मिलान कुंदेरा चेकोस्लोवाकिया के ब्रनो में 1अप्रैल1929 में जन्मे चचिॅत उपन्यासकार हैं। 1975 में अपनी विरोधी विचारधारा के कारण देशनिकाला मिलने के बाद कुंदेरा फ्रांस चले गए और बाद में वे फ्रांस के नागरिक बन गए। कुंदेरा ने चेक और फ्रेंच में लिखा । महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि कुंदेरा ने चेक में लिखी अपनी सभी पुस्तकों को फ्रेंच में रूपांतरित कर प्रकाशित कराया।
बहरहाल, हम यहां कुंदेरा के उपन्यास ‘ द अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ का अंश प्रस्तुत कर रहे हैं । अनुवाद आनंद बहादुर ने किया है।
आनंद बहादुर का कहना है : हाल में मैंने मिलान कुंदेरा के सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास The Unbearable Lightness of Being को पढ़ा। मुझे यह एक महान कृति लगी। अपने मित्रों को इसकी एक झलक दिखलाने के लिए मैंने यूँ ही, ऑफ हैंड, इसके पहले खण्ड के पहले दो टुकड़ों का अनुवाद किया है। इनमें कुंदेरा ने भारहीनता के अपने उस सिद्धांत को समझाया हैं, जिसपर यह उपन्यास आधारित है। वैसे उपन्यास के इस दार्शनिक पक्ष को पूरी तरह से तो समूचे उपन्यास में खोला गया है। मगर यहां पाठक को एक टेक ऑफ प्वाइंट, एक प्रस्थान बिंदु जरूर मिल जाता है। -हरि भटनागर

अंग्रेजी से अनुवाद : आनंद बहादुर

 

खंड 1: भारहीनता और भार

 

1

अनंत वापसी का विचार एक रहस्यमय विचार है और नीत्शे ने अक्सर इसके जरिए अन्य दार्शनिकों को संशय में डाला है, यह सोचना कि सबकुछ एक बार पुनः ठीक उसी तरीके से घटित होता है जैसा हमने पहली बार उसका अनुभव किया था, और यह कि यह पुनर्वापसी पुनः अनंत बार दुहराई जाती है। इस पागल मिथक का क्या मतलब है?

इसे ऋणात्मक रूप से कहें, तो अनंत वापसी का मिथक बताता है कि एक जीवन जो हमेशा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाता है, जो कभी वापस नहीं लौटता, वह एक छाया के सदृश्य है, बिल्कुल भारहीन, पहले से ही मृत, और यह कि चाहे वह भयावह रहा, सुंदर रहा, या भव्य रहा, उसकी भयावहता, भव्यता, और सुंदरता का कोई अर्थ नहीं है। उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए, मानो वह 14वीं शताब्दी के दो अफ्रीकी राज्यों के बीच लड़ा गया कोई युद्ध हो, एक ऐसा युद्ध जिसने दुनिया की नियति में कोई बदलाव नहीं पैदा किया, चाहे फिर उसमें एक लाख काले लोग अति दुखदाई यंत्रणा के बीच क्यों न काल कवलित हुए हों।

यदि 14वीं शताब्दी में दो अफ्रीकी राज्यों के बीच का वह युद्ध बार बार घटित होने लगे, यानी अनंत वापसी में, तो उसकी अपनी प्रकृति में किसी प्रकार का परिवर्तन आएगा क्या?

आएगा: वह अपनी अर्थहीनता में, एक ठोस थक्के में बदल जाएगा, स्थाई रूप से उभारदार।

यदि फ्रांस की क्रांति अनंत रूप से बार-बार घटित होने लगे तो फ्रांस के इतिहासकार होबेस्पीये पर बहुत कम इतरा पाएंगे। वे मगर एक ऐसी चीज के बारे में बता रहे होते हैं जो फिर कभी नहीं लौटेगी, इसीलिए क्रांति के रक्त-आलूदा साल महज शब्दों, सिद्धांतों, और चर्चाओं में बदलकर रह गए हैं, वे परिंदों के पंखों से भी अधिक भारहीन होकर रह गए हैं, वे किसी को भी भयभीत नहीं करते। वह होबेस्पीये जो इतिहास में केवल एक बार अस्तित्वमान होता हो, और वह जो अनंत बार लौटता हो, और फ्रांसीसी सरों को कलम करता हो, इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है।

इसलिए चलिए हम मान लेते हैं कि अनंत वापसी का विचार एक ऐसे परिप्रेक्ष्य की ओर संकेत करता है जिसमें चीजें, हम उन्हें जैसा जानते हैं, उससे अलग नज़र आती हैं: वे अपनी प्रकृति की गंभीरता को प्रशमित करने वाली क्षणभंगुर परिस्थिति के बगैर नज़र आती हैं। यही गंभीरता को प्रशमित करने वाली परिस्थिति हमें किसी निर्णय तक पहुंचने से रोकती है। क्योंकि आखिर हम किसी ऐसी चीज को किस प्रकार दोषी ठहरा सकते हैं जो क्षणभंगुर हो, और पारागमन की प्रक्रिया में हो। विघटन के सूर्यास्त में, सबकुछ, गीलूटीन तक, अतीत वेदना की लालिमा से चमक उठता है।

