अयप्पन
-मुकेश वर्मा
जंगल की रात है।
अयप्पन तेज कदमों से चलता चला जा रहा है। तेज चाल के लिए सारे इलाके में मशहूर है। साँवला गठीला बदन, सुतवां चेहरा और लोहे के कील-सी नोकदार मूंछे जो होठों के आखिरी छोर पर जाकर झंडे की तरह ऊपर उठ जाती हैं और कमान में कसे तीर की तरह उन्मत्त गालों के करीब तनी रहती हैं। उसकी चाल की तरह उसकी मूंछें भी इलाके में बेजोड़ हैं। उसे अपनी मूंछों से खास लगाव है। जब वह उन पर हाथ फेरता है तो उसे यकीन होने लगता है कि वह इन मूंछों को पंखों की तरह फैलाकर ज़मीन की छाती पर हवा की तरह उड़ सकता है, हालाँकि ऐसा ख्याल आने पर वह थोड़ा हँसता है, उड़ता नहीं। सिर्फ, झटककर तोड़े गए मूंछ के एक बाल के घुंघराले दमकते कालेपन को मंत्र मुग्ध देखता रहता है। कभी-कभी घंटों तक। आखिर बाल उसकी मूंछ का है।
पूरे चाँद के उजाले में इस वक्त जंगल मदमस्त पसरा पड़ा है। कुनमुनाती खुमारी के अलसाये आलम में भूरे गंदले बिस्तर पर बेफिकर। पत्ते पंखा कर रहे हैं। आपस में उनकी घुसफुस जारी है और कभी-कभी पतली हँसी कोई। कहीं दूर नगाड़ों की धीमी-धीमी अनथक आवाजें़ आ रही हैं। कोई बाँसुरी रुक-रुककर बज रही है। बाकी जंगल में बला की खामोशी है। कुछ नेवले नालों के किनारों पर गष्त लगाते हुए टहल रहे हैं। कभी-कभार कोई घबराया पक्षी यकायक तेजी से चीखता हुआ विशाल पेड़ों के उपरले घने सायों में छुप जाता है। उसकी राहत की साँस सुनकर करौंदे के सूखे फूल के पीछे हठात् रुक गई चींटिंयाँ इत्मीनान से फिर आगे बढ़ने लगती हैं। कहीं कोई झाड़ियों में सरसराता है। कहीं कोई दूर हाथ हिलाता है। कोई निःशब्द बगल से गुजर जाता है। पेड़ के छज्जे पर पत्ते की नोक से टिके चाँद की गोरी गुनगुनाहट चप्पे-चप्पे पर सफेद धुएँ की तरह फैल रही है जिसकी चुप-चुप आवाजें जंगल के सन्नाटे को घना कर रही हैं। सारा जंगल आदिम महक से गमक रहा है।
ख़ुष्क जंगल के खुरदरे गाल पर एक महीन लंबे धुंघराले बाल की तरह लिपटी हुई पगडंडी मिट्टी, पत्थरों और सूखे पत्तों से भरी रहती है। उतावली बैल-गाड़ियों के लापरवाह चक्कों और अनमने बैलों के परेशान खुरों से जंगल के बीचोंबीच पड़ी पगडंडी तकलीफदेह चोटों और उसके निशानों से सिल की तरह टँकी हुई बीहड़ और वीरान लगती है। जंगल के हरियाले कोनों से बार बार मिलने की मिन्नत करती हुई वह आते-जाते कदमों से बरहमेश बतियाती रहती है। लेकिन इस वक्त वह निढाल औरत-सी करवट लिए पड़ी है और किन्हीं पुष्ट पिंडलियों की कड़कती धमक अगले छोर तक सुनाई पड़ रही है। चौड़े वज़नी पैरों के नीचे जमीन की मुसमुसाहट और सूखे पत्तों की चरमराहट पर सिर ऊँचा किए हुए अयप्पन बेधड़क चला जा रहा है। पूरे जंगल में अयप्पन हजार पैरों से चल रहा है। सारा जंगल हजार पैरों से अयप्पन के आगे-पीछे भाग रहा है।
स्टेशन से गाँव तक के इस पाँच मील के फासले में जंगल का घना फैलाव, सूखी नदी का रेतीला बिस्तर और तीन टूटी पुलियों के पुराने तकिये मिलते हैं। इस कच्चे रास्ते के दूसरे छोर पर गाँव रहता है। हजारों साल पुराने घनेरे पेड़ों की छाँह और उसके साथ-साथ बहती बयार ने जंगल को घरों के आँगन से बाँध दिया है। तपती दोपहर और पीठ पर बरसती लू में तो जंगल पाठशाला लगता है, लेकिन तेज बरसते पानी और हरहराते अंधड़ में सिर्फ खेल का मैदान हो जाता है। जो खेलना जानते हैं, वे कपड़ों को फेंक-फाँककर छरछराती हरी घास पर बूंदों की तरह फिसलने लगते हैं। पेड़ फिर एक जगह खड़े नहीं रह पाते। दौड़ दौड़कर आते हैं। क्या पेड़, क्या पक्षी, क्या आदमी और क्या आदमी का बच्चा, सब एकदम गुत्थम-गुत्थ। उनकी भागती काँपती देहों के पसीने को बूंदें बुहारती हैं। किलकारियों से गूंजते जंगल में बीच पड़ी पगडंडी जल-थल जल-थल होती हुई फिर अपने मंगल की एक और आस सँजोने लगती है। लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होता।
निस्पंद रात और अँधेरे आसमान के नीचे घर भागती हुई छातियों में अक्सर एक धुकधुकी भी पैदा होती है। मौके का फायदा उठाता कोई उचक्का पंछी जानबूझकर डरावनी आवाज में चीखता है और फुर्र से उड़ता हुआ किसी पत्ते के कानों में देर तक हँसता है। दो पैर वाले लोग जो दिन के उजाले में मालगुजारों की तरह चहलकदमी करते चलते हैं, ऐसे मौकों पर पाते हैं कि उनकी टाँगें हिरन हो गई हैं। पगडंडी अलग जी-भर कोसती है।
लेकिन अयप्पन ऐसा तो नहीं है।
ऐसी रात या वैसी रात उसे क्या डरा पाए जिससे डर खुद डरकर कोसों दूर थरथर भागता हो। खुद ही में डूबा अयप्पन अपनी खुदाई में अलमस्त चला जा रहा है। रात अपनी चाल भूलकर उसकी चाल देख रही है।
अयप्पन मूंछों के बाद दूसरे नंबर पर अपनी चाल के लिए मशहूर है।
लोग कहते हैं उसकी लंबी और बालों से भरी टाँगों में लबालब फुर्ती भरी है। अगर उसे पेट्रोल पिला दो तो वह ज़मीन का हवाई जहाज बन जाएगा। लोग तो आगे यह भी कहते हैं और वह भी कहते हैं, लेकिन अयप्पन…
माथे पर से बाल झटकारता हुआ चला जा रहा है। आज उसे अपनी टाँगों के बारे में सोचने का वक्त या सुनने की फुरसत ही कहाँ। वह तो अपने ही ख्यालों में ऐसा गुम है कि मस्त शबाब में सराबोर चाँद तीन बार ऐन सामने आया और अयप्पन कभी दाएँ कभी बाएँ मुड़ गया। पीछे जरूर जंगली बिल्ली कूदकर भागी होगी, पुलिया की तरफ सरसराहट हुई। झींगुर एक क्षण को चुप हुए।
“अयप्पन’…“
क्या किसी ने…
“अयप्पन’…“
……पुकारा ? शायद हाँ, किसी की आवाज़ है। ऐसी मीठी मधुर जैसे छोटी छोटी घंटियों की कण-कण में टुनटुनाहट हुई और क्षण-क्षण में फिर गायब…
“अयप्पन“ देखो मैं यहाँ हूँ….“
कहाँ है ? कहाँ, क्या कोई ?
