रचना किसी भी काल -खण्ड की हो सकती है लेकिन उसमें तत्कालीन जीवन का प्रतिबिम्ब होना ज़रूरी है, तभी वह सार्थकता की अर्थवत्ता प्राप्त कर पाती है।
सौमित्र की प्रस्तुत गोपिका कहानी महाभारतकालीन समय की है लेकिन यह तत्कालीन जीवन के बहाने वर्तमान समय में स्त्री – अस्मिता के उच्चतर मूल्यों के डिगने के विरुद्ध एक स्वर है , आवाज़ है।
गोपिका की स्त्रियां कृष्ण रूपी ईश्वर में नहीं बल्कि सामान्य पुरुष में सुख खोजती हैं जो छल से मुक्त स्त्री को स्त्री का दर्ज़ा देने से कतराता नहीं। यह कहानी ईश्वर के नकार के साथ स्त्री के मान के अर्थ को रूप देती है।
– हरि भटनागर
कहानी:
नदी में उसकी जान बसी है। यह संबंध उसके जन्म के दिन से ही बन गया था, जिसकी कथा सबको पता है। कभी-कभी वह चाहता है कि इतनी दूर चला जाए जहाँ नदी और उसके बीच कुछ न हो। घाटों पर विचरण करते लोग, मछली पकड़ते मछुआरे, मथुरा को जाते ग्वाले अपने कलसों में दूध-दही भरे हुए। वे स्त्रियाँ जो पूजा के बाद फूल सिराती हैं और वे डोम जो मुर्दों की राख बटोरकर नदी के वक्ष पर फैला देते हैं। कोई न हो, तब वह नेपथ्य में बहती नदी का संगीत सुनना चाहता है, बिना किसी शोर के। क्योंकि दुनिया का सारा शोर तो उसके भीतर है ही।
आज भी वो अपने मौन में बसा लेटा हुआ है। सुबह का ऐसा समय है जब वो रात की अंतिम चिन्दियाँ ढूंढता हुआ दुनिया को दिन के हवाले कर देता है। पूरी रात वो सोया नहीं, जैसे उसे पूर्वाभास हो कि आज कुछ अप्रिय होने वाला है। गोपियों का झुंड नदी नहाने आ रहा है। पचासों लड़कियां और स्त्रियां, सुबह ही नहाने से पूरा दिन अच्छा बीतता है। कुछ अहिरान हैं, वे अपने पुरुषों के साथ मथुरा चली जाएँगी – दूध के व्यापार के लिए। कुछ राजकारणी, कुछ मालिन धोबिन, नाइन , कुछ पंडिताइन हैं। वे वस्त्र धोयेंगी, फल-फूल की रखवाली करेंगी और मंदिर में जा प्रसाद बनाएंगी। वे सभी एक-एक करके अपनी धोतियाँ उतार कर किनारे पर एक बड़े वृक्ष के नीचे रखती जाती हैं और फिर आराम से चहलकदमी करती हुई जमुना में घुस जाती हैं।
नग्न स्नान उनकी दिनचर्या है – उनके जन्म से ही। उन्हें विश्वास है कि कोई पुरुष उन्हें गलत दृष्टि से नहीं देखेगा। वे आपस में भी लाज नहीं रखती हैं। सब सखियाँ एक साथ स्नान कर अपने-अपने काम को निकल जाती हैं। उनके जीवन में बस एक ही पुरुष है – कृष्ण। उससे किसी को कोई लाज नहीं है। आज भी कृष्ण घाट के किनारे लेटा हुआ है और स्त्रियां उसके पास से ऐसे निकल जातीं हैं जैसे वह कोई वनस्पति या पत्थर का टुकड़ा हो। पर कृष्ण की नींद में आज विश्रांति है।
कृष्ण ने करवट लेकर भूमि की ओर अपना मुख कर लिया और बांह की गल-तकिया बनाकर लेटा रहा। उसका मन नहीं लग रहा है। इतनी स्त्रियों की भीड़ ने अचानक बहुत हलचल मचा दी है। कुछ लड़कियां तो उसके ऊपर से कूद कर निकल जाती हैं, शायद अंधेरे में या इस विश्वास में कि कृष्ण तो ईश्वर है, उससे क्या लाज? सभी गोपियाँ कृष्ण के ईश्वर रूप के बारे में जानती हैं, ये तो तय है। पर फिर भी बाकी विषयों में वे उससे मानवीय संबंध रखती हैं। यही बात कृष्ण के मन में घर कर गई है। आज कुछ नया नहीं हो रहा है, वो हमेशा से यही देखता आया है, जब भी सुबह के समय वह नदी किनारे होता है, पर आज मन अलग है।
“ऐसा भी कोई करता है क्या! नग्न स्नान! सब कोई मेरी तरह थोड़े ही हैं! न जाने कौन पीछे छिपकर बैठा हो घात लगाने के लिए! मैं तो कुछ ही समय के लिए इनके पास हूँ। उसके बाद… ये सदियों से चला आ रहा है, पर कभी तो रुकना चाहिए! कुछ तो भेद होना चाहिए सभ्यता और आदिमता में। और सिर्फ स्त्रियों को ही नहीं, पुरुषों को भी इसका ध्यान रखना चाहिए। वरना पशु-पक्षियों और हम में क्या अंतर है!” कृष्ण के मन में बहुत से विचार घूम गए। जैसे-जैसे अंधेरा छट रहा था, उसका निश्चय दृढ़ होता जा रहा था। “मुझे कुछ करना पड़ेगा। अन्यथा ऐसा सब और सदियों तक चलेगा। मैं आज एक रेखा खींचूंगा समय की देह पर। उसके दूसरी ओर समाज के लिए नए बंधन होंगे – सभ्यता नवनूतन होने के लिए अपनी स्त्रियों से कुछ मोल लेगी।”
कृष्ण मिट्टी झाड़ता हुआ उठ बैठा। उसने चारों ओर देखा और फिर उस पेड़ की ओर चल दिया जहाँ सबसे अधिक स्त्रियों ने अपने वस्त्र उतार कर रख दिए थे। “लक्ष्मी मुझे तुम क्षमा करना, गौरी मुझे तुम क्षमा करना, शिव मुझे ऐसा करते हुए मत देखो,” वह सोचता रहा। “मैं कितनी भी गंभीरता से अपना अगला कार्य करूँ, उसका दंश मुझे हमेशा कचोटेगा। पर मेरे पास और कोई उपाय नहीं है, अनागत की असंख्य स्त्रियों के लिए एक दृष्टांत बनाने के सिवाय।” कृष्ण ने नदी को निहारा, जहां स्त्रियां पूरी तरह अनजान स्नान में मग्न थीं। उसने एक-एक कर उनकी धोतियाँ और अंगियाएँ उठानी शुरू कीं और एक बड़े गट्ठर में बाँधकर, कदम्ब के विशाल वृक्ष की एक ऊँची शाखा पर चढ़कर बैठ गया, और आँखें बंद कर लीं।
कृष्ण फिर से मौन में चला गया। नीचे, भूमि पर फैला स्त्रियों का हँसी-खेल और कोलाहल उसे सुनाई देना बंद हो गया। “मुझे कुछ देर के लिए समय को बाँध देना चाहिए। मेरा कार्य अमर हो जाएगा। इन स्त्रियों की लज्जा और ग्लानि भी। क्या मैं ठीक कर रहा हूँ? इतनी विचारणा मन में हो रही है, तो क्या मुझे यह सच में करना चाहिए?” वह सोचता रहा। “किसी गोपिका की पीड़ा में उसका संसार भी छिन सकता है कुछ देर के लिए, जब तक मैं प्रकट न हो जाऊँ उसके सामने उसके वस्त्र लेकर। मैं उसे तो कुछ नहीं होने दूँगा, पर मैं खुद को कैसे बचा सकूंगा उसके बाद? मेरी क्या छवि रह जाएगी, मेरी बातों का मोल, मेरे प्रेम और भक्ति का स्वरूप? मैं अपनी सबसे बड़ी भक्तिनों को नग्न करने जा रहा हूँ। उसके बाद उनका भविष्य न जाने क्या हो!”
