कहानी

सुबह साढ़े पांच बजे मोबाइल की घंटी बजी.
इतनी सुबह फोन सदैव मेरे मस्तिष्क में एक ही विचार को जन्म देता है कि ’कुछ सही नहीं.’ हर बार नहीं लेकिन अनेक बार मेरी आशंका सही सिद्ध होती रही.
फोन बंगलौर से नरोत्तम प्रसाद का था. छूटते ही बोले, “रमेश, एक बुरी खबर देने के लिए फोन कर रहा हूं”. मैं कुछ कहता इससे पहले ही बोले, “अपने विभाग के पूर्व महानिदेशक वफ़ा साहब नहीं रहे. वही वफ़ा साहब जो मंत्रालय में पूर्व वित्तीय सलाहकार बन गए थे.”
“कैसे? क्या हुआ? क्या कोरोना के शिकार हुए?” एक साथ कई प्रश्न मैंने दाग दिए. लेकिन नरोत्तम प्रसाद ने केवल इतना ही कहा, “अभी और लोगों को भी सूचना देना है. फिर बात करूंगा.” और फोन काट दिया.
वफ़ा साहब का चेहरा आंखों के सामने घूम गया. उन्हें अवकाश ग्रहण किए हुए कम से पचीस वर्ष हो चुके थे. स्पष्ट है कि इस समय उनकी आयु पचासी वर्ष रही होगी. मंत्रालय में वित्तीय सलाहकार बनकर जाने से पहले वह मंत्रालय के उस विभाग के प्रधान कार्यालय में महा-निदेशक पद पर रहे थे. मैं तब उसी कार्यालय में था. उनके एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान मैंने उन्हें एक बार गैलरी में जाते और दूसरी बार ऑफिस के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को ऑफिस के एक बड़े हॉल में सम्बोधित करते हुए देखा था. वह सभा एक बड़े नेता के जन्मदिन के अवसर पर सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को साम्प्रदायिक सद्भाव की शपथ दिलाने के लिए की गयी थी. एक वर्ष पहले ही एक आतंकवादी हमले में उस नेता की मृत्यु हुई थी और उसकी मृत्यु के पश्चात सरकार ने उसके जन्मदिन को ’साम्प्रदायिक सद्भाव दिवस’ घोषित किया था. हालांकि उस नेता पर एक समुदाय विशेष के कितने ही लोगों की हत्या करवाने का आरोप था. लेकिन वह बड़ा नेता था और हमारे देश में बड़े नेता आरोपमुक्त रहते हैं. सदैव आरोप लगाने वाले ही कटघरे में रहते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि बड़ा नेता बनने के लिए कुछ हत्याएं,बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देना आवश्यक होता है. इस देश के लोगों का चरित्र ही ऎसा हो गया है कि वे उसे ही बड़ा नेता मानते हैं जो अनेक आरोपों से घिरा होता है. फिर वह नेता—- उसे तो सत्ता विरासत में मिली थी और ऎसे विरासत वालों पर आरोप?
