यह तस्वीर डेटन एयरफोर्स म्यूज़ियम , अमेरिका में एक ममीकृत संदेशवाहक कबूतर की है। यह कबूतर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मोर्चे पर संदेश पहुँचानेवाले पक्षियों में से एक था जिसे इस संग्रहालय में संरक्षित किया गया है।
इस कबूतर को देखकर सौमित्र को ‘सबसे पहले संदेश’ कहानी लिखने की प्रेरणा मिली। सौमित्र की यह एक ऐसी कथा है जिसमें पक्षियों और इंसानों के बीच के रिश्ते, युद्ध और वफ़ादारी, और उपनिवेशकालीन भारत की जटिलताएं आहें लेती हैं।
इस कहानी को पढ़कर ज्ञानरंजन ने कहा था कि यह कहानी हिंदी की ऐसी कहानी है जो मुस्लिम जीवन के नए पट खोलती है जिसका समकालीन कथा लेखन में सर्वथा अभाव है।
यह सच्ची तस्वीर एक रचनात्मक बिंदु का दस्तावेज़ है जहाँ इतिहास की एक झलक, कहानी का बीज बन गई।
– हरि भटनागर

कहानी:

१- घरौंदा
कहते हैं कुछ कबूतर कहीं भी जाकर घर लौट आते हैं। उन्हें आँखों पर काली पट्टी बाँध के भी चाहे कितनी ही दूर छोड़ आओ, मसलन मेरठ से दिल्ली या फिर दिल्ली से राजपूताना के रेगिस्तानों में, या फिर उससे भी दूर किन्हीं समुद्रों के बीचों-बीच, जहाज़ में बैठाकर। वो लौट आएँगे। उन्हें अपना घर याद रहता है। कुछ जानकार कहते हैं कि वो सूरज की दिशा से रास्ता खोज लेते हैं। कुछ समझते हैं कि उनके दिल में कोई चुंबक होती है, जो धरती के चुंबक से नाता जोड़ रास्ता बता देती है घर का। या शायद और ही कोई बात हो।
ऐसी ही प्रजाति के कबूतरों का एक जोड़ा मेरठ सूबे के उस जंगल में प्रणय-निवेदन को तत्पर हो उठा।
उन दोनों के साये ख़ूब सट गए और सायों में होती तब्दीली यकायक कम हो गई। सुबह की उस अँधेरी बेला में शायद कुदरत ने कुछ लम्हों के लिए उन्हें ख़ुद में छिपाकर बाक़ी दुनिया से अलग कर लिया। पेड़ की घनी भरी हुई डाल पर बैठे सिर्फ नाम को वो दोनों डगमगाए। मादा कबूतरी तेज़ सिहरन के बावजूद स्थिर बनी रही। नर ने भारी उन्माद की मनोदशा के बीच उसमें अपना बीज छोड़ दिया, पर फिर भी उसी मुद्रा में देर तक बना रहा। जंगल में जहाँ कबूतरों का यह जोड़ा मिलन के बाद का अवसान जी रहा था, उससे थोड़ी ही दूर पर, एक कच्ची सड़क के किनारे बने उस छोटे से घर के भीतर सलीम ने उठकर डिबरी में और तेल डाल दिया और बीबी रुख़साना को हिलाकर जगाने लगा।
नर कबूतर, जिसे सलीम ने नाम दिया था ‘इंडियागेट’, कबूतरी ‘फिरंगन’ से बतियाने लगा।
उनकी बात का मजमून कुछ यूँ था – ‘अबकी जब अंडे होने को हों, तो यहाँ नहीं रहेंगे।’
‘पहले गर्भ तो ठहर जाने दो, तब जाने की बात सोचेंगे।’ फिरंगन लजा के गंभीर बात बोलने के बाद अपनी लाज भूल गई।
इंडियागेट अब कामातुर प्रेमी की अवस्था से पृथक होकर गृहस्थ की तरह सोचने लगा था। उसने पेड़ के घनेपन से बाहर निकलकर आसमान की ओर देखा। सुबह-सुबह की हल्की हवा थी। कीट-पतंगे गर्मजोशी से उड़ रहे थे। छोटी चिड़ियों ने धीमे से अपने स्वर में और तेज़ी ला दी थी। ज़मीन पर मनुष्यों की संख्या में धीरे-धीरे बढ़ोतरी हो रही थी। आसमान के बादलों का अंदाज़ा लगाने के बाद वो वापस डाल पर अपने घोंसले के क़रीब आ गया। फिरंगन, जो थोड़ी देर को चुपचाप अपने आप में व्यस्त हो गई थी, साथी को दोबारा देख के ओस से गीले काठ पर वहीं थम गई।
‘क्या देखा?’
‘कुछ नहीं! लगता है बरसात का मौसम शुरू होने वाला है।’
‘पिछली बार की तरह तूफ़ान और बाढ़ न आ जाए कहीं।’
इंडियागेट सोच में डूब गया। फिर दूर मैदान की ओर देखकर बोला – ‘ना जाने क्यों इतनी धूल चलने लगी है आजकल। बहुत से आदमीयों के झुंड के झुंड नज़र आते हैं।’
‘दुआ करो कहीं लड़ाई-झगड़ा ना हो रहा हो।’ फिरंगन की गरदन चारों तरफ डगमगाने के बाद भय में स्थिर हो गई।
दोनों उड़ चले। सलीम के बाड़े का रास्ता उन्हें बख़ूबी याद था। इधर छावनी के हरे-भरे इलाक़े में बहुत तादाद में लोग रहते थे। काली पलटन के मंदिर की बुर्ज पर बैठकर वो बहुत बार सुस्ताते थे। इस इलाक़े के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों में और भी बहुत-सी प्रजातियों के पक्षी रहते थे, जो इनकी ग़ैर बिरादरी के भाई-बंद लगते थे।
उड़ते-उड़ते इंडियागेट ने देखा कि नीचे बहुत सारे एक से लगने वाले मनुष्यों का जमावड़ा है।
दूर-दूर तक एक तरह से दिखने वाले ये आदमी दरअसल अंग्रेज़ी फ़ौज की वर्दी पहने देसी सिपाही थे। सुबह से कसरत और दौड़ में मशगूल ये अभी थोड़ी ही देर में गोलियाँ निशाने पे दागने का अभ्यास करने वाले थे। इंडियागेट इनसे बहुत डरता था। कई बार सट-सट धमाके उसके पास आसमान में हुए थे। उसने इन धमाकों में बहुत से पक्षियों को दम तोड़कर ज़मीन पे गिरते देखा था। इसलिए वो सुबह-सुबह ही फिरंगन को लेकर सलीम के बाड़े की ओर निकल चला था।
छावनी की वर्दीधारी पलटनों के इलाक़े से निकलकर दोनों बेगमपुल के बाज़ार के ऊपर आ गए। नीचे रंग-बिरंगे कपड़े पहने आदमी-औरत सौदा-सुलफ़ में मशरूफ़ थे। ख़ूब आवाज़ें थीं। जानवरों की मंडी में बैल, भैंस, बकरी जैसे सैकड़ों जानवर बिक रहे थे। सब्ज़ी-फल वालों की रेहड़ियों ने चौराहे की कच्ची सड़कों पर जाम लगा दिया था। इंडियागेट और फिरंगन ने तड़पन से उड़ते-उड़ते एक-दूसरे को देखा, जैसे कह रहे हों – काश हम इन फलों को खा सकते!