पर फिर कृष्ण ने अपना मन कड़ा कर लिया। ऐसा ही कड़ा मन उसे आगामी दिनों में एक महायुद्ध में अपनी भूमिका के लिए भी करना होगा। उसका यह अवतार ही ऐसा है, अपने कर्तव्य के आगे उसे अपना स्वत्व त्यागना होगा। धीरे-धीरे स्त्रियां नहाकर पेड़ों के झुरमुट की ओर आने लगीं। जहाँ कभी इतने सारे वस्त्रों का ढेर था, अब एक भी नहीं है। उनमें कोहराम मच गया। रोना-पीटना शुरू हो गया। जो अब तक पानी में थीं, वे भी अपनी सखियों को चिल्लाते देख घबराकर दौड़ी आईं और वे भी अपने वस्त्र न पाकर विलाप करने लगीं। कुछ महिलाएँ जमीन पर लेट गईं और मिट्टी में अपना सिर छिपाने की कोशिश करने लगीं। यदि धरती फट सकती तो वे उसमें समा जातीं।
कृष्ण के भीतर की तड़प और गहरी हो गई। इतने सारे शोर में उसे लगा जैसे सैकड़ों भालों से उसके शरीर को भेदा जा रहा हो। मन की वेदना देह की पीड़ा में बदल गई। पर वह पेड़ पर बैठा रहा। गोपियाँ चारों ओर दौड़-दौड़कर, हर पेड़, हर झाड़ी के पीछे अपने वस्त्र ढूंढने लगीं। जब उनके पैर थक जाते, तो वे जमीन पर गिर जातीं। “किसी ने हमारे साथ बहुत ही क्रूर खेल खेला है। अब हममें से कोई भी जीवित नहीं रहना चाहता। हे देवी माँ, हमें अपनी गोद में शरण दो।” उनके पैरों में पत्थरों से रगड़ लगने से खून बह रहा था। उनकी आँखें लाल हो गई थीं। वे भागतीं तो उनकी देहें मांस के ढेर की तरह फड़फड़ातीं।
“इस पल को और बड़ा नहीं होना चाहिए,”” कृष्ण ने मन में सोचा। “पर इसके बाद की स्मृति को तो मुझे अनंत करना ही होगा। मैं इन अबोध गोपियों को इस अवस्था में नहीं छोड़ूंगा, और एक भी पल और नहीं। कदाचित इस क्षण को उनकी स्मृति से मिटा सकता। अगर हो सकता, तो मैं अपनी स्मृति से भी इस पल को हटा देता। पर सबकुछ तो मुझमें ही है, तो कहाँ ले जाऊंगा मैं अपने ही कर्मों की गति?” वह चुपचाप पेड़ से नीचे उतरा और भोला बनकर खड़ा हो गया घाट के किनारे, जहाँ महाकोहराम मचा हुआ था। उसने त्रिभंगी मुद्रा धारण की, बांसुरी होठों पर थामी और एक गंभीर धुन बजाने लगा। उसकी बांसुरी का संगीत वातावरण में फैलने लगा। आकाश में एक आवरण सा बनने लगा, जिसके भीतर सबकुछ उस संगीत में डूबा हुआ था।
सृष्टि की हर जीवित वस्तु ने सांस रोक ली। कृष्ण की कोई बड़ी लीला शायद अब घटित होने वाली थी। जमुना के तट पर गोपिकाओं के शरीर में फिर से जान आ गई। वे मुरली की धुन की दिशा में दौड़ पड़ीं। कृष्ण के पास होने का अहसास ही उनकी सारी पीड़ा हर ले गया। “अब वह हमें अपने वृत्त में छिपा लेगा,” वे सोच रही थीं। गोपियों का झुंड कृष्ण के चारों ओर एकत्र होकर मंत्रमुग्ध हो गया, बांसुरी के संगीत में खो गया। कृष्ण के मुख पर छाई हुई पहले की गंभीरता धीरे-धीरे खुशी में बदल गई। उसका चेहरा खिल उठा। गोपियों के चेहरे पर भी हँसी की रेखाएँ उभरने लगीं। ऐसा लगा जैसे कृष्ण उन्हें अपने दुःख के सागर से पार ले जाकर सुख के किसी अनंत लोक में ले जा रहा हो।
अचानक कृष्ण ने बांसुरी बजाना बंद कर दिया और अपने घेरे में घूमते हुए जोर-जोर से हँसने लगा। तेज और शीतल हवा यमुना की नमी लेकर बहने लगी, जिसने वहाँ खड़ी गोपियों के पसीने को सोख लिया। कृष्ण अपने घेरे में किलकारी मारते हुए बच्चे की तरह उल्लास में भरा प्रतीत होता था। वातावरण हल्का हो गया था। सूरज बादलों के पीछे छिप गया था और सुबह के उस समय में अचानक अंधेरा छा गया। कृष्ण की हँसी और उसका निनाद उसकी देह से अनुनादित होकर गोपियों के शरीर में भी कंपन करने लगा। उनकी आँसुओं से भरी आँखें आनंद से भर गईं। कृष्ण की उपस्थिति में उन्हें अब कोई डर नहीं था। उन्हें विश्वास था कि वह उनका समाज में अपमान नहीं होने देगा।
“सखियों, उठा लो अपने वस्त्र। तुम्हें इस अवस्था में मेरे सिवाय किसी और मनुष्य ने नहीं देखा है,” कृष्ण ने कहा। “और ये भी जान लो कि तुम्हारे वस्त्र और कोई नहीं, मैं ही लेकर छिप गया था।” स्त्रियों के बीच कृतार्थ भाव से शुरू हुआ स्पंदन घोर अविश्वास में बदल गया। “ये क्या किया कान्हा ने?” गोपियाँ हारी हुई बाजी की खिलाड़िनों की तरह भूमि पर बैठ गईं। कृष्ण चुप हो गया। उसने गोपियों की स्मृति नहीं हटाई। उन्हें सब सदैव याद रहेगा। एक-एक करके स्त्रियों ने अपने वस्त्र उठा लिए और जब सूर्य पूरी तरह से बादलों के पीछे छिप गया, तो उन्होंने उन्हें पहन लिया। “कान्हा, तुम हँस क्यों रहे हो?” एक गोपी ने पूछा। “इसलिए कि तुम दिन-रात मेरे साथ प्रेममिलन के स्वप्न देखती हो, मध्यरात्रि में महारास के समय अपने अंगों को निर्वस्त्र कर मुझे मोहित करना चाहती हो, और आज यह जानकर भी कि यह मैं ही हूँ जिसके सम्मुख तुम नग्न हुई हो, तब भी लज्जा का स्वांग रच रही हो। जाओ, खेल अब समाप्त हुआ।”
उन गोपियों को, जिनकी अभी-अभी जान में जान वापस आई थी, कृष्ण की पूरी बात सुनने की उतनी जल्दी नहीं थी जितनी कि अपने वस्त्र पुनः धारण करने की। वे बस इस दुःस्वप्न से बाहर आना चाहती थीं। अधिकांश को कृष्ण से वैसे ही कोई लाज नहीं आती थी, सो वे इस घटना को कृष्ण की एक और लीला समझ अपने दिन में आगे बढ़ जाना चाहती थीं। कुछ के मन में प्रश्न जरूर होंगे, पर वे बेचैन थीं और फिर भी कृष्ण से कुछ भी पूछना नहीं चाहती थीं। कुछ को घर जाने में देर हो रही थी, उनके परिवार में लोग चिंतित होंगे। यह सोचकर वे कृष्ण की मनमोहक बांसुरी के प्रभाव से बाहर आकर अपने लोक में चली जाना चाहती थीं। जब किसी ने भी कोई प्रश्न नहीं किया, तब कृष्ण स्वयं ही बोलने लगा।
“तुम में से कोई भी नहीं पूछेगा कि मैंने तुम्हारा वस्त्र हरण क्यों किया?” कृष्ण के प्रखर स्वर सुनकर सभी गोपियाँ अपनी जगह स्थिर हो गईं। “यह कि यमुना में नग्न स्नान इस पवित्र नदी का अपमान है, यह बात मुझे तुमसे कहनी थी। और तुम्हारे बाद आने वाली उन सभी स्त्रियों से जो ऐसा करेंगी। सोचो, यदि वास्तव में मद में चूर पुरुषों का कोई दल या आक्रमणकारी सेना आ पहुंचे, या तुम्हारे बड़े-बूढ़े अचानक इस बेला में आ जाएँ – चाहे कितना भी अंधेरा हो – वह स्थिति ठीक नहीं होगी। एक गज के चीर में एक स्त्री पूरे सम्मान के साथ अपना दिन बिता सकती है। और ये नैसर्गिक न होते हुए भी हजारों सालों की परंपराओं से हमारी दृष्टि में रच बस गया है। इसे तोड़ा जा सकता है, पर क्या तुम्हारे पास ऐसे विद्रोह के लिए अच्छा कारण है? देह स्वतंत्र होते हुए भी उसे ढांपने में वह अपनी स्वतंत्रता नहीं खोती है।”
यदि तुम में से कोई सोचता है कि हमेशा की तरह कान्हा इस समय भी खेल खेल रहा है, तो मेरी इतनी बड़ी कोशिश व्यर्थ जाएगी। यदि तुम इस घटना और कुछ समय के उस अपमान के आभास को भूल जाओ, तो मैं बहुत ही निरुपाय हो जाऊंगा। तुम सब मेरी जितनी अपनी हो, उतनी किसी भी काल में स्त्रियां मेरी न थीं। अपने इस अवतार में मैं तुमसे अपने मन की बातें कर सकता हूँ,” कृष्ण ने कहा। “यह घटना भी उसी की एक कड़ी है। मैं तुम सबसे प्रेम में डूबा हूँ, इसलिए ऐसी महत्ती धृष्टता कर सका। पर इसके लिए मैं क्षमा नहीं मांग सकता। जिस तरह तुम इस पीड़ा को लेकर जीवित रहोगी, वैसे ही मैं भी रहूँगा। मैं अपनी दृष्टि में बहुत गिर गया हूँ, गोपियों।”
कृष्ण का हँसता हुआ चेहरा एकदम मुरझा गया। गोपियाँ उसे देखकर सोचने लगीं कि उसने जो किया, वह उनके साथ किया गया एक अपराध था, यह कृष्ण के मन में बैठ गया है । इतना ही सोचना था कि लगभग हर गोपी घोर पश्चाताप में डूब गई। वे अपनी सारी चिंताएँ और पीड़ाएँ वहीं छोड़कर कृष्ण के पास आ गईं। अब उन्हें अपने लोक में जाने की कोई जल्दी नहीं थी, उनका लोक उनकी वापसी तक ठहर सकता था। यदि कृष्ण दुख में है, तो उनका उसके प्रति प्रेम व्यर्थ है। उनके सुख के लिए वे क्या-क्या नहीं करतीं – कामोन्माद में भी डूबतीं ताकि रति सुख के चरम को कृष्ण भोग सके। यदि वह न हो, तो उनके जीवन और उसकी किसी भी घटना का कोई मूल्य नहीं है। वे कृष्ण की गोपियाँ हैं, इससे अधिक या कम कुछ भी नहीं।