वहाँ पगडंडी से थोड़ा बाएँ नीचे उतरकर मेंड़ के पास पेड़ का सफेद तना चाँदनी में चमक रहा है। उसकी निचली डाली को एक हाथ झुलाती कोई आकृति दिख रही है। है तो सही। कमनीय आकृति। वाह !
अयप्पन के बदन में झुरझुरी फैल गई। अरे!
“ऐसे क्यों खड़े रह गए, डर गए क्या, है न…“
कहती हुई उसकी हँसी सारे जंगल में तरंग-सी फैल गई। जंगल खिलखिला उठा। लताएँ और बेलें लोट-पोट हो गईं। बूढ़ा बरगद मुस्कराया। चिड़ियों ने घोंसलों की खिड़कियों से झाँका। अयप्पन सकपका गया। उसकी आँखों में एकबारगी जमीन आसमान घूम गए। अपनी लंबी टाँगों पर ढहते अयप्पन को कड़क मूंछों ने पूरी ताकत से ऊपर खींचा और मजबूती से दोनों तरफ से थाम लिया। सर्द रात में पसीना आ गया। “कौन हो तुम“ इतना ही कह सका और इतना कहने में कितनी ताकत लगाना पड़ी, अयप्पन ही जानता है।
वह फिर हँसी। भर नजर वह उसे देखता रह गया। वह वाकई खूबसूरत है, इतनी कि आँखें भी आँखें फेरने से इनकार कर दें।
जवानी की दहलीज पर उसका शायद पहला कदम है। पेड़ की डाल हिला रही उसकी अल्हड़ता सारे जंगल को हिला रही है। ख्वाबों में देखी, ख्यालों में सोची गई और अफसानों में कही गई मांसल सुंदरता से एक दर्जा ऊपर का वह एक अद्वितीय स्वरूप! उसने ऐसा सौंदर्य कहीं प्रत्यक्ष देखा था, याद नहीं और क्या आगे कभी देख पाएगा, यक़ीन नहीं।
डगमगाते कदमों के सहारे वह उसके पास जा सका।
“…अयप्पन, क्या मुझे नहीं जानते ?… सचमुच ?…“
“तुम मेरा नाम भी जानती हो ? कौन हो तुम ? इतनी गई रात तुम यहाँ जंगल में अकेली… “क्या कर रही हो ? क्या तुम्हें कोई डर नहीं…?“
लड़की ने डाल छोड़कर एक लहरा लिया। उछलकर रास्ते पर चलने लगी।
“तुम्हीं तो कहते हो जो डर गया सो मर गया। तुम्हारी रोजमर्रा की भाषा में, है न?…“.
“लेकिन…“
“लेकिन क्या, तुम्हें तो डर नहीं लगता ना……..!“
“मुझे। हाँ, नहीं, कोई डर नहीं लगता। मैंने तो ऐसे कितने जंगल कैसी भयावनी रातों में अक्सर अकेले ही पार किए हैं, इसीलिए तो सुंदरी, लोग मुझे निर्भीक अयप्पन कहते हैं। मुझे सिर्फ तुम्हारा ख्याल…“
“वाह. तुम्हें डर नहीं तो भला मुझे क्यों हो ?…“
“लेकिन तुम्हारा मुझसे क्या रिश्ता, पहले कभी तुम्हें देखा भी नहीं….“
“क्या वाकई“।“ वह फिर हँसती है।
जंगल हँसता है झर-झर। चाँद हँसता है, एक कदम पीछे सरककर । हवाएँ फर-फर अठखेलियाँ खेलती जाती हैं। अयप्पन झिझक जाता है।
आखिर यह क्या पहेली है ? पहले तो कभी ऐसा हुआ नहीं। जंगल की यह रात, उसकी जिंदगी में आज अकस्मात् क्या गुल खिलाने आई है ? आखिर मामला है क्या ? और आगे होगा क्या ? कोई घटना, कोई हादसा, कोई जबर्दस्त तूफान, कोई हैरतअंगेज़ खेल या उसकी मौत आख़िर क्या ?
एक क्षण उसके दिमाग में वहाँ से भाग जाने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई। लेकिन रात जंगल में एक लड़की को देखकर वह सरपट घर दौड़ लगा दे, क्या यह शर्म की बात नहीं होगी ? क्या कहेगा कल सारा गाँव और खुद उसकी मर्दानगी ? होंठों के ऊपर वाला कड़क कसाव कसमसाने लगा।
चिनगारियों की मानिंद वह उछलती हुई जा रही है।
अयप्पन की धमनियों में अंगारे सुलगने लगे।
“मुझे तुमसे कुछ पूछना है!…“
“पूछो।“
“पूछो! पूछो!! पूछो!!!“ समूचे जंगल में अनुगूंज उठी।
“सचमुच मुझे बताओगी!“
सबने कहा- पूछो! पूछो!! पूछो!!!
घोंसलों में चिड़ियों ने चेनुओं को अपने सीने से चिपटा लिया और कहा- पूछो पूछो पूछो…
डाल के जोड़ में से फिसल आई नन्हे लंगूर की पूँछ की नरम बालों को सहलाते हुए पेड़ की हवा ने कहा- पूछो पूछो पूछो…
जंगल ने हवा से कहा। हवा ने चाँदनी से। चाँदनी ने आकाश से। आकाश ने सितारों से। सितारों ने और ऊपर देखकर और फिर बहुत नीचे झुककर कहा-पूछो पूछो पूछो!!!
“क्या तुम मुझसे प्यार करती हो ?“
जंगल चुप। हवा चुप। चाँद, चाँदनी, सितारे चुप। जंगली बिल्ली कहीं दुबककर बैठ गई। उसकी आँखें चुप। हिरणों ने पूरी गर्दन भर देखा। उनकी चाल चुप। टिटहरी ने आदतन मुँह खोला पर कुछ कहती उसके पहले उसकी जुबान चुप।
सबने लड़की को देखा।
लड़की हँसी और इस बार बहुत हँसी। ढेर सारा हँसी कि सभी हँसे। सारा जंगल, पूरा आसमान, बेतहाशा हवा! जंगली बिल्ली भी, हालाँकि खिसिया कर।
“अब ऐसे सवाल का क्या जवाब दूँ जिसका जवाब तुम्हें मालूम है और मुझे नहीं…“
“तुम जानती हो कि मुझे मालूम है, वैसे ही मैं भी जानता हूँ कि तुम्हें मालूम है…“
“फिर पूछते क्यों हो ?…“
“तो क्या जो मैं सोच रहा हूँ वही सही है ?“
“सोचना गलत कब होता है ? इस दुनिया में कब किसी का सिर्फ सोचना गलत पाया गया ?“
“तुम मुझे उलझा रही हो प्रिये………“
“उलझना तुम खुद पसंद करते हो, अयप्पन…“
“मैं, नहीं, कभी नहीं…“
“अपने ख्यालों में तरह-तरह की तस्वीरें बनाना, उनमें तरह-तरह के रंग भरना, फिर उन्हीं को दूसरे आकार देना। आशा में निराशा, पीड़ा में आनंद, दुःख में सहानुभूति, सुख में चतुराई, आँसू में आत्मदया, अपने भीतर इन सबको गड्डमड्ड करते रहते हो और कभी फिर कभी सुखी कभी दुःखी, कभी कुछ और कभी कुछ भी नहीं होते हो…“
यह सब क्या हैं अयप्पन, तुम्हारी अपनी पैदा की हुई उलझनें, जिन्हें तुम दुनिया की नजरों से बचाकर अपने भीतर गूढ़ धन की तरह छुपाए रखते हो और जिनसे तुम्हें बेहद प्यार है, फिर किसी दूसरे से प्यार का सवाल कहाँ ?