दोनों मनुष्यों से डरते थे, पर उनसे प्यार भी करते थे। सलीम का दिया नाम इंडियागेट नर कबूतर को बख़ूबी ध्यान रहता था। सलीम जब उसका नाम पुकारता, तो वो आवाज़ पहचानकर सब कुछ छोड़ के उड़कर उसके कंधे पर चढ़ जाता और गुटर-गूँ करने लगता। सलीम ने कबूतरी का भी नाम दिया था ‘फिरंगन’। फिरंगन को मनुष्यों में औरतें बहुत पसंद थीं। वो ऊपर से सजी-धजी औरतों को देखती। उनके कपड़ों का रंग, गहने और उनकी हँसी उसे बहुत उत्साहित करते। सलीम के इलाक़े में उसे बात कुछ अलग नज़र आती। वो काले रंगों को पहचानती नहीं थी, पर फिर भी जानती थी। रुख़साना के काले बुर्क़े के भीतर छिपा सुर्ख़ सफ़ेद चेहरा और उसकी गोरी हथेलियों की पहचान उसे ख़ूब थी। वो उनमें खेली भी थी। बातों-बातों में दोनों मीलों का सफ़र तय करके सलीम के घर के पास आ पहुँचे।
सलीम ने किस्म-किस्म के कबूतर पाले हुए थे। यूँ कहें तो कबूतरबाज़ी सिर्फ उसका शौक़ ही नहीं बल्कि जुनून हो चला था। सुबह का सूरज फूटते ही वो मेरठ के गाँव मवाना के उस धूसर क़ब्रिस्तान के पास पहुँच जाता। अंगोछे की पोटली में दबाए ढेरों दाने हवा में उछाल के वो देर तक उनकी बारिश अपनी आँखों से देखता रहता। उसका मुँह खुल जाता, जीभ में नाव बन जाती, और जब आकाश में दूर उड़ते बहुत से कबूतर उसे अपनी तरफ आते दिखते तो वो “सुभान अल्लाह” कहके अपनी आँखें बंद कर लेता।
कबूतर उसे घास पे सोए मिलते, पेड़ों की शाखों में दुबके, सुबह की पहली रोशनी के साथ अंगड़ाई तोड़ते मिलते और गलियों के मकानों के बुर्जों से उसकी ओर आवाज़ के साथ कूच करते मिलते। जब वो दाने बिखेरकर भी वहीं खड़ा रहता तो उसके चारों तरफ मंडरा के कबूतर उस पर भी बैठ जाते। जब वो घर लौटता तो आठ-दस कबूतर उसे घर तक छोड़ने आते, और फिर जब तक जी चाहता, घर पर ही दाने चुगते रहते। उसके घर की छत पर एक ख़ास फूस के घरौंदे में एक पिजरा था। वो पिजरा कहने का पिजरा था, क्योंकि उसमें कोई जाल या दरवाज़ा नहीं था। लोहे की सँड़सियाँ थीं उड़ते पक्षियों को सुस्ताने के लिए, और मिट्टी के एक हौदे में पानी था प्यास बुझाने को।
सालों-साल की दोस्ती निभाने कबूतर उससे मिलने बार-बार आते। कुछ बूढ़े कबूतर तो आठ-दस साल से उसके पास आ रहे थे। उनमें से बहुत-से ज़्यादा उड़ने में नाक़ाबिल, कई-कई रोज़ उसकी छत पर ही पड़े रहते। वो उनकी दवा-दारू करता, मरहम-पट्टी करता। बहुत-से कबूतरों के अंडों को बचाने के लिए रात भर चौकस रहता। उसे दुनिया जानने का शौक़ था, तो जहाँ से कोई नई ख़बर सुनता तो नए कबूतरों को उससे संबंधित नाम दे देता। जब ब्रिटेन का राजा जॉर्ज पंचम भारत आया, तब दिल्ली में इंडिया गेट नाम की इमारत के बनने का बहुत शोर हुआ था, सो उसने अपने इस कबूतर का नाम इंडियागेट रख दिया। ऐसे ही उसकी महफ़ूज़ियत में लार्ड साब, सइयद साब, ख़लीफ़ा, कर्ज़न, गोखले जैसे ना जाने कितने ही कबूतर थे।
कबूतर उसके पास क्यों आते थे? यह कोई बड़ी बात न थी, क्योंकि ऐसे और भी बहुत से आदमी थे, जो कबूतरबाज़ी का शौक़ फ़रमाते थे। बात ये थी कि वो ना जाने कहाँ-कहाँ से आते थे। घर-मोहल्ले वाले कबूतरों की नस्लें देखकर हैरान रह जाते। उनके रंग, उनकी क़िस्म, उनकी ख़ूबसूरती ने ख़ुद उसे इस बात को कुदरत का करिश्मा समझने पर मजबूर कर दिया था। वो सोचता – अल्लाह ने मुझे बस इस काम के लिये पैदा किया है। इन परिंदों की ख़िदमत करो। ना जाने गर्दिशों से किन-किन के संदेशे लेकर आते हैं। क्या-क्या नज़ारे दिखाके उसको हैरान कर देने को चलते हैं, कौन जाने? उसने सुन रखा था कि इनके पंजों में अगर ख़बर लिखी पुर्जी बाँध दो, और ले जाकर इन्हें छोड़ दो, कहीं भी, कितनी ही दूर, ये लौट ही आएँगे घर को। खेल-खेल में उसने कबूतरों के पंजों में कागज़ की पुर्जी बाँधके दूर तक छोड़के आने की कवायद भी शुरू की थी।
सलीम कसाइयों के घर से था। पूरे कुनबे में अधिकांश मर्दों का पेशा यही था। पौ फटते ही मोहल्ले के पीछे बड़े मैदान में बने कच्ची ईंटों के क़साईख़ाने में जानवर कटने लगते। दिन भर में सैकड़ों पशुओं और पक्षियों की कटाई होती और फिर रातों में माँस, खाल और हड्डियों की तिजारत। वो ख़ुद बचपन से जानवर ज़िब्ह करता आया था। पहले उसे बहुत तकलीफ़ होती थी, दिल टूटता था क़त्ल करने में। पर फिर वो इसका आदी हो गया। बाईस-चौबीस की उम्र तक आते-आते वो अपने पेशे में पूरी तरह रम गया था। दिन के काम के बाद जब वो रात को सोने के वक़्त नहा-धोकर छत पे आ जाता तो कबूतरों को पुचकारने लगता, जो वहाँ पहले से ही उसका इंतज़ार कर रहे होते। उसके भीतर कहीं ना कहीं एक दबी हुई बेचैनी थी – शायद एक एहसास-ए-जुर्म सा। वो रात में अपने अंदर की गहरी पैठी मोहब्बत लुटाकर ख़ुद को सुकून देने की कोशिश करता। उसने अपने बाप से कई दफ़ा गुज़ारिश की थी कि वो उसे इस काम से निजात दिला दे, पर उन्होंने उसकी एक न मानी थी। उन दिनों सूरतेहाल ही कुछ ऐसे थे कि कोई और गुज़ारा ना था। सारे हिन्दुस्तान की तरह, मेरठ के सूबे में भी अंग्रेज़ों की हुकूमत चलती थी। उनकी पूरी की पूरी छावनी थी यहाँ। हज़ारों की तादाद में अंग्रेज़ी फ़ौज के देसी सिपाही थे। गोरों की सल्तनत में आम मज़दूर के दर्जे के आदमी के लिए बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं थी रोज़गार पाने की, सिवाय इसके कि बंदा पुश्तैनी कारोबार में लगा रहे। मुसलमानों में लड़के वैसे भी कारीगरी ही किया करते थे। उनमें हिंदुओं की तरह बड़े रसूख़ वाले व्यापारी भी ना थे, जो किसी को छोटे-मोटे काम पर रख लेते। सलीम रात-दिन सपनों में यही देखता कि कैसे वो इस मुफ़लिसी और ग़ुरबत की ज़िंदगी से निकलकर एक शांत, सूफ़ियाना ज़िंदगी बसर कर रहा है।
सन् 1914 में सारे हिन्दुस्तान में अचानक एक हलचल-सी मच गई थी। गाँव-गाँव में ख़बरें पहुँची थीं कि अंग्रेज़ सरकार एकाएक एक बहुत बड़ी जंग में शामिल हो गई है। मेरठ में सरगर्मियाँ और भी ज़्यादा बढ़ गई थीं। जगह-जगह इश्तेहार चस्पा हो गए थे। जंग के लिए सैकड़ों नौजवानों की भर्ती के लिए तेज़ मुहिम छिड़ गई थी। शहर के मैदानों में भारी तादाद में देसी सिपाही और गोरे अफ़सर अपनी निगरानी में नए रंगरूटों को भर्ती करते दिखाई पड़ते।
उस साल की हवा में दहशत दाख़िल हो चुकी थी।
सलीम ने उस दिन जब सिर उठाके ऊपर देखा तो सूरज चिलचिलाता हुआ आग के गोले उगल रहा था। वो ऊपर से नीचे तक ख़ून और माँस में लथपथ था। सालों-साल के काम ने उसमें इन बातों से बेरुख़ी भर दी थी। सलीम उस रोज़ भी हमेशा की तरह अपनी ही रौ में हौदे के पानी से हाथ-मुँह धोकर घर को चल दिया। ऊँची-नीची आवाज़ों में जानवर अपनी अंतिम बात कहने की कोशिशों से माहौल में शोर पैदा कर रहे थे। क़साईख़ाने से निकलते ही उसके सीने में जैसे नई हवा भर गई। चाल में तेज़ी आ गई और भूख ने ज़िंदगी के लिए नया जोश पैदा कर दिया। आज रुख़साना ने क्या पकाया होगा? अंग्रेज़ मेम के यहाँ से खाना बनाके अभी आई भी होगी या नहीं, वह सोचने लगा। जबसे वो काम पे जाने लगी है तबसे ज़्यादा खिली-खिली-सी लगने लगी है।
मेम को गोश्त पकाने के लिए एक कामवाली रखनी थी। हिंदू ख़ानसामे ने गाय का माँस पकाने से मना कर दिया था। सलीम अंग्रेज़ अफ़सर के यहाँ कभी-कभी गोश्त देने जाता था। बातों-बातों में साहब ने उससे किसी मुसलमान ख़ानसामे के लिए दरियाफ़्त की थी। उसने यूँ ही रुख़साना का नाम ले दिया था। अगले दिन रुख़साना वहाँ चली गई और मेम ने उसे देखते ही काम पर रख लिया।
रुख़साना सलीम की पड़ोसन थी। दोनों बचपन से साथ खेले थे। रुख़साना के घर वालों का भी जानवरों का ही काम था। सो जब सलीम ने रुख़साना से निकाह करने को घर में बात चलाई, तो किसी ने ज़्यादा एतराज़ ना किया। निकाह के बाद रुख़साना अपना एक बक्सा सामान, दो जोड़ी बुर्क़े, एक जोड़ी चप्पल और तीन-चार सलवार-कमीज़ लेकर सलीम के घर आ गई थी। सलीम के दोस्त कबूतर उसके भी दोस्त बन गए थे।
सलीम ने बरसात में गला हुआ लकड़ी का दरवाज़ा जब उढ़काया तो रुख़साना चुन्नी में ढँकी-मुँदी रसोई में बरतन धो रही थी। उसे देखते ही उसने चूल्हे में और लकड़ी खोस दी, फिर धुएँ के भभके में एक बार खाँसके सलीम को देखकर मुस्कराने लगी। सलीम ज़मीन पर बैठ गया।
‘कबूतरों के हौदे में पानी है?’
‘सुबह ही भर दिया था।’ रुख़साना की हँसी फीकी पड़ गई।
सलीम ने उसके पैरों में चिपटी काई की परतें देखीं और उसके दिल में ज़ोर से टीस उठी।
‘इस बार जब शहर जाऊँगा तो तेरे लिए एक साबुन की बट्टी लेता आऊँगा।’
‘ले आना।’ रुख़साना ने अंदाज़ा लगाया कि सलीम का दिल आज फिर दुखा हुआ है।
‘कुछ बात हुई है क्या?’
‘कुछ नहीं।’ फिर थोड़ी ख़ामोशी के बाद सलीम फिर बोला –
‘मैं ये काम छोड़ दूँगा। क्या रखा है इसमें? दिन भर बेज़ुबान जानवरों का क़त्ल करते रहो। मेरा दिल इसमें बिल्कुल नहीं लगता। बाज़ वक़्त दिल होता है कि अपने ही सीने में छूरा भोंक लूँ।’
रुख़साना का जी भर आया। वो सलीम को बचपन से जानती थी। उसने सिर्फ़ उसे ही ऐसी बातें करते देखा था। वो कभी-कभी परेशान हो जाती कि ये यूँ काम छोड़ देंगे तो हम खाएँगे क्या?
