ललन चतुवेॅदी समकालीन कविता का एक पहचाना नाम है। ललन छोटे-छोटे जीवन- प्रसंगों से कविता का प्रासाद खड़ा करते हैं जिसमें समय- समाज का प्रतिबिंब होता है। बहुत ही ख़ामशी से ललन काव्य – सृजन करते हैं। आप व्यंग्य लेखक भी हैं इसीलिए व्यंग्य की धार आपकी कविताओं में हर जगह दीखती है।
– हरि भटनागर
कविताएँ :
(एक)
सत्ता सुंदरी
सोलहवें माले पर बैठी हुई हो करके सोलहों श्रृंगार
सीढ़ियों से नहीं,लिफ्ट से ही सही, उतरो
एक बार उतरो, जरूर उतरो
देखो,भूतल पर लोग
तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़े-खड़े हो रहें हैं हलकान
नहीं पहुँच रही है इतनी ऊँचाई तक उनकी आवाज
बीच के माले के लोग जिन्हें अदा करनी थीं डाकिये की भूमिका
वे डकार जा रहें हैं धरती की सारी चिट्ठियाँ
इस गेट पर बैठा मूँछड़ दरवान है खानदानी पहलवान
रह-रह कर डंडे हिलाकर फटकार रहा है
और कितना रूतबा में दिखता है तुम्हारा निजी सलाहकार!
वह भूल ही गया है कि अधिकतम उम्र है उसकी साठ
वही डाँटते हुए सब को पढ़ाता रहता है नियम-अनुशासन का पाठ
बंद हैं तुम्हारी आँखें
क्या काम नहीं करते तुम्हारे कान ?
इतनी ऊँचाई पर बैठकर किसका कर रही हो ध्यान?
तुम्हारे दरवाजे पर प्रवेश निषेध की तख्ती!
यही तो है शर्म की सबसे घिनौनी प्रतीक
इसे देखते हुए क्या झुकती नहीं तुम्हारी आँख?
आओ, उतरो सोलहवें माले से
निश्चिन्त रहो,म्लान नहीं होंगे तुम्हारे सोलह श्रृंगार
सीढ़ियों से नहीं सही, लिफ्ट से ही उतरो
उतरो सुन्दरी ! एक बार जरूर उतरो ।
————–
(दो)
राजा का बेटा
राजा का बेटा
पैदा होते ही घोषित हो जाता है राजकुमार
जनता कहाँ कर पाती है मुँहदेखाई
महल में ही होते हैं सैरगाह,खेल का मैदान
होती है उसमें जन्मजात प्रतिभा
राजा बनने के समस्त गुण
उसके दोस्त भी होते हैं दूर देशों के राजकुमार
राजा का बेटा है
पता नहीं, कैसे हो जाता है इतना जल्द जवान
होने लगता है राज्याभिषेक का इन्तजार
साल में एक बार होता है शाही रथ पर सवार
नगर परिक्रमा के लिए निकलता है
जनता पुष्प वर्षा करती है
राजा का बेटा हाथ हिलाता है बार- बार
दूर से ही हाथ जोड़कर करता है नमस्कार
राजा का बेटा है
कोई ऐरू- गैरू है कि सब्जी – भाँजी लेने जाए रोज बाजार
दिखे चौक- चौराहे पर, गली-मोहल्लों में
कोई साधारण आदमी है कि दबा रहे फाइलों में
सना रहे माटी,गारा,बालू से
फँसा रहे ट्रैफिक में
उसका एक-एक पल अनमोल है
उसका हस्ताक्षर कीमती है
उसका इशारा ही आदेश है
उसी का पूरा देश है
उसके लिए अलग मार्ग है,अलग यान है,
उसके मुख में संपूर्ण संविधान है
राजा का बेटा है ,वह अतुल्य है
अपने राज्य का प्रथम नागरिक है
मत बोलो कुछ भी उसके बारे में
वह समादृत है
उसके दर्शन के लिए प्रतीक्षा करो
लग जाओ कतार में
लग जाओ जय-जयकार में
राजा का बेटा है
सुना है,बड़ा दयालु है
जरूर आएगा
साल में एक बार ही सही
तुम्हें दर्शन जरूर देगा।
———
(तीन)
अफसोस
जिसका सबसे अधिक किया जाना था उपयोग
उससे लिया गया बहुत लापरवाही से काम
बरसों की शास्त्रीय नृत्य की साधना के पश्चात
आया नेत्रों में जो बाँकपन
वह रह गया अलक्षित
हज़ारों दर्शकों की भीड़ में कोई तो एक होता
श्रद्धा से जिसके जुड़ जाते हाथ
पायलों से जो निकल रहा था सतत सरगम
भर न सका किसी उर में आह्लाद
कितना रोया होगा कवि कविताओं को छाती से चिपकाए
जब हृदय के रक्त से सिंचित कविताएं रह गईं होंगी अपठित
कितने आँसू बहे होंगे अदाकारा के मंच से उतरने के बाद
