जार्ज लुकाच हंगरी के नहीं, वरन विश्व के बड़े मार्क्सवादी विचारक थे। मात्र सत्रह वर्ष की आयु में उन्होंने कार्ल मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ का अध्ययन कर लिया था।
दर्शन,राजनीतिक कर्म और मार्क्सवाद में गहरी आस्था के चलते लुकाच को गहरे संकटों से गुज़रना पड़ा। 1919 से 1944 तक लुकाच अपने ही देश से निर्वासित रहे और लौटने पर लगभग बीस वर्षों तक अपने ही देश की सरकार के हाथों निंदा , उपेक्षा और तिरस्कार झेला।यही नहीं सोवियत प्रवास के दौरान स्तालिन ने उन्हें जेल में डाल दिया। यह वही जेल है जिससे उन दिनों कोई जिंदा नहीं लौटता था। इसे लुकाच का भाग्य कहा जाए या संसार के बुद्धजीवियों की नैतिक अपील का असर लुकाच तमाम संकटों से बाहर निकल आए। इतिहास और वर्गचेतना तथा उपन्यास का सिद्धांत लुकाच की अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुस्तकें हैं।
बहरहाल, यहां हम लुकाच का बहुचर्चित लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जो तोलस्तोय और एमिल ज़ोला के उपन्यासों की कहन कला शैली पर है।
इस लेख का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद जनार्दन ने किया है। जनार्दन इलाहाबाद विश्वविद्यालय ,प्रयागराज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर हैं।
– हरि भटनागर
किस्सागोई के तरीके!-जॉर्ज लुकाज
अनुवाद – जनार्दन
(प्रकृतिवाद और रूपवाद पर कुछ ज़रूरी सवाल और कुछ बुनियादी बहस)
I
‘इंकलाबी होना असली होने जैसी स्थिति है। इन्कलाबी होना इंसानियत की जड़ तक पहुँचने जैसा अनुभव है।
इंसानियत की तह में हूबहू इंसांन की छवि पाई जाती है।’ – मार्क्स
आओ कुछ विचार करें। आओ कुछ जानें। आओ जोला के उपन्यास ‘नाना’ और टॉलस्टॉय के उपन्यास ‘अन्ना कैरेनिना’ को जानने की कोशिश करें। आओ, दोनों महान और आधुनिक उपन्यासों की कथाभूमि और कथा-विन्यासों को बीच से देखें! दोनों उपन्यासों के बीच के पन्नों को खोलें। दोनों में घुड़दौड़ की प्रतियोगिता को बड़ी शिद्दत से कहा गया है। आओ,देखें कि दोनों अफ़सानानिगार अपने – अपने काम को कैसे अंजाम तक पहुँचाए हैं?
घुड़दौड़ का वर्णन एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिससे जोला की श्रेष्ठता उजागर होती है। जोला ने बहुत ही नज़ाकत-नफ़ासत के साथ पूरे वाक्ये के हर रंग, हर आब, हर शोभा को पूरी संजीदगी से किसी पेंटर की तरह पेश किया है। यह घटना इतनी साफगोई से बुनी हुई है कि घुड़-दौड़ के दौरान, वक्त का एक-एक कतरा जिंदा हो उठा है। पूरी घटना को पढ़कर लगता है, जैसे जोला रेस कोर्स के ज़र्रे-ज़र्रे की लरज़ को महसूसा हो; घुड़सवारी से लेकर अंतिम प्रतिस्पर्धा के अंतिम छोर की हर-एक छोटी–छोटी बारीकियों को बहुत ध्यान से सहेजा गया है, गोया सब कुछ बहुत पास से देखा गया हो। यहाँ वह मंजर भी दिखाया गया है, जहाँ साम्राज्य के फैशन शो में पारसी जनता पूरी चमक–दमक और उत्साह से भाग ले रही थी। इस घटना का वर्णन बड़े चाव से किया गया है। इस पूरे महाआयोजन के पीछे चलने वाले छल को भी बहुत विस्तार से पेश किया गया है। घोड़ों की दौड़ की प्रतिस्पर्धा परेशान करने वाली स्थिति पर आकर थमती है। और ऐसे थमती है कि लोगों का कलेजा मुँह को आ जाता है। जोला ने न केवल इस अप्रत्याशित स्थिति को उद्घाटित किया है, बल्कि सटोरियों के फ्रॉड और उसके लिए जिम्मेदार परिस्थितियों का भी पर्दाफास किया है। जो भी हो इतने सघन वर्णन, इतनी कला प्रवीणता उपन्यास के अंतराल को भरने मात्र में सहायक साबित हो पाए हैं। घटनाएँ बड़ी मुश्किल से कहानी की मूल आत्मा से जुड़ पाती हैं, इसीलिए इन्हें बड़ी आसानी से हटाया जा सकता था। कहानी का मूल संदर्भ उस स्थिति से जुड़ता है, जहाँ नाना के तमाम प्रेमी ठगी में तबाह होते हैं।
इसी तरह मुख्य कथा का एक दयार और भी है, जो बमुश्किल उपन्यास से जुड़ पाता है। हालाँकि यह जोला की कहन शैली की एक ख़ास अदा है, वह पूरे होशो-हवास में विजयी घोड़े का नाम भी नाना रखता है। उसने सब कुछ जानते हुए इस तरह के दुर्लभ संयोग का रचाव किया है। आडंबरों की यह दिखावटी जीत, जहाँ कथा नायिका का हमनाम पशु प्रतियोगिता को जीतते हुए दिखाया गया है, बहुत अर्थपूर्ण और प्रतीकात्मक है। जैसे घोड़े की जीत से घोड़े की तक़दीर और जिंदगी में कोई सुफल नहीं आता, वैसे ही पेरिस के संभ्रांत समाज में कथा नायिका नाना को प्राप्त होने वाली सारी सुविधाएं और इनाम-वकराम बहुत कारुणिक है; बड़े घरानों के लोग उसे उन औरतों में शामिल करते हैं, जिनका चरित्र संदेहास्पद है और जो नैतिक रूप से पतनशील हैं।
घुड़दौड़ का प्रसंग अन्ना केरनिना में भी आया है, जो उपन्यास की नाटकीयता में चार चाँद लगा देता है। व्रोंस्की का गिरना, अन्ना के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना है। घुड़दौड़ के बाद ही उसे (अन्ना) को आभास हो जाता है कि वह गर्भवती है। यंत्रणा, पीड़ा और बहुत हिचकिचाहट के बाद किसी तरह वह व्रोंस्की को सूचित कर पाती है। लेकिन उस समय वह हैरान रह जाती है, जब व्रोंस्की उसके पति से झगड़ने लगता है। इससे रिश्तों का तानाबाना चिथड़े-चिथड़े होने लगता है। घुड़दौड़ की इस प्रतियोगिता के बाद ही कथा नायकों का अंतर्संघर्ष अलग ही मुकाम पर पहुँच जाता है। इससे लड़ाई और अंतर्मन के द्वंद्व को तीखा धार मिलता है। अब सारा दबा-ढका जगजाहिर हो जाता है, जिससे कथारूप (कहानी) में तीव्र नाटकीय मोड़ आता है।
दोनों उपन्यासों में इस तरह के दृश्यों के आगमन ने आगे की रचनाओं के लिए सर्जनात्मक दृष्टिकोण का निर्माण किया, जिनकी छाया या उपस्थिति बाद के उपन्यासों में प्रस्फुटित होती है। जोला ने घुड़दौड़ का आयोजन देखने वालों के नजरिए से और टालस्टॉय ने प्रतिभागियों के नजरिए से रचा और कहा है।
व्रोंस्की द्वारा घोड़े की सवारी और घुड़दौड़ में हिस्सा लेने वाला दृश्य पूरे उपन्यास का केंद्रीय दृश्य है। हालाँकि टालस्टॉय मानता है कि उपन्यास में घुड़दौड़ वाला दृश्य कोई बड़ी और प्रभावकारी घटना नहीं है, लेकिन व्रोंस्की के लिए एक परिवर्तनकारी घटना जरूर है। राज्य के महत्वाकांक्षी सैनिक अधिकारी वर्ग व्रोंस्की के बढ़ते अधिकार और प्रगति से जलता रहता है, वह उसे गिराने के अवसर की तलाश में रहता है। उसे अन्ना के साथ व्रोंस्की के संबंधों से कुछ ख़ास लेना-देना नहीं है। उसके लिए घुड़ दौड़ की प्रतिस्पर्धा में व्रोंस्की की विजय सभासदों की खचाखच भीड़ व्रोंस्की को हीरो बना देने वाली घटना होती, इससे व्रोंस्की का कैरियर और भी ज्यादा तेजी आगे बढ़ने वाला था। यही कारण है कि घुड़दौड़ का आयोजन, संचालन और परिणाम बहुत महत्वपूर्ण और नाटकीय है। इसीलिए व्रोंस्की का घोड़े से गिरना उसके भविष्य के शिखर से गिरने जैसी घटना है। टॉलस्टाय इसी घटना के बाद घुड़दौड़ प्रतियोगिता के वर्णन का समापन कर देते हैं। गौरतलब है कि इस महत्वपूर्ण घटना के बाद व्रोंस्की का प्रतिद्वंदी उससे आगे निकल जाता है।
आज तक किसी भी तरह इस महाकाव्यात्मक दृश्य का सही–सही आकलन नहीं हो पाया है। टॉलस्टाय का उद्देश्य किसी वस्तु या घटनामात्र अथवा घुड़दौड़ प्रतियोगिता का वर्णन करना नहीं है। वह जिंदगी के उतार-चढ़ाव की समीक्षा करना चाहता है। यही कारण है यह घटना पूरे उपन्यास में महाकाव्यात्मक ढंग से दो बार दोहराई गई है – पहली बार जब व्रोंस्की प्रतिभागियों में सर्वप्रमुख की हैसियत रखता है। इस आयोजन को लेखक ने बड़ी सिद्दत से सहेजा है। जर्रे-जर्रे को इत्मीनान से उकेरा है। दूसरी बार घुड़दौड़ के तुरंत बाद अन्ना और केरनिना आमने-सामने हैं। इस दृश्य के मुख्य किरदार दोनों पति-पत्नी ही हैं। ख़ास कथाविन्यास के लिए मशहूर टालस्टॉय ने इस दृश्य को ख़ास विस्तार नहीं दिया है। उसने पहले केरनिना के जीवन की घटनाओं का जायजा लिया है और उनपर उसके (केरनिना के) विचारों को प्रदर्शित किया है। अन्ना के प्रति केरनिना के रूख को बाद में दिखाया गया है। ऐसा करने से घुड़दौड़ की घटना को कथा के चरम पर परोशना आसान हो गया है, यह घटना पाठक को मोहने में सफल भी हुई है। घुड़दौड़ अपने आपमें ऐसी घटना है, जिससे कहानी को तीखा मोड़ और नाटकीयता की प्राप्ति होती है। अन्ना दत्तचित्त होकर घुड़दौड़ के आयोजन में सारी प्रतिभागियों में से मात्र व्रोंस्की पर टकटकी लगाए रहती है और केरनिना सिर्फ और सिर्फ अन्ना पर नज़र जमाए रहती है। केरनिना, अन्ना की नजरों का पीछा करते हुए व्रोंस्की की गतिविधियों का अवलोकन करता है। इस महादृश्य में संवाद नहीं है, मगर आग का दरिया केरनिना के अंदर सुलगता रहता है, जो घर लौटते समय बीच रास्ते में उस समय फट पड़ता है, जब अन्ना स्वीकारती है कि उसका दैहिक संबंध व्रोंस्की से बनता रहा है।
आधुनिक विचार व्यवस्था से लैस पाठक या लेखक यह सवाल कर सकता है –“मान लेते हैं कि दोनों उपन्यासों में दो अलग-अलग हालातों में घुड़दौड़ का प्रसंग आया जरूर है, तो क्या यह मान लिया जाए कि इससे दोनों उपन्यासों में घुड़दौड़ की घटनाएँ नायकों के भविष्य को प्रभावित नहीं करतीं, जिससे आगे चलकर उनका जीवन तबाह हो जाता है? और क्या जोला का परिपक्व और विशेष प्रकार का प्रभावशाली लेखन उसके द्वारा वर्णित समाज के वास्तविक चरित्र का आभास नहीं कराता ?”
मूल सवाल यह है – गल्प में संयोग के होने का क्या अभिप्राय है? संयोग के अभाव में कथन अथवा आख्यान और कथा के मूल स्वर की मृत्यु हो जाती है। आकस्मिकता को परे करके किया गया लेखन कथारस पैदा नहीं कर पाता। साथ ही कथाकार जीवन का चित्रण भी नहीं कर सकता। दूसरी ओर अगर संयोग का इस्तेमाल हो तो जीवनाख्यान की प्रस्तुति में लेखक संभावी संयोगों को गाढ़ा करके कथारस को और भी ज्यादा प्रशस्त और प्रभावी बना सकता है।
क्या इसे वर्णन की सूक्ष्मता, जो रोचकता और कथ्य सौंदर्य में वृद्धि कर देता है, वाला गुण नहीं माना जा सकता? क्या इससे घटनाओं और परिस्थितियों के साथ पात्र के जुड़ाव या संघर्ष के रचाव में रोचक स्थिति निर्मित नहीं होती? विचारणीय है कि व्रौंस्की द्वारा घुड़दौड़ में हिस्सा लेना पूरी कथा को एक अलग उँचाई और मोड़ देने वाली स्थिति और घटना है, जो जोला के द्वारा किए गए विस्तृत वर्णन से कहीं ज्यादा बेहतर है। तटस्थ होकर विचार करने पर पाते हैं कि घुड़दौड़ में भाग लेना केवल जीवन की एक दशा या कह लें कि ज़रूरत भर है। हालाँकि टालस्टॉय ने इस स्थिति का उपयोग कथा विस्तार की दृष्टि से बहुत ही दिलकश तरीके से किया है। घुड़दौड़ में विजेता होने से व्रोंस्की की सामाजिक प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाते, जो दुर्भाग्य से नहीं हो पाया, परंतु इन सबसे से बढ़कर इस घटना का योगदान कथा को दुखांत बनाने में हुआ है। इस लिहाज से विचार से करने पर यह घटना कथा का ज़रूरी हिस्सा लगने लगता है।
कथावस्तु निर्माण की प्रस्तुति में इस तरह के विरोधाभासी संयोगों के कई दूसरे उदाहरण भी साहित्य में प्राप्त होते हैं।
अब जोला के उपन्यास ‘नाना’ और बाल्जाक के ‘लॉस्ट इल्युजन’ जैसी दोनों कथाकृतियों में आए रंगशाला प्रकरण की चर्चा करते हैं और जानने का प्रयास करते हैं कि दोनों रचनाओं में रंगशाला का वर्णन किस तरह किया गया है। ऊपरी तौर पर दोनों में रंगशाला का वर्णन एक सा है। जिस तरह से जोला के इस उपन्यास में रंगशाला का उठता पर्दा, नाना के किस्मत और भविष्य दोनों पर से पर्दा उठा देता है उसी तरह बाल्जाक के लॉस्ट इल्युजन में रंगशाला का पहला शो ल्यूसिने डे रुमोरे की जिंदगी में एक कटावदार मोड़ ले आता है; जहॉ वह एक मामूली कवि से महत्वपूर्ण कवि के रूप में पहचान पाता है लेकिन उजड्ड और विवेकहीन पत्रकार का ठप्पा अब भी उसके साथ लगा रहता है।
रंगशाला वाले प्रकरण में जोला ने जानबूझकर बहुत ही बारीकी से दर्शक समूह की चित्तवृत्तियों को उकेरा है। रंगशाला में दर्शकों की एक-एक हरकत, मनोरंजन की सारी धड़कनों और विशेष प्रकोष्ठों में बैठे विशेष दर्शकों की बातचीत को इतनी कलात्मकता से प्रस्तुत किया है कि पूरा महाआयोजन साकार हो उठता है। दृश्यांतर किए बिना, सर्जनात्मक ऊर्जा खोए बिना, वह रंगमंच और साज-सज्जा-परिधान धारण कक्ष को ऐसे पेश करता है, मानों पूरी की पूरी रंगशाला को शब्द चित्र में लाकर धर दिया गया हो। पूरे रंगचित्र और रंगयोजना को दिखाने के बाद वह नाटक पूर्वाभ्यास को पूरी तीव्रता-जीवंतता के साथ शब्दों में उकेरता है।
इस तरह घटनाओं का ऐसा सूक्ष्म विस्तार बाल्जाक के यहाँ नहीं मिलता। बाल्जाक के लिए रंगशाला और नाट्य प्रस्तुति पात्रों के मन में उठने वाले तूफ़ानों, जैसे – लुसियन की सफलता,कॉर्ली की रंगसफलता, आर्थो मित्रमंडली में लुसियन का पूराने मित्रों से असहमतियाँ, हालिया रहनुमा लुस्तॉव से मनमुटाव और एमएम डे बर्गटन आदि से पुरानी शत्रुता आदि को दर्शाने के माध्यम मात्र हैं।
यह ठीक है कि रंगशाला में हुई नाट्य प्रस्तुति का विधान पात्रों के मानसिक झंझावतों को दर्शाने के लिए किया गया है, मगर सवाल यह है कि क्या पात्रों का मानसिक संघर्ष सही तरीके से नाट्य – प्रस्तुति से जुड़ पाया है या अभिव्यक्त हो पाया है? सर्वविदित है कि रंगमंच पूरी तरह से पूँजी के आधीन कला एक महत्वपूर्ण माध्यम है, जिसकी निर्भरता प्रचार के लिए प्रेस पर भी बनी रहती है। इस कला माध्यम का पूँजी के अधीन रहने के कारण इसमें पूँजी के तमाम बुरे गुण भी अंतर्समाहित होंगे ही। इस तरह रंगमंच प्रकरण के बहाने कई संबंधों की पड़ताल अथवा रहस्योद्घाटन हो जाता है, जैसे थिएटर से लेकर साहित्य और साहित्य से लेकर पत्रकारिता तथा पूँजीवाद की निगहबानी में एक अभिनेत्री का जीवन और उसकी ढँकी-छुपी वेश्यावृत्ति का पैबंद!
