पवन करण हिंदी कविता के नौवे दशक के बाद के महत्त्वपूर्ण कवि हैं जिन्होंने स्त्री विषयक कविताओं की प्रस्तुति से हिंदी समाज का ध्यान आकृष्ट किया।
प्रस्तुत कविताएं इंद्र की विभिन्न अप्सराओं के माध्यम से भारतीय समाज में स्त्रियों की त्रासद दशा का विमर्श हैं। इन स्त्रियों में परिस्थितिजन्य दैन्यता है , बावजूद इसके अस्तित्व के लिए संघर्ष का स्वर इन्हें बड़ा फलक देता है जो कहता है : When me they fly, I am their wings.
–हरि भटनागर

कविताएं

मेनका

तुम्हारे अलावा यहां ये बात कोई नहीं जानता रंभा
कि इंद्र की आज्ञा की अवहलेना करने पर
स्वर्ग के कारागार में कितने दिन बिताने पड़े मुझे

और ये भी यहां किसी को नहीं पता
कि मैंने कभी नहीं चाहा कि कभी किसी ऋषि की
तपस्या भंग करनी पड़े मुझे

मगर जब विश्वामित्र के पास जाने से इंद्र को
मना किया मैंने तो उसने कारागार में डाल दिया मुझे
और इस भय के चलते कि अप्सराओं के बीच
उसकी आज्ञा की अवहेलना की परंपरा
कारागार को न भर दे स्वर्ग के
मेरे बंदिनी होने की खबर भी न लगने दी किसी को

वस्त्र, जेवर, सौंदर्यप्रसाधन सब छीन लिये गये मुझसे
स्वर्ग की शीर्ष अप्सरा के जीवन में
अंधकार रह गया ठहरकर
इंद्रसभा में जब अन्य देव मेरी पूछते
तब देवराज तुम्हारी तरफ देखते और तुम उनकी तरफ

रंभा, कारावास में रहते अप्सराओं की नियति से
मेरा परिचय नहीं कराया होता तुमने
तो मैं कभी इंद्रसभा में कदम नहीं रख पाती दोबारा
प्राण त्याग दिये होते मैंने वहां कब के
और किसी को खबर तक न होती इसकी
एक विलुप्त अप्सरा कहलाकर रह जाती मैं

और मेरे स्थान पर किसी अन्य का
नाम जाना जाता विश्वामित्र की
तपस्या भंग करने वाली अप्सरा के रूप में
हो सकता है वह तुम ही होती एक
मैं आज हूं तो अपनी समर्पण— कथा
एक बार फिर से दोहरा रही हूं तुमसे

तुमने ठीक कहा था रंभा कि हम अप्सराएं
सोचते और धड़कते हृदय नहीं, इंद्र के इशारों पर
नाचते हुए कभी न थकने वालीं देहें हैं बस।

मेनका : इंद्र की अप्सरा।

चारूहासिनी

जिसकी गंध बारह योजन दूर तक जाती हो उड़कर
उस पारिजात के बारे में स्वर्ग से पृथ्वी तक
कौन नहीं जानता होगा इंद्राणी

सबकी तरह मेरा भी प्रिय वृक्ष है पारिजात
सबकी तरह वह मान है मेरा भी

आपका ये विचार उचित नहीं कि स्वर्ग से
पारिजात को }kjका ले जाने का
सुझाव मैंने दिया सत्यभामा को

ये सत्य है कि सत्यभामा को स्वयं से अधिक
प्रिय हूं मैं और वह भी मुझे प्रिय है उतनी ही
फिर भी स्वर्ग और सत्यभामा में से
किसी एक को चुनने के लिये कहा जाये मुझसे
तो अपने स्वर्ग को चुनूंगी मैं

सत्यभामा भी करेगी यही, यदि उसे
स्वर्ग प्रिय होता तो वह कृष्ण से
बस पारिजात नहीं स्वर्ग मांगती
जिसमें पारिजात तो होता ही
तब कृष्ण स्वर्ग देने के लिये उसे क्या नहीं करते

जब कृष्ण पारिजात लिये जा रहे थे स्वर्ग से
चेहरे पर मुस्कराहट खेल रही थी मेरे
कि मैंने ही स्वर्ग में उन्हें पहुंचाया उस तक
ये बात मिथ्या है इंद्राणी

मेरी वह मुस्कान तो अदिति माता के प्रति
कृतज्ञता ज्ञापन थी, कि उन्होंने
उनके कुंडल देने आये कृष्ण को,
सब अप्सराओं में से स्वर्ग की
राह बताने की कार्याज्ञा दी मुझे ही

यदि मुझे स्वर्ग प्रिय न होता तो क्या
पारिजात के साथ—साथ कृष्ण के समक्ष
उनके साथ धरती पर जाने की प्रार्थना
नहीं रखती मैं, मेरे प्रस्ताव पर
सखी सत्यभामा को तो खुशी होती अपार