सलीम बोलता रहा – ‘अंग्रेज़ों की फ़ौज में दाख़िल हो जाऊँगा। बँधी-बँधाई तनख़्वाह मिलेगी और यहाँ से दूर निकल जाऊँगा।’
रुख़साना ने सुन रखा था कि दाख़िला ज़ोरों पर है और सैकड़ों सिपाही रोज़ जान खो रहे हैं लड़ाई में। वो काँप गई। उस ज़माने में भी औरतें बस काँप के रह जाती थीं। दिन की रौशनी में वो सलीम से चिपटके रो भी ना पाई। गहरी साँसें भरके थाली में खाना परोसने लगी।
कबूतरों का जोड़ा लंबी उड़ान के बाद सलीम के घर तक आ पहुँचा और छत पे जा बैठा। सलीम खाना बीच में छोड़कर उठा, रोटी तोड़ी और छत पे फेंक दी। फिरंगन ने दूर से देखा कि रुख़साना की आँखों में आज आँसू हैं। वो भीतर चली आई और आले पर चढ़कर बैठ गई।
सलीम खाना खाके वापस काम को निकल गया। रुख़साना ने चूल्हा बुझाया और कपड़े समेटने लगी। फिरंगन कमरे के भीतर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ किए जा रही थी। उसे उम्मीद थी कि यहाँ अंडे रखने के लिए सही जगह मिल जाएगी। उधर इंडियागेट बाहर एक बुर्ज से दूसरे बुर्ज और एक दूचत्ती से दूसरी दूचत्ती उड़ रहा था। ना जाने दोनों को क्यों लगता था कि सलीम के घर के आसपास वो महफ़ूज़ हैं, हालाँकि उड़ते-उड़ते दोनों बहुत से जानवरों और पक्षियों को बेदर्दी से क़त्ल होते देखते। शायद ऐसा ही था कि सलीम के घर के आस-पास सिर्फ कबूतर ही महफ़ूज़ थे। सलीम के नौजवान शरीर में ख़ून खौल उठता जब वो किसी को कबूतर मारते देख लेता। वो इन्हें पालतू और वफ़ादार समझता, साथ ही ख़ुदा के बहुत क़रीब भी। ऐसा कौन-सा परिंदा-चरिंदा होगा जो हज़ारों मील जाकर भी अपने घर लौट आएगा – क्या बिना ख़ुदा के करिश्मे के ऐसा कुछ मुमकिन होता?
रुख़साना ने दरवाज़े में एक कील ठोंक के एक आईना लगा रखा था। अकसर जब सब चले जाते तो वो आईने के सामने बैठकर ख़ुद को निहारा करती। उसके पास बालों के तेल की एक बोतल थी, लाख की कुछ चूड़ियाँ थीं, चाँदी की पाज़ेब और चाँदी की ही एक कंठी थी। वो दरवाज़ा बंद करके बुर्क़ा उतारके खड़ी हो गई। उसे ऐसे सिर्फ उसके घर की कुछ औरतों और सलीम ने ही देखा था या फिर फिरंगन और उसके जैसे पक्षियों ने। फिरंगन आले से उड़कर पूरे कमरे में घूमी और रुख़साना के कंधे पे बैठ गई। उसकी उपस्थिति से रुख़साना लजा गई। फिर यह सोचके कि ये सिर्फ परिंदा है, तो उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। फिर उसे लगा कि वो इससे बतियाके अपना मन हल्का कर सकती है। वो फिरंगन को मुख़ातिब होकर बड़बड़ाने लगी –
‘सलीम को ख़ुदा का वास्ता जो वो जंग पे जाने का नाम ले। मैं मर जाऊँगी फिरंगन। हम लोग ये काम छोड़के सब्ज़ी-फलों का धंधा कर लेंगे। मैं क्यारियों में सब्ज़ी उगाऊँगी और सलीम बेचके आएगा। वरना फिरोज़ाबाद में मामू के पास चले जाएँगे। सलीम चूड़ी बनाना सीख जाएगा। मस्जिद से ख़बरें आई हैं कि जो गोरों की फ़ौज में भर्ती होगा वो मुसलमान नहीं। उसे सब बिरादरी से बाहर कर देंगे। घर फूँक देंगे उसका। और फ़ौज में चला भी गया तो कब लौटेगा मेरा शौहर! वहाँ कितना क़त्लोगारत है। कौन बचाएगा इनको वहाँ? अल्लाह! इनके बाद मेरा क्या होगा?’
फिरंगन चुपचाप बैठी सुनती रही। रुख़साना का जी बहुत ख़राब हो गया, वो रोने लगी। बीच-बीच में उसे ज़ोर की खाँसी उठती। फिरंगन ने जब उसके आँसू देखे तो वो मचलकर फड़फड़ाकर उड़ने लगी। फिर थोड़ी देर तक सब शांत रहा। फिरंगन खिसकके चुपचाप ज़मीन पर एक कोने में जा छिपी। रुख़साना को उसकी मौजूदगी का अहसास ना रहा। उसने किवाड़ की साँकल चढ़ा दी। कमरे में अँधेरा हो गया। कमरे के कोने में एक चबूतरा बना था। उसने सारे कपड़े उतारके अलगनी पे लटका दिए। फिर चबूतरे के ऊपर बैठकर एक-एक लोटा गिनके अपने ऊपर पानी डालने लगी। अँधेरे में जब भीगे हुए लंबे बाल उसके शरीर पर बिखरके चिपक गए, तो उसकी देह से आती गौराँध (सफ़ेद आभा) रोशनी बुझ गई। फिरंगन दबे पाँव उसके पास तक चली आई। फिरंगन ने किसी आदमजात औरत को ऐसे नहीं देखा था। कौतूहल से वो टुकुर-टुकुर रुख़साना को देखने लगी। फिर उन्माद में उड़कर उसकी पीठ परों से छूकर काँधे पर चढ़ गई। रुख़साना ग़मगीन थी। उसने पुचकारकर उसे बैठे रहने दिया। फिरंगन ने उस क्षण को याद रखा। फिर अहसास होते ही उसने झट से एक चादर से ख़ुद को ढाँप लिया। थोड़ी देर बाद कबूतरी भागकर बाहर आ गई और इंडियागेट को ढूँढने लगी। उसका मन सिहर रहा था। उसे उड़ते-उड़ते लगा कि अगर वो किसी पेड़ की डाल पर बैठ कुछ देर सुस्ता ले तो अच्छा रहेगा।
इंडियागेट उसे कैसे मिला था? उसका झुंड जिसमें सैकड़ों कबूतर थे, बहुत दूर एक नदी के किनारे से उड़कर यहाँ इस इलाक़े में आया था। वो दरअसल गंगा-जमुना दोआब का इलाक़ा था, जहाँ बहुत से लोग यकायक शिकारी हो गए थे। ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाकर पंछियों को मार गिराते थे। फिरंगन ने अपने जनक कबूतर-कबूतरी के साथ इस लंबी उड़ान की शुरुआत की थी। उससे कुछ शाम पहले नदी किनारे के अधिकांश पेड़ों पर कुछ नहीं तो आठ-दस हज़ार पक्षी जमा हो गए थे। ख़ूब बातें चली थीं, गरदनें थिरकी थीं, शोर मचा था। उसमें बूढ़े कबूतरों ने शांति से काम लेने की सलाह दी थी – या वो सलाह किसी तरह सबको मालूम हो गई थी। नौजवान माएँ परों में बच्चों को ढक तैयार हो गई थीं उड़ने को। नरों ने पहले से ही बहुत-बहुत तेज़, लंबी उड़ानें भरके वापस आ-आकर, यथासंभव रोष प्रकट किया था। ऐसे में तीन-तीन, चार-चार महीने के मिलन को बेचैन नौजवान कबूतर उड़-उड़के मादाओं के ऊपर चढ़के बैठ जाते।