“…काश! तुम जान सको। मेरी उलझनें मेरे पास उस पल तक हैं जब तक तुम मेरे पास नहीं हो। फिर कोई उलझन नहीं रहेगी क्योंकि मेरी सारी उलझनें सिर्फ तुमको ही लेकर हैं, यह आज जान सका जब तुम्हें देखा। अब तक जो तस्वीरें बनाईं, रंग भरे, रूप सँवारे, बिगाड़े, उन सबके पीछे खोए हुए सपने की झलक जैसी तुम ही रही हो……. आज जब किस्मत से मिल गई हो तो ऐसे मुँह न फेरो। मुझसे प्यार का इकरार करो। सात जनम साथ निभाने का वादा करो और जलते हुए जंगल-सी परेशान मेरी जिंदगी में फूलों के मौसम की तरह फैल जाओ। आओ प्रेम की अलौकिक आभा में हम दोनों एकमेक हो जाएँ।“
“अरे-अरे, इतनी जल्दी सात जनम पर आ गए। अभी तो तुम मेरा नाम भी नहीं जानते…“ हँसती हुई वह चली जा रही है। साथ सारा जंगल चल रहा है। आसमान में चाँद, पेड़ों पर हवा, पत्तों पर चाँदनी, पत्थरों पर खुशबुएँ चल रही हैं। सभी सुन रहे हैं। कोई कुछ छोड़ना नहीं चाहता। उसके कदमों से लहरा-लहरा कर पगडंडी कभी जमीन पर गिरती है कभी आसमान पर और कभी गले में आँचल डाले साथ चलती, पीछा नहीं छोड़ती। सबके साथ जंगल की रात चल रही है।
“तुम्हारा नाम क्या है सुंदरी ?…“
झरझर निर्झर हँसी का स्वर समवेत फूटा जंगल में ओर-छोर। कनक लताओं ने कलियों को अपनी छाती में करीब खींच लिया। गरम साँसों से फूलों के कान सनसनाए। पत्ते साथ सरसराए। चाँदनी मुस्कुराई कि उसकी प्रषांत आभा में दरख्तों के तने कहीं उजले कहीं चितकबरे हो गए।
“अब हँसी छोड़ो सुंदरी, हाँ सुंदरी, यही नाम भला है मेरे लिए। अब किसी दूसरे नाम की दरकार नहीं मुझे। मेहरबानी कर इस पुलिया पर क्षण भर मेरे निकट बैठो। देखो मेरे पास बाँसुरी भी है, बहुत अच्छी बजाता हूँ। सुनोगी तो मानोगी भी। इस निविड़ रात्रि में देवताओं की कृपा से प्राप्त इस मोहक और प्रसन्न एकांत को व्यर्थ मत जाने दो। मैं बाँसुरी पर ऐसी मादक धुन छेड़ता हूँ जिसे सुनकर तुम आनंद से विभोर हो जाओगी। अगर नृत्य तुम्हें आता हो तो नाचो वरना ऐसे ही थिरको सुंदरी! तुम्हारी हर भंगिमा आकर्षक और हर मुद्रा दिल-फरेब है। तुम्हारे साथ सारा जंगल नाचेगा। मेरे इषारे पर नाचेगा। अगर नृत्य न सुहाए तो आओ मेरे पुष्ट कंधों पर बैठो। मैं हवा की तरह आसमान में तैर सकता हूँ। मैं तुम्हें उन दूर दूरस्थ तारों की रोशनी में ले जाऊँगा जो अभी तक हमारे सपनों की दहलीज तक ही आ सके हैं। मैं बादलों के गीत गाऊँगा, तुम सावन की बूंदों की तरह थिरकना। धरती, आकाश, पाताल, तुम्हारे पैरों तले होंगे। सूर्य, चंद्र कानों के कुंडल, ग्रह आभूषण और तारों से तुम्हारी माँग सदियों तक जगमग जगमगाती रहेगी। देखो, आज हवा में कैसी मीठी शीतलता है। इस नेह-निमंत्रण को स्वीकारो। सुंदरी आओ समीप बैठो…“
“क्या तुम वाकई ऐसा चाहते हो ?…
“हाँ, तुम्हारी कसम, मेरा विश्वास करो। मैं सदा से तुम्हें चाहता आया हूँ। विधाता से यही माँगता आया हूँ, एक ऐसा प्रेम जो जीवन के संगीत की तरह नित्य प्रति मेरी साँसों में महकता रहे। एक ऐसी धुन जो मेरे वजूद पर छा जाए और होश गुम जाए। एक ऐसा विश्वास जो मेरे हाथों को थामकर मेरी उदास जिंदगी की खाली झोली तमाम खुशनुमा फूलों से भर दे। मैं अपना सब-कुछ उसके कदमों में डाल दूँ और बदले में सिर्फ एक ऐसी नजर हासिल हो जो कुल कायनात में सिर्फ मेरी हो, मेरी हो और कोई साया भी हमारे दरम्यान न रहने पाए। मुझे मंजूर है अगर इस दौरान मेरी हस्ती नेस्तनाबूद हो जाए, लेकिन मुझे अजहद खुशी होगी यह जानकर कि मैं तुम्हारी आँखों की चमक में दमक रहा हूँ……….“
सारा जंगल अयप्पन की बातों को गौर से सुन रहा है, यहाँ तक कि चलते-चलते हवा भी, उड़ते-उड़ते पत्ते भी, हँसते-हँसते पेड़ भी, सोते-ऊँघते खरगोष भी।
“जरा सोचो, क्या अपनी जिंदगी की शुरुआत से ही तुमने यही कुछ चाहा था याद करो जब तुम छोटे थे, आओ, इस पुलिया पर बैठ जाओ अयप्पन, और अपने सवाल का जवाब चाहने से पहले मेरे सवाल का जबाव दो…“
“ओह, तुम क्या चाहती हो ? क्यों मुझे उम्र के उन कड़े कोसों पर वापस भेजना चाहती हो जिन्हें मैं आँसुओं और पसीने से पार कर पाया हूँ। वह गया हुआ कल है, उसकी याद से क्या हासिल होगा ?“
“हर वक्त जा चुका है, हर पल बीत चुका है, यहाँ हम दोनों के बीच जो गुजर रहा है, दरअसल बीत रहा है, दोबारा पलटकर तो ये पल नहीं आएँगे, तो क्या इन पलों का हासिल कुछ नहीं रहा ? भूलते हो अयप्पन जिंदगी एक मुकम्मिल डोर है, आगे जाने पर पीछे के धागे मिट टूट नहीं जाते वरना आज की इस बातचीत का कल क्या मतलब रहेगा ? ज़िंदगी का मानी एक संपूर्ण राग है आलाप से वाह तक, कटे-फटे पन्नों की वार्षिक डायरी नहीं…………..“
“तुमने चाहा तो मैं सोचने लगा हूँ यह सोचकर कि इस बहाने तुम कम से-कम मेरे करीब तो बैठी हो, हालाँकि कभी सपने में नहीं सोचा था कि तुम्हारे पास बैठकर मैं वर्तमान को भूलकर अतीत के गुमशुदा मंजरों के बारे में बातें करूँगा। अब यदि यही तुम्हारी तमन्ना है तो खुद के सामने मैं हाज़िर होता हूँ लेकिन गुज़रे हुए वक्त को कहाँ से पकड़ें, मैं समझ नहीं पा रहा। जंगल के षुरुआती छोर का रास्ता अभी भी स्मृति में है, बचपन से जुड़ा हुआ। इस बचपन की याद करूँ तो पाता हूँ कि आज जैसा तब कुछ भी नहीं था। तब मेरे ख्यालात कुछ और थे। इरादों की सजावट अलग थी। इस दुनिया को मैंने बहुत अचरज से देखा। बाजार, दुकान, घर, स्कूल, गाँव-गलियाँ, लोग, तब लगता था कि यह सब कुछ मेरे लिए एकदम नया है, अनोखा और अजूबों से भरा। लेकिन मेरा नहीं है। ये क्या है, वो क्या है, ऐसा क्यों है, वैसा क्यों नहीं, और आखिर किसलिए। ऐसे तमाम सवालात मेरे जेहन में घूमते रहते थे। कोई ऐसा जवाब नहीं देता था जिससे मेरी जिज्ञासायें चुप हो सकें। दिनों-दिन उदास और उद्विग्न रहने लगा। ऋऋऋऋऋऋऋऋ