बात मैं वफ़ा साहब की कर रहा था. वफ़ा साहब, लंबे, सुडौल, गेहुंआ रंग, बड़ी और तीक्ष्ण आंखें, चौड़ा चेहरा, चाल में आभिजात्यता, और बातचीत में मिठास. जब उन्हें गैलरी में देखा तब वह चार अपर-महानिदेशोकों से घिरे हुए थे. उन्हें सदैव अपने पद का अहसास रहता इसलिए अपने साथ वह कभी भी अपर-महानिदेशक से नीचे के अधिकारी को लेकर नहीं चलते थे. उनसे छोटे स्तर के अधिकारियों को यदि कोई आदेश उन्हें देना होता तब वह संबद्ध अपर-महानिदेशक को देते और आदेश उस अधिकारी तक पहुंच जाता. अपर-महानिदेशक संयुक्त महानिदेशक को उनका आदेश सुनाता, वह अपने अधीनस्थ उप को और उप अपने से नीचे—एक चेन थी जिसका अनुपालन सख्ती से किया जाता. लेकिन ऎसा केवल कार्यलयीय कार्यों के लिए होता. व्यक्तिगत मामलों में वफ़ा साहब बहुत उदार थे. यद्यपि वह एक वर्ष ही महानिदेशक के पद पर रहे थे, लेकिन उस अल्प-काल में ही उन्होंने स्टाफ का मन जीत लिया था. वह पहले महानिदेशक थे जिन्होंने दीपावली के दौरान सभी कर्मचारियों और अधिकारियों की दीपावली चमकदार बना दी थी. ’विविध’ खर्चों के लिए, जिसे सरकारी भाषा में ’मिसलेनियस’ कहा जाता है, सरकार से मिलने वाली राशि से उन्होंने अच्छी राशि प्रदान की थी जिससे स्टाफ और अधिकारियों को उपहार दिए गए थे. उनके रहते कभी किसी कर्मचारी को पीएफ से पैसे निकालने में कभी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा, जबकि उनसे पहले और उनके बाद पीएफ से अस्थाई या स्थायी राशि निकालने वाले को उस सीट पर काम करने वाले बाबू को पीएफ से निकाली जाने वाली राशि का दो प्रतिशत देना होता था. उस दो प्रतिशत में उस अनुभाग के चपरासी,बाबू,अनुभाग अधिकारी और लेखाधिकारी का पदानुरूप हिस्सा होता. लेकिन वफ़ा साहब के कार्यकाल के दौरान यह प्रथा बंद रही थी.

वफ़ा साहब एक ऎसे परिवार से थे जहां उर्दू और हिन्दी का प्रयोग होता था. उनके दादा उर्दू के विद्वान थे तो पिता हिन्दी प्रोफेसर. लखनऊ के एक समृद्ध कायस्थ परिवार से थे. पिता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थे और वहीं बस गए थे. पिता को उर्दू विरासत में मिली थी और हिन्दी में रुचि होने के कारण उन्होंने उसमें ही पी-एच.डी की और विश्वविद्यालय में लग गए. खानदानी उपनाम सक्सेना था, लेकिन वीपी वफ़ा अर्थात विजेन्द्र प्रसाद वफ़ा के पिता को शायरी का शौक था. हिन्दी प्रोफेसर थे, लेकिन लिखते उर्दू में थे, अपना तखल्लुस ’वफ़ा’ रखा हुआ था और वह विश्वविद्यालय से लेकर शायरी की दुनिया में इसी नाम से पहचाने जाने लगे. उन्होंने अपने दोनों बेटों के नाम के साथ भी अपना उपनाम जोड़ दिया और वह वीरेन्द्र प्रसाद सक्सेना के बजाए वीरेन्द्र प्रसाद वफ़ा हो गए थे. आगे चलकर वीरेन्द्र प्रसाद वफ़ा मात्र वीपी वपा रह गए. विभाग में वह वफ़ा साहब के नाम से प्रख्यात थे.
जैसाकि हर विभाग में होता है ऑफिस से लेकर घर तक बड़े अधिकारियों की सुख-सुविधा का खयाल रखने के लिए विभाग में कुछ लोगों की एक टीम होती है जिसका इंचार्ज वहां का प्रशासनिक अधिकारी होता है. हर सुबह एक बाबू और एक कैजुअल लेबर की ड्यूटी वफ़ा साहब के घर के कामों के लिए लगायी जाती थी. जिस बाबू की ड्यूटी उनके घर के कामों के लिए लगायी जाती उसे वफ़ा साहब के पीए से पूछकर वफ़ा साहब से मिलना होता. बहुत प्रेम से वफ़ा साहब उसे काम की एक सूची सौंपते जिसमें उसके लिए उनके घर के दिनभर के काम होते. जो काम कौजुअल लेबर के करने के लिए होते, बाबू उसे समझा देता, जिनमें विशेष रूप से वफ़ा साहब के बंगले के बगीचे में पौधों की देखभाल से लेकर उनके घर की साफ-सफाई का ही काम होता—कभी-कभी घर वालों के कपड़े भी उसे धोने होते. शेष काम बाबू स्वयं करता, और वे काम उसे श्रीमती वफ़ा बतातीं. जब श्रीमती वफ़ा को कहीं जाना होता तब बाबू को ऑफिस की ओर से गाड़ी उपलब्ध करवायी जाती और वह श्रीमती वफ़ा के साथ दिनभर उनके बॉडीगार्ड की भूमिका में रहता. बल्कि उससे अधिक भूमिका होती उसकी. उनके साथ खरीददारी करते समय सामानों से भरे थैले उसीके कंधे पर झूलते.
