श्रुति कुशवाहा समकालीन काव्य परिदृश्य में एक ज़रूरी काव्य शख़्सियत हैं। श्रुति आज के अँधेरे समय को प्रश्नांकित करती हैं जहां आथिॅक विषमता में पिसते इंसान हैं। इसमें सिर्फ़ डरी और निर्भय स्त्रियां ही नहीं, अभागे , हारे पुरुष हैं जो चेतनाहीन हैं, जागना उनके हिस्से में नहीं। श्रुति की कविताओं में एक ग़ुस्सा दीखता है जो इस दी हुई तल्ख़ दुनिया के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करता है जो उनकी दृष्टिसम्पन्नता का द्योतक है। यहां विविध रंगों की कविताएं हैं , कवित्त से भरपूर जो सुलाना नहीं , अपितु जगाने में भरोसा जताती हैं कि अंधेर का तिलिस्म टूटेगा, ज़रूर टूटेगा। -हरि भटनागर
कविताएँ :
• कविता
मेरी भाषा की शुरुआती कविता उन घुँघरुओं ने सुनाई
रोती बच्ची को बहलाने जिन्हें खनकाया गया था
एक लंबी कविता उस झूले ने रची
जिसकी गोद में कुछ बरस बिताए
मेरी भाषा की बेहद सुंदर कविताएँ
मिट्ठू, खरगोश और बिल्लियों ने सुनाई
जो शब्दों से पहले मेरे साथी बने
मेरी भाषा समझकर एक पौधे ने हुंकारा भरा
और एक फूल मेरी ओर बढ़ा दिया
र से रंग पढ़ने से पहले
प से पीला जानने से पहले
मैंने आम के चित्र में रंग भरा
रंगों ने मुझे कविता का सौंदर्य दिया
अक्षरज्ञान से पहले मैंने माँ की खुशबू पहचानी
और पिता की गोद में सुनी
संसार की सबसे सुंदर प्रेम-कविताएँ
मेरी तुतलाहट के प्रत्युत्तर में उनकी मुस्कान
आज भी मेरी भाषा की सबसे विश्वसनीय कविताएँ हैं
मेरी भाषा का पहला कवि
एक पेड़ है
जिसने बताया
आसमान की ओर देखते हुए
जड़ों को याद रखना ज़रूरी है
मैंने पत्थर से सीखी पानी की कविताएँ
• एक दिन
एक दिन
आसमान से फूल बरसेंगे
और धरती पर गिरने की बजाय
तुम्हारी झोली में समा जाएँगे
तुम्हारी झोली
जो पहले ही भरी होगी
अनाज और उम्मीद से
एक दिन
सारे धर्मगुरु
धर्मस्थलों के अहाते में चलाएंगे स्कूल
जहाँ बच्चे सिखाएंगे सही तरह बड़ा होना
एक दिन
सारे बच्चे
समाज की साझा ज़िम्मेदारी होंगे
सभी अनाथालय गिरा दिए जाएँगे
एक दिन
रात बंद ताले सी न होगी स्त्री के लिए
उसी के पास होगी उसकी सारी चाबियाँ
एक दिन
खामोशियों से पनपे सन्नाटे नहीं होंगे
चुप्पी से उपजे वीराने नहीं
बौने नहीं पैदा होंगे सपने
वक्र नहीं होगी मुस्कानें
तिर्यक नहीं होगी दृष्टि
सब होगा सही अनुपात में
एक दिन हम मनुष्य होना सीख जाएँगे
• सुख को भी दुख होता है
मैं सुख की कविता लिखना चाहती थी
सबसे पहले नींद की गोली खाई
फिर सारे रंग सारी खुशबुएँ समेटी
रेगुलेटर से मौसमों को सँवारा
हल्की बारिश की, रूमानी अंधेरा
लैवेंडर परफ्यूम छिड़का
सारेगामा पर कुमार गंधर्व गा उठे
“साँवरे आई जइयो, जमुना किनारे मेरो गाँव”
और मैं जमुना खींच लायी अपने घर के आगे
खूब सारे पेड़ खूब पंछी
रंग बिरंगी तितलियाँ
कुछ फूल पर कुछ कलाई पर
फिर उठा लिये सबसे प्रेम वाले दिन
दो चाय के प्याले और हज़ारों बातें
कई किलोमीटर लंबी खामोशी
मान मनुहार ताने उलाहने
बच्चों की खिलखिलाहटें सुन
कविता और सुख से भर गई
सब सुख में पगा था
सब सुख में डूबा
मैंने इस सुख को मोड़कर सहेज लिया
कि अचानक सुख ने उचककर बाहर झाँका
फिर जाने क्या हुआ
सुख फफककर रो पड़ा
मैंने बहुत कोशिश की
लेकिन सुख तबसे लगातार रो रहा है
मैं एक बात जान पाई हूँ