जब अभिनय पर नहीं मिली होगी दाद
कितने नयनाभिराम दृश्य
रोये होंगे अपनी बदकिस्मती पर
उससे तनिक कम नहीं जितनी रोती है कोई माँ
परदेसी बेटा जिसकी नहीं लेता कभी सुध
जहाँ से हटनी नहीं चाहिए थीं आँखें
अफसोस, वहीं लग जातीं हैं आँखें।
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(चार)
हमारे शब्द ही इतिहास गढ़ेंगे
एक हरी झंडी पटरी पर दौड़ा देती है रेल को
एक तीर का निशान दिखा देता है मंजिल को
एक शब्द हमें मुक्त कर देता है भवजाल से
एक वाक्य बदल देता है जीवन की दशा-दिशा
एक अस्पष्ट हस्ताक्षर करोड़ों जीवन को कर देता है प्रभावित
एक चुटकी सिंदूर कर देता है काया-माया में आमूल-चूल परिवर्तन
और तुम्हारे पास तो जीवन के अनेक आख्यान हैं
हैं अनेक उज्जवल कविताएं
अभी मत खोंसो कलम को कलमदान में
अभी मत रखो तलवार को म्यान में
मत सुनो बुजदिलों की बात कि कौन पढ़ता है
गौरतलब है कि कौन लिखता है
चंदबरदाई,सूर,तुलसी,कबीर,रहीम रसखान
केशव, घनानंद,मतिराम
प्रसाद,पंत, निराला, महादेवी, भारतेन्दु
प्रेमचंद, दुष्यंत!
– कहो कौन नहीं विराज रहा क्षितिज पर चमकीले नक्षत्र की तरह
उनके शब्दों ने पिता की तरह सर पर रखा है हाथ
उनके वाक्यों ने सहलाया है माँ की तरह माथ
लिखना चुकाना है अपने इन्हीं पूर्वजों का ऋण
जब तक अंगुलियाँ चलतीं रहेंगी
चलनी चाहिए कलम
जब तक रहेगी तलवार
होना ही चाहिए अनय का प्रतिकार
बस, सत्य की स्याही हो, हृदय हो साफ कागज
कविताएं उतरेंगी
लोग आज नहीं तो कल पढ़ेंगे
हमारे शब्द ही तो इतिहास गढ़ेंगे।
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(पांच)
दुःख मेरा सहोदर भाई है
वह मेरे जन्म के ठीक अगले पल में पैदा हुआ
उसे देख मैं रो पड़ा
उसके जन्म से बेखबर आसपास खड़ी स्त्रियों ने हँसकर मेरा जन्मोत्सव मनाया
सबने मेरी माँ को बधाई दी
कभी किसी को भनक तक नहीं लगी और वह मेरे साथ – साथ पलता रहा
उसे माँ के दूध की कभी जरुरत महसूस नहीं हुई
वह मेरी खुशियों को पीकर घूमता रहा मदमस्त
जब कभी आते मेरे जीवन में खुशियों के मौके
वह आ धमकता अनामंत्रित हिस्सेदार की तरह
वह वास्तव में मुझसे छोटा था
इस नाते मेरे प्यार का अधिकारी था
कैसे कर सकता था मैं उसके अनिष्ट की कामना
जब भी मिला मैंने हॅंस कर उसका स्वागत किया
उसने कभी मेरे साथ धोखा नहीं किया
मैंने भी उसका पूरा- पूरा हक दिया
उसने भी अनुज होने का फर्ज निभाया
मेरे जाने के बाद ही विदा हुआ
दुःख मेरा सहोदर भाई था
मैं देख भी कैसे सकता था, उसे पहले जाते हुए।
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(छ:)
नग्न होने की प्रतीक्षा में
हम सब कीमती लिबास में ढँके नग्न लोग हैं
हम से बेहतर कौन जानता है हमारा नंगापन
जिसे बताते नहीं थकते अपना चंगापन
नग्न होते हुए निश्छल हँसी हँसता है बच्चा
उसे कहाँ परवाह है अपने नंगेपन की?
कितना डरते हैं हम नग्न होने से
हम सब भयभीत हैं एक दूसरे से
जीवन सुबह से शाम तक छिपने और छिपाने का जतन है
बेशकीमती कपड़े, आभूषणों और शहद सिंचित बोलियों के बावजूद
कहाँ कुछ छिप पाता है?
दबी जुबान से ही सही,होती रहती है एक दूसरे के नंगेपन की चटकदार चर्चा
एक घिनौनी हँसी छितराती रहती है हवा में हरदम
काश ,हम नंगे हो जाते
सबकी बोलती हो जाती बंद
नंगेपन की चर्चा पर लग जाता पूर्ण विराम
सभ्यताओं में कहाँ है नग्न होने की हिम्मत
नंगा होना साहस का काम है साहब !