सामाजिक समस्याओं से परदा उठाने का प्रयास जोला ने भी किया है। परंतु उन्हें तथ्यात्मक रूप से मामूली और गैर-ज़रूरी सामाजिक आचरण के रूप में कह भर दिया गया है। जोलाका रंग-निर्देशक निरंतर दोहराता रहता है, “इसे रंगाशाला मत कहो, वेश्यालय कहो।” बाल्जाक ने तो दर्शाया ही है कि पूँजी के नियंत्रण में संचालित रंगशाला वेश्यालय में तब्दील हो गया था। उसके कथानायकों में आई नाटकीयता, दरअसल उस संस्थान के प्रभाव से आई है, जिसमें वे पलते-बढ़ते और काम करते हैं और जहाँ वे सामानों में हिस्सेदारी पाने के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं। कहना गलत न होगा कि संस्थान ही उनके जीवन का आधार है, यहीं उनके निजी संबंधों की शुरूआत होती है और यहीं उनके संबंध पुख्ता भी होते हैं।
निश्चित रूप से यह गंभीर स्थिति है। मनुष्य के मानसिक परिसर में वस्तुपरकता या उद्देश्य की प्राप्ति वाले कारक हमेशा कायम नहीं रह सकते और ऐसा होना ज़रूरी है भी नही। यही कारण है कि वह (मनुष्य) भाग्य पर भी भरोसा करने लगता है। जैसाकि बाल्जाक के यहाँ इस तरह का भाग्यवादी मोड़ दिखाई दिए भी हैं, उसके पात्र अपने सामान्य आचरण में इसी तरह से रंग भरते हैं। किंतु इस संभावना से भी इंकार नहीं कर सकते कि इसी भाव में जीते हुए वे भविष्य की योजनाओं की सफलता को पुख्ता करने के लिए जुगाड़ फिट किया जा सकता है। और किया गया भी है।
क्या इन रचनाओं की साहित्यिक प्रस्तुति विधान, जिन्हें हमनें अभी देखा और परखा, में समानता या निकटता के लिहाज से कुछ अंतर्विरोध है?
‘ओल्ड मोर्टालिटी’ उपन्यास के पहले अध्याय में वाल्टर स्कॉट नेस्कॉटलैंड के पुनरोद्धार के बाद वहाँ के राष्ट्रीय अवकाश के दौरान निशानेबाजी की प्रतियोगिता के आयोजन का चित्र प्रस्तुत किया है।यह आयोजन सामंती संस्थाओं के साथ स्टुअर्ट के समर्थकों और उनकी सैन्य सत्ता को फिर से खड़ा करने और असमानता फैलाने वाली शक्तियों को समर्थन देने वाले अभियान का हिस्सा है। परेड की चहल कदमी एक महत्वपूर्ण आयोजन है, जो पीड़ित और वंचित प्युरिटनों (अंग्रेजी ईसाई धर्म की एक शाखा) के विद्रोह की पूर्व संध्या पर आयोजित किया गया था। वाल्टर स्कॉट ने असाधारण महाकाव्यात्मक कलात्मकता के साथ ख़ूनी संघर्ष का विरोध करने वाली सारी शक्तियों को एक साथ परेड मैदान में खड़ा सा कर दिया है। सैन्य सत्ता को पुनर्जीवन देने वाले ऐसे ही भौंडे दृश्यों की एक श्रृंखला के दौरान वह (वाल्टर स्कॉट) ने सामंती संस्थाओं के का पूरा भ्रम रच दिया है। साथ ही उसने सामंती संस्थाओं की हताशा को दिखाते हुए उनके पुनरोद्धार में लगी आबादी के विरोध को भी दर्शाया, जिससे इस अभियान का खोखलापन जाहिर हो जाता है। बाद की प्रतियोगिताओं के दौरान वह दोनों पार्टियों के अंतर्विरोधों को उजागर करता है; दोनों ओर से खेल में कुछ लोग ही भाग लेते हैं। सरायखाना में शाही बवालियों और उनके प्रतिपक्ष के बीच तंबाकू के लिए विनाशकारी नाराजगी और मुठभेड़ देखने को मिलता है; यही तंबाकू आगे चलकर प्युरिटनों का रहनुमा बनता है। इस तरह से सैन्य सत्ता को फिर से जिंदा करने वाले इस अभियान के वर्णन और घटना के हर अंश के चित्रण में वाल्टर स्कॉट ने कथा साहित्य में गुटों तथा नायकत्व की ऐतिहासिक नाटकीयता का प्रवेश कराता है और कथाक्रम की मोहक सजावटी नमूना पेश करता है।
कथा कहने का उसका ढंग इतना कटावदार है कि एक ही झटके में वह हमें निर्णायक मोड़ पर खड़ा कर देता है और हम भौचक्क से देखने लगते हैं कि यह कैसा दयार है!
इसी प्रकार फ्लॉबर्त के उपन्यास ‘मादाम बावेरी’ में कृषि मेला और किसानों को सम्मानित करने का वर्णन निश्चित रूप से आधुनिक यथार्थवाद के तमाम सफल और यादगार चित्रणों में से एक है। मगर फ्लॉबर्त ने इस घटना का समायोजन मात्र किया है। नमक-मिर्च नहीं लगाया है। उसके लिए मेले के आयोजन का लक्ष्य रूडोल्फ और एम्मा बॉवरी के बीच प्रेमदृश्य को आधार प्रदान करना ज़रूरी है। यह आयोजन प्रेमदृश्य को मजबूती देने की गरज से किया गया है। आयोजन कटावदार मोड़ की तरह आकस्मिकता लिए हुआ है। फ्लॉबर्त ने प्रेमाकुल संवाद के अंशों के साथ उसके अधिकृत विरोधी पक्ष के उलटन-पलटन द्वारा इस आयोजन पर आकस्मिकता का रंग और भी ज्यादा गाढ़ा कर दिया है। ऐसा करके उसने आवाम के साथ छुद्र पूँजीपति वर्ग की निजी नीचता का मुकाबला कराते हुए विडंबना का पूरा वितान रच दिया है। इस तरह वह बहुत आसानी और पूरी कलात्मकता से दो वर्गों की समांतरता को परोस दिया है।
हालाँकि यहाँ भी एक अनसूलझा अंतर्विरोध व्यपाप्त है : प्रेमांकन के लिए इस तरह का आकस्मिक प्रयास अत्यंत महत्वपूर्ण है। दुनियाँ के उपन्यासों में ऐसा वाकया वाकई बहुत बेमिशाल है। निश्चित रूप से चित्रांकन या बखान के विवरण को पूरा करने के लिए फ्लॉबर्त ने जो कार्यसूची तैयार की है, वह उसके उद्देश्य को पूरा करने और रंग भरने के लिए ज़रूरी है। बखान के विवरण वाली यह सूची उसके उद्देश्य को सफलतापूर्वक पूरा करती भी है। इस प्रयास से वहाँ के सामाजिक परिवेश के रचाव-बसाव का भान होता है। इसके साथ एक बात यह भी कि विडंबनाएँ आख्यानों के बखान के महत्व का समापन नहीं कर पाई हैं। अर्थात समायोजन हालात को बयाँ करने के बेजोड़ जरिया की तरह हैं। उपन्यास से गुजरते हुए पाठक समाज की कई अविभाजित परिस्थितियों से दो-चार होता जाता है। वहाँ कई ऐसे हालात और कुछ पेंटिंग दिखाई पड़ती हैं जिनका कोई ख़ास प्रयोजन नहीं है, मगर वे जीवनानुभव को रंग-गंध से भर देती हैं। यहॉ तक कि कुछ चीजें गरीबी और मुफलिसी के विरोधाभास मात्र को रचने के काम आई हैं, जो भाव घटनाओं से पूरी तरह उद्घाटित न हो पाए हैं, पेंटिंगों ने उन भावों को मूर्तरूप दिया है। कहना गलत न होगा कि जिन छवियों से घटनाएँ सटीक ढंग से नहीं जुड़ पाई हैं, पेंटिंग से वह छविया खांटी रूप में परोस दी गई हैं।
फ्लाबर्त अपने प्रतिकात्मक कथा विधान और विडंबनात्मक बुनाव के सहारे वास्तविक कलात्मक उँचाई प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करता है। किंतु जब जोला पर विचार किया जाता है, तो पाया जाता है कि उसने प्रतीकों के माध्यम से सामाज का सकल चित्र अवतरित कर दिया है। यहाँ यह भी दिखाई पड़ता है कि उसने समाज की अर्थहीनता को महान सामाजिक महत्व के साथ प्रस्तुत किया है। वास्तिविक चित्र खींचने के फेर में रूपकों को अंदर–बाहर, दोनों ओर से फट जाने के हद तक भर दिया है। उसके यहाँ विवेकहीन विस्तार, मौकेपरस्त की समानता, अप्रत्याशित मनोभाव और आकस्मिक मुलाकात – सभी को महत्वपूर्ण सामाजिक संबंधों के रूप में पेश किया गया है। जोला के यहाँ इस तरह की असंख्य उदाहरण पाए जाते हैं, जैसे नाना के चेहरे की तुलना सोने की कतरनी से करना ; यह तुलना 1870 के पहले के पेरिस में अन्ना के प्रलयकारी प्रभाव के व्यक्त करने के लिए किया गया है। स्वयं जोला ने इसे स्वीकार किया है : “मेरी रचनाओं में वास्तविक जीवन के विस्तार का अतिरिक्त पुष्टि किया गया है। इसमें सैन्य अड्डे की छानबीन से लेकर सितारों तक की छलांग लगाई है। इनमें कल्पना के पंख यथार्थ तक की यात्रा करते हैं और उसे (यथार्थ को) प्रतीकवत बना डालते हैं।”
स्कॉट और बाल्जॉक या टालस्टॉय के यहाँ दूसरा ही मंजर दिखाई पड़ता है; इन कथाकारों की कथाओं में आई घटनाएँ स्वाभाविक जान पड़ती हैं। ऐसा इसलिए होता है,क्योंकि घटनाओं का जुड़ाव (घटनाओं का) पात्रों से प्रत्यक्ष हो पाता है। यही वजह है कि किरदारों का सामाज से जो वास्ता बनता है या जो आवाजाही होती है, वह बड़ी आसानी से दर्ज़ हो जाती है। इसका लाभ यह होता है कि हम (पाठक) किरदारों के हर हरकत, हर धड़कन को महसूस कर पाते हैं।
फ्लॉबर्त और जोला के कथाचरित्र घटनाओं से लगभग निर्लिप्त रहते हैं। इससे पाठक के लिए घटनाएँ शोभा या विवरण बनकर रह जाती हैं। हम अर्थात पाठक खामोशी से झलकियों को देखभर पाते हैं तथा महसूस करने से मरहूम रह जाते हैं।
II
अनुभव और अवलोकन के बीच की उठापटक संयोगवश नही है। यह जिंदगी की मुक़्तलिफ़ और बुनियादी हालातों और समाज की बुनियादी समस्याओं से पैदा होती है न कि विषयवस्तु की कलात्मक पच्चीकारी से।
क्या मात्र इस मान्यता से हम समस्या की तह तक पहुँच सकते हैं या किसी ठोस अवधारणा को निर्मित कर सकते हैं? हम जानते हैं कि जैसा जीवन में होता है,वैसा साहित्य में नहीं होता अर्थात साहित्य में इस तरह की शुद्धता नहीं पाई जाती। एंजेल ने एक बार इस अंतर्विरोध को रेखांकित करते हुए कहा था कि “शुद्ध”सामंतवाद केवल अल्पकालिक जेरूशलम साम्राज्य के संविधान में पाई जाती है। हलाँकि अब सामंतवाद इतिहास हो चुका है और अब यह वैज्ञानिक आकलन का एक प्रिय विषय हो सकता है। अब ऐसे लेखक नहीं, जो वर्णन को इतनी पूर्णता से पूरा करते हों। न ही कोई ऐसा बंदा नजर में आता है, जो 1848 के बाद की यथार्थता (जैसा फ्लॉबर्त और जोला दे पाते हैं) को इतनी सिद्दत से पेश कर पाता हो। यहाँ कथन या वर्णन की भ्रमपूर्ण शुद्धता के बरक्श रचना या कृति के दर्शन को विशेष महत्व दिया गया है। कोई आख्यान या किसी वर्णन के कैसे और क्यों की तलाश करने की तुलना में उस महाकाव्यात्मक कला को कई मोड़ों या पड़ाओं में से उस पड़ाव को जानना ज्यादा ज़रूरी है, जो वास्तव में प्रमुख मोड़ या पड़ाव है। इसे करने या होने से कथा-चरित्रों और कथा-विस्तार में मूलभूत रूपांतरण देखने को मिलता है।
स्टेंथल (Stendhal) के ‘चार्टरहाऊस ऑफ पार्मा’ (Charterhouse of Parma) उपन्यास की आलोचना में बाल़्जॉक ने वर्णन को आधुनिक कथासाहित्य के प्रमुख साधन और उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया है। अठारहवीं सदी के तमाम उपन्यासों (ले सेज और वाल्टेयर आदि) में ऐसे वर्णन शायद ही मिल पाते हैं और एकाध जगह हैं, भी तो इतने मामूली कि उनका होना कोई ख़ास मायने नहीं रखता। रोमानी साहित्य आंदोलन के आने से हालात बदले। बाल्जॉक ने साफ इशारा किया है कि वह कथा-विस्तार और कथा-परिवेश को अंगीभूत रूप में स्थापित करने वाले वॉल्टर स्कॉट से साहित्यक दिशा प्राप्त करता है। बाल्जॉक मानता है कि आख्यानों के साथ परिवेश के शानदार प्रस्तुति में वॉल्टर स्कॉट बेजोड़ है।
वह कहता है कि जब हम सत्रहवी–अठारहवीं सदी में कथा-विस्तार की शुष्कता भरे दौर से गुजरते हुए स्वयं को उस कथा प्रवृत्ति से जोड़कर देखते हैं तो हमें कथा कहने की प्रवृत्तियों की श्रृंखला और नई साहित्यिक आलोचना दृष्टि की रूपरेखा दिखाई पड़ने लगती है। कथा-विन्यास का विहंगावलोकन करने के पश्चात बाल्जॉक इस फैसले पर पहुँचता है कि उस दौर के सभी कथाकारों में कथा कहने की शैली में समानता या एकरसता है। परंपरा के मूल्यांकन के बाद बाल्जॉक कथा में नाटकीयता और नवीन प्रभाव लाने वाले तत्वों सराहना करता है।
नवीन सामाजिक परिघटनाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए कथा साहित्य में इस तरह की नई शैलियों का विकास किया गया है। आज का व्यक्ति समाज के साथ जिस रिश्ते को जी रहा है, वह सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के मनुष्य की तुलना में ज्यादा जटिल हो चुका है। पहले कथा लेखन का ढर्रा बड़ा आसान था। पहले के लेखन में कथा पृष्ठभूमि का भान कराने वाले दृश्य, कुछ बाहरी दिखावटें और कथाचरित्रों का सामान्य रहन-सहन जता देने भर से कथा और कथाचरित्रों का सामाजीकरण पूरा हो जाया करता था (जैसे – ले सेज)। पहले की बात और थी; उस समय व्यक्तिव निर्माण के लिए पात्रों का घटनाओं के साथ प्रतिक्रिता दिखा देना प्रयाप्त माना जाता था। जटिलताएँ आसान रास्ते पर नहीं चला करतीं। कठिन जिंदगी, कठिन मनुष्य-समाज का निर्माण करती है। कथा-प्रस्तुति का रंग बदलना तो ज़रूरी है ही।
बाल्जॉक समझ चुका था कि पुराने ढर्रों से काम नही चलने वाला, और यह स्थितियाँ बहुत दिन तक नहीं चल सकती। रास्तिनाग* (बाल्जॉक के एक उपन्यास का पात्र) दूसरे कथाचरित्र गिल ब्लास* (अलेन रेने के उपन्यास का एक पात्र) के लिए एक प्रकार का चैलेंज है। रास्तिनाग के संदर्भ में गंदगी, गंध, भोजन और पेंशन वाउचर का जो जिक्र आता है और जिस तरह से आता है, वह रचना को वास्तविक, साहसी और सुबोध बनाता है। इसी तरह से ग्रांडेट हाऊस और गॉबसेक अपार्टमेंट का भी क्रमवार वर्णन होना चाहिए था ताकि दोनों की वास्तविक छवियाँ पाठक के समाने आ सकतीं। किंतु इन सबके बाद भी कहना गलत न होगा कि परिवेश का वर्णन कभी भी “शुद्धरूप” से नहीं किया जा सकता। लेकिन यह जरूर है कि परिवेश और प्रभाव में अवश्य तब्दीली होती रही है, (जैसे, बुढ़ा ग्रांडेट अपने पुराने सीढ़ीदान की सफाई खुद करता है); बाल़्जॉक के लिए कथा वर्णन करना, उपन्यास के संगठनात्मक विकास में नए तत्वों (नाटकीय तत्वों) के समावेश और कथाविन्यास को प्रामाणिक करने से ज्यादा कुछ नहीं है। बाल्जॉक की असाधारण बहुआयामिता उस स्थिति में अच्छी न हो पाती, अगर कथा का परिवेश, कथाचरित्रों के हाड़मांस में खून की तरह न बहने लगता। अर्थात परिवेश और पात्रों की आंतरिकता से बाल़्जॉक की कथाओं में जीवंतता आ पाई है। फ्लॉबर्त और जोला का वर्णन इससे बहुत अलग है।
बाल्जॉक, स्टेंथल, डिकेंस और टालस्टॉय ने बुर्जुआ समाज का समग्र चित्र खींचा है। इसके साथ ही इस समाज के लिए बने जटिल नियमों-कायदों और पुराने समाज की खोल से निकलने वाले नए समाज निर्माण को भी बड़े इत्मीनान से दर्शाया है। ये लेखक ऐसा इसलिए भी कर पाए, क्योंकि वे स्वयं सक्रिय रूप से उस समाज की दिक्कतों को अलग-अलग ढंग से महसूस भी किए थे। गेट, स्टेंथल और टालस्टॉय युद्ध में भाग ले चुके थे। बाल़्जॉक, उभरते फ्राँसीसी पूँजीवाद का प्रतिभागी और शिकार दोनों था। जहाँ एक ओर गेटे और स्टेंथल सरकारी मुलाजिम के रूप में सेवा दे चुके थे, वहीं दूसरी ओर टालस्टॉय एक धनपति एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों (जनसंख्या और महिला आयोग) में प्रत्यक्ष रूप से कार्य कर चुका था। अर्थात तीनों संक्रमण के दौर के उथल-पुथल को बहुत नजदिक से देख चुके और भोग चुके थे।