फिर मैंने ऐसे वाकयात और घटनाएँ देखीं जिनसे मुझे क्षोभ हुआ। मेरे मासूम दिल को धक्का पहुँचा। अपने तमाम शौक और तमन्नाओं को अँधेरे दिल के गहरे तहखानों में दफनकर गृहस्थी की चक्की में अनाज के साथ माँ रोज़ अपने आपको भी पीसती थी। बाहर दुनिया में रोज न जाने ऐसा क्या होता था कि मेरे पिता हलकान, परेशान, सूखा चेहरा लिए लौटते और पूजा की पत्थर-मूर्तियों के सामने ढह जाते। मेरा भाई दिन-दिन भर बाहर रहता और जब भी लौटता, पिटकर लौटता। मेरी बहनें पड़ोसियों के घर से साबुन, बिंदी, पाउडर, चुराकर लातीं और देर रात तक आपस में लड़ती-झगड़ती और नियम से पिटतीं। हमारा चाचा और ऐसे ही कुछ लोग घर में शेर की तरह आते, गरजदार आवाज में सबको धमकाते और दस छेदों से भरी बनियान में काँपता मेरा पिता मिन्नतें करता रहता। भीतर रसोई में माँ रोती रहती। आखिर माजरा क्या था ? हमीं लोगों को ही सभी क्यों पीटते थे, कभी छड़ीं से, कभी थप्पड़ों से या बातों से या बोलों से, हमारा कुसूर क्या था ? मुझे कोई कुछ नहीं बताता। गुस्से में आकर मैं घर का कोई बर्तन तोड़ देता और देर तक मेरी धुनाई होती। लेकिन मेरी आँख में आँसू नहीं होते। मैं पहले ही इतना रो चुका था कि आँख में आँसू नहीं रहे थे। शायद मेरे पेट और दिमाग की आग में झुलसकर वे पत्थर बन चुके थे जिन्हें मैं चुपके से ऐसे लोगों और उनके घरों पर फेंककर भाग आता था जिनसे मुझे दिली नफरत हो गई थी। हालाँकि कारण मेरे दिमाग में साफ-साफ नहीं थे।
उस दुनिया में मेरा न कोई दोस्त था और न कोई साथी, एक वहशत में जीता हुआ मैं था और मेरे साथ सिर्फ मैं। उन दिनों भी मैं इस जंगल से गुजरा करता था। मुझे याद है कि पहली बार मैं हाँफती माँ की उँगली पकड़े हुए चल रहा था। माँ की पीठ और हाथों में कई भारी झोले लटके थे। पिता संदूक लिए हुए आगे चल रहे थे और बार-बार पीछे देखते हुए गुस्सा हो रहे थे कि इस तरह तो गाड़ी छूट जाएगी। मेरा भाई काफी आगे निकल गया था। इस जल्दबाजी में डाँट-फटकार की वजह से मैं बदहवास होकर रोने लगा था लेकिन माँ बराबर हौसला बढ़ाए हुए थी। मेरी रोती हुई आँखों में आज भी माँ का सांत्वना और ममता में पसीजता असहाय चेहरा दर्ज है। कैसे भूल सकता हूँ मैं, उसने मेरी उँगली पकड़ रखी थी। उसके बाद किसी ने मेरी उँगली नहीं पकड़ी। मेरी उँगली के पास आज भी एक खालीपन है जो सिर्फ तभी भरता है जब मैं किसी बच्चे की अंगुली पकड़ता हूँ।
लेकिन उसके बाद इस जंगल से मेरा दोस्ताना हो गया। खासकर एकांत जंगल को अकेले पार करना मुझे बेहद उत्तेजक और आत्मीय लगता रहा। मैं किसी न-किसी बहाने गाँव से स्टेशन जाता और वापस लौटता सिर्फ इस उम्मीद और आरजू से कि बीच में जंगल मिलेगा। जंगल पार करते हुए मुझे लगता कि दूर कोई गा रहा है। गाता हुआ मुझे बुला रहा है। मैं सोचता क्या सचमुच ? शायद हाँ। षायद ना। पंछियों की चहचहाट और हवाओं का ओर-छोर दौड़ लगाना मुझे भाता था। तेज बारिश में पगडंडियों पर फिसलते हुए या पेड़ के तने से सटे, भीगे बदन ठिठुरते हुए या तेज दोपहरी में जंगल की छाया में पड़े पसीना सुखाते हुए मुझे लगता था कि मैं अपनी देह के बाहर आ गया हूँ और जंगल की छाती में हवा-सा उड़ रहा हूँ।
ऐसे ही किसी मौसम में जंगल में एक सुबह मैं उन पेड़ों के नीचे था जो तमाम दिनों कुछ-न-कुछ फल देने के बाद आज कुछ न दे सकने की शर्मिंदगी में सिर झुकाए मेरे पत्थर खा रहे थे। मैंने अपनी पीठ के पीछे घोड़े की टापों की आवाज सुनी। पलटकर जो देखा तो देखता ही रह गया। वो नजारा तब भी बयान के बाहर था और आज भी।
एक खूबसूरत योद्धा, शाही पोशाक पहने हुए, सफेद चमकते घोड़े पर अजब ढब से बैठा था। उसकी कमर में दमकती हुई तेज तलवार बँधी थी। उसके चेहरे पर बला का नूर और गजब की बहादुरी थी। आँखों में प्रेम का संदेश और इंसाफ की पुकार थी। उसकी हैरतअंगेज़ हस्ती ने पूरे जंगल को एक अजीबोगरीब शान बख़्श दी थी जिसकी पनाह में आसमान नीचे झुक आया था और हवाओं ने लिबास बदल लिए थे।
मैं डरा लेकिन उसकी आँखों से छलककर प्रेम और स्नेह का गाढ़ा रस मेरी आत्मा के बर्तन में गिर रहा था। उसकी सुरमई आँखों की मोहब्बत और होंठों पर तेज़ कटार-सी काली मूंछों की रौनक ने मुझे बाँध लिया।
’अयप्पन’
उसने कहा था। “डरो मत बेटे! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम एक जहीन और बहादुर बच्चे हो और बहादुरों से मुझे प्यार है। आओ, मेरे पास आओ। मुझसे बात करो, क्योंकि तुमने ही मुझे बुलाया है…“
“नहीं, मैंने नहीं…..“ मैं दो कदम पीछे हटा।
“आओ डरो मत। मेरे साथ इस घोड़े पर बैठो। इसका नाम तूफान है। इसकी चाल के आगे बिजलियाँ भी मात हैं और इसके हौसले आँधियों से भी बुलंद हैं।“
सफेद घोड़े पर उस वीर के साये में बैठा मैं जंगल की अनगिनत पगडंडियों, पहाड़ी रास्तों, दरों और खोहों के बीच गुजरता हुआ हजार तरह की जिंदगी जी रहा था। तब मुझे याद आया कि मैंने यही चाहा था। यही माँगा था जो मुझे आज मिल गया। मैंने उससे पूछा था- “वीर तुम्हारा नाम क्या है ?“ तब वह उसी तरह हँसा था, जैसा तुम आज हँसी थीं। तब भी यह सारा जंगल, परिंदे, पेड़ सब मिलकर हँसे थे। रास्तों को तेजी से नापती टापों की आवाजें हँसी थीं। मैं भी हँसा था। बहुत, बहुत ज्यादा। जवाब उसने भी नहीं दिया था। सिर्फ यही कहा था- “तुम चाहे किसी नाम से पुकार लो! क्या फर्क पड़ता है। अभी तुमने मुझे वीर कहकर बुलाया! चलो यही नाम मुझे मंजूर है…“
“क्या तुम यहाँ मेरे लिए आए ?“
“हाँ, मेरे बेटे, सिर्फ तुम्हारे लिए, क्योंकि तुमने मुझे चाहा! मुझे पुकारा! मुझे आवाज़ दी! तब मैं कैसे न आता! सारी दुनिया के काम छोड़कर मैं आया इसलिए कि तुमने मुझे बुलाया।“
“सारी दुनिया के काम छोड़कर, सिर्फ मेरे लिए…“
“हाँ, मेरे बेटे हाँ!“
“अब मैं सोच रहा हूँ कि मैंने तुम्हें क्यों बुलाया था ?“.
