इधर की कविता में ख़ासतौर से स्त्री – जीवन को प्रश्नांकित करने वाले रचनाकारों में आरती एक महत्त्वपूर्ण नाम हैं। आरती स्त्री को एकांगी रूप में नहीं , वरन् जीवन की सम्पूर्णता में उससे रू – ब – रू होती हैं।यही वजह है आरती की स्त्री में हर काल की स्त्री को देखा जा सकता है। इस पद के पीछे जीवन से गहरे जुड़ाव और आलोचनात्मक दृष्टि माने रखते हैं। आरती जानती हैं स्त्री कायिक पदावली रही और इसी अर्थ को वह सदियों से जीती रही। इसके अलावा स्त्री के अन्य उपादानों को कभी इज़्ज़त न मिली।
यहां जीवन के विद्रूप को उधेड़ती अन्य कविताओं के साथ आरती ने स्त्री – जीवन के बहुत सारे सवालों को अंडरलाइन किया है। यह यक्ष – प्रश्न हैं।
– हरि भटनागर

कविताएँ :

1- ये दासियाँ किस खेत में उगती थीं
———————–

हर कहानी में कोई राजा और उसकी खूबसूरत रानियाँ थीं
राजकुमार और राजकुमारी भी थीं हर कहानी में
एक दिन राजकुमारी की शादी दूर देश के बहुत ही रूपवान, पराक्रमी राजा से होती है
राजा रानी अपनी बेटी को विदा करते हुए बहुत सारा धन घोड़े हाथी और हजारों दासियाँ भी देते हैं

मैं कहानी को थोड़ा रोककर पूछती हूँ कि बताओ!
ये हजारों लाखों दासियाँ कहाँ से आती थीं
क्या राजा के किसी खेत में उगाई जाती थीं
या जंगलों से बीन कर लाई जाती थीं
याकि चट्टानों से तराशकर बनाई जाती थीं
कहानी मेरी ओर आँख तरेरकर देखती है…

हमारे राजाओं ने हमेशा धर्मयुद्ध लड़ा
नहीं लूटा किसी पराजित राजा का धन
औरतों को तो हाथ तक नहीं लगाया
हमें यकीन है इस पर क्योंकि किसी कहानी में ऐसा कोई जिक्र नहीं है
हालाकि प्रश्न यथावत है और अभी भी अनुत्तरित है…

कुछ कहानियाँ बड़ी ढीठ रहीं हर काल में
अपने गंतव्य से भटक गईं
नतीजन एक दासी को लापरवाही की सजा बतौर भाड़ में झोंक दिया गया
एक को कौहकनी बनाया गया तो कईयों को काल कोठरी की सजा और सजा ए मौत भी हुई

एक कहानी बाँधते बाँधते ऐसी छूटी कि एक दासी का पुत्र तो विद्रोही ॠषि हो जाता है और पूछता है अपनी माँ से –
कि मेरा पिता कौन है?
और वह बिना झिझके उत्तर देती है
‘इस नगर के राजा मंत्रियों और महाजनों की सेवा में रही हूँ
उन्हीं में से कोई तुम्हारा पिता होगा… ‘
और यह पंक्ति नैतिकता से लीपे पोते गाल पर अभी तक तड़ातड़ झापड़ बजा रही है

एक और कहानी की कुबरी कानी दासी
अपनी रानी के हिस्से का अपयश खुद खाकर
इतिहास में अमर हो गई
यहाँ पर कहानियाँ उदास और क्षमायाचना की सूरत में नजर आईं

इन दास दासियों के माँ बाप
पति बेटा बेटी
जमीन जायदाद
उनके अपने लड़ाई झगड़े प्रेम व्यवहार
उनके रंग रूप कुछ तो रहा होगा …

यह प्रश्न इसलिए कि आज भी माता पिता बेटियों को घर से बाहर भेजने को लेकर फ़िक्रमंद होते हैं
नियत समय से आधे घंटे भी लेट हो जायें बेटियाँ तो उन्हें काटो तो खून नहीं
फिर कैसे उस जमाने में दिन- दिन और रात- रात भर पुरुषों के शयन कक्षों में पंखे डुलाती खड़ी रह सकती थीं ये दासियाँ
मैं पूछती हूँ कहानी से…
कहानी हकलाने लगती है…

एक कहानी खुद तो कुछ नहीं बोली
लेकिन मेरे हाथ में एक पर्चा थमा गई
जिसमें लिखा था
कि एक बड़े साम्राज्य की एक जिद्दी रानी राजसत्ता से बगावत कर बैठी
और इन्हीं हजारों लाखों दासियों के अवैध शिशुओं की हत्याओं पर न्यायाधीश से भिड़ गई
राजा तक से भिड़ गई
और नतीजन स्वर्णिम इतिहास के पन्नों से बेदखल कर दी गई

कुछ कहानियाँ एक दूसरे के कान में फुसफुसाकर कहती हैं उसका नाम
और फिर सुधारती हैं अपना ही कहा
कि “हाँ इस नाम की एक नदी बहती थी उस राज्य में”

कहानियाँ तो कहानियाँ ही हैं आखिर
आप बस उनकी आँखों में प्यार से निहारते जाओ
धीरे धीरे हूँकी भरते जाओ

मुझे उम्मीद है एक दिन सत्ताओं की तमाम चेतावनियों को भूलकर वे निडर हो जाएंगी
धीरे धीरे खुलेगी और सब कुछ कह देगीं।