इंडियागेट, जिसका तब तक यह नाम नहीं पड़ा था, अपनी जोड़ी ठीक करने की फ़िराक़ में था। उसने बाकी साथियों की नकल बनाकर कई सुरिली गीतनुमा ध्वनियाँ निकालना सीख लिया था। वो कई मादाओं के ऊपर चढ़के बैठा था पर दाल नहीं गली थी। वो मादाएँ ज़ोर से उछलके उसे नीचे गिरा देतीं। कई ने तो धक्का देकर देर तक उसका पीछा किया। कई, जो पहले से ही जोड़े में थीं, वे अपने साथी कबूतरों के साथ और दूर तक साहबज़ादे को खदेड़ आई थीं। ऐसे में बुझे मन से वह फिरंगन के ऊपर जा चढ़ा था। कम उम्र की फिरंगन के लिए यह अनोखा अनुभव था। वो भरकन (संकोच) में बैठी रही, फिर बेचैन होकर घबरा गई। इंडियागेट को थोड़ा उत्साह मिला। वो पास में बैठके एक पर से उसे ढकने की कोशिश करने लगा, फिर दूर जाकर शांत हो गया। फिर गुटर-गूँ की नई ध्वनियों में नया आरोह-अवरोह बिठाके गीत गाता रहा। उस शाम फिरंगन उसके बस में नहीं आई। वो अपने जनक कबूतरों के पास चली गई। कई दिनों तक ऐसे ही शोर-शराबे वाले सम्मेलन शाम से देर रात तक चलते और फिर सब कबूतर सो जाते। इन दोनों का यह नया खेल भी कई दिन चलता रहा। एक शाम पेड़ की एक पत्तों से घिरी डाली पर इंडियागेट ने फिरंगन को पूरी तरह ढकके दबोच लिया। आश्चर्य था कि फिरंगन न हिली ना डुली। उसके हफ़्ते भर बाद दोनों सबके साथ कई रोज़ उड़ते रहे। सैकड़ों कबूतर अपने दोस्तों-घरवालों से बिछड़ गए। वो फिर भी उत्साह में उड़ते रहे। ज़िंदगी रही तो फिर मिलेंगे ज़रूर। ये दोनों साथ उड़के यहाँ मेरठ छावनी के घने पेड़ों वाले इलाक़े में आ गए। फिरंगन ने अंडे दिए और इंडियागेट ने घोंसला रखा। दोनों बारी-बारी दिनों-दिन उन अंडों पे बैठते। फिरंगन की फुर्ती देखने लायक थी। जोश में वो दिनों-दिन नहीं सोई। इंडियागेट उस पर अपने पर बिछाकर ख़ुद वहीं लंबा हो लेता। वो दोनों शिशु कबूतरों का इंतज़ार करने लगे। लेकिन विधाता को कुछ और मंज़ूर था। एक दिन एक मतवाला बंदर उछलता-कूदता उस पेड़ पर चढ़ा। इधर-उधर भटका, फिर यकायक इन दोनों को देखकर इनकी तरफ आ गया। इंडिया (इंडियागेट) ने झकझोरकर फिरंगन को उड़ाया। उस बेबस उड़ान में उन्होंने देखा कि उस बंदर ने एक झपट्टे में घोंसले को उठाकर ज़मीन पर फेंक दिया। ज़मीन पे फूटके अंडे मिट्टी में लिसड़ गए। उस रात फिरंगन पेड़ पर नहीं लौटी। वो आकाश में तेज़-तेज़ पर फड़फड़ाके उड़ती रही। तेज़ स्वर में गुमी चीख़ में कोई गीत निकालती रही। क़ायनात को लगा होगा कि शायद पेड़-पौधे भी उसके दुःख में शामिल हों, पत्तों की हवा अवरुद्ध हो गई हो, झाड़-झंखाड़ों की संवेदनाएँ हिली हों। पर ऐसा न हुआ। सुबह वैसी ही हवा चली, पत्ते हिले, और पेड़ पर ज़िंदगी बदस्तूर जारी रही।
उधर अंग्रेज़ बहुत बौखलाए हुए थे। बंगाल से यूनाइटेड प्रोविन्स और पंजाब तक मुसलमानों की एक बहुत बड़ी आबादी थी। यदि ये आबादी बाक़ी अरब मुल्कों, अफ़्रीकी और तुर्क मुसलमानों से जा मिलती तो इस विद्रोह को दबाना उनके बूते की बात नहीं थी। ब्रिटिश राज ने प्रेस पर सख़्त सेंसर लागू कर दिया था। क़दम उठाए गए थे जिससे हिन्दुस्तान की आवाम में यह बात बिठा दी जाए कि अंग्रेज़ी हुकूमत वो सब कुछ करेगी जिससे तुर्की से सीधा युद्ध टाला जा सके। पर यह नीति ज़्यादा दिन न चली। अंग्रेज़ों ने तुर्की पर युद्ध की घोषणा कर दी। ब्रिटिश हुकूमत का साथ देने और आम मुस्लिम जनता को शांत रखने के लिए पुराने वफ़ादार मुस्लिम नेताओं ने खुलकर उनका साथ देने की घोषणा कर दी। आगा ख़ान, हैदराबाद के निज़ाम और ऐसे ही दर्जनों ने अंग्रेज़ों को अपना ख़ैरख्वाह घोषित कर दिया। ज़मीन पर आग मगर सुलगती रही।
सन् चौदह के मुसलमानों में ये डर समाया हुआ था कि तुर्की के जर्मनी और ऑस्ट्रिया के साथ मिल जाने के बाद अंग्रेज़ उन पर भरोसा करना छोड़ देंगे। वैसे अंग्रेज़ों ने उन पर पहले भी कहाँ भरोसा किया था – वो ख़िदमत करते-करते हार गए थे। तुर्की एक मात्र ऐसा मुल्क था जहाँ पूरी तरह इस्लामिक तंत्र क़ायम था। वहाँ का ख़लीफ़ा सारी दुनिया के मुसलमानों का मज़हबी नेता था। अगर अंग्रेज़ तुर्की को हरा देते, तो नाम को भी कोई मुस्लिम मुल्क दुनिया के नक्शे पे न रह जाता। अख़बारों में नेताओं के बयान छपते कि एक दिन ऐसा आएगा जब मुसलमान यहूदियों की तरह हो जाएँगे – उनका कोई अपना मुल्क न होगा। वो अंग्रेज़ों, हिंदुओं और ऐसी ही ताक़तों के रहमोकरम पर ज़िंदा रहेंगे। नौजवान मुसलमानों का ये सोचकर ख़ून खौल उठता। मस्जिदों में गर्मागरम बहसें छिड़तीं। हिन्दुस्तान के पाँच करोड़ मुसलमान रातभर करवटें बदलते रहते। अपने दुनिया भर में फैले क़ौमी भाइयों-दोस्तों की ख़ैर की चिंता और जॉर्ज पंचम के राज में सुकून की रोटी मिलने की नाउम्मीदगी ने उनके ज़हन के दो फाड़ कर दिए थे।
एक रोज़ सलीम देर रात तक घर नहीं आया। रुख़साना देर शाम तक तो काम में लगी रही, फिर बाहर का कुछ शोर सुनकर घर से निकल आई। शोर यकायक तेज़ हो गया था। दूर से तेज़ धूल उड़ने का अंदेशा हो रहा था। शाम की ठहरी हुई रोशनी में हर चीज़ के पीली-मुरझाई होने का गुमाँ होने लगा था। उसने छत पर देखा। कबूतरों में गज़ब की हलचल थी। वो सीढ़ी से ऊपर छत पर चढ़ आई। बूढ़े अलसाए पक्षी धीरे-धीरे बाड़े के चारों तरफ सरक रहे थे। जवान पक्षियों की आवाज़ थर्राई और तेज़ मालूम देती थी। इंडियागेट दूर पेड़ से उड़ता हुआ आया और रुख़साना के कंधे पर बैठ गया। नीचे गली में कुत्ते तेज़ भौंकने लगे थे। फिरंगन, जिसने भीतर कमरे में ही डेरा जमा लिया था, बाहर आ गई। इंडियागेट को रुख़साना के कंधे पर चढ़ा देखा तो वो भी वहाँ चढ़ आई। रुख़साना ने शोर की ओर नज़रें गड़ाके देखने की कोशिश की। बहुत से लोग ईदगाह वाले मैदान में इकट्ठा होने लगे थे। उसे सलीम के भाई और अब्बा, जो क़साईख़ाने की तरफ़ से आते नज़र आए, उसी ओर क़दम बढ़ाते मालूम दिए। मोहल्ले की सँकरी गलियों में कई बुर्क़ानशीन औरतें, गर्मी और भूख से बेहाल नंगे बच्चे भी उसी ओर बढ़ते नज़र आए। शोर अब तेज़ हो गया था। मैदान की ओर से कई बग्घियों और घोड़ों पर सवार सिपाहियों के आने ने माहौल में रहस्य घोल दिया था। अपनी ही चिंताओं में बेख़बर रुख़साना को ऐसा लगा कि जैसे कोई बड़ी डरावनी बात होने को है। वो जल्दबाज़ी में सीढ़ियों से उतरी। इंडियागेट और फिरंगन भी घबराके फड़फड़ाए और फिर ऊँचे उड़ गए। रुख़साना ने झटपट बुर्क़ा डाला और नंगे पाँव ही निकल पड़ी।
“क्या सलीम भी इन ही लोगों में है? ऐसा क्या मजमा लग रहा है? क्या उलेमा साहब कुछ तक़रीर देने वाले हैं? या फिर कोई दंगे-फ़साद का अंदेशा है?”
देखते ही देखते आठ-दस हज़ार लोगों ने मैदान भर दिया था। ईदगाह से जुड़ी हर गली, हर सड़क पर आदमियों का हुजूम था। सबकी नज़र ईदगाह की छत पर थी जहाँ से शायद तक़रीर होने को थी। भीड़ में रुख़साना को ऐसे लोग भी दिखाई दिए जिनके हाथों में काले झंडे थे। बहुत-से नंगे बदन नौजवान लोहे की छड़ें, बाँस के लट्ठ और खुली तलवारों को लिए जोश में उफन रहे थे।
रुख़साना मोहल्ले की बूढ़ी औरतों के साथ खड़ी हो गई। इंडियागेट और फिरंगन सैकड़ों दूसरे पक्षियों के साथ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों में जाकर छिप गए। ईदगाह की छत पर चार-पाँच मौलवी दिखने आदमी खड़े हुए। उन्होंने आगाज़ किया और एक ज़ोर की आवाज़ लगाई –
“अल्लाहू अकबर!””
भीड़ चिल्लाई – “अल्लाहू अकबर!”
