एक पत्ता चांद – भालचंद्र जोशी की कहानी है लेकिन यह कहानी के वर्तमान पाठ से असहमत होते हुए एक नये पाठ की कहानी है ,बल्कि यों कहें , किसी कवित्त का टुकड़ा है जो एक छोटे से क्षण में जीवन के आदिम राग को जीता है। नदी ,रेत, वृक्ष , पत्ता ,छाया और चांद – ये कवित्त की गरिमा को उच्चतर मूल्य देने वाले उपकरण हैं जो कथा का बिम्ब रचते हैं।
बहरहाल, प्रस्तुत कहानी का मंतव्य बताना बहुत ही मुश्किल है , आप सुधी पाठक इस सुंदर गद्य में जीवन के राग को महसूस करेंगे। और जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियां ज़रूर गुनगुना लें जो कथा नायिका बानी को बानी देती हैं :
अधरों में राग अमंद पिए ,अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली , आंखों में भरे विहाग री !
– हरि भटनागर

कहानी

बारिश तेज हो गई। कुछ देर पहले नदी के दूसरे किनारे पर नजर आ रही बानी अब एक रंगीन धब्बा हो चुकी थी। कुछ देर पहले वह इसी पार थी। नाव में भीड़ थी। एक ही व्यक्ति के लिए जगह थी। मैंने जिद की तो बानी चली गई। मैं काफी देर तक नाव में खड़ी बानी को देखता रहा था। कुछ देर बाद तो ऐसा लगा जैसे नाव नहीं, बानी ही पैदल नर्मदा पर चलती हुई उस पार जा रही है। मैं नर्मदा के पानी पर बानी के पैरों की छाप खोजने लगा। पानी लगी मिट्टी पर चलते हुए पैर थोड़े धँस जाते हैं। मैंने सोचा, बानी के पैर भी नर्मदा पर दौड़ते हुए थोड़े धँसे होंगे, लेकिन जल पर बानी के पैरों के निशान नहीं थे। उसके पैर नर्मदा की जलराशि में धँसे नहीं होंगे या फिर बारिश ने मिटा दिए हैं।
बानी ने बताया था, नर्मदा कितने भी गुस्से में हो, कितनी भी उफान पर हो, उसे डर नहीं लगता है। नर्मदा और बानी के बचपन से गहरे और आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। जैसे कहें कि जन्म से ही गहरे संबंध हैं। बानी तो कई बार कहती है कि मुझे लगता है मैं अपनी माँ की नहीं, नर्मदा की बेटी हूँ।
-‘‘लेकिन नर्मदा तो चिर कुँवारी है !” मैंने उसे रोका था।
वह क्षण भर चुप रही थी फिर बोली थी, -‘‘तो क्या हुआ ? वह माँ नहीं बन सकती थी, लेकिन माँ कहीं तो जा सकती है।”
बानी की बातें सुनकर मेरे मन से नदी का डर पूरी तरह से तो नहीं गया, लेकिन उस तरह का प्रतिवाद करना बंद कर दिया। जब बानी की बातें भरोसे से भीगने लगीं तो मुझे भी नदी में, उफनती नदी में सौन्दर्य नजर आने लगा। मुझे यह बात भी ठीक लगी कि नदी की बाढ़ में बस्ती का पानी से घिर जाना नदी का दोष नहीं है।
-‘‘बताओ तुम, बस्तियों में बाढ़ का पानी आ जाए तो इसमें नदी का क्या दोष ?” बानी ने उसकी बात का विरोध किया था।
-‘‘बस्तियाँ बरसों पुरानी हैं।” मैंने बानी को समझाना चाहा था।
-‘‘कितनी पुरानी ? नदी तो हजारों बरस से बह रही है। हमने उसके किनारों पर गाँव बसाए। उसके विस्तार के रास्ते पर बस्तियाँ बसाईं।”
वह नदी के खिलाफ कुछ भी नहीं सुनना चाहती थी। मैंने उसे बहुत समझाया था कि गाँवों में बाढ़ का पानी घुसने से लोगों को परेशानी होती है, लेकिन नदी के प्रति उसका लगाव जिद की हद तक था।