सुख को भी दुख होता है
• छूटना
कुछ न कुछ छूट जाता है हमेशा
प्याली में घूँट भर चाय
तश्तरी में थोड़ी तहज़ीब
कितना भी पकड़ो कोई लम्हा छूट ही जाता है
छूट जाती है मेरे मन में याद तुम्हारी
बिल्कुल जैसे तुम्हारा चश्मा छूटता है
मुझसे अक्सर छूट जाता है मेरा मन
जाने कहाँ बिसराकर
खोजती फिरती हूँ दूसरों के मन में
अक्सर सुबह झाडू लगाती सरोज
घर बुहारकर उठा लाती है कहीं से
देती है ताना
‘दीदी आप भी जाने कहाँ छोड़ आती हो
अभी कचरे में जाता तो मन बिना कैसे रहती’
मैंने उसे कभी नहीं कहा
दुनिया मन से कहाँ जी पाती है
जीने के लिये मन छोड़ना ही पड़ता है
छूटने के क्रम में
छूट जाती हैं उम्र की समझदारियाँ
उम्र के निशान रह जाते हैं
हमारी कमियाँ नहीं छूटती
छूट जाती है बेहतरी की संभावनाएँ
मैल रह जाता छूट जाती है सफ़ेदी
मैं ख़ुद को क़ैद कर लेती हूँ किसी विचारधारा में
और रौशनी की हर गुंजाइश छूट जाती है
तुम्हें बुरा ख़ुद को अच्छा साबित करने में
ज़िद रह जाती है प्रेम छूट जाता है
हमारे इंसान होने में कुछ न कुछ छूट जाता है हमेशा
मेरे कान जब नाम में सुनते हैं मज़हब
आँखें आदमी में टटोलती हैं कुर्सी
लालबत्ती पर कुछ हाथ फैलाए बच्चे
जब मैं फेरती हूँ अपना चेहरा
ठीक-ठीक मनुष्य होने में बहुत कसर छूट जाती है
उसी वक़्त छूटती है ख़ुद से नज़रें मिलाने की ताक़त
छूटना अगर कोई नियम है तो
मैं चाहती हूँ मुझसे ये नियम छूट जाए
• ज़िम्मेदारी
मैं लिखती तो हूँ सूरज
लेकिन इस लिखने में उजास और ताप नहीं ला पाती
लिखती हूँ रात
लेकिन नीरवता नहीं आती
फूल लिखने पर भी नदारद रहती है खुशबू
रंग लिखने पर भी कोरा रहता है कागज़
लिखती हूँ आँसू
लेकिन कलम की कोर नहीं भीगती
नींद लिखने पर भी बोझिल नहीं होतीं पलकें
सपना लिखने पर नहीं होता नशा
नशा लिखने पर नहीं झूमता मन
मन लिखने पर नहीं होता दर्द
मैं लिखती तो हूँ प्रेम
लेकिन प्रेम कहाँ आता है मुड़कर
इतना लिखने पर भी जब कुछ नहीं होता
तो मैं इन्हें एक कविता में पिरो देती हूँ
और अचानक ही
सारे शब्द मुस्कुरा उठते हैं
देखिए..कितनी ज़िम्मेदारी है कविता के कंधों पर
• दुनिया सुरक्षित है
स्वर्ग से निकाल दिया गया है फरिश्तों को
धरती से खदेड़ दी गई हैं औरतें
बम विस्फोट में बचे बच्चे अब बेघर शरणार्थी हैं
सारे पेड़ कागज़ों में तब्दील हो चुके हैं
हिरण की खालें जैकेट बन टंगी है मॉल में
नदियाँ अपने उद्गम स्थल पर वापस लौट चुकी हैं
सारी ऑक्सीजन सिर्फ आग लगाने के काम आ रही है
गूँगे विश्वविद्यालयों में सिखाया जा रहा है संगीत
सबसे बड़े म्यूज़ियम में शीशे के जार में बंद है प्रेम के अवशेष
दुनिया अब पूरी तरह सुरक्षित है
• नियम
फिर यूँ हुआ कि सारे नियम पलट गए
अब सबसे भ्रष्ट लोग राजनीति में मिसाल बने
फ़र्ज़ी बाबाओं के मंदिर बनाए गए
दफ़्तरों में लगी अपराधियों की तस्वीर
जिन्होंने चोरी की उन्हें प्रमोशन मिला
चौराहे पर डाका डालने वालों के बुत लगे
रिश्वत को इज़्ज़त मिली और वेतन अश्लील करार हुआ
गालियाँ नारों में बदल गई
इस व्यवस्था में हथियार खिलौने बन गए
दुष्कर्म में तब्दील हुआ प्रेम
घुट्टी में पिलाई जाने लगी अफ़ीम
चीख को अब संगीत का दर्ज़ा मिला
और सबसे ख़तरनाक अपराधियों को राजनीति में संरक्षण