“यदि तुम हमें अपनी दासी का भी दर्जा देते, तो भी हम इसे स्वीकार कर लेते। अपने आराध्य की दासी होने का क्या विरल सौभाग्य है, कान्हा!” गोपियों ने कहा। “पर तुमने हमें मनुष्य समझा और हमारी सबसे बड़ी पीड़ा हरी। प्रेम के बिना हम वैसे ही थीं जैसे सदियों से प्यासी मछली। हमें अपने जीवन का अर्थ तब मिला जब हम कृष्ण के जीवन का भाग बने। अब हमारी और कोई अभिलाषा नहीं है, पर तुम्हें पीड़ा में देखकर हमने एक और इच्छा की है। अपने को इस ग्लानि और पश्चाताप से बाहर निकालो, कान्हा! तुमने हमें सज़ा नहीं दी, न ही हमारा अपमान किया। तुमने हमें एक सबक देकर भविष्य की कितनी ही भयावह संभावनाओं से बचा लिया।”
कृष्ण को गोपियों की ऐसी प्रशंसा सुनना असहज लगा, जिसमें उनका प्रेम उन्हें दासत्व से बचाने का उपक्रम था। वह बहुत बड़ा महसूस करता और गोपियाँ बहुत छोटी लगतीं इस प्रशंसा में। मुक्ति का मार्ग स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान होना चाहिए, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। कृष्ण जानता था कि मनुष्यों को अपने निर्णय स्वयं लेने होंगे। वह बस मार्ग दिखा सकता है, इसीलिए कृष्ण के रूप में अवतार लेकर इस काल में आया था। पर आज उसने अपने मूल सिद्धांत को त्याग दिया। वह पुरुष बन गया और इतनी सारी स्त्रियों को शिक्षा देने लगा। इसमें उसका बड़ा दुख था। वस्त्रहरण जैसे नीच काम का तो बस नाम को था। उसे डर था कि आने वाले पुरुष इसे उसका उदाहरण देकर ऐसे कृत्य करेंगे। और फिर स्त्री को अपनी रक्षा के लिए स्वयं को पर्दों में बंद करने का निर्णय लेना पड़ सकता है।
इसलिए, कृष्ण बस किसी भी तरह इस लीला को समाप्त करना चाहता था। उसने हर एक गोपी को प्रेम से गले लगाया और अपने आँसुओं में भिगोते हुए उन्हें विदा किया। प्रेम में आकंठ डूबी गोपियां बस इतना ही चाहती थीं। कृष्ण ने उन्हें आज फिर छू लिया, उसके दृगों से बहते जल ने उन्हें स्पर्श किया। वे सोचने लगीं कि किसी भी जन्म में उन्हें इससे अधिक क्या मिल सकता है। वे अपने-अपने घरों की ओर लौटने लगीं।
कृष्ण चुपचाप आकाश में छटते हुए अंधेरे को देखने लगा। सूरज उगने लगा था। यमुना के प्रवाह में कोमल आवाजें अब भी गूँज रही थीं। वह पहले की तरह वहीं लेट गया और अपनी बांसुरी को अपने शरीर के संग भूमि पर रख दिया। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, जानते हुए कि यह सोपान अभी समाप्त नहीं हुआ है। उसे पता था कि उसकी यह लीला अभी भी कई प्रश्न और उफनती हुई भावनाएँ छोड़ गई है, और उसकी ताड़ना अभी जारी है।
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“मंडलेन च स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकं सु तत्।
नेता तत्रभवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।
शरद पूर्णिमा का चन्द्र, वन में खड़े कृष्ण को अपने सम्मोहन में बांधता। हरितल्ला पक्षी के पंखों से कोमल पीताम्बर में लिपटे कृष्ण सुन्दर दिखते। वन फूलों से सजे, बाजूबंद पहने, कृष्ण चौंधिया देते हैं ब्रज की रात्रि। आमंत्रित करते हैं गोपियों को जो उन्हें दामोदर कहकर बुलाने लगीं हैं। रात्रि में देखतीं हैं कृष्ण को अपलक । फिर अपने वृहद स्तनों से छूतीं हैं कृष्ण की देह ! अपने घरों से भाग आईं गोपियाँ कृष्ण-दर्शन को, पति, माता-पिता, भाई सबसे छिपकर कृष्ण संग रति -आनंद को पाने ! घेर लेती हैं उस नायक को वृत्त में। सबके साथ दोनों ओर खड़े कृष्ण, पूर्ण आनंद की अवस्था में प्रत्येक गोपिका, सुनाने लगीं हैं उसकी गाथाएं मधुर गीतों में रची ! लास्य ! प्रेम के क्षणों में उनके माथे के सुहाग चिह्न मिट जाते हैं, खुले हुए केश बिखर कर ढँक लेते हैं वक्ष। वे घेरी हुईं है कृष्ण को ऐसे जैसे जंगल की हथनियाँ घेरकर सुख देना चाहतीं हैं मदमाते हाथी को। अपूर्व आनंद के पलों में गाती, नाचती, घूमती, बतियाती गोपिकाएं, उस शरद रात्रि में चरम सुख का करतीं हैं अनुभव !”
किसी चिंतन में डूबा, मैं, ब्रज का एक नेत्रहीन ग्वाला, कृष्ण की इस लीला को दूर से सुनता रहा, यह सोचकर कि वह मेरी उपस्थिति का आभास नहीं कर पाएगा। कभी वह बोलता, तो कभी मौन में डूब जाता, जिसे मैं पूरी तरह समझ नहीं पाया। मुझे लगा था कि चीरहरण कृष्ण की महारास की कोई आगे की अवस्था होगी, जहाँ नृत्य में विभोर होकर वह गोपियों के साथ कुछ और नाट्य रचना चाहता होगा, जिसमें गोपियाँ स्वाभाविक रूप से निर्वसन होंगी। परंतु यह लीला महारास से बिल्कुल अलग थी। महारास में गोपियाँ स्वयं कृष्ण को वस्त्र निवेदित करती हैं, यहाँ वे अनजान हैं, उनके वस्त्र कृष्ण ने हरे हैं और वे इसे नहीं जानतीं। शायद यह कृष्ण को रोमांच के उच्चतर शिखर तक पहुँचा देता है।
ब्रज की गोपियां वैसे ही मुझे आकर्षित करती हैं, जैसे स्वर्ग की अप्सराओं के स्वप्न। दोनों को ही मैंने नहीं देखा है, बस उनकी सुंदरता के विषय में सुना है- युवा होने से बहुत पहले से और अब तो मैं आयु के उस कगार पर हूं, जहां से बाद मुझे यौवन की भस्म भी प्राप्त नहीं होगी। मेरे भीतर की कुंठाएं मुझ पर हावी हो रही हैं यदा-कदा। और मैं भी उन्हें स्वाभाविक समझकर अपने मनस पर छाने देता हूं। जैसे वर्षा के बादल आकाश पर छाते हैं, उसी तरह कामेच्छा के। मुझ पर किसी तरह की कोई बारिश नहीं होती। मैं तप्त रहता हूं, तब तक जब तक वह तपिश स्वयं ही कहीं खो नहीं जाती, जीवन की किसी और संक्रांति में उलझकर। इतने दिनों में अपने ऊपर मैं थोड़ी बहुत दया रखना सीख सका हूं। इस दया के इतर मेरा जीवन संभव नहीं है क्योंकि दूसरे सभी और उनसे निर्मित संसार मुझे वह नहीं देता है; उसमें मेरे लिए धिक्कार है, उपेक्षा है और यह भाव कि मेरी दैहिक स्थिति मेरे पूर्व कर्मों का फल है। पूर्व जन्म के किसी बहुत ही भयानक या घृणित अपराध ने मुझे इस जन्म में अंधा कर दिया। सो, जो मैं भुगतता हूं, वह सब न्यायोचित है। स्वाभाविक है कि अपने विषय में मैं ये सिद्धांत नहीं मानता। मैं, मेरे भीतर का ब्रह्म का अंश, उतना ही जीवंत और निष्कलंक है जितना किसी भी और मनुष्य का। उसमें दुर्बलताएं भी वहीं हैं। क्रोध, ईर्ष्या, प्रेम की भूख, और देह पिपासा। वासना स्त्री देह की कामना के लिए। जैसे कोई भी वयस्क पुरुष स्वप्न में स्त्री देह की कल्पना कर उत्तेजित होता है, मैं भी होता हूं। पर मेरी कल्पना विराट है। उसमें अनगिनत संभावनाएं हैं। क्योंकि मैंने किसी भी स्त्री देह को कभी नहीं देखा है, बस उसकी कल्पना ही की है। अपने उस स्वप्नलोक के वैकुण्ठ में मैं, ब्रज का नेत्रहीन ग्वाला, वैसे ही महारास रचाता हूँ असंख्य गोपियों के साथ जैसे स्वयं कृष्ण।”
मैंने कृष्ण को अनेकों बार महारास रचाते हुए सुना है। मैं छिपकर बैठ जाता हूँ रात्रि के समय जब कृष्ण और गोपिकाएं प्रेम के अनूठे मिलन में आत्मभूत होती हैं। मैं सुनता रहता हूँ उनकी एक-एक ध्वनि। उनकी मुस्कान, उनके चितवन की लोच, उनके पैरों की धमक का संगीत। नाच के मध्य में कामविभोर भी हो उठती हैं। तब मैं उनके मादक नाद भी सुनता हूँ। कृष्ण सबके लिए अनेकों शरीर धर लेता है। प्रकृति की कदाचित वह सबसे सुंदर अवस्था होती है जिसमें स्वयं ईश्वर प्रेम में डूबा हुआ हो अपनी निष्कपट प्रेमिकाओं के मध्य। मेरे भीतर भक्ति और वासना दोनों के राग आरोह अवरोह करते हैं। फिर वे गुंथ जाते हैं। मैं भी रात्रि के उस दैवीय वातावरण में किसी पेड़ के पीछे छिपा डूबा रहता हूँ उन पलों में।
इतने दिनों से छिपकर महारास को सुनते हुए मैं उसमें शामिल बहुत सी गोपिकाओं को पहचानने भी लगा हूँ। पर शायद सभी को नहीं। मुझे लगता है वेदव्यास भी वहीं कहीं छिपे हुए होंगे तभी तो वे रच पाएंगे श्रीमद भागवत! या फिर मुझ जैसा कोई प्रत्यक्षदर्शी उन्हें सुनाएगा सब कथाएं। या फिर कृष्ण स्वयं ही बुदबुदा देंगे उनके कान में अपने वृतांत। जो हो, मैं सुनता भी इसलिए हूँ कि कल कोई मुझसे पूछे तो मैं बता सकूँ उसे कैसे ईश्वर प्रेम की सर्वोत्तम गाथाएं रचता है मनुष्यों के बीच। और वे स्त्रियां कैसे समाज के सभी बंधन तोड़ अपने भीतर उस एक पुरुष के प्रेम प्रति लिए सर्वस्व न्योछावर कर देती हैं। मैं उन सभी गोपिकाओं को उनकी देह की हलचलों से पहचानता हूँ। मैं भी उनसे प्रेम करने लगा हूँ।