वे अपने सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में नवजागरण और प्रबोधन के लिए लेखक, कलाकार और चिंतक की भूमिका अदा कर रहे थे। अर्थात् ये लेखक उन लोगों में शुमार किए जाते हैं, जिन्होंने अपने समाज के लिए संघर्ष किया और तत्कालीन समय-समाज को अपने लेखन का जरिया बनाया। उन्हें पूँजीवादी श्रम विभाग का विशेषज्ञ नहीं माना जा सकता।
फ्लॉबर्त और जोला का मामला दूसरा था। उनके लेखन की शुरूआत पूँजीवादी समाज के स्थापित हो जाने के बाद हुई। वे उस समाज का सक्रिय हिस्सा नहीं थे। वास्तव में उन्होंने इस समाज के साथ होने का विरोध किया था। विरोध की यह भंगिमा इस संक्रमणकालीन दौर के कलाकारों की सबसे बड़ी त्रासदी है। सामाजिक सक्रियता की यह अस्वीकारता और भयावहता का यह आलम उनके समय के सभी सामाजिक-राजनीतिक विरोधों, घृणाओं और अवमाननाओं में झलकता है। वे लोग, जिन्होंने संगदिल होकर अमन कायम किया, वे पूँजीवाद के विषय में झूठ फैलाने वालों में शुमार होते हैं। लेकिन फ्लॉबर्त और जोला के जीवन में पूँजीवाद की विंडबनाओं और त्रासदी के प्रति तटस्थ रहने की एकरस चुप्पी दिखाई पड़ती है। हलांकि इस चुप्पी के साथ वे श्रम के पूँजीवादी विभाजन को आधार बनाकर अपने लेखन में शिल्पगत प्रयोग करते पाए हैं। किताबें तिजारत का सबब और लेखक तिजारती बनता है। इतना सब होने के बाद भी बाल्जॉक में सांस्कृतिक परिसर के संग्रह की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। गेटे और टालस्टॉय के यहाँ दूसरे तरह का मंजर दिखाई पड़ता है; उनके यहाँ तमाम प्रगतिशीलता के बाद भी उन लोगों, जिनके लेखन में जीवंतता नहीं है के प्रति कुलीन प्रकार का तिरस्कार दिखाई पड़ता है। फ्लाबर्त और जोला के विषय में यह जानना भी कम रोचक नहीं है कि जहाँ फ्लॉबर्त ऐच्छिक तपस्वी सा है, वहीं जोला श्रम के पूँजीवादी विभाजन से उपजे भौतिक दबाव के कारण लेखक बनना स्वीकार करता है।
लेखन का नया ढंग और नए प्रकार की कहन शैली हवा में नहीं उपजती; वह अपने पूर्ववर्ती कथा विन्यास या शैली से किसी न किसी रूप से जुड़ी हुई रहती है। कथा की हर शैली अपने समय के समाज का आईना होती है। लेकिन किसी कथाशैली को निर्मित या प्रभावित करने वाले कारक हर युग में एक से नहीं होते, न ही उनका प्रभाव हर समय एक सा रहता है। किसी कला को गलत, कुरूप और दूषित करने वाली ज़रूरी गलतियाँ भी हर युग में बनी रह सकती हैं। पूँजीवाद के भिन्न – भिन्न चरणों में या समय में किसी लेखक के लिए लेखन और विषय के विकल्प, अनुभव और अवलोकन की सामग्रियाँ भी एक सी नहीं होतीं।
दो प्रकार की स्थितियों को सही तरीके से अलगाने के लिए हम गेटे और जोला द्वारा अपने लेखन का संदर्भ लेते हुए जो कहा गया, उसे देख सकते हैं। गेटे कहता है –“मैंने प्रकृति का चित्रण कविता की सुंदरता के लिए कभी नहीं किया। लेकिन मेरे सतत लेखन ने मुझे प्रकृति के अवलोकन के लिए जिज्ञासु बनाया। इसी जिज्ञासा के वशीभूत होकर मैंने प्रकृति के छोटे–छोटे विवरण को समझने का प्रयास किया।” जोला ने भी कहा है,“एक प्राकतिक यथार्थ वाला उपन्यासकार जब रंगमंच जगत पर लिखना चाहता है, तो उसको रंगजगत की बारीकियों को समझना होता है।” इसके लिए वह रंग संसार की विषयवस्तु का अध्ययन करता है और कुछ ज़रूरी चीजों को नोट करता है। चरित्र निर्माण की बारीकी जानने के लिए, वह रंग समाज की प्रवृत्तियों पर आंख गड़ा देता है। वह थिएटर देखता है। अभिनेत्रियों के हाव-भाव का अध्ययन करता है। इस तरह से रचना संबंधी सारी सूचनाओं और सूक्ष्मताओं का दस्तावेज जब तैयार हो जाता है, तो उपन्यास अपने आपको लेखक से लिखवा लेता है। लेखक को खाली तथ्यों को सूझबूझ के साथ परोसना होता है…… रूचि वास्तविक कथा में नहीं, इसके बाँके कथाविन्यास और कहन की सरलता में होती है।” [इंफेसिस द्वारा जी.एल]
यह दो प्रारूपी शैली वाले कथाकारों की आत्मस्वीकृतियाँ थीं।
III
सामाजिक ज़रूरत से पैदा हुई कहन शैली सौंदर्यपरक कहन शैली से एकदम अलग हुआ करती है। सौंदर्यपरक कहन शैली में तत्कालिकता का समावेशन नहीं हो सकता है। यह एक तरह की गैर-वाजिब अहमकपना है कि किसी एक सामाजिक सिद्धांत से हर लेखक के व्यक्तित्व और उसके लेखन का निजीपन जाना जा सकता है। इस तरह की नाप-जोख से पूँजीवादी अवनति के सभी स्तरों के कलात्मक साहित्य को समझने में कठिनाई हो सकती है। इस इतिहास दृष्टि के लिए होमर या शेक्सपियर अपने समय का वैसा ही उत्पाद या परिणाम हैं, जैसा जॉयस या डॉस पैटोस। ऐसे में साहित्य आलोचना का लक्ष्य केवल सामाजिक समतुल्यता की तलाश तक महदूद हो जाता है। हलांकि कि होमर के महाकाव्य में सामाजिक उत्स की खोज के कर्म में मार्क्स एकदम भिन्न तरीके से एकदम अलग से सवाल को आलोचना के क्षितिज पर उतारता है और घोषित करता है –“यह समझने में दिक्कत नहीं हो सकती कि ग्रीक कला और महाकाव्य, दोनों विशेष प्रकार के सामाजिक विकास का परिणाम हैं। परंतु दिक्कत इस बात को लेकर है, क्यों आज भी उनके लेखन को कलावादी, आनंदमूलक और एक नायाब नज़ीर की तरह पेश किया जाता है।”
निश्चित रूप से मार्क्स के इस अवलोकन का इस्तेमाल समान रूप से नकारात्मक सौंदर्य निर्णय और निर्धारण में भी किया जाता है। वैसे भी कला के सौंदर्यवादी दृष्टिकोण को उसके ऐतिहासिक उत्स से यांत्रिक तरीके से अलगाया नहीं जा सकता है। जब होमर की महाकाव्यात्मक गाथाएँ वास्तविक रूप की महाकाव्य हैं, तो क्या कैमिस, मिल्टन और वाल्तेयर की रचनाएँ वास्तविक और प्रामाणिक नहीं हैं, क्या उनमें सामाजिक, ऐतिहासिक और सौंदर्यमूलक सवाल शामिल नहीं हैं। क्या कला का अभाव, सामाजिक, ऐतिहासिक और वस्तुजगत स्थितियों से कट के आ सकता है, जबकि यह सर्वविदित है कि कई तरह की दुरूहताएँ व्यापक और बहु-आयामी होकर ही वस्तुजगत का यथार्थ बनती हैं और कलात्मक रूप से रचनाओं में प्रकट होती हैं। सामाज की पूर्व मान्यताएँ और स्थितियाँ कलात्मक निर्माण को विपरीत रूप से प्रभावित करती हैं, जिसका असर साहित्य के मूल स्वरूप पर भी देखने को मिलता है।
अपने उपन्यास ‘एल एजुकेशन सेंटिमेंटाले’ पर स्वयं की आलोचना करते हुए फ्लाबर्त लिखता है : “यह एकदम सही बात है कि इस उपन्यास में मिथ्या परिप्रेक्ष्य का अभाव है, क्योंकि इसे बहुत ही सही ढंग से परिकल्पित किया गया है। प्रत्येक कला माध्यम की अपनी खूबसूरती होती है, उसकी अपनी चरमदशा होती है। यह पिरामिड की तरह होता है, जिसके हर भाग पर समानरूप से प्रकाश फिसलती है, मगर जिंदगी में ऐसा नहीं होता। कला कोई प्रकृति थोड़े ही है। अभी तक किसी ने भी इस सत्य को गलत साबित नहीं किया है।”
फ्लॉबर्त की तमाम स्वीकरोक्तियाँ उसकी साफगोई को दर्शाती हैं। वह अपने उपन्यास के पात्रों का निर्माण सही तरीके से करता है। वह कथा रचने के क्रम में कलात्मक सौंदर्य के चरम परिणति को भी नहीं बिसराता। लेकिन वह दावा करते हुए कहता है,“वह एकदम सही है”, क्या यह दावा सौ प्रतिशत सही है? क्या कलात्मक सौंदर्य नितांत अकेले में पनप सकता है? बिल्कुल नहीं। इसलिए फ्लॉबर्त की साफगोई केवल उसके व्यक्तिगत आलोचना ही नहीं बल्कि यथार्थ के प्रति उसकी गलत अवधारणा, समाज के प्रति उसकी सोच और कला तथा प्रकृति के बीच के संबंध को भी उजागर करती है। उसका कहना कि चरम परिस्थितियाँ केवल कलाओं के माध्यम से जन्म लेती हैं, जिसकी सर्जना कलाकार करता है। वस्तुत: एक तरह का निजी आग्रह है। इस तरह का दुरूह आग्रह पूँजीवादी समाज के जीवन और वहाँ के जीवनानुभव से उत्पन्न चरित्रबोध, सामाजिक परिवर्तन के लिए जिम्मेदार प्रेरक तत्वों को नजरअंदाज करने और वहाँ की जिंदगी की अंदुरूनी तहों को निरंतर अनदेखी करने या सतही निरीक्षण से उत्पन्न हुआ है। इस तरह के अवलोकन से जिंदगी एकरस सी दिखाई पड़ने लगती है। कभी – कभी “अचानक से” एकरसता को तोड़ने का प्रयास हुआ जरूर है लेकिन इससे सटीकता और यथार्थ स्वभाविकता भंग हो जाती है।
वास्तव में, जब पूँजीवादी सच्चाई को प्रस्तुत करते हुए इस तरह का “अचानक” वज्र की तरह गिरता है तो समझ लेना चाहिए कि यह रीति लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। इस आभासी शांतिपूर्ण प्रवाह की विडंबनाओं पर वह कोई पहल करते हुए नहीं देखा जाता परंतु इससे संपूर्ण प्रक्रिया की जटिलता और विषमता का भान हो जाता है। यह, वह पहलू है, जिससे फ्लॉबर्त का लेखन उजागर होता है। और इस रीति का पालन कलाकार का करना चाहिए, मगर फ्लॉबर्त के यहाँ थोड़ी सी दिक्कत है, वह सर्जना में कल्पना का इस्तेमाल गलतफहमी में करता है; इसीलिए उसके यहाँ अभिव्यक्त कल्पनाएँ स्वभाविकता का भान नहीं करा पातीं। हम जानते हैं कि समाज रीतियों और विधियों के ऐतिहासिक विकास और सामाजिक संघर्षों से आकार लेता है। वस्तुनिष्ठता के लिहाज से सोचें तो यथार्थ, अयथार्थ, वस्तुपरकता और अमूर्तता,“सामान्य” और “असामान्य” के व्यतिरेक या अंतर का उद्घाटित करने का माध्यम हैं। उदाहरण के रूप में मार्क्स को लें, मार्क्स के लिए आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का मूलचरित्र है। “स्वशासित समाज या स्वायत्तता परस्परता और पूरक कारकों से परिकल्पित या निर्मित होती है।”वह लिखता है“यह हिंसक तरीके से नष्ट किया जाता है। जिसके कारण संकटापन्न स्थितियों से इस तरह के बिखरे और एक दूसरे से अलग-थलग पड़े कारकों को परस्पर जुड़ने का मौका मिलता है।”
वास्तविकता या यथार्थ का बुनाव उन्नींसवी शताब्दी का आधा समय निकल जाने के बाद भूल-चूक मानने वाले पूँजीवादी विज्ञान के द्वारा एकदम अलग तरीके से हुआ। यह इसलिए हुआ, क्योंकि ऐसा संकट अचानक से अर्थव्यवस्था में प्रकट हुआ, जिससे अर्थव्यवस्था का सामान्य प्रवाह बाधित हुआ। इससे एक विचित्र संयोग देखने को मिलता है, वह, यह कि हर-एक क्रांति को संकट और असामान्य स्थितियों के परिणाम के रूप में देखा जाने लगा।
फ्लॉबर्त और जोला दोनों, न तो व्यक्ति के रूप में और ना ही लेखक के रूप में पूँजीवाद के समर्थक के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। दोनों की समझ उनके समय के प्रभाव से पैदा हुई थी। उनके जीवन का विचार और समझ उनको प्रभावित किया था, ख़ासतौर पर जोला, जिसके लेखन में पूँजीवादी समाज का पक्ष अभिव्यक्त हुआ है। यह इसलिए भी संभव हुआ, क्योंकि जोला का जीवन किसी आंदोलन या परिवर्तन से लगभग अछूता रहा। उसके अनुसार मनुष्य का कर्मक्षेत्र उसके सामाजिक परिवेश का परिणाम होता है। हालाँकि मनुष्य के जीवन और लेखन में कुछ अन्य विविधताओं और विषम परिस्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है, जैसे अनुवांशिकता, जिसका असर मनुष्य की सोच-विचार, भावनाओं और उसके सामान्य आचरण पर पड़ता है। अर्थात भाग्यवादी अनिवार्यताएँ और पैदा की गई आपदाएँ जीवन क्रम को प्रभावित करती हैं। इसलिए इतैनी लैंटियर के उपन्यास ‘जर्मिनल’ में जन्मजात आदिम मादकता और व्यसन या आपदाएँ आई हुई हैं, जिनका इतैनी द्वारा वर्णित चरित्रों से कोई सामंजस्य नहीं स्थापित हो पाता। इसी तरह की समानता रखने वाली स्थिति गोल्ड उपन्यास में स्कॉर्ड के पुत्र के साथ होते हुए दिखाया गया है। इस तरह के प्रत्येक उदाहरण में आया परिवेशगत सामान्य और अविभाजित व्यवहार,जिसका संबंध अनुवांशिक लक्षणों से है, अचानक से आकर प्रलय मचाता है।
निश्चित रूप से उस समय के लेखकों में वस्तुगत सच्चाई नहीं है लेकिन सैद्धांतिक स्तर पर तुच्छ किस्म का तोड़-मरोड़ और भूली-बिसरी तरह का पूर्वाग्रह जरूर है। सामाजिक प्रक्रियाओं को प्रेरित करने वाली शक्तियों की प्रशंसा करना और जिंदगी पर पड़ने वाला उनका तटस्थ, गहरा और व्यापक प्रभाव हमेशा ही आंदोलनों में व्यक्त होता रहा है, जिससे जीवन और समाज की सामान्य तथा आपद स्थितियों का भान होता है (और हुआ भी है)।
सामाजिक प्रक्रिया का यह यथार्थ, व्यक्तिगत जीवन का भी सत्य है। सवाल है कि यह सत्य कहाँ और कब उद्घाटित होता है? गौरतलब है कि सत्य का यह रूप विज्ञान और राजनीति के अतिरिक्त मनुष्य के दैनिक जीवन और उसके आचरण में भी दिखाई पड़ता है। मनुष्य के आचरण परिसर में उसके शब्द, व्यक्तिपरक प्रतिक्रियाओं और विचारों की परख होती है, जो कभी वे सही पाई जाती हैं तो कभी गलत। इस आचरण परिसर में मनुष्य और उसकी कारगुजारियाँ कभी सत्य तो कभी असत्य प्रमाणित होती हैं। यहाँ तक कि मनुष्यबोध और उसका चरित्र भी इसी तरह से उद्घाटित हो पाता है। कौन बहादुर है और कौन अच्छा? ऐसे प्रश्नों का समाधान भी इसी प्रकार हो पाता है।
केवल अपनी गतिविधियों मात्र से मनुष्य दूसरों के लिए रूचिकर हो जाता है; मनुष्य की यह कारगुजारियाँ ही साहित्य में महत्व रखती हैं। साहित्य में पात्रों का क्रियाकलाप और आचरण-कर्म परीक्षण का आधार बनता है, क्योंकि इन्हीं विशेषताओं से उनके चरित्र-लक्षणों की परख हो पाती है। आदिम कविताएँ – जहाँ परियों या जादूगरनियों की कहानियों, गाथा-नृत्यों या किंवदंतियों-दिव्य चरित्रों या सहज उपाख्यानों का प्रसंग मिलता है, बाद में यह परंपरा साहित्य में पनाह पाती रहीं। कविताओं और गाथाओं की यह परंपरा बाद की रचनाओं में आकर लक्ष्यसंधान में रत मनुष्य की सफलता या असफलता का खाका खींचते हुए गहन अर्थवत्ता का निर्माण करती देखी जाती हैं। तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी यह परंपरा अपनी रोचकता को कायम किए हुए है, क्योंकि इसने ज़रूरी हकीकत बयानी का दामन नहीं छोड़ा है। इनमें आदमी की निजी कारस्तानियाँ और चुहलबाजियाँ सलीके से बयाँ हो पाई हैं, और इससे आदमी की मुख़्तलिफ़ जोख़िम भी बहुत ही बेहतर तरीके से नुमाया हो पाई है। ओडिसस या गिल ब्लास की काव्यात्मक वीरता और ताजगी का आधार जोख़िम उठाने की खासियत ही है। वैसे यह भी उतना सच है, जितना कि फैसला लेने की इंसानी जज्बाती अदा है, जो उसके लहू में दौड़ता रहता है। हमारी रुचि यह देखने में भी है कि ओडिसस या गिल ब्लास और मॉल फ्लॉडर्स या डॉन क्यूक्स्टो (DON QUIXOTE) अपने जिंदगी के मुश्किल हालात में फैसले कैसे लिए हैं, कैसे टिके रह पाए हैं, इसके साथ – साथ उनके चरित्रों की भी परख करना ज़रूरी हो जाता है कि इतना वक्त निकल जाने के बाद भी वे इतनी मुस्तैदी के साथ कैसे और क्यों हमें आकर्षित कर रहे हैं?
