समकालीन कविता परिदृश्य में लीलाधर मण्डलोई एक महत्त्वपूर्ण नाम है। मण्डलोई के अभी तक ग्यारह काव्य संग्रह , छ: चयनित काव्य संग्रह, पांच खण्डों में डायरी, आलोचना ,यात्रा वृत्त्तांत , निबंध की पुस्तकों के साथ और कई सारी सम्पादित पुस्तकें हैं।
कह सकते हैं , मण्डलोई की रेंज काफी विस्तृत है। और अभी भी वे सतत् सक्रिय हैं। पाठकों ने अभी कुछ दिन पहले उनकी दो लम्बी कविताएं इसी प्लेटफार्म पर पढ़ीं और सराही थीं।
इतना कुछ लिखने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि मण्डलोई आत्मकथा जैसा कुछ लिखकर नवाचार की सेंच्युरी मारेंगे। और मण्डलोई ने आत्मकथा लिखी जिसका पहला भाग ‘ जब से आंख खुली हैं ‘ राजकमल से अभी हाल में छपके आया है।
मण्डलोई का जीवन काफी उतार – चढ़ाव वाला रहा है।कुछ – कुछ मक्सिम गोकीॅ जैसा। तिक्ततापूर्ण। कठिन जीवन जीते हुए मण्डलोई ने कभी आंखें नम न कीं बल्कि तकलीफ़ों को भारतीय पीड़ित अवाम की तर्ज़ पर हँस – हँस के निकाल दिया।
यहां हम लीलाधर मण्डलोई की जीवनी के चयनित अंश प्रस्तुत कर रहे हैं विष्णु खरे राष्ट्रीय पुरस्कार की बधाई के साथ जो रचनाकार एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय जैसे कई विश्वविद्यालय समूह के चांसलर एवं कुलाधिपति संतोष चौबे ने उन्हें प्रदान किया।
– हरि भटनागर

आत्मकथा अंश :

 

बचपन जितना मेरी चेतना में बार-बार पीछा करता हुआ, आकार लेता रहा, वही यहां है। कुछ यादों से पीछा न छुड़ा सका, जैसे भूख, भूख में मां, कोयला, मजूर, आदिवासी और सतपुड़ा। कुछ छायाएं, कुछ छवियां अगर चुपके से दुबारा चली आयी हैं तो वे हांटिंग अनुगूंजें हैं और ज़रूरी। गोया राजकपूर की फ़िल्मों के पार्श्व संगीत में किसी अगले गाने की धुन। अनुगूंजें यहां भी मुमकिन हैं। ऐसी असहायताओं के लिए बचपन का एक शब्द याद करता हूं—’भूलचूक-कनानचूक’। कोई गलती होती थी तो कान पकड़कर यह शब्द अपने-आप ज़ुबान पर आ जाता था, सो यहां भी चला आया। मैंने रोका भी नहीं। यह मेरे बचपन का संस्कार है। बहरहाल आत्मकथा की यह पहली किताब जो बचपन की है, आपकी नज़र।

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इस नए घर में जो गाय की सार थी। हमारा साबका जिस गंध से हुआ वह पहले-पहल असहनीय थी। बाद में जैसे आत्मा में बस गई। बग़ैर उस गंध के नींद न आती। रात जब कभी जाड़ा तेज़ होता तो गाय को अंदर ले आते। फिर एक और गंध होती गोबर मूत्र से अलग जो मनुष्य की नहीं किन्तु उससे अधिक आत्मीय। गाय ने जैसे हमारी विपदा को भाँप लिया था। वह रात को सार में गन्दगी न करती। ज़रूरत होती तो गर्दन हिलाना शुरू कर देती और घंटी बज उठती या वह रंभाती। यह आवाज़ सामान्य रंभाने से अलग होती। और वह बाहर ले जाई जाती। तो इस तरह हमारा घर था। बचपन का घर गंध में नहाया, गाय के साथ एक नई रिश्तेदारी में उगता। जानवर और आदमी एक छत के नीचे रह सकते थे। यह हमने उस समय जाना जबकि एक परिवार में मनुष्यों के साथ रहना दूभर था।