अब स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा राष्ट्रीय अपराध पाठ्यक्रम
लड़कियों को छेड़ना नेशनल गेम घोषित हुआ
बच्चों को ख़ूँख़ार डाकुओं की कहानियाँ सुनाई गई
धर्म बिकने लगा बाज़ार में
किसी की मदद करने पर तय हुआ जुर्माना
प्यासे को पानी पिलाना रेयर ऑफ द रेयरेस्ट क्राइम माना गया
इस नई दुनिया में सब बढ़िया चल रहा था
तभी एक आदमी ईमानदारी के जुर्म में रंगे हाथों पकड़ा गया
• मखमली भाषा
कुछ लोगों के पास मखमल की भाषा थी
उन्होंने थोड़ी खादी मिलाकर इसे राजनीति की भाषा बना दी
खद्दर की भाषा में बात करते करते
कुछ लोग कुर्सी की भाषा तक जा पहुँचे
कुछ फिर भी निरे सूत से कच्चे थे
उनकी भाषा कच्ची भले हो, सच्ची थी
वहीं कुछ बहुत कोशिशों पर भी नायलॉन ही बने रहे
रेशमी भाषा वाली ज़हीन ध्वनियाँ मद्धम होती गईं
जालीदार भाषा वाले अचानक बढ़ गए
ये जल्द आते और बहुत जल्द छन जाते
कुछ ऊनी भी थे जो बीच बीच में भर जाते ऊष्मा
कुछ भाषाएँ हमेशा टाट की तरह रही
उबाऊ लेकिन भरोसेमंद
भाषाओं की अपनी बुनावट थी अपने रंग
भाषा केवल शब्द अर्थ नहीं
भाषा की त्वचा भी थी
भाषा का व्यापार भी था
ख़बर तो ये भी है कि
भाषा और कपड़ों के विशेषज्ञ एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़े थे
• अंधेरा
अंधेरे के साथ सोना इस तरह जुड़ा रहा
कि रात होते ही माएँ बच्चों को थपकियाँ देने लगती
जबकि अंधेरे समय में सबसे ज़रूरी था जागना
सोकर अंधेरा काट तो सकते हैं
मिटा नहीं सकते
सबसे घने अंधेरे सबसे मीठी नींद लेकर आए
ये रोशनी के ख़िलाफ़ उनकी साज़िश थी
हमने नींद को ढाल बना लिया
अंधेरे को आदत
जागना बनिस्बत चुनौती था
जागने के अपने ख़तरे थे
अंधेरे में जागने वाले अल्पसंख्यकों में गिने गए
सोये हुए समाज ने इन्हें हमेशा संदेह से देखा
अंधेरे ने नींद का नियम लागू किया था
रोशनी की खोज में जागे लोग अपराधी साबित हुए
अंधेरे समय के दिनों में भी इतना अंधकार था
कि जागने वालों को देश विरोधी घोषित किया गया
सोये हुए लोगों ने मिलकर उनके ख़िलाफ़ वोट किया
कालांतर में सोये हुए लोगों की सरकार बनी
• हारे हुए लोग
हारे हुए लोग आखिर कहाँ जाते हैं
जो अपने आखिरी इंटरव्यू में हो गए फेल
जिनकी छुट्टी की अर्ज़ी नामंज़ूर हो गई
जिन्हें एडवांस देने से मना कर देता है बॉस
जो पूरा नहीं कर पाते बच्चों से किया वादा
वो जो मीटिंग में सबसे कोने में बैठते हैं
जिन्हें कभी नहीं मिला प्रमोशन
जिनकी मुट्ठी भर तनखा से न ज़रूरतें पूरी होती न इच्छाएँ
वो जो घर में सबसे नाकारा घोषित हो चुके हैं
या वो जिनकी अपने पति से कभी नहीं बनी
जिनकी तुलना होती रही दूसरी स्त्रियों से
वो भी जो अपनी पत्नी को कभी न भाए
जिन्हें अपने ही घर में मिली दुत्कार
पिता के तानों में नालायक कहलाए
बच्चों की नज़रों में नाकाबिल
कहाँ जाते हैं प्रेम में छले हुए लोग
जिन्होंने कर्ज़ लिया और चुका नहीं पाए
सालोंसाल करते रहे एक नौकरी के लिए जद्दोजहद
जिस भी धंधे में हाथ डाला डूब गया
जो पुश्तैनी ज़मीन बिकने का कारण बने
वो जिनके बच्चे दूसरों को तकते रहे हसरत से
जिनकी बीवियों ने दो जोड़ कपड़ों में गुज़ार दी उम्र
परिवार में जिनकी राय कभी नहीं ली गई
जो दिखना ही बंद हो गए घरवालों को
जिनके हिस्से आए मकान के सबसे अंधेरे कमरे