श्रीमती वफ़ा साहित्य प्रेमी थीं और अंग्रेजी में कहानियां लिखती थीं. उनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे, लेकिन उन्हें इस बात की पीड़ा थी कि उन्हें अंग्रेजी में वह पहचान नहीं मिल पा रही थी जिसकी हकदार वह अपने को मानती थीं. उन्हें यह भी लगता कि भारत में अंग्रेजी के बजाय यदि वह हिन्दी में अपनी कहानियां प्रकाशित करवाएं तब उन्हें अच्छी पहचान मिल सकती है और हिन्दी के सम्पादक उन्हें हाथों-हाथ लेंगे. उन्हें जानकारी दी गई कि हिन्दी के सम्पादक -प्रकाशक उच्चाधिकारियों और उनकी पत्नियों से प्रभावित रहते हैं. एक दिन उन्होंने वफ़ा साहब से इस बाबत चर्चा की और अपनी कहानियों के अनुवाद के लिए कार्यालय के हिन्दी अधिकारी की सेवाएं लेने की सलाह दी. अगले ही दिन वफ़ा साहब ने हिन्दी अधिकारी नरोत्तम प्रसाद को तलब किया. नरोत्तम प्रसाद की टांगे कांपने लगीं. उन्हें लगा कि निश्चित ही उनके किसी अनुवादक ने कोई बड़ी गलती की है और गलती उनकी नज़रों से गुजरकर वफ़ा साहब तक जा पहुंची है. अब उनकी खैर नहीं. उन्हें हर समय अपने स्थानांतरण का भय सताता रहता था, जो किसी भी कर्मचारी के लिए मृत्युदंड पाने से कम नहीं था.
नरोत्तम प्रसाद मध्यम कद के दुबले-पतले व्यक्ति थे—इतना दुबले कि तेज हवा में फंस जाने पर वह सड़क किनारे टागों के बीच सिर देकर बैठ जाया करते थे. दिल से भी कमजोर थे. कांपती टांगों वह वफ़ा साहब के चैंबर के बाहर जा खड़े हुए. चपरासी ने उन्हें इस प्रकार घूरकर देखा कि जैसे वही महानिदेशक था. सरकारी कार्यालयों में चपरासी का रुतबा उसके अधिकारी से तय होता है. बड़े अधिकारी के चपरासी को जब किसी छोटे अधिकारी के पास बैठा दिया जाता है तब उसका रुतबा घट जाता है. प्रायः बड़े अधिकारी से मिलने के लिए लोगों को उसके पीए और चपरासी की चाटुकारिता करते देखा गया है. चपरासी तने स्वर में बोला, “नरोत्तम जी यहां खड़ा होना सख्त मना है.” उसने दीवार पर लटकी प्लेट पर लिखे अक्षरों की ओर इशारा किया.
“मुझे बड़े साहब ने बुलाया है.”
“तो पीए साहब से मिलिए. यहां खड़े न हों. मेरी नौकरी का खयाल रखें.”