2- तीर की नोंक पर रखकर स्तन, एक स्त्री घोषणा करती है ————————

प्रकृति ने स्त्री के स्तनों को अपना हमशक्ल माना और उस पर यह सबसे खूबसूरत पंक्ति लिखी
“एक स्त्री बच्चे को जन्म देने के बाद सकुचाती हुई उसे स्तनपान करा रही है”

कैमरे के फोकस लेंस पर आँखें गड़ाये दूसरे कोण से अपने समय को देखती हूँ
और एक ही समय में चीख और अट्टहास के दृश्यों को प्रकाश वेग से सुन सकती हूँ
किसी स्त्री के स्तनों को रौंदकर कोई पुरुष दुग्धपान का स्वाद भूल चुका है
बर्बर और कबीलाई कहते हुए रूक जाती हूँ और कोई बड़ी सी गाली खोजती हूँ उस कुदृश्य के लिए
जब एक स्त्री सिर्फ योनि और दो स्तन में बदल दी जाती है

बर्बर युग तो तभी चरम पर था
जब योगनियों की प्रतिमाओं के पत्थर हो चुके स्तनों को क्षत-विक्षत किया गया था
और सभ्यता को जीत सकने की घोषणा की गई थी

फिर एक स्त्री ने काट कर फेंक दिए थे अपने स्तन
एक आताताई के सामने
और अभूतपूर्व विद्रोह की शुरुआत हो गई थी
जनता ने विद्रोह किया
विद्रोह करके क्या कर लिया
उन्होंने राजा बदल दिया…
एक राजा फिर दूसरा राजा फिर कोई तीसरा आया
थोड़े दिनों बाद फिर वही किस्सा
वह अपनी मर्जी का बादशाह बना
दबोचता रहा सुडोल कुडोल स्त्री देह को
रौंदता रहा स्तन और योनियाँ

समय के दूसरे छोर पर दृश्य बदलता है-
एक नामी-गिरामी फोटोग्राफर
झारखंड बस्तर के घने जंगलों के बीच एक झोपड़ी के पास रूककर
उस अश्वेत स्त्री के सुडौल स्तनों को कला का अनुपम उदाहरण बताता उसे फोटोग्राफी के लिए राजी कर रहा होता है
खुली छातियों को अपने बच्चे के मुँह में दिए वह स्त्री तब शाम का भात राँधने के बारे में सोच रही होती है

स्तन क्या है?
एक जटिल स्वेद ग्रंथि/ अतिरिक्त चर्बी जैसा कुछ/ सत्रह दुग्धधानी स्योत्र/ शिशु के जन्म लेते ही खून का दूध में बदल जाना/ कोई आश्चर्य नहीं, स्त्री देह की प्रमाणिकता..
चिकित्सा शास्त्र की क्लास में एक अनुभवी प्रोफ़ेसर अपने युवा छात्रों को ऐसा पढ़ा रही होती है

फिर भी सम्मोहन ऐसा कि –
भर्तहरि और कुमारसंभव पुस्तक भर वर्णन लिखते हैं
वे राधा कृष्ण के, शिव पार्वती के सम्मोहन की परतों के बहाने खोल रहे होते हैं अपने भी मन को

फिर भी कोणार्क है, खजुराहो है, अजंता- एलोरा है
यानी कला है देह
बिहारी की नायिका के झीने कपड़ों से झाँकते हुए स्तन जंघायें
समूची देहयष्टि
यानी पूरा का पूरा स्त्री शरीर कला है/ कविता है
जिसे समझने की कोशिश सदी दर सदी चलती रही

योग साधना के द्वार पर खोल दी गई कंचुकी
जिसके आधार पर योगी स्त्री का चयन करता है
वह पुरुष जो संसार का त्याग कर सन्यासी हुआ है
वहाँ भी किन्ही परतों के भीतर कंचुकी भर मोह बचा हुआ है
मोहाशक्त सन्यासी इसे दर्शन कहकर बखान करता है

एक स्त्री भी वैसी ही
सिलिकॉन रसायन के इंजेक्शन टेबलेट लेती वह भी तो लगभग फिदा है अपने स्तनों की गोलाई पर
बाजार की नियमावलियों के हंटर फटकारती देह पर
अंतः वस्त्रों की कंपनियों के विज्ञापन करती
कृत्रिमता को एरोटिक बनाती
आंखों में चालों में सिक्कों की चमक की उत्तेजना भरती

वहाँ भी जहाँ कई शोर और आवाजें हैं –
मेरी देह मेरा मालिकाना / देह मात्र टैक्स है/
पर्सनल इज पॉलिटिक्स/ आवर बॉडी इज आवर बैटलफील्ड….
थोड़ी ही दूर पर अस्पताल के कमरा नंबर 321 में अभी-अभी एक स्त्री के स्तनों को काटे जाने की तैयारी चल रही है
अब स्तन सिर्फ छाती में दो सूखे हुए घाव हैं

हमारे युग की स्त्री के पास नहीं है ऐसी कोई मंत्रशक्ति कि तन्मय दुग्धपान कराती स्त्री को उधेड़ कर देख लेने के अपराध में उसकी जुबान को पैरालाइज कर दिया जाये
खैर इस कहानी की प्रमाणिकता पर संशय किया जा सकता है
पर नहीं, हमारे ही युग की एक स्त्री तीर की नोंक पर रखकर एक स्तन घोषणा करती है-
कि सुनो दुनिया की माँओं सुनो!
एक स्तन से हो जाएगा तुम्हारे बच्चे का पोषण..

