्रिया के समक्ष अपनी चुनौती पेश करनी होगी जिसने अभी तक स्त्री के असमान सन्दर्भों को सामाजिक सरंचना की आधारभूत प्रणाली मान उसे बेहद सामान्य मान रखा है। इसमें भारतीय परिवार का सामाजिक चरित्र किस तरह इन बीते वर्षों में बदला है उसे देखना महत्त्वपूर्ण है। पूंजीवाद के बढ़ते और बदलते रूपों ने स्त्री पुरुष के संबंधों को किस तरह गहरे से प्रभावित किया ,उसकी भी बारीकी से पड़ताल होनी चाहिए। यह कहना कि भारतीय स्त्री – दृष्टि को सिर्फ़ भारतीय वृत्त में समझने की कोशिश करनी चाहिए जिसके विरोध में या बाइनरी में वैश्विक दुनिया है ,अपने आप में एक संकुचित विचार है।
जो लोग भारतीय और भारतीयता की सीमित अवधारणा में ही स्त्री चिंतन को समझने की वकालत करते हैं उनकी इन दोनों विचारों से जुड़ी समझ की भी पड़ताल करनी आवश्यक है । बायनरी में रखी गयी कोई भी दलील या परिभाषा सिर्फ़ वैचारिक संकुचन का ही पर्याय बनता जाता है। जरूरत है इस भारतीय बनाम पश्चिमी बायनरी से निकलकर ,स्त्री बनाम पुरुष बायनरी से बढ़कर एक ऐसी दृष्टि की जिसमें बायनरी की कट्टरता के विरोध में अनेक रास्ते निकलते हों ।

क्या पता इन्हीं रास्तों से गुज़रकर भारतीय समाज समग्रता में अपने समाज, उसके इतिहास और वर्तमान को समझने की कोशिश करे जिसमें स्त्री – दृष्टि और उसका चिंतन एक महत्त्वपूर्ण भूमिका में रहकर अन्य कई दूसरी दृष्टियों के साथ , मिलकर भविष्य का निर्माण कर सकें।


रूबल

उत्तराखंड के देहरादून में जन्मी रूबल हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लिखती हैं. उनके लेखन के केंद्र में गांधी और साम्राज्यवाद है. इन दिनों वे गांधी के चिंतन में स्त्री दृष्टि की पड़ताल कर रही है. फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया विषय पर उन्होंने जेएनयू से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. फिलहाल केरल के एक कस्बे में रहते हुए वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. rubeljnu21@gmail.com

 


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