कैलाश बनवासी नौवे दशक के अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। कैलाश की कहानियों से गुज़रें तो स्पष्ट होता है कि वे वंचित समाज के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले उसकी पीड़ा के गायक हैं। प्रारम्भिक कहानी ‘कुकरा कथा’ से लेकर प्रस्तुत यह कहानी इसके साक्ष्य हैं। कैलाश आज के बाज़ार में खो रहे आदमी में वह चिंता खोज लेते हैं जो भूखे पंक्षियों के लिए अभी भी बरकरार है। पढ़ें यह कहानी। – हरि भटनागर
कहानी:
दीवाली का दिन था।
ग्यारह बजने को आ रहे थे और मैं अपना बाजार जाना टाले हुआ था।लेकिन अब ज्यादा देर तक टालना संभव नहीं था।पत्नी के नाराज़ हो जाने का ख़तरा था, क्योंकि दो-तीन बार से भी अधिक वह मुझे जाने को कह चुकी थी। दीवाली की पूजा के सामान खरीदने हैं। धन की देवी लक्ष्मी की पूजा के सामान–लाई, खील,बताशे,दिये,पान,फूल दुबी इत्यादि।बहुतों की तरह उसे भी विश्वास है कि आज पूजा करने से लक्ष्मी की कृपा से घर साल भर धन-धान्य से भरा रहेगा। और उसके विश्वास को ज्यादा तोड़ने का साहस मुझमें नहीं था।
लेकिन मैं बाज़ार दूसरे कारणों से जाना टाल रहा था। बाज़ार और भीड़…इनका जैसा गहरा साथ है,मुझे उतनी ही एलर्जी।दरअसल मैं बाजार से मानसिक तौर पर ऊब चुका था।बहुत बुरी तरह! त्यौहार आ रहा है,पिछले महीने से त्यौहार-त्यौहार, बाज़ार-बाज़ार रटा जा रहा है, सुबह-शाम,दिन-रात लगातार! अख़बार विज्ञापनों से मार भरे पड़े हैं। ख़बर को खोजना पड़ता है रंगीन विज्ञापनों की चकाचौंध के बीच।घर में टीवी खोलो तो उसमें भी वही चल रहा है–दीवाली के एड्स। दीवाली की शुभकामनाएँ लेते-लेते मन थक चुका है। इसमें आते धरावाहिकों में भी दीवाली की भव्य तैयारियाँ चल रही हैं। नेता ही नहीं, अभिनेता,अभिनेत्री बार-बार हमें ‘हैप्पी दीवाली’ कह रहे हैं। और हर कम्पनी दीवाली पर कुछ न कुछ दे रही है,नारियल तोड़ो ऑफर ,फटाका फोड़ो ऑफर,स्क्रैच एंड विन ऑफर, दसियों तरह के लुभावने ऑफर! चैतरफ़ा बाज़ार और दीवाली का शोर! कई बार लगता है, सचमुच हमारे भीतर जितना भी बचा-खुचा उत्साह है, उसको ये कंपनियाँ और बाज़ार हवा भर-भर कर दुगुना कर देना चाहती हैं। हमारे दीवाली मनाने की हमसे ज़्यादा चिंता इन कंपनियों को हो गई है! और यह भी कि हमारा दीवाली मनाना इन्हीं चमकदार,हँसते-गाते,बेफ़िक्र चेहरों द्वारा संचालित होने लगा है जो ख़ुद बाज़ार से संचालित हैं। मैं तय नहीं कर पाता,दीवाली हमारी होती है या इनकी ?