बिना महत्वपूर्ण लक्षणों को उद्घाटित किए और बिना दुनिया की घटनाओं, प्रकृति के रहस्य-बल और सामाजिक संस्थाओं के चरित्र से दो-चार हुए, असाधारण साहसिक परिघटनाएँ अपरिचित, अर्थहीन और अछूती रह सकती हैं। अभी तक कोई भी इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकता कि जब तक महत्वपूर्ण और मनुष्यगत प्रवृत्तियाँ उद्घाटित होती रहेंगी, तब तक उपर्युक्त देय सभी पद्धतियों का अनुकरण होता रहेगा और यह बात मायने नहीं रखेगी कि इस पद्धति में मनुष्य के चित्रण को कितना तोड़ा-मरोड़ा गया है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि किरदारों के नूर (चमक) और इस नूर के सायों की जाँबाजी को कहने का अंदाज कुछ जुदा किस्म का है (मसलन गुजरे जमाने के सुरमाओं और हालिया दौर के जासूसी उपन्यासों की दास्तानगोई)। इन अफ़सानों के असर से साहित्य के प्रति आम जन मानस का रूझान बढ़ा। साहित्य के प्रति गहनतर होते आकर्षण ने पाठक को अनुभवजन्य बनाया। जब किसी काल विशेष का कलात्मक साहित्य अपने कथाचरित्रों के अंतरानुभूति के माध्यम से कुछ ज्यादा नहीं दे पाता, तब पाठक समुदाय ऐसे साहित्य के खाके से विमुख या अनाकर्षित होने लगता है और उसके एवज में किसी दूसरे साहित्य या साहित्यरूप की तलाश करने लगता है।
साहित्य में इस तरह की स्थितियाँ उन्नीसवीं सदी के आधा गुजरने तक बनी रहीं। अवलोकनों और आख्यानों पर आधारित साहित्य का यह रूप जैसे-जैसे समय का रथ आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे कम होता गया। हाल-फिलहाल में उभरी जो साहित्यिक प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है, वह संभवत: पहले नहीं दिखाई पड़ी, क्योंकि इस समय घोषित रूप से गंभीर साहित्य के साथ–साथ बेजान जाबाँज दास्तानगोई (वीर रस का साहित्य)भी दिखाई पड़ता है। इसमें रंचमात्र का संदेह नहीं कि जाबाँज साहित्य (वीर रस का साहित्य) साधारण रुचि वालों के द्वारा पढ़ा जाता रहा और कुलीन वर्ग कलात्मक साहित्य का रसिया रहा और वैसे ही साहित्य को महत्व देता रहा। हालाँकि जो कहा गया है, स्थिति इससे एकदम विपरित की भी है। क्योंकि आधुनिक महान पुस्तकों का अधकचरा पाठ हुआ है। उन पाठों में अभिरुचि का अभाव और कर्तव्यबोध का अधूरान खटकता है। पाठ का निर्वचन करते समय उसके अंतर्वस्तु पर ध्यान नहीं दिया गया। बेपरवाही का आलम इतना भयावह रहा कि पुस्तकों के पाठ या अध्ययन के दौरान यह भी तय नहीं हो पाया कि ये पुस्तकें अपने समय को किस सीमा तक दिखा पाईं। साथ-साथ यह विषय भी अछूता रहा कि पुस्तकों ने अपने समय को कितना विकृत करके पेश किया। इसलिए यह देखना रोचक होगा कि इनके द्वारा परोसी गई रचनाशीलता कैसे जनसाधरण को जासूसी कथाओं की ओर मोड़ने में कामयाब हो पाई।
जब मादमा बावेरी पर बात की जाती है तो फ्लॉबर्त शिकायत करते पाया जाता है कि उसका उपन्यास जनरुचि पैदा करने में कामयाब नही हो पाया। इस तरह की बेशुमार शिकायतें आधुनिक क्लॉसिक रचने वाले तमाम महान लेखकों की ओर से सुनाई पड़ती हैं। इन लेखकों का मानना है कि महान उपन्यास उन्हें कहा जाता है, जिनमें मनोरंजन और रहस्य के साथ मानव मन की सहजानुभूति शामिल होती है। लेखकों का यह विचार आधुनिक कला माध्यमों के दूसरे स्वरूपों में व्याप्त एकरसता और उदासी में भी दिखाई पड़ता है। लेखकों की यह सोच या कला माध्यमों का यह विकास प्रतिभा के अभाव से नहीं उपजा है। दरअसल लेखकों ने कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए इस तरह का एकरस दोचित्तपन दार्शनिक दृष्टिकोण के रूप में अपनाया।
जोला स्टेंथल और बाल्जाक की बहुत ही कठोर निंदा करते हुए दोनों के कार्यों को अपवाद करार देते हुए कहता है कि उन दोनों का लेखन स्वभाविक नहीं है। अपने समय के दोनों लेखकों के प्रति आपत्तियों को प्रमाणित करने के लिए वह स्कॉर्लेट एंड ब्लैक से प्रेमचित्रण को बतौर नमूना उठाता है और कहता है – “इन लेखकों ने दैनिक जीवन का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह यथार्थ से कोसों दूर है। सारा का सारा वर्णनविधान कबाड़खाना सा प्रतीत होता है। मनोवैज्ञानिक स्टेंथल पाठक को इतना भी नहीं बता पाता, कहानी सुनाने वाला अलेक्जेंडर डुमान आखिर कहाँ जाता है। इसलिए जहाँ तक शुद्ध या वास्तविक सत्य का सवाल है, वह उतना ही उजागर हो पाया है, जितना जुलियन तमाम हैरानियों के मध्य पाठक को उपलब्ध कराता है।”
अपने निबंध गोनकोर्ट* की साहित्यिक सक्रियता में पॉल बर्गट ने रचना संयोजन पर बहुत ही सटीकता से विचार करते हुए नए प्रकार का सिद्धांत प्रस्तुत करते कहता है : “जिस तरह उसकी शब्द योजना या निरुक्तियाँ नाटकीयता पैदा करती हैं, उसे उच्च अभिव्यक्ति का रूप या प्रकार कभी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि कथा-पात्र या मनुष्य के चरित्राभाष को पूर्णरूप से आभाषित करने में यह विधि खरा नहीं उतरती।” इस विधि से क्षण विशेष में पात्रों की गतिविधियां दर्ज़ नहीं हो पातीं। यह पता नहीं चल पाता कि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में पात्र क्या कुछ कर गुजरता है। कथा-साहित्य में पात्रों के चरित्र को उद्घाटित करने के लिए रोजनामचे की झलक मिलना ज़रूरी माना जाता है, क्योंकि इससे किरदार के होने का अहसास मजबूत होता है।” इस तरह के अवलोकन से फ्लाबर्त बहुत कुछ कह जाता है। वह स्वयं के कथा संयोजन की तकनीकी पर जो आत्मलोचन प्रस्तुत किया है, उसे महत्तवूर्ण मानना चाहिए। कहना गलत न होगा कि फ्लॉबर्त पूँजीवादी समाज के आम जीवन को संदेह से देखते हुए उसे बहुत ही अनमने ढंग से प्रस्तुत करता है। किंतु हम जानते हैं कि हर तरह की सामाजिक मान्यताओं के पीछे परंपराओं का योगदान होता है, किंतु ऐसा होने मात्र से यह स्थापित नहीं हो जाता कि इस तरह की मान्यताएं ठहरी की ठहरी हुई होती हैं और यथार्थ को कलात्मक व समग्र रूप से प्रस्तुत करने में राह का काँटा बनती हैं। कोई संदेह नहीं कि फ्लॉब्यर समाज के लिजलिजे और दुराग्रहपूर्ण घेरे से निकलने के लिए आजीवन रचनात्मक संघर्ष करता रहा, मगर सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि उसने इन दुराग्रहों से निकलने के लिए कोई सार्थक प्रयास या हस्तक्षेप नहीं किया। सच्चाई तो यह है कि वह बिना रचनात्मक जोख़िम उठाए सारी परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया। इसीलिए उसके द्वारा उठाए गए कागजी संघर्ष कोई ख़ास मायने नहीं रखते। वह पूँजीवाद सामाजिक विधान और उदासी, संकीर्णता और घृणा पर कोई ख़ास हस्तक्षेप किए बिना मात्र कागजी शिकायत करते हुए आगे निकल जाता है। उसके विषय में इस तरह की निर्ममता से विचार करना समीक्षात्मक दृष्टि से जायज़ होते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वह अपने समय की परिस्थितियों में फँसा हुआ लेखक है। उसकी विवशता समझी जा सकती है। वह पूँजीवादी विषयवस्तु को चित्रित करने के लिए अभिशप्त है। फिर भी उसके पूँजीवादी विषयवस्तु के चित्रण वाले उपन्यासों से गुजरते हुए यह कहीं भी प्रतीत नहीं होता कि पूँजीवादी खेमे से वह रंचमात्र का भी वास्ता रखना चाहता है। ऐसा लगता है कि मानों उसने पूँजीवादी खेमों से दूरी बनाए रखने की कसम खाई हो। पूँजीवाद के आख्यानों को पढ़ कर लगता है वह हवाई जहाज पर बैठ कर विदेश से गुजर रहा हो। इस तरह का आग्रह उसे जीवन के गहन गीतों में उतरने से रोकता है। जबकि हम जानते हैं कि जीवन के गहन गीत मनुष्य को असंख्य युद्धों, कठिनाइयों और विश्व समाज के साथ उसके संबंधों का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इस तरह की संजिदगी के न होने से महाकाव्यों का ऐसा रचाव संभव नहीं हो पाता है, जो व्यापक जनरुचि का निर्माण कर सके। महाकाव्यात्मक गठन या महाकाव्यात्मक उपन्यासों की कला सामाजिक आचरणों एवं अनुभवों के महत्व व जीवंतता की प्यास से निखरती है। निश्चित रूप से महाकाव्यात्मक उपन्यास उसे कहा जा सकता है, जिसमें व्यक्ति-समाज का मन और उसकी सक्रियता साफ पानी में पड़े कंकड-पत्थर की तरह साफ–साफ दिखाई पड़ता है। मनुष्य इसी तरह की उम्मीद महाकाव्यात्मक उपन्यासों से करता भी है। महाकाव्य रचियता को इन प्रभावों को सही अनुपात में प्रस्तुत करना होता है और महाकाव्य के हर कोने-अतरे को स्वभाविक रूप से साफ – सुथरा रखना पड़ता है। इस तरह मनुष्य और उसके सामाजिक परिवेश तथा आचरण का हर हिस्सा उपन्यासों में अनुभूतिजन्य रूप से पेश होना चाहिए। ऐसा होने से ही कोई रचना सार्वजनीन हो पाती है। कलावादी नजरिए से बुनी हुई रचना यह ओहदा नही पा सकती, लेकिन रचनाओं को बुनते हुए कुछ भाव इतने सटिक तरह से बुन जाते हैं, कि वे अपनी स्वभाविकता के कारण वास्तविक से ज्यादा वास्तविक जान पड़ते हैं, ऐसे स्वभाविक फंदों (भावों) पर कृत्रीमता का आरोप नहीं लगाना चाहिए। इस दृष्टि से विचार करने पर जर्मनी का उपन्यासकार एवं नाटककार आट्टो लुडविग, जिसका खुद का साहित्यकर्म काफी संदिग्ध किस्म का है, वह वॉल्टर स्कॉट और डिकेंस को पढ़ते हुए एक नतीजे पर पहुँचते हुए घोषणा करता है : “….पात्र निर्णयात्मक प्रकार के लगते हैं और घटनाचक्र पात्रों को खेल में शामिल करने मात्र के लिए प्रकट होती जान पड़ती हैं। पात्रों और घटनाओं में से घटनाएँ बार–बार जीतती हैं, एक बार भी पात्र घटनाओं को प्रभावित या उसे गति देते नजर नहीं आते। तथ्य यह है कि लेखक ने आनंद लाने वाली घटनाओं का चयन किया है….. ऐसे में पात्रों की स्वाभाविकता मर सी गई है। घटना दर घटना गुजरते हुए और पात्रों के जय-पराजय को पढ़ते हुए, कहीं भी पाठक, पात्रों की ओर आकर्षित नहीं होता है।” जिस तरह के चित्रण या विवेचन को हमनें अभी देखा, वह आगे चलकर काल विशेष और सामाजिक कारणों से उपन्यासों में प्रभावी होता गया, जिसके परिणामस्वरूप उपन्यासिक गठन में बदलाव आया, जिससे महाकाव्यों की मूल विशेषता लुप्त हो गई। सब जानते हैं कथा-चित्रण की यह विशेषता लेखकों के लिए एक विकल्प की तरह थी, मगर खेद है कि वह खो गई।
लेकिन नए वैचारिक कथारूप के आने के कारण, उससे परस्पर हेल-मेल तो बनता ही है। लेकिन इससे भी कौन इंकार कर सकता है कि चली आ रही यह कथा-कहन परंपरा समाज और उस समय के कुछ दूसरे कारणों के कारण इतने समय तक प्रबल बनी रही, बल्कि इसी में वे कारण भी छिपे रहे होंगे, जिससे बाद महाकाव्यात्मक उपन्यासों का दौर इतिहास बन गया। निश्चित रूप से मनुष्यमन के अनुभव परिसर की कविताओं पर निबंध का प्रभाव और मनुष्य समाज के संस्कार पर कुसंस्कार का रंग पूँजीवाद के वर्चस्व के कारण बढ़ रहा था। सर्जनात्मकता पर वस्तुनिष्ठता का चढ़ता बुखार पूँजीवाद के बढ़ते कदमों के कारण था। एक बार जब यह रूप दानिशमंद और रहनुमा अफसानानिगारों द्वारा अपना लिया गया, तो हकीकत को बयाँ करने का रंग-ढंग एक झटके में बदल गया। इस काव्यात्मक रूप से जीवन को अभिव्यक्त करने का ढंग धीरे – धीरे थमने लगा और अंत में जो थमा, तो फिर थम ही गया।
वृतांत या आख्यान से कथा का अनुपातिक गढ़ाव और कथा विवरण से केवल कहानी का दर्ज़ा तय होता है। गेटे कहता है कि काव्यात्मकता सभी घटनाओं का आकलन अतीत में हुए नाटकीय कारनामों के रूप करता है। इस तरह हम पाते हैं कि गेटे महाकाव्य और नाटक के बीच शैलीगत वैभिन्य को उजागर करना चाहता है। हालाँकि हम जानते हैं कि नाटक में महाकाव्य की अपेक्षा सार ग्रहण का घनत्व अधिक होता है। नाटक में प्राय: एकल संघर्ष पाया जाता है और जो भी अनावश्यक घटनाएँ या स्थितियाँ, चाहे वह प्रत्यक्ष हों या अप्रत्यक्ष, उन्हें हटा दिया जाता है। नाटकीय घटनाओं के धनी शेक्सपियर जैसे नाटकार के यहाँ संघर्ष गहनता और विभिन्नता के परिणाम से उत्पन्न हुआ। परंतु बाह्य विस्तार को नजरअंदाज कर दिया जाए, तो मूलभूत रूप में शेक्सपियर और ग्रीक नाटकों में अंतर नहीं है।
गेटे का आग्रह है कि महाकाव्यों की कार्य योजनाएँ अतीत से शुरू होनी चाहिए, क्योंकि उसका मानना था कि ऐसी कार्य योजनाएं प्रभाव डालती हैं और इन्हीं में जीवन संघर्ष की संपन्नता व्याप्त रहती है। ऐसी प्रस्तुति से ही जीवन की गहरी अनुभूति प्रकट हो पाती है। इसके साथ यह आकलन करना कि क्या विस्तार महाकाव्य के बरक्स नाटकों अधिक ज़रूरी है, एक तरह का जटिल सवाल है और दोनों विधाओं की तुलना के लिए सटीक भी नहीं बैठता।
जीवन संगति की विचित्रता में संलिप्तता की आहट केवल निर्णायक मोड़ पर पहुँचने पर ही सुनाई पड़ती है। केवल क्रियाकलापों से कथा-चरित्रों की निजी और ज़रूरी विशेषताएं नुमाया हुआ करती हैं। केवल व्यवहारिक गतिविधियों से जिंदगी के मुश्किल हालातों, जज्बातों और जटिलताओं का पता चलता है। ऐसे ही हालातों से कथा-चरित्रों द्वारा प्रभाव ग्रहण की क्षमता का भान होता है। पात्रों की ये तमाम जटिलताएँ केवल निर्णायक मोड़ पर सारी जिज्ञासाओं और समस्त रहस्य निवारण के साथ उपस्थित होना चाहिए। सब जानते हैं जिंदगी किसी नेमत से कम नहीं। यह बड़े सलीके से आत्मपरक और वस्तुपरक दोनों में व्याप्त ज़रूरी और अंदरूनी मामलों को सुलझाते चलती है। महाकाव्य रचने वाला महाकवि, जो एकल या कई जिंदगियों को मिलाकर किस्सागोई का रस तैयार करता है, तो वह ऐसा करते हुए वह जिंदगियों का जो कोलॉज पेश करता है, उससे अतीत की जिंदगी को समझने का दयार खुलने लगता है। इससे पाठ को देखने या पढ़ने वाला और समकालीनता की जमीन पर खड़ा, पाठक महाकाव्य के कथा विस्तार के चक्रवात में फँस जाता है अथवा डूब जाता पाता है। अर्थात् पाठक अपने अनुभव क्षेत्र के बाहर की जिंदगी में गोते लगाने लगता है। इस तरह महाकाव्यों में भूतकाल का उपयोग कथा तकनीक के रूप में होता है, ताकि यथार्थ को ठोस रूप से व्यवस्थित करके प्रस्तुत किया जा सके।