सुनो स्त्री की छातियां बेड़ियाँ नहीं है..
जुगुप्सा नहीं है/ उत्तेजना नहीं है/
युद्धभूमि नहीं है

सुनो अप्राकृतिक मनुष्यों सुनो
प्रेम है स्त्री देह/ जीवन है/ पूर्णता है…

 

3- नदी श्राप देगी और तुम सब कुछ भूल जाओगे

सिंधु घाटी के भग्न भुवनों में भटकती
चौदह सीढ़ियाँ जल्दी जल्दी फलांग मैंने तुम्हें आवाज दी
कि सुनो! ऐसे अकेले नहीं पार की जाती सभ्यताएं…
कि नदी श्राप देगी और तुम सब कुछ भूल जाओगे

एक दिन फिर
छूकर तुम्हारे कानों की गर्म लबों को
आहिस्ता फुसफुसाई…
अब तक कहां थे तुम..
कहां कहां न ढूंढ़ा तुम्हें..
धरती आकाश
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण
और इन चारों दिशाओं के छहो कोनों में भी बरसों तलाशा तुम्हें
मुझे तुम्हारी ही तलाश थी… अब तक कहाँ थे तुम..

तुमने सुना और मुस्कुराये
मैं थोड़ी देर ताकती रही तुम्हारी आँखों में
और पलटकर उसी तरह भागी
जैसे नर्मदा सोनभद्र को अलविदा कह चल पड़ी थी
कभी मुड़कर न देखने की कसम खाकर
खालिस क्रोध न था वह
न ही दुनिया को जता सकने के लिए किया गया विद्रोह
प्रेम के दरकने से पैदा हुई थी इतनी गहरी आग
कि पत्थरों के बीच खाई खुद गई और पानी बह निकला

इसी तरह गहरे जंगलों, कंदराओं के बीच रास्ता बनाती
शताब्दियों साम्राज्यों के खंडहरों में भटकती
तुम्हें पाया
और एकदिन तुम्हारी हथेलियों पर अपनी उंगलियां
चकमक की तरह रगड़ते हुये कहा था-
तुम्हें ही ढूंढ़ रही थी… अब तक कहाँ थे तुम..
तुम्हारी आँखों में अपरिचय के लाल रेशे चमक रहे थे
तुमने मेरे चेहरे पर कोई निशान खोजने की कोशिश की
मैं यहाँ भी अधिक देर रुक नहीं सकी

यूँ तो मेरी पीठ एकदम गोरी चिट्टी है
दुर्गम यात्राओं के भी कोई निशान नहीं चिपके
पर गौर से देखो! उसके पीछे खंडहरों के बेतरतीब उजाड़ नगरों के गोदने गुदे हैं
जहाँ कोई स्त्री तभी चीखती है जब मैं तुम्हें बेतहाशा प्रेम कर रही होती हूं
और मैं बीच में ही बेढब प्रश्न करने लगती हूँ
तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो
या कि मेरा गला तो नहीं दबा दोगे…

यूँ तो बेतरह शंकाओं को पलाश की ललछौंही पत्तियों से ढाँक
तुम्हारी आँखों का चुंबन लेने के लिए अपने होंठ खोलती ही हूँ
कि पिछली शताब्दी की ढेरों स्त्रियाँ एक साथ अट्टहास करने लगती हैं
वे कोई आदिम नाच नाच रही है
उनकी कमर की थिरकन का तालमेल वाद्यों के साथ बहुत ही खूबसूरत है
नाचते हुए एक सदी से दूसरी सदी की दूरी तय करती
उन्होंने अपने तन मन की थकान छुपाने की बारीक अभिनय कला तैयार कर ली है
वे कोई गीत भी गा रही हैं
नाचते-नाचते वे तितली के मसले हुए पंखों में तब्दील हो जाती हैं

यह सब ख्वाब में भी हो रहा है और ख्वाब के बाहर भी

और मैं…. अभी भी
अपने वर्तमान के प्रेम में तरबतर बस कहती ही जा रही हूँ
हाँ मैंने तुम्हें ढूंढ़ लिया…
अब तक कहाँ थे तुम…
मैं तुम्हें ही ढूंढ़ रही थी…

4- धूसर कागज पर लिखा प्रेम
———————–

चौकोर धूसर कागज पर
हल्के गुलाबी रंग के फूल बनाये
बनाई हरी हरी पत्तियाँ
टहनियों को थोड़ा गाढ़े हरे रंग से रंगा
खड़े होने के लिए जमीन तो जरूरी है न
इसलिए कत्थई भूरे रंग की बेल बनाकर
रेतीली जमीन पर रोप दी ….
इस तरह लिखा मैंने प्रेम …

इन्हीं लताओं के बीच से शकुंतला ने दुष्यंत को थके हारे पानी पीते देखा था

मैं थोड़ी दूर से शकुंतला को देखती हूँ
फिर देखती हूँ दुष्यंत को
मैं कण्व ऋषि के गुस्से से काँपते चेहरे और माथे पर बनते बिगड़ते त्रिपुंड को भी वहीं से देखती हूँ

मेरे देखने में भरत को न देखना कैसे हो सकता है

ठीक उसी जगह से हिले डुले बिना मेरी नजरें मेनका और विश्वामित्र को भी देख सकती हैं
इतिहास की तरह नहीं वर्तमान की तरह
महाकवि की कलम बार-बार रूकती है
शायद उन्होंने उन बिष बुझी वक्रोक्तियों को
नजरअंदाज कर दिया हो जो
मां के अतीत की ओट में बेटियों पर बरसाई जाती हैं

मेरे देखने में प्रेम के गुलाबी रंग के साथ
अपमान घृणा और तिरस्कार के कितने ही रंग आये गये
इसीलिए कागज धूसर था।

5- गर्भपात के बाद एक स्त्री का कन्फेशन
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किसी बाज में झपट्टा मारा शायद
वह कबूतर जीने की लालसा में भागता आया
मेरी देहरी पर दम तोड़ा उसने

