अवधेश प्रीत नवे दशक के महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध रहे अवधेश प्रीत के ‘अशोक राजपथ’ और ‘रूई लपेटी आग’ उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प की वजह काफ़ी चर्चा में रहे। आपकी कहानियां भी प्रभावित करने वाली कहानियां हैं जो एक तरह से सामान्य से सामान्य पाठक को अपसेट कर देती हैं।
ऐसी ही एक कहानी ‘ नृशंस ‘ हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जो अपसेट करते हुए एक विचार छोड़ जाती है कि सिस्टम में रहते हुए आपने चरमराकर गिर रहे सिस्टम को फेल्योर कहा तो आप कहीं के न रहेंगे!
विश्वास है, पाठक कहानी के अंदर उठ रहे सवाल को नज़रअंदाज़ क़तई न करेंगे। – हरि भटनागर
कहानी
कामरेड विजय मित्र की मृत्यु को लेकर हुए हंगामे के बाद सरकार ने हृदय रोग विशेषज्ञ डाॅ. सी.के. भगत को निलंबित करते हुए , उनके खिलाफ तीन सदस्यी जांच दल नियुक्त कर दिया। जांच दल को पंद्रह दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपने के साथ ही माामले की गंभीरता और संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए जांच को मुख्य रूप से निम्नलिखित बिन्दुओं पर केन्द्रित करने का निर्देश दिया गया थाः
क- डाॅ. सी.के. भगत की चिकित्सा के दौरान पेशेंट विजय मित्रा की हुई मृत्यु का वास्तविक कारण।
ख -एक जनवरी की रात ड्यूटी पर न रहते हुए भी डाॅ. सी.के. भगत का आई.सी.यू. में ड्यूटी करना।
ग -डाॅ. सी.के. भगत का व्यक्तिगत आचरण।
घ -और डाॅ. सी.के. भगत द्वारा दिए गए ‘डेथ सर्टिफिकेट’ की वैधानिक हैसियत।
जांच दल में डाॅ. रजनीश आचार्य-कार्डियोलाॅजिस्ट, डाॅ. जीवकांत यादव-न्यूरोलाॅजिस्ट तथा डाॅ. रामाशीष देव-साइकियाट्रिस्ट शामिल थे। अपने-अपने क्षेत्र के इन विशेषज्ञों ने अपने कार्य शुरू करते हुए सबसे पहले गवाहों, साक्ष्यों और परिस्थितियों पर गौर किया। इस क्रम में जांच दल ने जांच के दायरे में शामिल सभी पक्षों को नोटिस जारी किया, फिर उन्हें अपना बयान दर्ज कराने के लिए एक-एक कर तलब किया। जांच दल को सहयोग करते हुए सभी पक्षों ने अपने बयान दर्ज कराए, जो इस प्रकार हैंः
डाॅ. सी.के. भगत का बयान-
यह सच है कि एक जनवरी की रात कॉर्डियोलाॅजी में मेरी ड्यूटी नहीं थी, लिहाजा मैं अपने क्वार्टर में था और अपनी लकवाग्रस्त पत्नी को बाथरूम से लाकर बेड पर लिटा ही रहा था कि मेरे क्वार्टर का काॅलबेल बज उठा था। मैंने सोचा कि पत्नी को बेड पर लिटाकर, क्योंकि वह थोड़ी देर टी.वी. देखना चाहमी थी, इसलिए उसकी पीठ के नीचे तकिए का सपोर्ट देकर और उसके पांवों पर कंबल डालकर दरवाजा खोलूं, लेकिन काॅलबेल न सिर्फ लगातार बजता जा रहा था, बल्कि साथ-साथ दरवाजे पर भी किसी के हाथों की दस्तक होने लगी थी। मुझे लगा कि बाहर जरूर कोई बेहद परेशानी में है और अधीरता से खड़ा है। मैंने पत्नी को जिस हालत में थी, उसी में छोड़कर और लगभग दौड़ते हुए मुख्य द्वार खोला। द्वार पर पी.जी. स्टूडेंट डाॅ. सुजाता राय खड़ी थी। वह बेहद घबराई और तनावग्रस्त दिख रही थी। उसकी सांसें तेज-तेज चल रही थीं । ऐसा लग रहा था जैसे वह दौड़ते हुए आई हो।
मुझे अपने सामने पाकर डाॅ. सुजाता राय, जैसा कि सामान्यतः होता है, पी.जी. स्टूडेंट्स अपने सीनियर डाॅक्टर का अभिवादन जरूर करते हैं, मेरा अभिवादान करना भी भूल गई और इससे पहले कि मैं उससे कुछ पूछूं उसने स्वयं ही बताना शुरू कर दिया, ‘‘सर, अभी…अभी एक सीरियस पेशेंट आया है…मैंने उसे आई.सी.यू. में भर्ती कर लिया है…कोई सीनियर डाॅक्टर नहीं है…सर, कोई नहीं मिला…इसलिए आपको तकलीफ दे रही हूं…प्लीज सर…आप जरा चलकर देख लें।’’
डाॅ. सुजाता राय के आग्रह के बावजूद मैंने निरपेक्ष भाव उससे पूछा, ‘‘डाॅ. राय पेशेंट आपका रिश्तेदार है?’’
‘‘नो सर!’’ डाॅ. सुजाता राय सकपकाई।
मेरे माथे पर बल पड़ गए, ‘‘ फिर आप इतनी इमोशनल क्यों हो रही हैं?’’
डाॅ. सुजाता राय को कोई जवाब नहीं सूझा। बड़ी मुश्किल से थूक निगलते हुए बोल पाई, ‘‘साॅरी सर।’’
‘‘किसकी ड्यूटी है?’’ मैंने शुष्क स्वर में पूछा।
डाॅ. सुजाता राय ने बताया, ‘‘डाॅ. चौधरी की!’’
‘‘क्यों? कहां हैं डाॅ.चौधरी? ’’
‘‘सर, डाॅक्टर चौधरी अभी तक आए नहीं हैं। मैंने उनके घर फोन लगाने की कोशिश की, लेकिन घंटी बजती रही …कोई रेस्पांस नहीं हुआ…शायद फाल्स रिंग…।’’
डाॅ. सुजाता राय की बात मैंने बीच में काट दी, ‘‘क्यों, कैम्पस में कोई और सीनियर नहीं मिला?’’
‘‘नहीं सर, डाइरेक्टर साहब सीनियर डाॅक्टर की एक टीम के साथ सी.एम. हाउस गए हैं…रुटीन चेकअप के लिए।’’ डाॅ. सुजाता राय ने मजबूरन मेरे पास आने की जैसे सफाई-सी दी।
उस वक्त मेरी तत्काल इच्छा हुई कि मैं अपनी ड्यूटी न होने का बहाना करके या फिर अपनी पत्नी की बीमारी का हवाला देकर छुटकारा पा लूं, पर डाॅ. सुजाता राय की घबराहट और बेचारगी देखकर मुझे ऐसा करना अनैतिक-सा लगा, लिहाजा मैंने डाॅ. सुजाता राय को आश्वस्त किया, ‘‘बस दो मिनट डाॅ. राय! पत्नी को लिटाकर आता हूं…वह अभी-अभी बाथरूम से आई है…यू नो,शी इज अनेबल टू डू एनीथिंग…आज मेड भी छुट्टी पर है!’’
मैं डाॅ. सुजाता राय को वहीं छोड़कर, उल्टे पांव बेडरूम की ओर लौट गया, जहां मेरी पत्नी अस्त-व्यस्त-सी बेड पर पड़ी थी। मैंने पत्नी को ठीक से लिटाया। उसके पांवों पर कंबल डाला और टी.वी. ऑन करके उसे बताया, ‘‘एक सीरियस पेशेंट है… उसे देखकर आता हूं।’’
पत्नी ने कुछ कहना चाहा, लेकिन मैं उसकी बात सुने बगैर तेजी से बाहर चला आया। डाॅ. सुजाता राय अपराधबोध, आशंका और अजीब-से आतंक में डूबी मेरे लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। मैंने उसपर नजर पड़ते ही टोका, ‘‘डाॅ. राय, एक डाॅक्टर होने की पहली शर्त जानती हो क्या है?’’