-‘‘नदी के किनारे रहने का सुख उठाने के लिए समझो यह छोटी-सी कीमत है।‘‘ वह हँसकर बोली थी।
नर्मदा की बाढ़ उसके मन को अदम्य उत्तेजना से भर देती है। घर से हम लोग सिर्फ नर्मदा के इस तट तक आए थे, लेकिन उफनती नर्मदा में बानी के लिए क्षिप्र खिंचाव था। वह दूसरे तट पर जाने के लिए बेचैन हो गई। नाव में एक ही व्यक्ति के लिए जगह खाली थी तो वह उसकी परवाह किए बगैर नाव में बैठ गई। जाने कौन-सी अजान बुलाहट थी उस कोलाहल करती जलराशि में कि बानी नाव में सवार हो गई। जो मेरे लिए भय था वह उसके लिए आनंद था। जिन लहरों में मैं काल का नर्तन देख रहा था, बानी उसमें प्रत्यक्ष सौन्दर्य का दृश्य देख रही थी।
मैं बारिश से बचने के लिए तट पर पेड़ के नीचे आ गया। बारिश के कारण तट निर्जन हो गया था। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि बाहर से ज्यादा बारिश मेरे भीतर हो रही है। माहौल में नमी का स्पर्श बस चुका था। मेरे भीतर एक हरा जंगल है जो निरन्तर इस बारिश में भीग रहा है। मैं कोशिश करूँ तो भीतर के इस सूने जंगल में उतर सकता हूँ। भीतर की बारिश में अकेले भीगना चाहता हूँ। फिर लगता है, भीतर का कोई एक हिस्सा ऐसा भी है जो, अभी भी सूखा है। बारिश भीतर के जंगल के उस हिस्से तक नहीं पहुँची है। बहुत मुमकिन है कि उस हिस्से पर बारिश हुई हो, लेकिन बारिश के बाद पेड़ों पर ठहरी रह गई हो और नीचे जमीन और जंगल की जड़ें सूखी रह गई हों। जैसे कपड़ों पर बारिश की बूँदें गिरे और देह की त्वचा सूखी रह जाए। कई बार तो देह की त्वचा पर बारिश की बूँदें गिरती रहती हैं फिर भी मन का हिस्सा सूखा रह जाता है।
बादल कुछ घने हो गए तो पेड़ के नीचे हल्का-सा धुँधलका बढ़ गया। हल्के अँधेरे में भी बारिश नजर नहीं आती है, लेकिन बारिश के होने का एहसास बना रहता है। बानी इस समय मेरे साथ नहीं है, लेकिन उसके साथ होने का एहसास है। जैसे बानी मेरे भीतर है। मेरे भीतर अँधेरे में हो रही बारिश को मैं सुन रहा हूँ। फिर लगा, बानी भीतर हो रही बारिश में भीग रही होगी। वह मेरे भीतर भीग भी रही है और बारिश को सुन भी रही है। अँधेरे में हम दोनों बारिश का संगीत सुन रहे हैं।
मैंने पेड़ की छाया से निकलकर हथेली बारिश को सौंपी तो बारिश की बूँद मेरी हथेली पर गिरी। हथेली के दबाव के साथ उस बूँद को मैंने अपने धड़कते सीने पर रख दिया। यह सोचकर कि उस बूँद की नमी को बानी भीतर बैठे महसूस करेगी। बारिश की उस एक बूँद की नमी में वह मेरे धड़कते दिल की आँच भी महसूस कर रही होगी। भीतर के सूने, अँधेरे जंगल में मैं भी अकेला भीग रहा हूँ, वह भी अकेली भीग रही है। फिर यह लगा कि भीतर बैठी बानी जैसे जंगल में किस तरफ है यह मुझे जंगल में भटक कर पता लगाना है। मैं बारिश के बीच पेड़ के नीचे अचल खड़ा था।