मुझे ऐसा भी लगने लगा है कि मैं कृष्ण को भी जानने लगा हूँ। तभी तो यह मान बैठा हूँ कि मैं उससे छिपकर महारास के दृश्य के समीप अपना अस्तित्व रख सकता हूँ। पर वह ऐसा होने देता है, इसी से मैं उसे जान सकने की मेरी धारणा बनी रहती है। भक्त मैं भी तो हूँ, सो उसे मेरा भी ध्यान तो रखना ही चाहिए। और वह रखता है। पर फिर भी मेरे भीतर का पुरुष उससे ईर्ष्या रखता है। जो इच्छाएं मेरी कभी पूर्ण नहीं होंगी, वह रात्रि के उन पलों में सौ-सौ बार पूरी करता है। सो लौट फिर के बहुत गहरी कुंठा मेरे मन में भरी रहती है। जिसे त्यागना मेरे लिए कभी भी संभव नहीं हो सका है। इस रात्रि भी मैं महारास के स्वर और धमक के मध्य छिपकर बैठा रहा था, तब तक जब तक मेरी आँखें नहीं लग गईं।
जब शोर और गंभीर प्रतीत होती आवाजों ने मेरी नींद तोड़ी, तब मैंने समझा कि कोई बहुत ही विकट स्थिति आन पड़ी है उन स्त्रियों पर जो नदी नहाने के लिए इस घाट तक आईं थीं, पर फिर कोई उनके वस्त्र लेकर चला गया। प्रथम पल में ही मुझे समझ में आ गया था कि हो न हो यह कृष्ण का कोई छल है। मेरी पुरुष ग्रंथियां निर्वसन गोपियों की कल्पना में उभरने लगीं। मैं उनकी चीख-पुकार सुन रहा था, पर मुझे उसका असर नहीं हो रहा था। मैं उठ बैठा और नदी की ओर बिलकुल किनारे के समीप जाकर फिर से एक पेड़ के पीछे छिप गया। सबकुछ खेल सा प्रतीत होता था, जिसमें विजय मन के विकारों की तय थी। मैं उस खेल में शामिल नहीं था, पर उसकी हार-जीत में मेरी भी भागीदारी होनी थी।
शरीर में आलस भर गया और मन लालसा के गहरे सागर में छलांग लगा बैठा। जैसे-जैसे उन गोपियों की पुकारें बढ़ती जातीं, मेरी देह के भीतर की हलचलें गहन होती जातीं। मैं कसमसाकर पेड़ के पीछे टेक लगाकर बैठा रहा और अपनी आँखों के न होने का एक और दिन सामने होने पर निराशा में डूबने लगा। इन दोनों विपरीत मनोस्थितियों के बीच मैं झूलते-झूलते अपनी सुध खोने लगा। कभी लगता मैं ही कृष्ण हूँ और उन गोपियों के वस्त्र मेरे ही पास हैं, जिन्हें मैं छूकर उनकी आलोकिक गंध अपने भीतर भर रहा हूँ। वह दृश्य कैसा अद्भुत होगा, जिनमें अनंत सुंदरियाँ एक नाट्य के मध्य वस्त्रहीन हैं और फिर अभिनय कर रही हैं जैसे वे दुखी हैं और हाहाकार कर रही हैं जैसे उनका सबकुछ छीन लिया गया हो उन पलों में। पर वास्तव में मुझे कामेच्छा के सबसे ऊंचे शिखर ले जाने का उपक्रम कर रहीं हैं बस। अभी कुछ ही देर में यह नाट्य समाप्त हो जाएगा और वे मेरे पास होंगी।
पर मैं कृष्ण नहीं हूँ। मैंने जीवन में वयस्क होने के उपरांत एक भी स्त्री को नहीं छुआ है। छुआ भी है तो कामना के पलों में नहीं। सो मुझे ज्ञात ही नहीं है कि किसी स्त्री देह का सान्निध्य कैसा होता है। क्या होती है होठों और स्तनों की छुअन। मैंने वह अनंतिम सघन उत्तेजना भी नहीं जी है, जिसके लिए सैकड़ों कल्पनाएँ मस्तिष्क में बादलों की तरह छितरी रहती हैं। सोचता रहता हूँ मैं- ऐसे पलों जैसा कि ठीक इस समय है- कि कामना अपने शिखर पर होगी और मैं धीरे से उतरूंगा उस पहाड़ी से स्त्री देह की खोह के भीतर से एक गहरी गुफा में अपने लिए रास्ता बनाते हुए। चेतना आबद्ध हो रहेगी उन क्षणों में, शरीर स्पंदन में कांपता और मैं स्पर्श के अनहद कुंड में स्नान करता। स्पर्श ही तो मैंने जाना है इस जीवन में पर फिर भी नहीं जानी वैसी छुअन।
नेत्रहीन होने का सबसे बड़ा दुःख है-एक स्त्री को न देख पाना। उसके लिए भावनाएं हों पर उसकी छवि मन में न हो। सोचता हूँ सुंदर स्त्री का दृश्य कितना मनोरम होता होगा-फिर चाहे उस सुंदरता के प्रतिमान कितने भी व्यक्तिगत क्यों न हों। स्त्री की देह प्रकृति की सबसे सुंदर रचना है-यदि वो नग्न हो तब उससे सुंदर कुछ भी नहीं-क्या इसीलिए कृष्ण ने रची थी वह लीला। फिर उसने ऐसे मनोरम दृश्य को भागवत के पृष्ठों पर अमर हो जाने की अनुमति दे दी। उस लीला की कितनी भी आध्यात्मिक विवेचना करो-यह तथ्य कभी भी धूमिल नहीं होता कि कृष्ण उन अनजान स्त्रियों के वस्त्र लेकर छिप गया था-वे स्त्रियां भी भय में भरी तो थीं पर कृष्ण के सामने आते ही उनके मन में प्रेम के अंकुर फूटने लगे थे।
ईश्वर ने मुझे आँखें नहीं दीं-बस दिया स्वप्न।
उन क्षणों में कृष्ण ने रच दी थी सृष्टि की सबसे सुंदर लीला। पर मैं उसे देख न सका। पेड़ों के पीछे छिपकर मात्र आहटें सुनता रहा। फिर आहे भरता रहा। मुझमें काम पिपासा तो भरी पर मन कितनी ऊँची कल्पना की उड़ान भर सकता था भला। जो लीला सजीव सामने घट रही हो, उसकी तुलना में मेरे भीतर का पुरुष केवल अंशमात्र ही आभास में भर सकता है उसका होना। वह लीला घट गई और मैं रिक्त सा अपने जन्म के उस अभाव को महसूस कर हीनता में गहरा उतरता जा रहा था।
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कि तभी किसी स्त्री ने पेड़ के पीछे शरण ले ली। उसके भी वस्त्र कृष्ण ने चुरा लिए थे। वह भयभीत थी। मैं उसकी सांसों की घबराहट महसूस कर रहा था।
जैसे ही उसकी दृष्टि मुझपर पड़ी, वो और घबरा गई। पर उसे समझते देर न लगी कि मैं नेत्रहीन हूं, उसे नहीं देख सकता। सो उसमें जान पड़ गई। “कितना गलत किया कृष्ण ने हमारे साथ। हमें उससे प्रेम था, उसने हमारा सतीत्व छीन लिया।“ मैं चुपचाप सुनता रहा। वह कथा जिसे वेदव्यास भागवत के पृष्ठों में जगह नहीं देंगे। “वो अपनी बहन या माँ के संग ये लीला करता क्या? एक स्त्री नदी में भी शांति से नहीं नहा सकती! उसके नग्न नहाने से नदी अपवित्र होती है! पर जब वह नग्न होकर एक प्राण को जन्म देती है तब नहीं, अपनी संतान को दूध पिलाती है तब नहीं। वो हमारी देह से खेल रचना चाहता था तब ठीक था, उसका मन आनंद में भरता वो ठीक था। पर वो हमें सबक देने क्यों आया। एक ईश्वर एक नारी को क्या सिखा सकता है भला! देखो, अच्छा है तुम अंधे हो, वरना तुम भी उसके पाप के भागी हो जाते।“
उस क्षण कुछ ऐसा हुआ कि मैं ग्लानि की सघन अवस्था में घिर गया। वह सुंदरता जिसे मैं नहीं देख पा रहा था और जिसे कृष्ण ने अपनी माया से सृष्टि की सर्वाधिक सुंदर लीला में बदल दिया था, वह उस लड़की के लिए एक महान अपमान की वजह थी। यदि उस लीला का सूत्रधार कृष्ण न होकर कोई और होता, तब मैं उसकी बात को बिना कहे बूझे ही समझ जाता। कपटी, लम्पट और पापी पुरुष जो स्त्रियों का ऐसा अपमान करता हो, उसे कोढ़ी हो जाने का शाप भी दे सकता था। मैं खुद स्वयं को भी कोई बड़ा शाप दे सकता था, पूरी पुरुष जाति को भी। तभी कृष्ण का वो रूप सामने आ गया जिसमें वह एक एक गोपी को उसके वस्त्र वापिस करने लगा था।
न जाने कितनी गोपियाँ थीं वहाँ। मुझे बस कृष्ण के कदमों की आवाज़ आती थी। गोपियाँ गंभीर मौन में थीं शायद, और गहरी पीड़ा में भी, गहरे प्रेम के संग ही। सर्वशक्तिमान ईश्वर यदि उनके कपड़े लेकर भाग जाए तो वे कर ही क्या सकती हैं सिवाय उसे एक लीला कहने के। वे दुविधा में हो सकती थीं, कि अब वे कृष्ण से मिलने आएं कि नहीं, उसे बिसार दें। उसने उनका भरोसा तोड़ा है, उनके शील के साथ खिलवाड़ किया है। मुझे कुछ न भी दिखें पर सब दिख रहा था। मैं उस समय सोचने लगा सही ही हुआ कि मैं इस समय अंधा हूँ। इतनी निरूपाय पीड़ा और हताशा मैं देख भी नहीं पाता।
ईश्वर के लिए वासना एक स्वांग है, कदाचित प्रेम की तरह। कला कृत्य है, जो जन्म देता गीत, संगीत, साहित्य और शिल्पकला को। उसके लिए अधिकांश पुरुष कलाकार हैं और स्त्रियां उनकी प्रेरणा। देह के भीतरतम चित्त तक किसी भी मानव मानवी के, बस उसी की सत्ता है निरंकुश। स्वतंत्र इच्छा तब तक ही स्वीकार्य है जब तक वो उसकी अपनी इच्छा का अतिक्रमण नहीं करती। वह नियम बनाकर तोड़ सकता है और फिर नए प्रतिमान स्थापित कर सकता है। उसका विधान मृत्यु के शरीर पर अमरता का फाग रच सकता है। अमानवीय कृत्य को दैवीय कह सकता है। इतनी औरतों को लज्जित कर वह उन्हें शिक्षा देता है शालीनता की, पाप और पुण्य की। उसको सब माफ़ है। कृष्ण खुद को माफ़ कर सकता है। पर एक दिन वह अपने आप को एक स्त्री के शाप से नहीं बचा सकेगा। मुझे जैसे कोई भविष्य-बोध हुआ।