डाॅ. सुजाता राय ने मेरी ओर उत्सुकता से देखा। मैंने उसे लक्ष्य करके कहा,‘‘नो सेंटीमेंट्स…नो इमोशंस…नो इंवाल्वमेंट्स।’’
मैंने यह बात दो कारणों से कही थी। एक तो यह मेरी धरणा रही है कि लड़कियां मूलतः भावुक होती हैं और दूसरे यह कि मैं चाहता था कि डाॅ. सुजाता राय जो अब तक असहज दिख रही थी, सहज हो जाए।
पता नहीं, डाॅ. सुजाता राय सहज हुई या नहीं, लेकिन मेरे साथ इंस्टीट्यूट बिल्डिंग की ओर बढ़ते हुए उसने मुझे बताया, ‘‘सर, मैंने ऐसी खामोश भीड़ नहीं देखी, जिसकी आप उपेक्षा कर जाएं। शायद इसीलिए मैं इतनी परेशान और एक्साइटेड दिख रही हूं।’’
मुझे लगा डाॅ. सुजाता राय सफाई दे रही है। शायद मेरी टिप्पणी ने उसे आहत किया था। मैंने उसके चेहरे को देखने की कोशिश की, लेकिन उसकी चाल में अप्रत्याशित आई तेजी से, ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया। मैंने भी चुप रहना बेहतर समझा। फिर हम सारी राह चुप ही रहे।
जिस वक्त मैं आई.सी.यू. में दाखिल हुआ सिस्टर एलविन पेशेंट को आई.वी. लाइन लगा चुकी थी। उसकी प्रोफेशनल मुस्कुराहट में कशिश नहीं थी, या कि मैं ही ऐसी मुस्कुराहटो का अभ्यस्त था, सो मैंने उस वक्त खास ध्यान नहीं दिया और उससे चार्ट लेकर पेशेंट की डिटेल्स देखने लगा।
चार्ट में पेशेंट का नाम विजय मित्र, उम्र 51 वर्ष दर्ज था। उसका ब्लड प्रेशर असामान्य रूप से बढ़ा हुआ था। उसकी ई.सी.जी. रिपोर्ट खतरनाक संकेत दे रही थी। मैंने एक नजर पेशेंट पर डाली। पेशेंट के चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क चढ़ा था, जिसके जरिए वह कठिनाई से सांस ले पा रहा था। ई.सी.जी. माॅनिटर स्क्रीन पर उठती-गिरती तरंगें बता रही थीं कि पेशेंट अपनी ज़िंदगी से जूझ रहा है।
‘‘सर, आपको क्या लगता है…इज इट ए केस ऑफ मायोकार्डियल इनफार्कशन?’’
मैं डाॅ. सुजाता राय के इस प्रश्न का आशय तत्काल नहीं समझ सका, बल्कि मुझे उसके इस मासूम सवाल पर हैरानी-सी हुई, सो मैंने उसे घूरते हुए पूछा, ‘‘ह्नाट डू यू मीन?’’
‘‘दरअसल।’’ डाॅ. सुजाता राय कुछ कहते-कहते रुक गई थी। शायद कोई हिचक उसके आड़े आ गई थी।
उसकी हिचक मेरी समझ से परे थी। मुझे लगा कि डाॅ. सुजाता राय पेशेंट के प्रति कुछ ज्यादा ही कांशस है, इसलिए उत्सुकतावश पूछा, ‘‘डाॅ. राय, समथिंग रांग विद यू?’’
‘‘नो…नो…सर।’’ सुजाता घबरा गई गोया मैंने उसकी चोरी पकड़ ली हो। स्वयं को संयत करने की कोशिश में कहा, ‘‘सर, मुझे लगता है, इस आदमी को मायोकार्डियल इनफार्कशन नहीं हो सकता।’’
‘‘क्यों, ऐसा तुम कैसे कह सकती हो? पहली बार मेरा विश्वास हिला। मैंने खुद को विश्वास दिलाने के लिए जैसे अपनी आंखें ई.सी.जी. माॅनिटर स्क्रीन पर टिका दीं।’’
‘‘सर, एक ऐसा आदमी जो हिंसा में विश्वास करता हो…जिसके लिए किसी को छः इंच छोटा कर देना मामूली बात हो… जिसका नाम जन संहारों का पर्याय हो, उसके पास भी दिल जैसी कोई चीज हो सकती है क्या?’’ डाॅ. सुजाता राय के स्वर में उत्तेजना इस कदर व्याप्त थी कि मैं निरपेक्ष नहीं रह सका। मैंने डाॅ. सुजाता राय को आश्चर्य से देखा…यह डाॅक्टर है या महज मामूली भावुकता से भरी एक सामान्य लड़की?
मैंने उसकी आंखों में कुछ तलाशने की कोशिश की, शायद मासूमियत या कि मायूसी, ठीक-ठीक नहीं कह सकता, लेकिन अपना असमंजस छुपा नहीं पाया, ‘‘मैं कुछ समझा नहीं, डाॅ. राय।’’
‘‘सर! यह आदमी नक्सल लीडर है। यू नो, नक्सलीज डू बिलीव इन ब्लड शेड्स।’’ डाॅ. सुजाता राय की आवाज लरज रही थी।
बयान देते-देते डाॅ. सी.के. भगत ठिठक गए, क्योंकि उन्हें ऐन वक्त अपनी मनःस्थिति याद आ गई, जब डाॅ सुजाता राय ने कहा था, ‘‘नक्सलीज डू बिलीव इन ब्लड शेड्स।’’
(उस वक्त उनके माथे पर बल पड़ गए थे जैसे वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हों। उनकी स्मृति में पेशेंट चार्ट पर दर्ज नाम। विजय मित्र स्फुर्लिंग की तरह कौंधा था और वह मन-ही-मन बुदबुदाए थे -नक्सल लीडर विजय मित्र। सहसा, वह एक झटके से उठे और पेशेंट के करीब जा पहुंचे थे । पेशेंट के चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क लगे होने की वजह से उन्होंने पहले उसे बहुत गौर से नहीं देखा था। तब कोई दिलचस्पी भी नहीं थी, लेकिन अभी, इस वक्त वह पेशेंट के बहुत करीब खड़े होकर न सिर्फ उसे बेहद ध्यान से देख रहे थे, बल्कि जैसे लगातार अपनी याददाश्त पर भी जोर डाल रहे थे। कद, काठी, रंग, रूप वही होने के बावजूद पेशेंट के चेहरे पर व्याप्त प्रौढ़ता, बालों से झांकती सफेदी और निश्चल मुंदी आंखें उनके देखे विजय मित्र से मेल नहीं खाती थीं। बीस-पच्चीस साल पहले के विजय मित्र को याद करते हुए उनकी आंखें सुखद आश्चर्य से फैलती-चली गई थीं। वह उस क्षण सचमुच भावुक हो गए थे।)
डाॅ.सी.के. भगत को चुप और कुछ असहज देखकर साइकियाट्रिस्ट डाॅ. रामाशीष देव ने टोका, ‘‘ह्नाट हैपेंड, डाॅ. भगत?’’
डाॅ. सुजाता राय ने भी मुझसे यही पूछा था, ‘‘ह्नाट हैपेंड, सर?’’
‘‘मैंने डाॅ. सुजाता राय के इस सवाल का जवाब देने के बजाय सिस्टर एलविन को पुकारा। सिस्टर एलविन लगभग दौड़ती हुई मेरे पास आई । मैंने उसे आदेश दिया, “सिस्टर, पेशेंट का ब्लड बायोकेमेस्ट्री के लिए भिजवाइए और हां, पेशेंट के अटेंडेंट को बुलाइए।’’
सिस्टर एलविन उल्टे पांव लौट गई। डाॅ. सुजाता राय पेशेंट को सट्रेप्टोकिनेस दे चुकी थी। मैंने आई.वी. लाइन को चेक किया। इस तरह चेक करने से मुझे संतोष हुआ। फिर मैं ई.सी.जी. माॅनिटर के पास बैठकर सिस्टर एलविन की प्रतीक्षा करने लगा। शायद मुझे बेहद सीरियस देखकर डाॅ. सुजाता राय ने टोका, ‘‘सर, क्या सोच रहे हैं, आप?’’