कृष्णांगन में स्त्रियां सुखी हैं और स्वर्ग की तरह
नहीं भेजा जाता उन्हें द्वार का बचाने
किसी अभियान पर, बल्कि उनके लिये
स्वर्ग जैसे राज्य झोंक दिये जाते हैं युद्ध में।

चारूहासिनी : इंद्र की अप्सरा।

गीताज्ञा

मैंने इंद्रासन पर आसीन नहुष से कहा भी
भले ही हमें लेकर अब तक तरह—तरह के
संदेहों से भरी इंद्राणी
प्रताड़ित करती आई हो हम अप्सराओं को
तब भी हमारे मन में कोई बैर नहीं उनसे

उनके उस स्वर्गाभिमान के बावजूद
जो समय—समय पर खीज से भरता रहा हमें
वे हमारी सम्माननीयां बनी रहीं
हम में से किसी ने उनके व्दारा किये गये
तिरस्कार का बदला लेने की नहीं सोची

ऐसे में मेरा क्या हम में से किसी का
साहस नहीं कि कोई उन्हें जाकर
इस बात के लिये करे राजी कि अब
इंद्रासन पर सवार वे तुम्हें सौंप दे स्वयं को
उनसे कहे समझाकर कि जब
स्वर्ग नहुष का तो आप भी नहुष की

जब स्वर्ग के सारे देव मिलकर भी
इसके लिये राजी नहीं कर सके उन्हें
तब उनके आगे क्या हैसियत
इंद्रसभा की हम नृत्यांगनाओं की

जब नहुष ने बुलाकर इस संबंध में
बात की मुझसे, अप्सराओं को लगा
हो सकता है किसी मुनि की तपस्या
भंग करने आज्ञा दी जा रही हो मुझे

मगर जब मुझे तुम्हारी दृढ़ता तोड़ने की
आज्ञा दी गई आश्चर्य में पड़ गई मैं
हमारे अभ्यास में तो पुरूषों को
विचलित करना ही शामिल रहा अब तक

आपके उत्तर का मुझे पूर्वानुमान था इंद्राणी
नहुष के भेजने पर आपसे इस संबंध में
बात करने चले आने पर
मेरे साहस को दुत्कार सकती हैं आप

मगर शचिदेवी देवाज्ञा न ठुकराने का संस्कार भी
हमने शचिपति से ही किया है ग्रहण ।

गीताज्ञा : इंद्र की अप्सरा

सुकेशी

मैंने कितनी बार शचिपति से कहा
इन देवों को नियंत्रित कीजिये देवराज
ये हमेशा पीछे ही पड़े रहते हैं हम अप्सराओं के

हमारे लिये हमेशा खींचतान ही मची रहती है
इनके बीच, बना ही रहता है हमें लेकर हमेशा }an
जबकि इनमें से अधिकांश स्वामी है
ठीक हम जैसीं सौंदर्याभिमानियों के
मगर उन्हें देखकर सूख जाते इनके मुंह
भर जाते हैं, हमें देखकर लार से

बीच इंद्रसभा में हमारे रूप को कुरेदतीं
इनकी आंखें आलिंगानुरोध करती ही रहती हैं हमसे
हम में से हर एक के केशों में पारिजात का पुष्प
लगाना चाहता है इनमें में हर एक,
समझना चाहता है स्वयं को इंद्र

अमरावती की गलियों में घर लौटतीं
ये हमारी राह रोककर हो जाते हैं खड़े
हाथ पकड़कर हमारा हमसे करते हैं प्रणययाचना
कई तो घर के }kj तक चले आते हैं हमारे
जिन्होंने लाज से बना ली है दूरी
ऐसे कु—देवो से भर गया है स्वर्ग

हम इनसे अपने हाथ छुड़ा—छुड़ाकर
इनकी झपटों से खुद को बचा—बचाकर
इन्हें दुत्कार—फटकार कर ठीक इनकी
तुमसे कहने की तरह थक गई हैं
हमारा वह भ्रम टूटने के करीब है
जिसके रहते हमें लगता था
स्वर्ग में देवों के समान हैं हम भी

ये एक बार पुन: भूल गये हैं कि हम
वेश्याएं नहीं अप्सराएं हैं स्वर्ग की
इंद्र के कहने पर ऋषियों की
तपस्या भंग करने का अर्थ ये नहीं
कि अपनी देव—साख खो चुके इनकी तरह
अंतत: अपना स्त्री होना भूल गई हैं हम।

सुकेशी: इंद्र की अप्सरा

उर्वशी

अपनी पराजय से हर बार बौखला उठते
इंद्र के व्यवहार में इस बार अप्सराओं को
नहीं दिखाई दी किसी तरह की बेचैनी