यही हाल त्यौहारी बाज़ार का है। शहर की दुकानें सज गई हैं। हालत ये है कि घर से कदम बाहर रखते ही आप बाज़ार में होते हैं और दुकानदार आपको खींच लेना चाहता है।
दूसरों की तो नहीं जानता,लेकिन महीने भर से चले आते इस त्यैहारी माहौल से मैं एकदम ऊब चुका था और दीवाली के जल्द से जल्द आगे निकल जाने की राह देख रहा था कि राहत से साँस ले सकूँ।
दूसरी वजह, बाज़ार में इन दिनों रहने वाली भयानक भीड़! ऐसी भीड़ होती है कि दो कदम सही चलना संभव नहीं रह जाता। लगता है पूरा शहर उमड़ा पड़ा है। कल शाम बाज़ार गया था और भीड़ में फँसकर रह गया था। बाज़ार नहीं,मेला लगता था! मुझे लग रहा था मैं भीड़ में चल नहीं रहा हूँ,घिसट रहा हूँ। एक बार इस भीड़ के समंदर में आप चले गए तो लहरों की तरह आप कहाँ फिंकाओगे,कहना मुश्किल है। मैंने ख़ुद को सब्जी मंडी में पाया था,जहाँ आने का मेरा कोई इरादा नहीं था। वहाँ का भयंकर शोर,चीख-चिल्लाहट दिमाग़ में अब भी नगाड़े की तरह बज रहा है, और चारों तरफ़ फैले ताज़ा और बासी सब्जियों की अजीब-सी बास मानो अब भी मैं महसूस कर रहा हूँ…।
कल ही के इस दुष्कर अनुभव को मैं फिर से नहीं भुगतना चाहता था। लेकिन मजबूरी थी। मैंने खुद को बाज़ार के चक्रव्यूह में घुसने के लिए अभिमन्यु की तरह तैयार किया।
बाज़ार जाने वाली मुख्य सड़क पर वैसी ही भीड़ थी जैसी कल्पना मैं कर रहा था। सारे लोग, मोटर गाड़ियाँ,रिक्शे, ताँगे सब बाज़ार की तरफ़ जा रहे थे। नवंबर की शुरूआती धूप थी। ग्यारह बजे की धूप जो चमकदार थी,लेकिन चुभती नहीं थी। ऊपर साफ़ चमकीला नीला आकाश तना था…।
मुझे लगा,बाज़ार का यह शोर नीले आसमान के पार पहुँच रहा है…और शायद इस शोर से उसका नीलापन दरक जाएगा अचानक…।
यह ग़नीमत थी कि मुझे बाज़ार के अंदर नहीं घुसना पड़ा। बाज़ार का प्रवेश स्थल आज काफ़ी बाहर तक खिंच आया था। मुख्य बाज़ार के पहले ही सड़क के दोनों तरफ़ फुटपाथिए दुकानों की कतारें थीं, जहाँ भीड़ थी। इन्हीं पसरों में मैंने अपने काम का पसरा तलाश लिया। वहाँ चार-पाँच महिलाएँ- गाँव की देहातिनें –अपना सामान सड़क पर बिछाए दुकानदारी में व्यस्त थीं। मैं जहाँ खड़ा था,वहाँ पूजा के सामान थे–फूल,पत्तियाँ,हरी दुबियाँ,छोटे-छोटे हार,लक्ष्मी जी के फोटो, कमल के फूल(शायद कुमुदनी हों) इत्यादि। एक अधेड़ गंवइहिन थी जो आवाज़ लगा रही थी लगातार-‘पूजा के सामान…पाँच रूपिया! पूजा के सामान पाँच रूपिया!’
मैंने एक पुड़ा बंधवा लिया। इसमें कुछ फूल,पत्तियाँ,दुबी और आम के पत्ते थे।
‘‘ कमल फूल कितने का…?’’
‘‘पाँच रूपिया जोड़ी।’’
मैंने दो रख लिए,जो वैसे ही मुरझाते दिख रहे थे।
मैंने कहा,‘‘कैसे, ये मुरझा क्यों रहे हैं?’’