नरोत्तम प्रसाद डरते हुए पीए के केबिन में घुसे. पीए ही ने उन्हें फोन करके वफ़ा साहब का संदेश दिया था. उन्हें देखते ही पीए, जो फोन पर किसी से बातें कर रहा था, हाथ के इशारे से कहा कि साहब उनका इंतजार कर रहे हैं. वह चपरासी के पास पहुंचे और बोले, “साहब मेरा इंतजार कर रहे हैं.”
“एक मिनट रुकें. मैं पूछ लूं.” ऑफिस से मिले गहरे नेवी ब्लू रंग के कपड़ों में सजा, जिसमें उसकी छाती के पास ऑफिस का नाम लिखी लाल पट्टी चिपकी हुई थी, तनकर चलता हुआ चपरासी वफ़ा साहब के चैंबर में प्रविष्ट हुआ और एक मिनट बाद लौटकर नरोत्तम प्रसाद को अंदर जाने के लिए कहा. वफ़ा साहब के चैंबर में प्रविष्ट होते ही नरोत्तम प्रसाद को लगा कि वह किसी स्वर्ग में पहुंच गए थे. वफ़ा साहब ने बहुत उत्साह से उनका स्वागत किया. बैठाया. घण्टी बजाकर चपरासी को चाय लाने का आदेश दिया. उनके परिवार और उनके विषय में संक्षेप में जानकारी ली. तब तक चाय आ गयी. नरोत्तम प्रसाद इस बात से अभिभूत थे कि वफ़ा साहब उनके साथ चाय पी रहे थे. चाय पीते हुए वफ़ा साहब ने नरोत्तम की साहित्यिक रुचि के विषय में पूछा.
“सर, जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था कविताएं लिखा करता था, लेकिन नौकरी में आने और गृहस्थी में उलझने के बाद सब पीछे छूट गया.” नरोत्तम ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय का जिक्र जानकर –वफ़ा साहब को प्रभावित करने के लिए किया था, क्योंकि वह भी उसी विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे. लेकिन इसका कोई प्रभाव नरोत्तम ने वफ़ा साहब के चेहरे पर नहीं देखा.
चाय समाप्त भी नहीं हुई थी कि वफ़ा साहब बोले, “आप बहुत अच्छे अनुवादक हैं.”
नरोत्तम प्रसाद का चेहरा खिल उठा. यही वफ़ा साहब देखना चाहते थे. इसीलिए क्षणभर के लिए वह रुके थे. उन्होंने पत्नी सावित्री वफ़ा का पहला कहानी संग्रह नरोत्तम प्रसाद के सामने रखते हुए कहा, “मेरी पत्नी अंग्रेजी में कहानियां लिखती हैं. आप इन कहानियों का हिन्दी अनुवाद कर दें.”
एक क्षण के लिए नरोत्तम प्रसाद का चेहरा उतर गया, लेकिन इतने बड़े अफसर के सामने मातमी चेहरे से बैठने के दुष्प्रभाव भी वह जानते थे. तुरंत चेहरे पर मुस्कान चिपकाते हुए बोले, “माय प्लेज़र सर.” नरोत्तम प्रसाद के यह कहने के साथ ही वफ़ा साहब ने मेज पर रखी एक फाईल उठा ली और नज़रें उसमें झुका लीं. यह नरोत्तम प्रसाद के जाने का संकेत था.
बच्चों के होम वर्क और पत्नी के बाजार जाने के प्रस्ताव को नकारते हुए रातों-दिन एक करके नरोत्तम प्रसाद ने सावित्री वफ़ा की कहानियों के अनुवाद एक सप्ताह में कर दिए. अनुवाद के बाद एक-एक कहानी वह ऑफिस में अपने टाइपिस्ट को टाइप के लिए देते रहे थे. पूरा संग्रह टाइप होने के बाद उन्होंने बाजार में बाइण्डर से बहुत सुन्दर ढंग से उन्हें बाइण्ड करवाया और उत्साह से भरे हुए वफ़ा साहब के पीए के पास जा पहुंचे बाइण्ड किए हुए संग्रह को किसी उपहार की भांति हाथ में थामे.