सबसे ठंडा खाना
जिनके लिए किसी ने नहीं बनाई पसंद की सब्ज़ी
वो जो देर रात भी घर न आएं तो किसी को परवाह नहीं
जिन्हें आस पड़ोस वाले देखते हैं हिक़ारत से
ऐसे लोग जिन्हें दुनियावी तराज़ू पर तौला गया
रुपए-पैसे-पद से हुआ हार जीत का तक़ाज़ा
जो इस बाज़ार में खोटे सिक्के कहलाए
होकर भी रहे गुमशुदा
जिन्हें किसी ने नहीं तलाशा
ऐसे लोग आखिर जाते कहाँ हैं
जिनका किसी को इंतज़ार नहीं
• स्त्री धर्म
मेरे पास ढेर किताबें हैं
उनमें से कई पढ़ी भी नहीं अब तक
मेरे आसपास हैं ऐसी तमाम लड़कियाँ
जो अपनी मर्ज़ी से ख़रीद नहीं पाती किताबें
घरवाले ज़ेवर तो दिला देते हैं किताबें नहीं
मैंने देखी हैं ऐसी स्त्रियाँ जो रातों से डरती हैं
जिनके साथ हर रात होता है वैवाहिक बलात्कार
मैं ऐसी स्त्रियों को भी जानती हूं
जो खुलकर करती हैं अपनी यौनिकता पर बात
अपनी कामनाओं को लिखती और जीती भी हैं
जिन्हें रत्ती फ़र्क़ नहीं पड़ता कौन क्या कह रहा है
ऐसी तमाम लड़कियाँ जो बाध्य हैं कहीं न कहीं
और ऐसी भी जो सबको धता बता उड़ रही हैं उन्मुक्त
वो जो हिजाब ओढ़े हैं या सिर पर है लंबा घूंघट
या जो पहने हैं मिनी स्कर्ट
सीने पर है भारी दुपट्टा
वो जो समंदर किनारे टू-पीस में कहकहे लगा रही हैं
या सब्जी का थैला भर धीमे क़दमों से लौट रही हैं घर
वो स्त्रियाँ जो साथी कवि के कंधे पर धौल जमा कान में फुसफुसाती हैं कुछ
और लगाती हैं ठहाके
वो जो खुलकर करती हैं चुहल
जिनके आने से आती है रौनक भी और कुछ चेहरों पर तनाव भी
जिनसे डरते हैं कुछ, कुछ करते हैं ईर्ष्या
वो जो अब पीछे की कुर्सियों पर नहीं बैठतीं
ख़ुद बढ़कर मिलाती हैं हाथ
या वो जिन्हें अब तक मिली ही नहीं कोई कुर्सी
वो जो चाय बनाती हैं
वो जो जाम उठाती हैं
जिनकी चरित्रावली लिखने में मशग़ूल हैं कुछ लोग
वो जो बाख़बर हैं लेकिन बेपरवाह
जिन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता कौन क्या कह रहा है
या फिर वो जो ज़रा सी आहट पर सहम जाती हैं
कोई कोना मिलते ही रोने लगती हैं बेआवाज़
वो भी जो भरे मंच से लगाती हैं हुंकार
और वो भी जिसके मुँह से आवाज़ तक नहीं निकलती
मैं इन्हीं के बीच हूँ कहीं
और इनके साथ भी
यही मेरा स्त्री धर्म है
श्रुति कुशवाहा
जन्म 13 फरवरी को भोपाल, मध्यप्रदेश में।
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल, वर्ष 2001)।
वर्ष 2025 में दूसरा कविता संग्रह ‘सुख को भी दुख होता है’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित।
पहला कविता संग्रह ‘कशमकश’ वर्ष 2016 में मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित । वागीश्वरी पुरस्कार , कादंबिनी युवा कहानी पुरस्कार और अचला सम्मान से सम्मानित – पुरस्कृत।
हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, भोपाल में विभिन्न न्यूज़ चैनल में काम करने के बाद अब गृहनगर भोपाल में डिजिटल मीडिया में कार्यरत।
ई-मेल : shrutyindia@gmail.com
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बहुत बहुत धन्यवाद सर आपका। आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मायने रखती है। पुन: आभार।
ताज़गी और सादगी की कविताएं।इनमें अव्यक्त अंतःलोक की ध्वनियां हैं।
विशुद्ध रुप से प्राकृत कविताएं