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कोयला खदान मालिक मजूरों के बच्चों के लिए स्कूल को ज़रूरी न समझते थे। शिक्षा को वह राज्य का मामला मानते थे। राज्य सरकार को इस क्षेत्र में शुरुआती काम के लिए भी कोई जगह मुहैया नहीं कराई गई। अत: जब तक इमारत का निर्माण न हो स्कूल पेड़ों के नीचे शुरू हुआ। कुल जमा दो मास्टर थे। नुन्हारिया मास्साब और डेहरिया मास्साब। उन्हीं के कन्धों पर स्कूल शुरू करने का दायित्व था। स्कूल के लिए कोई चपरासी, कोई बाबू तक न था। उन्हें लगा पेड़ों के नीचे स्कूल खोलना ही अन्तिम विकल्प था। फिर यह ज़िम्मेदारी कि बच्चे स्कूल में दाखिला लें। इसके लिए उन्हें मजूर बस्तियों में जाकर वातावरण निर्माण भी करना था। सो उसमें ही काफी समय निकल जाता।

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बचपन की तार पर सूखती साडिय़ों की सघन स्मृतियाँ हैं और पिता के लंबे कुर्ते औरधोतियाँ। हवा में फडफ़ड़ातीं। पसीने के धुलने के बाद भी इतनी जीवित कि आप माँ के पसीने की गंध को सहज पहचान लें। फिर माँ की साडिय़ाँ अमूमन डीजल और घासलेट में खान की अंडरग्राउंड नौकरी में भीगी हुईं। जिन्हें धोना एक चुनौती था। साडिय़ों में अनेक सुराख हो जाएँ लेकिन दाग की चुनौतियाँ मौजूद। माँ को लगता कि गिनी-चुनी ३-४ साडिय़ाँ, घर में पहनो तो खान में दिक्कत सो उन्होंने घर की शर्म को आले पर धर दिया और खान में ठीक-ठीक साबुत साडिय़ों से अपने को भरसक छुपाया। घनघोर गर्मी के बावजूद लंबी बाँहों का पोलका (ब्लाउज) जिसका गला ऊपर तक सिला होता था। एक मजदूरिन काम करते हुए उन तमाम जगहों पर पहले काम करती हैं जहाँ भूखी नज़रें कार्रवाई में सक्रिय होती हैं। माँ भरपूर पसीने में ऊभ-चूभ लौटती थी। और उस पसीने की गंध में वह माँ लगती थी अपनी गंध के कारण अधिक, देह के कारण कम।
माँ की गंध इतनी अलग होती थी कि हम पहचानने में कोई दिक्कत अनुभव नहीं करते थे। पिता के पसीने की गंध उनके कुर्ते और धोती में होती जो एकदम भिन्न थी। इस फ़र्क़ को शब्दों में अभिव्यक्त करना असंभव। फिर भी इस फ़र्क़ को हमारी घ्राणेन्द्रिय व्यवस्था जैसे अलग से पहचान लेती थी। उसके बारे में सोचता हूँ और सुखद आश्चर्य से घिर उठता हूँ।

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माँ का बदन ठोस था। बाँहें भरी हुई। हथेलियाँ सख्त। उसके हाथों में कुदाल, तसला, फावड़ा और बोइया (बाँस की टहनियों से बनी सख़्त टोकरी) सदा रहे। खदान की मजूरी में यही उनके और पिता के हथियार थे। सामने था जीवन की जंग का बड़ा मैदान। हथेलियाँ इसलिए दोनों की खुरदरी थीं। बाज दफा इतनी अधिक कि गालों पर फेरते तो मैं कसमसा उठता। कई बार बोइया की फाँस हथेली में छूट जाती। और तब धोखे में गाल पर फेरते हुए पड़ जाने पर जैसे मैं बिलबिला जाता। लेकिन हथेलियों की छुअन में ऐसा जादू था कि मैं चुभन को भूल जाता और उनसे अलग न होता।