हाँ, यह सही है कि पाठक कथा के अंतिम पड़ाव पर पहुँचने के पहले चरम निर्णय को नहीं जानता। वह अंतिम और निर्णयक स्थल पर पहुँचने के पहले तमाम विस्तारों से उलझते – सुलझते आगे बढ़ता है। मजे की बात है कि इतने सारे विवरणों से गुजरने के बाद भी पाठक जिन संभाव्य निर्णयों का अनुमान लगाता है, वे हमेशा सही नहीं साबित होते। विस्तारों के अजायबघर से गुजरते हुए वह कुछ आकस्मिक घटनाओं से दो–चार होता है और कर आश्चर्य से भर जाता है, हालाँकि कथा के ख़ास मोड़ पर पहुँच कर इन आकस्मिक घटनाओं के वास्तविक कारणों का ज्ञान हो जाता है। किंतु निर्णय के अंतिम छोर तक पहुँचते–पहुँचते पाठक लेखक द्वारा दिए गए कथा-विवरणों और चरित्रों के मोहजाल फँसा रहता है। कथा के लिए मोहजाल का यह रूप ज़रूरी माना जाता है क्योंकि इसी से लेखक अपने मंसूबे को पूरा कर पाता है। मोहजाल, दरअसल एक किस्म के लक्ष्यजाल होते हैं। इस तरह से पाठक घर बैठे कथारस में डूबकी लगाते हुए लेखक की सर्वज्ञता से लाभान्वित होते हुए ज्ञान और आत्मविश्वास दोनों प्राप्त करता है। यद्यपि वह आगामी घटनाओं बता नहीं सकता लेकिन कथा–चरित्रों से गुजरते हुए और लेखक के कलम से दिशा निर्देश प्राप्त करते हुए तथा अपनी अंत: प्रेरणा से गुजरते हुए, वह कुछ सटीक अनुमान लगाने में सफल हो पाता है, इससे उसमें आत्मविश्वास का संचार होता है। यह सच है कि कथा–सागर का रसास्वादन करने के दौरान पाठक घटनाओं में होती क्रिया – प्रतिक्रिया, घात-प्रतिघात के स्वरूप और चरित्रों के वास्तविक भविष्य को नहीं जान पाता, परंतु सामान्य रूप से जितना जान पाता है, कथा चरित्रों की हकीकत से बड़ी हकीकत होती है।
वास्तव में, उनके महत्व के क्रमिक अवलोकन या प्रदर्शन के साथ, विस्तार को नई रोशनी में देखने की ज़रूरत है। मसलन टॉलस्टॉय की कहानी, “ऑफ्टर द बॉल” को ही लें, इसमें वह (टॉलस्टॉय) नायक के मंगेतर के पिता द्वारा अपनी बेटी के हक में किए गए आत्मोत्सर्ग को दिखा कर बहुत ही सूक्ष्म और कोमल मानवीय पक्ष को उद्घाटित कर दिया है। पाठक इस स्थल से गुजरते हुए बिना माथापच्ची किए इस महा-उत्सर्ग को आत्मसात कर लेता है। इस उदात्तता में चरक या कहें कि थोड़ा रस भंग उस समय होता है, जब वही पिता गमबूट पहने चहल-कदमी करता है और कमांडर के रूप में क्रूरता का आचरण करते पाया जाता है। यहीं पर तिलिस्म का जादू खुल जाता है। बूढ़े अधिकारी को जारवादी अमानुषी उत्पाद और नाजीवादी कारिंदे (नाजीवादी शासन सभ्य या शुद्धता के नाम पर आम जिंदगी को बर्बाद करने वाले व्यक्ति) के रूप में पेश न करके टॉलस्टॉय ने तिलिस्म या रहस्य की अनवरतता को भंग होने से बचा लिया है। कथा-कला में टॉलस्टॉय इतना चतुर है कि वह गमबूट वाले प्रकरण को छोड़, किसी भी स्थल पर घटनाओं के रहस्य का विसर्जन नहीं हुआ है। समकालीन पर्यवेक्षक जिसने इस तरह के संदर्भों या पूर्वव्यापी अनुभवों से दो-चार नहीं हुआ है, वह कुछ दूसरे गैर-ज़रूरी विवरणों में फँस सकता है।
कहन में आवश्यक दूरी ज़रूरी है, क्योंकि इसी से परिघटनाओं के संपन्न होने के बाद के कथा चयन का स्वरूप उभरता है। यह स्वरूप प्रथम पुरुष में कथा कहे जाने अर्थात् जहाँ पात्र खुद ही दास्तानगोई करता है, पर भी नष्ट नहीं होता बशर्ते वह वास्तविक महाकाव्य हो। टालस्टॉय की यह कहानी, ऐसी ही दास्तानगोई के लबरेज है। यही नहीं यह कथा सौंदर्य नितांत निजी विधाओं जैसे डायरी या उपन्यास में भी संभव है। गेटे का वेरदर (Wrether) इसी तरह का नज़ीर पेश करने वाली रचना है।
इस संदर्भ में केवल इसे ज़रूरी मान सकते हैं कि बिना किसी बदलाव के ही पात्र घटनाओं के दौरान ठोस आधार ग्रहण करते जाते हैं। इस तरह इस नजारे में पात्र अधिक तीव्रता से परिवर्तन की दशा को महसूस करा पाते हैं। दरअसल इन्हीं स्थितियों से उपन्यासों में तनाव का परिवेश निर्मित होती है। विचारणीय है कि इसी तरह पाठक कथा विन्यास के रहस्य की सफलता या पात्रों की असफलता से रूबरू होता है।
यही कारण है कि पुराने दौर के उम्दा अफ़सानों में अंतिम परिणाम का अनुमान शुरू में ही हो जाया करता था। अगर हम होमर दौर की कथाओं पर विचार करें तो पाते हैं कि शुरूआती पंक्तियां ही निष्कर्ष का सार प्रस्तुत करती आगे बढ़ती हैं फिर भी दास्तानगोई का आलम इतना बेहतरीन हुआ करता है कि पाठक कथा-मोह में फँसा का फँसा रहता है और अगली घटनाओं के इंतजार में किताब को हरफ़ दर हरफ़ नापने में लगा रहता है।
आइए विचार करें कि आखिर रहस्य पैदा कैसे होता है? निश्चित रूप यह मात्र कवि को कथा लक्ष्य तक पहुँचने के विवरण को पढ़ने से उत्पन्न नहीं होता। कोई दूसरी चीज है, जिससे रहस्य का वितान तन पाता है। दरअसल यह मनुष्य की सहज जिज्ञासा है। यह मनुष्य मन की बंजारेपन, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए बिहड़ से गुजर जाने की ललक से पैदा होता है। टॉलस्टॉय की कहानी से गुजरते हुए हम जान जाते हैं कि नायक का प्रेम विवाह में परिणत नहीं हो पाएगा, तो रहस्य यह नहीं कि इस प्रेम कहानी हश्र क्या होगा। रहस्य तो यह है कि नायक इस कथा क्षेत्र में कितनी परिपक्वता दिखा पाएगा और किस तरह की विडंबना पेश करेगा। हमें मानना पड़ेगा कि असली महाकाव्यों में तनान का रचाव हमेशा पात्रों के भविष्य के विभिन्न संभावना क्षेत्रों से निर्मित हुआ करता है।
वर्णन से हर चीज या भाव को समकालीन बनाया जाता है। किस्सागोई से अतीत जिंदा हो उठता है। आख्यान को प्रस्तुत करने वाला जो देखता है और जिस “त्रि-आयामी वर्तमान” को परोसता है, वह मनुष्य और वस्तु जगत पर लौकिक वर्तमान को आरोपित करता है। लेकिन यह वर्तमान इतना ठोस भी नहीं हुआ करता कि सब कुछ साफ पानी सा पारदर्शी दिखने लगे। दरअसल यह एक तरह का भ्रमित वर्तमान होता है, क्योंकि इससे नाटकीय घटनाएँ तत्काल संपन्न नहीं हो पातीं। इस प्रकार सर्वोत्तम कहन की आधुनिक शैली वह कही जा सकती है, जो उपन्यास की नाटकीय घटनाओं को अतीत की घटनाओं की घटनाओं से जोड़ दे। लेकिन इस तरह का मजेदार वाकया भी पेश आता है, जब लेखक समकालीनता के धागों से कथा का फंदा बनाता है, तो कथा में जिस तरह की नाटकीय घटनाओं से लबरेज समकालीनता पेश होती है, वह वास्तविक समकालीन बोध से नितांत अलग हो जाता है, मतलब छत्तीस के आंकड़े जैसी स्थिति बन जाती है। स्थैतिक स्थितियाँ, दरअसल वह स्थितियाँ होती हैं, जो मानव मस्तिष्क या अब तक की जितनी चीजें जिंदा हैं, उन सबकी मानसिक धरातल को जाहिर करती हैं।
प्रस्तुतियाँ (कथा छवियाँ) कथा शैलियों में पनाह पाती हैं, जिससे महाकाव्यों के लिए सहज चयन का सिद्धांत कहीं खो गया। हम जानते हैं कि किसी भी क्षण मनुष्य के मस्तिष्क की स्थिति और मनुष्य की स्वयं की सक्रियता जितना उसके लिए ज़रूरी है, उतना ही दूसरे के लिए गैर-ज़रूरी भी हो सकती है। कथा समतुल्यता का यह सिद्धांत मनुष्य से अधिक वस्तुओं पर लागू होता है। इसलिए कथा का खाका तैयार करने में केवल वे संदर्भ लिए जाएँ, जो घटना विशेष के लिए सर्वाधिक आवश्यक हों। भाव को व्यक्त करने के लिए कोई सीमा नहीं होती क्योंकि हर चीज की बेशुमार खासियतें हुआ करती हैं। जब कोई लेखक दृष्टा की तरह कार्य करने लगता है, तो वह या तो किसी वरण सिद्धांत को खारिज़ करता है, किसी ख़ास मुकाम से लुड़कता है या सतही वर्णन शैली को गंभीरता और सुरम्यता प्रदान करता है।
किसी भी स्थिति में वस्तु या उद्देश्य और मनुष्यगत अनुभवों के बीच स्थापित अंतर्संबंधजनित आख्यानों की क्षति का अर्थ सौंदर्यानुभूति तथा उसके महत्व का भी नष्ट हो जाना है। ऐसी विपन्न स्थिति में लेखक द्वारा उसके मंसूबे को जाहिर करने वाले अमूर्त विचारों से ही थोड़ा बहुत कुछ आधे-अधूरे भाव सत्यापित हो पाते हैं। किंतु उद्देश्य मात्र की दुनियाँ से मनुष्य की दुनियाँ के सौंदर्य को नहीं पाया जा सकता है अर्थात् उद्देश्य मात्र की प्राप्ति से काव्यात्मक सौंदर्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। उद्देश्य प्रतीकों को निर्मित करते हैं। इस प्रकार यह प्रक्रिया प्रकृतिवादी सौंदर्य दृष्टि को प्रस्तुत करती है, जो अनिवार्य रूप से रूपवादी आख्यान विधि को जोख़िम में डालने वाली प्रक्रिया है।
महाकाव्यों में आंतरिकता की क्षति और कथा विषय और घटनाओं से निर्मित महाकाव्यात्मक श्रेष्ठता से जिंदगी पर बहुत असर नहीं पड़ता है। जिंदगी का फरेब या नकलीपन बड़े करीने से अपने काम में जुटा रहता है और जिंदगी में बदलाव लाने में लगा रहता है। जिंदगी से उठाए गए चरित्र और तात्कालिक हालात और अनुभवजन्य अवलोकन के आधार पर विचार को प्रस्तुत करना अपनी सुविधा और तर्क के निर्माण करने की क्रिया है। इसके अतिरिक्त एक दूसरी स्थिति भी है, जो अधिक बुरी स्थिति कही जा सकती है। वह स्थिति है – रचना महत्व को उत्क्रमित करके देखा जाना। इस स्थिति में कथा के ज़रूरी और गैर-ज़रूरी, दोनों रूपों को समान महत्व देते हुए कथा विन्यास को गढ़ा जाता है। कई लेखकों ने मानवीय महत्व के लिए इस कथा विधि को स्वीकार किया है।
व्यंग्य को तोड़-मरोड़ करते हुए फ्रेडरिक हेबल ने वर्णन के इस स्वरूप को छिन्न-भिन्न करता है। एडलबर्ट स्टिफ्टर ने नीत्शे को धन्यवाद दिया है, वह जर्मन में प्रतिक्रिया (Reaction) को सर्जित करने का महान कार्य किया। हेबल ने स्टिफ्टर को खारिज़ करते हुए मनुष्यगत समस्याओं का कोलॉज पेश किया है। उसने दिखाया है कि कैसे जिंदगी के मामले उसकी विरूपताएँ सिलसिलेवार प्रस्तुत की जा सकती हैं। वह कहता है,“घास उस समय अधिक प्रमुखता से दिख सकते हैं, जब पेंटर पेड़ को न बनाए, या पेड़ उस वक्त ज्यादा ध्यान खींच सकता है, जब पेंटर जंगल बनाना भूल जाता है। पेड़ उल्लास का चरम होता है कलाकार अपनी सर्जन क्षमता से प्रकृति के उस उमंग अंश को कैनवश पर स्थाई कर देता है। कलाकार भुनगा, भुनगा के नृत्य को सुंदरतम तरीके से दिखा सकता है। नेपोलियन के बूट पर लगी कीचड़, हो सकता है कि आध्यात्म का भाव जगाए…संक्षेप में कह सकते हैं कि कलाकार उस शब्द शिल्पी की तरह होता है, जो एक कामा लगाता है और पूरा वाक्य जगमगा उठता है।”
हेब्ड वर्णन कथा शैली व्याप्त दूसरी मूल खतरे को परिभाषित करता है – विस्तारों के खतरे स्वयं महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। कहन में कला के अभाव से इस खतरे में इजाफा हुआ है। विस्तार का भरमार चरित्रों के हस्तक्षेप का गला घोट देता है। इससे कथा सौंदर्य के संबंध मर जाते हैं। नीत्शे कला और जीवन में इन खतरों को बढ़ते देख रहा था। उसने इस खतरे को एक वाक्य में ही समेटा,“यह व्यक्तिगत दुनियाँ है। अब समूचा, समूचा न रहा। सब कुछ दरक रहा है। जिंदगी का स्वप्न और उसकी ताजगी जा चुकी है।”
विस्तार के एकाधिकार ने मनुष्य के जीवन की प्रस्तुति को हर तरह से प्रभावित किया। एक तरफ लेखक जीवन के हर अंश को दर्शाने के फेर में प्लास्टिक का खिलौना बनाने लगा। कथाएँ अयथार्थ का लबादा हो गईं। इससे कथाओं में आम जीवन का अभाव दिखने लगा। इससे संवाद की दुनियाँ बेनूर हो गई। कथाएँ पूँजीवादी जिंदगी के खटर-पटर का गद्य मात्र बनकर रह गईं। इससे एक बनावटी शिल्प सामने आया, जिसमें कोई चमक नहीं। कथा विषय से पात्रों का संपर्क छिछला हो गया।
इसके अतिरिक्त जहाँ पात्रों का रिश्ता वर्णन के आधार पर स्थापित हुआ, वहाँ हालात और भी अधिक खराब हुए। अब लेखक पात्रों के मनोविज्ञान के आधार पर प्रत्येक विवरण को दर्शाने लगा। इससे प्रथम पुरुष में लिखी कथाओं या उपन्यासों को छोड़, कोई विशेष सौंदर्य विकसित नहीं हो पाया। इन सब परिवर्तनों जहाँ, लेखक पुराने उपन्यासों की कहन शैली से दूर हुआ,वहीं नई चीज भी कथा-विखराव का नमूना या अव्यवस्थित कथा रूप मात्र बनकर रह गई।
इस प्रकार वर्णानात्मक विस्तार वाले उपन्यासों में महाकाव्यत्मकता कहीं पीछे छूट गया। वास्तविक कथाओं में लेखक संदर्भित घटनाओं का सिलसिलेवार उल्लेख कर सकता है, क्योंकि इससे जिंदगी की जटिलता नुमाया होती है। ऐसे कथा-सूत्रों में लेखक अतीत और वर्तमान को पचाकर इस तरह पेश कर सकता है कि इससे महाकाव्यात्मक तीव्रता पैदा हो सकती है। अन्ना केरनिना में टॉलस्टॉय ऐसा ही करते पाया जाता है।
सार रूप में कहा जा सकता है कि वर्णन से चरित्रों का विषयों से तादात्म्य ठीक से नहीं बन पाता, जिससे उपन्यास का मूल हेतु ही तिरोहित हो जाता है। हम जानते हैं कि वर्णनात्मक कथाओं में लेखक कथा का प्रारंभ वस्तुओं या विचारों के वर्णन से करता है। (हमने देखा है कि जोला कैसे विचार स्थापन को संभव बनाता है। उसके उपन्यास का मूल, पैसों और स्व बोध के अलावा क्या है!)। इसका परिणाम यह होता है कि वस्तुओं की जटिलता उपन्यास के संगठन का आधार बन जाती है। जैसे नाना में हुआ है, जहाँ समूचे एक अध्याय में दर्शकों की नजर रंगशाला और उसके पीछे की गतिविधियों को दर्शाया गया है। इस दिखने –दिखाने की क्रिया में चरित्रों का जिंदगी और पहलवानों या नायकों का भविष्य आदि सब कुछ बड़ा धुंधला हो जाता है।
इस जाली वस्तुनिष्ठता को देखना, दरअसल जाली विषय या आत्मपरकता को देखने जैसा है। जब एकल घटनाएँ कथा – गठन के लिए प्रेरणा स्रोत बनती हैं, या जब उपन्यास गीतात्मक अथवा व्यक्तिपरक हो, तो महाकाव्यात्मक अंतर्संबंध नहीं प्राप्त होता। यह सर्वविदित है कि व्यापक कथा भूमि में वर्णन में आई वस्तुओं और विचारों की स्थापना व्यक्ति प्रधान उपन्यासों की तुलना में बेहतर हो पाता है। क्योंकि व्यक्तिगत कथाएँ संग्रहालय में रखी उन मूर्तियों की तरह होती हैं, जो साथ होकर भी साथ नहीं रहतीं।
इस तरह बिना जीवन संघर्ष को जाने और लोगों को समझे, जो कुछ लिखा जाता है, वह बहुत साधारण और निचले दर्ज़े का होता है। जीवन संघर्ष के स्पंदन की भरपाई मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और छद्म वैज्ञानिकता से नहीं हो सकती है।
वर्णनात्मकता हर चीज को धारावाहिक रूप दे देती है। कई समकालीन लेखक पुराने लेखकों के नकल के आधार पर वैसा ही रहस्य और वैसा ही रोमांच रचने में लगे हुए हैं। सिंक्लेअर लेविस (SINCLAIR LEWIS) इस परिपाटी चलते हुए डिकेंस तरह की कथा शैली में कहानियाँ रच रहा है। डॉस पैसोस शब्दों में देखें,“हाँ! बड़ी मेहनत से उन्हें निकाला गया। बद्किस्मत से श्री जॉन और श्री स्मिथ एक ही कोच में भेजे जा सके हैं, तो निश्चित ही कुछ बहुत आनंददायक परिस्थितियाँ घटित होंगी। मैनहट्टन में स्थानांतरित होकर आए लोग सड़क पर एक दूसरे टकराते नहीं चलते, मगर बहुत ही सहजता से मिलते जरूर हैं।” इस संवाद में “सहजता से मिलना” ध्यान देने वाली क्रिया है, क्योंकि यह सामान्य परिचय को इंगित करता है, जहाँ लोगों में साधारण दुआ-सलाम प्रकार का काम चलताऊ बोलचाल कायम है। इसलिए वे अचानक मिलते और अचानक गायब हो जाते हैं। हम प्रमाणिकतापूर्वक उनके बारे में कुछ भी नहीं जान पाते। माना कि ऐसा होना प्राकृतिक कहा जा सकता है। मगर कहन कला का जो क्षय हुआ उसका क्या? क्या इस क्षति को जायज़ ठहराया जा सकता है?