“सोचो बेटे।“
“अगर मैं नहीं बता पाया कि मैंने तुम्हें क्यों बुलाया था या समझो यूँ ही मैंने तुम्हें बुलाया था, खेल-खेल में, तो ?“
“तो दोबारा जब तुम कभी बुलाओगे तो मैं समझूँगा कि तुम सिर्फ खेलने के लिए बुला रहे हो और शायद तब मैं इतनी जल्दी न आ सकूँ…“
“क्यों ?…“
“…क्योंकि मुझे दुनिया में लाखों काम हैं। हजारों बच्चे मुझे रोज़ बुलाते हैं….“
“क्यों ?“
“जब कोई बच्चा दुःख और मुसीबत में घिर जाता है और उनसे लड़ने की हिम्मत करता है तो मुझे बुलाता है। मैं उसके पास जाता हूँ उसकी मदद करने…“
“लेकिन मुझमें हिम्मत कहाँ?“
“नहीं बेटे, यही हिम्मत है। जब कोई दुःख, अन्याय और आतंक के खिलाफ सोचता है, तब हिम्मत की शुरुआत होती है। आदमी पहले सोचता है, फिर पुकारता है और फिर लड़ता है। यही बहादुरी है।“
“क्या मैंने यही चाहा ?“
“तुम सोचो बेटे क्योंकि जिंदगी का हर कदम तुम्हें तय करना है।“
“हाँ, मैंने यही चाहा, उन सबसे लड़ूँ। उन सबका मुकाबिला करूँ जिन्होंने मेरी माँ को दुःख पहुँचाया। पिता को धमकाया। भाई को पीटा और बहिनों को चैन से जीने नहीं दिया।“
“…तुम बहादुर बच्चे हो। अक्ल से सोचो और हिम्मत से वार करो। तुम देखोगे कि दुःख की उमर कम है, अन्याय के पैरों के नीचे जमीन नहीं है और आतंक सिर्फ हवा है जो बुजदिलों के सिर मँडराया करती है….“
“लेकिन मेरे पास तुम जैसी तलवार कहाँ, आनबान कहाँ, ऐसा तूफानी घोड़ा कहाँ, मैं एक बच्चा सिर्फ दस साल का..“
“हिम्मत ही तलवार है, हौसले और इरादे ही आन-बान हैं और बहादुरी की पीठ पर बैठकर हर मंजिल फतह की जाती है, और उम्र, उम्र के कोई मायने नहीं होते। दिन माह और वर्ष सिर्फ पराक्रम के होते हैं, उम्र के नहीं…। उम्र तो सिर्फ एक कैलेंडर है।“
“क्या सच ?“
“हाँ बेटे, मुझ पर भरोसा करना, क्योंकि दुनिया में सिर्फ भरोसा ही एक ऐसा रिश्ता है जो खून के बंधन से आजाद है, ऊपर है और पाक है। हमने एक-दूसरे को पाया है। हम एक-दूसरे के लिए हैं, इस भरोसे पर दुनिया में बेखटके निकल जाओ, तुम देखोगे कि दुनिया तुम्हारे कदमों तले बिछ गई है….“
उस सुबह सबने मुझसे कहा-“हाँ यही सच है।“
आसमान पर उड़ते परिंदों की सफेद कतार ने एक सुर में कहा-“हाँ यही सच है“
पहाड़ों से आती ठंडी बयार ने कानों के करीब कहा- “अयप्पन, यही सच है।“
“और इस सच के साथ मैं गाँव की ओर वापस चल पड़ा। पूरे रास्ते-भर मुझे लगता रहा कि मैं तूफान पर सवार हूँ। चमकती तलवार मेरी कमर से बँधी है। लोग मुझे देख रहे हैं। अब मुझे किसी का कोई ख़ौफ नहीं रहा। तब से आज तक मैंने पीछे नहीं देखा। गिरते हुए उस घर को मैंने अपने दोनों हाथों से मजबूती से थामा। हर मुसीबत का सामना किया। कई बार पिटा, लेकिन अधिक बार पीटा। जी भर पीटा। अपने हक के लिए बराबर लड़ा। धीरे-धीरे दुनिया बदलती गई…“
“और उस वीर का क्या हुआ ?“ लड़की ने पूछा।
“उस दिन के बाद वह मुझे कई बार मिला, कभी मैंने बुलाया, कभी वह खुद आया। फिर धीरे-धीरे उसका आना कम हो गया। इधर कई वर्षों से वह नहीं आया…“
“तुमने बुलाया ?“
“बुलाया तो नहीं, शायद ज़रूरत भी नहीं पड़ी , शायद उसने भी समझ लिया हो“.
“ज़रूरत ही नहीं पड़ी, शायद यही ज्यादा सच है।’’
“शायद, मगर क्या कह सकता हूँ , हो सकता है और नहीं भी…“
“ऐसा कोई सच नहीं है जो हो सकता है और नहीं भी हो सकता है… दरअसल सवाल सिर्फ हमारी ज़रूरत का है। हमारी ज़रूरत का सच क्या है ? इसको जानने की ज़रूरत किसे है और क्योंकर हो।“
लड़की हँसती है।
“मैं समझा नहीं…“
“इसमें समझने की भी ज़रूरत क्या है और क्योंकर हो..“
लड़की अभी भी हँस रही है।
“खैर, छोड़ो इन बातों को, अयप्पन अब उठो, आगे चलें।“
“कहाँ ?“
“क्यों, क्या जिंदगी-भर यहीं बैठने का इरादा है ?“
“चाहता तो यही हूँ कि उमर-भर ऐसे ही बैठा रहूँ, तुम मुखातिब हो, तुम्हें देखूँ भी, तुमसे बात भी करूँ…“
“यह तो मैं समझ रही हूँ। इस समय तुम्हें मेरी ज़रूरत है, लेकिन न जाने क्यों मैं सोच रही हूँ कि इस ज़रूरत की उम्र क्या है ?“
“क्या कहती हो सुंदरी, ऐसा कहकर मेरे हृदय को ठेस मत पहुँचाओ। देखो, मैं कितना अधीर हो रहा हूँ। आओ मेरी बाँहों में समा जाओ और अपने होंठों से मेरे तन-मन में अमृत की वर्षा करो। समय बीता जा रहा है और इच्छाएँ अभी भी अधूरी और अतृप्त हैं….“
“इसलिए तो कहती हूँ, उठो और चलो! इच्छाओं के मार्ग पर चलना ही शायद हमारी नियति है। तब फिर भला देर क्यों ?…“
“लेकिन कहाँ चलना है ?“
“क्या यह जानना जरूरी है ?“
“शायद मेरे अतीत की कहानी सुनकर तुम कुछ विचलित हो गई हो ?“
“विचलित तो शायद नहीं, लेकिन एक दूसरा किस्सा मेरी आँखों के आगे अपना हाल बयान कर रहा है। शायद यह कल का किस्सा है…’’
“कल का किस्सा, कैसा कल ?“
“तुमने बीते हुए कल की कहानी सुनाई थी अयप्पन, मैं आने वाले कल की कहानी देख रही हूँ।“
“लेकिन यह कैसे संभव है, कल जो आया नहीं, उसकी कहानी। आश्चर्य है, लेकिन कैसे ?“
“संभव कैसे नहीं अयप्पन, जो भी सत्य है, वही संभव है। कल आज और कल तीनों सत्य हैं, इसलिए संभव भी हैं…“
“मुझे आश्चर्य हो रहा है फिर भी मैं चाहूँगा कि बताओ कि तुम क्या देख रही हो? किसकी कहानी है ?“
“कहानी तो अयप्पन की है…“
“अयप्पन ? मेरी, मेरी कहानी कैसे ? यह क्या पहेली है सुंदरी ? क्या तुम्हें मेरी लगातार बढ़ रही परेशानी का अंदाज़ा नहीं है, फिर ये सताना क्यों ?….“
“हो सकता है, यह कोई दूसरा अयप्पन हो। क्या दुनिया में एक ही अयप्पन है ? फिर वह तुम हो या कोई और। क्या फर्क पड़ता है। मुख्य तो कहानी है। सब कोई यही तो जानना चाहते हैं, आखिर क्या हुआ उसका ?…’
