कहानी

महानगर का बाहरी इलाका जो धीरे-धीरे आबाद हो रहा है, एक चलती-फिरती सड़क का तिराहा। दाँई और एक बड़ा ऊबड़-खाबड़ मैदान है जो दूसरी ओर की कच्ची सड़क से जुड़ता है। कच्ची सड़क के किनारे झुग्गी-झोपड़ियों की बस्ती है। तिराहे की बाई ओर की कुछ चौड़ी गली मरघट की ओर चली जाती है। निश्चित ही मैदान की जमीन झगड़े झंझट की रही होगी। अब तक यहाँ बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी होती। मैदान का उपयोग ‘शार्टकट’ के लिए ही किया जाता। दैत्याकार महानगरों में पैदल चलने वाले निरीह लोगों की संख्या छोटे शहरों की पूरी आबादी से भी अधिक होती है। इनकी जिंदगी यहाँ टाँगे घसीटते हुए बीत जाती है ।
खाली पड़ा यह मैदान मारे-मारे फिरने वाले चौथे दर्जे के इंसानों को जीने का एक ठिकाना देता है। छोटे जादूगर यहाँ अपने जादू के करिश्मे दिखलाते हैं, मदारियों के बंदर-बंदरियों के नखरे यहाँ देखे जा सकते हैं, यहाँ हवा में रस्से पर नट-नटनियों को हौले-हौले चलते हुए देखकर आप दाँतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाएँगे। बंजारे मैदान में अपनी चाकू हुरी, झरिया थेंथा, तवा-चिमटा, किसनी-मथनी आदि की दुकानें बोरों-फट्टों पर लगाते हैं। तरह तरह के गंडे-ताबीज यहाँ बिकते हैं। नंगे बदन ढोल पीटते हुए बच्चे की थाप पर भदरंगा लंहगा पहने और छप्पन छेद वाली चुन्नी ओढ़े हुए एक छोटी बच्ची को मैदान में मटकते-थिरकते हुए देखा जा सकता है। अद्भुत नज़ारे इस चमत्कारी मैदान की रौनक बढ़ा देते, भले ही आज के नए बाजार के लिए ये आलतू फालतू के मध्ययुगीन तमाशे हों।
मैदान के एक छोटे मार्ग पर अब्बू मियां का कब्जा है। पहले अबे ओ अब्बू, फिर अब्बू से वे कब अब्बू मियां हो गए, यह खुद उन्हें भी याद नहीं। मैदान और नज़दीकी इलाके के लिए अब वे अब्बू मियां ही हैं। यदि उनका कोई और नाम होगा तो उनके राशनकार्ड या मतदाता पहचान पत्र में दर्ज होगा, यदि इसमें उन्होंने रूचि ली होगी तो। कलाकार आदमी जो हैं। फक्कड़ मिजाज। मुसलमान हिंदू कह लो या हिंदू-मुसलमान। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लगभग चार दशक पहले अपनी भरी जवानी में वे मध्यप्रदेश के एक अन्चीन्हे कस्बे से इस महानगर में आ टपके थे कि यहाँ पर अपनी रूठी हुई किस्मत को आजमाएँगे। वे कस्बे के चित्रकार थे। वहाँ चाक खड़िया, आटा, पीली मिट्टी और सस्ते रंगों से खेलते। प्रायमरी तक की शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। कोई डिग्री डिप्लोमा नहीं। ड्राइंग कॉपी तक खरीदने की औकात नहीं थी तो ज़मीन पर ही आकृतियाँ उकेरते। घोड़ा बनाते तो लगता कि वह सरपट भागा. जा रहा है, लालटेन बनाते तो लगता कि वह प्रकाश बिखेर रही है। हिंदुओं के देवी- देवताओं के इतने जीवंत चित्र बनाते कि श्रद्धालु दर्शक उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते। कस्बे के लोग उन्हें शाबासी देते, उनका हौसला बढ़ाते पर प्रशंसा उनका पेट तो भरती नहीं थी, अलबत्ता मन को शांति मिलती।