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हमारे पास स्कूल ड्रेस न थी। न बस्ता, न किताबें-कापी। बस एक अदद स्लेट पट्टी थी कि जब तक तीसरी कक्षा की पढ़ाई पास की। आत्मग्लानि, शर्म, फिकरे और रोज़-रोज़ की डाँट के बीच टूटते, गुस्साते, लड़ते हुए हमने पढ़ने का सिलसिला जारी रखा। जहाँ मन उखड़ता माँ का चेहरा घूम जाता। पिता सामने आ खड़े होते और थेगड़े लगे पैंट-कमीज़ के भीतर भी विश्वास पा लेते। इस विश्वास ने हमें जीत लेने का एक मुद्दा दिया। पीठ में पड़ती छड़ियों, आस-पास उठती हँसी, फिकरे और तानों के बीच जाने किस ताकत के सहारे पढ़ते हुए आगे निकलते रहे।

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देखना सुख से भरता है। पीड़ा से भी। उम्र के बढऩे के साथ ची•ों अधिक स्पष्ट होती हैं। उनका अर्थ खुलता है। खुलने पर आत्मा वह नहीं होती। जीव जगत को समझने के साथ जो भीतर बदलता है; वह भीतर पहले वाले से भिन्न है। कहीं ज़्यादा ठोस। कहीं ज़्यादा उर्वर। तब मैं कोई ६-७ बरस का था। माँ पिता दोनों काम की तलाश में थे। फ़ाकामस्ती के दिन थे। भूखे उठते थे। कभी कुछ होता। कभी नहीं भी। पिता के पाँव चाइयों से भरे थे। चलना उनके लिए जैसे तीव्र पीड़ा में सिसकारना था। फिर चीख़ को गले में रोकना। लेकिन वे घर के हालातों में रुक नहीं सकते थे। सुबह-सुबह हम महुए के बड़े-बड़े पत्ते लाते या महुल के। जो उनके पाँव के आकार के होते। माँ सुतली से उनके पाँवों में उनकी तह बनाकर बाँधती। कुछ इस तरह से कि पत्थर या कुछ और चुभे न। पिता के पास न चप्पलें थीं, न जूते। हम समझते पत्ते दवाई की जगह बाँधे जा रहे हैं या फिर देसी इलाज रहा हो। काश ऐसा होता। पिता के पाँव अभाव से बँधे थे और हमारे भूख से। ऐसे में उनके लिए थे तो बस हम और माँ जिनसे बल मिलता। होश संभालने पर हमने देखा। पिता रोज़ चाइयाँ ब्लेड से काटते थे। ख़ून नहीं टपकता था। लेकिन माँ की आँखों से झर-झर आँसू बहते थे।
देशी शराब का ठेका वहाँ से ८ किलोमीटर दूर भाजीपानी में था। शराब वहीं से मंगानी पड़ती। इसके लिए हम सरीखे बच्चों की सेवाएँ लेते, कोई और काम न होने पर हम उनकी खटारा साइकिल उठाते और एक डेढ़ घंटे में कम से कम दो बोतलें पैन्ट में (पेट की तरफ़) छुपाकर ले आते। हमें मजूरी में प्रति बोतल एक अठन्नी मिलती और दुकान से नाश्ता। कई बार रास्ते में पुलिस वाले पकड़ लेते। वे बोतलें अपने पास रख लेते और हमें छोड़ देते। यह बड़ी राहत थी और कृपा भी कि हम लोगों के ख़िलाफ़ उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। बस डाँटते या कभी-कभार अपनी बेंत से पुट्ठे पर ठुकाई कर देते लेकिन ज़ोर से नहीं। वे भी बच्चों की मजबूरी जानते थे। सुखई सेठ भी हमें कुछ न कहते, बस पुलिस वालों को झूठा-मूठा गरिया देते और हस्बमामूल हमारा नाश्ता प्लेट में लगा देते। हम बच्चों को पैसे न मिलते लेकिन खाने को मिल जाता। बस हम ‘खटमल’ की भाषा में कहते ‘भई आज तो सही में घिस गयी।’ लेकिन ये पुलिस वालों की घिसाई भी वाह और हँस पड़ते।