पक्षी तितर-बितर होकर उड़ने लगे।
उलेमा साहब ने अपनी बात शुरू की – **“मछली बाज़ार, गली नंबर तीन की उस मस्जिद के दालान को – जिस दालान में हमारी कई पुश्तें वज़ू करती आई थीं, और जो मस्जिद का एक अहम और पाक हिस्सा था – वो गली की सड़क चौड़ी करने के लिए शहर की म्युन्सिपैलिटी ने तोड़ दिया।
हिंदुओं के उस मंदिर को, जो कि मस्जिद से बिल्कुल सटा हुआ है, उस ओर उन्होंने नज़र तक ना डाली? पर इस मुद्दे पर हमें हिंदुओं से कोई शिकायत नहीं है। ख़ुदा करे कि वो फूलें-फलें।
लेकिन हमें यह देखकर ज़हनी सदमा पहुँचा है कि अंग्रेज़ सरकार की मुसलमानों और उनकी इबादतगाहों की सलामती में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। यूरोप की लड़ाई छिड़ने के बाद, हमने अंग्रेज़ सरकार को – बावजूद इसके कि वो तुर्की के, हमारे मजहबी भाइयों और ख़लीफ़ा के ख़िलाफ़ लड़ाई में कूद चुके हैं – अपनी वफ़ादारी की गारंटी दी। अपने नौजवानों को जंग की आग में ख़ाक हो जाने को झोंक दिया। उफ़ न की। उसका हमें ये सिला मिला! इस मुल्क में इस्लाम से रिश्ता रखने वालों का और क्या हश्र हो सकता है! अपने मेले सजाओ, हमारी दरगाह पर कुछ फूल छोड़ दो – बस। हम तो इतना चाहते थे। पर अब दुनिया भर की इसाइयत की ताक़तें एक हो गई हैं। ख़लीफ़ा की हुकूमत ख़त्म होते ही हम यतीम हो जाएँगे। ऐसी चोटें और लगेगी। पर आज हम ये सारी दुनिया को बताना चाहते हैं कि हम कमज़ोर नहीं हैं। रसूल-ए-पाक की क़सम, हम बदला लेंगे। आज से ठीक तीन दिन बाद सारे मेरठ सूबे और पास के शहरों के भाई यहीं इकट्ठा होंगे। हमारे लाखों भाई इस शहर की गलियों-गलियों को काले झंडे से भर देंगे। वो दालान बनके रहेगा। चाहे हमें दिल्ली जाकर वायसराय को दरख़्वास्त ही क्यों ना देनी पड़े।”**
ललकारों से समाँ बँध गया। हज़ारों लालटेनों की रोशनी में चिंगारियों ने फ़साद के निशान खोज लिए थे।
रुख़साना सहमी हुई-सी घर लौटी, तब भी सलीम का कोई पता नहीं था। वो घबरा गई और अंदर कमरे में लेटकर रोने लगी। अगली सुबह, तड़के ही किवाड़ की भड़भड़ाहट से उसकी आँख खुली। आँखें मलके वो उठी तो देखा – एक सिपाही की वर्दी में सलीम उसके सामने खड़ा था। फिरंगन जो कमरे के आले में सजग बैठी हुई थी, सलीम को एकाएक पहचान न पाई और उसे उन्हीं गोलियाँ दागने वाले, वर्दीवाले आदमियों में से एक समझने लगी जो मैदानों में बिनावजह पक्षियों को मार गिराया करते थे। वो डर गई। कमरे की दीवारों पर उसने तड़फड़ाके दसियों टक्करें दीं। फिर चुपचाप सहमी-सी एक बक्से के पीछे छिप गई। इंडियागेट ने सलीम को पहचान लिया था। वो उड़के उसके कंधे पर चढ़ गया। रुख़साना के हलक से आवाज़ रुक गई थी। सलीम ने किवाड़ की साँकलें उढ़का दीं और रुख़साना से लिपट गया।
“सूबेदार साहब ने शाम तक तैयार रहने को बोला है। रेलगाड़ियाँ निकलेंगी छावनी से बंबई की तरफ़। वहाँ से पानी के जहाज़ से मैं रवाना हो जाऊँगा। साथ में चालीस-पचास कबूतर भी ले जाने का हुक्म है।” उसने एक साँस में ही रुख़साना को सारी बात बता दी। रुख़साना ने सलीम की ओर देखा और उसका शरीर किसी बुत की तरह पथरा गया।
आठ-दस वर्दीधारी देसी सिपाही सलीम के घर आए। सलीम ने पुचकार-पुचकार कर बीसियों कबूतरों को अपने पास बुलाया, फिर एक-एक करके पिंजरों में बंद कर लिया। पिंजरे बंद करके सिपाहियों ने उन पर काले रुमाल डाल दिए और एक घोड़ा-गाड़ी पर लाद दिए। इंडियागेट फिरंगन से जुदा हो गया। उसे पता भी न चला कि सलीम ने उसे धोखे से पकड़ा। रुख़साना जो कमरे में सलीम की माँ और रिश्तेदारी की औरतों में बैठी थी, बस सिसकती रही। फिरंगन डर से भाग निकली थी कमरे से। वो दूर एक बहुत ऊँचे पेड़ पर बैठी सारा नज़ारा देख रही थी। उसे सिर्फ़ गोली दागकर पक्षियों को मार गिराने वाले आदमी ही चारों तरफ नज़र आ रहे थे। वो बेचैन थी कि इंडियागेट कहाँ है। कहीं उन लोगों ने उसे पकड़ तो नहीं लिया। उसे अहसास हो गया था कि सलीम, जिसको वो दोनों इतना प्यार करते थे, उन्हीं के गिरोह में शामिल हो गया है। ज़रूर वो इंडियागेट को मार देगा। उसे गर्भ धरे कुछ अरसा हो गया था। अब अंडे देने का वक़्त था। उसे रुख़साना पर भी ख़ूब क्रोध आया। उसने सलीम को उस शिकारी के भेष में घर में क्यों घुसने दिया! क्या वो सब प्यार झूठ था, जिसमें वो फिरंगन को दुलारती थी, सहलाती थी, दाना डालती थी और सारे वक़्त घर के अंदर सलामती से रहने देती थी। बिछड़ने का समय आया और चला भी गया। फिरंगन की सोच में जितनी परिपक्वता थी उसमें भय, दुलार, मिलन, दुःख और मौत – बस यही महसूस करना संभव था। वो रुख़साना की तरह ख़ौफ़ और बदहवासी में रो पड़ना नहीं जानती थी।
सलीम के अब्बा को सलीम के फ़ैसले की कोई ख़बर न थी। वो इत्तला मिलते ही काम छोड़कर घर आ निकले थे। उसके भाई अब उससे वास्ता रखने में भी तौहीन समझ रहे थे – ‘कौम का दुश्मन, अंग्रेज़ का वफ़ादार कुत्ता बन गया है।’ सलीम किसी से मिला भी नहीं, बात दूर तक फैले उससे पहले ही वो उन सिपाहियों के साथ चला गया। दो दिन, दो रात बीत गईं। फिरंगन को दर्द उठा। वो दो दिन पेड़ पर ही सोकर बिता चुकी थी। मजबूरी में उस सुबह उठी। बहुत-से मकान, उनकी छतें, कुछ पेड़, कुछ इमारतों के बुर्ज सामने दिख रहे थे। सुबह की हल्की रोशनी में सलीम के घर की छत का बाड़ा अब भी उसे सबसे महफ़ूज़ जगह लग रहा था। वो घंटों उड़ी। कभी यहाँ गई, कभी वहाँ। फिर ग़ुस्सा थूक दिया और सलीम के घर की ओर उड़ चली। छत पर अब भी कुछ कबूतर थे – कुछ छोटे, कुछ बड़े, चुपचाप रेंग रहे थे या सो रहे थे। बाड़े में सुकून था। उसने देखा कि इंडियागेट के जाने के बावजूद ये सभी अभी तक ज़िंदा हैं, तो शायद वो भी ज़िंदा हो। आज ही कहीं से उड़ता हुआ वो आए और मेरे ऊपर पर फैला के बैठ जाए। वो उम्मीद में तरोताज़ा होकर घर के दरवाज़े की ओर उड़ने लगी। रुख़साना ने दरवाज़ा तभी खोला था। फिरंगन को देखकर उसके चेहरे पर ख़ुशी छलक आई। फिरंगन ज़ोर से उसके चारों तरफ़ उड़ी, जैसे सब भूल गई हो, और फिर उसके कंधे पर बैठ गई। रुख़साना ने पुचकारकर उसे हथेली पे ले लिया। फिरंगन को लगा जैसे वो फिर से उससे ग़ुस्सा हो जाए और भाग जाए वहाँ से, पर वो उल्टा रुख़साना के आँचल में घुसकर पनाह लेने लगी। रुख़साना ने उसे उड़ा दिया। फिरंगन भीतर कमरे में आई तो देखा, उसका घोंसला जस का तस है। वो निश्चिंत होकर वहाँ बैठ गई। प्रसव का दर्द अब बढ़ चला था। कुछ घंटों बाद, फिरंगन ने दो अंडे दिए और उन पर निढाल होकर बैठ गई।
हज़ारों की तादाद में आदमी मुहल्ले की गलियों में जमा होने लगे थे। रुख़साना ने सुना था कि हज़ारों-हज़ार मुसलमान भाई मेरठ शहर के चप्पे-चप्पे पर मौजूद हो गए हैं। ईदगाह के मैदान में तिल रखने की जगह ना थी। सलीम का बाप सुबह से अपने बाकी लड़कों और जवान पोतों को ढूँढ रहा था जो रात से न जाने कहाँ गुम हो गए थे। बुर्क़ा-नशीन औरतें अपने बच्चे, जो कौतूहल में जगह-जगह जमा थे, घर की तरफ खदेड़ रही थीं। कुछ बूढ़ी औरतें बिना परदे के गलियों में उतर आई थीं और सिर पीट-पीटके रोने लगी थीं। मोहल्ले के निठल्ले और बेकाम नौजवानों को काम मिल गया था। वो नंगे बदन लाठी, भाले, बल्लम उठाए पहरेदारी कर रहे थे। खिड़कियों, छतों और दरवाज़ों से तमाशाई लोग मुआएना कर रहे थे कि कब कुछ हो और वो ख़ुद को घरों में बंद कर लें। शहर की क़ानूनी व्यवस्था तहस-नहस हो गई थी। पुलिस के दरोगा छोटी-छोटी टुकड़ियाँ लेकर घोड़ों पर गश्त लगा रहे थे। मेरठ शहर ने इतनी बेकाबू भीड़ बरसों में नहीं देखी थी। ईदगाह से मुल्ला की आवाज़ आई। ऊपर छत पर उलेमाओं ने अख़बारों की कतरनें हवा में उड़ा दीं और “अल्लाहो अकबर” की आवाज़ दी। हज़ारों-हज़ार स्वरों ने एक साथ चिल्लाकर जवाब दिया – “अल्लाहो अकबर!”
रुख़साना अपने घर को लपटों में देख चीख़ती हुई बाहर निकली। फिरंगन को जब आग की गरमी महसूस हुई तो वो तड़फड़ाके उजाले की तरफ़ भागी। कमरे से बाहर निकलके उसने देखा कि सलीम और रुख़साना का घर चारों तरफ़ से धूँ-धूँ करके जलने लगा था। ना जाने कितने तेज़ उड़ने में अक्षम कबूतर भस्म होते दिखाई पड़े। पास के पेड़ों की सबसे ऊँची शाखें आबाद हो गईं। रुख़साना ने देखा कि एक ख़तरनाक भीड़ ने चारों तरफ़ से उसे और उसके घर को घेर रखा है। जब तक कि वो कुछ समझ पाती, एक नंगे बदन लड़के ने उसे दबोचकर ज़मीन पर लिटा दिया। सलीम का निहत्था बाप अपनी वफ़ादारी की दुहाई देता हुआ कुछ लोगों के सामने मिन्नतें करता नज़र आया, फिर यकायक रुख़साना की नज़र के सामने से ग़ायब हो गया। फिरंगन ने सिर्फ़ अनुमान लगाया कि कब उसके अंडे भस्म हुए होंगे। इस बार उसने आग की लपटें ऊँचे से देखीं बस। तड़पी पर ज़्यादा हिली नहीं। पेड़ की उस ऊँची डाल पर चारों तरफ़ बस कोहराम नज़र आ रहा था। ईदगाह के मैदान में एक अंग्रेज़ अफसर ने बेकाबू भीड़ पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया।
एक के बाद एक जिस्म ज़मीन पर बिछने लगे। छत से फेंके गए अख़बारों की कतरनों, काले झंडों और लाशों ने समाँ सुर्ख़ कर दिया।
एक बड़ी-बी भीड़ से निकलकर रुख़साना पर चील की तरह कूद पड़ी और उसे ढक लिया। “ख़बरदार हराम के जने, जो बच्ची को हाथ लगाया! गांड़ में लकड़ ठोकके इसी आग में झोंक दूँगी साबज़ादे को!”