बहुत दिन नहीं हुए, एक दिन मैंने पाया कि मैं एक अविश्वसनीय अनुभूति से गुजर रहा हूँ। हिटलर के ऊपर लिखी गई एक किताब के पन्नों को पलटते हुए उसके कुछ पोर्ट्रेट्स ने मेरे मन को छू लिया, उन्होंने मुझे मेरे अपने बचपन की याद दिला दी। मैं विश्व युद्ध के दरमियान बड़ा हुआ, मेरे परिवार के कई सदस्य हिटलर के यातना शिवरों में खेत रहे, लेकिन मेरे जीवन के एक खोए हुए समय के टुकड़े की यादों की तुलना में उनकी मृत्यु की कीमत ही क्या थी, एक ऐसा समय जो फिर कभी नहीं लौटने वाला था?

हिटलर की यह पुनःस्वीकृति इस जगत की नैतिक अधोगति को दर्शाती है, जो मुख्यतः लौटने की संभावना की अनुपस्थिति पर आधारित है। क्योंकि इस जगत में सब कुछ पहले से ही माफ कर दिया गया है और इसलिए सब कुछ की एक सनकभरी अनुमति है।

2

यदि हमारे जीवन का हरेक पल अपने आप को अनंत बार दुहराए तो हम अनंतता में उसी प्रकार कीलित हो जाएंगे, जिस प्रकार ईसा मसीह को सलीब पर कीलित किया गया था। यह एक भयभीत कर देने वाली संभावना है। अनंत वापसी की दुनिया में हमारी प्रत्येक क्रिया के ऊपर असहनीय जिम्मेदारी का भारी बोझ होता है। नीत्शे ने इसी वजह से अनंत वापसी के विचार को अस्तित्व का सबसे भारी बोझ कहा था।

यदि अनंत वापसी अस्तित्व का सबसे भारी बोझ हो, तब तो हमारा जीवन इसके विरुद्ध अपनी संपूर्ण भारहीनता में कायम रह सकता है।

लेकिन क्या सचमुच बोझ सबसे अधिक निंदनीय चीज है और भारहीनता सबसे प्रशंसनीय?

सबसे भारी बोझ हमें कुचलता है, हम इसके तले दब जाते हैं, यह हमें भूमि में कीलित कर देता है। लेकिन प्रत्येक युग की प्रेम कविता में स्त्री पुरुष-शरीर के तले दबाए जाने की कामना करती है। इसका मतलब हुआ कि सबसे बड़ा बोझ, बोझ होने के साथ ही, जीवन की सघनतम तृप्ति का बिम्ब भी है। बोझ जितना अधिक होगा हमारा जीवन धरती के उतने ही करीब आएगा और वह उतना ही अधिक वास्तविक और सच्चा भी हो जाएगा।

इसके उलट बोझ का बिल्कुल अनुपस्थित होना मनुष्य को हवा से भी हल्का बना देगा, वह उड़कर ऊंचाइयों पर पहुंच जाएगा, पृथ्वी को और अपने पार्थिव अस्तित्व को पूरी तरह त्यागते हुए, और केवल अर्द्ध-वास्तविक होकर, उसके क्रियाकलाप जितने मुक्त उतने ही महत्वहीन होंगे।

तब आखिर हम क्या चुनना चाहेंगे?

पारमेनिडीज़ ने ईसा से पूर्व छठवीं शताब्दी में यही प्रश्न पूछा था। उसने दुनिया को विरोधी युग्मों में बंटा हुआ देखा: रोशनी/अंधेरा, चिकनापन/रुखड़ापन, ऊष्णता/ठंढापन, अस्तित्व/अनस्तित्व। इन विरोधी युग्मों के एक हिस्से को उसने घनात्मक बताया (रोशनी, चिकनापन, ऊष्णता, अस्तित्व) और दूसरे हिस्से को ऋणात्मक। हमें लगेगा कि घनात्मक और ऋणात्मक ध्रुवों का यह बंटवारा इतना सरल है कि इसे बचकाना ही कहा जा सकता है, सिर्फ एक कठिनाई है, भार अथवा भारहीनता, इनमें से कौन घनात्मक है कौन ऋणात्मक?

पारमेनिडीज़ का उत्तर था: भारहीनता धनात्मक है, भार ऋणात्मक।

वह सही था या नहीं? सवाल यह है। निश्चित तौर पर तो बस इतना ही कहा जा सकता है: भार/भारहीनता की प्रतिकूलता इस प्रकार की समस्त प्रतिकूलताओं में सर्वाधिक रहस्यमय, और दुविधाजनक है।

3

मैं अनेक वर्षों से तोमाश के बारे में सोचता रहा हूँ। लेकिन मैं उसे इन विचारों के परिप्रेक्ष्य में ही साफ़-साफ़ देख पाया। मैंने देखा कि वह अपने फ्लैट की खिड़की के सामने खड़ा आहाते के उस पार की दीवारों की ओर ताक रहा है, किंकर्तव्यविमूढ़।