(उन्हें अच्छी तरह याद है कि उस वक्त वह विजय मित्र के बारे में सोच रहे थे। मेडिकल काॅलेज में जो लड़का उनका रूम मेट बना था वह विजय मित्र ही था। सामान्य कद-काठी का सांवला-सा विजय मित्र क्लास में भी ज्यादातर खामोश ही रहता। अपने-आप में खोया हुआ गोया मन कहीं और तन कहीं और हो। शुरु में उनका विजय मित्र से बस ‘हाय-हैलो’ भर का रिश्ता था। जब विजय मित्र उनके साथ ही एक कमरे में रहने लगा, तब उसे करीब से देखने-जानने का मौका मिला। शुरू में विजय मित्र उनके साथ बस काम भर ही बात करता, लेकिन धीरे-धीरे उनके बीच से औपचारिकता की दीवार ढहने लगी थी। वे अब कुछ खुलकर बोलने-बतियाने लगे थे।
उन दिनों विजय मित्र देर रात तक जागता और अपने सिरहाने टेबल लैम्प जलाकर पढ़ता रहता। चूंकि उन्हें रात में देर तक जागने की आदत नहीं थी, इसलिए वह जल्दी ही सो जाते। लेकिन रात जब कभी नींद टूटती, वह पाते कि विजय मित्र पढ़ रहा है। ऐसी ही एक रात जब उनकी आंख खुली, तो उन्होंने पाया कि विजय मित्र अपने बेड पर नहीं है। उस रात यह सोचकर कि विजय मित्र बाथरूम गया होगा, वह सो गए थे। पर अक्सर ऐसा होता कि जब भी वह रात में उठते, विजय मित्र अपने बेड पर नहीं मिलता। विजय मित्र का इस तरह रात को गायब हो जाना, जितना औत्सुक्यपूर्ण था, उतना ही रहस्यमय भी। आखिरकार एक दिन उन्होंने विजय मित्र से पूछ ही डाला था, ‘‘पार्टनर, ये रात-रात भर कहां गायब रहते हो? कोई चक्कर-वक्कर तो नहीं?’’
विजय मित्र न तो चौंका था, न ही चोरी पकड़ लिए जाने जैसा कोई भाव उसके चेहरे पर दिखा था। एक मद्धिम-सी मुस्कुराहट ज़रूर उसके होंठों पर उभरी थी, ‘‘कोई चक्कर-वक्कर नहीं, साथी! बस, यूं ही मन नहीं लगता, तो घूमने निकल जाता हूं।’’
विजय मित्र के जवाब से वह कतई संतुष्ट नहीं हुए थे, लेकिन विजय मित्र का अंदाज कुछ ऐसा था, कि आगे कुछ नहीं पूछ पाए थे, उसे कुरेदना, खामख्वाह उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप-सा लगा था। वह कुछ अबूझ-सा जानने की फांस दबा गए थे।
लेकिन वह रहस्य…अबूझपन ज्यादा दिनों तक छुपा नहीं रह पाया था । विजय मित्र के सिराहने, किताबों के बीच कई ऐसी किताबें दिखने लगी थीं, जिनका मेडिकल साइंस से कोई लेना-देना नहीं था। वह कभी कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा-पत्र पढ़ता, तो कभी दास कैपिटल। वह अक्सर कार्ल मार्क्स, एंजल्स, लेनिन, माओ-त्से-तुंग की किताबों में खोया रहता और जब थक जाता तो आंखें मूंद कर कुछ सोचता रहता। उन्हें लगता कि विजय मित्र अपना समय बर्बाद कर रहा है। रूममेट होने के नाते उन्हें विजय मित्र का यह भटकाव अच्छा नहीं लगता था , इसलिए उन्होंने विजय मित्र को समझाने की कोशिश की थी, ‘‘विजय, इन फालतू किताबों में अपना वक्त क्यों बर्बाद कर रहे हो?’’
विजय मित्र जैसे उनके इस आक्रमण के लिए पहले से तैयार था। शांत चित्त उसने दलील दी थी, ‘‘तुम जिन किताबों को फालतू कह रहे हो, दरअसल, वे ही एक दिन दुनिया का नक्शा बदल कर रख देंगी।’’
‘‘लेकिन ये किताबें तुम्हें डाॅक्टर नहीं बनने देंगी।’’ उन्होंने प्रतिवाद किया था।
‘‘शायद हां।’’ विजय मित्र विचलित होने की बजाय कहीं ज्यादा दृढ़ हो आया था, ‘‘मैं डाॅक्टर न भी बन पाऊं ..लेकिन मनुष्य समाज को जो बीमारी भीतर-ही-भीतर खाए जा रही है, उसका कोई निदान जरूर कर सकूंगा।’’
वह विजय मित्र को अवाक् देखते रह गए थे- जैसे उसका दिमाग चल गया हो । लेकिन नहीं, विजय मित्र उनकी आंखों में आंखें डाले मुस्कुराए जा रहा था। उन्होंने एक बार फिर विजय मित्र को समझाने के प्रयास में उसके मर्म पर चोट की थी, “विजय, यह सब जानकर तुम्हारे घरवालों को दुख होगा। उन्होंने तुम्हें यहां डाॅक्टर बनने के लिए भेजा है। उनकी तुमसे ढेर सारी उम्मीदें होंगी। मुझे लगता है, तुम उनके साथ ज्यादती कर रहे हो।’
इस बार विजय मित्र ने कोई प्रतिवाद नहीं किया था लेकिन वह उनकी बातों से सहमत हो, ऐसा भी नहीं लगा था।, उन्हें अपनी कोशिश की निरर्थकता खल गई थी। अनचाहे ही उस दिन, एक गहरी चुप्पी उन दोनों के बीच तन गई थी। उस दिन के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि विजय मित्र जो पढ़ता है, या रात-रात भर गायब रहता है, या जो सोचता है, उस सबका मेडिकल की पढ़ाई से कोई वास्ता नहीं है और वह लगभग आत्महंता हो चुका है। यह सब दुःखद था। उन्हें अफसोस होता और वह मन से चाहते कि विजय मित्र अपने भविष्य के साथ ऐसा घात न करे।
पता नहीं, विजय मित्र के प्रति वह किस भावना से भरे थे कि जब भी कभी मौका मिलता, वह उसे समझाने से फिर भी स्वयं को रोक नहीं पाते। वह ऐसे वक्तों में अक्सर उससे पूछते, ‘‘विजय, तुम्हे नहीं लगता है कि तुम अपने आपको वेस्ट कर रहे हो? यह जो अपरच्युनिटी मिली है, एक डाॅक्टर बनने की, इसे तुम खो रहे हो…एक बेहतर कैरियर…एक बेहतर फ्यूचर. ..एबभ ऑल एक बेहतर ह्यूमन सर्विस का मौका गंवा रहे हो? ’’
‘‘साथी! मैं तुम्हारी भावना की कद्र करता हूं। मैं मानता हूं कि तुम जो कह रहे हो, उसमें कहीं ज्यादा आकर्षण है…जिंदगी कहीं ज्यादा सुविधजनक हो सकती है। लेकिन…!’’ विजय मित्र एक-एक शब्द पर जोर देते हुए बोला, ‘‘गरीबी…गैर बराबरी…भूख…अन्याय…दमन…शोषण…अत्याचार…मनुष्य के श्रम का अपमान, यह सब कुछ देखकर मैं बेचैन हो उठता हूं…गहरे तक आहत और अपराधबोध से भर जाता हूं। मुझे लगता है, मैं इस मशीनरी का पुर्जा नहीं बन सकता।’’