उसे उठाकर एक किनारे रखते हुए
मैंने अपने हाथों की ओर देखा
वे बाज के पंजे थे
किसी और कबूतर को झपटने के लिए तैयार

बेहद क्रूर किस्म की रुलाई मेरे भीतर गूँज रही है
भागकर बाथरूम के अँधेरे कोने में छिपती हूँ
चिघाड़े मारकर रोने के बाद भी थमता नहीं सैलाव
न न, नियति नहीं
मेरी गलती… मेरा निर्णय…

एक छोटी पंक्ति ही तो थी, लिखकर मिटा डाली
एक चित्र बनाकर फाड़ डाला कागज
अपनी ही आत्मा की कविता को महसूसे बिना
धो- पोंछ डाले एक एक शब्द
इस तरह मैंने लिखी फिर से क्रूरता की नई परिभाषा

यह खामोश रात और मैं
वह गीत तो हमने साथ मिलकर गाया था न
जब लगा कि हमारे साथ-साथ पूरी कायनात झूम रही है
फिर इस भयानक रात का कहर…
सिर्फ मुझ पर …

रात की साँवली परत को थोड़ा खोलकर
तुम्हारे सामने बैठ
तुम्हारे संवाद खुद दोहराती हूँ
वाकिफ हूँ तुम्हारे दर्द से
मैं भी तो सहभागी रहा…

यह सब दिल की गहराइयों में उतरता तो है
फिर बह जाता है

किसी डरावने सपने के बीच मैं तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाती हूँ
एक सुनसान सड़क कई काली छायाओं से घिरे पेड़ और फिर एक काँटेदार दीवार महसूस होती है

अभी-अभी ही मेरी देह तुम्हारे स्पर्श पर लहलहाई थी
अभी ही चाहा कि दूर जा बसूं
तुम्हारे साथ, किसी खामोश वादी में
अभी कल परसों ही मैंने तुम्हारे प्रेम नाराजगी और इंतजार के स्केच बनाए थे
और आज ही यह आतप
छूकर देखो जल रही है मेरी देह

नींद में भी घुस रहे हैं
मेरे गर्भ की तहों मे वे नुकीले औजार
सफेद दस्तानों वाले कुछ जोड़ी हाथ
कुछ टटोलते- खरोचते- काटते- खींचते
जिस तरह कि उगने से पहले ही खुरपी लेकर छीलना घास को

मेरे प्रेम का तलघर
जहाँ निर्दयता से झाडू फेर दी मैंने
वही मेरा वजूद, हाँ मेरा घायल वजूद
अब कतरनी लेकर खरोच रहा है
काट रहा है बचे कुचे हिस्सों को
देखो तो! मेरी आँखों से बहते लहू को

क्या मैं फिर उड़ सकूंगी
गा सकूंगी कोई गीत
नुचे पंखों के असीम दर्द को भूलकर
गले में उग आये काँटों पर लेप लगा

ओ मेरे अजन्मे शिशु !
मुझे माफ मत करना
तुम्हारी भर्त्सना की सड़ांध फैले मेरे भीतर
उसी मरे कबूतर की तरह
जो खिड़की खोलते ही घुस आई थी भीतर

तुम धिक्कारना मेरी कायरता को
मेरी विद्रोही छवि के पाखंड को
कि सो न सकूँ बेफिक्र
एक भी रात

मेरी कूरता का दंड जारी रहे।

6- मृत्युशैया पर एक स्त्री का बयान
——————————-

सभी लोग जा चुके हैं
अपना अपना हिस्सा लेकर
फिर भी
इस महायुद्ध में,कोई भी संतुष्ट नहीं है
ओ देव! बस तुम्हारा हिस्सा शेष है
तीन पग देह
तीन पग आत्मा
मैं तुम्हारा आवाहन करती हूँ

ओ देव अब आओ
निसंकोच
किसी भी रंग की चादर ओढ़े
किसी भी वाहन पर सवार हो
मुझे आलिंगन में भींच लो
अब मैं अपनी तमाम छायाओं से मुँह फेर
निर्द्वन्द हो चुकी हूँ

धरती की गोद सिमटती जा रही
मैं किसी अतललोक की ओर फिसलती जा रही हूँ
प्रियतम का घर
दोनों हाथ खाली कर
बचे खुचे प्रेम की एक मुट्ठी भर
लो अब पकड़ लो कसकर मेरा हाथ
जल्दी ले चलो ,कहीं भी
हाँ, मुझे स्वर्ग के देवताओं के जिक्र से भी घृणा है

अब कैसा शोक
कैसा अफसोस
कैसे आँसू
यह देह और आत्मा भी
आहुतियों का ढेर मात्र थी
एक तुम्हारे नाम की भी
स्वाहा !!

