मंटो उर्दू भाषा तक महदूद नहीं हैं। उनकी गिनती विश्व के बड़े लेखकों में होती है।
यहां हम मंटो की मशहूर कहानी ‘ टोबा टेक सिंह’ प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्पूर्ण प्रस्तुति मुख़्तार ख़ान की है। – हरि भटनागर
मंटो हिन्दुस्तानी अदब के बड़े अफसानानिगार हैं । मंटो ने कालजयी कहानियाँ लिखीं। ‘खोल दो’, ‘बू’, ‘ठंडा गोश्त’,’टोबा टेक सिंह’, ‘शरीफन’, ’मंत्र’ जैसी उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। मंटो की कई कहानियों पर विवाद भी हुए, उस समय की सरकार ने मुक़दमें भी चलाए। मंटो की मकबूलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी कहानियाँ का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। मंटो की कहानियों पर फ़िल्में बनाई गईं । कहानियों पर नाटक खेले जाते हैं।
‘टोबा टेक सिंह’ कहानी विभाजन के पसमंजर पर लिखी एक मार्मिक कहानी है। यह कहानी पढ़ते हुए मुझे कथाकार इंतज़ार हुसैन की बात याद आती है। विभाजन के समय वे अपने दोस्तों के इसरार पर भारत से लाहौर चले गए थे। कुछ दिनों बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि गर्मी का मौसम आ गया लेकिन कहीं से कोयल की कूक नहीं सुनाई नहीं दी। उन्हें बड़ा दुख हुआ कि इस इलाके में कोयल नहीं पाई जाती। इसके बाद उन्हें हिंदुस्तान यानी अपने वतन से बिछड़ने की एक-एक बात शिद्दत से याद आने लगी। अपनी इस महरूमी को उन्होंने अपनी रचनाओं से पूरा किया।
इंसान जब विस्थापित होता है तो केवल उसका घर ही नहीं छूटता बल्कि वतन की माटी, पेड़-पौधे, पक्षी, रिश्ते सब कुछ छूट जाते हैं। संभवत: इसी कारण सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने कहा था ‘देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता।‘
विभाजन के समय सरहदी सूबों में रहने वालों को बहुत कुछ सहना पड़ा था। नक़्शे पर एक लकीर खींचकर हिंदुस्तान को दो मुल्कों में बाँट दिया गया। इस बंटवारे से सिर्फ़ मुल्क के ही टुकड़े नहीं हुए बल्कि लाखों इंसानों के जज़्बात भी मजरूह हुए।
मंटो ने टोबा टेक सिंह कहानी के माध्यम से अपनी ज़मीन से कट जाने के इसी दर्द को बयान किया है। ‘टोबा टेक सिंह’ हिंदोस्तान और पाकिस्तान के दरमियान ज़मीन का ऐसा एक टुकड़ा है जिसे कोई सरहद तकसीम नहीं कर सकती। इस कहानी का मुख्य पात्र बिशन सिंह का मन धर्म और मज़हब के नाम पर हुए इस बंटवारे को क़तई स्वीकार नहीं कर पाता।
यह कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है जब हम देखते हैं कि प्रगति और विकास के नाम पर बिना कुछ सोचे गाँव-गाँव के विस्थापित कर दिए जाते हैं, वहीं रोजगार की तलाश में भी आज लोग अपने वतन – अज़ीज़ को छोड़ने पर मजबूर हैं। – मुख़्तार ख़ान
कहानी : टोबा टेक सिंह
बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को खयाल आया कि राजनीतिक क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसलमान पागल, हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाय और जो हिंदू और सिख, पाकिस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाय।
पता नहीं यह बात उचित थी या नहीं फिर भी अफसरों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह पर कुछ कॉंफ्रेंसें हुईं और आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए तय हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वे मुसलमान पागल जिनके रिश्तेदार हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए थे। जो बाक़ी थे, उनको सरहद पर भेज दिया गया।
यहाँ पाकिस्तान से चूँकि क़रीब-क़रीब सभी हिंदू-सिख जा चुके थे इसीलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की सुरक्षा में बॉर्डर पर पहुँचा दिए गए।
उधर का मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुँची तो बड़ी दिलचस्प चर्चायें होने लगीं। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बाक़ायदगी के साथ इबादत करता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा, “मौलवी साब! यह पाकिस्तान क्या होता है?” तो उसने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया, “हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं।” यह जवाब सुन कर उसका दोस्त शांत हो गया।
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा “सरदार जी हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है… हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती।”
दूसरा मुस्कुराया, “मुझे तो हिंदोस्तोड़ों की बोली आती है… हिन्दुस्तानी बड़े शैतानी, अकड़-अकड़ फिरते हैं।”
एक दिन नहाते-नहाते एक मुसलमान पागल ने ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ का नारा इस ज़ोर से लगाया कि फ़र्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।
कुछ पागल ऐसे भी थे जो दर-असल पागल नहीं थे। उनमें अधिकतर ऐसे कातिल थे जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को दे दिला कर, पागलखाने भिजवा दिया था ताकि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान का विभाजन क्यों हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है। लेकिन हक़ीक़त से वे भी बेख़बर थे।
अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी बात-चीत से भी कुछ पता न चलता। उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी ‘मोहम्मद अली जिन्ना’ है जिसको क़ायद-ए-आज़म कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है… यह कहाँ है, उसकी भौगोलिक स्थिति क्या है, उसके बारे में वे कुछ नहीं जानते थे।
यही वज़ह है कि पागलख़ाने में वे सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह बिगड़ा हुआ नहीं था, वे इसी उधेड़-बुन में लगे रहते कि वे पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में… अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहाँ है!
