भगवानदास मोरवाल कहानी ही नहीं, हिंदी उपन्यास का एक बड़ा नाम है। मोरवाल ने अभी तक ग्यारह उपन्यासों की रचना की है जिसमें वंचित समाज के दुख – दर्द, आशा – निराशा और उसके उल्लास का प्रतिबिम्ब है।
‘ मोक्षवन ‘ मोरवाल का सद्य: प्रकाशित उपन्यास है। यह मोक्ष की कामना में भटकती एक विधवा का आख्यान है जिसमें ब्रज और बंगाल की संस्कृतियों का द्वैत है।
मोरवाल को हाल ही में बेंगलुरु की शब्द साहित्यिक संस्था के अज्ञेय शब्द सृजन सम्मान से नवाजा गया है।मोरवाल को बधाई और सुधी पाठकों से अनुरोध है कि प्रस्तुत उपन्याय – अंश पर अपनी बेबाक राय ज़रूर दें। – हरि भटनागर
उपन्यास अंश
मुक्ति की कामना में भटकते सफ़ेद पुतलों की त्रासद कथा
मोक्षवन
भगवानदास मोरवाल
जलंगी नदी l
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के भगवानगोला गाँव के पास पद्मा नदी की एक शाखा के रूप में पैदा हुई नदी l वही नदी जो आगे जाकर चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली नबद्वीप, जो चैतन्य के जन्म के समय कुलिया गाँव से जाना जाता था, उसके पास स्वरूपगंज में भागीरथी अर्थात गंगा में जाकर मिल जाती है l दूर तक पसरे धान के खेतों की हरियाली को देखकर कई बार भ्रम होता कि हरे-भरे खेतों की जगह प्रकृति ने मानो मख़मल की हरी चादर बिछा दी है l इसी जलंगी के किनारे बसे नबद्वीप से शान्ति निकेतन और शान्ति निकेतन से वृन्दावन में चैतन्य प्रभु की प्रवास स्थली इमलीतला घाट या कहिए गौरांग घाट आने के बाद, हरिदासी के कानों में मुलायम चाम से बनी बद्दियों और उनसे खिंचे मृदंग के चंटी-थप्पी से निकले नर-मादा ताल आज भी गूँजते हैं l श्वेत धोती में लिपटे पंजों के बल ढोलक, मृदंग, झाँझ-मंजीरों, करताल और दूसरे वाद्य-यंत्रों की धुन पर थिरकते चैतन्य महाप्रभु के अधनंगे साधकों की टोलियाँ जब भी नबद्वीप की गलियों में ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे !’ गाती हुईं हरिनाम संकीर्तन करते हुए फेरियाँ लगातीं, तो इस हरिदासी से रुका नहीं जाता था l वह भी उनकी तरह दोनों हाथ ऊपर उठा, उसी मुद्रा में ज़ोर-ज़ोर से गाती हुई पंजों के बल नाचती हुई उन टोलियों के पीछे हो लेती l
पिता, हरिदासी जिसे बाबा कहती थी, फाल्गुनी पूर्णिमा को होली के दिन जन्मे चैतन्य की अक्सर कथाएँ सुनाते थे, वह इन कथाओं को कान लगाकर पूरे मनोयोग से सुनती l बाबा के मुँह से चैतन्य की इस कथा को तो वह कई बार सुन चुकी थी कि कुलिया गाँव के पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता शचीदेवी की एक के बाद एक पैदा हुई आठ पुत्रियों, और उनके एक-एक कर मरने के बाद पुत्र के रूप में पैदा हुआ चैतन्य, नौवीं सन्तान था l उसके पैदा होने के दस बरस बाद एक भाई और हुआ l बुढ़ापे में एक और बालक पाकर माता-पिता फूले नहीं समाए। बाबा बताते थे कि उनका यह नौवाँ बालक तेरह महीने माँ के गर्भ में रहा था। उसकी कुंडली बनाते समय ज्योतिषी ने बालक का नाम विश्वम्भर रखते हुए कहा था, कि यह बालक महापुरुष होगा। लेकिन प्यार से माता-पिता विश्वम्भर को ‘निमाई ‘ कहते l यह बात अलग है कि इस शब्द का उन्हें अर्थ मालूम नहीं था l
बाबा जब निमाई की कथाओं को सुनाते तो हरिदासी एक रोमांच से भर-भर उठती l निमाई दूसरे बच्चों की तरह बहुत शैतान था l पढ़ने-लिखने में उसकी कोई रुचि नहीं थी l बल्कि शरारती और शैतान बच्चों की टोली का वह मुखिया था l
एक बार एक ब्राह्मण निमाई के घर आया। माता-पिता ने उसकी बड़ी सेवा की। शचीदेवी ने ब्राह्मण को सीधा अर्थात कच्ची सामग्री दी ताकि वह अपना भोजन ख़ुद बना सके l सीधा लेने के बाद ब्राह्मण ने बड़े जतन से पहले चौका लीप-पोत कर तैयार किया और उसके बाद खाना बनाकर तैयार कर लिया। खाने से पहले वह आँखें बन्द कर अपने किसी देवी-देवता को भोग लगाने ही वाला था, कि तभी दबे पाँव शैतान निमाई आया और उसकी थाली से खाना खाने लगा। ब्राह्मण ने जैसे ही यह सब देखा, वह चिल्लाने लगा। उसकी आवाज़ सुन निमाई के माता-पिता दौड़े हुए आए और निमाई को पकड़ लिया l पिता ने जैसे ही उसे पीटने के लिए हाथ उठाया, बच्चे पर तरस खाकर ब्राह्मण ने उसे छुड़ा दिया।
ब्राह्मण ने फिर से अपने लिए खाना तैयार किया। इस बीच निमाई को अलग ले जाकर रस्सी से बाँध दिया गया, परन्तु देवी-देवता को भोग लगाते समय निमाई रस्सी खोलकर फिर आ गया और थाली से भोजन खाने लगा । अबकी बार पिता के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह उसे मारने को लपका लेकिन ब्राह्मण ने पिता को फिर रोक दिया। इसके बाद सबने मिलकर ब्राह्मण से एक बार फिर से खाना बनाने का आग्रह किया। ब्राह्मण मान गया। माता-पिता ने इस बार निमाई को अपने पास बिठा लिया।
बालक निमाई जिसके घर से जो मिलता वही खा लेता। उसकी इस आदत पर एक बार एक शूद्र स्त्री ने हँसते हुए उससे कहा,”ऐ रे निमाई , तू कैसा ब्राह्मण है जो हर किसी का खा लेता है ?”