विजय मित्र का यह फैसलाकुन तेवर दिन पर दिन परवान चढ़ता गया था। वह अपनी रातें मजदूर बस्तियों में गुजारने लगा था। दिन जन-आंदोलनों…विरोध प्रदर्शनों…गोष्ठियों-सेमिनारों में गुजरते। वह कई-कई दिनो तक हाॅस्टल नहीं लौटता। उसकी गतिविधियां जिस तेजी से बढ़ रही थीं, वह उतनी ही तेजी से मेडिकल की पढ़ाई से विमुख होता जा रहा था।
वह जब भी विजय मित्र को घेरने की कोशिश करते, वह उनसे कोई तीखा प्रश्न पूछकर, उन्हें निरुतर कर देता। वह जब-तब कहता, ‘‘साथी, मेडिकल छात्रों का जितना शोषण होता है…बंधुआ मजदूर-सा जो बर्ताव होता है, मैं सोचता हूं उसके खिलाफ भी आवाज उठाई जानी चाहिए…। छात्रों को गोलबंद किया जाना चाहिए…।’’
विजय मित्र की बातें सुनकर उनके शरीर में झुरझुरी छूट जाती। वह बगलें झांकने लगते। कहीं, कोई सुन न ले। वह कमरे के बाहर की आहट लेते और कमरे के भीतर विजय मित्र की उपस्थिति से सहमे रहते। वह उसके साथ असहज जरूर रहते थे, लेकिन पता नहीं क्यों, उसकी अनुपस्थिति उन्हें खलती भी थी। वह अजीब वितृष्णापूर्ण आकर्षण था।
उन्हीं दिनों, अचानक एक दिन पुलिस उनके कमरे की तलाशी लेने आ धमकी थी । पता चला, विजय मित्र गिरफ़्तार कर लिया गया है। यह खबर सुनकर उनका खून जम गया था। चेतना सुन्न हो गई थी। दिल बैठने लगा था। पुलिस जब तक कमरे की तलाशी लेती रही थी,वह दहशत के मारे डूबते-उतराते रहे थे।
पुलिस विजय मित्र की वे तमाम किताबें, जो उसके सिराहने, बिस्तर के नीचे, आलमारी के अंदर और ट्रंक के भीतर रखी हुई थीं, बतौर ‘आपत्तिजनक सामग्री’ अपने साथ ले गई थी। जाने से पहले एक पुलिस अफसर ने उनसे भी विजय मित्र के बारे में कई प्रश्न पूछे थे। लेकिन उन्होंने ज्यादातर प्रश्नों के प्रति अपनी अनभिज्ञता जाहिर की थी। उस वक्त, उनके सीनियर्स, सहपाठियों और कई प्रोफेसर्स ने उनके पक्ष में पुलिस अफसर को समझाया था कि भगत काॅलेज का बेस्ट स्टूडेंट है और एक रूम में रहने के बावजूद उसका विजय मित्र से कोई लेना-देना नहीं है।
उस दिन पुलिस के जाने के बाद भी वह बड़ी देर तक उस वाक़ये के असर से उबर नहीं पाए थे। मन में जारी धुकधुकी और विजय मित्र का रह-रहकर आता ख्याल, उन्हें उद्वेलित करता रहा था। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस पूरी घटना से स्वयं को किस तरह असंपृक्त करें? उनकी आंखों में विजय मित्र का सांवला-सा चेहरा, चमकीली आंखें, विद्रोही तेवर बरबस उभर आता और वह जैसे स्वयं से ही पूछने लगते-विजय मित्र नक्सलबाड़ी क्या करने गया था? वहां पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कैसे कर लिया? वह जिस राह जा रहा है, वह सही है या गलत? वह अपने कैरियर से ज्यादा क्रांति को तरजीह क्यों दे रहा है?
उस रात विजय मित्र का अस्त-व्यस्त बेड उन्हें बड़ी देर तक परेशान करता रहा। वह बड़ी देर तक उस ओर से स्वयं को विमुख करने की कोशिश करते रहे। बड़ी देर तक वह विजय मित्र की स्मृति -छाया से जूझते रहे। बड़ी देर तक दोनों के बीच शह-मात का खेल चलता रहा। अंततः वह उठे थे। उसकी बिखरी किताबें करीने से अलमारी में लगाई थीं। गद्दे को झाड़ा था और उसपर साफ चादर डाल डाल दी थी। तकिए का कवर ठीक करते हुए उन्हें आभास हुआ था कि तकिए के अंदर कुछ है। उन्होंने उत्सुकता से तकिए के अंदर हाथ डाला था | वहां एक डायरी थी। लाल रंग के प्लास्टिक कवर वाली उस डायरी में विजय मित्र ने बेतरतीब ढंग से बहुत सारी बातें लिख रखी थीं। घटनाएं…विचार…निजी प्रसंग।
विजय मित्र की वह डायरी उसकी अंतरंग टिप्पणियों से भरी पड़ी थी। उसे पढ़ते हुए वह कभी रोमांचित होते रहे थे,तो कभी आतंकित होते रहे थे। उसी डायरी में विजय मित्र ने एक जगह लिखा था,‘विश्लेषणात्मक रुख की कमी होने की वजह से हमारे बहुत से साथी जटिल समस्याओं का बार-बार गहराई से विश्लेषण और अध्ययन नहीं करना चाहते, बल्कि सीधे निष्कर्ष निकालना चाहते हैं, जो या तो मुकम्मिल तौर पर सकारात्मक होते हैं अथवा मुकम्मिल तौर पर नकारात्मक।’-माओ-त्से-तुंग।
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए उन्हें विजय मित्र की मनःस्थिति का अंदाजा हुआ था और लगा था कि ये टिप्पणी एक तरह से उन्हें ही संबोधित है। अक्सर ऐसा होता, कि विजय मित्र से होनेवाली बातचीत से वह एकदम से असहमत होते और कई बार तो उसकी दलीलों की खिल्ली भी उड़ा देते थे, ‘डोंट लिव इन फुलिश पैराडाइज।’’)
डाॅ. सी.के. भगत के होंठ हिले। वह स्वगत बुदबुदा रहे थे, ‘‘बेवकूफ कहीं का।’’
न्यूरोलाॅजिस्ट डाॅ. जीवकांत यादव चौंके। उन्होंने डाॅ. सी. के. भगत को टोका, “डॉक्टर भगत आर यू ओके?”
डॉक्टर सी. के. भगत ने स्वयं को संभाला, लेकिन अपनी झेंप छुपा नहीं पाए, ‘‘यस…यस, डाॅ. यादव, आ’एम एब्साॅल्यूटली ओके !’’
ृ इससे पहले कि कोई उनकी मनःस्थिति को पकड़ पाए, डाॅ. सी.के. भगत ने स्वयं को संयत करते हुए अपने बयान का छूटा सिरा थाम लिया।
“डाॅ. सुजाता राय के यह पूछने पर कि मैं क्या सोच रहा हूं, मैंने टालने की गरज से उससे पूछा था , ‘‘बाय द वे, तुम इस पेशेंट को जानती हो?’’
डाॅ. सुजाता राय को संभवतः इस सवाल की कतई उम्मीद नहीं थी, शायद इसीलिए क्षण भर को वह सकते में आ गई थी , लेकिन मुझे अपनी ओर एकटक देखता पाकर बोली थी , ‘‘सर, वो क्या है कि अखबार वगैरह में पढ़ती रही हूं।’’
‘‘आई सी! मुझे लगा कि तुम पर्सनली जानती हो?’’