“क्या है?” रूखे स्वर में पीए ने पूछा.
“बड़े साहब को देना है.”
“मेरे पास छोड़ दें. पहुंच जाएगा.”
“लेकिन—-.”
पीए ने सिर उठाकर नरोत्तम प्रसाद को देखा और रूखे स्वर में ही बोला, “साहब अभी बिजी है. मैं पहुंचा दूंगा. जरूरी होगा तब साहब आपको बुला लेंगे.”
वफ़ा साहब के साथ एक और चाय पीने की अधूरी तमन्ना लिए नरोत्तम प्रसाद अपनी कुर्सी पर आ बैठे. दो सप्ताह बाद उन्होंने सावित्री वफ़ा की एक कहानी एक राष्ट्रीय अखबार के रविवासरीय परिशिष्ट में छपी देखा. अनुवादक के रूप में वह अपना नाम खोजते रहे लेकिन दो बार कहानी को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर देखने के बाद भी उन्हें अपना नाम नहीं दिखाई दिया. उसके बाद सावित्री वफ़ा की सभी कहानियों को उन्होंने अखबारों और पत्रिकाओं में छपते देखा लेकिन किसी भी कहानी के साथ उनका नाम नहीं था. उनकी कहानियों के प्रकाशित होने का सिलसिला चल ही रहा था कि एक दिन वफ़ा साहब ने उन्हें फिर याद किया. इस बार उनका नया प्रस्ताव उनके सामने था. उनके हिन्दी ज्ञान की प्रशंसा करते हुए उन्होंने अपनी अंग्रेजी-दा बेटी को ऑफिस के बाद हफ्ते में तीन दिन हिन्दी पढ़ाने के लिए कहा. “उसकी हिन्दी कमजोर है. आप उसे सोमवार,बुधवार और शुक्रवार पढ़ा दिया करेंगे.”
“जी सर.” चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए नरोत्तम बोले. जानते थे कि उनकी वह मुस्कान नकली थी, लेकिन बड़े अफसर के सामने मुस्कराना ही होता है भले ही यह बात किसी संविधान में नहीं लिखी.
नरोत्तम प्रसाद सप्ताह के तीन दिन ऑफिस से छः बजे निकलने के बाद सीधे लोधी रोड स्थित वफ़ा साहब के बंगले में जाने लगे. पत्नी ने बच्चों के होम वर्क का वास्ता दिया तो बोले, “भागवान, बच्चों के लिए दिल्ली में रहना चाहता हूं. तीन दिनों के लिए बच्चों के लिए ट्यूशन लगाना पड़ेगा.”
“ट्यूशन लगाने के लिए जेब अनुमति देगी? कितने मंहगे हैं ट्यूशन!”
“चार दिन होंगे न मेरे पास. उन दिनों दोगुना समय देकर बच्चों को पढ़ाऊंगा.” निराश स्वर में बोले नरोत्तम,”दूसरा कोई विकल्प नहीं.”
वफ़ा साहब की बेटी को पढ़ाते हुए उन्हें एक माह ही बीता था कि एक दिन वह घटना घटी थी. उनकी बेटी ऋचा वफ़ा सप्ताह में तीन दिन ’कत्थक कला केन्द्र’ में कत्थक नृत्य सीखने जाती थी. ऋचा को ’कत्थक कला केन्द्र’ ले जाने और वापस लाने के लिए वफ़ा साहब की ऑफिस की गाड़ी और ड्राइवर जाते. वहां उसका समय साढ़े सात बजे से साढ़े आठ बजे का था. उन दिनों वफ़ा साहब ऑफिस की दूसरी गाड़ी से घर जाते थे.