२- कबूतरबाज़ी
दिल्ली में वायसराय हाउस में, वायसराय हार्डिंग ने इंडियागेट को पिंजरे से निकालकर मुट्ठी पर बिठा लिया।
“Feed them, nurture them and, set them free – they will come back to us!”
फ़ौज की रवानगी से पहले वायसराय हाउस में आला अफ़सरों की वायसराय के साथ टी-पार्टी थी। संचार के सबसे अनोखे ज़रिये – कुछ ख़ास कबूतर – वायसराय को नज़र किए गए थे। वायसराय ने आठ-दस कबूतर उस बड़े हाल के भीतर उड़ाए। सबके सब देर तक कमरे के आकाश में मंडराए, फिर यहाँ-वहाँ ऊपर चढ़के बैठ गए। इंडियागेट कई दिनों से काले परदे के भीतर उस पिंजरे में था। रोशनी दिखते ही उसकी जान में जान आ गई। इधर-उधर कुछ भी पहचाना न देखकर वो उदास हो गया, और कौतूहल से उस आलीशान जगह का मुआयना करने लगा।
एक आला अफ़सर मेजर जनरल टाउनशेंड वायसराय से मुख़ातिब होकर बोला – “Sir, how do we tackle the ties with Ottoman Empire? They seem to forget all the goodwill of centuries.”
सैक्रेटरी ऑफ़ स्टेट लॉर्ड क्रू ने उसकी बात को काटा, “I think that’s an issue which London has to deal with. Indian establishment just has to fulfill its duties and send men on the front. There is lot on the table already.”
एक दूसरा अफ़सर साथी की बात कटते देखकर उत्तेजित हो गया – “I think you are right. We already have a lot on our tables, fighting with an enemy who was our ally just a few months back, and then crush rebellion at home.”
“What rebellion you are talking about?” सैक्रेटरी ऑफ़ स्टेट भी उत्तेजित हो गया।
“Circumstances in Meerut and other cities are going out of control. Muslims are up against us in arms – when we need their support the most.”
“There is no rebellion, Sir. It was an isolated incident, the mosque issue is settled. We are in touch with Muslim leaders,” आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार एक अफ़सर ने अपनी बात रखी।
टाउनशेंड बौखला गया, “You think those leaders are with us? They are writing articles about our atrocities, our decision to jump in the war against Turkey. They are misleading regular Muslims! A regime which is involved in genocide of millions of Christians is held sacred in the eyes of regular Muslims – just because these leaders feed them with false religious propaganda! Have we forgotten 1857?”
सैक्रेटरी ऑफ़ स्टेट लॉर्ड क्रू ने बीच-बचाव किया – “We have to remember the big picture, Sir. Russians are far more dangerous enemies than these mass-murdering Turks. We need these leaders as well as Ottomans after the war.”
इंडियागेट उड़के, कोई चारा न देख वायसराय की टेबल पर आकर बैठ गया।
वायसराय मुस्कुराया और मुहावरे में बोला –
“Feed them, nurture them and, set them free – they will come back to us!”
मीटिंग बर्खास्त हो गई। इंडियागेट को फिर पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। डिवीज़न में तीस हज़ार फ़ौजियों में गिनती के कबूतरबाज़ थे। सलीम उनमें से एक हो गया। जत्था रवाना हो गया। आठ रुपए माहवार पर इन मतवाले नौजवानों ने अपना सब कुछ छोड़कर ब्रिटिश राज के लिए लड़ने का फैसला कर लिया था।
३- कुएँ और खाई के बीच
जनवरी 1915 – क़त अल अमरा, मेसोपोटामिया में दजला नदी का किनारा।
इंडियागेट ने पीछे मुड़के देखा और हवा में ही बेचैनी से फड़फड़ा उठा। उस पठान सिपाही ने एक छोटी पुर्जी उसके पंजे पर बाँधकर उसे ज़रा देर पहले ही उड़ाया था। दजला नदी की घाटी में पानी की एक धार के किनारे वो सजदे में बैठ गया था। दूसरी ओर से एक खंदक से गोली की आवाज़ आई और उसके सिर की धज्जियाँ उड़ गईं। ज़र-ज़र शरीर लिए एक और सिपाही ने जंग में दम तोड़ने के बजाय निहत्थे तुर्कों की गोली खाके मरना ज़्यादा मुनासिब समझा। फ़ौज के लिए पानी लेने गए भिश्तियों ने मुँह अँधेरे ही नदी किनारे पड़ी सारी लाशें अपनी पटरा गाड़ी पे लाद दीं और किले के अंदर रोज़ की तरह चल दिए।
कुछ महीने पहले, मेसोपोटामिया के मैदानों में अंग्रेज़ों ने तुर्कों को दूर तक खदेड़ डाला था। बसरा पर क़ब्ज़े के बाद अब बगदाद की बारी थी। रेगिस्तान के बीचों-बीच दजला और फरात नदियों के डेल्टा के किनारे बसे छोटे-छोटे अरब शहरों, कस्बों को रौंदती हुई ब्रिटिश फ़ौज, जिसमें हज़ारों हिन्दुस्तानी सिपाही और कामगार मज़दूर थे, क़त में किलेबंद हो गई थी। मेजर जनरल टाउनशेंड को, जो बगदाद फ़तह करने के जुनून में अपनी फ़ौज लेकर अंधाधुंध चल पड़ा था, थमना पड़ा। एक बड़ी लड़ाई में चार-पाँच हज़ार सिपाही खोकर उसने अंग्रेज़ों की साख तो रख ली थी, पर मौसम की मार और मदद ना आने के कारण वो वापस लौटकर क़त में रुक गया था। फ़ौज के ज़्यादातर अफ़सर जान से हाथ धो चुके थे। बहुत-से देसी सिपाही ग़रीब तबके के नए रंगरूट थे, जिन्हें असली सिपाहियों की शहादत के बाद तुरत-फुरत में भर्ती कर लिया गया था। इनमें पठान थे, पंडित थे, उत्तर भारत के मुसलमान थे, मराठा और सिख थे। शिया सिपाहियों को बगदाद के पवित्र इलाक़े में जंग करने से एतराज़ था। सुन्नी ज़्यादातर ख़लीफ़ा के विरोध में खड़े होने को नागवार समझते। हिंदू और सिख सिपाहियों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ लड़ने में कोई दिक्कत नहीं थी, पर वो जंग में मौसम, बीमारी और खाने की दिक्कतों के कारण बेहाल थे। यह सेना ब्रिटिश इतिहास की सबसे कमज़ोर और जंगी तालीम से महरूम फ़ौजों में से एक थी। जिस तादाद में गाजर-मूली की तरह सिपाही जंग में ख़त्म हुए थे, उस तादाद में शायद ही कभी ख़त्म हुए हों।
सलीम कामगारों में उन कसाइयों का अगुवा था जिनका काम सेना के लिए माँस मुहैया कराना था। वो उन सैकड़ों कबूतरों की देख-रेख भी करता था, जो उस वक़्त ख़बरें लाने-ले जाने का बहुत अहम ज़रिया थे। इन कबूतरों की ख़ूबी से लगभग सब देशों की सेनाएँ वाकिफ़ थीं। पचासियों हज़ार कबूतर जंग के मैदान में यहाँ से वहाँ सूचनाएँ ले जाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे थे। तोपों से उगले हुए बारूद के गोलों की लगातार बौछार, ज़हरीली गैसों के बादलों के बीच से और मशीनगनों की गोलियों से छलनी आसमानों में, ये कबूतर मीलों जान पर खेलकर संदेश पहुँचाते। इंडियागेट महीनों से यह काम कर रहा था। उसे पता था कि किसी भी वक़्त एक धमाकेदार रोशनी में वो ख़त्म हो सकता है, पर अब उसका डर ख़त्म हो चुका था। सलीम जब बंबई से जहाज़ में चला था तो उसे गुमान भी न था कि वो किस तरह की जंग में शुमार होने जा रहा है। यहाँ कुछ ही महीनों में उसने बेहिसाब क़त्लोगारत, बीमारियाँ और मौतें देख ली थीं। वो भी अगर कामगार न होता तो कब का बहुतों की तरह ख़त्म हो चुका होता।
इंडियागेट जब संदेश लेकर सलीम के पास पहुँचा, तब सलीम खुली घुड़साल में घोड़े और खच्चर ज़िब्ह करवा रहा था। बहुत-से अरबी नौजवान और कुछ देसी कामगार मज़दूर पूरे मैदान में लिटा-लिटा के घोड़ों की गलझालर काटके माँस के लिए उनका क़त्ल कर रहे थे। बेमन से सलीम ने इंडियागेट के पाँव में बँधे एक छोटे-से टीन के कनस्तर में रखी काग़ज़ की पुर्जी खोली।
