ख़ुदेजा ख़ान हिन्दी कविता और समालोचना का एक परिचित नाम है। अभी तक आपके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जो काफ़ी चर्चा में रहे। हिन्दी साहित्य के अलावा संस्कृत साहित्य में भी आपने उच्च शिक्षा प्राप्त की है। आप रचना समय के सम्पादन से भी जुड़ी हैं।
यहां हम आपके काव्य संग्रह ‘ सुनो ज़रा ‘ पर समीक्षा प्रकाशित कर रहे हैं । समीक्षाकार शैलेन्द्र शरण हैं।
– हरि भटनागर

कविता संग्रह : सुनो ज़रा
लेखिका : ख़ुदेजा ख़ान
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली
मूल्य : 225/-

समीक्षा

चित्रकला और कविता में बारीक़ सा फ़र्क़ होता है – शब्दों और रंगों का फ़र्क़। बावजूद इसके दोनों मनुष्यता के रंग का खेल करती हैं। बहरहाल हम यहां कविता की बात कर रहे हैं। कविता के केंद्र में मनुष्य और मनुष्यता बसती है | कविता इसी मनुष्यता के इर्द-गिर्द जन्म लेती। है | कविता का मनुष्य कविता से भी सुंदर दिखाई देता है – कवि को दुनिया को देखना, उसकी पीड़ा को समझना आना चाहिए | केदारनाथ सिंह ने लिखा है “कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती | जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है | कवि सिर्फ बीच की खाली जगह को भरता है | इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है |” ऐसी ही संभावनाओं को फलीभूत करता हुआ ख़ुदेजा ख़ान का कविता संग्रह है- “सुनो ज़रा” जो हाल ही में न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली से आया है। इस संग्रह में वे सभी दृश्य दिखाई पड़ते हैं जो हमारी आँखों के सामने से गुजर जाते हैं किन्तु खुदेजा जैसे कवि की संवेदनशील अनुभूति से कविता की शक्ल ले लेते हैं |
हमारा समाज जितना सीधा-सरल है उतना ही जटिल भी है | रोज ही हमारा सामना किसी न किसी विद्रूपता से होता रहता है | राजनीति, धर्म, अर्थ हमें सीधी राह पर नहीं चलने देते | समाज में वर्ग और वर्गों में जातियां और भी न जाने कितने विभाजन आदमजात के कर दिये गए हैं | स्वार्थ हमारे हितों को लगातार तोड़ता रहता है | संग्रह की पहली कविता “वे हँसने लगे” उद्धृत है :
“ज़मींदोज़ मृतकों में एकाएक शुरु हो गई बातचीत
घनिष्ठता बढ़ने लगी
वे हँसने लगे
अपनी जाति, नस्ल, कुल, गोत्र की बात पर देखो बिलकुल एक जैसे हम
निरे कंकाल के कंकाल वही दो सौ छ्ह हड्डियों का ढांचा
है कि नहीं !
वे फिर हँसने लगे |”
इस कविता की रेंज बहुत बड़ी है | इसमें व्यंग्य है और उस राजनीति को भेजी गई लानत है जो धर्म और जाति के नाम पर इंसान-इंसान के बीच भेद पैदा कर रही है | यह कविता हमें गहन विचारशीलता के साथ कुछ देर थामे रखती है |
खुदेजा जी की कविता का आधार वह सूक्ष्म अवलोकन होता है जो रोज-मर्रा के जीवन में हमारे सामने से गुजर जाता है किन्तु उन्हें शब्द नहीं मिल पाते | उनकी कविता के विषय बहुत आस-पास के होते हैं | “ईंट बनाकर” कविता में वे मिट्टी की तरफ से लिखती हैं ‘मैं तो उपजाऊ मिट्टी थी किन्तु मुझे ईंट बनाकर बंजर कर दिया गया और अब ये जो इमारतें दिखाई देती हैं यह मिट्टी या धरती नहीं उसकी समाधियाँ हैं |’ ऐसी कविताओं के लिए गहन संवेदना को भीतर सहेजना और उस पर चिंतन करना होता है |
युद्ध पर संग्रह में अनेक कविताएं हैं किन्तु कोई कविता इसी विषय पर लिखी दूसरी कविता से मेल नहीं खाती | ‘इंतहा हो गई’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं ” इंतहा हो गई
बच्चे अपने हाथों पर अपना नाम लिख रहे हैं ताकि मलबे में मिली लाशों में
उनकी शिनाख्त हो सके |’
करुणा का सहजता से आ जाना खुदेजा की कविताओं का एक उजला पक्ष है | संग्रह की कविताएं उद्देश्यपूर्वक नहीं लिखी गईं हैं, सहजता से जन्मीं हैं किन्तु इनसे जो ध्वनियाँ निकलती हैं वे सार्थक उपदेश की तरह हमें इशारा करती हैं – जैसे ‘साल दर साल’ कविता | इस कविता का मंतव्य यही है कि जीवन की खूबसूरती इसी में है कि जो अच्छा-बुरा बीत गया उसमें से खराब हटा दें। उसे याद रखें जो हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सके | अपने से प्रेम करना ही असल सुन्दरता का पर्याय है |