उस दिन ड्राइवर ऋचा वफ़ा को लेकर लौट रहा था कि इंडिया गेट के पास पटियाला हाउस के निकट आईटीओ की ओर से आ रही गाड़ी ने उस गाड़ी को टक्कर मार दी. टक्कर पीछे लगी जिससे पीछे बैठी ऋचा वफ़ा उछलकर ड्राइवर के ऊपर जा पहुंची. उसके हाथ और सिर पर चोट लगी. ड्राइवर विनोद ने गाड़ी को पलटने से बचा लिया था. उसने पीछे की गाड़ियों को हाथ के इशारे से रोका और अपनी गाड़ी रोककर ऋचा वफ़ा को सहारा देकर, जो चोट के कारण कराह रही थी, पीछे की सीट पर लेटाया.
इकलौती बेटी की हालत देखकर वफ़ा साहब और सावित्री वफ़ा सकते में आ गए. उन्होंने विनोद को कुछ नहीं कहा. अपर महानिदेशक प्रशासन को फोन किया, जो पांच मिनट की दूरी पर रहते थे. उन्हें घटना की जानकारी दी और अपनी गाड़ी से ऋचा को एम्स ले गए. एम्स में ऋचा को दो घण्टे तक रखा गया. उसे मामूली चोट थी. तब तक स्टाफ के कितने ही अधिकारी और प्रशासनिक अधिकारी वहां पहुंच चुके थे.
अगले दिन वफ़ा साहब के पीए ने नरोत्तम प्रसाद को बुलाकर कहा, “बड़े साहब ने कहा है कि बेबी के ठीक होने तक आप उन्हें पढ़ाने नहीं जाएगें.”
“बेबी?” नरोत्तम प्रसाद के मुंह से निकल गया.
“बड़े साहब की बेटी—आपकी समझदानी बहुत छोटी है नरोत्तम प्रसाद. बड़े अफसरों के बच्चों को उनके नाम से नहीं पुकारते—.”
नरोत्तम प्रसाद ने राहत की सांस ली थी.

उस दिन शाम साढ़े छः बजे नरोत्तम प्रसाद ऑफिस से निकले. नवंबर के बीस दिन बीत चुके थे. ऑफिस के बाहर सड़क सुनसान थी. आसपास के सभी ऑफिस बंद हो चुके थे. उनके और आमने-सामने ऑफिसों से इक्का-दुक्का लोग निकलते दिखाई दे रहे थे. उनके ऑफिस का रिसेप्शन बंद हो चुका था. रिसेप्शन के आस-पास पीली रोशनी फैली हुई थी जबकि ऑफिस के गेट पर दो बड़े दूधिया बल्व जल रहे थे और दो जवान अपनी रायफल लिए वहां आमने- सामने तैनात थे. गेट से बाहर निकलते ही उनकी नज़र सामने खड़े विनोद पर पड़ी जो गेट के पास बनी छोटी-सी पीली दीवार के सहारे खड़ा हुआ था. वफ़ा साहब के लिए गाड़ी लगी हुई थी, लेकिन उसमें ऑफिस का दूसरा ड्राइवर बैठा हुआ था. विनोद का हालचाल लेने के लिए नरोत्तम उसकी ओर बढ़े ही थे कि पीछे वफ़ा साहब के चपरासी को तेजी से उनका ब्रीफकेस थामे आते देखा. समझ गए कि वफ़ा साहब घर जाने के लिए अपने चैंबर से निकल चुके थे. चपरासी को देखते ही ड्राइवर गाड़ी से नीचे उतरा और उसने ब्रीफकेस चपरासी के हाथ से लेकर उसे संभालकर गाड़ी में रखा. तभी उनकी दृष्टि प्रशासनिक अधिकारी के साथ तेज कदमों से आते हुए वफ़ा साहब पर पड़ी. मध्यम कद,मोटे गाल,मोटी नाक और बड़ी आंखों वाला प्रशासनिक अधिकारी हाथ में नोट बुक थामे पेट और नितंब हिलाता वफ़ा साहब के साथ लगभग दौड़ रह था.