क्या बानी भी नदी के दूसरे तट पर अकेली खड़ी भीग रही है ? मैं पेड़ की छाया से बाहर आया। पेड़ के नीचे बारिश नहीं थी। पेड़ के बाहर बारिश थी। भीतर और बाहर दो हिस्से थे। भीतर के हिस्से में पेड़ था, जहाँ बारिश पेड़ के ऊपर रूकी थी। पेड़ के बाहर बारिश थी। मैं भीतर से बाहर आया। मैं दौड़कर तट पर गया। बानी दूसरे तट पर एक रंगीन धब्बा बनी भीग रही थी। मैंने आसमान की ओर सिर उठाकर देखा था। कुछ बूँदें मेरे चेहरे पर, कुछ मेरे मुँह के भीतर गिरीं। मुँह में गिरी बूँदें कंठ के रास्ते नीचे उतर गईं।
मैं वापस पेड़ के नीचे आ गया। बानी वापस मेरे भीतर के जंगल में ठहर गई। मेरे कंठ से उतरी पानी की बूँदों का स्वाद बानी के कंठ में भी ठहर गया होगा। उसे भी मेरी आसक्ति का स्वाद महसूस हो रहा होगा। मैं उससे कहना चाहता था कि इस स्वाद में शताब्दियों का प्रेम घुला है। इन बूँदों में एक महासागर छिपा है। फिर मुझे लगा, ऐसा कहना अस्वाभाविक और अति रोमानी लगेगा।
मैं थक कर वापस लौटा तब तक बारिश धीमी हो गई थी। दूसरे तट पर रंगीन धब्बा दिखाई देना बंद हो गया था, तभी लौटा। कपड़े बदलने के बाद भी मुझे नमी का एहसास हो रहा था। भीगे कपड़े आँगन की रस्सी पर लटके हैं। भीगे कपड़ों में भी मेरा कुछ हिस्सा रह गया होगा। वह बचा हुआ हिस्सा भीगे कपड़ों में दुबका नमी से बचने की पुकार लगा रहा होगा।
घर में सभी लोग सो गए थे। मुझे रह-रहकर बानी की चिंता हो रही थी। मैं दो बार उठकर खिड़की से झाँक चुका हूँ। जैसे यहाँ घर से ही नदी का दूसरा तट और फिर वहाँ से बानी का घर दिखाई दे जाएगा। यह मुमकिन नहीं था। विवश मैं हर बार खिड़की से लौटकर कुर्सी पर बैठ जाता था। नींद नहीं आ रही थी। नींद बाहर आँगन में खड़ी बारिश में भीग रही थी। संभवतः भीतर तो आ गई थी और मेरी आँखों की कोर पर बैठी मेरे भीतर हो रही बारिश में भीग रही है। यदि भीतर भी उतर गई तो भीतर के जंगल में भटक कर गुम हो जाएगी। पूरी रात जाग कर काटनी होगी। बानी इस समय सो रही होगी। उसके हिस्से की बारिश भी मेरे भीतर के जंगल में हो रही है।
एकाएक आहट हुई। आहट घर के दरवाजे पर नहीं। आहट मेरे भीतर के जंगल के मुहाने पर हुई। मैं चौंक गया। पहले मुझे लगा कि नींद जंगल में भटक गई है और आवाज लगा रही है। ध्यान से सुना तो लगा आवाज नींद की नहीं, बानी की थी। आवाज अब करीब से आ रही थी।
मैं जंगल के मुहाने पर पहुँचा तो देखा बानी खड़ी है। मैं चकित रह गया।
-‘‘तुम्हें नींद नहीं आई ?” मैंने जंगल के मुहाने पर खड़ी बानी से पूछा।
-‘‘नींद तो भीग गई है। जंगल में भटकते हुए ठिठुर रही है।” कहकर वह हँस पड़ी। उसकी हँसी में गीलापन नहीं था। उसकी हँसी एकदम उजली और खिली-खिली धूप-सी थी।
-‘‘इस रास्ते क्यों लौटी ?” मैंने पूछा।
-‘‘क्योंकि मुझे मालूम था कि इस रास्ते से तुम मेरी आवाज सुन लोगे।” कहकर वह मेरे करीब आ गई। उसकी भूरी आँखों में एक धुँधला जंगल था। उसकी गोरे रंग की देह पर पानी की बूँदों के टूटने के निशान थे। उसके रक्ताभ कपोल बारिश में धुलकर उजले हो गए थे। उस पर बारिश की रगड़ नहीं, जल का दुलार था।