संदेश पश्तो में था। वो संदेश समझ न सका। उसने इंडियागेट को उड़ा दिया। इंडियागेट वापस अपने बाड़े को उड़ गया जहाँ सैकड़ों दूसरे कबूतर कुछ कबूतरबाज़ों की निगरानी में रह रहे थे।
भिश्ती लाशों से लदी पटरा गाड़ी घुड़साल के मैदान के पास ले आए। लाशों को देखकर फ़ौजी इकट्ठा होने लगे। भीड़ में ज़्यादातर सिपाही उत्तर-पश्चिम सीमांत इलाकों के लड़ाके पठान थे जो अंग्रेज़ी फ़ौज का बरसों से हिस्सा थे। एक पठान ने अपने साथी पठान की लाश देखकर सबको ज़ोर से ललकारा और पश्तो में गाली दी। सलीम भीड़ की तरफ़ आया और पुर्जी निकालकर एक सिपाही को दिखाई:
“यौ तरफ़ त प्रान्ग दै बल तरफ़ त डान्ग दै”
पठानों में ग़ुस्से का गुबार फूट पड़ा। एक सिपाही उर्दू में चीखा – “हम ये जंग और नहीं लड़ेंगे। यह हमारी जंग नहीं है। हम बस ज़र-खरीद ग़ुलाम हैं। कल सिपहसालार टाउनशेंड ने कुल सत्तर सिपाहियों को गोलियों से उड़वा दिया। उनका क्या क़सूर था? तुर्क हमारे हम-मज़हबी हैं, नज़दीकी हैं, तो क्या हम गद्दार हो गए? हम नहीं खाएँगे घोड़े का गोश्त – हमारे लिए ये नापाक है। या अल्लाह! सब लोग सुनो – यहाँ कोई पंडित, सिख, मुसलमान नहीं है। हम सब इस दोज़ख़ में बराबर के सताए हुए हैं। हमारे पास खाने को कुछ नहीं है। इस ठंड में पहनने को कुछ नहीं है। कुछ सिपाही तुर्कों से मिल गए हैं, तो क्या पूरी डिवीजन गद्दार हो गई है? हम वापस जाएँगे या यूँ ही ख़त्म हो जाएँगे। पर अब ये लड़ाई और नहीं लड़ेंगे।”
पठान बेक़ाबू होकर रोने लगा।
पठानों की रेजिमेंट पर अंग्रेज़ों की निगरानी बढ़ गई थी। उनकी बैरकों से हिंदी-उर्दू-पश्तो में लिखे तुर्की प्रोपोगैंडा पोस्टर मिलते थे, जिनमें तुर्क सेना ललकारकर उन्हें अपने ब्रिटिश हुक्मरानों का क़त्ल करने को उकसाती थी। पठानों का इलाक़ा तुर्की से बहुत नज़दीक था, सो वो अगर उनसे मिल जाते तो उनकी बेहतरी की उम्मीद ज़्यादा थी। टाउनशेंड की फ़ौज क़त में पूरी तरह फँस चुकी थी। दिसंबर और जनवरी के दिनों में भयंकर ठंड से बचने के लिए हिन्दुस्तानी सिपाहियों के पास पहनने को कपड़े भी नहीं थे। तुर्की सेना ने क़त के बाहर डेरा डाल लिया था। मदद को आने वाली फ़ौज मौसम और रास्ते की मुक़ाबलों में फँसके रह गई थी। धीरे-धीरे खाने-पीने का सामान ख़त्म होने लगा। देसी सिपाही ज़्यादातर सब्ज़ियों, रोटी, दाल पर निर्भर थे। बहुत कम सिपाही माँस खाते थे – वो भी बकरे या भेड़ जैसे जानवर का। जब शहर के अंदर सब्ज़ियों और अनाज की कमी होने लगी तो माल ढोने वाले जानवर, जैसे बैल, ऊँट, भैंसे सबसे पहले कटे। उनके ख़त्म हो जाने के बाद सिर्फ़ घोड़े और खच्चर शहर के भीतर रह गए थे। पर मज़हबी कारणों से लगभग पूरी देसी फ़ौज ने घोड़ों का माँस खाने से मना कर दिया था। सलीम ने नमक और ईमान दोनों बचाए रखने की कोशिश की। उसने घोड़े के माँस को तो हाथ न लगाया, पर अंग्रेज़ी अफ़सरों और फ़ौज के लिए माँस उपलब्ध रहे – इसलिए घोड़ों को ज़िब्ह करने में परहेज़ न किया।
टाउनशेंड साथी अफ़सरों के साथ मौक़े पर पहुँचा। वो समझौते की मुद्रा में था। उसने अपने घोड़े की पीठ थपथपाई और भीड़ की तरफ़ मुख़ातिब होकर कहने लगा – “हम तुम्हारा दर्द समझता है। तुम सब हमारा मददगार है, दोस्त है, भाई है। हम तुमको भूख और बीमारी से मरते नहीं देखना चाहता। हमको भी घोड़ा का माँस खाने में तकलीफ़ होता है, पर क्या करें? हमें ये लड़ाई जीतनी है। हमें बगदाद फ़तह करना है। तुर्की और जर्मनी बहुत बेरहम हुकूमतें हैं। आप लोगों से कहाँ छिपा है कि कितने लाखों लोग अपनी जान खो चुके हैं इनकी क़त्लोगारत के कारण। हमने इंडिया में जामा मस्जिद के इमाम और दिल्ली शहर के सबसे बड़े पंडित और ग्रंथि से बात की है। उन्हें आप लोगों के जंग के मैदान पर ज़िंदा रहने के लिए घोड़े का माँस खाने से कोई एतराज़ नहीं है। हमने सारे शहर में पोस्टर लगवाया है ये समझाने के लिए। कुछ रोज़ में हमारी मददगार फ़ौज आ पहुँचेगी, तब सब ठीक हो जाएगा। पर अंग्रेज़ हुकूमत गद्दारी बर्दाश्त नहीं करेगी। सब गद्दारों को गोली से उड़ा दिया जाएगा।”
भीड़ का मिज़ाज देखकर टाउनशेंड लौट गया। अगले दिन अफरीदी पठानों की रेजिमेंट से हथियार छीन लिए गए और उन्हें कामगारों के साथ मज़दूरी करने को मजबूर कर दिया गया। पंजाब रेजिमेंट के अफ़सरों को, उनकी पठानों से नज़दीकी के कारण, फ़्रंट से हटा दिया गया। पठानों में बग़ावत की आग सुलगती रही।
एक रात के अँधेरे में कामगारों की टोली में हलचल थी। एक सिपाही ने अपने साथियों के सामने एक ख़त पढ़ना शुरू किया। सलीम इनकी टोली में इत्तेफ़ाक़न शामिल था।
**“हमारे अज़ीज़, हिन्दुस्तान के बहादुर सिपाहियों,
ख़ुदा ने ये जंग इसलिये होने दी क्योंकि वो ब्रिटिश हुकूमत से हिन्दुस्तान को आज़ाद कराना चाहता है। यही वो कारण है जिसके चलते सारे राजा और नवाब, आप जैसे सिपाहियों की मदद से सारे मुल्क में खलबली मचाए हुए हैं। बहुत-से सिपाहियों ने सिंगापुर, सिकंदराबाद और मेरठ छावनियों में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी है। बहुतों ने हमारे, जर्मनों और ऑस्ट्रियाई फ़ौजों के साथ लड़ने का फ़ैसला किया है। दोस्तों, हम सिर्फ़ आपको आज़ाद देखना चाहते हैं। आप के हालात देखकर आँखों में ख़ून उतर आता है। क्या आप भूल गए हैं कि अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह और टीपू सुल्तान के साथ क्या सलूक किया था? इनकी हुकूमत अब ख़त्म हो रही है। यूरोप में इनकी करारी हार हुई है। भाइयों, यही वक़्त है – सुल्तान की फ़ौज आपका इंतज़ार कर रही है। हमें आदेश है कि हिन्दुस्तानी सिपाही चाहे वो सिख हो, राजपूत, मराठा, गोरखा, पठान, शिया या सैयद हो, जो भी हमसे मिल जाएगा उसे शानदार तनख़्वाह और खेती के लिए ज़मीन दी जाएगी। सुल्तान की इस ख़्वाहिश को कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो और आप सब ख़ुशहाल रहें को पूरा करने के लिए हमें आपका साथ चाहिए।”**
पठान सिपाही ने साथी सिपाहियों को देखा। सब सोच में पड़ गए। एक मराठा ब्राह्मण जो काफ़ी दिनों से चने के आटे की रोटियों और अरबी चाय पर ज़िंदा था, मरी हुई आवाज़ में बोला – “ये तो एकदम झूठ बात है। अंग्रेज़ सरकार कभी नहीं हार सकती। अगर हमने सेना छोड़ी और बच भी गए तो भी तुर्की की हार निश्चित है।”
सलीम उनकी बातें सुन रहा था। पठान चिल्लाया – “क्या बोलता है ब्राह्मण! तुझे क्या लगता है हम बचने वाले हैं चाहे तुर्क जीते या अंग्रेज़? बस तुर्की का साथ देने पर हिन्दुस्तान की आज़ादी की उम्मीद है!”
ब्राह्मण सिपाही ने नज़रें नीची कर लीं। “तू मुसलमान है, तेरी वहाँ ख़ातिर होगी, इसलिये बोल रहा है ना तू? बहुत हमदर्दी है तेरे दिल में तुर्कों के लिये!”
पठान आपा खो बैठा – “हाँ चलो यही बात है। तुम्हारे महाभारत में अर्जुन क्यों नहीं लड़ना चाह रहा था अपने सगे वालों के ख़िलाफ़? क्यों पैग़म्बर कृष्ण को गीता की नसीहत बोलनी पड़ी? हमें अगर साथी मुसलमानों से हमदर्दी है तो हम गद्दार हैं, जहन्नुम-नशीं होने के क़ाबिल हैं!”