बोली, ‘‘अब कालि साँझकुन के तोड़े हन बाबू।पानी में रखबे त बने रही। कांही नइ होवय। अभी खुला घाम में हाबे त अइलावत हे।’’
मैंने अपने थैले में उन्हें रख लिया।
अचानक मेरी नज़र वहीं रखे धान के झालर पर पड़ी। मैं एक उठाकर देखने लगा। इसके पहले मैंने इन्हें बिकते नहीं देखा था।अलबत्ता गाँव के घरों में या पेड़ों में इसे लटके ज़रूर देखा है। ये गाँव की चीज़ है। गाँव की कला।
‘‘इसको कैसे दिए ?’’
‘‘बारा रूपिया जोड़ी। ले जा बाबू…।’’
मैं ध्यान से उस सुंदर धान के सुनहरे झालर को देख रहा था। धान के लगभग पकने को आते पौधों को चटाई की तरह त्रिभुजाकार इस प्रकार बुना जाता है कि धान की बालियाँ नीचे झूलती रहती हैं। मेरे हाथ में अभी तैयार होते धान की फसल थी- सुंदर, सुनहरी बालियाँ जिनमें अन्न भरे थे। नरम, अनछुए, सोंधी गंध से भरे…।
‘‘ले जा बाबू ’’,वह बोली, ‘‘चिरई मन आही खए बर…बने पुन्न मिलही तोला।’’
मैंने कहा,‘‘इसको तो मैं घर की दीवाल पर लटकाऊँगा सोच रहा हूँ।’’
‘‘त का होगे। बनेच बात हे। घर में लटका देबे तब्भो ले आही चिरई मन।’’वह सहजता से हँसी, ‘‘चिरई मन खाहीं बढ़िया…बने पुन्न मिलही बाबू…।’’
मुझे बहुत अच्छा लगा था उसका ऐसा कहना। एक गहरी आंतरिक ख़ुशी से भर उठा मैं.
उसका यह कहना आप ही बता रहा था कि वह पेशवर दुकानदार नहीं है। मैंने इस बार कुछ ध्यान से देखा उसे–वह अधेड़ होती देहातिन,गहरे नीले रंग के सस्ती सूती साड़ी पहने । चेहरा भले ही कड़ी धूप में झुलसा हुआ है, लेकिन सहज आत्मीयता की सांवली चमक बाकी है…। मैं सोचने लगा, ये ज़रूर आसपास के गाँव से आई होगी…लेकिन कैसा इसका ममता से भरा मन है जिसे बीच बाज़ार में भी उन चिड़ियों की भूख की चिंता है, जो उसके झालर का धान खाने पहुँचेंगी..जिनके खाने से पुन्न मिलता है।
मैंने वहाँ रखे दोनों झालर ख़रीद लिए।
मैं स्चने लगा, इन्हें आँगन की दीवाल में लटकाते ही मेरा घर सुंदर हो जाएगा…धान की इन बालियों की गंध पूरे घर में भर-भर जाएगी…घर महर-महर महकने लगेगा…।
इसी की बगल में एक कुम्हारिन का पसरा था, जहाँ मिट्टी के बने दिये,खिलौने और गुल्लक,कलश आदि बिक रहे थे।
ये महिलाएँ आपस में जिस ढंग से बात कर रहीं थीं,मुझे लगा जैसे ये सभी एक ही गाँव की हैं, पड़ोसी हैं, और बाज़ार साथ-साथ आई हैं। यहाँ भी ये पड़ोसी ही हैं ।
मैंने कुम्हारिन से मिट्टी के दिये ख़रीदे। एक सुंदर खिलौना भी-मिट्टी का एक कलश था, मिट्टी के ही बने नारियल और पत्तियों से सजा हुआ। गेरू रंग से रंगे हुए । ये अनगढ़ होने के बावजूद मुझे इसलिए अच्छे लगे कि इनके पीछे इनका श्रम है, इनकी सोच है।
तभी बग़ल के फूल-पत्ती वाली के पसरे पर चार लड़के आके खड़े हो गए। उनके हाथ में रजिस्टर और रसीद बुक थी।
‘‘चल कूपन पटा ओ बाई!’’