विफल होकर लौटतीं उनमें से कितनों को
सता रहा था भय स्वर्ग से निष्कासन का

रति और काम अपनी असफलता पर
इस कदर निराश थे कि उपहास के भय से
बुरी तरह मुरझा रहे थे, उनके चेहरे

अपने वाद्ययंत्र संभालते थके पैरों से लौटते
गंधर्वों का भी हाल था यही, साथ में न लौटकर
ऋतुओं ने कहा कुछ देर ठहरकर लौटेंगी वे

सब सोचते जा रहे थे कि नारायण की
अडिगता से डिगा इंद्र गुस्से में
अपना स्वर्ग उठा लेगा सिर पर अपने

इस हताशा में एक बार फिर दिनों तक
चुप्पी पसरी रहेगी सभा में उसकी,
पारिजात के पुष्प डरेंगे महकने से
उच्चे:श्रवा हिनहिनायेगा धीरे—धीरे

हमारी वजह से मिली पराजय को
विजय में बदलने के लिये अपनी
एक बार फिर से किसी देव का
द्वार खटखटाना पड़ेगा देवराज को

मगर कुछ भी नहीं हुआ उनका सोचा
इस बार इंद्र की निगाह में गुस्से के स्थान पर
उत्सुकता मिश्रित प्रतीक्षा दिखाई दी उन्हें

इस बार इंद्र की निगाह उन सब पर नहीं
उनके साथ लौटी उर्वशी के
उस सौंदर्य पर टिकी थी जो स्वर्ग की
हम पुरानी अप्सराओं को कर रहा था फीका।

उर्वशी : इंद्र के स्वर्ग पहुंचने वाली नारायण के उरूभाग से जन्मी अप्सरा।

महाश्वेता

अच्छा, बताओ रंभा तुम्हारा हृदय क्या कहता है
हम सुमद की तपस्या भ्रष्ट करने में सफल होंगी अथवा नहीं

क्या पता महाश्वेता सुमद की दृढ़ता के बारे में
मैंने सुना तो बहुत है मगर मैं यह भी नहीं भूलती
कि अपने रूपबाणों से हम अप्सराएं अंतत:
अपने लक्ष्य को बेधती ही आई हैं अब तक

मेनका रही हो या प्रमलोचा अब तक
इनमें से कोई स्वर्ग नहीं लौटी होकर विफल
मगर पहली बार है यह कि सुमद की ख्यात अडिगता ने
तुम्हारे साथ—साथ मुझे भी घेर लिया है संदेह से

क्या सुमद की दृढ़ता हम अप्सराओं की देह के
आकर्षण से भी अधिक घातक हो सकती है
धातु…काष्ठ…पाषाण आखिर किस से
तुलना कर प्रतिष्ठा आकी जा सकती है उसकी

लगता है इस बार स्पर्धा स्त्री और पुरूष के बीच
ना होकर देह और दृढ़ता के बीच है, जिसमें हमारी
जय होगी या पराजय हम दोनों में से नहीं जानता कोई

कैसी आश्चर्य से भर देने वाली ख्याति है उसकी
उसे अप्सराओं का सौंदर्य भी नहीं कर पाता आकृष्ट
उनकी मादकता भी नहीं बिगाड़ पाती चाल उसकी सांसों की
उसकी हृदय की गति बढ़ा पाने में विफल
उनका सामिप्य भी हार कर बैठ जाता है एक तरफ

क्या तुम्हें भी ऐसा लग रहा है रंभा
कि कितना सुखद होता कि हमारे स्थान पर देवराज ने
किसी और अप्सरा को भेजा होता सुमद को डिगाने
ऐसा होता तो आगे बढ़ते हुए इस अभियान पर
असफलता का भय इस तरह भयभीत तो नहीं कर रहा होता हमें

तुम ठीक कह रही हो महाश्वेता बल्कि मैं तो
यह भी सोच रही हूं कि सुमद को तुम पर आ जाये दया
और वह ही पराजय से बचाने के लिये हमें
हमारे आगे अपनी दृढ़ता को करले कमजोर।

महाश्वेता: रंभा के साथ अच्छित्र नगरी के राजा सुमद की तपस्याभ्रष्ट करने में नाकामयाब रहने वाली अप्सरा।

मनोरमा

मैं इंद्रसभा द्वारा स्वर्ग से अपने
निष्कासन के निर्णय को
स्वीकार करती हूं देवराज, मगर
जिस आरोप के चलते पृथ्वी पर
भेजा जा रहा है मुझे, मैं उसे
मानने को तैयार नहीं कतई

यदि मैंने अंकशायिनी होना
चाहा होता तुम्हारी, तो क्या
मेरी इस कोशिश का
आभास नहीं होता तुम्हें,
तुम्हारी समझ में नहीं आती, वह
तथाकथित चेष्टा मेरी
जिसके चलते जुटी मैं तुम्हें रिझाने में