त्रेज़ा से उसकी पहली मुलाकात कोई तीन हफ्ते पहले एक छोटे से चेक शहर में हुई थी। वे घंटे भर भी साथ नहीं रहे थे। वह उसे विदा करने स्टेशन तक आई थी और उसके ट्रेन पर चढ़ जाने तक साथ रही थी। दस दिन बाद वह उसके पास आई। जिस दिन वह आई उन्होंने सहवास किया था। उसी रात उसे बुखार चढ़ आया और वह पूरे सप्ताह भर उसके फ्लैट में फ्लू में जकड़ी रही।

इस लगभग पूरी तरह से अनजान स्त्री पर उसे एक अबूझ सा प्यार हो आया। वह उसे एक बच्ची की तरह लगी, एक बच्ची जिसे किसी ने कोलतार से पेंट किये हुए बाँस के बने बास्केट में डालकर नदी में बहा दिया था ताकि तोमाश अपने बिस्तर रूपी तट पर से उसे उठा ले।

वह उसके साथ एक सप्ताह रही, तब तक जब तक वह फिर से ठीक नहीं हो गई। फिर वह अपने शहर वापस लौट गई, जो प्राग से कोई एक सौ पच्चीस मील दूर था। और फिर वह समय आया जिसके बारे में मैंने अभी-अभी बात की है और जिसे मैं उसके जीवन की कुंजी के रूप में देखता हूँ। अपनी खिड़की के पास खड़े होकर उसने आहाते के पार की दीवार पर नज़र डाली और सोचने लगा।

क्या वह उसे हमेशा के लिए प्राग बुला ले? उसे ऐसे उत्तरदायित्व से डर लगता था। यदि उसने उसे बुलाया, तो वह जरूर आ जाएगी, और अपना जीवन उसे समर्पित कर देगी।

या क्या उसे उसकी ओर कदम बढ़ाने से बाज आना चाहिए? तब वह एक प्रांतीय शहर के किसी होटल के रेस्टोरेंट की एक परिचारिका भर रह जाएगी और वह उसे कभी नहीं देख पाएगा।

वह उसे वापस बुलाना चाहता था या नहीं?

उसने आहाते के पार की दीवारों की ओर देखा, मानो उनसे अपने सवाल का जवाब चाहता हो।

वह उसे उस दशा में याद करता रहा जब वह उसके बिस्तर पर लेटी हुई थी। उसे वह उसके बीते हुए जीवन के किसी भी व्यक्ति की याद नहीं दिलाती थी। वह न तो रखैल थी न पत्नी ही। वह एक छोटी सी बच्ची थी जिसे उसने बाँस के उस बास्केट से निकला था जिसे कोलतार से रंग कर उसके बिस्तर रूपी नदी के तट पर भेज दिया गया था।



आनंद बहादुर

● जन्म- 17 जुलाई 1961 देवघर, बिहार।

● शिक्षा- अंग्रेजी से एम ए, पीएच डी के लिए डी एच लाॅरेंस पर शोध।
● कृतियाँ- कहानी संग्रह ‘ढेला’ (सेतु प्रकाशन) और ‘बिसात’ (सूर्य प्रकाशन मंदिर), कविता संग्रह ‘समतल’ (किताबवाले) और ‘नीले रंग की एक चुप’ (पेनमैन प्रकाशन), ग़ज़ल संग्रह ‘मौसम खुशबू रंग हवाएं’ (किताबवाले) ई-बुक ग़ज़ल संग्रह ‘सीपियाँ’ (नाॅटनल), मेटामोरफ़ोसिस और अन्य कहानियाँ, (फ़्रांज़ काफ़्का की कहानियों का हिंदी अनुवाद, शिवना प्रकाशन), प्लेग (अल्बैर कामू के उपन्यास का हिंदी अनुवाद, पेनमैन प्रकाशन)।

● अनुवाद-
विश्व प्रसिद्ध लेखकों- अल्बैर कामू, फ्रांज़ काफ़्का, सिमोन द बोउवार, जार्ज लुकाच, गाय दा मोपासाँ, थियोडो अडाॅर्नो, टेरी ईगलटन, चार्ल्स बूदलेयर, जेम्स जाॅयस, जाॅर्ज ऑरवेल, कैथरीन मैन्फील्ड, डिंग लिंग, एलेन पैटोन, एच ई बेट्स, समरसेट मा’म, आदि की महत्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद। मनमोहन पाठक के उपन्यास ‘गगन घटा घहरानी’ का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद, सरोजिनी नायडू के लेखों और भाषणों का संग्रह और विश्व के चुने हुए दस कहानीकारों की कहानियों का संग्रह प्रकाशनाधीन।

● परस्पर, लौ, व प्रतिसंसार का संपादन। रौनक़ नईम की ग़ज़लों के संग्रह ‘पानी बहता जाए’ का संपादन।

सम्प्रति- शासकीय काॅलेज, तामासिवनी, रायपुर में अंग्रेजी के प्राध्यापक।

शौकिया वायलिन वादन।

anand.bahadur.anand@gmail.com
फोन- 8102272201

 

 


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