इन कविताओं में इंसानी धड़कनें सुनाई पड़ती हैं जैसे ‘घड़ी’, ‘अचूक’ कविताएं | खुदेजा रिश्तों के प्रति सदैव सतर्क रहती हैं | ‘परदा’ कविता से इस सतर्कता को समझा जा सकता है | कविता के बीच में दो पंक्तियाँ ध्यानाकर्षित करती हैं : कइयों ने रिश्तों में परदेदारी बरती… ।रिश्तों में परदेदारी सभी को आहत करती है किन्तु आत्मिक रिश्तों को तोड़ा नहीं जा सकता। इसी कविता के अंत में वे लिखना नहीं भूलतीं “पर कभी-कभी इसे (परदा) सरकाकर
देख लेना भी लगता है सुखद |”
और “मंत्र” कविता की यह पंक्तियाँ “मन को पारदर्शी रखा जितना उतने निर्मल भावों ने जन्म लिया |”
उम्र के साथ शरीर नश्वरता की तरफ बढ़ता चला जाता है किन्तु इसे सहजता से लेने में ही जीवन की सार्थकता है | इस बात को आत्मसात कर लेने के लिए हमें उनकी “मकबरा” शीर्षक कविता को पढ़ लेना होगा | मनुष्य जीवन के अतीत और वर्तमान की परिभाषा कहती एक कविता है “था और है”, इसमें अतीत और वर्तमान के बीच के जीवन को वे “पेंडुलम” निरूपित करती हैं | मानव मन ऐसा ही है कभी अतीत की तरफ जाता है कभी वर्तमान की तरफ, पेंडुलम की तरह झूलता रहता है | अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच संघर्षरत जीवन की इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता | इसी तरह की एक और कविता है जिसका शीर्षक है “मेरा भूत” | विकास और विनाश को लेकर “एक प्रजाति का रुदन” कविता का सार यही निकलता है कि ‘विकास की यह विडम्बना है कि वह विनाश की नींव पर खड़ा होता है | जब कुछ ढहेगा तभी नया बनेगा | विचारों की यह सूक्ष्मता ही शब्दों को कविता का रूप देती है जिसे खुदेजा की प्रत्येक कविता में पाया जा सकता है | उनकी “कार्बन- दो रूप” शीर्षक कविता पढ़ी जाना चाहिए | विशेष बात यह कि इस संग्रह की प्रत्येक कविता में कुछ न कुछ नया और रेखांकित करने योग्य मिल ही जाता है | मनःस्थिति को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता, कविता में तो कतई नहीं, फिर भी उनकी कुछ कविताओं से मनःस्थितियों को पढ़ा जा सकता है | “माँ में एक स्त्री को देखा” शीर्षक कविता का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि माँ में एक स्त्री देखना एक उलटबासी की तरह मालूम होता है किन्तु यह एक अलग अनुभूति है।
संग्रह की लगभग सभी कविताओं के विषय, अर्थ, विन्यास और तेवर अलग-अलग हैं | वृक्ष और पेड़ों पर भी पठन योग्य कई कवितायें हैं जिनके गंभीर अर्थ ध्वनित होते हैं | इन कविताओं में कामगारों और वंचितों की चिंताएँ भी शिद्दत से समाहित हैं | यह शाश्वत सत्य है कि कभी कोई जगह खाली नहीं रहती | जो कुछ भी रिक्त होता है वह स्वतः भर भी जाता है | मनुष्यता के खालीपन को भरने के लिए प्रेम से उपयुक्त और कुछ भी नहीं होता, किन्तु यदि यह अक्षरशः सिद्ध हो सके तो दुनिया कितनी खूबसूरत होगी ! जीवन इतनी उथल पुथल से भरा होता है कि मन की मिट्टी में प्रेम का बीज सहेजना अत्यंत कठिन होता है | “सिक्का” कविता में यह चिंता अलग तरह से सामने आती है, पंक्तियाँ देखें : “सोलह आने सच बोलने वाले
खत्म क्यों होते जा रहे हैं दुनिया से |”
ऐसा नहीं है कि खुदेजा की कविताओं में संवेदना मात्र मानव के लिए ही है | वे पशुओं को लेकर भी उतनी ही संवेदनशील हैं । इस संबंध में “घुरघुराहट” कविता का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें लिखा गया है कि पशु भाषा नहीं जानता किन्तु हमारे हाव-भाव और स्पर्श की भाषा वह बखूबी समझता है, स्पर्श की भाषा उसे अच्छी तरह आती है | “गलनांक” कविता में वे लिखती हैं : कठोर से कठोर
धात्विक स्वभाव को देखा है
प्रेम जनित ऊष्मा से पिघलते हुये |
खुदेजा ख़ान की सभी कविताएं निस्वार्थ प्रेम की हिमायती हैं |
दरअसल “सुनो जरा” संग्रह, कवि ने अंतर की आवाज़ सुनने का आह्वान किया है जिसमें शामिल ध्वनियाँ कवि के अकेले की व्याकुलता नहीं है बल्कि इसमें शामिल है सामाजिक चिंतन, कुछ बचा लेने की व्यग्रता, शीघ्र सब कुछ बदल देने की छटपटाहट, जाहिर पीड़ाओं को हर लेने की आकुलता | इन सबकी नींव में – समय है, समाज के उत्थान की मंशा है, मनुष्यता है और इसकी रक्षा के लिए जायज प्रश्न हैं, धर्म की विकृतियों पर प्रहार हैं, राजनीतिक शुचिता को बचाने की जद्दोजहद है, स्त्री अस्मिता के प्रति अपर्याप्त सजगता के लिए गुस्सा है, स्त्री के कोमल मन की कई परतों को प्रकट करती संवेदनाएं हैं और सार्थक चिंतन की असंख्य आवाज़ें हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए ।