मैंने उसे हाथ पकड़कर जंगल के मुहाने से घर के दरवाजे के भीतर खींच लिया। उसकी देह बारिश में धुली ताजा वनस्पति की तरह कोमल थी और जल की बूँदों की भाँति तरल और टूटने को आतुर। उसकी देह पर बारिश का जल था, लेकिन वह खुद एक अजान आँच में थरथरा रही थी। वह आँगन में खड़ी हो गई और साड़ी को घुटनों तक उठाकर निचोड़ने लगी। साड़ी के सिलवटों में बह रही एक अदृश्य नदी साड़ी से निकलकर उसकी मुट्ठियों से होती हुई पैरों पर गिरने लगी। उसके पैर और ज्यादा उजले हो गए।
वह आँगन से भीतर के कमरे में आई तो भीतर का कमरा भी गीला होने लगा। निचोड़ने से साड़ी से पानी की एक धारा निकली थी, शायद नदी अभी भी साड़ी में बह रही थी। नदी साड़ी में बह भी रही थी और बरस भी रही थी। कमरा गीला न हो इसलिए वह फिर आँगन में उतर गई। जैसे नदी कमरे से आँगन में उतर गई। मैं थोड़ी देर तक आँगन में बह रही नदी को देखता फिर धीरे-धीरे आगे बढ़कर नदी के करीब आ गया। बानी के भीतर बहती नदी देह के तट तोड़ने को आतुर थी। मैं भीग रहा था और तप रहा था। मैं जितना भीग रहा था उतना तप रहा था। मैंने बानी के कंधे पर हाथ धर दिए। उसका सिर मेरे सीने से आ लगा। बहती हुई नदी की धारा बदल गई। नदी धीरे-धीरे अब मुझमें भी बहने लगी। मेरी देह का हर हिस्सा अब नदी के हवाले था। नदी अब मुझसे होकर बह रही थी। नदी का वेग भी बढ़ने लगा।
नदी के एक तेज लहर मेरे होंठों से टकराई। उस उफनती और वेगवती लहर में एक ऐसी तड़प थी जो होंठों से टकराकर वापस नहीं लौटती थी, बल्कि वहीं से कोई दूसरी जगह का रास्ता तलाशने लगती थी। उफनती हुई नदी के बहाव में एकाएक दो भारी चट्टाने मेरे सीने से आकर टकराई। मुझे लगा कि उन भारी चट्टानों के भीतर भी जैसे एक नदी उफन रही थी। उन दो ठोस भारी पत्थरों के भीतर जैसे ठोस नदी कैद थी।
बानी के देह से कपड़े बहकर आँगन में फैल गए थे। बानी की देह की नदी का उफान उसकी आँखों में दिखाई दे रहा था। उसकी आँखों में एक अबूझ और गहरा भँवर था जो आँखों से उतर कर देह के दूसरे हिस्सों पर उतर रहा था। मुझे लगा, उस भँवर में एक ऐसा खिंचाव था जो उसमें डूब जाने और गुम हो जाने के लिए उकसा रहा था। मेरी देह के कपड़े बह रहे थे। कच्चे आँगन की जमीन पर पानी का बहाव बढ़ने लगा। नदी मेरे भीतर, मेरे ऊपर से बह रही थी। मैं आकंठ नदी में डूबा था। दो भारी पत्थरों का दबाव मेरे सीने पर था, लेकिन शायद जल में डूबे होने के कारण उसका भार नहीं महसूस हो रहा था, लेकिन देह का रेशा-रेशा उस दबाव की उत्तेजना में था। बहती हुई नदी में पता नहीं कौन से खनिज एकाएक घुल गए थे कि बानी की देह की नदी एकाएक ज्यादा उजली और पारदर्शी हो गई थी। चट्टानें जल से धुलकर बेहद उजली और लवण स्वाद से भरी और भारी हो गई थीं । नदी के उफान में मैं चट्टानों के दबाव से निकला तो अगली लहर के धक्के से पलट गया और चट्टानों के ऊपर औंधे मुँह गिरा। मेरा सिर अब चट्टानों के बीच फँसा था। उजली और धुली हुई चट्टानों की धड़कनों के राग मेरे कानों में बज रहा था। उस राग में एक बेकली थी जो देह की नदी में घुल रही थी। नदी छटपटा रही थी। वह अपनी बेकली से छुटकारा पाने के लिए उस राग को वापस बानी की देह की नदी में विसर्जित करना चाहती थी। इन सबके बीच नदी का एक अदृश्य और अनबजा