डॉस पैसास कोई साधारण प्रतिभा नहीं है, सिंक्लेअर लेविस बेजोड़ लेखक ही। इसलिए यह देखना ज़रूरी है कि एक ही निबंध में वह डिकंस और डॉस पैसस के बारे में क्या लिख रहा है,“निश्चिंत रूप से डॉस पैसस पिकविक, मिकावबर, ऑलिवर, नैंसी, डेविड एवं उसकी चाची, निकोलस, स्माइक और चालिस दूसरे लेखकों की तरह महत्वपूर्ण चरित्रों को सर्जित नहीं किया है।” यह एक ईमानदार स्वीकृति है। लेकिन यदि सिंक्लेअर लेविस की मान्यता उचित है तो, चरित्रों को उनके कार्य क्षेत्र से जोड़ने वाले “सर्वाधिक प्राकृतिक कथा-शैली” का क्या महत्व है?
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आइए विचार करें कि विचारों या वस्तुओं से जो पात्रों का गहन रिश्ता बनता था, उसका क्या हुआ? काव्य वस्तु का क्या हुआ? वास्तविक और काव्यात्मक सत्य का क्या हुआ? दरअसल यह कुछ आपत्तियाँ हैं, जो प्राकृतिक यथार्थ को सराहने से रोकती हैं।
इसके प्रति-उत्तर में कोई भी महाकाव्यात्मक कला के लौटाने का सुझाव दे सकता है। लेकिन क्या कोई बताएगा कि महाकाव्यों को गाया कैसे जाता था? क्या यह सही मान लिया जाए कि कला-प्रविणता या शेयर बाजार की तकनीकियों को रंगशाला और बाजार की सजावट की पूर्णता के साथ वर्णन करने पर काव्यात्मक सौंदर्य लौटाया जा सकता है? निश्चित ही संदेहास्पद है। संगीत के बक्शे, आर्केस्ट्रा, पुष्पवाटिकाओं की सजावट, नेपथ्य और श्रृंगार गृह का सौंदर्य स्वयं काव्यात्मक और सुरूचिपूर्ण नहीं हो सकता है। रंगशालाओं की कलाबाजियां, लोगों की नाटकीयता, उनका संघर्ष सब मिलाकर काव्यात्मक अन्विति पैदा नहीं कर पाते हैं। निश्चित ही जब ये सारी गतिविधियाँ अपरिहार्य रूप से मनुष्य के वास्तविक संघर्ष के उत्पन्न होती हैं, तब कहीं जाकर काव्यात्मक सौंदर्य उत्पन्न हो पाती है।
साहित्य में जन से मुक्त “काव्य वस्तु” और जन से मुक्त जिंदगी नहीं पाई जाती है। यह आपत्ति से कहीं ज्यादा खराब स्थित है कि मात्र वर्णनों और वस्तुओं का विस्तारपूर्वक की गई प्रस्तुति को सब कुछ मान लिया जाए। हाँ, उन वस्तुओं का वर्णन जरूर करना चाहिए, जिनका गहन जुड़ाव मनुष्य या कथा चरित्रों से स्थापित हो। दूसरी परेशानी यह भी है कि सारी समकालीनता को छोड़कर मात्र काव्यात्मक सौंदर्य को स्थापित करना कुछ वैसा ही है, जैसा रॉबिंसन क्रुसो द्वारा जहाज के मलबों को एकत्र करना।
एक बात यह भी गौरतलब है कि यदि हम जोला के सभी वर्णनों में से किसी एक वर्णन को उदाहरण लिए लें, जैसे नाना के नेपथ्य का कोई दृश्य, “तीसरे अंक के प्रदर्शन के लिए एक रेशमी पर्दा लटक रहा था – मंच पर एक सुंदर कुटी विराजमान थी। फूलों की सुगंध सभी जगह फैल रही थी। मंच पर एक छोर से दूसरी छोर तक बहुत सारी चीजें दमक रही थीं। पृष्ठभूमि में अग्नि लहक रही थी, ताकि अग्नि देव की अपस्थिति दिखाया जा सके और अग्नि देव के अभिनय को साकार किया जा सके। पूरा का मंच चीजों की भीड़-भाड़ से अटा पड़ा था। पात्रों की हर हरकत गिनी-गिनाई थी। प्रोत्साहक बमुश्किल अपने कदम बढ़ा पा रहा था।”
इस तरह के भारी भरकम वर्णन की क्या ज़रूरत है। इसमें से कुछ रंगमंचीय विधानों के वर्णनों में कटौती भी होती तो कोई ख़ास फर्क न पड़ता। सौंदर्यात्मक दृष्टि से यह वर्णन फालतू किस्म का है। इस तरह के वर्णन से उपन्यासिक कथा सौंदर्य में कोई सुधार नहीं हुआ है। घोड़ों के इतने विस्तृत वर्णन और व्रिंस्की में घोड़ों की दौड़ से किसी को बहुत लेना देना नहीं होता। लेकिन प्राकृतिक यथार्थवादी इन सारी कवायदों को तकनीकी ढंग से परोसते। वे रंगशाला का इस्तेमाल अपने मंसूबे को अभिव्यक्त करने के लिए बड़े प्रतीकात्मक ढंग से करते। जबकि जोला हर वर्णन को विशेषज्ञ की तरह पूरा किया है। वह कहीं पैंटर है, कहीं जौहरी है, तो कही विश्वकर्मा। गोनोकोर्ट ने इस प्रवृत्ति पर बहुत सही तरीके से टिप्पणी किया है –“…. कोई भी कला उत्पाद तब विषादमय हो जाता है, जब केवल कलाविद उसकी सुंदरता को सराहें।….. यह अब तक सबसे मूर्खतापूर्ण अभिव्यक्ति है।” यह प्रबोधन कॉल की अत्यंत जुझारू या गंभीर सत्यारोपण है कि पूर्वजों ने प्रकृतिवाद को कला, कला के लिए के सिद्धांत की सीमाओं को जाने बिना गले लगा लिया।
वस्तुओं का वास्तविक जुड़ाव और सौंदर्य केवल उसी समय स्थापित हो पाता है, जब वह मनुष्य के दुख-दर्द से जुड़े। यही कारण है महाकाव्यों के रचयिता वस्तुओं का अनावश्यक बखान और चीजों का गैर-ज़रूरी रचाव नहीं करते। क्योंकि ये सारी कवायदें मनुष्य के भाग्य, क्रिया और उसकी जीवटता से जुड़ती हैं। कथा सौंदर्य के इस अन्विति के संगठन के सिद्धांत को समझने के लिए के लिए लेसिंग कहता है,” मैंने होमर के कथा-चित्रण को कथा-चरित्रों के प्रकार्यों या कहें कि जीवन संघर्ष में पाया।” वह आगे लिखता है, “वह हर व्यक्तिगत चीजों का वर्णन करता है और केवल उन्हीं वस्तुओं और कार्यों को दर्शाता, जो जीवनानुभव का हिस्सा बनते हैं।”…लैकून जैसे महाचरित्रों पर लेसिंग उदाहरण प्रस्तुत करते कहता है, यह निरीक्षण स्वयं में विचित्र किंतु अनोखा है वह अपने अपने संपूर्ण कहे जाना का हकदार तो निश्चित ही है।
वह अगमेनॉन और अक्लिस जैसे दो, राज सत्ताओं की चर्चा करता है : “यदि, हमें अधिक संपूर्णता की ज़रूरत थी, हम इन दो सत्ताओं की वास्तविक छवि दिखानी थी, तो गौरतलब है कि होमर ने इसके लिए क्या किया? उसने सोने से मढ़े नाखूनों को दर्शाने के लिए कैसा चित्र पेश किया? हाँ, उस स्थिति में ज़रूरी है, जब हैराल्डीय प्रतीकों1* (जिसे किसी समय बहुत विस्तार से पेश करने की जरूररत थी) को दर्शाने के लिए उस तरह का आयोजन ज़रूरी हो। मैं यकीन से कह सकता हूँ कि कुछ आधुनिक कवियों और कथाकारों ने इस तरह के हैराल़्डीय प्रतीकों को दर्शाने के लिए एक छाया चित्रकार की तरह सारे विस्तार को हूबहू आरेखित कर दिया है। लेकिन प्रश्न का दूसरा विचारणीय हिस्सा यह है कि क्या होमर ने अपने से कुछ ऐसा अंश छोड़ा है, जिसे फोटोग्राफरों का पूरा करना हो। ध्यान देने योग्य बात है कि होमर ने अपने चित्रण से, चित्रण के अतिरिक्त, चित्रण शैली का इतिहास छोड़ा है। सर्वप्रथम तो यह उसकी विश्वकर्मा की रचना जैसी सर्जना है, जो बृहस्पति के हाथों में मुकुट की तरह चमक रहा है। वर्णन को देखकर ऐसा लगता है, मानों जंगी लोंगों के हाथ में पूरे लश्कर की कमांड हो। वर्णनों को पढ़कर ऐसा भी लगता है, जैसे धूर्त गड़ेरिए के हाथ में चाबुक…..या अग्मेनॉन से संघर्ष से करते हुए अक्लिस के जिस्म से बहता पसीना। इस तरह से होमर ने संदर्भवान वर्णनों से इतिहास के हर लब्ज़ को जिंदा कर दिया है। हम पहाड़ी की हरियाली, शाखाओं पर कुल्हाड़ी चलाने वाले और पत्तियों तथा छालों की सजावट बहुत कुछ जान जाते हैं। ये सारी कवायदें हमें वहाँ के लोगों की लोक आस्था और आध्यात्मिक जीवनबोध से परिचित कराती हैं….। होमर को कहीं ऐसा नहीं लगा कि वह विभिन्न भाव जगत के दो कर्मियों को कथा में परोसे ताकि इससे दो महान सर्जनात्मक शक्तियों की प्रतीकात्मक प्रस्तुति सुनिश्चित हो सके। जिस तरह की विराटता उसने दर्शाया उससे लगता है कि एक कार्य विश्वकर्मा ने किया होगा और दूसरा, पत्थर को अद्वितीय तरीके से काटने का कार्य, किसी अनजान, किन्तु अनोखी शक्ति के हाथों हुआ होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि पहली शक्ति एक प्राचीन देवता की शक्ति है, जिसका कार्य ऐश्वर्यशाली भवन बनाने का है। दूसरी देव शक्ति का कार्य विश्वकर्मा द्वारा निर्मिति प्रसाद को योग्य हाथों में सौपना है। पहली शक्ति अर्थात् विश्वकर्मा ने अपने कर्मशील हाथों से कई द्वीपों में आलीशान भवन बनाने का कार्य संपन्न किया और साथ-साथ ऑर्गो जैसे महान नगरों को प्राणवान भी बनाया। दूसरी शक्ति एक ग्रीक राजा से पैदा हुई। दूसरी शक्ति को तमाम चीजों के साथ इन ऐश्वर्यशाली महलों और नगरों का मालिकाना और ग्रीक कानून का सर्वाधिकार प्राप्त हुआ। ग्रीक राजकुलों अर्थात अगनेनॉन और अक्लिस में समानता नहीं थी। असमानता और वैमनस्य का कारण अक्लिस स्वयं था। वह बात-बेबात आगबबूला हो कर सिर्फ दुश्मनी पैदा करता रहता था।”
यहाँ हम उन स्थितियों को सराहें, जिन्होंने जीवन से जुड़े सामग्रियों को जीवंत बनाकर महाकाव्यों के सौंदर्य में चार चाँद लगा दिए। और यदि हमें अपनी बात को किसी उदाहरण से कहना पड़े तो मह स्कॉट के मुटैटिस मुटैंडिस को ले सकते हैं। लेसिंग ने इस रचना में होमर के अनुकरण के तत्वों की खोज की। हमने भी माना और देखा कि मुटैटिस मुटैंडिस में सामाजिक जीवन को जोड़ने वाले संबंधों की सघनता मौजूद है।
यह बिल्कुल भिन्न तरह की बात है, मगर है गौरतलब कि कथा में वर्णन प्रभावी तकनीकी है और लेखकजन वृथा ही दृश्य कला से होड़ लेते रहते हैं। जब मनुष्य की छवि वर्णन के माध्यम खींची जाती है, तो वर्णन से उनमें थोड़ी जिंदगी नुमाया हो जाती है, जो हमेशा बनी रहती है। मनुष्य की भौतिक रूपाकृति को दर्शाने की क्षमता सिर्फ पैंटिंग में है। पैंटिंग से पात्र पूर्ण जिंदा से हो जाते हैं, मगर कब तक? यह अनायास नहीं कि कथा चरित्र जितने जीवंत अतीत में थे उतने जीवंत आज भी बने हुए हैं, मगर पैंटिंग अपनी तीव्रता और अवधारणात्मक प्रस्तुति की क्षमता को खोती जा रही है। ध्यान देने पर पाते हैं कि गोनोकॉर्ट के पात्र या जोलॉ के वर्णन आधारित कथाओं के किरदार और उनकी रूह आज भी हमारे जेहन में बॉल्जॉक और टॉलस्टॉय के किरदारों के बरक्स ज्यादा ताजा-तरीन हैं।
किसी किरदार की भौतिक प्रस्तुति केवल उस हालात में काव्य सौंदर्य तक पहुँच पाती है या उसका हिस्सा बनी रह पाती है, जब उसकी घनिष्ठता या मेल दूसरे किसी मनुष्य के जीवन से हो रहा हो। लेसिंग ने इस तथ्य को होमर के यहाँ देखा और उसे रेखांकित भी किया है। इस बाबत उसने होमर द्वारा हेलेन की सुंदरता के चित्रण को विश्लेषित किया है: इस समस्या से दो चार होते हुए यथार्थ की महानकृति एक बार फिर महाकाव्यात्मक सौंदर्य की जरूरतों और कसौटियों पर खरी उतरती है। इसी तरह टॉलस्टॉय ने भी अन्ना की सुंदरता, जो कार्य व्यहार को प्रभावित करती है, का चित्रण किया है। अन्ना का यह सौंदर्य न केवल उसके जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि उसकी सुंदरता से दूसरों का भी जीवन प्रभावित होता है।
इस तरह के वर्णनों से वस्तुओं का सच्चा सौंदर्य भले उपलब्ध न होता हो, मगर इससे मनुष्य के जीवन में परिवर्तन और दूसरे प्रकार की स्थितियों में उसकी आवाजाही का दयार जरूर खुलता है; चीजें मनुष्य के संघर्ष को जिंदगी के पैमानों से जोड़ने का कार्य संपन्न कराती हैं। निश्चित ही इस प्रकार के वर्णनमूलकता के कारण चीजें कथा चरित्रों के साथ युगों-युगों तक जिंदा रहती हैं। वर्णन शैली के कारण मनुष्य का चरित्र सतह दर सतह खुलने लगता है। यह शैली कथा और कथा चरित्रों के संगठन को नकारात्मक ढंग से प्रभावित नहीं करती है। कथा चरित्रों को झूठी और बाहरी दुनियाँ की बनावटी दुश्वारियों से जोड़ने की योजना बनाने से संकीर्ण चरित्र चित्रण का जन्म होता है। कोई पात्र कभी – कभी समाप्त प्रायः होते उत्पाद की तरह दिखने लगता है, जिससे परेशान होने की ज़रूरत नहीं। ऐसा वैविध्यपूर्ण समाज और समाज के आंतरिक तत्वों के कारण होता है। ऐसा होने से कथा-चरित्रों की ऐहिक और मनोवैज्ञानिक टकराहटों से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों तथा दुर्बोध संघर्ष का अभाव दिखने लगा है। इस संदर्भ में विचार करते हुए तेन (TAINE) और जोलॉ, दोनों ने बॉल्जॉक के हुलट (HULUT) में सुलगती यौनाकांक्षा की प्रशंसा की है, लेकिन वे दोनों इसे मात्र एक मनौवैज्ञानिक रोग “मोनोमानियॉ” की परिणति के रूप में देखते हैं। वे इस आकांक्षा के कारणों और जीवन के दूसरे क्षेत्रों से जिस तरह इस रोग के तार जुड़े हुए हैं, उन्हें नहीं देखते हैं। वे यह भी नहीं देख पाए हैं कि हुलट की यह यौनाकांक्षा उसके कार्यक्षेत्र अर्थात नेपोलियन सत्ता के सेनापति होने से जुड़ी हुई है। वे इस यौनगत भूख के प्रकार को भी रेखांकित करने में असफल रहे हैं। वे दोनों यह भी नहीं देख पाए कि बॉल़्जॉक कितनी सिद्दत से जुलाई राज-सत्ता (july monarchy) के विभिन्न तहों के राज को उजागर करते हुए मनुष्य की आकांक्षाओं की कारणों का पड़ताल करता है।
वर्णन करने के क्रम में यह बात भी कम ज़रूरी नहीं कि मात्र तफरी के अंदाज किसी कथा में वर्णन शैली को अपनाना एक तरह का सतही रवैया है। अगर प्राकृतिक यथार्थवादी लेखकों की बात करें तो जोलॉ अलहदा दिखाई पड़ता है। उसने वस्तुओं को बड़े ढंग से पात्रों से जोड़ते हुए पूरे ठहराव के साथ उनका वर्णन किया है। हालाँकि हम यह नहीं कह रहे हैं कि उसका सारा चरित्र चित्रण महान ही है। उसके कई चरित्र सतही और कमजोर हैं। इनमें से यहाँ केवल एक उदाहरण, जिसे लफे (Lafargue) ने दर्शाया है, को दिखाने की ज़रूरत है, जोलॉ ने ईंट लगाने वाले के शराबी की शराबखोरी का कारण बताया कि वह ऐसा बेरोजगार होने के कारण कर रहा है। लेकिन लफे इसका प्रतिरोध करते हुए कहता है कि फ्रांस में ईंट का काम करने वाले मजदूरों और घर बनाने वाले रेहड़ियों की ऐसी कुछ बस्तियाँ या वर्ग हैं, जहाँ शराबखोरी किसी जातीय या स्थानिक बीमारी की तरह व्याप्त रहती है। इसकी व्याख्या या प्रस्तुति इस प्रकार होनी चाहिए थी कि फ्रांस की इन बस्तियों के रहवासी नियमित रूप से मजदूरी नहीं करते अर्थात् ज़रूरत रहने पर मजदूरी करते हैं, जिससे इनके पास इफराद वक्त बचा रहता है, जिसका इस्तमाल ये लोग शराब घर में रहकर करते हैं। शराब घर इनके मन-बहलाव का साधन है। जीवन का ज़रूरी हिस्सा है। लेफे ने यह भी दर्शाया है कि कैसे जोलॉ ने अपने उपन्यास गोल्ड (मूल नाम -L’Argent अर्थात “Money”) में गंडरमैन और सैक्कर्ड (saccard) के बीच व्याप्त अंतर्विरोध को यहूदियों तथा ईसाइयों के बीच के अंतर के रूप में दिखाया है। उसने ऐसा इसलिए किया है ताकि पूराने प्रकार की पूँजीवादी व्यवस्था की नए निवेश से पैदा हुई नई पूँजीवादी व्यवस्था के बीच के अंतर को दिखाया जा सके।
हाँ, यह सच है कि वर्णनात्मक शैली में मानवता का अभाव होता है। क्योंकि यह मनुष्य और उसके जीवन को निर्जीव कलात्मक अभिव्यक्तियों में परिवर्तित करने की एक शैली मात्र भर है। इस तरह की निर्जीव कलात्मकता उस समय ज्यादा उभर कर सामने आती है, जब वह विचारधारा का अतिरिक्त आग्रही होकर कथा-विन्यास का आयोजन करता है। अपने पिता की जीवनी में जोलॉ की बेटी ने अपने पिता के उपन्यास जर्मिनल के विषय में खुद जोलॉ की टिप्पणी को एक उद्धरण के रूप में पेश करती है, “जोलॉ ने लैमित्र (Lemaitre) की कथा वर्णन शैली को स्वीकार कर लिया है, ‘मनुष्य में पशुओं की निराशापूर्ण महाकाव्य’ की शैली को अपना लिया है, ‘उसकी नजरों में मन अथवा मानस ही वह जरिया है जिससे मनुष्य का वास्तविक रूप उद्घाटित हो पाता है।’ वह आलोचकों के लिए लिखता है, ‘इन सबके अलावा मैंने कुछ दूसरी चीजें भी अर्जित कर चुका हूँ, जिनके द्वारा कथा को ठीक से परोसा जा सकता है।’”