हम नग्न होते हुए बहुत हलके हो जाते हैं तन से और मन से भी
हम बन जाते हैं शिशु और हो जाते हैं बेपरवाह
हमें सीखना होगा नग्न होने का गुर
अभी हम नहीं बन पाए हैं सभ्य और निश्छल
हम कब जुटायेंगे नग्न होने का साहस
दुनिया उस दिन की कबसे प्रतीक्षा कर रही है।
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(सात)
प्रतीक्षा सीखता हूँ किसान से
अधीर लोगों से मिलने की इच्छा जाती रही
हमारे समय के विद्वान आतंकित करते हैं
लगता है कि वे दुनिया को बदलने तक जारी रखेंगे अपना भाषण
आँखें मूँद लेता हूँ इन नेताओं को देख कर
जब भी मन उदास होता है
चला जाता हूँ प्रेमियों के पास
वे झूमते रहते हैं उदासी की खुशी में
जब हावी होने लगती है निराशा
भागता हूँ खेत से लौटते किसानों के पास
वह अभी-अभी लौट रहा है जमीन में डालकर बीज
हफ्ते भर वह खेतों की ओर नहीं जाएगा
वह लौट रहा है प्रतीक्षा बोकर
महीनों वह धैर्यपूर्वक लहलहाती बालियों का करेगा इंतजार
आकाश की ओर ताकते हुए बादलों की प्रतीक्षा करेगा
बारिश के अभाव में यदि फसलें नहीं हुईं
वह प्रतीक्षा करेगा अगले साल तक
अधीर कभी नहीं होगा
बचाए रखेगा मन के किसी कोने में आशा का बीज
मैं किसानों से मिलकर उम्मीदों का मुट्ठी भर बीज माँगने जा रहा हूँ
उन्हें अपनी कविताओं में बोऊँगा .
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आठ)
अपराध का सभ्य संस्करण
हां,
मैं नासमझ हूं –
ऐसा तुम कह सकते हो
हां,
मुझे नहीं मालूम
किन परिस्थितियों में
दो आदमियों ने
जिन्हें अलग-अलग देशों के नागरिकों ने
चुना था अपना मुखिया
हां,
सिर्फ उन्हीं दोनों ने
थोप दिया लाखों लोगों पर युद्ध
वे खुद छुपकर बैठ गए बंकर में
उन्हें नहीं सुनाई देती
बच्चों का करुण क्रंदन
बहनों का भाइयों के लिए विलाप
उन्हें नहीं दिखाई देतीं
गर्भवती स्त्रियों की लाशें
माता-पिता की कातर आंखें
अपने ही घर के मलबे पर खड़े वे लोग
आंसू भरी नजरों से देख रहे हैं आसमान
कोई ईश्वर क्यों नहीं सुनता उनकी चीत्कार
इस विश्व में एक से बढ़कर एक कूटनीतिज्ञ
एक से बढ़कर एक शक्तिशाली नेता
पर सबका कद कितना बौना!
इतनी सी भी नहीं किसी की औकात
कि पकड़ ले दोनों का हाथ
और कहे कि करो सन्धि -पत्र पर हस्ताक्षर
कि आज ही से बंद हो जाएगा युद्ध
सारी सेनाएं लौट जायेंगी अपनी सीमाओं में
आज से ही दोनों देशों के बच्चे
खेलेंगे युद्ध के मैदान में दोस्ताना क्रिकेट मैच
जो झुलस गए हैं पेड़ – पौधे
वहां फिर से लगाया जायेगा उद्यान
और एक बार सब मिलकर करेंगे
जमींदोज घरों का नवनिर्माण
भविष्य में अब नहीं होगा कोई युद्ध
पर नहीं
तुम नहीं मानोगे इस नासमझ का सुझाव
तुम्हें तो ख़ब्त सवार है
तुम्हें लगवानी है अपनी प्रतिमाएं
इतिहास में दर्ज कराने हैं अपने नाम
वर्तमान को नष्ट -विध्वंस कर
तुम दिखा रहे हो सुनहरे भविष्य के सपने
तुम नहीं सुनोगे किसी की बात
हां ,
मैं नासमझ हूं
हम सब नासमझ हैं
समझ बची है केवल तुम दोनों में
इसीलिए पेश कर रहे हो अपराध का सभ्य संस्करण।
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(नौ)
रिक्शा वाला
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कहते हैं लोग बहुत विकास हुआ है इस शहर का
देखते – देखते ही बन गए हैं कितने फ्लाई ओवर
अब विक्रम ऑटो के बदले सीएनजी वाली तेज गाडियां आ गई हैं
बरसों बाद आया हूं अपने महबूब शहर में
जिसे मैं पैदल ही नाप लेता था एक छोर से दूसरे छोर तक
कभी-कभार रिक्शे भी ले लेता था
लेकिन आदमी को आदमी को ढोते – खींचते हुए देखना तब भी लगता था बहुत बुरा
इसी वर्ष इस शहर में बिके हैं सत्ताइस हजार चारपहिया वाहन
यातायात की चाक- चौबंद व्यवस्था के बावजूद
चींटी की तरह रेंगतीं हैं गाड़ियां
विकास की इस आंधी में बहुत कम बच गए हैं रिक्शे वाले
आज मैं सारे तेज वाहनों को दरकिनार करते हुए
खुशी – खुशी शहर में घूम रहा हूं एक रिक्शे वाले के साथ
कर रहा हूं उससे गांव – घर की बातें
सुन रहा हूं दर्द से भरी उसके मन की बात –
महंगाई बहुत बढ़ गई है साहब !