वह लड़की मेरे पैरों में गिर गई। “मुझे कृष्ण के सामने नहीं आना है। मुझे अपने पास कहीं छिपा लो!” जिस पेड़ के पीछे मैं छिपा चीर-हरण का दृश्य महसूस कर रहा था, उसी के पास वह भी आ गई। उसने मेरे हाथ थामे थे। भय में घबराई, वह मुझसे चिपट ही जाती। पूर्ण नग्न, वह कृष्ण के वस्त्र वापस देने के उपक्रम पर भी भरोसा नहीं कर रही थी। उसकी देह के पास होने का आभास मुझे गला रहा था, पर बिलकुल दूसरे तरीके से। मैं काम वितृष्णा में नहीं बल्कि ग्लानि और करुणा में भीग रहा था। जब कृष्ण बिलकुल पेड़ के पास पहुंच गया, तब उसने सांसे थाम लीं और मुझसे लिपट गई, ताकि उसकी परछाई का भी कोई हिस्सा पेड़ की छाया से परे जाकर ना फैले। मैंने भी अपनी सांसे रोक लीं। उससे लिपटा हुआ मैं ऐसा ठंडा था, जैसे मुझे सन्निपात हुआ हो और मृत्यु की परिधि को छूकर मैं जीवन से दूर की दौड़ में सलंग्न होने वाला होऊं।
कृष्ण ने उसका नाम पुकारा – वही गोपी अब बची रह गई थी जिसने अपने वस्त्र वापस नहीं लिए थे उससे। मैंने अपने हृदय के ऊपर फड़कते उसके दिल की तेज धड़कनों को महसूस किया। उसके आंसू धीमे से बहकर मेरे गालों पर लुढ़क रहे थे। वह उत्तरोत्तर मेरे शरीर में और धँसी जा रही थी। मैं उसका एक-एक अंग महसूस कर सकता था। उसकी सांसों में से अपने हिस्से की सांसे खींच सकता था। बस, उसके चेहरे पर भय और असहायता देख नहीं सकता था। लगा, कृष्ण इस ओर पेड़ों के पीछे चला आएगा। उसने बहुत धीमे से कहा, “अब मैं उसको अपनी देह नहीं दिखा सकती, जिसने मेरे संग छल किया है। यह बलात्कार सा ही कुछ है – बस अब उसके मुझे छूने भर की देर है।”
जब लगा कि कृष्ण उसके बिलकुल पीछे खड़ा उसे देख रहा है, वो गोपी पथरा गई। कृष्ण अचंभित था – मैंने आभास में जाना। मुझमें सिमटी एक निर्वस्त्र स्त्री। पर वो ईश्वर भी था – सो उसे पता होगा क्यों। ईश्वर होने के बावजूद भी वो सबकी भावनाएं संचालित नहीं करता है। इसमें तो उसकी लीला छिपी है। उसने कोमल स्वर में उस गोपी को आवाज दी – ऐसे जैसे उसने राधा ही को पुकारा हो। प्रेम में डूबा वह अपनी सद्भावना में अंधा हो गया था कदाचित। उसे वास्तविक सत्य नहीं दिखाई पड़ रहा था। वह जो मैं देख पा रहा था।
“सखी डरो नहीं – मैं वही कृष्ण हूँ तुम्हारा जो कल संध्या तक था। जिसके संग तुमने कल रास किया था। लिपटी थीं और रोईं भी थीं। तुम अपना घर छोड़कर कैसे आती हो। बच्चों और पति के सो जाने के बाद। रात्रि के अंधेरे में जब मेरी बांसुरी बजती है तब तुम अपना सबकुछ -लोकलाज छोड़कर मेरे पास – मिलने जंगल में आ जाती हो। मैं वही कृष्ण हूँ। जिसे तुम कल तक शरारत में चैन से नहीं बैठने देती थीं। नृत्य के समय अपनी लंबी चोटी मुझे खींचकर मारती थीं। मेरे शरीर पर उस चोट की लाली अभी भी है। तुमने उस पल के नशे में सराबोर होकर सबकी देखादेखी अपने वक्ष पर उत्तेजना में खड़े स्तनों से मुझे छुआ। तुम मुझे आनंद देना चाहती थीं, वासना में डुबोकर मुझे। तुम्हारे निश्छल समर्पण ने मुझे प्रेम में डुबोकर मनुष्य का सर्वोत्कृष्ट रूप बना दिया था – और तुम्हें त्यागमयी गोपी। जिसने अपनी देह के सबसे पवित्र फूल से मुझे छूकर अपना समर्पण निवेदित किया।”
“तुम्हें मैंने पहली बार नग्न नहीं देखा है – बहुधा तुम स्वयं आई उस रूप में मेरे पास। फिर आज क्यों शर्म में हो? एक नितांत अनजान पुरुष की अंक में देह समेटकर बैठी हो – उस पुरुष से, जो न तुम्हें जानता है और न ही तुम्हें जिसका चरित्र मालूम है। कौन जाने उसके मन में क्या हो – यदि मैं यहाँ से चला गया तो तुम्हें उससे कौन बचाएगा। सो गुस्सा थूको और ये वस्त्र ले लो। मैं तुमसे माफी माँगे लेता हूँ। फिर से ऐसी शरारत नहीं करूँगा। वादा।“
कृष्ण याचना करके चुप हो गया। वह लड़की बिलकुल पथराई हुई मेरे भीतर और भी ऐसे समाई जैसे मेरे किंचित गर्भ में चली आई हो । मुझे उसका स्पर्श पिघले हुए मोम सा गर्म और जलाने वाला लगने लगा था। बाकी सभी गोपियाँ अपने अपने वस्त्र लेकर आनंद सागर में गोते लगाकर वापस जा रही हैं। बहुत तो बातें कर रही हैं कि यदि कृष्ण बार बार ऐसा खेल करे तो कितना मनोरम हो रहेगा जीवन। एक ने तो यहाँ तक कहा कि हमारे शरीर के माध्यम से कृष्ण यदि काम मोहित होता है तब उससे बड़ी क्या बात है। उन्हें अपने स्त्री होने पर मोक्ष मिल गया हो कदाचित। एक कहने लगी जब कृष्ण कहीं चला जायेगा तब उसकी यही शरारतें हमें याद आएँगी।
“हर कोई प्रसन्न है और अतिरेक में है प्रेम के। आकाश के देवता ये दृश्य देखकर धन्य धन्य हो रहे हैं। सिवाय तुम्हारे।“
वह भीरु लड़की जो मेरे भीतर धँसी हुई कृष्ण की बातें सुन रही थी – उसी हालत में ऐसी करवट लेती है – जैसे साँस भर रही हो नदी में सिर तक रहने के बाद कुछ पल तक। उसके मुख में स्वर है – पर हवा फूंक नहीं पा रही है वो। बहुत आहत है। मैं कहना चाहता था कृष्ण से कि तुम अभी चले जाओ यहाँ से। इस लड़की को अपने आपे में तो आने दो तभी कोई बात समझ सकेगी वह। पर कह न सका। ईश्वर के सामने होते हुए भी वो लड़की मेरे अंक में पड़ी थी। अपनी सुरक्षा के लिए अथवा मान के लिए। दोनों का वादा कृष्ण ने कदाचित तोड़ा था। मैं कृष्ण को उसके बारे में कुछ भी कहकर उस लड़की का भरोसा अपने से भी नहीं उठने देना चाहता था। इंसान से इंसान का भरोसा उठ जाना बड़ी बात है कदाचित। क्योंकि ईश्वर तो सब जगह यूँ नहीं आता है हमारे जीवन में साक्षात।
जब स्त्री ने सुबकना बंद कर दिया तब मुझे एक और अलग अनुभूति हुई। जहाँ उसकी देह मोम की तरह पिघल कर मुझे घेर रही थी, अब ढही हुई मिट्टी सी लगने लगी। जैसे कोई टीला मेरे ऊपर धसक गया हो और मैं उसके दमघोटू भारी मलबे में पूरी तरह दब गया होऊँ। पर अब भी मेरी सांसें चल रही हैं, कहीं से मुझे रौशनी दिख रही है। यह रौशनी ही है या कृष्ण के प्रति मेरा बचा हुआ भरोसा जो अभी भी खत्म नहीं है। वह अब भी सामने खड़ा है, मिन्नतें कर रहा है। पर फिर भी वो स्त्री मुझे पूरी तरह समेटकर ढही हुई है और बिलकुल नहीं हिल रही है। उसे कुछ तो बोलना चाहिए। कृष्ण का मन साफ है – ऐसा मैंने सोचा। शरारत में बहुत बड़ी भूल कर बैठा है बस। जरूर उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।
मुझे नहीं मालूम कि वह लड़की क्या सोच रही थी। पर जैसे ही मैंने कृष्ण के प्रति विश्वास व्यक्त किया, वो मेरी गोद से छिटक कर भूमि पर औंधी होकर लेट गई। मेरे ऊपर से आकाश और नीचे से भूमि सरक चुकी थी। मैंने जब एक पुरुष की तरह कृष्ण के प्रति सोचा – सो उसने कदाचित सोच लिया यदि उसे पुरुष से ही निबटना है तो फिर कृष्ण से ही क्यों नहीं। मेरे लिए जगह नहीं बची थी उन दोनों के मध्य। मैं कराह कर रह गया। पर घास में पीड़ा से बिछलती उसकी देह और हवा में फैली कृष्ण की हताशा मुझे पूरी तरह महसूस हो रही थी। मुझे लगा वह लड़की कुछ भी कहने से बचना चाह रही है इसलिए अभी तक चुप है। उसे लगता है यदि वह ऐसे ही लेटी रही तो कृष्ण चला जाएगा वहां से उसे अकेला छोड़कर सदा के लिए।
“तुमने मुझसे पूछे बिना मेरे शरीर से खेल किया कान्हा! क्या स्त्री का सम्मान एक परिहास है तुम्हारे लिए? सोचो जबतक मुझे पता न था कि मेरे वस्त्र तुमने चुराए हैं – यदि उसी अंतराल में मैं घबरा के दम तोड़ देती तो मेरे बच्चों का क्या होता! मेरा पति और पूरा परिवार जो मेरे श्रम से चलता है उसका क्या होता। मैं तुम्हारे पास प्रेमवश आती थी। उतना प्रेम मुझे जीवन में कभी नहीं मिला। उसपर तुम्हारे मोहने दर्शन का सौंदर्य। लगता था कि इस जन्म में तुम्हे देख सकना कोई वरदान है। तुम ईश्वर हो या नहीं वो तुम जानो। मैं तो प्रेम को ईश्वर मानती हूँ – सो मुझे तो ईश्वर मिला। तुम्हें मैंने अपनी देह दी – मैं वासना में रमी – सिर्फ तुम्हारे सुख के लिए। दो पल की ख़ुशी तुम्हारी और मैंने अपने परिजनों को जीवन भर छला उसके लिए। धोखा दिया। झूठा जीवन रचा। अपवित्र हुई – सतीत्व खोया!”