एक दिन शहर से कस्बे आए एक पढ़े-लिखे व्यक्ति ने उनकी कलाकारी को देखते हुए कहा था, लड़के, तुम तो जन्म जात कलाकार हो। तुमने चित्र बनाने के लिए ही जन्म लिया है। रंगों की उत्पत्ति भी तुम्हारे लिए ही हुई है। छोटी जगह में अपना जीवन क्यों व्यर्थ कर रहे हो तुम ? तुम्हें तो बड़े शहर में रहना चाहिए। वहाँ तुम्हारी कला का सम्मान होगा। वहाँ के पारखी तुम्हारी चित्रकारी को सराहेंगे और तुम्हें जमीन से आसमान में पहुँचा देंगे और बीस इक्कीस साल के उस लड़के ने गाँठ बाँध ली कि वह बड़े शहर में ही जाकर दम लेगा। आगे बढ़ने की, कुछ कर दिखलाने की इच्छाएँ किलकारियाँ मारने लगी।
अब्बू मियां अपने कस्बे से तहसील के रेलवे स्टेशन तक पैदल चलकर ही पहुँचे, कंधे पर अपना झोला टाँगे और सिर पर बोरी लादे हुए। पंन्द्रह किलोमीटर की दूरी उन्हें उन चित्रों की तरह प्यारी लगी जो वे महानगर में बना कर अपनी पहचान बनाना चाहते थे। तीन अलग-अलग रेलगाड़ियों में बैठकर उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की और महानगर में आ गए। चेकिंग के दौरान दो स्टेशनों पर गाड़ी से उतार दिए गए। अब अब्बू मियाँ उम्र का छठवां दशक पार कर चुके थे। शहर ने उनका स्वागत नहीं किया, उन्हें जमीन से आसमान पर नहीं पहुंचाया लेकिन खदेड़ा भी नहीं। वे अपने सपनों को बिखरते हुए देखते रहे लेकिन हताश नहीं हुए। शुरूआती दिनों में उन्हें सिनेमा के पोस्टर बनाने का काम भी नहीं मिला। हर जगह तो मारामारी थी। उन्होंने परिस्थितियों के साथ समझौता कर लिया। कोई शिकायत नहीं। ‘ जिसने चोंच दी है, वह दाने भी देगा’, वे विश्वास करते रहे और मस्ती भरा जीवन जीते रहे। इस मैदान में उनकी नमक-रोटी की तलाश पूरी हुई। रोज सुबह नौ बजे आ जाते हैं अब्बू मियां अपना झोला लेकर मैदान में। कच्ची सड़क के पार की बस्ती में उनकी झोपड़ी है। अपनी जगह में वे पहले झाडू लगाते, फिर पानी से सींचते। कुछ देर तक सूखने की प्रतीक्षा करते, बीड़ी में फूंक मार-मार कर। और तब झोले से अपना खज़ाना निकालते-चाक, खड़िया पीली मिट्टी, आटा, तरह-तरह के रंग…। उन्हें स्केल की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं। पहले वे जमीन पर चाक से आकृति उकेरते, फिर उसमें हौले हौले रंग भरते। कहाँ किस रंग का प्रयोग करना है, वे यह बखूबी जानते। लगभग आधे घंटे की मेहनत के बाद जमीन के उस भाग पर कभी गणेश जी तो कभी शंकर जी, कभी हनुमान जी तो कभी राम दरबार, कभी काली माँ, दुर्गा माँ, सरस्वती जी, तो कभी राधा-कृष्ण दिखलाई देने लगते। अब्बू मियां पूरी श्रद्धा के साथ एक ओर चार अगरबत्तियाँ खोंस देते और कुछ हटकर बैठ जाते।