गर्जन था जो तट के सारे बंध तोड़ने को उतावला था। फिर मुझे लगा, जैसे नदी अपनी बेचैनी में उन दो पत्थरों या चट्टानों में दाखिल हो गई जिनमें धड़कनों का राग बज रहा था। तेज लहरों का गर्जन जैसे तट से टकराता है वैसे ही वे पत्थर अपने भीतर उफनती नदी का वेग सँभालने में असमर्थ हो रहे थे। उफनती लहरों का दबाव उन पत्थरों में से होकर मुझे महसूस हो रहा था। वे चट्टान नुमा दो भारी पत्थर नदी के वेग और बहाव से भर आए थे। हर अगली लहर के साथ वे भारी पत्थर साँस की सतह पर आते फिर नीचे तल में धँस जाते। अजीब बात यह थी कि मैं चट्टानों के ऊपर था फिर भी चट्टानों का भार मुझे लग रहा था। मैंने उस अजान और गोप्य भँवर में गिरने से पहले इतना महसूस किया कि चाहे यह जीवन का अंतिम क्षण हो, लेकिन इस राग की बेकली को दूर करने की इसके अलावा कोई राह भी नहीं है।
नदियों के उफान और लहरों के उग्र घमासान के बाद एक भीगा हुआ सन्नाटा फैल गया। नम मिट्टी में लिथड़ी दोनों की निर्वस्त्र देह बाढ़ के बाद तट की वनस्पति के अवशेष की भाँति पड़ी थी। एक-दूसरे की देह के तट से लौटती नदी देह के ऊपर से गुजरते हुए हाँफ रही थी। उसी के साथ बानी की देह की दो चट्टानें मेरे सीने के नीचे दबी हाँफ रही थी। यह एक गहरे उफान के बाद की थकान थी।
मैंने सिर उठाकर देखा, अब हम आँगन में नहीं, नदी के गीले तट पर थे। पता नहीं, एक दूसरे की देह की नदी को हम नदी में विसर्जित करने के लिए यहाँ आए थे या फिर नदी का बहाव हम दोनों को इस तट पर छोड़ गया था। मैं देख कर खुश हो गया कि मैं नदी के दूसरे तट पर था। संभवतः जंगल का रास्ता एक दूसरे तट तक आता है। यह भी हो सकता है कि नदी हमें यहाँ तक छोड़ गई हो। मैं उठकर नदी तक गया। नदी में जल की सतह पर बानी के जाते हुए पैरों के निशान थे, आते हुए पैरों के निशान नहीं थे। फिर मुझे याद आया, बानी नाव से गई थी। फिर एकाएक मुझे यह भी याद आ गया कि मैं दूसरे पट पर बानी के साथ हूँ तो यह बानी के पहले तट से आने के निशान हैं जो अब दूसरे तट से उल्टे दिखाई दे रहे हैं। मैं बानी के आते हुए पैरों के निशान को दूसरे तट से देख रहा हूँ।
बानी उठकर कपड़े पहन रही थी। तब मुझे ध्यान आया कि मैं निर्वस्त्र हूँ। मुझे भी कपड़े पहनना है। कपड़े रेत में शंख की सीपियों के साथ धँसें थे। मैंने कपड़े खींचकर हाथ में लिए और कुछ देर खड़ा रहा। नदी का बहाव अब उग्र नहीं था। जल की सतह के ऊपर से देखने पर उसकी उग्रता का अनुमान लगाना भी कठिन है। कहते हैं नर्मदा का बहाव सतह के नीचे बहुत तेज होता है। नर्मदा अपने आवेश के अतिरेक में भी उग्रता को सतह के नीचे रखती है। एक सतह नीचे। संभवतः यह प्रेम और ममता को बचाए रखने के लिए सतर्कता हो।
मैं कपड़े पहनने लगा। फिर हम दोनों तट पर बैठ गए। बहती हुई नदी कनखियों से हमें देख रही है। आगे बढ़ते हुए भी पीछे पलटकर देख रही है। बानी का हाथ मेरे हाथ में है। उसका सिर मेरे कंधे पर टिका है। वह गहरे अनुराग से नदी को देख रही है। उसके पैरों से टकराते नदी के जल में जाने कौन-सा संदेश था कि वह आहिस्ता से मुस्करा रही है।