जीवन में पहली बार इतना सुख मिला
चिरमुंदी आँखों का मौन सुख
सभी मेरे आसपास हैं
सभी वापस कर रहे हैं मेरी आहुतियां
आंसू
वेदना
ग्लानि
बूँद बूँद स्तनपान

अधूरी इच्छाओं की गागरें
हर कोने में रखीं हैं
गरदन उठातीं जब भी वे
मुट्ठी भर भर मिट्टी डालती रही
बाकायदा ढँकी मुँदी रहीं
उसी तरह जैसे चेहरे की झुर्रियाँ और मुस्कान
आहों, आँसुओं और सिसकियों पर भी रंगरोगन किया
आज सब मिलकर खाली कर रहे है
आत्माएं गिद्धों की मुर्दे के पास बैठते ही दिव्य हो गईं

मेरी इच्छाओं का दान चल रहा है
वे पलों क्षणों को भी वापस कर रहे हैं
तिल चावल जौं
घी दूध शहद
सब वापस
सब स्वाहा
उनकी किताबों में यही लिखा है।

7- अच्छी लड़की के लिए जरूरी निबंध
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एक अच्छी लड़की सवाल नहीं करती
एक अच्छी लड़की सवालों के जवाब सही-सही देती है
एक अच्छी लड़की ऐसा कुछ भी नहीं करती कि सवाल पैदा हों

मेरे नन्ना कहते थे- लड़कियाँ खुद एक सवाल हैं जिन्हें जल्दी से जल्दी हल कर देना चाहिए
दादी कहती- पटर पटर सवाल मत किया करो

तो यह तो हुई प्रस्तावना अब आगे हम जानेंगे
कि कौन सी लड़कियां अच्छी लड़कियाँ नहीं होती

एक लड़की किसी दिन देर से घर लौटती है
वह अच्छी लड़की नहीं रहती
एक लड़की अक्सर पड़ोसियों को बालकनी पर नजर आने लगती है….. वह अच्छी लड़की नहीं रहती
एक लड़की का अपहरण हो जाता है एक दिन
एक लड़की का बलात्कार हो जाता है और उसकी लाश किसी नदी नाले या जंगल में पाई जाती है
एक लड़की के चेहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है
और एक लड़की तो खुदकुशी कर लेती है…

क्यों -कैसे?
जानने की क्या जरूरत
यह सब अच्छी लड़कियाँ नहीं होती!

मैं दादी से पूछती -अच्छे लड़के कैसे होते हैं
वह कहती – चुप ! लड़के सिर्फ लड़के होते हैं

और वह शुरू हो जाती फिर से अच्छी लड़कियों के
गुण बखान करने
दादी की नजरों में प्रेम में घर छोड़कर भागी हुई लड़कियां केवल बुरी लड़कियां ही नहीं
नकटी कलंकिनी कुलबोरन होती
शराब और सिगरेट पीने वाली लड़कियाँ दादी के देश की सीमा के बाहर की फिरंगनें कहलाती थीं
और वे कभी भी अच्छी लड़कियाँ नहीं हो सकतीं

खैर अब दादी परलोक सिधार गई और नन्ना भी नहीं रहे
फिर भी अच्छी लड़कियाँ बनाने वाली फैक्ट्रियां
बराबर काम कर रही हैं
और लड़कियों में अब भी अच्छी लड़की वाला ठप्पा अपने माथे पर लगाने की होड़ लगी है

तो लड़कियों! अच्छी लड़की बनने के फायदे तो पता ही है तुम्हें
चारों शांति और शांति…..
घर से लेकर मोहल्ले तक
स्कूल कॉलेज शहर और देशभर में
ये तख्तियाँ लेकर नारे लगाना जुलूस निकालना
अच्छी लड़कियों के काम नहीं है
धरना प्रदर्शन कभी भी अच्छी लड़कियाँ नहीं करतीं

मेरे देश की लड़कियों सुनो!
अच्छी लड़कियाँ सवाल नहीं करती और
बहस तो बिल्कुल भी नहीं करती
तुम सवाल नहीं करोगी तो हमारे विश्वविद्यालय तुम्हें गोल्ड मेडल देंगे
जैसा कि तुमने सुना जाना होगा इस विषय पर डिग्री और डिप्लोमा भी शुरू हो गया है
इन उच्च शिक्षित लड़कियों को देश-विदेश की कंपनियाँ अच्छे पैकेज वाली नौकरियाँ भी देती हैं

देखो दादी और नन्ना अब दो व्यक्ति नहीं रहे
संस्थान बन गए हैं

खैर आखरी पैराग्राफ से पहले एक राज की बात बताती हूँ
कुछ साल पहले तक मैं भी अच्छी लड़की थी।

8- एक देह को खाक में बदलता देख कर लौटी हूँ
———————–

पहली बार, एक जलती चिता को देखकर लौट रही हूँ
इत्तेफाकन, वह एक औरत की चिता थी
एक देह को खाक में बदलता देखकर लौट रही हूँ

शून्य से अनंत भार में बदल चुके पैरों को घसीटती
घर की सीढ़ियाँ चढ़े जा रही
आंखों की पुतलियाँ एक बड़ी स्क्रीन में तब्दील होकर
अभी अभी देखे दृश्य को रंग, गंध, ध्वनि के साथ बार-बार दोहराए जा रही

सुनहरे बॉर्डर की हरे साउथ कॉटन साड़ी में लिपटी देह लकड़ियों के बीच दबा दी गई
पहली लौ ने उठकर अंगड़ाई ली
मैं चीख मारकर रोना चाहती थी लेकिन कसकर दबा दिया अपनी रुलाई का गला
कि अभी सब चिल्ला उठेंगे – इसीलिए औरतों को मनाही है

हाँ, औरतों को मनाही होती है बहुत सी चीजों की
और यदा-कदा मिली हुई आजादियों को जीने का शऊर भी नहीं होता उनके पास
जैसे उनके पास समय हो तो भी वे अपने मन का कुछ भी नहीं करना चाहती
उन्हें हर दिन ऑफिस से जल्दी पहुँचना होता है घर
छुट्टी का दिन तो और भी व्यस्त होता है
एक दिन वे थोड़ा सा समय निकालकर
दिल में दबा हुआ गुबार कहने किसी अजीज दोस्त के पास जाती हैं और चाय के घूँट घूँट के साथ होंठों के कोर तक आया अनकहा फिर से पी जाती है

वह औरत जब तक जिंदा रही फुर्सत के कुछ घंटे कभी नहीं निकले उसके बटुए से
कि उसके और मेरे पास व्यस्तता के हजार बहाने थे
हम कहते रहे कि हम जल्द मिलेंगे… जल्द मिलेंगे
और एक दिन सुबह मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर
एक संदेश उभरता है..शी इज नो मोर…

तब…..मुझे कोई काम याद नहीं आता
मैं सीधे दौड़कर उस जगह पहुँच चुकी होती हूँ
जहां वह औरत नहीं होती बाकी सब कुछ होता है
घर होता है, घर के लोग होते हैं और होती है उसकी देह

इसे एक विडंबना की तरह सोचती हूँ कि
वह औरत मेरी इतनी घनिष्ठ तो न थी कि महीनों बाद भी मेरी रात उसकी स्मृतियों का घरौंदा बन जाए

हाँ रेनुका अय्यर देखो, मैं हर रात तुम्हारी देह में कायांतरित हो जाती हूँ
चालीस मन लकड़ियों के बिस्तर पर लेटी हूँ
वैसे ही सुनहरे बॉर्डर वाली हरे रंग की साड़ी पहने हुए
मेरी छाती, मेरी जंघायें, मेरी पिंडलियाँ, तलवे लकड़ियों के ढेर के नीचे दबे जा रहे
देखो! कोई मेरी ओर जलती लुकाठी फेंकने ही वाला है।

9- साल दो हजार बीस- इक्कीस और हमारी पीढ़ी का मर्सिया
————

नहीं देखा मैंने कोई युद्ध
किताबों में पढ़ा और जाना
कि कितनी खतरनाक होती हैं अबैध इच्छाएँ
नहीं देखा देश का बँटवारा
कई दशक बाद पैदा हुई
भूकंप में दरकती धरती की चीख नहीं सुनी
अकाल का कहर नहीं देखा
और दंगों को भी नहीं देखा उस तरह
जिस तरह अलीगढ़ियों ने पंजाबियों ने
और मुजफ्फरपुर वालों ने देखा है
इन सब को जाना किताबों में पढ़कर
डॉक्यूमेंट्रियाँ देख देखकर महसूस किया

मेरा जन्म हलचलों से परे
विन्ध्याचल की ओट में बसे
एक खूबसूरत कस्बे में हुआ
और वैसे ही शांत से गाँव में
नाना नानी के लाड़ दुलार बीच बड़ी हुई
फिर जीवन की जरूरतों को ढूँढ़ते ढाँढ़ते
एक दिन चली आई इस शहर में
सरपट दौड़ने को आतुर यह शहर भोपाल
हमारे प्रदेश की राजधानी
देश का दिल है ये, ऐसा भी कहा जाता है
चौथी कक्षा के सामाजिक विज्ञान में
चौरासी के गैसकांड के रूप में भी जाना था जिसे
हाँ! हमने भोपाल गैस त्रासदी को भी नहीं जाना
उस तरह,जिस तरह कि चार पीढ़ियों बाद भी
अनुवांशिक बीमारियाँ भोगते भोपालियों ने जाना है
मुख्तसर इस दर्द को महसूसा पहली बार
एक बैले देखकर

इस तरह देखा जाए तो हमारी पीढ़ी के बहुसंख्यक लोग
पुरसुकून की पैदाइश ठहरे

पूरे होशोहवास में लिखा मेरा बयान यह
प्रमाणित ही रहता
बयालीस की मेरी उम्र के बाद भी
लेकिन जैसे महाभारत के खांडव वन में आग लगी
और बिल के भीतर छिपे चूहे भी सलामत नहीं रहे
ऐसा अंधड़ चला कि हवाएँ भी झुलस गईं
ऐसी ही एक आग लगी
अभी अभी हमारे समय में
कि अब मुझे साल दो हजार बीस और इक्कीस के
ब्लैकबोर्ड पर दूसरा ही हलफनामा लिखना पड़ रहा है

हाँ हमने साल दो हजार बीस देखा !
हाँ हमने साल दो हजार इक्कीस देखा !
कोई बादल नहीं फटा
धरती नहीं दरकी
दुनिया के किसी भी कोने में परमाणु बम नहीं फेंका गया
दंगे भी नहीं हुए कहीं
लेकिन लाशों के अंबार बिछ गए

बुरी स्मृतियों को भुला देने के तर्क से मैं सहमत नहीं हूँ
दुर्दांत घड़ियों को बार-बार याद करते रहने की
जरूरत होती है
यादें वह सफ्फाक आईना हैं
जिसमें साफ दिखाई देते हैं कील मुंहासे तक
इसीलिए मैं भुलक्कड़ों को झकझोरने की खातिर
शहर की सबसे ऊंची बिल्डिंग पर खड़े होकर
चीख चीखकर
दोहराऊंगी

हाँ याद करो उस डर को
जिसकी देह में असंख्य केचुलें थीं
घर के भीतर बंद लोग रिश्तेदारों और पड़ोसियों से डरे
दोस्तों से डरे
दीवारों से डरे, दरवाजों से डरे
अपनी ही परछाइयों से डरे
सबसे ज्यादा लोग कामगारों से डरे
डर समय का स्थायी भाव बन गया

मैं कहती हूँ उन भुक्तभोगी लोगों से
कि दर्ज करो उन कूर स्मृतियों को
अपने भाई को खो चुकी बहन से कहती हूँ
कि बताओ सबको – एक इंजेक्शन के लिए तुम कितनी दूर दूर तक भटकती रही
और फिरौती की कितनी रकम तुमसे माँगी गई
उस औरत को कहती हूँ जिसके पति के लिये ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिला
उस अट्ठाइस साला युवक को भी कहती हूँ
कि याद करो
तुम्हारे बूढ़े बाप को मरने से पहले ही
वेंटिलेटर से उतार दिया गया था
उनसे भी जो अपने परिजनों का
श्मशान तक साथ नहीं दे पाये
बच्चों का चेहरा नहीं देख पाई माँओं से कहती हूँ
और मैं उन अबोध बच्चों से भी कहूंगी किसी दिन
जिन्हें आज भी अपनों के वापस आने का इंतजार है

एक किस्से की तरह ही सही, सुनाओ
शोकगीत की तरह गाओ
बार-बार याद दिलाओ उन सबको
जो भूल चुके हैं
उस समय की भयानकता ही नहीं
काईयांपन भी दोहराना जरूरी है
याद करो कैसे घरों में सुरक्षित बैठे
पकवानों का लुफ्त उठाते लोगों ने
भूख से मरते लोगों पर चुटकुले बनाये
याद करो अपने गाँव के सरपंच से लेकर
विधायक तक को
जो देश की जनता की सेवा की
कसमें बात बात पर दोहराते रहे
वे सब आपदा में अवसर तलाशते रहे

मैं देख रही हूँ अभी भी, सब कुछ वैसे का वैसा
मैं देख रही हूँ दिन-रात मुर्दाघरों को दहकते हुये
करोड़ों लोगों को भूख से तड़पते हुये
अपने प्रियजनों की लाशों को पीठ पर लादे
पैरों को घसीटते हुए
मैं देख रही हूँ अपने देश के सत्तानशीन को
इस सदी की सबसे बड़ी बेकारी के बीच
आत्मनिर्भरता का झुनझुना लोगों को थमाते हुये

मैं तमाम बयानों की उस पंक्ति को
रेखांकित करना चाहती हूँ
जहाँ स्मृतियों को कभी भी विस्मृत न किए जाने की
बात कही गई है
और इस तरह मैं अपनी स्मृतियों के कोनों में
एक बार झाड़ू रोज फेरती हूँ

हाँ मैं आखरी में इतना ही कहूँगी कि
मेरे समय का यह टुकड़ा
मेरी स्मृतियों में हमेशा जिंदा रहेगा
लेकिन बुरी
और बेहद बुरी
स्मृतियों की तरह।

10- बर्फ जैसे जमे दुखों वाले गीत
————

आधी रात को अचानक
वीरानगी की ढोलक पर थापें गूँज उठती हैं
और कोई लोकगीत सन्नाटे की तरंगों को चीर मेरे होठों पर तैरने लगता है
वही वाला -माई जो होती खबर हमरी लेतीं
कि बाबुल का गई सुधि भूलिउ हो ना….

जैसे स्मृतियों का फ्लैशबैक धीरे-धीरे, गोल गोल घूम रहा हो
कि यही गीत गाते गाते एक दिन मां जार जार रोने लगी थी
और फिर तुरत फुरत अगला अंतरा पकड़ मुस्कुराने भी लगीं

“माँ” मेरी बड़ी मौसी
मैं उन्हें बचपन से ही माँ कहती आई
पर वे माँ नहीं और मैं भी बेटी नहीं ठहरी
मैं थोड़ी कोशिश करती रही बेटी बन सकने की
और वे भी कि माँ होना महसूस सकें
बावजूद हमारी भरसक कोशिशों के
सत्य की ऐसी कसैली फाँक
कि वे कभी भूल ही ना पाईं कि वे किसी की माँ नहीं
और “माँ माँ” पुकारते हुए भी मेरी आवाज के तलछटे से मौसी जैसा स्वर ही खरखराता रहा

बड़ी अजीब होती हैं स्त्रियाँ
जीवन का कोई भी अधूरापन हो आँसुओं से पाटती रहती हैं
उतना ही अजीब हमारा लोक, जहाँ वेदनाओं के सोते
गीतों का रूप धरकर मनचाही दिशा में बह चलते हैं
दुखों को भी सलीके से गाया जाता है यहाँ
या ऐसे ही थोड़ी सी जगह तलाश की गई
कि तकलीफों का उत्स मनाती नायिकाएँ
विद्रूप तानाशाहों को मुँह चिढ़ाती रहें
ऐसे ही माँ किसी और के गीत को अपने सुर में गा रही थीं
और देखो तो गीतों में इतना ताकत
कि बर्फ जैसे जमे दुखों को पिघलाकर
थोड़ा थोड़ा बाहर ला सकें

आज बयालीस की उम्र में
मैं अपने नितांत एकांत में नुसरत की गजलें सुनते हुए डबडबाई आँखों पर चुपके से हथेली ढाँप लेती हूँ
कि मैं भी उसी लोकगीत का मुखड़ा
याद कर गुनगुनाने लगती हूँ
– माई जो होती खबर हमरी लेती…..

11- आसमान की खटिया में चाँद
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आसमान में खटिया बिछाकर बैठ चुका था चांद
जैसे कि नानी के आंगन में मैं बैठ चुकी थी
इस तरह, इतने इत्मीनान के साथ
हमारी मुलाकातें
साल में एकाध बार ही होती है

चांद मेरे बचपन का साथी और प्रेमी है
जो मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था
बेरियां तोड़ने साथ जाता
राजा मंत्री चोर सिपाही भी खेलता था

हर बार मुझसे मिलने पर वह मुझसे पूछता है
कि मैं उस शहर में भी करती हूं चाँद का इंतजार
मैं कहती हूं शहर में न आँगन है न आसमान
और न ही मेरा इंतजार करने वाला कोई चाँद
चमचमाती बत्तियों के बीच वहां चांद की जरूरत ही
किसे है
मेरा दोस्त चांद इसे मजाक समझता है
वह अभी भी बेहद शर्मीला है
जब तब हथेलियों में मुंह ढांप हंसता है

हमारी बातों के पोथे खुल चुके थे
आज चाँद ने पहले ही स्थगित कर दिए थे सारे काम
आसमान उसे भौचक्का देख रहा था
तारे फुसफुसाकर पूछ रहे थे
ये कौन मेहमान आ गया है
जो कभी छुट्टियां ना लेने वाला आज फुर्सत में पालथी मारकर बैठा है

खैर, हम हमारी बचपन की यादों को दोहरा रहे थे
मैंने उसे बताया कि कक्षा की सारी लड़कियां
उसे कितना पसंद करती थीं
और पाना चाहती थीं उसके ही जैसा प्रेमी और पति
इतना ही नहीं वे दोनों हथेलियों की ह्दय रेखा को जोड़कर बनाकर आधा चांद
चांद को पा सकने की तसल्ली करती रहती थी
यह सुनकर चाँद इतना शरमाया
कि बदलियों के बीच घंटों गायब रहा
जो मैं उसे बता देती कि स्कूल के दिनों में
मैं भी करती थी उससे मोहब्बत
तब तो शायद वह सारी रात ही गायब रहता
इसलिए मैंने उस किस्से को जाने दिया

हम बात करते रहे साइकिलों की हवा निकालने की
कम नंबर मिलने पर रोने की
औरों के प्रेम पत्र चुपके से पढ़ने की
हमने याद की रजिया मेनन की
शकुंतला गोंड की, सुनीता शर्मा की
हमने बात की एक समोसे को चार भागों में तोड़कर खाने की

इश्क जैसे मामलों में चांद भले शर्मीला हो
लेकिन दुनिया जहान के मामले में बेहद बेबाक है
उसे पता है रात की सारी परतें
अपराधी की शिनाख्त उससे बेहतर भला कौन कर सकता है यह बात अलग है कि हमारी अदालतों में
उसकी गवाही नहीं चलती

चांद के खूबसूरत मासूम चेहरे को टकटकी लगाकर देखते हुए
मुझे बेटे की याद आई
जो इन दिनों मेरे लिए ईद के चांद जैसा ही हो गया है
मैं कहना चाहती थी कि तुम तो उस देश में भी आते जाते रहते हो
तुम ही बता दिया करो मुझे वह सब
जो फोन में वह मुझे नहीं कह पाता
लेकिन मैं अपनी उदासी के वितान से चांद को नहीं ढंकना चाहती थी
सफर में अकेले चलते रहने के दर्द से वाकिफ हूं मैं
और यह भी कि चांद तो ग्लोबल नागरिक है
उसे याद आ जाएंगी वे हजारों कहानियां
जिन्हें हम दूसरे देश का समझकर भुलाए रहते हैं
उसे तो पता है न युद्ध की कहानियां
विस्थापन की कहानियां
हजारों बच्चों के एक साथ लावारिस होने की कहानियां
ऐसे में मैं सिर्फ अपने बेटे की बात कैसे कर सकती हूं इसीलिए मैंने इस बात को भी जाने दिया

तीन पहर बीत चुके थे
ध्रुवतारा सरई के जंगलों के पार वाले अपने घर में सोने चला गया था
और सप्तॠषि ब्रह्ममुहूर्त का स्नान करने
चांद भी उनींदा दिख रहा था अब
और मुझे भी नींद आ रही थी
फिर मिलने की ख्वाहिश के साथ
अब हमें शब्बा- ए- खैर कहना चाहिए।


आरती:

रीवा जिले के एक कस्बे गोविंदगढ़ में 15 अक्टूबर 1977 को जन्म हुआ।
एम. ए. (हिंदी साहित्य)।
‘समकालीन हिंदी कविता में स्त्री जीवन की विविध छवियां’ विषय पर डाक्टरेट।
“समय के साखी” साहित्यिक पत्रिका का 2008 से। निरंतर संपादन और केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र, डॉ रामविलास शर्मा, फिदेल कास्त्रो, रविंद्रनाथ टैगोर, लेव तोलस्तोय व रसूल हमजातोव की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक मेरा दागिस्तान पर विशेषांकों का संपादन।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं ‘मीडिया मीमांसा’ एवं ‘मीडिया नवचिंतन’ के कई अंको का संपादन।
रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वृहद कथाकोश “कथादेश”में के संपादन से संबद्ध।
कविता संग्रह “मायालोक से बाहर” (2014 में “रचना समय” से प्रकाशित) और “मूक बिम्बों से बाहर” अभी हाल ही में “राधाकृष्ण प्रकाशन” से प्रकाशित।
नरेश सक्सेना का व्यक्तित्व एवं कृतित्व पुस्तक का संपादन (साहित्य भंडार से प्रकाशित)। “इस सदी के सामने” (2000 के बाद की कविताओं का संकलन) का संपादन और “राजपाल एंड सन्स” से प्रकाशित।
साहित्य के विभिन्न पहलुओं, स्त्री चिंतन के विभिन्न आयामों, भूमंडलीकरण एवं तमाम समकालीन बिंदुओं पर लेखन और समकालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
संपर्क- 912 अन्नपूर्णा कॉन्प्लेक्स, पी एन टी चौराहा के पास, भोपाल, मध्यप्रदेश- 462003
मो- 9713035330
Email- samaysakhi@gmail.com

 


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