“ठीक कहती हो। कहानी ही मूल है, तो बताओ क्या देख रही हो ? क्या है किस्सा, क्या हुआ उसका ?…“
टीले पर खड़ी लड़की पश्चिम की ओर कहीं दूर देख रही है। उसके चेहरे की ओर सारे जंगल की आँखें टिकी हैं। हवा थम गई है। पंछियों ने चहचहाना बंद कर दिया है। लंगूर डालों पर थम गए, हिरण झाड़ियों में और चिड़ियाँ घोंसलों में। जंगली बिल्ली उछलना चाहती थी पर उछली नहीं। सिमटकर बैठ गई। दरख्तों पर चींटियों की कतारें रुक गई हैं। एक ख़ामोश जादू में बँधा आसमान सिकुड़कर जंगल में क्षितिज से सिर टिकाकर बैठ गया।
“मैं देख रही हूँ कि इसी जंगल के दूसरे छोर पर सूरज अपनी ऊँचाई की जगह से अब नीचे उतर रहा है। गोकि गर्मी अभी भी है और तपिश भी, लेकिन किरणों में वह ताव नहीं रहा। दोपहर का निचाट सन्नाटा बढ़ रहा है। सूखी नदी को पारकर अयप्पन आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी चाल में अब वो बात नहीं जिसके लिए आसपास के गाँवों में वह मशहूर हुआ करता था। थोड़ा स्थूल बदन, रंग पका हुआ और सिर के बालों में सफेदी उतर आई है। वह कुछ सोचता हुआ चला जा रहा है। धूप उसके चेहरे पर ठीक सामने से पड़ रही है। पसीने से बदन तर-ब-तर है।“
जंगल के कच्चे रास्ते पर पतझर के बेहिसाब सूखे पत्तों का फैलाव है। हवा सूख गई है। पेड़ों के कंधे शिथिलता से नीचे झुक आए हैं। राह पर रह रहकर धूल के हल्के गुबार उठते हैं । जाते हुए अयप्पन की बगल से किशोर वय का एक लड़का तेजी से दौड़ता हुआ गुजरता है।
अयप्पन उसके चेहरे की एक झलक देख लेता है और हठात् चिल्लाता है- “रुको, जरा रुको।“
लड़का थमता है और मुड़कर अयप्पन को देखता है।
अयप्पन हाथ उठाता है-“रुकना“ और चाल में तेजी लाता हुआ उसके पास पहुँचता है। चेहरे के पसीने को अंगोछे से पोंछता हुआ लड़के से पूछता है- “तुम्हारा नाम क्या है ?….“
“क्यों ?“ लड़का व्यवधान से खुश नहीं हुआ। चिढ़ भी गया।
“दुनिया में सबका कोई-न-कोई नाम होता है सो तुम्हारा भी होगा।…“
“और यदि मेरा कोई नाम न हो ?“
“तो क्या, तब भी मुझे कोई अचरज न होगा, क्योंकि एक तो अचरज लगने की मेरी उमर नहीं रही। फिर दुनिया में इतना उतार-चढ़ाव देखा है। आगा पीछा देखा है कि सब कुछ एक-सा लगता है। कुछ भी कुछ खास नहीं, विशेष नहीं, उल्लेखनीय नहीं….
…………..तो नाम का मतलब ही क्या है, सिर्फ किसी को पुकारने की सुविधा, चाहे वह आदमजात हो, ढोर-डंगर हो या फल, पत्ती या इसी तरह की कोई चीज। इनसान को वर्गों में बाँटने का, तैयार फ्रेम में फिट करने का पहला कदम है जो समाज बड़ी चालाकी से उस वक्त उठा लेता है जब बच्चे को समझ ही नहीं होती और वह आसानी से रामलिंगम या रैमसन या रमज़ान बन जाता है। खैर, छोड़ो इन बातों को, यदि तुम्हारा नाम अभी तक नहीं है तो लोगों को तुम्हारा नाम धरते ज़्यादा देर नहीं लगेगी। वे तुम्हें बेनाम ना रहने देंगे …“
“भला क्यों ?“
“इसलिए कि जब तक तुम पुकारने लायक हो, बुलाने के काबिल हो, तुम्हारी ज़रूरत है, तब तक बुलाने-पुकारने के लिए एक नाम चाहिए – तुम्हारा नाम- व्यवस्था के लिए यह जरूरी है, गाली देने के लिए भी एक नाम तो चाहिए। लेकिन जब तुम किसी उपयोग या दुरुपयोग के काबिल ही न रह जाओगे तो फिर तुम्हारा क्या काम, कैसा नाम….? क्या मुर्दो के भी नाम हुआ करते हैं और क्या सिर्फ मरे हुए ही मुर्दा हैं…?“
“तो फिर नाम क्यों पूछते हो ?“
“क्योंकि मैं तुम्हें बुलाना चाहता हूँ, पुकारना चाहता हूँ…“
“लेकिन क्यों ?“
“क्योंकि यह दुनिया यूँ तो करोड़ों की है मगर किसी एक की है जिसे कोई दूसरा जानना चाहता है। लाखों की भीड़ में आँखें उसी पर रूक जाती हैं। यह पहचान लेना ही खुद को पहचानना है, जीवन को पहचानना है। प्रेम के मूल में यही पहली नज़र की पहचान कुल मायने रखती है। मैंने तुम्हें पहचाना है इसलिए चाहता हूँ। तुम्हें प्यार करना चाहता हूँ। तुम्हारे चेहरे की छवि में अनंत सम्भावनायें मचल रही हैं। तुम्हारी आँखों में अभी कई सपने जन्म ले रहे हैं। तुम्हारे होंठों पर देवलोक की रहस्यमयी मुस्कान है। तुम्हारी साँसों में इस मिट्टी का सोंधापन है। तुम सूर्य की पहली किरण हो और तुम्हें महसूस करना भला लगता है वैसे ही जैसे आषाढ़ का पहला बादल, पहली वर्षा…“
“मैं समझा नहीं।“
“इसे समझोगे कैसे ? इसमें कोई समझदारी नहीं है, सिर्फ महसूस किया जा सकता है, लेकिन जब तक भीषण ताप से सुलगती हुई चट्टानों सा तप्त मन न हो तब तक वर्षा की फुहारों का मादक प्रहार और बूंद की मांसलता कैसे महसूस कर सकोगे ? झुलसती धरती पर वर्षा के अमृत कणों के सिंचन के बाद ही उस सोंधेपन का रूपायन होता है जो धरती के दिल की कशिश है और जिसकी बेचैनी आकाश के निस्सीम विस्तारों तक फैल जाती है। इसी कशिश को लेकर बादल अगले साल फिर आते हैं और धरती की छाती पर उन्मत्त घिर जाते हैं। तुमसे पूछें कि क्या धरती ने नाम लेकर किसी बादल को पुकारा था ? मैंने तुम्हें पुकारा तो क्या किसी नाम से ? नहीं, मेरे बच्चे यह सिर्फ एक कशिश है, एक ज़रूरत है जो किसी को मजबूर कर देती है किसी को पुकारने के लिए, जैसे आज मुझे, शायद कल तुम्हें…“
“लेकिन क्यों ?“