मैं जान गया,ये बाज़ार के ठेकेदार के कारिंदे हैं। ये 20-22 की उम्र के होने के बावजूद शक्ल से ही सख़्त नज़र आते थे, हट्टे-कट्टे गुंडों की तरह.
‘‘के रूपिया लगही गा ?’’ देहातिन ने सहजता से पूछा।
‘‘तीस रूपिया!’’
‘‘तीस रूपिया!’’ वह हैरान रह गई। फिर बोली,‘‘पाछू साल तो दस-दस रूपिया लेत रेहेव बाबू।’’
‘‘अब गया वो जमाना बाई ! तीस निकाल फटाफट!’’ लड़के की आँख में काले रंग का चश्मा था।
‘‘नइ भइया! इतना-इतना पइसा हम नइ दे सकन!’’ यह उसका नम्र विरोध था।
‘‘नइ दे सकती तो उठा अपना सामान और फूट ले पतली गली से!’’ लड़के ने बिना किसी लिहाज के गुस्से से कहा.
उन लड़कों में हँसी की लहर उठ गयी.
वह देहातिन चिंतित होकर बोली, ‘‘अरे बाबू, अभी धंधा पानी नइ होए हे, ,बाद में आके ले जाबे।’’
‘‘बाद-वाद का हम कुछ नहीं जानते। तीस रूपिया निकाल!’’ लड़का ढिठाई से बोला.
देहातिन ने कहा, ‘‘अभी तीस रूपिया के धंधा नइ होहे, तुमन मांगथो त हम कहाँ ले देबो ?’’
‘‘अरे सब होता है। धंधा करना है तो सीधी तरह कूपन कटाओ,नहीं तो चलते नज़र आओ !’’ उनमें से एक घुड़का।
‘‘नहीं बाबू…।’’ उसको अब लग रहा था ये कुछ कम में मान जाएंगे।
‘‘तू देती है कि तेरा सामान उठा के फेंकू…?’’लंबी कली वाले काले रंग की टी शर्ट पहने लड़के ने अपने जूते की नोक पालिथिन के बोरे पर गड़ा दी।
जब उस देहातिन को लगा कि लड़के एक पैसा कम नहीं करेंगे, तब वह हार गई। उसने एक बोरे के नीचे जमा अपने धंधे के पैसे निकाले…वहाँ कुछ नोट और चिल्हर पैसे थे। उसने एक दस का…दो पाँच के नोट दिए। बाकी के चिल्हर पैसे…।
लड़के ने रसीद फाड़कर कागज़ उसकी तरफ़ फेंक दिया और कुम्हारिन की तरफ़ बढ़ गए, ‘‘हाँ,चल निकाल तो तू भी जल्दी…।’’
कुम्हारिन ने भी मायूसी से चुपचाप रूप्ए निकालकर दे दिए।
लड़के आगे बढ़ गए,जोश,ताक़त और ग़ुरूर से भरे हुए…।
मैंने देखा,इनके साँवले चेहरों पर दुःख की काली छाया उभर आई है. अभी जो ये सहज भाव से आपस में हँस-बोल रहीं थीं,एकाएक सख़्त चुप्पी में थीं।
फूल-पत्ती वाली देहातिन उस रसीद को बोरे के नीचे रखते हुए जैसे ख़ुद से ही कह रही थी, ‘‘ये दे, जतना के बेचे रहेंव, तेनो ल कूपन वाला मन झटक के लेगे!…अइसना में ते काला कमाबे बहिनि…।’’
अब उनके चेहरों से वह मुसकान और आत्मीयता गुम थी जो थोड़ी देर पहले थी।अब वे चिंतित थीं।
मैं सोचने लगा,यहाँ इनके जैसे आज न जाने कितने लोग आए होंगे, कि कुछ कमाकर लौटें। आखि़र शाम तक ये कितना कमा लेंगे ? पचास रूपया ? सौ रूपया ? या दो सौ ? नहीं-नहीं,दो सौ तो शायद ज्यादा है। इनके त्यौहार की खुशी इन्हीं रूपयों से मननी है। मैं जान रहा हूँ,अपनी इसी कमाई से वे घर के लिए सौदा-सुलफ़ ख़रीदेंगी, घर जाते हुए तिहार मनाने के लिए कोई सस्ती-सी मिठाई और कम दाम वाले फटाके ख़रीदेंगी अपने बच्चों के लिए…जो शाम से ही इनका रस्ता देखते बैठे होंगे…।