आते-जाते लोग मुग्ध भाव से अब्बू मियां की कलाकारी को निहारते। विस्मित होते कि इस अनाम चित्रकार के हाथों में कितना हुनर है, कैसा जादू है। लोग इन धार्मिक चित्रों पर रुपया-दो रुपया चढ़ा देते और हाथ जोड़ते आँखें मूंदे हुए। कभी- कभी कोई कलाप्रेमी भगवान के चरणों में पाँच रुपये भी रख देता। मिंया किसी से कुछ नहीं कहते। उनका एक चित्र दो घंटे के लिए ही होता। वे पैसे समेटते, फिर रंगों को भी। जमीन साफ करते पर इस बार झाडू से नहीं, एक साफ कपड़े से और फिर दूसरी आकृति उकेरने लगते। वे दिन में तीन चित्र ही बना पाते। दिन ढलने से पहले उनके पास इतने पैसे तो हो ही जाते कि दूसरे दिन वे अपना और परिवार का पेट भर लें। शाम को अपनी झोपड़ी की और बढ़ते हुए वे गुनगुनाते- ‘जादा की नहीं लालच
हमको, थोड़े में गुजारा होता है…।’
मैदान में एक ओर टूटी-फूटी दीवार से सटकर लगभग तीस वर्ष का एक युवक भी बैठा रहता। पुरानी दरी पर उसकी दुकान सजी रहती। टीन की पेटी में छोटे-मोटे औजार भरे रहते। मुख्य काम तो जूतों में पालिश करना ही होता लेकिन वह पुराने जूतों-चप्पलों की काम चलाऊ मरम्मत भी कर देता। महानगरों में भी तो उन लोगों की भरमार है जो फुटपाथी दुकानों से सस्ते जूते-चप्पल खरीदते हैं और जो राह चलते टूटते रहते हैं। मम्मू इस तरह के लोगों का कारीगर है। नई पीढ़ी के युवाओं को अपना चेहरा और अपने जूते चमकाने का शौक है तो खाते-पीते घरों के लड़के उसकी दुकान पर आते-जाते रहते। दस साल पहले मध्य प्रदेश के ही एक छोटे शहर से मदनलाल इस महानगर में घर से भाग कर इस आशा में आ धमका था कि यहाँ दूरदर्शन के धारावाहिकों में अभिनय कर सकने की राह तलाशेगा। दरअसल स्कूल में मंचित होने वाले नाटकों में अभिनय का प्रथम पुरुस्कार लगातार तीन वर्षों तक प्राप्त करते रहने के बाद मम्मू को यह भ्रम हो गया था कि वह एक होनहार अभिनेता है। एक बार तो यहाँ एक सीरियल में एक मोची की छोटी भूमिका भी मिलते-मिलते नहीं मिली। उसका दिल टूट गया और वास्तविक जिंदगी में वह मैदान में मदनलाल की जगह मम्मू मोची बनकर बैठने लगा। हज़ारों बुराइयों के बाद भी इस बड़े शहर में एक अच्छाई, तो है ही कि यहाँ कोई एक दूसरे से उसकी जाति नहीं पूछता। अपनी ऊँची जाति मदनलाल भूल चुका है। जूतों में पालिश करता है और अब मम्मू मोची है।
अब्बू मियां और मम्मू की खूब छनती। दोनों एक ही प्रांत के और कस्बाई मिजाज़ के, तो खाली होने पर गपियाते, दुनिया-जहान की बातें करते। उनकी दुनिया मैदान और झुग्गी-झोपड़ी की बस्ती तक ही रहती। कभी-कभी चर्चा में मियां का कस्बा और मम्मू का नन्हा शहर भी शामिल हो जाता। मियां मम्मू के चेहरे में अपने अतीत को तलाशते तो मम्मू को उनके चेहरे में अपने भविष्य की परछाई दिखलाई देती। दोनों को काल और भाग्य ने मैदान में ठेल दिया।
‘बेटा, तुम भी मेरी तरह जिंदगी भर यहीं चिपके रहोगे। मैं तो हमेशा यही दुआ करता हूँ कि यह मैदान हमेशा खाली पड़ा रहे। भूमाफिया की नज़र न लगे। रूखी- सूखी रोटी तो हमें यह दे ही देता है और हम भीख माँगने का पाप भी नहीं करते।’ अब्बू मियां मम्मू को बेटा कहते ही नहीं, मानते भी हैं।