“यह सब कुछ समझने के लिए तुम्हें मेरी उम्र तक आना होगा। उम्र के इस पड़ाव पर आते-आते मन में अजीब बेचैनी जन्म ले चुकती है। अपनी जय पराजय, मान-अपमान, इत्मीनान और जिल्लत का सारा लेखा-जोखा आँखों के सामने फैल जाता है। हमने किन चीजों को दाँव पर लगाया और पासों की उलट-फेर में क्या पाया ? हम किस दौड़ में शरीक हुए, किन झंडों के नीचे खड़े हो गए, किनसे हाथ मिलाया, किसकी गर्दन काटी ? हमारे जख्मों से रिसते खून ने विश्वास की किन तसवीरों को तोड़ा ? आखिर हमारे सपनों का क्या हुआ, रक्त से लथपथ देह को लिए हम किस मुकाम पर पहुँचे और हमारी तमन्नाओं ने कहाँ पड़ाव किया ? हमारी उम्मीदों ने क्या गुल खिलाए ? नियति की किस चट्टान ने हमारा सर फोड़ा, हमारा हासिल क्या रहा और उन फूलों का क्या हुआ जो कई कदम तक सीने पर दिल की हमसाँस महकते रहे और फिर हमारे और गैरों के हाथों ने पंखुड़ी-पंखुड़ी नोचकर फेंक दिए ? ये तमाम चीजें हैं जो अक्सर बेचैनी का एक ऐसा तूफान उठा देती हैं जिसमें दिल डूबता नजर आता है और सारा वजूद रेशा-रेशा बिखर जाता है।…“
“लेकिन तुम्हारे बारे में तो सुना जाता है कि तुम एक कामयाब इनसान हो। आसपास के सौ गाँवों में तुम्हारा नाम अदब और आदर से लिया जाता है।…’’
“कामयाब! हाँ, कह सकते हो। मैं अयप्पन, मेरी तीन सौ बीघा धान की खेती है। इलाके का मातबर किसान हूँ। शहर की मंडी में धान मेरे खेत के नाम पर बिकता है। चाय और मसाले की खेती भी करता हूँ। नारियल के अनगिनत पेड़ हैं। पक्का मकान और दुधारू जानवरों का बाड़ा ऐसा कि लोग दाँतों तले उँगली दबा लें। इलाके की राजनीति में अलग असर है मेरा। गुंडे भी पालता हूँ और मंदिरों में चढ़ावा भी भेजता हूँ। लोग कह सकते हैं कि मैं एक कामयाब इनसान हूँ, क्योंकि यदि कामयाबी इसी चिड़िया का नाम है तो यह चिड़िया रोज मेरे आँगन में मुझसे पूछकर दाना चुगती है। लेकिन क्या कामयाबी ऐसी होती है जिसमे एक पल चैन नहीं, हर तरफ संदेह और संषय के अलावा कुछ नहीं, एक अंधी दौड़ में बेलगाम भागते रहना नियति ? क्या यही सपना देखा गया था ? तब लगता है कि सब ग़लत है, सिरे से ग़लत है। हम मंजिल तक ही नहीं पहुँचे, उसके भ्रम में रेत के बबंडरों में क़ैद होकर रह गए। तब ख़ालिस अफसोस रह जाता है मगर यह अफसोस वाकई कामयाबी में बदल सकता है यदि सिर्फ कुछ कदम ठीक से चला जा जाए और ये कदम पहले की तरह किसी भटकाव का शिकार न होंगे, क्योंकि अब हमारी आँखें चतुर अनुभवी शिकारियों की तरह पैनी और खूखार हैं। अब हमारे हाथ बरसों के अभ्यास से सधे हुए और निपुण हैं। अब हमें असली दुश्मनों की पहचान है और उनकी वास्तविक ताकत का अंदाज़ा है। अब हम दुनिया की चालों में दुनिया से ज़्यादा शातिर हैं और नफे के पलड़े को अपने हक़ में झुकाना बखूबी जानते हैं। अब हमारे पास अनुभव और याददाश्त है और खेल के नियमों को अपने हित में बदलने की महीन कला भी। लेकिन जवानी के कसे कड़े हाथों में अब जुम्बिश है। शरीर में शिथिलता का आभास होने लगा है। नजर धुंधली होने लगी है। साँस भी पहले की तरह हमारा साथ नहीं दिया करती। तब उस जवानी के कड़ेपन की याद आती है जो ऐन बरछी की तरह हमारे संगसाथ और हमराह रही है, जिस पर हमें नाज़ था और जिसने पुरतूफान में सागर में हमारी नाव खेई थी। लेकिन अब सिर्फ परछाइयाँ हैं जिनके सहारे सिर्फ़ किनारों पर लगा जा सकता है, समुंदर को चुनौती देने का सवाल कहाँ! यह मंज़र उस वक़्त और दर्दनाक साबित होता है जब यकीनी तौर पर हमें मालूम रहता है कि लहरों में पानी कहाँ कमजोर है और तूफान को प्याले में भरने का हुनर क्या है। यही वह वक्त है जब जवानी की जरूरत होती है और वह नदारद मिलती है। तब जवानी जहाँ भी दिखती है उसे गले से लगाने का मन होता है। जी चाहता है कि इस भरपूर दमकती जवानी को अपनी हस्ती में भर लूँ। अपने जिस्म में उसी हरारत को महसूस करूँ। यदि मेरी जवानी की वापसी मुमकिन नहीं तो जवानी का गर्म हाथ तो मेरे हाथ में हो। इस तरह ही सही मगर अपनी उम्मीदों के चिराग रोशन कर सकूँगा और गुज़िष्ता तिलस्माती खुशियों को क़ैदकर अपनी फतेहयाबी का जश्न मनाऊँगा। शायद यही बात है जो एक जवान होते लड़के के बाप के दिल में मौज लेती है। एक होनहार शिष्य को पाकर गुरु के मन में पुरसुकून तड़प पैदा करती है…“
“लेकिन न मैं तुम्हारा बेटा और न ही शिष्य…“
“यह रिश्ता न किसी खून के संबंध का परिणाम है और न किसी गंडे-ताबीज़ का मोहताज। यह वक्त की जवानी को पुकार है। जिसने सुना, जिसने माना, वही इस हद में आया। बाकी सब नसीब के हाथ, मिला न मिला…“
“लेकिन तुमने कुछ और भी चाहा होगा.“
“मसलन ?“
“जैसे कि वर्चस्व, अधिकार, यश, कीर्ति, जय-विजय…“
“यह सब चाहा भी। पाया भी। मिला कुछ पुरा, कछ आधा-अधूरा। कहीं कुछ पूर्ण नहीं, एक रंग नहीं, जैसे किसी लुटे हुए शहर में दाखिल हुए हों। हर प्रतिष्ठा के साथ एक जिल्लत भी कबूल कराई गई। हर कीर्ति के साथ रीढ़ की हड्डी फर्श पर झुकाई गई। हर सुख के आगोश में दाँतों के नीचे कंकड़ आया। हर बुत टूटा हुआ मिला। हर जयगान के पीछे चाबुक का इशारा था। हर रेशमी बिस्तर के नीचे एक कब्र थी और हर मोहब्बत के पीछे एक खूनी खंजर… गलतफहमियों और खुशफहमियों की यह एक मुकम्मिल दुनिया थी जो हमारी अपनी तो कतई कहीं से नहीं…“
“तो अब मुझे क्यों चाहा ?…“