हम जानते हैं कि जोलॉ का जोर मनुष्य के पशुवत आचरण को पूँजीवाद की पशु-आचरण के विरोध में पेश करने पर है। गौरतलब है कि इस पशुरूप आचरण को वह स्वयं नहीं समझ पाया। लेकिन उसका अतार्किक विरोध पाशविक सनक में परिवर्तित हो गया है।
निरीक्षण और वर्णन की प्रविधि का विकास साहित्य को वैज्ञानिक बनाने और अनुप्रयुक्त प्राकृतिक विज्ञान को समाजिक परिघटना में परिवर्तित करने के प्रयास के रूप विकसित हुआ है। गौरतलब है कि इसी प्रकार के निरीक्षण माध्यमों से, जिस तरह के वर्णन की छटा प्रस्तुत होती है, उसी से इस तरह की तुच्छ और सतही परिणाम सामने आते हैं। निश्चित ही कहा जा सकता है कि इस प्रकार की प्रविधियों के उपयोग से कथा का क्रम, बड़ी आसानी से प्राप्त करने वाले लक्ष्य या ध्येय के विपरित लक्ष्य या ध्येय (आत्मनिष्ठावाद) तक फिसल जाता है। यह ऐसी विरासत है, जो प्रकृतिवाद के संस्थापकों से विभिन्न साम्राज्यवादियों तक पहुँचा और वहाँ प्राकृतिवादी और रूपवादी आंदोलन में परिणत हुआ।
VI
काव्यात्मक कार्यों के संगठनात्मक सिद्धांत लेखक के जीवन और उसके दृष्टिकोण की अभिव्यक्तियाँ हैं।
आइए इसे जाहिर करने के लिए एक साधारण उदाहरण लिया जाए। अधिकांश उपन्यासों, जैसे वेवर्ली (waverley) या ओल्ड मोर्टालिटी (Wold mortality), के केंद्रीय स्थल पर, वॉल्टर स्कॉट एक मध्यम या औसत महत्व के पात्र, जो किसी राजनीतिक मुद्दों पर स्पष्टता के साथ खड़ा नहीं होता, का प्रवेश कराता है। विचारणीय प्रश्न है कि इस युक्ति से स्कॉट को क्या हासिल होता है? दुविधाग्रस्त नायक दो पाटों में घिसता रहता है। वेवर्ली जैसे उपन्यास में स्कॉटलैंड के लोग स्टुअर्ट और अंग्रेजी सरकार के बीच लड़ते दिखाए गए हैं। ओल़्ड मोर्टालिटी में नैतिकतावादी आंदोलनकारियों और स्टुअर्ट के लिए अनुवाइयों के बीच संघर्ष की स्थिति दिखाई गई है। इसलिए नायक हर विरोध करती पार्टी के नेताओं के साथ वैकल्पिक रूप से शामिल हो सकता है। और इस तरह की परिस्थितियों में नेता सामाजिक तथा ऐतिहासिक शक्ति के रूप में बमुश्किल खड़ा हो पाए हैं अथवा स्थापित हो पाए हैं, किंतु मनुष्य के रूप में जरूर छाप छोड़ पाए हैं। यदि वॉल्टर स्कॉट ने अपने कथा के चरम केंद्र में इस तरह के कमजर्फ़ व्यक्तित्वों को तो ऐसा करके वह बहुत कुछ करने से महरूम हो गया है, क्योंकि उसके कमजोर पात्र अपने विरोधियों के सामने बौने व्यक्तित्व के साबित हो जाते हैं। इससे सबक यह मिला कि उपन्यास में केवल महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन होना चाहिए ना कि मनुष्यगत क्रियाकलापों का ड्रामा, जहाँ हमें महान नाटकों मे पाए जाने वाले युद्धों की अनवरत श्रृंखला और घिसे पिटे बिचौलियों के कारनामें दिखाई पड़ें।
अपने कथा संगठन के हुनर को दिखाते हुए स्कॉट ने महाकाव्यात्मक कथन विधान में अपने जौहर को दिखा दिया है। यह सफलता केवल कलात्मक उपलब्धि नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वॉल्टर स्कॉट अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में ‘महत्वपूर्ण’ स्थान रखता है। वह व्यक्तिगत रूप से नैतिकतावादियों से उतना ही चिढ़ता था, जितना कि स्टुअर्टवादियों से। इसलिए हम कह सकते हैं कि उसकी रचनाओं में आई कलात्मकता उसकी स्वयं की राजनीतिक प्रतिबद्धता और हैसियत के कारण उत्पन्न हुई है। यह कलात्मकता उसकी अपनी सोच से भी उजागर हो पाई है। अनिश्चित मनोदशा का नायक केवल दो राजसत्ताओं के बीच कथा-गति यंत्र और व्यक्ति-चित्रण के लिए उपयोगी युक्ति भर नहीं हैं, बल्कि वॉल्टर स्कॉट की स्वयं विचारधारा को भी प्रतिभाषित करती है। आगे देखें तो पाते हैं कि स्कॉट बड़ी आसानी से अपने व्यक्ति नायक मोहग्रस्तता के बावजूद मनुष्यगत महानता के उपलब्धियों के रूप में राजनीतिक चरम को आग देने वाले उत्साहवर्धक तत्वों को भी रेखांकित कर पाया है।
यह उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण रहा क्योंकि यह बेहद सरल उदाहरण है। स्कॉट के यहॉ विचारधारा और कथा संगठन के बीच हमेशा सरल एवं प्रत्यक्ष अंतर्सबंध पाया जाता है। दूसरी महान यथार्थवादियों में यह दशा अधिक जटिल और अधिक अप्रत्यक्ष रूप में पाई जाती है। दो स्थितियों के बीच फँसा कथा नायक उपन्यास के संगठन के लिए उपयुक्त है, क्योंकि इससे बड़ी आसानी से रूपात्मक या औपचारिक संरचना निर्मित हो जाती है, जिससे उसके (स्कॉट) साहित्य अभ्यास में विभिन्न कथा रूपों का निरुपण हो सका है। कथा स्थल के “केंद्रीय”चरित्र को इस तरह “औसत व्यक्ति” की तरह प्रस्तुत करने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन इस तरह व्यक्ति चरित्र किसी न किसी रूप में उस समय के समाज और परिवेश का उत्पाद है, जिसकी नियति इसी तरह के व्यक्ति के रूप में विकसित होने की थी। एक केंद्रीय चरित्र में समस्याओं को पाना आसान है, क्योंकि उपन्यास जगत (इस तरह के उपन्यासों) में इसी स्थल से जिंदगी के ज़रूरी मसले उभरते और फैलते नजर आए हैं। यहाँ उस तरह के कथा-चरित्रों की बहुत आमद दिखाई पड़ती है। हम पाते हैं कि संपत्तिहीन कुलीन, वैक्युरों (Vauquier) के भत्तों के सिलसिले में अपने वर्ग से मध्यस्थता कराते दिखे हैं। इस तरह के कुलीन वहाँ के समाज के लिए बहुत ज़रूरी पुर्जे की तरह हैं, जो विभिन्न लोगों का काम कराने के लिए कुलीन वर्ग, अवसरवादी पत्रकार जगत कलावृंदों के बीच आवाजाही रखते हैं।
लेकिन लेखक को अपनी जीवंत विचारधारा से लैस होना चाहिए और इस लिहाज से इतना योग्य भी होना चाहिए, ताकि वह समाज के अंतर्विरोधों को देख सके और ऐसे पात्रों का चयन कर सके, जिनके माध्यम से तमाम विडंबनाओं और उनसे लड़ने वाली शक्तिपुंज के टकराव को दिखाया जा सके। इसी तरह महान लेखकों की विचारधाराएँ महाकाव्यों के संगठन में व्यक्त हुई हैं, जिनक वजह से ये रचनाएँ आज भी वैविध्यपूर्ण और जीवंत बनी हुई हैं। विचारधारा की जीवंतता के स्तर पर अधिक गंभीरता, अधिक विभेदन क्षमता और अधिक गहनता से रचनाओं की संगठनात्मक अभिव्यक्ति अधिक वैविध्यपूर्ण और बहुमुखी हो जाती है, जिसे तमाम वैचारिक आग्रह के बावजूद होना ही चाहिए।
दूसरी बात यह कि बिना विचारधारा के रचनात्मक संगठन असंभव है। फ़्लाबेर्त ने इस सच्चाई को बहुत ही तीव्रता से महसूस किया है। वह निरंतर बूफो की अभिव्यक्ति संबंधी उद्धरण को दोहराता रहता है :“अच्छा लिखने के लिए अच्छा महसूसना ज़रूरी है, अच्छा सोचने के लिए, अच्छी अभिव्यक्ति आवश्यक रूप से ज़रूरी है।” फ़्लाबेर्त के साथ स्थिति बिलकुल उलट है। उसने जॉर्ज सैंड को लिखा: “मैं सही और सही क्रम में लिखने के लिए, सोच-विचार करने में खुद को किताना खपाता हूँ। लेकिन सही लिखना मेरे बहुत ज़रूरी है, मैं इसे स्थगित नहीं कर सकता; इसीलिए इस असाध्य वीणा को बजाता रहता हूँ।” फ़्लाबेर्त कभी भी अपनी विचारधारा से नहीं भटका, लेकिन उसने वैचारिक आग्रह के साथ-साथ अपने सर्जनात्मक कार्यों में अपने जीवनानुभवों को भी अभिव्यक्त करना नहीं भूला। दरअसल वह अपनी विचाराधारा के लिए ईमानदारी से कार्य करता है और इसी से सर्जनात्मक कला के चरम को हासिल भी करता है। वह, यह जानता है कि वैचारिक प्रतिबद्धता के बिना अच्छी कलाकृति की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
इस तरह उल्टी गंगा बहाकर उसे कुछ भी हासिल न हो सका। अपनी असफलता को स्वीकार करते हुए जॉर्ज सैंड को लिखे उसी पत्र में वह लिखता है, “मैं जीवन की संगति और उसके स्वरूप को समझने से वंचित रह गया। मैं तुमसे जानना चाहता हूँ कि आप हजार बार सही हो सकते हैं, मगर यह भी तो सही है कि इतने के बाद भी कहाँ कोई फर्क नजर आता है ? तुम तत्व मीमांसा द्वारा हो रही मेरी या किसी दूसरे की बेकदरी को रौशन या हमारी उपेक्षा को कम नहीं कर सकते। एक तरफ शब्दों का धर्म या कैथोलिकवाद है, तो दूसरी ओर विकास, बंधुत्व एवं लोकतंत्र। ये सारे जैसे मूल्यों में से कोई भी वर्तमान की बौद्धिक मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं है। चरम उग्र विचारधारा से पोषित समानता की नई प्रकार की हठधर्मिता मनोविज्ञान और इतिहास के अभ्यास कार्य में खंडित दशा में पाई गई है। मैं देखता हूँ कि आज न नए सिद्धांतों को प्राप्त करने संभावना है, ना ही पुराने सिद्धांतों को हद से ज्यादा सिर चढ़ाने की ज़रूरत महसूस होती है। इसलिए मैं मानता हूँ आदर्श, जिस पर सारी मान्यताएं निर्भर करती हैं, एक प्रकार का छलावा है।”
फ्लेबर्त की स्वीकृति 1848 के बाद पूँजीवादी बौद्धिकता की सामान्य कमजोरियों को ईमानदारी से अभिव्यक्त करती है। इस तरह की वस्तुनिष्ठता और इस तरह की वैचारिक दरिद्रता उसके समकालीनों के सामने मुँह बाए खड़ा है। जोलॉ के यहाँ यह प्रवृत्ति अज्ञेयवादी सकारात्मकता में अभिव्यक्त होती है; वह अक्सर कहता है कि कोई भी लेखक “क्यों” को रेखांकित करने की तुलना में “कैसे” को ज्यादा सहजता से अभिव्यक्त कर सकता है। अदालतों से आने वाले परिणाम बेजान और बेवजह से लगते हैं, वहाँ उलझनों की कतारें, विचारधारा की सतही दरकती असहमतियां और बेवजह की जिरहबाजी तथा उद्धरणों की नुमाइशें मरघट की प्रेतआत्माओं की तरह नाचती रहती हैं। इस प्रकार की बौद्धिक दरिद्रता को देखकर लगता है कि इसका समय जा चुका है। हलाँकि उस समय के कई लेखक इस उलझन से बचने के क्रम में दूसरे फंदों में फँसे नजर आते हैं। वे साम्राज्यवादी दौर में अज्ञेयवाद को रहस्यवाद में तब्दील करते नज़र आते हैं। यह उनकी बौद्धिक दिवालिएपन का बेहतरीन नमूना है। गौरतलब है कि इसे पूरे जोर-शोर से गाया गया है।
किसी लेखक की विचारधारा के संपूर्ण अनुभवों के परिपक्वन से निर्मित होती है। विचारधारा का महत्व फ्लेबर्त के लेखन में नुमाया हुई है, जहाँ वह जीवन के अंतर्विरोधों के धागों को बुनते हुए, उन संदर्भों को उजागर करता है, जिससे लेखन में उस समाज के जिंदगी की महक उठने लगी है। वह ऐसा इसलिए भी कर पाया है, क्योंकि वह उन गतियों को महसूसता और उन पर विचार करता है। इसलिए, जब कोई लेखक वास्तविक जीवन के संघर्ष से और सामाज के सामान्य आचार-विचार से कट जाता है, तो उसके लेखन में उठने वाले सारे विचाराधारात्मक प्रश्न अमूर्त हो जाते हैं। वहाँ दूसरे प्रकार की छद्म-वैज्ञानिकता, रहस्यवादिता की छवियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं। इस तरह की बंजर स्थितियों और विचारधारा ने आगे के साहित्य की सर्जनात्मकता का क्षय ही किया।
बिना विचारधारा के कोई भी साहित्यकार महाकाव्यों का संगठन, उसकी कथा और उसकी बहु-व्यापकता का सर्जन नहीं कर सकता है। निश्चित ही निरीक्षण और वर्णन दोनो, जीवन के क्रम को दर्शाने के लिए आवश्यक हैं।
महाकाव्यों का संगठन कैसे घटनाओं में किसी प्रकार की कमी के होते हुए विकसित हो सकता है? और किस तरह का संगठन होना चाहिए? आधुनिक लेखकों के लेखन की जॉली वस्तुनिष्ठता और आत्मवाद रचनाओं के संगठन की रूपरेखा तथा एकरसता के लिए जिम्मेदार हैं। वस्तुनिष्ठतावाद, जैसा कि जोलॉ ने अपनी कथाओं के लिए चुना है, को यदि ध्यान से देखें, तो पाते हैं कि वस्तुगत चुनाव का आधार विषयगत सामग्री प्रधान है। यही प्रवृत्ति उसके कथा लेखन की अन्विति का आधार भी है। इसी तरह अन्विति या कथा संगठन में जिंदगी के विभिन्न पहलुओं के महत्वपूर्ण हिस्सों का विस्तार शामिल हुआ है। परिणामस्वरूप कथा-चरित्र स्थैतिक चित्रों की श्रृंखला की भांति अब भी अपने समय की वस्तुगत स्थिति से वैसे ही बंधे नज़र आते हैं, जैसे पहले दिखते थे। सारे पात्र उन सभी वस्तुओं से जिन तर्कों से जुड़े पहले जुड़े हुए थे, उसी तर्क से आज भी जुड़े हुए हैं। चित्रों की स्थिर जमावट में आज भी रत्ती भर का फर्क नहीं आया है। इसीलिए उनके मध्य जो तथाकथित कार्यमूलकता है, वह बस कहने भर की कार्यमूलकता है। यह कार्यमूलकता उन धागों की तरह है, जो किसी तरह एक तस्वीर को दूसरी तस्वीर से जोड़े हुए हैं। यह जुड़ाव बाहरी है, ना कि आंतरिक। सारे चरित्र बासी और अपनी पृथक आकस्मिकता के कारण फ्रेम में जमाए तस्वीरों की भांति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस तरह कथा संगठन में कलात्मकता की गुंजाइश बहुत कम रहती है। लेखक को वस्तुओं या विषयों की मौलिकता को उद्घाटित करके आंतरिक एकरसता को कम करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि वर्णन की धार तेज और वास्तविक हो सके।
छद्म आत्मवादी उपन्यासों में वैविध्यपूर्ण विस्तार की क्षमता नहीं होती है। यहाँ आधुनिक लेखकों के वास्तविक अनुभवों के टटके कथाबिंबों के आधार पर एक पैटर्न को निर्मित किया गया है जिसे मोहभंग कहा जाता है। ये लेखक मनोवैज्ञानिकता के आधार पर कथा का चित्रण और जीवन के विभिन्न विसंगतियों की प्रस्तुति करते हैं तथा पूँजीवाद के दबाव में बड़ी निष्ठुरता से जिंदगी का अंत करा देते हैं, जिससे सारी उम्मीदें धरी की धरी रह जाती हैं। फिर भी यह स्थिति थोड़ी ठीक कही जा सकती है, क्योंकि कम से कम इनमें लौकिकता की उपस्थिति तो है ही। फिर भी यह क्रम हमेशा इसी रूप में बना रहता है, जबकि व्यक्ति और वस्तुजगत के बीच का विरोध इतना भयावह और क्रूर रहता है कि गतिमयता किसी भी तरह संभव ही नहीं। आधुनिक उपन्यासकारों (जॉयस एवं डॉस पासोस) ने कथा-चरित्रों के जीवन संबंधी सभी आंतरिक मसलों को स्थैतिक और मूर्तरूप प्रदान किया है। विरोधाभास यह कि चरम आत्मवाद ने छद्म वस्तुवाद का आंतरिक स्वरूप ग्रहण किया है।
अत: वर्णनात्मक विधि की परिणति संगठनात्मक एकरसता में हुई है। यद्यपि इस विधि से कथन न केवल कथा संरचना को प्रोत्साहित करता है, अपितु इसमें अनंत संभावनाओं को समाहित करने की क्षमता को भी संभव बनाता है।
“लेकिन क्या यह विकास ज़रूरी नहीं था?” वास्तव में इसने महाकाव्यात्मक कथा की पुरानी शैली को नष्ट कर दिया। वास्तव मे नई कथा शैली और कथा-संगठन शैली पुरानी जितनी कलात्मक नहीं रही है। सच्चाई तो यह है कि अभी तक कोई कथा शैली ऐसी नहीं आ पाई है, जो पूर्णरूप से विकसित पूँजीवाद की तस्वीर को उद्घाटित कर पाए? हाँ, मनुष्य वह शक्ति जरूर है, जो आदमी को वस्तुओं, स्थैतिकता एवं जीवन के ज़रूरी तत्वों से जोड़ सकता है। परंतु क्या यही सब कार्य पूँजीवाद नहीं कर रहा है?”