ृृ ‘‘नहीं सर! ऐसी कोई बात नहीं।’’ डाॅ. सुजाता राय जैसे सफाई देने पर उतर आई थी,‘‘पेशेंट के साथ कुछ लोग आए हैं, दरअसल उनकी बातों से भी भान हुआ कि पेशेंट नक्सल लीडर है।’’
सहसा मुझे ख्याल आया कि सिस्टर एलविन अभी तक वापस नहीं आई है, लिहाजा मैंने पेशेंट की बाबत डाॅ. सुजाता राय को कुछ हिदायत दी और तेजी से आई.सी.सी.यू. से बाहर चला आया।
सिस्टर एलविन मुझे काॅरीडोर में ही आती हुई मिल गई। वह बुरी तरह झुंझलाई हुई थी। मुझ पर एक नजर पड़ते ही तीखे लहजे में लगभग फट-सी पड़ी, ‘‘सर, उधर कोई नहीं है। बायोकेमेस्ट्री में ताला लगा है।’’
‘‘क्यों?’’ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। इस इंस्टीट्यूट में व्याप्त यह अराजकता कोई नई बात नहीं थी, लेकिन इस वक्त सिस्टर एलविन द्वारा दी गई यह सूचना मुझे नागवार गुज़री। मै एकदम तैश में आ गया। सिस्टर एलविन को आई.सी.यू. में जाने को बोलकर मैं तेजी से आगे बढ़ गया।
इंस्टीट्यूट के बाहर बरामदे में एक खामोश मगर बेचैन भीड़ खड़ी थी। मुझे देखते ही कई जोड़ी आंखें मेरे चेहरे पर आ टिकीं । उन आंखों में आशा थी…आशंका थी…जिज्ञासा भरी चुप्पी के पीछे छलछलाती हुई याचना थी। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उस भीड़ से आंखें मिला पाऊं । बचकर निकल जाने की कोशिश में मैं डाॅक्टर्स चैम्बर की ओर बढ़ा था कि यक -ब-यक पूरा इंस्टीट्यूट घुप्प अंधेरे में डूब गया। बिजली गुल हो गई थी। अछोर-अंधेरे में जैसे हर चीज अपनी जगह पर ठहर गई थी।
इस भयावह अंधेरे के बीच एकबारगी मेरे दिमाग में एक साथ दो चेहरे कौंधे थे। पहला मेरी पत्नी का, दूसरा आई.सी.सी.यू. में अपनी मौत से लड़ रहे पेशेंट विजय मित्र का। दोनों चेहरे एक -दूसरे में गड्डमगड्ड हो गए और मैं किकर्तव्यविमूढ़-सा रोशनी आने का इंतजार करता रहा। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि अभी तक इंस्टीट्यूट का जेनरेटर क्यों नहीं चालू हुआ? इस अप्रत्याशित विलम्ब और अंधेरे के आतंक में मेरे लिए और प्रतीक्षा करना मुश्किल हो गया। मैं अंधेरे में ही अंदाज के सहारे आई.सी.सी.यू. की ओर दौड़-सा पड़ा। आई.सी.सी.यू. में मेरे दाखिल होते-न-होते बिजली आ गई । बिजली आ गई थी या कि जेनरेटर चल पड़ा था, नहीं पता। झपाक से आई रोशनी में मेरी आंखें चुंधिया गईं । मैंने पलकें झपकाते हुए ई.सी.जी. माॅनिटर स्क्रीन पर आंखें टिका दीं । वहां ‘हार्ट बीट्स’ बतानेवाली रेखाओं का ग्राफ नदारद था। स्क्रीन पर सिर्फ एक सपाट-सी चमकीली लकीर स्थिर थी। मैं दौड़ा हुआ पेशेंट के पास गया। उसकी कलाई अपने हाथ में लेकर नब्ज टटोलने लगा। मैं इस कदर व्यग्र और विह्नल था कि पेशेंट की नब्ज तक पकड़ में नहीं आ रही थी। मैंने आनन-फानन पेशेंट को कॉर्डियल-पल्मोनरी रिससिटेशन देने की कोशिश की, लेकिन डाॅ. सुजाता राय ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘सर, पेशेंट इज नो मोर!’’
मैंने गौर किया कि डाॅ. सुजाता राय उस वक्त न तो भावुक थी न ही बेचैन। उसका स्वर निहायत सपाट था। मुझे लगा कि वह मेरी बेचैनी और भावुकता को लक्ष्य कर रही है, लेकिन सच तो यह है कि मैं उस वक्त तक पेशेंट की मुत्यु को स्वीकार नहीं कर पाया था। मैंने हताश स्वर में डाॅ. सुजाता राय से कहा, ‘‘नो डाॅ. राय, वी कुड नाट सेव हिम।’’
बयान देते-देते डाॅ. सी.के. भगत रुके। उनके माथे पर पसीना छलक आया था। पसीना पोंछने के लिए जेब से रूमाल निकालते हुए उनका दिमाग कई-कई स्मृतियों में उलझ गया था। मन सुदूर अतीत की ओर भाग छूटा था।
( लाख चाहकर भी विजय मित्र को बचाया नहीं जा सका था। हालांकि उन समेत कई छात्रों ने तर्क दिया था कि किसी छात्र की राजनीतिक प्रतिबद्धता उसका निजी अधिकार है और इस आधार पर उसे काॅलेज से नहीं निकाला जाना चाहिए। लेकिन काॅलेज प्रशासन कोई दलील सुनने को तैयार नहीं था, बल्कि छात्रों के विरोध के इस तेवर के उग्र होने से पहले ही काॅलेज में सख्ती शुरू कर दी गई थी। एहतियात के नाम पर पुलिस की तैनाती और कई प्राध्यापकों के धमकी भरे रवैए ने छात्रों का हौसला पस्त कर दिया था। विजय मित्र का निष्कासन पहले तो बहस का विषय बना, फिर धीरे-धीरे विस्मृति के गर्भ में खो गया। फिर भी विजय मित्र उनके दिलो-दिमाग पर अर्से तक छाया रहा। कमरे में मौजूद उसका बेड, उसकी किताबें, ट्रंक, टेबललैम्प और उसके कपड़े, उसकी स्मृति को कहीं ज्यादा सघन कर जाते। उसके शब्द, उसके भाव, उसकी भंगिमा, उसकी त्वरा और उसके तेवर लाख चाहकर भी वह विजय मित्र के लिए अपने मन की इस कमजोरी को कभी समझ नहीं पाए।
अचानक एक दिन जब विजय मित्र का सामान लेने उसके पिता मिहिजाम से आए, तो उनके थके, हताश और दरके व्यक्तित्व को देखकर वह भीतर तक हिल गए थे। बड़ी मुश्किल से उनसे कह पाए थे, ‘‘हमने बहुत कोशिश की, लेकिन…।’’
उन्हें इस ‘लेकिन’ के आगे क्या कहना है, कुछ समझ नहीं आया था और न ही विजय मित्र के पिता ने कुछ जानने की कोशिश की थी। सामान समेटने और रिक्शे पर लदवाने के दरम्यान एक ऐसी सख्त चुप्पी बनी रही, जिसके भीतर इतना कुछ कहा जा चुका था, कि शब्दों के होने न होने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। वह हत्प्रभ-से रिक्शे को हाॅस्टल गेट से बाहर जाते हुए देखते रहे थे। थोड़ी देर में ही विजय मित्र के पिता परछाई में तब्दील हो गए थे। उनका मन गहरे अवसाद में डूब गया था। कमरे में विजय मित्र की उपस्थिति का अहसास कराती चीजें नहीं थीं, बल्कि उसके हिस्से वाले कोने में एक निचाट खालीपन व्याप्त था। उन्हें लगा कि यह खालीपन सनसना रहा है। पहली बार उन्होंने सन्नाटे को बजते हुए सुना था जैसे कोई उनके कान में कह रहा हो, ‘‘साथी, मेरी डायरी तुमने अपने पास ही क्यों रख ली?’’