बादल छँट गए थे। एक हल्की नीली रोशनी नदी की सतह पर फैल गई थी। जिसकी प्रतिछाया तट पर बिछ रही थी। बानी उठी और नदी के तट पर बिछी महीन रेत पर टहलते लगी। उसके टहलने से रेत पर बिछी रोशनी क्षण भर के लिए रेत में धँस जाती थी फिर कदम उठाते ही वह कदम के निशान पर ठहर जाती थी। बानी ने हाथ के संकेत से मुझे पास बुलाया। उसने टहलते हुए तट पर आदर से सिर झुकाए खड़े पेड़ से एक बड़ा-सा पत्ता तोड़ लिया।
-‘‘मुझे प्यास लगी है। नदी से एक पत्ता पानी ले आओ।‘‘ कहकर उसने पत्ता मेरे हाथ में दे दिया।
-‘‘मैं नदी से एक पत्ता नहीं, एक चाँद पानी भर कर देता हूँ।” कहकर मैं पलटने लगा तो उसकी विस्मित हँसी ने मुझे रोक दिया।
-‘‘एक चाँद पानी….. ?” वह मेरे हाथ से पत्ता लेकर उसे प्याले की शक्ल में ढालने लगी।
मैं उसे वापस नदी किनारे ले आया। चाँद भी नदी किनारे की जलराशि में काँप रहा था। मैंने बानी के हाथ से पत्ते का प्याला लेकर नदी में चाँद की जगह पर डूबोकर उसमें पानी भरा और क्षण भर पत्ता वहीं पकड़े रहा। अब चाँद पत्ते के प्याले में था।
-‘‘हम लोग बचपन में माँ के साथ पानी भरने आते थे तो सारे बर्तन इसी तरह चाँद से भरते थे। हमारे घर चाँद का पानी रहता था।” कहकर मैंने उसे एक पत्ता चाँद से भरा पानी दिया। बानी के चेहरे से अब विस्मय नदारद था। वह खुश हो गई। उसकी खुशी चाँद से भरी थी। एकाएक उसका चेहरा भी चाँद हो गया। उसके चेहरे के आलोक में नदी की जलराशि बिल्लौरी हो गई। नदी के तट की रेत काँच-सी चमकने लगी।
हम दोनों टहलते हुए रोशनी का पीछा करते तट से थोड़ी दूर चले गए। यहाँ झाड़ियों की संख्या बहुत कम थी। पेड़ बिल्कुल नहीं थे। गीली जमीन दूर तक निर्जन और वनस्पति विहीन थी।
-‘‘नगर के जिम्मेदार लोग बता रहे थे यहाँ बस्ती बसेगी। नगर-विस्तार यहाँ तक होगा।” मैंने बानी को बताया।
बानी के चेहरे का चाँद क्षण भर के लिए धुँधला हुआ।
-‘‘उनके नगर बसाने से पहले हम यहाँ जंगल लगा दें तो कैसा रहे ?” बानी के पास एक विकल समाधान था।
-‘‘हम दोनों मिलकर कितने पौधे लगा पाएँगे ?” मैंने अपनी असमर्थ जिज्ञासा रखी जिसमें उसे उसके समाधान को रद्द करने के संकेत दिखाई दिए।
-‘‘कहते हैं कि खरदूषण ने एक रात में एक नगर बना दिया था तो हमारे पास भी एक रात है। नगर बसाने से आसान जंगल लगाना है। यह नदी का इलाका है। यह हिस्सा नदी की सम्पत्ति है। यहाँ बस्ती नहीं, जंगल बस सकता है।” बानी के चेहरे की रोशनी थोड़ी तमतमा रही थी।
-‘‘जंगल बसता नहीं है। जंगल लगाया जाता है।” मैंने उसके वाक्य को दुरूस्त किया।
-‘‘नहीं, जंगल भी बसता है। जंगल की भी अपनी एक बस्ती होती है।” उसकी जिद मुस्कराने लगी।