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शैलेन्द्र शरण

जन्म 18 फरवरी 1958 को खण्डवा (म प्र)
सागर विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर, एम.कॉम, CAIIB
वागर्थ, हंस, वसुधा, अक्षरा, साक्षात्कार, समावर्तन, किस्सा कोताह, कथादेश, विभोम स्वर तथा अन्य पत्रिकाओं में विगत कई वर्षों से लेखन तथा आलोचना के क्षेत्र में हस्तक्षेप ।

कहानी लेखन ।
”कथादेश’ तथा अन्य पत्रिकाओं में  प्रकाशित |

आकाशवाणी इंदौर के पत्रिका कार्यक्रम में कई वर्षों तक कविता पाठ ।

साहित्यिक संगोष्ठियों के लिये शोधपरक लेखन ।

अब तक कविता की पांच किताबें तथा एक ग़ज़ल संग्रह

# कविता संग्रह ” रास्ता साफ होगा ” 1996
(मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा प्रथम कविता संग्रह के अंतर्गत चयनित)

# कविता संग्रह ” सच, समय और साक्ष्य ” 2018 (शिवना प्रकाशन- सीहोर म.प्र.)

# कविता संग्रह “ सूखे पत्तों पर चलते हुए “ 2022 (शिवना प्रकाशन)
(दो संस्करण {दोनों 2022})
# कविता संग्रह : “करीब था क्षितिज” 2023 शिवना प्रकाशन

# कविता संग्रह “पिकासो की उदास लड़कियाँ 2024 (न्यू वर्ल्ड प्रकाशन दिल्ली)

# ग़ज़ल संग्रह ” थोडी बातें, थोड़ी यादें, थोड़ा डर ” 2018 (शिवना प्रकाशन )

सम्मान :

# राष्ट्रभाषा भूषण सम्मान 2019 (महाराष्ट्र : अकोला )

# कवि श्रीकांत जोशी स्मृति, किस्सा-कोताह कविता सम्मान 2020 (मध्य प्रदेश : ग्वालियर)

# आदित्य संस्कृति डॉ अन्नपूर्णा भदोरिया स्मृति “साहित्य सृजक सम्मान”2021

# “अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान” भोपाल 2022

# हस्ताक्षर पत्रिका का “कविता सम्मान”

# “माँ कलावती जमड़ा काव्य बीज प्रेरणा सम्मान” 2022
चयनित काव्य कृति “सूखे पत्तों पर चलते” हुये पर

अन्य उपलब्धियां

# सह-संपादक : “शिवना साहित्यिकी” (त्रे-मासिकपत्रिका) शिवना प्रकाशन सिहोर (म.प्र.)

# कार्यकारी संपादक : “किस्सा कोताह (त्रे-मासिक पत्रिका) भिंड (ग्वालियर : म.प्र.)

पता :79, रेल्वे कॉलोनी, आनंद नगर खंडवा (म॰प्र॰) PIN 450001
मोबाइल : 89894 23676, 9098433544
ई-मेल: ss180258@gmail.com



ख़ुदेजा ख़ान

जन्म- भोपाल।
हाई स्कूल तक की पढ़ाई म.प्र.के शहरों में।
स्नातक- बी एस सी
स्नातकोत्तर- हिंदी व संस्कृत।

लेखन कर्म -1985 से
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) में निवासरत।

4 किताबें प्रकाशित।
हिंदी में ‘सपना सा लगे’ (ग़ज़ल संग्रह),2001
‘संगत'(कविता संग्रह)2014
ऊर्दू नज़्म का संग्रह ‘आबगीना’ 2018
हिंदी-ऊर्दू (bilingual)’ फ़िक्र ओ फ़न’ (2021)

कविता, समीक्षा और संपादन में सक्रियता।

 


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