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हम सब के बीच गनपत था। दुबला-पतला। उसकी हड्डियाँ गिन लो। वह ‘तुतरु’ बजाता था। उसके परिवार का यही पेशा था। जन्म के संस्कार हों अथवा शादी-ब्याह के। वह सब के घरों में जाकर अपने पिता और भाइयों के साथ ‘तुतरु’ बजाता था। उसकी ‘तुतरु’ सबसे छोटी थी। छोटे-छोटे छेद। पीछे की तरफ़ एक रस्सी बंधी हुई चार-पाँच पत्तियों में गुंथी हुई, होंठों में दबाकर बजाने वाली ठीक वैसी वस्तु जो शहनाई वादकों के पास होती है लगभग शहनाई की तरह। जब वे सब बजाते तो नाचने का मन होता। विशेषकर गोंड़ नृत्यों की तीव्र धुनों पर और हम नाचते। वह ठुमक-ठुमक के बजाता। लोग निछावर के रूप में नाचने वालों के सिरों पर सिक्के घुमाकर हवा मे उछालते और बजाने वाले बजाना भूलकर उन्हें बटोरने लगते। गनपत भी यही करता। उसका पैसों पर झपटना। किसी के पाँव के नीचे उसका हाथ आ जाना। फिर सिसकते हुए उसका रो पडऩा यह आम दृश्य था।

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हम लोग जब भी मौक़ा मिलता मजदूरों के साथ होते। वहाँ छाया थी अपनी सी। वे अमूमन खदान के ओव्हरमेन, मैनेजर आदि के बारे में बातें करते। खदान में सुरक्षा की कमियों, कोयले की चोरियाँ, दुर्घटनाओं के ख़तरे, वेतन आदि में गड़बडिय़ों की चर्चा करते। मज़दूर बताते कि यूनियन के कौन से नेता हैं जो मुफ़्त की पगार उड़ाते। कौन जो मजदूरों के हित में काम करते। हमारी आँखें ऐसे लोगों को पहचानने लगी थीं। हमारे घर के सामने इंटक यूनियन का दफ़्तर था। अधिक गहमागहमी का केन्द्र। मजदूरों का मत था। वह सबसे अधिक दलाल, कामचोर और चमचों का केन्द्र था। छुटभैया इंटक का नेता भी खदान में नहीं उतरता था। अपने आप उसकी हाज़िरी भरते रहने के आदेश हुआ करते थे। ऐसे कई नेता थे छोटे-बड़े जैसे सहाबुद्दीन, गोरखनाथ, शारदा प्रसाद तिवारी, बाबूलाल महाराज, बलदेव प्रसाद और चंद्रिका बाबू आदि। फोकट की पगार। अफसरों के साथ साठ-गांठ। मजदूरों का अगर कोई काम करना भी है तो कई शर्तें, मसलन घर में बेगारी, कमीशन, यूनियन दफ़्तर के काम—झाडू-पोंछा, पानी भरना, पिलाना, चाय-पानी की व्यवस्था आदि। दिलचस्प यह कि काग़ज़ पर ये लोग ऐसी जगहों पर बैठे थे जहाँ इनकी उपस्थिति में चोरी आदि का भरपूर इंतजाम था।

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मिर्जा हासम बेग हमारी टोली का ख़ुशमिज़ाज इंसान। सिवनी ज़िले से काम काज की खोज में आया था। इंटक के नेता सहाबुद्दीन की जान-पहचान में उनका परिवार था, सो उसे मिट्टी के ठेकेदार के पास काम मिल गया। वह मिट्टी काटने-ढोने वाले बच्चों का हिसाब रखता। मैं भी उन बच्चों में एक था। मिर्जा बाद में गहरा दोस्त बन गया।
तब उसकी शादी न हुई थी। उसका घर आना-जाना हो गया। वह घर का सदस्य हो गया। उसका एकाकीपन घर आकर कम हो जाता। वह अपनी माँ, अब्बू और भाई-बहनों को याद करता और उदास हो जाता। उसकी उदासी हमसे देखी न जाती। अनिल, प्रदीप, प्रकाश और मैं अब उसके साथ अधिक रहते। घर के लिए कम उम्र में विस्थापित होना और अंजान गांव में कमाने की जुगत का वह एक उदाहरण था। हम उसके अकेलेपन की उदासी को नहीं जानते थे लेकिन हम उसके प्रति उदासीन नहीं थे। हम उसे शाम को अकेला नहीं रहने देते। शाम को अक्सर हम जुट जाते और उसके कमरे पर खाना बनाते। सामान मिलजुलकर ख़रीदते। मुस्लिम होने के कारण नानवेज़ उसे प्रिय था। नानवेज़ में उसके छूट गये घर की यादें थीं। हमारे पास पैसे कम होते तो हम एक पाव से अधिक मटन न ख़रीद पाते अत: आलू मटन हमारी पसंदीदा डिश होती। वह एक नायाब कुक था। हम शोरबे वाला मटन बनाते। आधा सेर प्याज, ४ लहसुन खड़ी और ढेर सा अदरक मटन में होता। छौंक में जीरा और काली मिर्च। हम प्याज, आलू और अदरक काट देते। सिगड़ी में कोयला जला देते। जब वह ठीक से जल उठती और धुआँ दब जाता, वह आलू मटन बनाने में जुट जाता। उसके हाथ में शफ़ा था। मटन बनाना उसने अपनी अम्मी से सीखा होगा। वह देर तक प्याज भूनता मगन रहता और किन्हीं यादों में खो जाता। शायद अपने सिवनी के घर की खाने की याद या फिर परिवार के लोगों के चेहरों की याद। हम उसे देखते तो चुपके-चुपके आंसू पोंछते। शायद हम सबके घरू हालात एक जैसे थे, लेकिन हम अपने परिवार के साथ थे और वह दूर। इस दर्द को हम समझते थे।