“तुमने मुझे प्रकृति समझा क्या – सूरज और चांद की रोशनी, धरती की घास, आसमान की हवा, भूमि की मिट्टी – जिनका सिर्फ सौंदर्य ही है, वे जीवनदायिनी हैं पर उनका अपना कोई पक्ष नहीं है। उनका मनुष्य दोहन करता है, उपयोग करता है, प्रदूषित करता है। उनमें फिर भी जीवन छिपा रहता है अपने और सबके लिए। मैं नदी नहीं थी जिसकी धारा को तुम मोड़ देते बिना पूछे, पर्वतों को उखाड़कर अपने बल से! या वह घाटी जहाँ की सुंदर वादियों में तुमने युद्ध लड़े और बिखरा दीं हजारों लाशें, कुरूप कर दिया जहाँ का लोक तुमसे योद्धाओं ने। मैं समुद्र का वह टुकड़ा भी नहीं जिसे घेर लिया तुमने खाड़िया के घेरे बनाकर और सुखाकर बटोर लिया जिसका नमक। मैं उस जंगल की चिड़िया भी नहीं जिसे तुम अग्नि दे देते हो साफ़ करने को जमीन खेती के लिए।
“तुमने मुझे इतिहास समझा क्या – जिसके साथ कोई भी शातिर या अज्ञानी अपना परिपेक्ष्य जोड़ सकता है। मैं मंदिर की सीढ़ियों पर बिछी शिला भी नहीं और न ही उसकी दीवारों पर जड़ी कामुक प्रतिमा। जिसे कोई भी शिल्पकार अपने मन से गढ़ दे। मैं किसी राजा की विजय पताका भी नहीं – पर शायद तुमने मुझे वह समझा और अपने रंग में और चिह्न के साथ छाप लिया मुझे रेशमी कपड़े पर। मैं वह कुमुदनी माला भी नहीं जिसे तुम अपने चुने फूलों से पिरो लो, डाल दो प्रेमिका के गले में, फिर नोच लो उसे कामक्रीड़ा के समय। मैं समय की वह अवधि भी नहीं जिसमें तुम अवतार लो और फिर चुनकर दूसरा कोई पल छोड़कर चल दो अपने लोक, बाकि मनुष्यों को अपने हाल पर छोड़कर। मुझे खिलवाड़ उतना ही पसंद है कान्हा, जितने में मेरा स्त्री होने का मान आहत न हो।“
“मैं अपने पति को सोता छोड़ आई। उसका देह मिलान का मन था – मैंने झूठ कहा था – “आज मन नहीं है सजना।” पर मेरा मन तो था – तुमसे राग और संभोग का। मैं क्या करती, जबसे तुम मिले मेरे सारे रिश्ते पीछे छूट गए। सोचो! एक अनमने पति की देहाग्नि अपूर्ण छोड़कर मैं रात के अंधेरे में जहां हाथ को हाथ नहीं सूझता है तुमसे मिलने निधिवन आती हूं। तुम्हें उसमें पाप नहीं दिखता! क्यों कान्हा! मुझे छूने में पाप नहीं दिखता। पर मेरे मिट्टी के अंग जब यमुना का पानी छूते हैं – तुम उसमें पाप खोजकर मेरे वस्त्र लेकर भाग जाते हो! तुम्हें वस्त्र लेकर मुझे निर्वस्त्र नदी से बाहर आते देखकर पाप नहीं लगता। सारे पाप और पुण्य के नियम यदि ईश्वर ही तय कर लेगा तो मानव जीवन का क्या औचित्य रह जाएगा। खुद को ब्रह्म कहते हो! तो ब्रह्म के भीतर क्या पुण्य और क्या पाप! या तुम ब्रह्म हो ही नहीं – मेरी तरह तुम भी एक झूठा जीवन जी रहे हो कुछ मायावी शक्तियां प्रयोग करके। और छल रहे हो हम अबोध ग्रामीण स्त्रियों को। जो अब कहीं की न रहीं है। वे छिनाल बन चुकी हैं – उनका जीवन उनके अपने समाज में केवल तबतक का है जबतक भेद नहीं खुल जाता। और अब यूं नग्न घूमने से तो यह भेद खुल ही जाएगा न कान्हा? न जाने किस किस ने देखा होगा हमें।“
“हमारे पास कौन से कपड़े वैसे ही हैं। निर्धन घरों की औरतें वैसे भी कौन से कपड़े पहनती हैं इस देश में कान्हा! मैं एक धोती लपेटती हूं – जो अंगिया तुम्हारी मां को सुलभ है, मेरे पास ऐसी अंगिया भी नहीं है। यदि मैं धोती पहनकर भी नहाऊं तब भी नग्न ही हूं। बस यही हम अकिंचन लोगों की नियति है। पर ऐसी ही एक धोती, मुट्ठी भर रोज का अनाज, पेड़ों के फल और गाय का दूध – इस पर ही हमारा संसार चलता है। सो जब तू मेरी धोती लेकर चला गया – मुझे लगा मेरा तो आधा संसार खो गया। मैं यदि ऐसे ही घर वापस लौटी तब मैं कितनी अधूरी हो रहूंगी। लाज और जगहसाई तो बहुत दूर की बात है। यदि मेरी मृत्यु हुई होती तब उसी धोती से लोग मेरा तन ढंकते चिता पर लिटाने से पूर्व। उसके खो जाने पर तो मेरा पार्थिव शरीर भी अधूरा हो रहता।“
वह स्त्री वैसी ही मिट्टी में लसड़ी पड़ी हुई प्रतीत होती थी और कान्हा एकदम जड़ खड़ा हुआ। मैं अपनी तंद्रा से बाहर आया और सोचने लगा कि मैं बीच बचाव कैसे करूं। मैं पेड़ के सहारे टिकी हुई अवस्था से उठ बैठा। मैंने पुकारा –
“ओ गोपिका, तुम ये चादर पहन लो, कृष्ण के हाथों लौटाई धोती मत पहनो।” मैंने उसे ढूंढने की कोशिश की। कहां से आई थी उसकी आवाज़? वहां बहुत जल्दी सन्नाटा छा गया था। यदि मैं असावधानी में चलता तो मैं उस स्त्री पर गिर भी सकता था। पर फिर भी धीमे धीमे अपनी लाठी टेक कर उसे छूने की कोशिश करने लगा। “कहां हो गोपिका तुम? कुछ बोलो तो सही। इतनी पास हो, तब भी मैं जबतक बिलकुल तुम्हारे पास न आ जाऊं तुम्हें अपनी चादर नहीं दे सकूंगा।”
मुझे अपनी सुध खोने का अंदेशा सा हुआ – क्योंकि मेरे चारों ओर से आवाज़ें आ रही थीं, पर शायद मैं उन्हें सुन नहीं पा रहा था। वह स्त्री उठकर कहीं दूर जाती प्रतीत हुई मुझे। मैं कल्पना में उसे चलता हुआ देख रहा था। उसके तन की मिट्टी झड़ रही थी। लिपटी हुई घास के तिनके, जिनसे उसकी देह छिल गई थी, बदन को लला कर भूमि पर गिर रहे थे। सर के बालों से धूल चिपकी हुई, छूट रही थी। पर उसका मुख नदी की धारा की ओर बढ़ रहा था। मैं अचानक चौंका – “कहीं यह स्त्री कोई गलत कदम न उठा ले।” पर फिर आश्वस्त हुआ – “वहां तो कान्हा है। उसके होते हुए मेरी चिंता व्यर्थ है।” पर कान्हा की कोई भी ध्वनि इस बीच नहीं सुनाई दी थी।
मैं नदी की ओर चल पड़ा। दिन अभी शुरू ही हुआ है, पर जिस तरह की हलचल यहां इस समय तक होती है, वह आज नहीं है। शायद कृष्ण ने अपनी लीला के लिए समय बांध दिया है अबकी सबके लिए। सो किसी को इस ओर आने की सुध नहीं है। मैं चलता हूं, खोजते हुए उस स्त्री के पैरों के निशान, अपनी लाठी टेककर। पर बहुत कोशिशों के बाद भी वे निशान मुझे नहीं मिलते हैं। मैं आश्चर्य में पड़ता हूं – ऐसा क्या हुआ यहां, किस पथ से चली गई वो? कृष्ण के पैर भी इस ओर नहीं पड़े हैं। मैं और चिंतित होता हूं। मैं भागने लगता हूं। मुझे चिल्लाना भी चाहिए। यदि सचमुच वो स्त्री कुछ गलत कर ले अपने साथ तो? कृष्ण कहीं और व्यस्त हो गया हो तो। तब फिर मुझे ऐसे निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए।
कृष्ण बिलकुल नदी किनारे ही कहीं बैठा था। उसकी बांसुरी की आवाज़ मुझे जैसे ही आई, मैं उसी तरफ चल दिया। लहरों की आवाज़ें कानों में छनकर आने लगीं और मेरे पांव रेत में धंसने लगे। “कान्हा कान्हा! वह गोपिका ठीक तो है न? मुझे तो इतनी चिंता हो गई थी उसकी। वापस चली गई या अब तुम्हारी बांसुरी की धुन में मगन कहीं यहीं बैठी है?” कान्हा ने बांसुरी बजाना बंद कर दिया। मैंने कृष्ण के कंधे को टटोला। “तुम क्यों रुक गए कान्हा! बजाओ न! सुबह से इतना सब कांड हो गया व्यर्थ ही। तुझे भी कुछ तो सोचना चाहिए ऐसे खेल करने से पहले। स्त्री के सम्मान से कोई खेल कभी भी नहीं – बस यही आज का सबक है।” कृष्ण के रोने की आवाज से मेरे पैर जड़ हो गए। उसकी देह एकदम ठंडी थी और कांप रही थी।
कृष्ण ने मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से रोने लगा। उसकी आवाज़ टूट रही थी, अस्फुट शब्दों में वह कहने लगा, “उसने मुझसे अपनी धोती नहीं ली। वह ऐसे ही चली गई। कहाँ चली गई ऐसे ही, मुझे लगा था मैं उसे मना लूंगा, पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। मैं निराश होकर कुछ देर को अपना सिर पकड़कर बैठ गया था। सच्ची, बस कुछ देर को! जैसे ही आंखें खोली, वह सामने नहीं थी। तब से ऐसे ही बैठा हूँ। समझ नहीं आता क्या करूँ। “
“क्या बोले जा रहा है, कृष्णा! मेरी परिक्षा ले रहा है क्या? तुझसे क्या छिपा है! कहाँ गई है वह, पता कर न! या मुझसे ही कुछ छिपा रहा है। मैं अज्ञानी, अनपढ़, अंधा – तेरी रत्ती भर भी बात कभी समझ आ जाए तो उस दिन स्वयं को धन्य समझता हूँ। आज तेरी पहेलियों में उलझा पूरी तरह चकरा गया हूँ। मुझसे बस इतना कह दे कि गोपिका ठीक है। लाज-अपमान सब लेनी देनी चीज है। मुझे उससे सरोकार नहीं, पर एक मानुषी दुखी होकर अपने ऊपर कोई घात न कर ले। इसी से डरता हूँ।”