घर चलाना हो रहा है मुश्किल
घर वाली भी रहने लगी है बीमार
बेटा- बहू कभी नहीं लेता भूलकर भी हाल-चाल
अब नहीं मिलती पहले जैसा सवारी
इस उमर में टेम्पो नहीं चला सकता
आप ही बताइए साहब!
एक रिक्शावाला कैसे उड़ा सकता है हवाई जहाज
बाबू !बीत गया है आधा बेला
बाट जोहते – जोहते सर पर चढ़ गया है सूरज आप से ही बोहनी करूंगा आज
जादा भाड़ा नहीं लेता साहब !
चालीस रुपए में ही पहुंचा दूंगा सुजाता से फिरायालाल
मैं जानता हूं आदमी और रिक्शे का फर्क
रिक्शा वाले को ये रिक्शा!कहकर नहीं बुलाता
आज रिक्शे से उतरते हुए मन गमगीन हो गया है
मैं पचास रुपए उसे थमाकर चल देता हूं
पोंछते हुए गमछे से पसीना
वह पीछे से दे रहा है बार- बार आवाज-
अपने दस रुपए ले लो साहब!
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(दस)
पढ़े-लिखे होने का मतलब
जितने लोग बोल रहे हैं
उससे कहीं अधिक लोग चुप हैं
बोली और चुप्पी दोनों पढ़ी जाने वाली चीजें हैं
बशर्ते हमें पढ़ने आता हो
कुछ लोग कपड़े पहनने के बावजूद नग्न नजर आते हैं
बोलना किसी को कठघरे में खड़ा कर सकता है
तो चुप्पी भी किसी को नंगा कर सकती है
ज्यादातर लोग बिगाड़ के डर से ईमान की बातें नहीं बोलते
खूँटे में बंधा आदमी जब तोते की तरह पाठ करता है
तो उसका ध्यान बोलने पर नहीं अपने पगार पर होता है
जब उसकी आत्मा उसे धिक्कारती है
तो लोर से भींग जाता है उसका तकिया
लेकिन सबेरा होते ही हैंगर में एक बार फिर अपनी आत्मा टाँग
झकास कुर्ता पहन करता है घंटों तक तोतारामी बकवास
हद तो तब होती है जब स्वयं को गर्व से प्रतिबद्ध घोषित करने वाली कलम
किसी भूखे के लिए एक शब्द नहीं लिखती
और सिर्फ एक पायदान आगे बढ़ने के लिए
किसी के प्रशस्ति गान में खर्च कर देती है पूरी स्याही
शब्दों के साथ कोई पहली बार नहीं हुआ है ऐसा खिलवाड़
हाँ, आवृत्ति बढ़ गई है इन दिनों
कोई फर्क नहीं रह गया प्रशंसा या निंदा में
जब कोई किसी की तारीफ के पुल बाँध रहा होता है
तो वह सजग श्रोता के कानों में पहुँचते ही तब्दील हो जाती है निंदा में
सुधी पाठक समझ लेते हैं इस प्रशंसा का निहितार्थ
अनपढ़ का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है
पर जो स्वयं को खूब पढ़ा-लिखा मानते हैं
उन्हें पढे -लिखे होने का मतलब समझना ज्यादा जरूरी है ।
ललन चतुर्वेदी
जन्म तिथि : 10 मई, 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.,विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य संकलन), ईश्वर की डायरी , यह देवताओं का सोने का समय है एवं आवाज घर (तीन कविता संग्रह) तथा साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएं एवं व्यंग्य प्रकाशित।
संपर्क:
202,असीमलता अपार्टमेंट
मानसरोवर एन्क्लेव,हटिया
रांची-834003
मोबाइल न. 9431582801
ईमेल: lalancsb@gmail.com
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ललन चतुर्वेदी जी की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया।