कृष्ण कल्पित समकालीन रचना – परिदृश्य में एक ऐसा नाम हैं जो समय की क्रूर सच्चाई को बेबाक होकर दर्ज़ करते हैं। ख़ुद्दार कवि हैं। जनता के पक्ष में दरबार को ललकारते हैं। इस आलोक में देखें तो कृष्ण कल्पित पीड़ा पा रहे अवाम में एकमेव होकर उसकी आवाज़ हैं। वे विरले कवि हैं जिनकी समय- समाज को आज ज़रूरत है।
प्रस्तुत हैं इस कवि की कुछ ऐसी कविताएं जो आज के अंधेरे समय में उम्मीद की किरण जैसी हैं।
– हरि भटनागर

नयी कविताएँ :

|| क्या होगा मेरी बांसुरी का ||

(1)
|| क्या होगा ||

अगर मैं महामारी से बच गया
तो क्या करूँगा

भेड़ चराऊँगा
बकरियाँ चराऊँगा

और बजाऊँगा बाँसुरी
एक गड़रिया और क्या कर सकता है
इस संसार में आकर

अगर मैं मर गया तो
मेरी भेड़ों का क्या होगा
मेरी बकरियों का क्या होगा
क्या होगा मेरी बाँसुरी का ?

(2)
|| अंतिम इच्छा ||

जब सबको मिल जाये ऑक्सिज़न
तब मुझे देना

जब सबको मिल जाये अस्पताल में शैय्या
तब मुझे सुलाना

जब तक अस्पताल के बाहर तड़प रहें हों लोग
मुझे अंदर मत लेना

मैं अकेला जी कर क्या करूँगा
जब मेरे देशवासी मर रहे हों

मुझे किस लिये जिलाने की कोशिश की जा रही है

क्या लाशों का अम्बार देखने के लिये

बच्चों बुज़ुर्गों महिलाओं और जवानों को बचाओ
वे बचेंगे तो मैं अपने-आप बच जाऊँगा

किसी की बात मत सुनना
प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री स्वास्थ्यमंत्री मित्र परिजन
किसी की नहीं सुनना
( कृपया मेरे लिये कोई अपील न की जाय )

मुझे शांति से मरने देना
मेरी आत्मा पर अंतिम-समय मत लगाना कोई दाग़
किसी सिफ़ारिश का कोई धब्बा

मैं बेदाग़ मरना चाहता हूँ !

(3)

|| गणतंत्र की गुएरनिका ||

(अ)
अच्छा हो न आये लुटेरों की सरकार
लेकिन अगर आ गई तो
डर थोड़े ही जायेंगे

बहुत बार देख चुके
पहली बार थोड़े देखेंगे लुटेरी सरकार

इच्छा तो यही है कि
न आये हत्यारों की सरकार
लेकिन अगर आ गई तो
मर थोड़े ही जायेंगे

कितनी बार देख चुके
पहली बार थोड़े ही देखेंगे हत्यारी सरकार !

(ब)

पहली बार थोड़े होगी लूट
पहली बार नहीं होगी हत्यायें

लूट जारी है
जारी है हत्यायें !

(स)
कितनी बार देखा है हमने
गणतंत्र की इस गुएरनिका को

कोई पहली बार थोड़े ही देखेंगे
सड़कों पर बहता हुआ ख़ून !

(द)
लुटेरों का अंत भयानक होगा
हत्यारे आख़िरकार मारे जायेंगे

ऐसा ही होता आया है
ऐसा पहली बार थोड़े ही होगा !

(4)
|| गोल डाकखाना ||

क्या अब भी लिखे जाते हैं पोस्टकार्ड
अन्तर्देशीय जिनके भीतर कुछ भी रखने की मनाही थी
या नहीं बचा कोई समाचार

क्या अब नहीं लिखी जायेगी कोई चिट्ठी
कोई प्रेम-पत्र

वे साइकिलें कहाँ गयीं
जिन पर लटकते रहते थे झोले
जिनमें से चिट्ठियाँ झाँकती रहतीं थीं

वे डाकिये क्या हुये
जिनका हर-दिन इन्तिज़ार रहता था

क्या कोई बता सकता है पुराने डाकघर का पता
जहाँ लगा रहता था चिट्ठियों का ढेर

चिट्ठी अब एक फटा हुआ कागज़ है
डाकघर अब एक उजड़ी हुयी इमारत

और नयी दिल्ली स्थित गोल डाकख़ाना
जो गोल डाकख़ाने के पास है
अब एक पुराना पता भर है !
(5)

|| विश्व सुंदरियां ||

कुछ तो वेश्यालयों में चली जाती हैं
कुछ फ़िल्मालयों में

सुंदरियाँ जितनी थीं
इतिहास बताता है कि
ज़्यादातर वे ऐश्वर्य के काम आईं/आती हैं

हर वर्ष जिन्हें खोजा जाता है इतने जतन से
वे कहाँ ग़ुम हो जाती हैं
कहाँ चली जाती हैं
इतनी-सारी विश्वसुंदरियाँ

देहयष्टि ही उनकी परिक्रमा है
कामाग्नि ही उनका यज्ञ

एक सुंदरी लेकिन अपवाद थी
अपने समय की वह अव्याज सुंदरी
नर्तकी नहीं बनी
नटी नहीं बनी
किसी महानायक की पुत्रवधू नहीं बनी
प्रधानमंत्री की निर्लज्ज प्रशंसक नहीं बनी

वह चिकित्सक बनी
डॉक्टर/वैद्य/दर्दनिवारक बनी

बहुत देखीं
लेकिन इससे बड़ी सुँदरी नहीं देखी
मनुष्यता का मार्मिक सौंदर्य शायद यही है
मर्लिन मुनरो को उसके घर पानी भरना चाहिए

मेरी प्रिया
मेरे सूने दिल में जलता हुआ एक दिया
रीता फारिया !

(6)
|| नई देशना ||

प्यार मत करना
मत करना प्यार

प्यार परे करता है
जबकि दुःख छूता है
जैसे पानी छूता है पानी को

प्यार का पंछी उड़ता है दूर आसमानों में
जबकि दुःख घेरता है
जैसे हवायें घेरतीं हैं दरख़्तों को

प्यार कोई शब्द नहीं है
दुःख को ही मुख़्तलिफ़ ज़बानों में प्यार कहा जाता है !

(7)

|| मोबाइल फ़ोन ||

बजता है बार-बार
पर एक भी आवाज़ विश्वसनीय नहीं

हर तरफ़ वही अफ़रा-तफ़री
वही (काला) बाज़ार वही (चक्रवर्धी) उधार

तुरत-फ़ुरत मालामाल करने के ऑफ़र

या फिर किसी दुश्मने-जाँ की खरखराती आवाज़
अपशब्दों की भरमार

किस मॉल में खो गईं
पुरानी प्रेमिकाएँ
किस कुएँ में डूबकर मर गये पुराने दोस्त

अब यह मोबाइल-फ़ोन
अज़नबियों का मुसाफ़िरख़ाना है !

(8)
|| कवि ||

हत्यारों की शिनाख़्त
जीते-जी ज़रूरी है

कवि मरने के बाद पहचाने जाते हैं !

(9)
|| विद्रोही कवि ||

इस महादेश में
हर कवि विद्रोही था

और जो सिंगार-पटार वाले थे

वे भी आख़िरी वक़्त में
सिंगारदान लौटा कर विद्रोही हो जाना चाहते थे !


कृष्ण कल्पित:

कवि आलोचक कृष्ण कल्पित का जन्म 30 अक्टूबर 1957 को रेगिस्तान के एक कस्बे फतेहपुर शेखावाटी में हुआ । राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिंदी साहित्य में प्रथम स्थान से एम. ए. । फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे से फ़िल्म निमार्ण पर अध्ययन ।

अध्यापन और पत्रकारिता के बाद भारतीय प्रसारण सेवा में प्रवेश । आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों पर कार्य करने के बाद 2017 में दूरदर्शन महानिदेशालय से अपर महानिदेशक (नीति) पद से सेवामुक्त ।

कविता की सात किताबें प्रकाशित :
• भीड़ से गुजरते हुए (1980)
• बढ़ई का बेटा (1990)
• कोई अछूता शब्द (2003)
• एक शराबी की सूक्तियां (2006)
• बाग ए बेदिल (2013)
• वापस जाने वाली रेलगाड़ी (2021)
• रेख़ते के बीज और अन्य कविताएं (2022)

इसके अतिरिक्त :
• हिंदनामा : एक महादेश की गाथा (2019)
• कविता-रहस्य (2015)
• छोटा पर्दा बड़ा पर्दा (2003)

कहानी उपन्यास :
• जाली किताब (2023)
• कस्बे के कबूतर और अन्य कहानियां (2024)

मीरा नायर की बहुचर्चित फ़िल्म कामसूत्र में भारत सरकार की ओर से संपर्क अधिकारी । ऋत्विक घटक के जीवन पर एक वृतचित्र का निर्माण : एक पेड़ की कहानी । सांप्रदायिकता के विरुद्ध भारत भारती कविता यात्रा का अखिल भारतीय संयोजक । समानांतर साहित्य उत्सव, जयपुर के संस्थापक संयोजक ।

कविता कहानियों के अंग्रेज़ी समेत कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद । निरंजनाथ आचार्य सम्मान, मेजर रामप्रसाद पोद्दार सम्मान, मदन डागा साहित्य सम्मान सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित ।

इन दिनों जयपुर में रहते हुए स्वतंत्र लेखन ।

कृष्ण कल्पित
K 701, महिमा पैनोरमा,
जगतपुरा,
जयपुर 302017

ईमेल : krishnakalpit@gmail.com

 


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