उसने बस इतना कहा मुझसे – “यदि किसी स्त्री का कोई वस्त्र हरना चाहे तो तू होने मत दे कृष्णा! मेरे लिए करेगा इतना।” और वो ओझल हो गई। कान्हा और जोर से रोने लगा।
“मैं किसी एक स्त्री का वस्त्र हरण नहीं होने दूं।“
“सखा, मैं नहीं होने दूंगा, पृथ्वी से चाँद तक की दूरी तक धोती का आंचल बना दूंगा। पर फिर भी वो न जाने कहाँ चली गई। मेरे पास एक प्रश्न छोड़कर – जो किसी और स्त्री का वस्त्र हरने का प्रयास करेगा, वो भी कुछ मुझसा ही करेगा। मैंने हंसी में खेल खेला वो वासना और क्रोध में भरकर करेगा, पर अंत में एक स्त्री ही नग्न होने की दिशा में पहुंचेगी। मुझे पता नहीं किससे प्रार्थना करनी चाहिए कि वो लड़की मुझे क्षमा करे या शाप दे दे। पर अब यहाँ कहीं भी नहीं दिख रही है। मैंने बस एक पल के लिए आंखें बंद की थी, और वो ओझल हो गई। अब मुझे सब अधूरा लग रहा है।“
“आज का दिन जैसे बीत रहा है, मुझे लगता है कि वह समय से पहले बीत गया है। मैंने ही उसे जल्दी बिता दिया। मुझे यह दिन होने ही नहीं देना चाहिए था। कल और अब के बीच में मैंने कितना कुछ खो दिया है। और वही गोपिका भी, जो कल रात तक मेरे संग रास में विभोर नाचती थी, अब नहीं है। उसका जीवन बदल गया है। वह अब कहीं भी होगी, पहली तरह नहीं होगी। उसका उसके अपने घर परिवार में लौटना मेरे कारण निषिद्ध हो गया है। अब जहाँ भी जाएगी, वहां उसका सम्मान नहीं रहेगा। मैं चाहता था कि मैं उसे अपने भीतर समाहित कर लूं। मेरे हृदय में वह रक्त की गांठ की तरह रहती । पर उसमें भी उसकी मुक्ति नहीं थी। वह प्रेतात्मा सी बनी रहती, मेरे भीतर- ईश्वर के भीतर। इसलिए मैंने वह काम नहीं किया। वह मरने का मन कर लेती, तो भी मैं उसे रोक नहीं सकता था। मैंने उसके जीवन के सभी रास्तों को बंद कर दिया। उसको उसके आप में समाहित करने देना, कदाचित वही उसका अंतिम सम्मान था, मेरे द्वारा। और उसका मेरे सामने से गायब हो जाना, उसके स्वाभिमान का अंतिम क्षण मेरे सामने। अब वह मेरे सामने नहीं आएगी, और मैं उसके सामने नहीं पड़ूंगा।“
कृष्ण की सिसकियाँ फिर से फूट पड़ी।
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मेरा मस्तिष्क जड़ हो गया था। मुझे कान्हा का विलाप सुनाई देना बंद हो गया। मुझे बस उस स्त्री की चिंता थी जिसकी देह का रोम-रोम कुछ पल पूर्व ही मेरे रोम-रोम से जुड़ा था। मैंने कृष्ण को पीछे छोड दिया। मेरे पाँव नदी में थे घुटनों तक। उससे आगे बढ़ता तो फिसल कर गिर भी सकता था जल की धार में। दूर-दूर तक कोई और नहीं था वहाँ। वरना उनके पैरों की हलचल मुझे जरूर सुनाई पड़ती। मैंने थोड़ा सा जल लेकर अपना मुख धोया। एक क्षण को थकन मिट गई। मैं अगले ही क्षण नदी के तल पर बैठ गया और पानी मेरे मुख के समीप आ गया। मैंने अपने शरीर को रगड़-रगड़ के साफ करना शुरू कर दिया। देह को आराम मिल रहा था। मुट्ठी भर रेत उठाकर शरीर पर हर जगह रगड़ी। फिर जब रोम-रोम को साफ कर लिया तब मैं धीमे से बाहर आ गया। कृष्ण की और कोई भी आवाज़ अब वहाँ नहीं आ रही थी। वो शायद उठकर कहीं और चला जा चुका था।
अब मैं कहाँ जाऊं? किसे पहले ढूँढूँ, उस लड़की को या कृष्ण को? कहीं कृष्ण ने आत्मग्लानि में कुछ कर लिया तो? यदि वो लड़की मृत्यु की गोद में सो चुकी हो तो बहुत संभव है कृष्ण भी ऐसा कुछ कर ले। उसके मन को मैं जानता हूँ। वो अपनी गोपिकाओं के दर्द को नहीं सह पायेगा, वो भी वो दर्द जो उसने खुद दिया है। वो कितना भी बड़ा ईश्वर हो, पर है तो मनुष्य के रूप में इस समय। उसके भीतर का मनुष्य उससे कुछ भी करवा सकता है। मैंने ‘कृष्ण’ कृष्ण’ कहकर पुकारना शुरू कर दिया। नदी से बाहर अपनी लाठी उठाकर मैं फिर गांव की ओर चल दिया। सब तरफ सन्नाटा था। सुबह की वो उत्तेजना- कहीं उसका अंश भी नहीं बचा था। बस उस गोपिका और कृष्ण की रुलाई का स्वर मेरे मन में गूँज रहा था।
गांव में दूर दूर तक सन्नाटा छाया था। लगता था कोई भी वहां नहीं है। शायद गांव अभी अभी गहरी नींद सोया है। हर कोई वहां घर के भीतर है तभी तो इतनी शांति है कि लगता नहीं किसी को एक खोई हुई स्त्री की प्रतीक्षा है। मुझे जाने क्यों लगता था कि वो अपने घर नहीं लौटी होगी। अगर वो लौट गयी हो तब मुझे कितनी शांति मिलेगी। पर यदि नहीं-तब फिर उस दुनिया के बारे में क्या सोचूंगा जिसे मैं देख नहीं सकता हूँ। मैं लाठी टेकता हुआ धीमे धीमे आगे बढ़ता रहा। एक भी ध्वनि किसी कीट पतंगे की भी आवाज़ नहीं-जैसे मैं अपने गांव पहुंचा ही नहीं हूँ और जंगल में ही कहीं खोया हुआ हूँ। जंगल जहाँ कृष्ण महारास रचाता है-अनेकों गोपियों के संग। आज तो उसका संगीत और हलचल भी नहीं है। पर इतना आश्चर्य में क्यों हूँ मैं ! यहाँ जब कृष्ण हँसता है तभी हुल्लास दीखता है माहौल में। आज वो दुखी है मौन में है। सो दूर दूर तक का गांव भी गहरी चुप्पी में लीन है। तभी एक हलचल महसूस हुई मैं घबरा कर आवाज़ की ओर मुड़ा-
“कौन गोपिका ! तुमने तो मुझे बिलकुल डरा दिया था। कहाँ अचानक चली गयी और अब ऐसे अचानक ही वापिस आ गयीं। कल दोपहर से रात की इस बेला तक मैंने एक पल भी चैन से नहीं बिताया है। मैं इतना थका हुआ हूँ कि यदि मुझे अपने पोर से भी धक्का दोगी मैं लड़खड़ाकर गिर जाऊंगा। बस तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा हूँ। कृष्ण भी शायद घर लौट गया। पर देखो मैं यहीं हूँ-तुम्हें ढूंढते हुए इस पल और मैंने तुम्हें ढूंढ ही लिया अब।“
उस स्त्री की आवाज़ भर्राई-“तुमने मुझे ढूंढ लिया है ! कहाँ हूँ मैं इस समय।“
“समय तो बांध दिया है कृष्ण ने सखा ! ढूंढों यदि तुम्हें वो मिल जाये इस समय। केवल हम दोनों विचर रहे हैं। हमें उसने छोड़ दिया है अपने विधान के बाहर। तुमने उसके होते हुए सोचा कि बिना तुम्हारी सहायता के मैं नहीं बच पाऊँगी। और मैंने तो उसके आचार पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। हम दोनों ही पृथक है बाकि सबसे। जो ये शांति छायी है यह अकारण नहीं है। हम काल के बाहर हैं और कृष्ण के भी कदाचित। वो हमें छोड़कर प्रायश्चित करने चला गया है। वो अब इतनी जल्दी नहीं लौटेगा। पर जब समय ही थमा है तब जल्दी या शीघ्रता का कोई अर्थ नहीं है। बस उस ब्रह्म का फैलाव है जिसके भीतर की करवट ने कृष्ण को भी उत्पन्न किया है।“
मैंने चुप्पी साध ली। मेरे ह्रदय में असीम शांति थी इस समय। मुझे कोई सरोकार नहीं कि वह कोई समय था भी कि नहीं। वो स्त्री थी। उसके भीतर। मुझसे बात करती हुई। वो ओझल नहीं हुई थी। कृष्ण को जरूर पता होगा कि वो कहाँ थी-पर फिर भी उसने कहा कि मेरी पलक झपकते क्षण ही वो ओझल हो गयी। गलत बात है। कम से कम उनसे कृष्ण को सीधे सीधे बात करनी चाहिए जो उसके ईश्वर वाले रूप को जानते हैं। पर जो हो। अब मैं चैन से कुछ दिन बिता सकूंगा। यदि इस गोपिका को कुछ हो जाता तब यह संभव नहीं था। “चलो छोड़ो गोपिका। कल का दिन बीत गया। अब कृष्ण को छमा कर दो और मुझे भी। मैं स्पष्ट कहना नहीं चाहता पर मेरे मन में उन गोपियों को नग्न देखने की तीव्र इच्छा थी जिनमें तुम भी शामिल हो।“ मैं चुप हो गया फिर से।
“मैं अपने अंधेपन को कोस रहा था जब तुम मेरी गोद में जा छिपी।“