मम्मू उन्हें अब्बा कहता है जो उन्हें बहुत अच्छा लगता। उनकी तीन बेटियाँ हैं और तीनों की शादी हो चुकी है। बेटियों की शादी उन्होंने अपने कस्बे के करीबी गाँवों में ही की है। महानगर आज भी उन्हें आतंकित करता है।
‘अब्बा, मैं यहाँ अभिनेता बनने आया था और जिंदगी के रंगमंच पर मोची का अभिनय कर रहा हूँ। पूरी ईमानदारी के साथ।’ मम्मू हँसना चाहता है लेकिन हँस नहीं पाता।
एक अजीब आदत है मम्मू मोची की। जब कभी कोई अरथी श्मशान की ओर जाने वाली गली पर मुड़ती है, शववाहन पर या चार लोगों के कंधों पर तो वह देखता ही रहता है। यहाँ रहते हुए वह दो बार ही अपने शहर, अपने घर जा पाया। पहली बार बाप के और दूसरी बार माँ के मरने पर। उसने दोनों को कंधा दिया। दोनों का अंतिम संस्कार किया। दोनों की मुखाग्नि दी और अपने शहर, अपने घर से उसका नाता हमेशा के लिए टूट गया। माँ-बाप से वह झूठ बोलता रहा कि वह महानगर में एक नाटक मंडली से जुड़ा है। जूतों में पालिश कर वह इतना कमा लेता था कि हर माह कुछ रुपये घर भेज सके। मम्मू हमेशा यह सोचकर खुद को तसल्ली देता कि यह जिंदगी भी तो एक नाटक है।
जब कभी मम्मू मोची के पास कोई काम नहीं होता और कोई शवयात्रा मरघट की ओर मुड़ती तो वह भी अपरिचित व्यक्ति की अंतिम यात्रा में शामिल हो जाता। पूरे कर्मकांड देखता रहता और जब धू-धू कर दहकती चिता में चंदन की लकड़ी के पाँच टुकड़े विसर्जित कर लोग वापस होने लगते तो वह भी मैदान में लौट आता।
अब्बू मियां कहते, ‘बेटे, जनाजे में शामिल हो जाने का तुम्हारा यह शौक तो मेरी बुद्धि में नहीं बैठता। कोई जान-पहचान नहीं, फिर भी मरघट पहुँच जाते हो और रोनी शक्ल लिए लौटते हो। तुम्हारे कई ग्राहक लौट चुके हैं।’
‘अब्बा, अपने मां-बाप को मैंने आग दी थी। अपने शहर के मरघट में आख़िरी बार उनका मुंह देखा था। शवयात्रा में शामिल होकर मैं उन्हें याद कर लेता हूँ। मन को शांति मिलती है। ग्राहकों का क्या, आते जाते रहते हैं।’ मम्मू पुराने जूते की मरम्मत में भिड़ जाता।
तभी पालिश कराने कोई आ जाता। पहले वह अब्बू मियां की लक्ष्मी मां के चरणों में दो रुपये चढ़ाता।
अखिल का आना-जाना महानगर में लगा ही रहता। युवा चित्रकार है। धीरे धीरे अपनी पहचान बना रहा है। यहाँ आने पर इस इलाके में ही कहीं ठहरता और ‘शॉर्टकट’ के लिए मैदान का प्रयोग करता। अब्बू मियां को चित्र बनाते हुए देखता तो रूक जाता। उनसे बातचीत करते हुए अखिल को अच्छा लगता। दोनों ठहरे कला की दुनिया के आदमी तो उनके बीच आत्मीयता का रिश्ता बन गया। कभी-कभी वह मम्मू से जूतों में पालिश भी करा लेता। दोनों की आपबीती से अखिल परिचित हो चुका था और उनकी मदद भी करना चाहता पर उसकी अपनी मजबूरियाँ थीं। जब कभी उसकी कोई पेटिंग बिक जाती तो वह अब्बू मिया के चित्र पर सौ रुपये का नोट रख देता और मम्मू को जूते चमकाने के बीस रुपये देता। कितनी ही बार उसने अब्बू मिंया के आग्रह पर उनके और मम्मू के साथ मैदान में बैठकर चाय की मीठी चुस्कियाँ ली।