यह विजय मित्र था। तो क्या विजय मित्र उनके भीतर भी मौजूद है? उन्होंने कमरे में चारों ओर निगाह दौड़ाई थी फिर बेहद सतर्कता से अपने तकिए के भीतर रखी विजय मित्र की उस लाल डायरी को बाहर खींचते हुए अपने आप से सवाल किया था, ‘‘विजय मित्र की डायरी जान-बूझकर उसके पिता से क्यों छिपा ली ? ’’
अपने ही सवाल का कोई जवाब नहीं था उनके पास। वह ठगे से डायरी के पन्ने पलटने लगे थे जैसे वह जवाब उस डायरी में ही कहीं पड़ा हो। अचानक उनकी आंखें एक पृष्ठ पर जम गई थीं । उस पृष्ठ पर विजय मित्र ने लिखा था-‘सर्वहारा को किसान वर्ग की पूरी मदद पाने की कोशिश करनी चाहिए और सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करनी चाहिए। देहातों में किसानों की क्रांतिकारी समितियों की स्थापना करनी चाहिए और जमींदारियों की जब्ती के लिए तैयारियां करनी चाहिए। मजदूर वर्ग को क्रांति का नेतृत्व आगे बढ़कर अपने हाथ में लेना होगा, तभी क्रांति को सफल बनाया जा सकता है।’-लेनिन
डायरी का यह पृष्ठ पढ़ते-पढ़ते वह एक साथ आतंक और अपराध की भावना से इस बुरी तरह ग्रस्त हो गए थे कि उन्हें लगा था, इस डायरी का उनके पास रहना उचित नहीं। डायरी छुपा लेने के पीछे जिस भावुकता का हाथ था, डायरी से निजात पाने के लिए उसी भावुकता ने उन्हें उकसाया। वह तत्काल उठे थे और डायरी जेब में डालकर रेलवे स्टेशन के लिए निकल पड़े थे |
विजय मित्र के पिता रेलवे स्टेशन पर गुमसुम बैठे मिले। उन्होंने डायरी छूट जाने का बहाना करते हुए डायरी विजय मित्र के पिता को सौंप दी थी । डायरी लेते हुए विजय मित्र के पिता का हाथ थरथरा रहा था मानो वह अपने बेटे का शव ले रहे हों।)
‘‘डाॅ. भगत, अगर आप ईजी न फील कर रहे हों तो आपका बयान बाद में ले लिया जायेगा।’’ डाॅ. रजनीश्र आचार्य ने डाॅ. सी.के. भगत को पसीना पोंछते देखकर सलाह दी।
डाॅ. सी.के. भगत ने रुमाल मुट्ठी में भींचते हुए कहा, ‘‘नो डाॅक्टर आचार्य, आ’यम क्वाइट नाॅमर्ल।’’
एक आसामान्य चुप्पी के बीच डाॅ. सी.के. भगत ने भरसक सामान्य लहजे में अपना पक्ष रखने की कोशिश की,” जिस वक्त पेशेंट विजय मित्र की लाश आई.सी.सी.यू. से बाहर आई, इंस्टीट्यूट परिसर में मौजूद भीड़ शोक-संताप सें भरी ज़ोर ज़ोर से नारे लगाने लगी-कॉमरेड विजय मित्र…अमर रहे! अमर रहे!! नारों की गूंज से इंस्टीट्यूट परिसर का कोना-कोना लरज रहा था। उस वक्त मेरे लिए तय करना मुश्किल हो गया था कि मुझे क्या करना चाहिए? मैं लुटा पिटा किंकर्तव्यविमूढ़-सा डाॅक्टर्स चैम्बर में जाकर बैठ गया था । मेरे पीछे-पीछे डाॅ. सुजाता राय भी आई और एक कुर्सी पर बैठ गई थी । बाहर उठते नारों के शोर और व्याप्त उत्तेजना से वह जैसे दहशत में डूबी हुई थी। उसका चेहरा फक पड़ा था। ऐसे में उसे अकेले छोड़कर जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैं बगैर कुछ बोले चुपचाप बैठा रहा। सिस्टर एलविन यथावत भागदौड़ में लगी हुई थी।
मैंने तब राहत की सांस ली, जब डाॅ. चौधरी को डाॅक्टर्स चैम्बर में प्रवेश करते देखा। डाॅ. चौधरी हैरान और हांफते हुए-से अंदर आए और सीधे मुझसे मुखातिब हो गए, ‘‘डाॅ. भगत, यह क्या माजरा है? बाहर इतनी भीड़…नारेबाजी…सब कुशल तो है ?’’
‘‘एक पेशेंट…नक्सल लीडर…उसी के सपोर्टर हैं ये।’’ अनमने ढंग से उत्तर देते हुए मैं घर जाने के लिए खड़ा हुआ, ‘‘डाॅ. चौधरी, मैं चलता हूं। अब आप आ गए हैं…डेथ सर्टिफिकेट बना दीजिएगा।’’
‘‘म…म…मैं।’’ डाॅ. चौधरी हकलाए। उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं, ‘‘मैं कैसे दे सकता हूं डेथ सर्टिफिकेट? मैंने पेशेंट को नहीं देखा…मैं उसकी केस हिस्ट्री तक नहीं जानता! ’’
मैं अवाक डाॅ. चौधरी को देखता रह गया था । बाहर नारों का शोर धीमा पड़ने लगा था। भीतर एक अनपेक्षित स्थिति सिर उठा चुकी थी। मेरी समझ में नहीं आया, मैं क्या करूं? मैंने संयत स्वर में डाॅ. चौधरी को याद दिलाया, ‘‘डाॅ. चौधरी, आप ड्यूटी पर हैं। कायदे से तो यह आपका ही केस है।’’
लेकिन डाॅ. चौधरी कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं हुए। एक तरह से उन्होंने अड़ियल रुख अख्तियार कर लिया था। ऐसे में, पेशेंट की लाश, बाहर उत्तेजित भीड़, किसी भी क्षण कुछ भी घट जाने की आशंका और अपने क्वार्टर में निरीह पड़ी अपनी पत्नी का ख्याल आते ही मेरे दिमाग की नसे तड़तड़ाने लगीं। इससे पहले कि मैं अपना आपा खो बैठूं, मैंने डेथ सर्टिपिफकेट दे देना ही उचित समझा।
डाॅ. सुजाता राय का बयान-
“मैं पी.जी. स्टूडेंट डाॅ. सुजाता राय एक जनवरी की रात डाॅ. चौधरी की यूनिट में ड्यूटी पर थी, जब नक्सल लीडर विजय मित्र को अचेतावस्था में कार्डियोलाॅजी में लाया गया। प्रारंभिक जांच के बाद मैंने पाया कि पेशेंट की हालत बहुत सीरियस है और उसके साथ आई भीड़ निहायत उग्र। मैं मन-ही-मन आतंकित और असहाय महसूस करती पेशेंट को तत्काल आई.सी.सी.यू. में दाखिल करने का निर्देश देकर डाॅ. चौधरी से फोन पर सम्पर्क करने की कोशिश करने लगी। लेकिन काफी प्रयास के बावजूद उनसे सम्पर्क नहीं हो पाया। मैं चूंकि अब तक जान चुकी थी कि विजय मित्र नाम का पेशेंट नक्सल लीडर है और बाहर खड़े लोग उसके सपोर्टर, मेरे हाथ-पांव फूलने लगे थे। मैं इसी मनःस्थिति में किसी सीनियर डाॅक्टर की तलाश में इंस्टीट्यूट के पिछले दरवाजे से बाहर निकल पड़ी थी ।
वह एक जनवारी की रात थी, शायद इसीलिए कैम्पस में कुछ ज्यादा ही सन्नाटा था। पता नहीं, मेरे भीतर का भय था, या कैम्पस में व्याप्त सन्नाटा, वातावरण बहुत ही भयावह लग रहा था। अचानक मेरी नजर डाॅ. भगत के क्वार्टर की खिड़की से आती रोशनी और डोलती परछाई पर पड़ी। मुझे लगा कि डाॅ. भगत क्वार्टर में हैं। मैंने घबराहट और बेचैनी के उस आलम में डाॅ. भगत के क्वार्टर का काॅलबेल बजा दिया था । चंद मिनटों बाद डाॅ. भगत ने ही दरवाज़ा खोला था । इससे पहले कि डाॅ. भगत मुझसे कुछ पूछते, मैंने पेशेंट की सीरियस हालत का हवाला देते हुए उनसे मदद की मांग की। डाॅ. भगत शायद मुझे असहाय और उद्विग्न देखकर मेरे साथ चलने को तैयार हो गए थे । डॉ. भगत आई.सी.सी.यू. में भर्ती पेशेंट के बारे में यह जानकर कि वह नक्सल लीडर विजय मित्र है, कुछ इस तरह चौंके थे कि मैंने गौर किया जैसे वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हों। अगले ही क्षण डाॅ. भगत पेशेंट के करीब पहुंचे थे और उसे बेहद ध्यान से देखने लगे थे, फिर गहरी सांस खींचते हुए उन्होंने मुझसे पूछा था,‘‘डाॅ. राय, आप पेशेंट को जानती हैं?’’
हां, मैं पेशेंट विजय मित्र को जानती थी और उसे सिर्फ इसलिए नहीं जानती थी कि वह नक्सल लीडर था, बल्कि मैं उसी नक्सलबाड़ी की रहनेवाली हूं, जहां कभी नक्सलवाद ने जन्म लिया था और उसके कहर का शिकार मेरा परिवार भी हुआ था। लेकिन यह बात मैं डाॅ. भगत से छुपा गई थी। उल्टे, उस वक्त मुझे लगा था कि डाॅ. भगत भी किसी-न-किसी रूप में विजय मित्र को जानते हैं। उनकी आंखों में किसी को पहचान लेने जैसी स्निग्ध आ lभा उभरी थी और साथ ही उनके चेहरे पर गहरी उदासी छा गई थी।
डाॅ. भगत पेशेंट विजय मित्र की स्थिति पर लगातार नजर रखे हुए थे। ई.सी.जी. माॅनिटर स्क्रीन पर हो रहे एक-एक परिवर्तन से उनके माथे पर बल पड़ जाते। मुझे लगा था कि डाॅ. भगत भीतर से बेहद उद्वेलित और भावुक हो आए हैं। उन्हें इस स्थिति से उबारने की गरज से या कि नक्सलियों के प्रति मेरे मन में बैठे भयबोध ने मुझे उकसाया था कि, मैंने उनसे एक बेवकूफाना सवाल कर डाला था,‘‘सर, ऐसे नृशंस आदमी के पास भी दिल हो सकता है,क्या?’