और हर साल की तरह इनकी यह दीवाली भी मन जाएगी।
…मैं उन आतिशबाज़ियों को देख़ रहा था जो शहर में रात को होनी है और देर रात तक होती है,रह-रहकर रात का काला आकाश सतरंगी रोशनियों से जगमगा उठता है…ज़ोर की आवाज़ वाली बम की लड़ियाँ फूट रही हैं…बम के धमाकों से पूरा इलाका हिल उठा है…लोग काँप जाते हैं…।
…मुझे लगता है,इस समय चिड़ियों के बारे में कोई नहीं सोच रहा,जो शायद दहशत में कहीं छुपे हुए हैं…।
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कैलाश बनवासी
जन्म-10 मार्च 1965,दुर्ग
शिक्षा- बी0एस-सी0(गणित),एम0ए0(अँग्रेजी साहित्य),बी.एड.
कृतियाँ-
1984 के आसपास लिखना शुरू किया। आरंभ में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन.
अस्सी से भी अधिक कहानियाँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। अब तक चार कहानी संग्रह प्रकाशित-‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’(1993),‘बाजार में रामधन’(2004) तथा ‘पीले कागज की उजली इबारत’(2008) ,प्रकोप तथा अन्य कहानियाँ (2015),’जादू टूटता है’(2019 ), ‘ कविता पेंटिंग पेड़ कुछ नहीं’ (2020)
उपन्यास -‘लौटना नहीं है’(2014) ‘रंग तेरा मेरे आगे’(2022) प्रकाशित.
समकालीन सिनेमा पर विचार—‘सिनेमा भीतर सिनेमा’(2022) प्रकाशनाधीन.
कुछ कहानियाँ विभिन्न संग्रहों में चयनित।कहानियाँ गुजराती,पंजाबी,मराठी,बांग्ला तथा अँग्रेजी में अनुदित। तथा कहानी-संग्रह ‘बाजार में रामधन’ मराठी में अनुदित.कहानी ‘बाज़ार में रामधन’ केरल,वर्धा,गोवा,और शोलापुर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल.
समग्र कहानियों पर जे.एन.यू. नई दिल्ली सहित पी.एच.डी.हेतु देश के कई विश्विद्यालयों में शोध-प्रबंध.
पुरस्कार- कहानी ‘कुकरा-कथा’ को पत्रिका ‘कहानियाँ मासिक चयन’(संपादक-सत्येन कुमार) द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ युवा लेखन पुरस्कार.
कहानी संग्रह ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ को जनवादी लेखक संघ इंदौर द्वारा प्रथम श्याम व्यास पुरस्कार.
दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता ‘रचना पर्व’(2002) में कहानी ‘एक गाँव फूलझर’ को तृतीय पुरस्कार.
संग्रह‘पीले कागज की उजली इबारत’ के लिए 2010 में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान।
वर्ष 2014 में वनमाली कथा सम्मान, गायत्री कथा सम्मान 2016
संप्रति- अध्यापन।
कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर,
सिकोला भाठा, दुर्ग (छ.ग.) पिन-49100
मो. 98279 93920
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