स्वर्ग में ऐसी कौन सी अप्सरा होगी
जो नहीं देखती होगी तुम्हें भरकर नजर
नहीं करती होगी तुम्हारा
अभिवादन मुस्कराकर झुकते हुए

क्या तुम्हें लगा कि मेरी मुस्कराहट
आमंत्रित कर रही है तुम्हें
कि तुम्हारे आदर में
मेरा झुकाव कुछ अधिक ही है

तब शचि के कानों में ये बात
किसने पिरो दी कि मैं तुम्हारे वामांग से
धकेलकर उन्हें, बैठना चाहती हूं वहां

कि मैं हृदय में उतरकर तुम्हारे
इंद्राणी होना चाहती हूं स्वयं
करना चाहती हूं हासिल स्वर्गाभिमान

आज्ञा पालन करते हुए तुम्हारी
वैसे स्वप्न को अपने हृदय की
सलाईयों पर बुनने का
कभी समय ही नहीं मिला
जिसकी सजा दी जा रही है मुझे

सौंदर्याखानि इंद्राणी रूप में
कम नहीं हम अप्सराओं से,
मेरे इच्छुक किसी देव के
चुगलाने पर उन्होंने मान लिया यह
कि मैं यौवन से अपने देवराज को
डिगाने की राह पर बढ़ रही हूं निरंतर।

मनोरमा : इन्द्र की अप्सरा।

पुष्पगंधा

मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन नहीं कर सकी
इसमें मेरा कोई दोष नहीं देवराज

आपकी यह प्रताड़ना ठीक है कि संदेशवाहक ने
कोना—कोना खंगाल डाला स्वर्ग का
और मैं कहीं नहीं मिली उसे, यह भी
कि आप मुझ पुष्पगंधा देहधारिणी को ही
भेजना चाहते थे उस अभियान पर

ना मिलने पर स्थान पर मेरे अंबुजाक्षी को
भेजना पड़ा वहां आपको, और वह लौटी
होकर विफल, जिसके चलते एक और
पराजय चढ़ गई बही में आपकी

मगर सभा का यह कहना सही नहीं कि मैं
जान—बूझकर स्वर्ग में छिप गयी जगह ऐसी
जहां खोज पाना संभव न था मुझे

ये भी कि मैंने जान—बूझकर अवहेलना की
आज्ञा की आपकी और मैं
अभियान पर चाहती ही नहीं थी जाना
इसके लिये मुझे क्या दंड मिलना चाहिये
इसका निर्धारण भी छोड़ दिया गया है मुझ पर ही

मगर देवराज इसका दंड तो आपके सभाषद
वृकदेव को चाहिये मिलना जिसने
बंधक बनाकर रखा मुझे भवन में अपने
मुझे तक पहुंचने ही नहीं दी आज्ञा आपकी

स्वर्ग में कोई मरता नहीं तो तुम्हारे आगे
जीवित खड़ी हूं मैं, अन्यथा यह दुराचार भी
मेरे अलावा कौन बताता आपको
एक लुप्त अप्सरा होकर रह जाती मैं

मगर सभा ने वृकदेव के इस कथन पर
सुगमता से कर लिया विश्वास
कि मैं अपनी स्वेच्छा से
छिपी रही घर और आलिंगन में उसके
और वह मोह में पड़कर रह गया मेरे

अब आप ही न्याय करें देवराज
अप्सराओं का जीना दुश्वार किये रहने वाले
आपके सभासद क्या भोले हैं इतने
कि मोह में पड़कर रह जायें मेरे
और इच्छा का पालन करते हुए मेरी
द्वार पर मुझे खोजती इंद्राज्ञा को
खाली हाथ कर दें वापस।

पुष्पगंधा : इंद्र की अप्सरा।

तिलोत्तमा

हम अप्सराओं को अब ऋषि—मुनियों की
तपस्या भंग करने के लिये भेजना
बंद कर दीजिये, देवराज
तप नष्ट करने के लिये उनका
सीधे युद्ध कीजिये उनसे

तुम्हारी आज्ञा के चलते हमारे द्वारा
अब तक भंग की गईं तपस्याएं
किसी शाप की तरह धरी हैं हमारे हृदयों पर
उनके बोझ को वहां से हटाने में
स्वयं को असमर्थ पा रही हैं हम
तुम्हारा स्वर्ग भी हमारे मन पर रखे
उस भार को नहीं धकेल पा रहा है वहां से

क्या तुम्हें लगता है कि किसी ऋषि को
डिगाकर उसके प्रण से
बिताकर उसके साथ जीवन
देकर संतानों को उसकी जन्म
एक संकेत पर तुम्हारे छोड़कर उसे
स्वर्ग लौटना आसान होता है हमारे लिये

स्वर्ग लौटते ही क्या उसे, कहीं छूट गई
अपनी पायजेब की तरह भूल जाती हैं हम,
भूल जाती हैं उसके आलिंगन,
चुंबन और प्रेमालाप सागर में
उठतीं—मिटतीं लहरों की तरह पल में