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हमारे खान इलाकों में क़व्वाली के प्रोग्राम होते थे। ख़ासकर सालाना उर्स के मौक़े पर या खदान मालिकों द्वारा त्योहार के पहले ताकि मनोरंजन के साथ उसका मान भी बढ़े।
क़व्वाली में दो पार्टियाँ बुलाई जातीं। दोनों के बीच शायरी की लड़त-भिड़ंत होती। एक पुरुष और दूसरी महिला क़व्वाल पार्टी। बचपन में क़व्वाली के माध्यम से कैफ़-भोपाली का ये शेर सुनने में आया—
‘तुमसे मिलके इमली मीठी लगती है,
तुमसे बिछड़के शहर भी खारा लगता है’
इसे सुनकर इमली के पेड़ की इज्जत हमारे भीतर बढ़ गई। याद है हमारे बचपन की साथी जया, रज्जो, कस्तूरी को इमली बहुत पसंद थी। ख़ासकर पेड़ से तोड़ी गई एकदम ताजा। इमली का नाम सुनते ही उनके मुँह में पानी आ जाता। हम इमली तोड़कर लाते और उन्हें देने में नखरे करते। वे पीछे-पीछे भागतीं, चिरौरी करतीं। उनकी जीभों से तब तक धारें फूट चुकी होतीं। इमली पाते ही वे जैसे सब भूल जातीं। खाते हुए अति खट्टेपन के कारण उनका आँखें मूँदना और खट्टी स्वाद अनुभूति पर कुछ ख़ास ढंग की आवाज़, ‘अ-हा-ओ-ए-ई’ जैसा निकलना आज भी याद है। इमली स्वाद के साथ ही नहीं, किन अदाओं से खायी जा सकती है, यह उनसे जाना। इमली ने इस तरह हमें उनके क़रीब लाया, जिसका भी एक स्वाद था।