उसने मेरा हाथ पकड़ा और पौधे लगाने की तैयारी करने लगी। उसने वहीं कहीं से एक नुकीला पत्थर उठाया और गड्ढा तैयार किया। खोजकर एक पौधा लाई और वहाँ रोप दिया। पहला पौधा रोपते ही नदी के असंख्य जीव बाहर आए। कोई पास के जंगल से पौधा लाया। कोई गड्ढे करने लगा। कोई पौधे लगाने लगा। एकाएक सारे प्राणी जैसे इसी काम में जुट गए। फिर तो पास के जंगल से भी प्राणी आकर जुटने लगे। पहली शुरुआत बानी ने की थी जो मुझे कठिन काम की शुरुआत लग रही थी, लेकिन अब तमाम गोचर-अगोचर प्राणी इसी प्रयोजन में जुट गए थे। छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े और पंछी जैसे एकाएक इसी काम के लिए कटिबद्ध हो गए थे। रात थी कि खत्म नहीं हो रही थी। बानी के चेहरे की रोशनी हर प्राणी के चेहरे की रोशनी हो गई थी। मैं थककर चूर जब तट की रेत पर मुर्छा में गिरा तो असंख्य प्राणियों का शोर धीमा होता गया।
सुबह होश आया तो देखा, मैं और बानी नदी तट के एक नए और घने जंगल में थे। नदी बहुत धीमे-धीमे शांत बह रही थी। जंगल की कोमल छाया नदी की जलराशि पर गिर रही थी।


 

 

 

भालचन्द्र जोशी

17 अप्रैल 1956 को आदिवासी क्षेत्र खरगोन में जनमे भालचन्द्र जोशी पेशे से इंजीनियर रहे हैं । आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में कहानी लेखन की शुरुआत। जीवन का एक लंबा हिस्सा आदिवासियों के बीच बिताया है। आदिवासी जीवन पद्धति तथा कला का विशेष अध्ययन। निमाड़ की लोक कलाओं और लोक कथाओं पर काम। चित्रकला में सक्रिय रूचि। देश के प्रमुख अखबारों के लिए समसामयिक विषयों पर लेखन। कुछ समय तक लघु पत्रिका ‘यथार्थ’ का संपादन। इसके अतिरिक्त ‘कथादेश’ के नवलेखन अंक (जुलाई 2002) ,हरिशंकर परसाई विशेषांक ( दिसम्बर 2023 ) , ‘पाखी’ के प्रेम विशेषांक (अगस्त-सितम्बर 2020 ) ,दैनिक ‘आज की जनधारा’ समाचार पत्र, रायपुर की साहित्य वार्षिकी ( वर्ष 2022 , वर्ष 2023 तथा वर्ष 2024 ) का संपादन। प्रेम पर केंद्रित चौदह लेखों की पुस्तक ‘प्रेम का घर : प्रेम की यात्रा’ , ‘सूचना-सभ्यता के स्वप्न पाश’ , ‘ग्लोबल गाँव में स्त्री’ तथा ‘आजादी का पर्यावरण और साहित्य का संघर्ष’ ( दो भाग ) पुस्तकों का संपादन । टेलीविजन के लिए क्लासिक सीरीज में फिल्म लेखन। कुछ कहानियों का भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा में अनुवाद।
नौ कहानी संग्रह , दो उपन्यास और कथा-आलोचना पुस्तकें – ‘यथार्थ की यात्रा’ , ‘कहानी:स्वप्न,यथार्थ और संवेदना’ तथा ‘ नामवर सिंह:आलोचना की सार्थकता’ प्रकाशित । उपन्यास ‘प्रार्थना में पहाड़’ का मराठी और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘वागीश्वरी पुरस्कार’। इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी दिल्ली का वर्ष 2012 का शब्द-साधक जनप्रिय लेखक सम्मान, म.प्र. अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा अभिनव शब्द-शिल्पी सम्मान, ‘जल में धूप‘ कहानी संग्रह के लिए 2013 का स्पंदन कृति सम्मान, ‘हत्या की पावन इच्छाएँ’ कहानी संग्रह के लिए 2014 का शैलेष मटियानी कथा पुरस्कार।
‘नामवर सिंह : आलोचना की सार्थकता’ पुस्तक के लिए वर्ष 2024 का डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आलोचना सम्मान ।
भालचन्द्र जोशी – 603( ग्राउंड फ्लोर )पॉकेट- सी- सरिता विहार
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