हमारी स्मृति नहीं भूलने देती हमें कुछ भी
जिनके अंगों में अपने अंग और संवेदन में
अपने संवेदन घोल आईं हम,
उनकी यादें पीछा करती हुईं हमारा
चली आती हैं पीछे—पीछे हमारे

रूप के रास्ते हम अप्सराओं के
हासिल की गई विजय पर इंद्रसभा से उठते
तुम्हारे ठहाके कुरेदते रहते हैं हमें और भी

मुनिविजय के लिये तुम्हारी एक और
कूच—आज्ञा पहुंचने ही न वाली हो हम तक
परछाई की तरह उसका भय
पीछे ही पड़ा रहता है हमारे

हम सब जब मिलती हैं, मैं अक्सर कहती हूं सबसे
क्या अपनी देह में धसे तुम्हारे
इंद्रासन के पाये उखाड़कर नहीं फैंक सकतीं हम।

तिलोत्तमा: इंद्र की अप्सरा।

मंजुघोषा

हम सब अप्सराओं का जीवन एक—सा है मेधावी
ये अब तो स्वीकार करते हो न तुम
मैं जितने बरस साथ रही तुम्हारे, कहती रही तुमसे
कि अपनी भी नियति जानती हूं मैं
अंतत:तुम भी दोष दोगे मुझे ही

मेरे जिस प्रेम को पाने इन दिनों
याचनाएं कर रहे हो तुम, एक दिन वही
अपने पतन का कारण लगने लगेगा तुम्हें
और मेरा वह रूपरस जिसे पीने लगातार
लालायित रहते हो तुम, एक दिन
उसे विष बतलाकर लगोगे तुम उगलने

हम अप्सराओं के हृदय को अक्सर
पुरूषों के इस पश्चाताप का तीर बेधता आया है
जिसे चलाकर वह हम पर, हमें
किसी पक्षिणी की तरह मरने के लिये
छोड़कर तड़पता, हाथों में पापमुक्ति का
धनुष लिये अपने, बढ़ जाता है आगे

अब जब तुम मुझे अपराधिन ठहराते हुए
जा रहे हो, तब मुझे तुम्हारी राह में
स्वयं के }kjk खड़ी की गई वे बाधाएं
आ रही हैं याद, मेरी तरफ बढ़ते हुए जिन्हें
हटा दिया था तुमने हमारे बीच से
लाख चाहने के बावजूद जिन्हें
हटाने से नहीं रोक सकी थी मैं तुम्हें

वह अवहेलना कुरेद रही है मुझे जिससे तुम्हें
समझाने का विफल प्रयास कर रही थी मैं
जिसे तुम्हें नहीं मानना था अंतत: नहीं ही माने तुम

तुम्हें मेरे लिये स्वयं को पराजित करता देख
मुझे लगा शायद अन्यों से हटकर हो तुम
और रचने जा रहे हो स्त्रियों के पक्ष में नया

अपने हाथों में थामकर मेरे मुंह की तरह
मोड़ने जा रहे हो मुंह सूर्य का,
जा रहे हो बांधने वायु को मेरे केशों में
मगर मेरे हृदय में अपने द्वारा अपने प़क्ष में
पैदा किये इस भ्रम को जिसे मैं मान रही थी प्रेम
तुम्हें भी तोड़ना ही था और जिसे तोड़ा भी तुमने।

मंजुघोषा: चेत्ररथ वन में च्यवन के पुत्र मुनि मेधावी को मोहित करने गई अप्सरा जिसने 57 बरस मेधावी के साथ बिताये।

शोभा

यह कहते हुए मुझसे कि तुम तो शोभा हो स्वर्ग की
इंद्र ने ये नाम स्वयं दिया मुझे
इंद्र के पास हम अप्सराओं को देने के लिये
अलग—अलग उपमाएं थीं , तब भी
मुझे मिली उपमा को लेकर थोड़ी इर्ष्या
बिखर ही गई सब अप्सराओं के हृदय में

हम तो अप्सराएं थीं, मुझे तो
देवराज के बगल में आसीन शचि के चेहरे पर भी
भाव दिखाई दिये उलझन के, कुछ देवगण
कुटिलता से मुस्कराये, कुछ सहजता से
मगर देर नहीं लगी मेरा भ्रम टूटने में
जब देवराज ने आज्ञा दी मुझे अभियान की

मुझे लगता रहा शायद स्वर्ग की शोभा को तो
नहीं भेजा जाता होगा कहीं,
मगर इंद्रादेश का करते हुए पालन
मैं जान गई शोभा हो या मनोरमा
हम सब एक जैसी हैं स्वर्ग में

अपने रूपबाणों से स्वर्ग और इंद्र की
रक्षा करने के अलावा कोई महत्व नहीं हमारा
स्वर्ग की ढाल हमारी देहें हैं तो
तलवार हमारा सौंदर्य और देवराज को
इस आयुध से महारत हासिल है लड़ने में