“इसलिए कि हर बार सीने पर चमकती वर्दी पर एक तमगा और गालों पर झन्नाटेदार थप्पड़ लगने के बाद सुर्ख चेहरे के बावजूद दिल में एक बवाल उठता जरूर रहा है कि वक्त आने पर आदर्शों के मुखौटे के पीछे छुपी और नफरत व वहशत से रची-बसी इस निज़ामी ताकत को मुँहतोड़ जवाब देना है, लेकिन इस मुकाम तक आते-आते मेरे कवच में छेद हो गए। शिरस्त्राण में दरारें आ गईं। इस महासमर में अपनी तलवार के बोझ से काँपता मैं या तो अपने घुटनों पर ढह जाऊँ ताकि शहादत का एक तमगा मेरी छाती पर लगाकर वे मेरे सिर को नेजे पर उछाल दें या फिर घने आत्महत्यारे अँधेरों में भाग जाऊँ जहाँ किसी गुमनाम भेड़िये के पेट का निवाला बन जाऊँ या भयाक्रांत खोहों में छुपा हुआ पत्तों के खड़कने के साथ अपनी मौत का इंतज़ार करूँ। मुझे इनमें से कोई भी तज़वीज़ पसंद नहीं, क्योंकि अभी मेरा हौसला मरा नहीं, इरादे टूटे नहीं। मुझे याद है, बचपन में तूफानी सफेद घोड़े पर सवार उस महाबली ने हिम्मत और पराक्रम की बात कही थी, उस बात को गाँठ में बांधकर मैं कामयाबी के इस मोड़ तक आया, आगे भी जाना है, अगर मेरी जवानी का सहारा नहीं तो तुम्हारे कंधों के सहारे। आओ मेरे पुरुषार्थ की कमान में तुम टंकार की तरह गूंजो। मेरी तलवार की पैनी धार बनो। आओ, डरो नहीं क्योंकि डर ऐसी खौफनाक गुफा है जिसके मुहाने पर मृत्यु है और उसके भीतर जीवन का उल्लास। इस डर को भेदो, तब तुम पाओगे कि तुम अजेय-अपराजेय मृत्यु के ऊपर हो। मृत्यु क्या है देह का रूपातंरण। यही तो मैं चाहता हूँ, तुम्हारी देह में अपने प्राणों की प्रतिष्ठा। फिर मृत्यु का क्या अर्थ ? सिर्फ जीवन है, जीवन की निरंतरता है। आओ, मेरे बच्चे मेरे पास आओ। सब कुछ भूलकर उस ध्यान में लीन हो जो एक धनुर्धर की तपस्या है। चित्त को बाँधो। प्रत्यंचा पर उँगलियाँ कसी हों और लक्ष्य के अलावा कुछ न दिखे। योगी की समाधि में उतरकर प्रहार के लिए तल्लीन हो, मेरे बच्चे…“
“क्या कहते हो बाबा, तपस्या? न, न मुझे जाने दो।“
“नहीं रुको। मेरे पास सत्य है तुम्हारे पास जीवन। इन दोनों के मेल से एक ऐसा कर्मकांड बनेगा जो स्वर्ग से सुंदर और स्वप्न से मोहक होगा। मेरी धुंधलाती आँखें उस क्षण को इस जमीन पर उतारकर भरपूर देख लेना चाहती हैं जो ऐन इस वक्त हमसे दूर नहीं, बल्कि बहुत ही करीब त्रिशंकु की तरह एक जोशीले नौजवान के हाथ की लंबाई की गिरफ्त में हमारे सिरों पर विकल थरथरा रहा है…“
“नहीं, मुझे नहीं चाहिए जो कुछ तुम बता रहे हो। मुझे तुमसे भय लग रहा है। देखो तो तुम्हारी आँखें हिंसक उन्माद में डूब रही हैं। तुम्हारे चेहरे पर पिटे हुए लोहे का स्याह ठहराव है। तुम्हारे होंठों से थूक उचट रहा है। मुँह से बदबू आ रही है। नीली सूखी नसों के जाल से भरा हुआ हाथ नरकंकाल का लग रहा है । जाने दो। मुझे यहाँ नहीं रुकना। मुझे मेरा वीर पुकार रहा है…“
“वीर ? कौन वीर ?“
“उधर पूर्व की ओर जंगल के पहले छोर पर नारियल के लंबे सनसनाते पेड़ के नीचे सफेद शानदार घोड़े पर बैठा हुआ वीर जिसकी आँखों में समुद्र उबलते हैं, जिसकी बाँहों के घेरे में पहाड़ चूर-चूर हो जाते हैं, जिसके सीने पर नदियों की लहरें चोट मार-मारकर असहाय थम जाया करती हैं, वही वीर, मेरे सपनों का षहन्षाह जो मुझे दुनिया के अनजान किनारों तक ले जाएगा, जो दूधिया बादलों से ढंकी पहाड़ की चोटी पर से ग्रहों-उपग्रहों को अपनी पुष्ट लात के प्रहार से अंतरिक्ष के कोने-कोने में धकेल देता है। सच यही है कि उसी को मैंने चाहा है, वहीं मुझे जाना है…“
“लेकिन वह पूरा नहीं है, एक छल भी है, जिसके लाखों भुलावे हैं।“
“फिर भी कितना सुंदर, उत्तेजक और आकर्षक!“
“उसके आगे का सत्य मेरे पास है….“
“उसके आगे-पीछे का सत्य नहीं चाहिए। अपना सपना, अपनी उत्तेजना चाहिए जिसके दर्पण में मैं अपना, सिर्फ अपना चमकना देखूँ।…“
“लेकिन रुको।“
“अभी नहीं, कभी लौटा तो मिलूँगा। हाँ, मेरा नाम पूछा था न तुमने, मेरा नाम है अयप्पन, याद रखना, एक दिन सारा जंगल जय-जयकार के साथ मेरा नाम पुकारेगा… अयप्पन… अयप्पन…““
“अयप्पन… अयप्पन…“ कहता हुआ बूढ़ा हठात वहीं बैठ जाता है। उसके पैरों तले से ज़मीन गायब है और सातों आसमान एक साथ सर पर बरस रहे हैं। पृथ्वी तेजी से घूम रही है।
लड़का भागता हुआ अगले झुरमुट के आगे से मुड़कर कहीं दूर ओझल हो गया।
जंगल ने चोला बदल लिया है। उसकी छाती में हिंस्र आवाजों का रौरव चीत्कार उबल रहा है। तेज़ बरसात चीख रही है। हवा पागल-सी डोल रही है। रह-रहकर बादल गरजते हैं। विशाल पेड़ अर्राकर गिर रहे हैं। जानवर चीत्कार कर रहे हैं। बिजली की कड़कड़ाहट भरे उजाले में पशु की हरी आँखों की खौफनाक चमक पल-भर को जंगल दहला जाती है।
अँधेरा घिर चुका है। चाँद-चाँदनी, आकाश की हँसी गायब है। कनक लताओं-कलियों-फूलों की बेलों का कहीं पता नहीं। ढोर-डंगर-पंछी पखेरू, हिरण, खरगोश दुबक गए हैं। जंगली बिल्ली तक नदारद है। स्याह अंधकार में तेज़ बारिश में डूबते जंगल की खूबसूरती गायब है। जंगल की खूबसूरती का बखान करने वाले गायब हैं।
विकराल काले ध्वंस की शक्ल जंगल अख्तियार कर चुका है। कभी कभी कहीं-कहीं से कोई मंद करुण स्वर उठता है… अयप्पन… अयप्पन… अयप्पन…
कच्ची पगडंडी पर बरसते पानी ने कीचड़ की तहें जमाना शुरू कर दिया है। दूर जमीन में धंसी एक बूढ़ी खोपड़ी का पिचका पिछला हिस्सा नजर आ रहा है और उसके पास सूखी नीली नसों के जाल से भरा एक हाथ। शायद कोई नरकंकाल है।
जंगल में बदस्तूर पांनी बरस रहा है।
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मुकेश वर्मा
सुपरिचित कथाकार, भोपाल।
*वर्तमान में वनमाली सृजन पीठ के अध्यक्ष और आईसेक्ट पब्लीकेशन के निदेशक, साथ ही अंतरराष्ट्रिय साहित्य एवं कला महोत्सव ‘विश्व रंग ‘ के सह-निदेशक तथा ‘वनमाली कथा’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक.
प्रकाशित कृतियाँ – ‘ खेलणपुर और अन्य कहानियाँ ‘, ‘इस्तगासा”,’ ‘सत्कथा कही नहीं जाती, ‘ ‘नमस्कार नाना ‘ और ‘ दस कहानियाँ ‘ के अलावा अनेक सम्पादित पुस्तकें.
*अनेक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त.
*विशेष – अठारह खण्डों में प्रकाशित ‘ कथादेश’ और चार खण्डों में ‘कथा भोपाल ‘ का सम्पादन,
वर्तमान में ‘कथा विश्व ‘, ‘कथा प्रवास’ और ‘कथा भारत’ परियोजनाओं पर काम.
– मोबाइल – 9425014166
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