आठ महीने बाद अखिल मैदान से गुज़रा तो वहाँ अब्बू मियां दिखलाई नहीं दिए। उनकी जमीन पर मम्मू को चित्र बनाते हुए देखकर वह चौंका। मम्मू ने जो चित्र बनाया, वह मियां के चित्र से फीका नहीं दिखा। तो क्या मम्मू भी चित्रकार है, अखिल को आश्चर्य हुआ। मम्मू की मोची की दुकान भी वहाँ दिखलाई नहीं दी।
‘अब्बू मियां नहीं दिख रहे हैं? और तुम चित्र बना रहे हो। पहले तो कभी तुम्हें चित्र बनाते हुए नहीं देखा।’ अखिल ने पूछा।
अपना काम रोक दिया मम्मू ने। चित्र बनाने की खुशी कहीं खो गई। आँखों में नमी छा गई, ‘अब्बा तो भगवान के घर चले गए। उन्हें उनके खुदा ने बुला लिया।’ उसने आकाश की ओर तर्जनी उठा दी।
‘कब?’ झटका लगा अखिल को किसी अपने से बिछुड़ जाने का। वह मैदान में बैठ गया। चारों ओर अब्बू मियां का चेहरा दिखलाई देने लगा।
‘चार महीने हो चुके हैं। यहीं झुके- झुके चित्र बना रहे थे माँ शारदा का। अधूरे चित्र पर लुढ़क पड़े और फिर उठे ही नहीं। मुझे अकेला छोड़ गए, दुनिया की ठोकरें खाने के लिए। मैं अनाथ हो गया।’ बच्चे की तरह बिलखने लगा मम्मू। उसके कंधे पर हाथ रख दिया अखिल ने, ‘तुम्हारी दुकान नहीं दिख रही है। तुम तो बहुत अच्छे चित्र बना लेते हो। क्या पहले भी चित्रकारी करते थे, अखिल ने पूछा। ‘मैंने तो क्या, मेरे पुरखों ने भी कभी चित्रकारी नहीं की। कभी एक चिड़िया तक नहीं बनाई। आप तो जानते हैं कि मैं मोची हूँ।’ मम्मू ने कहा।
‘फिर तुमने इतना अच्छा चित्र कैसे बना दिया?’ अखिल की निगाह जमीन पर उकेरे गए राधा-कृष्ण पर केंद्रित रही।
‘यह तो मुझे भी नहीं मालूम। अब्बा ने भी चित्र बनाने की शिक्षा-दीक्षा नहीं ली थी। वे कहते थे कि उनके भेजे में तरह- तरह के चित्र भरे हुए हैं। वे उन चित्रों को अपनी आँखों में उतार लेते और फिर हाथ में चॉक लेकर उन्हें जमीन पर उकेर देते। ज़रूरी रंग भर देते और चित्र तैयार हो जाते। मैं अब्बा को बनाते हुए देखता रहता था।
उनके न रहने पर एक दिन मेरे मन में विचार उठा कि तरह-तरह के चित्र तो मेरे दिमाग में भी भरे हुए हैं। क्यों न उन्हें आँखों में उतार कर जमीन पर उकेरूँ। पहली बार कोशिश की और अच्छी आकृति बन गई। मैंने उसमें रंग भरा और अपने ही चित्र को आश्चर्य से देखता रहा। अब्बा का रंगों का झोला तो मेरी टीन की पेटी में ही रखा रहता था। उनकी खूब याद आई। आज भी आती है। वे मुझे, अपने बेटे को अपनी आँखें और अपने हाथ देकर ऊपर गए हैं।’ मम्मू की आँखों का खारा पानी गालों पर चूने लगा।
अखिल का मन भी भीग गया। मम्मू के बनाए चित्र को देखते हुए पूछा- ‘अब्बू मियां की तरह तुम भी धार्मिक चित्र ही बनाते हो। हिंदुओं के देवी-देवताओं के। कुछ और क्यों नहीं बनाते ?’