ब्राह्मण चुप हो गया और उसने सिर झुका लिया।
यकायक सिपाहियों में भगदड़ मच गई। तुर्की की तरफ़ से फिर शेलिंग शुरू हो गई थी। क़त का किला तीन तरफ़ से दजला नदी से घिरा था। चौथी तरफ़ से ब्रिटिश फ़ौज ने खंदकें खोदके लोहे के तारों की बाड़ लगा ली थी। बाढ़ और बारिश के कारण खंदकों में घुटनों तक पानी और कीचड़ भर गई थी। पहले से ही कुपोषित और कमज़ोर सिपाही घंटों-घंटों उसी कीचड़ में अपनी मशीनगनें लिए खड़े रहते। दूसरी ओर से तुर्की की सेना ने खंदकें खोद रखी थीं। तुर्की ने हवाई हमला किया तो सारे क़त शहर में सायरन बजने लगा। टाउनशेंड को सूचना मिली थी कि ये बड़ा हमला है। सैनिक खंदकों की तरफ़ भागने लगे। कामगारों के इस टोली का जमावड़ा तुरत-फुरत ख़त्म हो गया। सब अपने काम पे लग गए। पठान और पंडित दोनों ने एक-दूसरे को देखा। इशारों-इशारों में बात हो गई और दोनों ने एक-दूसरे के पैरों में गोली मार ली और निढाल होके लेट गए। सलीम जब तक मदद को पुकारता, तब तक देर हो चुकी थी। कमज़ोरी और ख़ून के रिसाव के कारण दोनों की कुछ ही पलों में मौत हो गई। हालाँकि मरना शायद दोनों नहीं चाहते थे, सिर्फ़ फ़्रंट पर जाने से बचने के लिए घायल होना चाहते थे।
डिवीज़न के गश्ती ब्रिटिश सिपाही मौक़ा-ए-वारदात पर तुरंत पहुँच गए। उन्होंने सलीम और उसके साथ खड़े कामगारों को हिरासत में ले लिया।
उस रात दोनों ओर से भयंकर गोलीबारी हुई। टाउनशेंड ने रातभर में लगभग तीन-चार सौ आदमी खो दिए, पर फ़ौरी ख़तरा टल गया। सलीम की अपने साथ गिरफ़्तार हुए कामगारों और सिपाहियों के साथ पेशी तय हुई। पेशी के दौरान, एक फ़ौजी बैरक के अकेले कमरे में मौजूद अंग्रेज़ कर्नल ने अपनी कमर की पेटी से हल्की बंदूक निकाली और उसकी नली सलीम के माथे पर सटा दी।
“मुसलमान की औलाद! बता तू किसका वफ़ादार है – इन तुर्कों का या ब्रिटेन के ताज का? अभी ये गोली तेरे सिर में एक बड़ा सूराख़ बना देगी। तेरी लाश को हम तुर्की के मुसलमानों की लाशों के साथ फिंकवा देंगे। सुअर की औलाद! तेरे नाम पे कोई यादगार मक़बरा भी नहीं खड़ा होने वाला। उधर मेरठ में हम तेरा घर जलवा देंगे और तेरे सारे घरवालों को जेल में बंद कर देंगे। किसी को कानोंकान ख़बर नहीं होगी।”
सलीम चुपचाप सुनता रहा। उसकी रग-रग में आग लग गई थी। उसकी आँखें सुलगने लगीं और शरीर ग़ुस्से और ख़ौफ़ से काँपने लगा। इतनी बड़ी पलटन में धोखेबाज़ी का इलज़ाम उस पे सिर्फ़ इसलिए आया क्योंकि वो मुसलमान है! क्या कोई और गद्दार नहीं हो सकता! या अल्लाह! मैंने क्या गुनाह किया? सब घर-बार छोड़के मतवाला होकर मैं यहाँ फ़ौज में क्या इसलिए आया था कि गद्दारी का इलज़ाम लेकर कुत्तों की मौत मरूँ? उसकी रूह में बिजली-सी तड़पन होने लगी। उसने अंग्रेज़ कप्तान को आग उगलने वाली नज़र से देखा –
“साहब, मैंने कुछ नहीं किया है। लेकिन आप मेरा मज़हब बीच में लाए तो नतीजा ठीक न होगा।”
कर्नल और भड़क गया। “You bastard – I will shoot you and order killing of your whole family in India. मैं तेरे ख़ानदान का नामोनिशान मिटा दूँगा, तेरी बीवी को तवायफ़ बनवा दूँगा!”
सलीम का सब्र टूट गया। उसने कप्तान को इतना ज़बरदस्त धक्का दिया कि वो पछाड़ खाके पीठ के बल गिर पड़ा। फिर उसने बंदूक झपटी और एक साथ कई गोलियाँ उसके सीने में दाग दीं। कर्नल चीख़के ढेर हो गया। सलीम ने चारों तरफ़ देखा। मेज़ के ऊपर लेटर पैड और क़लम रखे थे। उसने उर्दू में संदेश लिखा:
“रुख़साना सलामत रहना। मेरठ से चली जाना। अंग्रेज़ों के हाथ में न पड़ना। मैं वापस आऊँगा – मेरा इंतज़ार करना। अल्लाह हाफ़िज़! – सलीम”
सलीम बचता-बचाता कबूतरों के बाड़े तक पहुँचा। उसके कबूतर सब बिखरे हुए से बैठे थे। उसने इंडियागेट के पंजे पर बँधे कनस्तर में पुर्जी रख दी, और एक बार चूमके उसे उड़ा दिया।
गोलियों की आवाज़ सुनके सैनिक भागते हुए कर्नल के टेंट तक पहुँच गए थे। किसी को हालात समझते देर न लगी – एक मुसलमान सिपाही ने गद्दारी करके अपने अंग्रेज़ हुक्मरान का क़त्ल कर दिया था।
सलीम को गिरफ़्तार कर लिया गया।
क़त का घेराव इसी तरह तीन महीनों तक चलता रहा। मदद को आने वाली फ़ौज तुर्की की मज़बूत सेनाओं से पार न पा सकी। टाउनशेंड ने 1857 के गदर को याद रखके माँस खाने के लिए फ़ौज को मजबूर ना किया। बाग़ी सिपाहियों में भूखमरी और बीमारियों के चलते, बग़ावत का झंडा बुलंद करने की ताक़त भी न रही। सैकड़ों कबूतरों में से बस अब कुछ पचास-साठ कबूतर बाक़ी रह गए थे। बहुतों को भूखे सिपाहियों ने मारकर खा लिया था। मेजर जनरल टाउनशेंड ने अप्रैल के अंत में तुर्कों के आगे हथियार डाल दिए। तुर्की सेना ने उसको हाथों-हाथ लिया और वो सालों उनका ख़ास मेहमान बनकर तुर्की में आलीशान तरीके से रहा। तुर्की फ़ौज के कमांडर हलील पाशा ने उसके पालतू कुत्ते को हिफ़ाज़त से बसरा भेजकर अपनी दरियादिली दिखाई। इधर कुछ बारह हज़ार हिन्दुस्तानी और ब्रिटिश सिपाही, घायल और क़ैदी तुर्कों के हवाले हो गए। सलीम एक क़ैदी की तरह अपने कबूतरों के साथ सफ़र पर निकल चला।
तुर्क इन ज़ंगी क़ैदियों पर बहुत बेरहम साबित हुए। कुर्द गार्डों की चाबुकों की नोक पर ये सब क़ैदी बारह सौ मील के लंबे सफ़र पर जाने को मजबूर कर दिए गए। हज़ारों-हज़ार सिपाही भूख, दस्त, हैज़ा, बुखार, रात की बर्फ़ीली ठंड और दिन की भयंकर गर्मी में तड़प-तड़पकर ख़त्म हो गए। जिन्होंने भागने की कोशिश की उन्हें रास्तों के कबीलाई लोगों ने लूटकर मुँह में रेत भरके मरने को छोड़ दिया। सलीम के सूखे हुए शरीर में जुनून की ताक़त ने घर कर लिया था। वो इस सबके बावजूद क़ाफ़िले के साथ चलता रहा। उसके साथ उसके बचे हुए कबूतर उड़ते रहते। वो हर पड़ाव पर अपनी अब तक की दास्तान कागज़ पर लिखता और फिर किसी एक कबूतर के पंजे में बँधे कनस्तर में कागज़ रखके उसे उड़ा देता। इस तरह उसने पचासियों बार अपनी आपबीती लिखी और कबूतरों के साथ उड़ा दी। कोई नहीं जानता वो कबूतर कभी अपनी मंज़िलों तक पहुँचे भी या नहीं। पर सलीम ज़िंदा रहा। कुछ बरस बाद वो एक ब्रिटिश पानी के जहाज़ में सवार होकर हिन्दुस्तान वापस पहुँचा। वो हड्डियों से भरी माँस की एक झिल्ली होकर रह गया था। वो जिसको भी देखता उससे कुछ कहना चाहता।
मेरठ में बेगमपुल के बाज़ार में एक पेड़ के नीचे एक अधनंगी औरत गठरी-सी बनी बैठी हुई थी। फिरंगन, जो आसमान में दूर कहीं से उड़ती हुई वहाँ तक पहुँची थी, अपनी चोंच में पकड़ा हुआ कपड़े का टुकड़ा उस औरत पर डाल दिया।
समाप्त
“यौ तरफ़ त प्रान्ग दै बल तरफ़ त डान्ग दै”, एक पश्तो कहावत है जिसका शाब्दिक अर्थ है – एक तरफ ख़ड्ग और दूसरी तरफ बाघ। हिन्दी में यह “एक तरफ कुआँ और दूसरी तरफ खाई” और अंग्रेज़ी में “between the devil and the deep sea” कहावत के समकक्ष है।

 


सौमित्र:

पिछले तीन दशकों से हिंदी कविता में सक्रिय एक सशक्त और मौलिक स्वर हैं। उनका पहला कविता-संग्रह ‘मित्र’, जिसे भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार मिला, पाठकों और समीक्षकों में व्यापक रूप से सराहा गया। इसका अंग्रेज़ी अनुवाद I Like to Wash My Face with Seawater के नाम से प्रकाशित हुआ। उनकी लंबी कविता ‘एक स्वप्नद्रष्टा का रोमांटिसिज़्म’ और हालिया संग्रह ‘कहीं दूर जाकर… दम तोड़ने का मन होता है’ उन्हें हिंदी कविता का एक आत्मीय और विशिष्ट कवि बनाते हैं।

हरीश भिमानी जैसे प्रतिष्ठित स्वर कलाकारों ने उनकी कविताओं को आवाज़ दी है। मूलतः मेरठ से, और अब मध्य-पूर्व के एक प्रमुख विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत सौमित्र, कविता और विज्ञान — दोनों में समान दक्षता के साथ सक्रिय हैं। वे इन दिनों बंगाल की वैष्णव परंपरा पर आधारित एक उपन्यास भी लिख रहे हैं


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