मुझे तो बस इंद्र ने नाम दिया
मगर पुत्री होकर जिसने जन्म लिया उनके घर
उस जयंति को सिहांसन बचाने के लिये अपना
बूढ़े शुक्र को सौंपने से नहीं चूके वे
जान बचाने के लिये अपनी छिप गये
तो शचि बमुश्किल लाज बचा सकी नहुष से अपनी

स्वर्ग की सत्ता बस पुरूषों के लिये है
शचि से लेकर शोभा तक कोई स़्त्री
आंशिक स्वामिनी भी नहीं उसकी
स्वर्ग की किसी स्त्री को कल पता नहीं उसका

इंद्रअभियान में होकर विफल लौटते हुए
सोचती हूं कि अपने इस नाम को जो दिया मुझे
शचिपति ने स्वयं लौटा दूं यह कहते हुए

देवराज, इससे पहले कि कि देवगण आपका दिया यह नाम
छीन लें मुझसे, मैं स्वयं इसे लौटा रही हूं आपको
विफलता ने मुझे शोभा नहीं बचने दिया है इंद्रसभा की।

शोभा : इंद्र की अप्सरा।

चंद्रप्रभा

जब मुझसे महाश्वेता ने पूछा, चंद्रप्रभा
क्या तुम्हें पढ़ना आता है, मेरा जवाब न में था,
एक—एक कर जब हमने पूछा एक—दूसरे से
तो पता चला इंद्रसभा की
हम सब अप्सराएं अक्षर—विमुख हैं

जिस वाणी में देव हमसे बातें करते हैं
हम उन्हें बस बोल पाती हैं, लिख और पढ़ नहीं
तब क्या हमारा अप्सरा होना ही पर्याप्त है
स्वर्ग में अक्षर—परिचित होना जरूरी नहीं हमारा

मैं देखती हूं कि यहां स्वर्ग में
कोई विद्यालय भी नहीं हम स्त्रियों के लिये
जबकि पुरूषों ने बना रखे हैं
अपने लिये कितने ही गुरूकुल

हम सुंदर होने के साथ—साथ शिक्षित भी हों
इंद्रसभा ने क्यों नहीं सोचा अब तक
इसलिये तो नहीं कि अक्षर—संपदा संपन्न
अप्सरा को अपने मन—मुताबिक
चलाना न हो जाये कठिन
और कहीं पढ़—लिखकर
अपना भला—बुरा ने सोचना शुरू कर दें हम

जिसकी तपस्या भंग करने भेजा जाता है हमें
हम कहीं तर्क न करने लगें उससे
और उसकी दृढ़ता और न हो जाये अडिग
कहीं इंद्रसभा में ही न हो जायें हम बहस पर उतारू

और तो और बरसों साथ रहने वाले
ऋषि—मुनियों ने भी कुछ नहीं किया इस संबंध में

यदि महाश्वेता ने नहीं पूछा होता
तो मैंने भी नहीं सोचा होता इस बारे में
मगर मैं देखती हूं कि स्वर्ग में सारी स्त्रियां
चाहे वह देवियां हों या या सेविकाएं सभी अपढ़ हैं

फिर हम ही क्यों देवियां तो कहीं भी हों
उनमें पढ़ी लिखी तो कोई होती नहीं

विचारती हूं कि देवताओं ने ये हमें कैसा बना दिया है
लक्ष्मी से लेकर पार्वती तक देवों ने भले ही
बिठा रखा हो हमें बगल में अपनी, लेकिन विद्यालयों में
उनके बगल में बैठकर पढ़—लिख सकें हम
इस बारे में तो उन्होंने कभी सोचा तक नहीं

अपने भीतर से भय बाहर कर दंड का किसी दिन
शचिपति से भरी सभा में इस संबंध जरूर पूछूंगी मैं ।

चंद्रप्रभा और महाश्वेता : इंद्र की अप्सरायें।

अम्बुजाक्ष्री

मैं जब भी इसके सामने से निकलती हूं
एक सी टीस सी मन में उठती है
कभी इस भवन की स्वामिनी हुआ करती थी मैं

स्वर्ग में अप्सराओं के लिये निर्मित
सबसे सुंदर भवन, अनेक अभियानों में
सफलता प्राप्त करने के पश्चात मुझे मिला भवन

तुम विजित अप्सरा हो स्वर्ग की
वास्तविक अधिकारिणी भी तुम्हीं इस भवन की
इंद्रसभा में यह कहते हुए देवराज द्वारा
मुझे प्रदाय किया गया भवन
सब अप्सराओं में मुझे विशिष्ट बनाता भवन

मगर जब एक कठिन अभियान में
सफल होकर लौटी कंचनमालिनी ने प्रसन्न इंद्र से
भरी सभा में मांग लिया इसे तो ठगी सी रह गई मैं