तर्कपूर्ण होना सतर्क होना है, लेकिन इससे त्रुटिविहीन नहीं कहा जा सकता है। पहले चरण में श्रमजीवियों की उपस्थिति पूँजीवादी समाज में भी थी। मॉर्क्स ने पूँजीवाद की अमानवीय चरित्र को समझने के क्रम में पूँजीवाद और श्रमिकवर्ग के मध्य घटित होने वाली अभिक्रियाओं में अपसरण को रेखांकित भी किया है। “प्रायश्चित्तिक वर्ग का होना और श्रमिक वर्ग का अनुभव होना, दोनों एक दूसरे से एकदम अलग हैं। लेकिन किसान वर्ग इसके शक्ति के स्रोत को देखकर और इसके अस्तित्व के स्वांग के आधार पर इस अलगाव का पक्ष तथा इसे सहज भी मानता है। इसके विरूद्ध दूसरा वर्ग इस अलगाव को नष्ट करना चाहता है और अमानवीय मानते हुए इसके अस्तित्व को गैर-ज़रूरी भी समझता है।” मार्क्स इस अलगाव की अमानवीयता के खिलाफ श्रमिक वर्ग के आंदोलन के महत्व को रेखांकित करता है।
साहित्य में जब यह आंदोलन प्रस्तुत हुआ, तो उस समय का वर्णनात्मक तरीका नष्ट हुआ और कथाभूमि तथा कथन की आवश्यकता को बड़ी तीव्रता से महसूस किया गया। गोर्की की माँ और मार्टिन एंडर्सन का नेक्सो पेली द कांक्वर्र (NEXO’S PELIE THE CONQUEROR) इस ढंग के बेजोड़ उपन्यास हैं। ये दोनों ऐसे उपन्यास हैं, जिन्होंने वर्णन के ढंग के बदल कर रख दिया। (निश्चितरूप से इस तरह की बेजोड़ कथा शैली लेखक की गहन सामाजिक और वर्ग संघर्ष के प्रति ईमानदार प्रतिबद्धता से पनपा था)
लेकिन क्या मार्क्स द्वारा वर्णित इस पूँजीवादजनित अलगाव के विरुद्ध आंदोलन में केवल मजदूर शामिल थे? निश्चित रूप से नहीं। पूँजीवाद के साये में मजदूरों का शोषण इस आंदोलन का कारण था, किंतु इसने बदले के बहुमुखी प्रकार को जन्म दिया। संघर्ष के अति कटु हो जाने के बाद पूँजीवादी वर्ग का एक हिस्सा अमानवीयता को तेज करने में “प्रशिक्षित” हो गया। आधुनिक पूँजीवादी साहित्य पूँजीवादी समाज की गवाही देता है। निराशा और प्रतिआभासिता (छलावा) को लेकर इस साहित्य की उद्घोषणा, इस आंदोलन का प्रमाण है। इस तरह की माया या छलावा वाला हर उपन्यास आंदोलन की नाकामी का गवाह है। आंदोलन को सतही तरीके से समझा गया इसीलिए इसका प्रभाव ठीक से नहीं पड़ा।
वह पूँजीवाद अब पूर्ण या अजेय है का मतलब यह नहीं कि सब कुछ स्थाई था। इसलिए ऐसा हुआ। दूसरी संभावना यह भी कि अब व्यक्ति के जीवन में संघर्ष या विकास का अवकाश नहीं रहा। पूँजीवाद के “अजेय” होने का अर्थ हुआ कि इसने अपने आप को दुरुस्त करते हुए दूसरे चरण की “अजेय स्थिति” अमानवीय हासिल कर ली है। व्यवस्था द्वारा यह निरंतर उत्पादित होता रहता है। इससे वास्तविक कड़वाहट और क्रूर संघर्ष की श्रृंखला चलती रहती है। कड़वाहट और संघर्ष का यह यह रूप हर इंसान, जो पूँजीवादी व्यवस्था से थोड़ी भी पूँजी हासिल करने में लगा है, की जिंदगी को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है। इस तरह से इंसान कभी भी “प्राकृतिक” या स्वाभाविक जगत में नहीं उतर पाता है।
वर्णनात्मक शैली के कथा लेखकों की विचाराधारात्मक कमजोरी यह है कि वे परोक्ष संधिपत्र के परिणाम की अनदेखी कर जाते हैं, जिससे उनकी रचनाओं से गुजरते हुए पूर्ण विकसित पूँजीवादी प्रक्रिया को देखने का मौका तो मिल जाता है किंतु उसके विरोध के स्वर और संघर्ष की स्थापना नहीं हो पाती है। कहीं-कहीं, अगर कोई लेखक पूँजीवादी प्रक्रिया को समझा भी है, तो भी ऐसे वर्णनों वाले उपन्यासों ने निराश ही किया है, क्योंकि अंतत: सफलता अमानवीय पूँजीवाद को ही मिलती है। उपन्यासों के गुजरते हुए कहीं नहीं दिखता कि कैसे पूँजीवाद ने व्यक्ति को कमजोर बनाकर अपने व्यवस्था के सामने मजबूर बना दिया है। अर्थात् इन उपन्यासों से पूँजीवादी क्रम का पता नहीं चल पाता। इन कथाओं में ऐसे चरित्रों को पेश किया जाता है, जो बाहरी या कहें कि शुरूआती किस्म की लड़ाई लड़ता है। उसके सभी आंदोलनकारी लक्षण बड़ी सतही प्रतीत होते हैं,क्योंकि इस तरह की लड़ाई किसी छद्म प्रक्रिया की काल्पनिकता से उत्पन्न न होकर संपूर्ण प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पैदा होनी चाहिए। यही कारण है कि इन उपन्यासों की कथाएँ कमजोर लगती हैं और मायूस करती हैं साथ ही साथ आत्मवादी लगती हैं। हमने ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देखा, जो पूँजीवाद के द्वारा आध्यात्मिकता की आड़ में की गई हत्या को पसंद करता हो। ऐसा शायद ही कोई हो, जो जानते हुए भी कि अमुक मर गया है, के लाश के पीछे-पीछे चलता चले, वह भी इस उम्मीद में कि हो न हो लाश जिंदा हो जाए। ‘लेखकों’ की भाग्यवादिता, पूँजीवाद के सामने उनकी पराजय का संधिपत्र है (यद्यपि वे इसके खिलाफ दांत पीसते रहते हैं)। इसलिए ‘उपन्यासों’ के विकास में वास्तविक विकास के अभाव के लिए ऐसे लेखक ही जिम्मेदार हैं।”
इसलिए यह दावा करना गलता है कि यह कथा-शैली अमानवीय पूँजीवाद का दर्पण है। अन्यथा सच्चाई तो यह है कि लेखकों ने इसे सही तरीके से दर्शाने की जगह कमजोर रूप में प्रस्तुत किया है। निर्जन स्थान जीवन की गहनता और निरंतर विकास की प्राणशक्ति के बिना ही संभव है। इन उपन्यासों में आंदोलन की शक्ति बड़ी कमजोर रूप में वर्णित हुई है, जिसे पढ़कर आश्चर्य होता है कि जिस दुनियाँ में पूँजीवादी दमन के द्वारा अनंत लोगों को “जिंदा लाश”में बदल दिया जा रहा हो, वहाँ रचनाओं का स्तर इतना कमजोर कैसे हो सकता है।
यदि कोई मैक्सिम गोर्की के उपन्यासों की तुलना आधुनिक यथार्थ की प्रवृत्तियों को लेते हुए पूँजीवादी समाज से करे, तो उसे विरोधाभास ही दिखेगा। आधुनिक यथार्थवाद का गहन निरीक्षण करने पर निराशा हाथ लगती है, क्योंकि इसने जीवन की जीवंतता और उसके टटकेपन को अभिव्यक्त करने की क्षमता को खो दिया है। इसीलिए इसके द्वारा पूँजीवादी यथार्थ का चित्रण अपर्याप्त, कमजोर और बनावटी प्रतीत होता है। पूँजीवाद के अधीन कथारूपों का ऐसा क्षय खेद और करुणा पैदा करता है। पूँजीवाद का वहशीपन नीचता उपन्यासों में संपन्न हुए वर्णनों से अधिक घिनौना है। यह अनुचित किस्म का सरलीकरण है। नि:संदेह कहा जा सकता है कि आधुनिक साहित्य ने अंधभक्ति और अमानवीयता के सामने बिना संघर्ष किए हथियार डाल दिया है। हमने पहले ही ध्यान दिया था कि 1848 के बाद का फ्रेंच प्राकृतिवाद ने इस प्रक्रिया के खिलाफ आत्मवादी संघर्ष की बानगी पेश किया था। बाद के साहित्य द्वारा इस संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण आख्यान का प्रतिपादन किया गया। विभिन्न रूपवादी साहित्यिक आंदोलन के अधिकांश उल्लेखनीय मानवीय सरोकार वाले कलाकार पूँजीवादी जीवन के प्रभाव से प्रभावित और लालायित दिखाई पड़ते हैं। बाद के साहित्यकारों, जैसे इब्सन के यहाँ पूँजीवादी अस्तित्व की एकरसता के खिलाफ आंदोलन की प्रस्तुति होते दिखाई पड़ता है। हालाँकि इन आंदोलनों में कलात्मकता का अभाव खटकता रहता है। यहाँ पूँजीवाद की निगरानी में पनपने वाली शून्यता या खालीपन का जायजा नहीं दिखाई पड़ता है। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि इन लेखकों के पास प्रत्यक्ष जीवन संघर्ष की वह आब नहीं है,जिससे खालीपन सही तरीके से हो पाए। जब तक इस वे जीवन की आम परेशानियों का सूक्ष्म निरीक्षण और सही चित्रण के लिए प्रयास नहीं करते, तब तक विचारधारा मात्र से इस तरह का खेल चलता रहेगा।
इनमें पूँजीवादी जगत के बेहतरीन बौद्धिक लोगों के मानवीय संघर्षों की साहित्यिक और सैद्धांतिक तत्वों की व्याप्ति हुई है। क्योंकि मानवीय आंदोलन में भाग लेने वाले वैविध्यपू्र्ण और असामान्य लोगों का इन रचनाओं में सतही किस्म का विश्लेषण संपन्न हुआ है। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि लेखक रोमानियाई रोलेंड का खुला मानवतावादी आंदोलन सन् 1848 के बाद के पूँजीवादी साहित्य की परंपरा और उसकी सीमाओं को उजागर और नष्ट करने वाला एक गंभीर प्रयास था। सोवियत संघ में समाजवाद की विजय से मानवतावाद को बल और पूँजीवाद के खिलाफ इसके लक्ष्यों को परिभाषित होने का मौका मिला। किंतु इसके विरोध में क्रूर और अमानवीय पूँजीवाद द्वारा पहले से ज्यादा सक्षम और जालिम आला दर्ज़े की सैद्धांतिकी गढ़ी गई। गत वर्ष अर्नेस्ट ब्लॉख का एक सैद्धांतिक निबंध आया, जिसका उद्देश्य उत्तर उन्नींसवी और बीसवीं सदी की कलाओं की आलोचना करना था। निश्चित रूप से यह आलोचकीय लड़ाई अभी अपने निर्णायक स्तर पर नहीं पहुंची है। इसने सैद्धांतिक स्तर पर सभी क्षेत्रों में अजेय बढ़त हासिल नहीं की है। लेकिन वे इस लड़ाई में हैं। मैदान में डटे हुए हैं। इस अवधि की मूल गैर-अकादमिक का पुनर्मुल्यांकन होना प्रारंभ हो चुका है, इस रोगकारी लक्षण को नज़र अंदाज करना ठीक नहीं है। * (1936)
(*– इस निबंध के अंतिम भाग में तीस के दशक के सोवियत साहित्य की मूल विशेषताओं के साथ उसकी समस्याओं पर विचार किया गया है। उन हिस्सों को यहाँ छोड़ दिया गया है। – -अनुवाद(फ्रेंच से अंग्रेजी में करने वाला)
*1 – वह प्रभाव जब लेसिंग ने गोनोकोर्ट और जोलॉ के युद्ध आधारित विस्तार की आलोचना किया है।
पाठ में दो पात्र आए है, उन्हें समझना ज़रूरी है। दोनों पात्र निम्न हैं –
*1– रस्तिनाग, बाल्जॉक के एक श्रृंखलात्मक कथाकृति लॉ कॉमेडी ह्युमन (La Comédie humaine) का मुख्य कथा चरित्र है। यह उपन्यास सन् 1848 में पूरा हुआ।
*2– गिल ब्लास, अलेन रेने लेसज (Alain-René Lesage) के उपन्यास हिस्तोरी डे गेल ब्लास डे संतिलेने (Histoire de Gil Blas deSantillane) का मुख्यपात्र है। यह उपन्यास में 1715 से लेकर 1735 तक किश्तवार लिखा गया। – अनुवादक (अंग्रेजी से हिंदी करने वाले) की ओर से।
जनार्दन:
जनार्दन आदिवासी समाज से आते हैं। मूलत: आप कथाकार हैं। आपकी कहानियां परिकथा, वागर्थ, दलित अस्मिता, युद्धरत आम आदमी और समय संज्ञान जैसी पत्रिकाओं में छप चुकी हैं।
जनार्दन का एक उपन्यास ‘पहाड़ गाथा’ नाम से प्रकाशित है। यह उपन्यास आदिवासी जीवन पर आधारित है। जनार्दन कविताएं भी लिखते हैं जिन पर देशज संस्कृति का रंग दिखाई पड़ता है।
जनार्दन की अभिरुचि सिनेमा और अनुवाद में भी है। विभिन्न पत्रिकाओं में इनके लेख और अनुवाद कार्य प्रकाशित होते रहते हैं।
आप हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय , प्रयागराज में सहायक प्राध्यापक हैं।
मो. 9026258686
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