डाॅ. भगत ने मुझे कौतूहल से देखा था और मुझे अपनी ओर एकटक देखता पाकर ठंडी आह भरकर बोले थे , ‘‘डाॅ. राय, यह आदमी जैसी दुनिया बनाने की लड़ाई लड़ता रहा है, वह किसी मामूली आदमी के वश की बात नहीं।’’
जाहिर था कि डाॅ. भगत न सिर्फ पेशेंट के बारे में बहुत कुछ जानते थे, बल्कि उससे कहीं-न-कहीं अंतरंग भी थे। मेरी इच्छा हुई थी कि मैं डाॅ. भगत से पूछूं कि क्या वह विजय मित्र की लड़ाई से इत्तफाक रखते हैं? लेकिन किसी सीनियर से तुर्की-ब-तुर्की सवाल-जवाब न तो हम पी.जी. स्टूडेंट के लिए उचित होता है, न सुविधजनक।
मुझे चुप देखकर डाॅ. भगत कुछ, ज्यादा ही व्यग्र हो उठे थे | उन्होंने जैसे अपने-आप से ही कहा था , ‘‘इस पेशेंट को किसी भी कीमत पर बचाया जाना बहुत जरूरी है, डाॅ. राय!’’
लेकिन वह पेशेंट नहीं बचा था। डाॅ. भगत लाख चाहकर भी पेशेंट विजय मित्र को नहीं बचा पाए। उस वक्त डाॅ. भगत उस लुटे हुए मुसाफिर की तरह नजर आ रहे थे, जो अपना सब कुछ गंवा कर भी, कहीं शिकायत दर्ज न करा पाने की बेबसी में जड़ हो गया हो। डाॅ. भगत हताश, उदास, भारी कदमों से आई.सी.सी.यू. से बाहर निकले थे और डाॅक्टर्स चैम्बर में जाकर बैठ गए थे । उनके पीछे-पीछे मैं भी डाॅक्टर्स चैम्बर में पहुंची थी और चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गई थी।
कुछ देर बाद, डाॅ. चौधरी भी आ पहुंचे थे । बाहर विजय मित्र के सपोर्टर नारे लगा रहे थे। चैम्बर के भीतर डाॅ. चौधरी को देखकर डाॅ. भगत कुर्सी से उठे और डाॅ.चौधरी से डेथ सर्टिफिकेट बना देने के लिए कहकर जाने लगे कि डाॅ. चौधरी ने डेथ सर्टिफिकेट देने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी । डाॅ. भगत और डाॅ. चौधरी में इस मुद्दे पर तकरार भी हुई और तभी मैंने देखा कि डाॅ. भगत तमतमाए हुए कुर्सी पर जा बैठे। उस वक्त वह क्रोध से कांप रहे थे और उसी हालत में उन्होंने डेथ सर्टिफिकेट लिखना शुरू कर दिया । डाॅ. भगत डेथ सर्टिफिकेट पर अपना हस्ताक्षर करने के साथ ही झटके से उठे और कागज के उस टुकड़े को वहीं टेबल पर छोड़कर तीर की मानिन्द डाॅक्टर्स चैम्बर से बाहर निकल गए ।
सिस्टर एलविन का बयान-
मैं सीनियर सिस्टर एलविन हेम्ब्रम एक जनवरी की रात ड्यूटी पर थी। उस रात जब पेशेंट विजय मित्र को लेकर एक भीड़ आई थी तो पी.जी. डाॅ. सुजाता राय ने उसे तत्काल एक्जामिन किया था और उसे ऑक्सीजन लगाने को कहकर आई.सी.सी.यू. में ले जाने की हिदायत दी थी। थोड़ी देर बाद आई.सी.सी.यू. में डाॅ. सुजाता राय के साथ डाॅ. सी.के. भगत आए। उन्होंने पेशेंट को देखा और मुझसे पेशेंट का ब्लड बायोकेमेस्ट्री भेजने को इंतजाम करने के लिए बोला । मैं डाॅ. भगत के आदेश पर आई.सी.सी.यू. से बाहर चली गई थी । मुझे बायोकेमेस्ट्री में ताला बंद मिला था । मैंने डाॅ. भगत को जब यह सूचना दी तो वह बुरी तरह बौखला गए थे और दौड़ते हुए कॉरिडोर की ओर भागे थे । इसी बीच लाइट चली गई और जब लाइट आई थी तो मैंने देखा कि डाॅ. भगत हांफते हुए आई.सी.सी.यू. में घुस रहे हैं । डाॅ. भगत ई.सी.जी. माॅनिटर स्क्रीन पर नजर पड़ते ही चीख पड़े थे, ‘‘ओह नो!’’
ृ डाॅ. भगत की चीख से मेरा ध्यान उस ओर आ गया था । मैंने देखा, डाॅ. भगत पेशेंट की नब्ज टटोल रहे हैं। डाॅ. भगत बेचैन और घबराए हुए थे। शायद उस वक्त उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। तभी डाॅ. सुजाता राय ने उनसे कहा था, ‘‘सर, पेशेंट इज नो मोर!’’
जेनरेटर ऑपरेटर का बयान-
एक जनवरी को जिस वक्त बिजली गायब हुई थी, मैं अपनी ड्यूटी पर था। मैंने दौड़कर तुरंत जेनरेटर चालू करने की कोशिश की थी, लेकिन जेनरेटर में कचरा आ जाने के कारण उसे चालू करने में समय लगा। समय कितना लगा, यह ठीक-ठीक बता पाना संभव नहीं है, क्योंकि न तो मेरे पास घड़ी थी और न ही मुझे पहले कभी ऐसी कोई जरूरत पड़ी थी।
डाॅ. चौधरी का बयान
मैं डाॅ. नीलकांत चौधरी एक जनवरी को नाइट ड्यूटी पर था। मुझे कैम्पस में आवास उपलब्ध नहीं है, इसलिए मैं शहर में किराये के मकान में रहता हूं। उस रात मैं ड्यूटी के लिए घर से निकला तो रास्ते में पता चला कि मुख्यमार्ग पर वाहनों का आना-जाना बंद है, क्योंकि उधर से गवर्नर का काफिला गुजरनेवाला है। रास्ता डाइवर्ट कर दिया गया था, लिहाजा दूसरे तमाम रास्तों में ट्रैफ़िक जाम हो गया था। और मैं चाहकर भी ड्यूटी पर समय से पहुंच पाने में विवश था। जब मैं अपनी ड्यूटी पर पहुंचा तो कैम्पस में एक शव को घेरे लोगों का हुजूम नारेबाजी कर रहा था। भीड़ बेहद उत्तेजित थी। मुझे लगा, ये भीड़ किसी भी क्षण हिंसक हो सकती है। मैं घबराया हुआ डाॅक्टर्स चैम्बर में पहुंचा, जहां पहले से ही डाॅ. भगत और पी.जी. स्टूडेंट डाॅ. सुजाता राय मौजूद थे। डाॅ. भगत ने मुझसे कहा कि मैं विजय मित्र का डेथ सर्टिफ़िकेट जारी कर दूं। चूंकि मैंने पेशेंट का इलाज नहीं किया था, न ही मैं केस हिस्ट्री से वाकिफ था, इसलिए ‘डेथ सर्टिफिकेट’ देना मेरे लिए न तो व्यावहारिक था और न ही उचित, इसलिए मैंने अपनी विवशता जाहिर कर दी। इस पर डाॅ. भगत मुझसे उलझ पड़े थे और उन्होंने अपना आपा खो दिया था । उसी मानसिक स्थिति में उन्होंने विजय मित्र का ‘डेथ सर्टिफिकेट’ जारी कर दिया था ।
डाॅ. भगत द्वारा लिखे गये उस डेथ सर्टिफिकेट पर नजर पड़ते ही मैं हैरान रह गया था । मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था। मैंने उसे डाॅ. सुजाता राय को पढ़ने के लिए दिया। डाॅ. सुजाता राय भी डेथ सर्टिफिकेट पढ़कर चकरा गई थी। डाॅ. भगत ने डेथ सर्टिफिकेट में पेशेंट विजय मित्र की मृत्यु का कारण लिखा था, “ड्यू टू फेल्योर ऑफ सिस्टम (व्यवस्था के विफल हो जाने के कारण मृत्यु ।”)
जांच दल ने महसूस किया कि इस बिन्दु पर डाॅ. सी.के. भगत का स्पष्टीकरण जरूरी है। लिहाजा, डाॅ. भगत एक बार फिर तलब किए गए। जांच दल की ओर से डाॅ. रजनीश ने डाॅ. सी.के. भगत से पूछा ‘‘डाॅ. भगत, आप एक सीनियर और जिम्मेदार डाॅक्टर हैं, फिर आपने ऐसा डेथ सर्टिफिकेट क्यों लिखा ?’’