सभा में किसी को उम्मीद नहीं थी कि कंचनमालिनी
पुरस्कार स्वरूप मेरा भवन ही मांग लेगी देवराज से

इंद्र ने समझाया भी उसे, कंचनमालिनी
अंबुजाक्षी का भवन लेकर तुम क्या करोगी
हम तुम्हारे लिये स्वर्ग में
उससे भी सुंदर भवन निर्मित करवा देते हैं

मगर यह कहते हुए वह रह गई अड़कर
मुझे तो चाहिये भवन वही
यदि दे सकें तो आप वही भवन दें मुझे
तब देवराज को इस संकट से उबारा मैंने ही
मैंने स्वयं कंचनमालिनी को सौंप दिया इसे

अब मैं जब भी इसके सामने से निकलती हूं
ये मुझे अपनी और खींचता है
यह कहकर याद दिलाता है मुझे
कि कभी मैं हुआ करता था तुम्हारा

मगर कंचन मालिनी ने ऐसा क्यों किया
ये तब जान सकी मैं , जब एक दिन
अपनी अंतरंग सुकेशी से कहा उसने

अंबुजाक्षी का उस भवन में रहना
और मात्र उसमें रहने की वजह से उसका
श्रेष्ठ कहलाना सहन नहीं होता था मुझे

अभियान पर जाते समय ही तय कर लिया था मैंने
कि लौटकर देवराज से मांगना है इसे ही
अब शचि का स्थान तो ले नहीं सकती मैं
मगर स्वर्ग में सर्वश्रेष्ठ होकर तो रह ही सकती हूं

रूप में तो हम अप्सराएं सभी बराबर बैठती हैं
मगर उस भवन की स्वामिनी हुए बिना
स्वर्ग में शीर्ष अप्सरा बनकर रह पाना संभव नहीं था मेरा।

अंबुजाक्षी : इंद्र की अप्सरा जिसका भवन कंचनमालिनी ने इंद्र से मांग लिया।

विद्युन्माला

मैं अपनी पुत्री को इंद्रसभा की अप्सरा
बनने के लिये प्रशिक्षित नहीं होने देना चाहती
उसने अप्सराओं से अधिक रूप पाया है
तो इसका अर्थ यह नहीं
कि उसे होना चाहिये अप्सरा ही

अमरावती में सभी स्त्रियां तो अप्सरायें नहीं
सभी तो इन्द्रसभा हेतु योग्य नहीं
यहां की असंख्य स्त्रियां सामान्य स्त्रियां हैं
और वे इन्द्र की कृपापात्र न होकर भी प्रसन्न हैं

मैं चाहती हूं मेरी पुत्री भी एक ऐसी
साधारण स्त्री होकर ही जिये स्वर्ग में
और उसे विवश न किया जाये
अनुसरण करने के लिये मेरा

और ऐसा भी नहीं कि ये मत अकेला मेरा हो
उसकी भी इच्छा यही है, सच तो यह है
कि इंद्रसभा का नाम सुनते ही
उसके मुंह में भी कड़वाहट घुल जाती है

मेरे उसे चुप रहने को कहने के बाद भी
वह इन्द्रसभा में आसीन देवों को
स्त्री विरोधी देवसमूह बताने से नहीं चूकती
मैंने कभी देवराज के लिये
उसके मन में आदर पनपते नहीं देखा

घर आने वालीं सखीं अप्सरायें
उसकी बातें सुनकर दहल जाती हैं
जब वह उनसे कहती है, चलो मान लिया
कि तुम देवियां हो मगर ये इंद्र
तुमसे काम कैसे—कैसे लेता है

उसे तो अब मेरा भी इंद्रसभा में होना
पसंद नहीं, वह कहती है, मां
इंद्रसभा अच्छा स्थान नहीं स्त्रियों के लिये
और आप बहुत रह लीं वहां

सच तो यह है कि मुझे इंद्रअभियान से लौटकर
स्वयं पर खीजते देख उसके भीतर
रोष हुआ पैदा, जब इंद्रादेश के चलते
लंबी अवधि के लिये कहीं जाना होता मुझे
उसे घर में रहना होता अकेले

मैं तो उसे बता भी नहीं पाती कि
किस ऋषि की तपस्या भंग करके
अथवा उससे शापित होकर लौटी हूं मैं
मगर धीरे—धीरे उसने सब जान लिया

मैं डरती हूं कहीं उसकी ये समझ उसे
कारागार तक न पहुंचा दे इंद्र के।

विद्युन्माला : इंद्र की अप्सरा।

रंभा

यदि आपको शाप देना ही था तो उसे
मुझे नहीं देवराज को देते मुनिवर
जिन्होंने तप से डिगाने भेजा मुझे आपको
शाप भी ऐसा कि मैं रह गई बनकर शिला