‘अब्बा कहते थे कि देवी देवता हम सबके हैं। वे ताजमहल, लालकिला, कुतुबमीनार, पहाड़, नदी, जंगल, जानवर आदि बना सकते थे लेकिन इन चित्रों में लोग रुपये नहीं चढ़ाते। धार्मिक चित्रों पर श्रद्धाभाव से लोग रुपये चढ़ाते। अब्बा को अपना और परिवार का पेट भी तो भरना था। मैं भी यही कर रहा हूँ।’ मम्मू ने कहा और अपने चित्र को देखने लगा जहाँ कुछ रुपये बिखरे हुए थे।
अचानक अखिल की निगाह एक और कुछ हट कर रखी एक जोड़ी चप्पल पर पड़ी जो एकदम नई तो नहीं थी लेकिन आकर्षक थी। महंगी रही होंगी। मम्मू से पूछा उसने- ‘ये चप्पल तुम्हारी हैं? बहुत खूबसूरत हैं।’
मम्मू सकुचा गया, ‘भैया, मैं तो चप्पलों की मरम्मत करता रहा हूँ। इतनी महंगी चप्पल मेरी कैसे हो सकती हैं। हुआ कुछ यूँ कि एक दिन मैं एक अरथी के पीछे-पीछे मरघट चला गया। अब्बा के न रहने के बाद काम में मन तो लगता नहीं था। किसी नामी आदमी की मिट्टी थी। बड़े-बड़े लोग शवयात्रा में शामिल थे। उनमें एक सफेद दाढ़ी वाला व्यक्ति भी था जो बार-बार रूमाल से अपनी आँखें पोंछ रहा था। शायद उसके बहुत प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हुई थी। दाह क्रिया पूरी हो जाने के बाद जब लोग लौटने लगे तो उस आदमी ने अपनी चप्पल वहीं छोड़ दी और नंगे पैर वापस चला गया। मैंने अपने हाथ से चप्पल उठा लीं और यहाँ ले आया। अब्बा की कसम, मैंने इन्हें कभी अपने पैरों में नहीं डाला।’ उसने चप्पल की ओर देखते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई ‘मैदान में आया तो यह इच्छा जागी कि मैं भी अब्बा की तरह चित्र बनाऊँ। और मैंने अपनी दुकान बंद कर दी। अब्बा की तरह मैदान में झाडू लगाई, पानी से सिंचाई की और चॉक से चित्र उकेरना शुरू कर दिया। दिमाग में तो चित्र भरे पड़े थे, उन्हें आँखों तक उतारकर ले आया, और हाथ में चॉक पकड़ ली… आप देख ही रहे हैं कि चित्र बन जाते हैं।’
अखिल यादों में खो गया। स्मृतियों से उलझने लगा। कवि मुक्तिबोध याद आ गए। यह भी याद आया कि विश्व के बड़े चित्रकार मक़बूल फिदा हुसैन ने किसी श्यमशान में अपनी चप्पल छोड़ दी थी और फिर वे आजीवन नंगे पैर ही रहे।
बड़ी देर तक अखिल चप्पल की उस जोड़ी को मुग्ध मन से देखता रहा। तो क्या ये चप्पल, मक़बूल की हैं।



सुबोध कुमार श्रीवास्तव
जन्म : 25 अक्टूबर 1943, दमोह , मध्य प्रदेश
प्रकाशित कृतियाँ-
उपन्यास:
1. राजधानी में आठ दिन
2. हीरा परा बज़ार में
लघु उपन्यास:
1. रात और मौत के आगे आगे
2. चिरैया गाँव की चिड़िया
कहानी संग्रह:
1. रक्तदान
2. लकीर
3. हर दिन अकाल
4. कुछ कुछ अपना
[प्रकाशनाधीन- मक़बूल की चप्पल] व्यंग्य संग्रह:
1. शहर बंद क्यों है ?
2. बचिए ! भभूत गिर रही है
3. गति- अवरोध
सम्मान:
# मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार
# प्रथम राधिका नायक स्मृति सम्मान
# परसाई स्मृति सम्मान
# मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण
कुछ रचनाएँ गुजराती, मराठी, पंजाबी, मलयालम, उर्दू एवं नेपाली भाषा में अनूदित
स्थायी पता :
अशोक कॉलोनी
कटनी , मध्य प्रदेश
वर्तमान पता :
जी-1/102, गुलमोहर कॉलोनी
भोपाल , मध्य प्रदेश -462039
मोबाइल – 9907564010


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