नरोत्तम प्रसाद कुछ हटकर एक ओर खड़े हो गए. तभी उन्होंने वफ़ा साहब के गेट से बाहर निकलकर गाड़ी की ओर बढ़ते कदमों पर दौड़कर विनोद को गिरते देखा. विनोद उनके पैरों को पकड़कर रोते हुए कह रहा था, “साहब, मेरा ट्रांसफर रोकवा दीजिए— चेन्नई जाने से मेरे बच्चों की पढ़ाई चौपट हो जाएगी. साहब रहम कीजिए.”
वफ़ा साहब ने पैरों को झिटका और प्रशासनिक अधिकारी से ऊंचे स्वर में बोले, “यह क्या है?”
पैर का झटका खाकर विनोद दूर छिटक गया. वफ़ा साहब के बैठते ही गाड़ी जा चुकी थी. विनोद रोता हुआ प्रशासनिक अधिकारी के सामने हाथ जोड़े खड़ा था. प्रशासनिक अधिकारी उस पर चीखा, “चेन्नई नहीं जाना तो नौकरी छोड़ दे लेकिन यदि इधर दिखा तो पुलिस के हवाले कर दूंगा. अपने साथ मुझे भी घसीट ले जाना चाहता है.” प्रशासनिक अधिकारी ने विनोद को इसप्रकार घूरकर देखा कि वह चूहे की तरह सिमटकर उस छोटी-पीली दीवार से सट गया और प्रशासनिक अधिकारी तोंद और अपने भारी नितंब हिलाता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया था.
नरोत्तम प्रसाद ने सहमे खड़े विनोद पर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि डाली और सड़क पर उतर गए थे. स्थानांतरण का भय उनके अंदर उतर आया था और बस स्टैंड की ओर बढ़ते उनके कदम सीधे नहीं पड़ रहे थे.
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रूपसिंह चन्देल

कानपुर के गांव नौगवां(गौतम) में 12 मार्च,1951 को जन्म। कानपुर वि.वि. से हिन्दी में पी-एच.डी.
प्रकाशित पुस्तकें : 19 उपन्यास, 19 कहानी संग्रह, 4 संस्मरण पुस्तकें, 3 आलोचना पुस्तकें, दॉस्तोएव्की की शोधपूर्ण जीवनी-’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’, तथा 3 अनूदित पुस्तकें — लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास –’हाजी मुराद’, तोल्स्तोय पर 30 संस्मरणों का अनुवाद- ’तोलस्तोय का अंतरंग संसार’ और हेनरी त्रोयत लिखित तोलस्तोय की जीवनी ’तोलस्तोय’(656 पृष्ठ) का अनुवाद।
प्रकाश्य –1.’सफ़र अधूरा’ (आत्मकथा-दो भाग),2. पुरुष विमर्श की कहानियां (कहानी संग्रह)
विशेष – (1) साहित्य पर डॉ. माधव सक्सेना ’अरविन्द’, माधव नागदा, शशि काण्डपाल, डॉ.पंकज साहा, डॉ. राहुल द्वारा आलोचना पुस्तकों का सम्पादन.
(2) 25 छात्रों द्वारा पी-एच.डी./एम.फिल.
(3) मराठी भाषा में 10 उपन्यास और कन्नड़ भाषा में 3 उपन्यासों के अनुवाद. कहानियों के अनुवाद पंजाबी,गुजराती,मराठी, कन्नड़ और अंग्रेजी भाषाऒ में।
पुरस्कार/सम्मान : 1. साहित्य भूषण पुरस्कार (2021) उ.प्र.हिन्दी संस्थान; 2. ‘वी.एम.तेरेखोव स्मृति सम्मान-2022 और 2023 (रूस); 3. आचार्य निरंजननाथ सम्मान,राजस्थान (2013); 4. हिन्दी अकादमी दिल्ली का साहित्यिक कृति पुरस्कार (1990 एवं 2000 )
सम्पर्क : फ्लैट नं. 705, टॉवर-8, विपुल गार्डेन्स, धारूहेड़ा-123106 (हरियाणा)।
मो. नं. 8059948233, E-mail : rupchandel@gmail.com

 


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