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तीनों छत को घूर रहे थे और सोचने की कोशिश। कुछ सूझ नहीं रहा था। जाने कितनी देर हम छत को घूरते रहे। मन में विचार आ-जा रहे थे। कुशंकाएँ भी। हारने का भय भी सता रहा था कि एकाएक जोर की बारिश होने लगी। टीन की छत पर बूँदों का गिरना तांडव की तरह लग रहा था। ठीक वैसा ही जैसे पेट में चूहों का तांडव। बूँदों के छत पे गिरते ही एकाएक मन ख़्याल आया। बारिश में कनस्तर में आटा चिपक जाता है। अगर ऐसा हुआ हो तो झाडऩे से थोड़ा निकल आएगा। मैं एकाएक उछला और कनस्तर तक पहुँचा। शिवचरण और सतीश उठके मुझे देखने लगे। मैंने कनस्तर का ढक्कन खोला और उसके भीतर चौतरफ़ा हाथ घुमाने लगा। बारिश की नमी से दीवारों पे चिपका आटा था जो झर रहा था। पूरी एकाग्रता से मैंने एक-एक कण झड़ाया और कटोरी में भरने लगा। कटोरी लगभग भर चुकी थी। मैं ख़ुशी में चीख़ उठा। वे दोनों भी। फिर उदास। मैंने पूछा—’क्या हुआ। मुँह क्यों उतर गये?’ वे बोले—एक कटोरी में क्या होगा? दो तीन रोटियाँ बन जाएँ तो बहोत।’
मैंने कहा—’धीरज रखो आज भरपेट भोजन होगा। स्वादिष्ट और अनूठा।’ वे हैरत में देखने लगे। मैंने स्टोव की तरफ़ इशारा किया और कड़ाही उठा ली। तेल की शीशी उठाई कुछेक बूँदें थीं, कड़ाई में टपका दीं और सतह पर फैला दी। स्टोव में घासलेट तली में पहुँच चुका था। अत: जलने से दूर। मैंने सिर खुजाया और जैसे बत्ती जल उठी मैंने कहा टंकी की तरफ़ से थाम के ऊँचा करो यानी टेढ़ा ताकि तेल ऊपर की तरफ़ ढुलक जाए। जुगत काम आई स्टोव जल उठा। मैंने कड़ाही को स्टोव की टेढ़ी कर उलट दिशा में थाम लिया। और कड़ाही गरम होने लगी। गरम होने पर मैंने आटा उड़ेल दिया और भूनने लगा। सतीश मसाले ढूँढऩे लगा। मुश्किल से चार सूखी लाल मिर्च मिलीं। मैंने इशारा किया और वो छोटे-छोटे टुकड़े करने लगा। ये बारीक टुकड़े अब भुनते आटे पर थे। अपना स्वाद सौंपते हुए। इसके बाद आटा भुन रहा था। अपनी ख़ुशबू सहित। स्वाद का एक आश्चर्य घर में उतर रहा था। ठीक से भुनने और कुछ भूरा होने पर हमने उसमें दो लोटा पानी उड़ेल दिया और बाद में नमक भुरक दिया। अब आटा पुरी कड़ाई में नाच रहा था। कोई अद्वितीय सुगंध हमारी आत्मा को रोमांचित कर रही थी। उस दिन एक दिव्य भोजन तैयार हो रहा था। हम जैसे जीवन में पहली बार इतने सुखी थे। इतने विकल और सुगंध से आह्लादित।


 

Leeladhar Mandloi

लीलाधर मंडलोई

जन्म : छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे-से गाँव गुढ़ी में जन्माष्टमी के दिन। जन्म वर्ष : 1953।
कृतियाँ : काव्य-संग्रह : घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज़, काल-बाँका तिरछा, क्षमायाचना तथा देखा-अदेखा व कवि ने कहा (चयन)।
गद्य : कविता का तिर्यक (आलोचना), दिल का क़िस्सा तथा अर्थ जल (निबन्ध), काला पानी (वृत्तान्त), दाना पानी (डायरी), पहाड़ और परी का सपना (अंदमान-निकोबार की लोककथाएँ)। पेड़ भी चलते हैं और चाँद का धब्बा (बाल कहानियाँ), इनसाइड लाइव (मीडिया)।
अनुवाद : शकेब जलाली की ग़ज़लों का लिप्यंतरण मंज़ूर एहतेशाम के साथ। अनातोली पारपरा की रूसी कविताओं के अनुवाद अनिल जनविजय के साथ।
सम्पादन/प्रस्तुति : कविता के सौ बरस (आलोचना), स्त्री मुक्ति का स्वप्न (विमर्श : अरविंद जैन के साथ), कवि एकादश (अनिल जनविजय के साथ) और सुदीप बॅनर्जी की प्रतिनिधि कविताएँ (विष्णु नागर के साथ) तथा उनके अंतिम संग्रह ‘उसे लौट आना चाहिए’ का संयोजन विष्णु नागर के साथ।
सम्मान : पुश्किन, रज़ा, शमशेर, नागार्जुन, दुष्यन्त, रामविलास शर्मा तथा कृति सम्मान।
अन्य : फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन, मीडिया कर्म (टेलीविज़न व रेडियो)।
सम्पर्क : B 253, sarita vihar, new delhi 76
दूरभाष : 26258277 (निवास)।पता:
ए-2492, नेताजी नगर, नई दिल्ली 110023
Email: leeladharmandloi@gmail.com
Phone: 9315305643

 

 

 


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