अगर वे पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वे कुछ समय पहले तक यहीं रहते हुए भी हिंदुस्तान में थे!
एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया, झाड़ू देते एक दिन पेड़ पर चढ़ गया और डाली पर बैठ कर दो घंटे लगातार भाषण देता रहा जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के गंभीर सवाल पर था।
सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वे और ऊपर चढ़ गया। डराया धमकाया गया तो उसने कहा, “मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूँ न पाकिस्तान में… मैं इस पेड़ पर ही रहूँगा।”
बड़ी देर बाद जब उसका दौरा कम हुआ तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिल-मिल कर रोने लगा। इस ख़याल से उसका दिल भर आया था कि वे उसे छोड़ कर हिंदुस्तान चले जाएँगे।
एक एम.एस सी. पास रेडियो इंजिनियर, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग़ के एक किनारे पर, सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था, उस में यह बदलाव आया कि उसने अपने तमाम कपड़े उतार कर दारोगा के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना फिरना शुरू कर दिया।
‘चनियोट’ के एक मोटे मुसलमान पागल ने जो मुस्लिम लीग का सक्रिय कारकुन रह चुका था और दिन में पंद्रह सौ मर्तबा नहाया करता था, उसने अचानक अपनी यह आदत छोड़ दी उसका नाम मोहम्मद अली था। उसने एक दिन अपने जंगले में घोषणा कर दी कि वह स्वयं क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंह बन गया। इस से पहले कि जंगले में ख़ूनख़राबा हो जाये, दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार दे कर अलग-अलग बंद कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था जो मोहब्बत में नाकाम हो कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शहर की एक हिंदू लड़की से उसे मोहब्बत हुई थी। लेकिन उसने उस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। इसीलिए वह उन सभी हिंदू और मुस्लिम लीडरों को गालियाँ देता था जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए, उसकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब अदला-बदली की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल छोटा न करे, उसको हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा। उस हिंदुस्तान में जहाँ उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था इसलिए कि उसका ख़याल था कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी।
यूरोपियन वार्ड में ऐंगलो इंडियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद कर के अंग्रेज़ चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ। वे छुप-छुप कर घंटों आपस में इस अहम मसले पर विचार विमर्श करते रहते कि पागलख़ाने में अब उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा। ब्रेकफास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाती तो ज़हर मार नहीं करना पड़ेगी।
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाख़िल हुए पँद्रह बरस हो चुके थे। हर वक़्त उसकी ज़बान से यह अजीब-ओ-ग़रीब शब्द सुनने में आते थे, “ओपड़ दी गुड़ गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल उफ़ दी लालटैन।” दिन को सोता था न रात को। पहरेदारों का यह कहना था कि पंद्रह बरस के लंबे अर्से में वह एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। हाँ, कभी-कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर समय खड़ा रहने से उसके पांव सूज गए थे। पिंडलियाँ भी फूल गई थीं, मगर इस पीड़ा के बावजूद लेट कर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के बारे में जब कभी पागलखाने में चर्चा होती थी वह ग़ौर से सुनता था। कोई उससे पूछता था कि उसका क्या ख़याल है तो वे बड़ी संजीदगी से जवाब देता, “ओपड़ दी गुड़ गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी, मंग दी वाल ऑफ़ दी पाकिस्तान गर्वनमैंट।”
लेकिन बाद में “ऑफ़ दी पाकिस्तान गर्वनमैंट“ की जगह “ऑफ़ दी टोबा टेक सिंह गर्वनमैंट” ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबाटेक सिंह कहाँ है, जहाँ का वह रहने वाला है। लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे, ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है।
क्या पता लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिंदुस्तान में चला जाय या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाय और यह भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब ही हो जायें।
उस सिख पागल के केस छिदरे हो कर बहुत मामूली से रह गए थे। चूँकि बहुत कम नहाता था, इसलिए दाढ़ी और सिर के बाल आपस में जम गए थे, जिसकी वजह से उसकी शकल बड़ी भयानक हो गई थी। मगर आदमी हिंसक न था। पँद्रह बरसों में उसने कभी किसी से झगड़ा-फ़साद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाज़िम थे, वे उसके बारे में जानते थे कि टोबाटेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं। अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया।
उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागलखाने में दाख़िल करा गए।
महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए ये लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियत पूछ कर के चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा। पर जब पाकिस्तान, हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बंद हो गया।
उसका नाम ‘बिशन सिंह’ था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह कहते थे। उसको यह क़तई मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके रिश्तेदार उससे मिलने के लिए आते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था। सो वह दारोगा से कहता कि उसकी मुलाक़ात आ रही है।
उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सर में तेल लगा कर कंघा करता, अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूँ सज कर मिलने वालों के पास जाता। वे उससे कुछ पूछते तो वह ख़ामोश रहता या कभी कभार “ऊपर दी गुड़ गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल ऑफ़ दी लालटैन” कह देता।
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पँद्रह बरसों में जवान हो गई थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देख कर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आँखों से आँसू बहते थे।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबाटेक सिंह कहाँ है। जब उसे अपने सवाल का ठीक जवाब न मिल तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उसे उनके आने की ख़बर दे दिया करती थी।
उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वे लोग आयें जो उससे हमदर्दी रखरते थे और उसके लिए फल, मिठाईयाँ और कपड़े लाते थे। वह अगर उनसे पूछता कि टोबाटेक सिंह कहाँ है, तो वे उसे अवश्य बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में क्योंकि उसका ख़याल था कि वे टोबाटेक सिंह ही से आते हैं, जहाँ उसकी ज़मीनें हैं।
पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ‘ख़ुदा’ कहता था। उससे जब एक रोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबाटेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने अपने स्वभाव अनुसार एक जोरदार ठहाका लगाया और कहा, वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में। इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं दिया।
बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई बार मिन्नत-समाजत से कहा कि वह आदेश देदे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर वह बहुत व्यस्त था इसलिए कि उसे और भी बहुत सारे आदेश देने थे। एक दिन तंग आ कर वह उस पर बरस पड़ा, “ओपड़ दी गुड़-गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल ऑफ़ वाहे गुरु जी दा ख़ालिसा ऐंड वाहे गूरूजी की फ़तह… जो बोले सो निहाल, सत सिरी अकाल।”
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो… सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते।
अदला-बदली से कुछ दिन पहले टोबाटेक सिंह का एक मुसलमान जो उसका दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा, मगर सिपाहियों ने उसे रोका, “यह तुम से मिलने आया है… तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है।”
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़लदीन ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ रखा, “मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूँ लेकिन फ़ुर्सत ही न मिली… तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए… मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की… तुम्हारी बेटी रूप कौर…”
वे कुछ कहते-कहते रुक गया। बिशन सिंह कुछ याद करने लगा, “बेटी रूप कौर!”
फ़ज़लदीन ने रुक-रुक कर कहा, “हाँ… वो… वह भी ठीक ठाक है… उनके साथ ही चली गई।”
बिशन सिंह ख़ामोश रहा। फ़ज़लदीन ने कहना शुरू किया, उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी ख़ैर ख़ैरियत पूछता रहूँ …अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो… भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना… और बहन अमृत कौर से भी…
“भाई बलबीर से कहना फ़ज़लदीन राज़ी ख़ुशी है… दो भूरी भैंसें जो वे छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है और दूसरी के कट्टी हुई थी पर वह छः दिन की हो के मर गई। और मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो कहना, मैं हर वक़्त तैयार हूँ….और यह तुम्हारे लिए थोड़े से मरोंडे लाया हूँ।
बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा, “टोबाटेक सिंह कहाँ है?”
फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा, “कहाँ है… वहीं है जहाँ था।”
बिशन सिंह ने फिर पूछा, “पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?”
“हिंदुस्तान में… नहीं नहीं, पाकिस्तान में।” फ़ज़लदीन बौखला-सा गया।
बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया, “ओपड़ दी गुड़-गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ़ पाकिस्तान ऐंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुरफ़टे मुँह।”
तबादले की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की सूचियाँ पहुँच गई थीं और तबादले का दिन भी तय हो चुका था।
सख़्त सर्दियाँ थीं, जब लाहौर के पागलखाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी हुई लारियाँ पुलिस के सुरक्षा दस्ते के साथ रवाना हुईं। सम्बंधित अफ़सर भी साथ थे। वाघा के बॉर्डर पर दोनों तरफ़ के सुपरिन्टेन्डेन्ट एक दूसरे से मिले और शुरुआती कार्यवाही ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। कुछ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ामंद हुए थे, उनको सँभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे, जो नंगे थे, उनको कपड़े पहनाए जाते वे फाड़ कर अपने तन से जुदा कर देते। कोई गालियाँ बक रहा है। कोई गा रहा है। आपस में लड़ झगड़ रहे हैं। रो रहे हैं, बिलक रहे हैं। कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी.. पागल औरतों का शोर-ओ-गोगा अलग था और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दाँत से दाँत बज रहे थे।
अधिकतर पागल इस तबादले के हक़ में नहीं थे, इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़ कर कहाँ फेंका जा रहा है। वे चंद जो कुछ सोच समझ सकते थे, पाकिस्तान ज़िंदाबाद और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे। दो तीन बार फ़साद होते-होते बचा क्योंकि कुछ मुसलमानों और सिखों को यह नारा सुन कर तैश आ गया था।
जब बिशन सिंह की बारी आई और वाघा के उस पार का अफ़सर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा, “टोबाटेक सिंह कहाँ है… पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?”
सम्बंधित अफ़सर हँसा, “पाकिस्तान में।”
यह सुन कर बिशन सिंह उछल कर एक तरफ़ हटा और दौड़ कर अपने बाक़ी-मांदा साथियों के पास पहुँच गया।
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिय, “टोबाटेक सिंह यहाँ है…” और वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, “ओपड़ दी गुड़-गुड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल ऑफ़ टोबाटेक सिंह ऐंड पाकिस्तान।”
उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबाटेक सिंह हिंदुस्तान में चला गया है… अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहाँ भेज दिया जाएगा, मगर वह न माना। जब उसको ज़बरदस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह बीच में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त वहाँ से नहीं हिला सकेगी।
आदमी चूँकि शांत स्वभाव का था इसलिए उससे ज़बरदस्ती न की गई। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा।
सूरज निकलने से पहले शांत खड़े बिशन सिंह के हलक़ से एक जोरदार चीख़ निकली… इधर उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी जो पँद्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है। उधर कटीले तारों के पीछे हिंदुस्तान था… इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबाटेक सिंह पड़ा था।
मुख़्तार ख़ान
मुख़्तार ख़ान का सम्बंध महाराष्ट्र के अमरावती से है। आप पिछले 30 वर्षों से सेंट ज़ेवियर्स, मुंबई में अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। हिन्दी, उर्दू, मराठी भाषाओं में अनुवाद – कार्य के साथ आप सामाजिक विषयों पर पत्र पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते हैं। कहानियों में विशेष रुचि। ‘1980 के बाद हिन्दी कहानियों में मुस्लिम समाज का समाजशास्त्रीय अनुशीलन’ विषय पर आपने अभी हाल ही में मुंबई यूनिवर्सिटी में अपना शोध कार्य जमा किया है।
मो : 9867210054
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बहुत बढ़िया प्रस्तुति। मुबारकबाद मुख़्तार भाई। मंटो की आल टाइम क्लासिक स्टोरी।
बहुत बहुत शुक्रिया, आभार मित्र
विभाजन की पीड़ा की यह मार्मिक कहानी न केवल पागलों के माध्यम से सेकुलर और देशप्रेमी सजग जहनियत के आदमी का, हुक्मरानों की हरक़त पर कुछ नहीं कर कह पाने से उपजे असमंजस और उहापोह, बेबसी को स्वर देती है, बल्कि विशन सिंह (टोबा टेक सिंह) का दोनों सीमाओं की बाड़ के बीच औंधे पड़ जाना, व्यवस्था का सरासर नकार है। शायद महान कथाकार मंटो ने कहानी इसीलिए यही समाप्त कर दिया।