‘‘क्यों, मैंने कुछ गलत लिखा क्या?’’ डाॅ. सी.के. भगत इस इत्मीनान से मुस्कुराए कि जांच दल के तीनों सदस्य सकते में आ गए।
‘‘आर. यू. श्योर, डाॅ. भगत, कि आपने जो लिखा है, सही लिखा है?’’ बड़ी मुश्किल से पूछ पाए डाॅ देवाशीष देव।
‘‘यस…यस! ऑफकोर्स हंड्रेड परसेंट श्योर!’’ डा.सी.के. भगत के स्वर में सख्ती और तल्खी एक साथ उभरी। उन्होंने उल्टा सवाल दाग दिया, ‘‘एनी मोर क्वेश्चन ?’’
जांच दल ने डाॅ. सी.के. भगत से कोई और सवाल पूछना जरूरी नहीं समझा। इसके साथ ही कार्डियोलाॅजी के डायरेक्टर और अन्य डाॅक्टरों से भी कोई पूछताछ इसलिए नहीं की गई, कि उनका इस घटना से प्रत्यक्ष संबंध नहीं था और वे जांच के दायरे में नहीं आते थे।
डाॅ. रजनीश आचार्य, कार्डियोलाॅजिस्ट-
पेशेंट विजय मित्र की ब्लड बायोकेमेस्ट्री उपलब्ध न होने से मायोकार्डियल इनफार्कशन यानी ‘हार्ट अटैक’ की पुष्टि नहीं होती है। लेकिन ब्लड प्रेशर और ई.सी.जी. रिपोर्ट से जाहिर होता है कि पेशेंट विजय मित्र की हालत गंभीर थी। प्राॅपर केयर और ऑब्जर्वेशन जरूरी था, जो नहीं हुआ। यह स्पष्टतः लापरवाही का मामला है और डाॅक्टरी नैतिकता के विरुद्ध है। मेरी राय में पेशेंट की मृत्यु का कारण है कि ‘लैक ऑफ प्राॅपर ट्रीटमेंट।’
डाॅ. जीवकांत यादव, न्यूरोलाॅजिस्ट-
साक्ष्यों, परिस्थितियों और पेशेंट की पृष्ठभूमि से जाहिर होता है कि पेशेंट विजय मित्र जबर्दस्त ‘नर्वस ब्रेक डाउन’ का शिकार था, जिससे उसके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया। ऐसा व्यक्ति शारीरिक तौर पर जिंदा होते हुए भी दिमागी तौर पर मर चुका होता है। ऐसे केस में तुरंत न्यूरोलाॅजिस्ट से संपर्क किया जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ। मेरी राय में विजय मित्र की मौत का कारण है- ब्रेन डेथ।
डाॅ. रामाशीष देव, साइकियाट्रिस्ट-
पेशेंट विजय मित्र चूंकि नक्सल लीडर और एक्टिविस्ट था, इसलिए उसका अत्यधिक तनाव और दबाव में होना स्वाभाविक है। वह कल्पनाओं और सपनों की दुनिया में जीने का आदी था, जैसा कि ऐसे लोग होते हैं। वस्तुतः यह एक प्रकार का मनोरोग है। इस रोग के चरम पर पहुंच जाने के कारण ऐसे रोगी या तो पागलपन के शिकार हो जाते हैं या फिर एक्यूट डिप्रेशन के। साक्ष्यों, परिस्थितियों और गवाहों के बयानों से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि पेशेंट विजय मित्र की मृत्यु ‘स्ट्रेस एंड स्ट्रेन’ की वजह से हुई।
लेकिन जांच दल के तीनों सदस्य इसके विपरीत कुछ बातों पर एकमत भी थे। वे सहमत थे कि एक जनवरी की रात डाॅ. चौधरी की ड्यूटी थी और ट्रैफिक जाम की वजह से वह समय से ड्यूटी पर नहीं पहुंच पाए, जो संभव है। इसके बावजूद, डाॅ. चौधरी की ड्यूटी में डाॅ. भगत द्वारा पेशेंट का इलाज किया जाना उचित नहीं था, क्योंकि इस तरह डाॅ. चौधरी की जवाबदेही समाप्त हो गई और जान-बूझकर डाॅ. भगत ने न सिर्फ पेशेंट विजय मित्र के इलाज की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, बल्कि उन्होंने संस्थान के नियमों का भी उल्लंघन किया।
जांच दल के सदस्य इस बात पर भी एक राय थे कि अपने पुत्र की आत्महत्या, पत्नी की लम्बी बीमारी और कार्डियोलाॅजी इंस्टिट्यूट का डायरेक्टर न बनाए जाने के कारण मुकदमेबाजी में उलझे डाॅ. सी.के. भगत हताशा, हीनता और कुंठा के शिकार हो चुके हैं। उनकी मानसिक स्थिति भी कतई सामान्य नहीं लगती।
जांच दल ने डाॅ. सी.के. भगत द्वारा डेथ सर्टिफिकेट की वैधनिक हैसियत के बारे में अपनी राय देते हुए लिखा- डाॅ. सी.के. भगत चूंकि एक जनवरी की रात ड्यूटी पर नहीं थे, इसलिए नियमतः उन्हें डेथ सर्टिफिकेट नहीं जारी करना चाहिए था। इस तरह न सिर्फ अराजकता बढ़ेगी, बल्कि एक गलत परिपाटी भी जन्म लेगी। डाॅ. भगत द्वारा जारी डेथ सर्टिफिकेट सिद्धांतत: नियम विरुद्ध है। वैसे इस मामले में विधि विशेषज्ञ की राय अपेक्षित है।
सरकार का निर्णय-
जांच दल के विशेषज्ञों की राय, गवाहों के संलग्न बयान और परिस्थितियों के आलोक में प्रमाणित है कि डाॅ. सी.के. भगत का नक्सल लीडर विजय मित्र से गहरा संबंध था | इसी कारण उन्होंने सरकार को बदनाम करने के लिए सुनियोजित साजिश के तहत असंवैधनिक डेथ सर्टिफिकेट जारी किया, जो घोर अनुशासनहीनता का परिचायक है तथा एक सरकारी सेवक की आचार-संहिता के विरुद्ध है। डाॅ. सी.के. भगत को चिकित्सकीय मर्यादा के उल्लंघन और आपत्तिजनक आचरण के कारण तत्काल प्रभाव से सेवामुक्त किया जाता है।
डाॅ. सी.के. भगत की प्रतिक्रिया-
कामरेड विजय मित्र, काश, तुम्हारे पास दिल न होता!
अवधेश प्रीत
एमए( हिन्दी) कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल ।
पुस्तकें: हस्तक्षेप, नृशंस, हमजमीन, कोहरे में कंदील, चांद के पार एक चाभी,अथ कथा बजरंग बली,मेरी चुनी हुई कहानियां (कहानी संग्रह) प्रकाशित।
उपन्यास :अशोक राजपथ, रुई लपेटी आग
दैनिक हिन्दुस्तान( पटना) में दैनिक व्यंग्य काॅलम लेखन। सैकड़ों लेख , रिपोर्ट, टिपण्णियां और समीक्षाएं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
सम्मान: बनारसी प्रसाद भोजपुरी कथा सम्मान( हिन्दी) ,अ.भा. विजय वर्मा कथा सम्मान, मुबंई, सुरेन्द्र चौधरी कथा सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु कथा सम्मान ।
संपर्क: 8877614422/ 9431094596
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