स्वयं हिल—डुलने में असमर्थ ऐसी शिला
जिसे अपनी ही चलती सांस
और हृदय की धड़कन न महसूस हो

स्वयं पत्थर होकर ही मैं जान सकी
कि पत्थरों की उस दुनिया में
अनेक स्त्रियां हैं जो मेरी तरह शापित हैं
वे भी बस वहां पत्थर हैं
वहां न उनकी गोद में किलकारी है
न स्तनों में दृव्य न आंखों में नमी हैं
और न होठों पर प्यास , पानी और प्रेम की

इससे पहले तो इंद्रलोक में मैं बस
सुनती आई पुरूषों के शाप से स्त्रियों का
शिला बन जाना, उनका अपने उद्धारकों की
प्रतीक्षा करना जैसे मैंने की निरंतर
और वह उद्धारक भी पुरूष ही होगा
ये भी शापित स्त्रियों को जिनमें एक मैं भी
बता दिया गया था देते समय शाप

शाप देने वाला भी पुरूष
और उससे मुक्ति दिलाने वाला भी पुरूष
तपस्या करने वाला भी पुरूष
और हम अप्सराओं को तपस्या भंग करने
भेजने वाला भी पुरूष

चाहे इंद्रलोक हो अथवा पृथ्वीलोक
हम स्त्रियों की जिंदगी हर तरफ
पुरूषों और पत्थरों की बीच फंसी है

किसी पुरूष को पत्थर होते
देर नहीं लगती हमारे लिये
वे जब चाहे शाप देकर हमें पत्थर कर दें
वे जब चाहे पत्थर होने से मुक्त कर दें हमें

हमें अपने में बदलने के लिये पत्थर तो है ही
कभी न बदलता पुरूष भी पत्थर ही है हमारे लिये

मैं देवराज के धूर्तता भरे
इस कथन के पक्ष में नहीं जिसके अनुसार
शाप से मुक्त होकर लौटतीं अप्सरायें
संसार की सर्वाधिक पवित्र स्त्रियां होती हैं

पत्थर होकर हासिल होने वाली पवित्रता
स्वीकार नहीं हमें, शापित होकर
हासिल होने वाला यश हमें नहीं चाहिये।

रंभा : इ्ंद्र की अप्सरा।

घृताची

मात्र कंद के आंख भरकर देख लेने से गर्भवती नहीं हुई मैं
मुनि ने अपने पूरे आवेग से संसर्ग किया साथ मेरे

मगर यह लोक में प्रचारित किया किसने
स्वयं मुनि ने अथवा किसी शिष्य ने उनके
आखिर पूर्व से ही लोकप्रतिष्ठित मुनि यह प्रचारित कर
लोक से और क्या करना चाहते थे हासिल

ये मिथ्या है कि तपबल से किसी पुरूष के
किसी स्त्री को देख भर लेने से
गर्भधारिणी हो जाती है वह, सच तो यह है
कि किसी पुरूष के पास , चाहे वह देव हो या दैत्य
ऐसी शक्ति रही ही नहीं कभी

पुरूष तो क्या किसी पशु अथवा पक्षी को भी
कभी यह वीर्यास्त्र नहीं हुआ हासिल

व्यास कथा को भी हम स्त्रियों ने
स्वीकार नहीं किया कभी, हो सकता है
हस्तिनापुर की उन राजस्त्रियों और उनकी दासी ने
किसी के समक्ष खंडन भी किया हो
समाज में उनके गर्भधारण को लेकर
प्रसारित हुई ऐसी धारणा का

किसी पुरूष अथवा स्त्री देह से टपकी पसीने की बूंद
पुत्र अथवा पुत्री में कैसे परिवर्तित हो सकती है ?

हम स्त्रियों को लेकर भी लोक में कुछ कथाएं हैं
जिनमें सत्यता नहीं कोई, हम स्त्रियों की कोख में
जीव में परिवर्तित तो वीर्य ही होता है

पुरूष की चाहत का अन्त नहीं कोई
ये निस्सार कथाएं महत्वकांक्षा का विस्तार हैं उसकी
वह स्वयं को लेकर गढ़ता है इन्हें

वह कुछ स्त्रियों को भी कर लेता है इनमें शामिल
कि वे भी पुरूष को हासिल शक्तियों की
स्वामिनी मानने लगे स्वयं को,

शत्रुओं के संहार के लिये अपने कई स्त्रियों को
शस्त्र संपन्न बनाया उसने , मगर कोख के बाहर
जीवन नहीं रच सका वह अब तक

उसके लिये स्त्री और और गर्भ अपरिहार्य है
स्त्रियों की कोखें पुरूषों के द्वारा प्रचारित
इन मिथकों के मार्ग में अवरोध बनकर खड़ी हैं।

घृताची : इंद्र की एक अत्यंत सम्मानित अप्सरा।

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पवन करण:

जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि।

उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं।

‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।

सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन।

ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com

 


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