मैं अपने समीप गहरी सांसे भरती हुई स्त्री को महसूस करने लगा। “मैं भक्षक नहीं हूँ, गोपिका। यदि होता तो यूँ सघन पीड़ा में न होता तुम्हारे लिए। मैंने सच बोल दिया है। अब तुम मुझे जो समझो। वैसे ही कृष्ण भी प्रेमी पहले है-तुम्हारी गरिमा को ठेस पहुँचाने वाला पुरुष बादमें। मैं तुम्हारे भीतर बुझी हुई राख की धमक देख रहा हूँ। तुम्हारे पास कुछ नहीं सुलगने के लिए। न कोयला न लकड़ी न ही वन। तुम्हारे क्रोध को शांत हो ही जाना है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तुम्हारी यह गति है। पर तुम आवेशित अवस्था में अपना सबकुछ नष्ट कर लोगी। अभी तुमने बस एक दिवस बिताया है अपने अपमान के उपरांत। अनेकों वर्ष बाकि हैं। कृष्ण से रूठी रहोगी तब भी उसी में समाओगी मृत्यु के उपरांत। सोचो ! कदाचित उसी रिश्ते के नाते तो नहीं उसने तुम्हारे साथ वह खेल किया।“
“कृष्णा के भीतर काम और वासना नहीं है वैसी जैसी मेरे भीतर है। उसे अच्युत यूँही थोड़े ही कहते हैं-उसका बीज नहीं गिरता कभी-न कोई गोपी गर्भवती होती है। तभी तो वह और उसका गोपियों के संग का रिश्ता जन्म मरण के बंधनों से परे है। समय के बंधनों से परे है। बस प्रेम है वो और कुछ नहीं। तुम तो सब जानती ही हो-फिर इतनी देर तक गुस्सा क्यों हो। भूखी- प्यासी -पीड़ा में डूबी तुम ये सोचकर कि तुम्हारा अपमान हुआ है-थोड़ा गहराई में जाकर विचार करो। ये जीवन कुछ ही दिनों का है और इसमें तुम्हें कृष्ण मिला है। उसके प्रति गुस्सा तुम्हें कितना आहत करेगा-कौन जाने। वो कितना आहत होगा-उसकी तो पूछो नहीं। जब मेरा ये हाल है तब वो तो अपने कृत्य के लिए घोर ग्लानि में कितना तड़प रहा होगा।“
अपने भय से जरा देर पहले ही बाहर आया था मैं-कितना कुछ बोल गया उसे। पर अब शांत रहने का उसका पल था। मैं बहुत देर तक प्रतीक्षा करता रहा कि वो कुछ उत्तर देगी। पर उसकी ओर से पूर्ण मौन था। मैं और देर तक वहां खड़ा रहा। फिर सोचने लगा कि कहीं वो चली तो नहीं गयी। पर बिलकुल भी आवाज़ नहीं सुनी थी मैंने किसी के भी चलके मुझसे दूर जाने की। मैंने उसे पुकारना शुरू किया धीमे से। पर उसकी ओर से कोई भी उत्तर नहीं था। हो सकता था वो वहीँ मौन में बैठी वो। पर मैं उसे नहीं देख सकता था। समय उसने कहा था कि थमा हुआ है। पर मुझे हर क्षण बोझिल लग रहा था। और वो बीत भी रहा था। कदाचित उस स्त्री के भीतर ही समय थमा है। उसके बाहर वो यथावत चल रहा है। मैं रात के अँधेरे में और कहाँ भटकता। वहीँ जमीन पर चित्त होकर लेट गया। कुछ देर में आँखे लग गयीं।
मैंने अपने भीतर का आश्रय खो दिया था। मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं उस गहरी निद्रा के मध्य कहाँ था। कल तक एक स्त्री थी वहां सिमटी हुई और आज वो जगह खाली थी। कदाचित मैं उसके साथ ही कहीं था-उसके पीछे पीछे उसे ढूंढता हुआ। उसे ना पाकर अपने समीप घबरा जाता हुआ। वो स्त्री मेरे सामने चलती थी तो निर्वसन होती थी। मैं और भी घबरा जाता था। वो वस्त्रों में होती तो लगता था-उसके वस्त्र सुदीर्घ पट हैं सूत के जिनके भीतर घिरी वो हर नए क्षण एक और घेरा लेती जाती है। कृष्ण कहीं नेपथ्य में खड़ा उसे और और वस्त्र देता जाता है और रोता जाता है। वो ओझल होती है तब मैं कृष्ण को सिर पर हाथ धरे देखता हूँ सुबकता हुआ। और अपना वक्षस्थल उजड़ा हुआ-निर्वस्त्र। मैं देखता हूँ। नई बात है ये पर यह शायद स्वप्न ही है। मैंने रात के किसी क्षण टूटी हुई नींद के मध्य करवट ली तो वो स्त्री मेरी पीठ के पीछे सिकुड़ी हुई लेटी थी। बिलकुल सिमटी हुई पर फिर भी विलग मेरी देह से।
कितने ही परिदृश्य उन अंधी ज्योतिविहीन आँखों के सामने घूम गए। उसने मुझे क्षमा कर दिया होगा – मैंने उसके लिए अथवा उसकी स्थिति में फंसी स्त्रियों का वस्त्रहरण कृष्ण का खेल समझा – कल्पना की कि वो हमें – मुझे निर्वसन देखे। उस समय वो अँधा हो गया होगा। पर फिर देखो वो कैसे मेरे लिए चिंतित हुआ। भीतर से वो अच्छा मनुष्य है। ईश्वर ने आंखें नहीं दी हैं पर हृदय बहुत बड़ा दिया है। वो जब तक है यहाँ इस जंगल में मैं सुरक्षित हूँ। शायद वह मेरे पास सिकुड़कर लेट गई होगी। कदाचित उसकी देह पर चादर भी वही हो जो मैंने उसे दी थी। वो दूर नहीं, बिलकुल मेरे पास ही लेटी थी। मुझे भक्षक नहीं माना उसने। कल तो कृष्ण को तजकर मेरे भीतर उसने आश्रय लिया था। आश्रय अब भी है – पर अब वो मेरे समीप जहाँ-जहाँ तक मेरा अस्तित्व है, वहाँ तक है।
“मेरा मन हुआ उसे अपने भीतर समेट लूँ – शायद भयभीत है वो, ठंडक में सिकुड़ी जा रही हो ।
पर फिर मैंने विचार त्याग दिया। उससे उसका हाल पूछा नहीं था – और इतनी रात पूछना भी नहीं चाहता था।”
सौमित्र
सौमित्र पिछले ढाई दशकों से कविताएं लिख रहे हैं और समकालीन हिंदी कविता की दुनिया में एक प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में पहचाने जाते हैं। 200 से अधिक कविताओं और कई कहानियों को उनके नाम पर श्रेय दिया जाता है, और उनमें से कई प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं, संकलनों और समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं।
सौमित्र का जन्म उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक शहर मेरठ में हुआ था। भारत से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, सौमित्र केमिकल इंजीनियरिंग में पीएच-डी करने के लिए शिकागो चले गए। सौमित्र ने कविताएँ लिखना जारी रखा और उन्हें भारत भेजा जहाँ उनकी कवितायें नियमित रूप से छपती रहीं।
उनके कई कामों के बीच, सौमित्र का पहला कविता संग्रह, ‘मित्र,’ प्रकाशित हुआ। यह संग्रह समीक्षकों द्वारा प्रशंसित किया गया था, और उन्हें 2008 में, भारत की अग्रणी साहित्यिक फाउंडेशन, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार मिला। “मित्र” ने अच्छी प्रशंसा हासिल की और इसे अमेरिकी विश्वविद्यालयों और वाशिंगटन डीसी- में स्थित लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस में शामिल किया गया है। “मित्र” का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रसिद्ध मीडियाकर्मी और लेखक धीरज सिंह ने किया और जो ‘I like to wash my face with seawater,’ शीर्षक से 2020 में प्रकाशित हुआ है। एक लंबी कविता, ‘एक स्वप्नद्रष्टा का रोमांटिसिज़्म’ रचना समय से 2011 में प्रकाशित हुई थी। इस कविता को ‘समय के साखी’ पत्रिका द्वारा 21 वीं सदी के पहले पंद्रह वर्षों की एक उल्लेखनीय लंबी हिंदी कविता माना गया। धीरज सिंह ने इस लंबी कविता का अनुवाद ‘Dreams of a Psychopath’ के रूप में किया। भारत के सबसे प्रसिद्ध वॉयस-ओवर कलाकार हरीश भिमानी ने सौमित्र की तीन काव्य पुस्तकों को अपनी आवाज़ दी। दी। प्रकाशन पथ पर कई पुस्तकों में बंगाल की वैष्णव परम्परा की पृष्ठभूमि पर आधारित एक उपन्यास, ‘अमर चित्र,’ शामिल हैं।
हरीश भिमानी जैसे प्रतिष्ठित स्वर कलाकारों ने उनकी कविताओं को आवाज़ दी है। सौमित्र, कविता और विज्ञान — दोनों में समान दक्षता के साथ सक्रिय हैं। वे इन दिनों बंगाल की वैष्णव परंपरा पर आधारित एक उपन्यास भी लिख रहे हैं।
स्नातकोत्तर शिक्षा के बाद सौमित्र ने अपना अधिकांश जीवन भारत से बाहर गुजारा। वर्तमान में, वे मध्य-पूर्व एशिया के एक प्रमुख विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक के रूप में काम करते हुए कार्बन फुटप्रिंट में कमी और जलवायु परिवर्तन शमन के क्षेत्र में अनुसंधान कर रहे हैं ।
Email: saumitra.saxena@gmail.com
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सौमित्र पूरी कहानी के पाठ किये।वह अर्थ के साथ होते हुए भी अधूरी समझ में घूम रही है।मिथक से आज में कई तहों में कुछ बोलती ।एक विराट केनवस।काम,धर्म ,लीला, दर्शन, विचार की भूमि
पर,इसे कई दृष्टिकोण से पढ़ना होगा।कृष्ण,गोपी,नेत्रहीन पात्र के रास्ते समझना होगा।
बैचेन करने वाली कथा को आज में भाष्य के स्तर पर
गहराई में जाकर कई बार पढ़ना होगा।भावक की सीमाएं हैं।मैं तो वो भी नहीं।