इस पर निमाई ने हँसकर कहा,”मैया, मैं तो बालगोपाल हूँ l मेरे लिए तो सब बराबर हैं l ला, तू खिला दे , मैं तो तेरा भी खा लूँगा !”
कुछ दिनों के बाद पिता की अचानक हुई मौत से निमाई के घर पर दु:ख का मानो पहाड़ टूट पड़ा। लेकिन निमाई ने हिम्मत नहीं हारी l उसने अपने आपको तो सँभाला ही, बल्कि माँ को भी धीरज बँधाया l अकेली माँ का अब निमाई ही सहारा था l माँ की सेवा करते हुए वह अब पढ़ने भी लगा था और व्याकरण के साथ-साथ वह और चीज़ें भी पढ़ने लगा। धीरे-धीरे उसके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। सोलह साल की उम्र होते-होते लोग उसे ‘निमाई पंडित’ कहने लगे।
निमाई का एक दोस्त था जो उन दिनों एक पुस्तक लिख रहा था। उस दोस्त का कहना था कि इस पुस्तक को लिख लेने के बाद, उस विषय का उससे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। इसी दौरान उसे पता लगा कि निमाई भी उसी विषय पर कोई पुस्तक लिख रहा है। इसलिए वह निमाई के घर जा पहुँचा।
घर पहुँचने पर निमाई के मित्र ने कहा,”पंडित निमाई , सुना है तू न्याय पर कोई किताब लिख रहा है ?”
“नहीं-नहीं ऐसा कुछ नहीं है l तुमसे किसी ने झूठ कहा है। भला, कहाँ मैं और कहाँ न्याय जैसा कठिन विषय l बस, मन-बहलाने के लिए ऐसे ही कुछ उलटा-पुलटा लिख लेता हूँ।” हँसते हुए निमाई ने अपने मित्र को टालने का प्रयास किया l
“जो भी है, मैं उसे सुनना चाहता हूँ।” निमाई के दोस्त ने ज़ोर देकर कहा।
“जैसी तुम्हारी इच्छा !” फिर कुछ पल सोचकर निमाई बोला,”ऐसा करते हैं हम दोनों गंगा नदी में चलते हैं और वहीं नाव में बैठकर मैंने जो लिखा है, उसे सुनाता हूँ l”
निमाई और उसका मित्र दोनों गंगा-घाट पर पहुँच गए l दोनों नाव में बैठकर गंगा घूमने लगे। नाव अब बीच नदी में पहुँच गई l निमाई ने अपने थैले से अधूरी पांडुलिपि निकाली और उसे पढ़ना शुरू कर दिया। इधर निमाई पढ़ने में मग्न था, उधर उसका मित्र धीरे-धीरे रोने लगा l
अचानक अपने दोस्त को रोता देख निमाई ने हैरानी से पूछा,”क्या हुआ ? तुम इस तरह रो क्यों रहे हो ?”
“पंडित, मेरी बरसों की मेहनत बेकार हो गई। तेरी इस किताब को पढ़ने के बाद मेरी किताब पर कौन ध्यान देगा ? अपनी जिस किताब पर मुझे बड़ा गुमान था, वह तो तेरी किताब के सामने कुछ भी नहीं है।” निमाई के मित्र ने जवाब दिया l
दोस्त की बात सुन निमाई हँसते हुए बोला,”बस्स, इतनी-सी बात के लिए परेशान हो रहे हो !” इतना कह निमाई ने आव देखा, न ताव और अपनी पांडुलिपि यह कहते हुए गंगा में फेंक दी,”यह तो एक किताब है। एक दोस्त के लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ।”
यह बात सुन उसका मित्र हतप्रभ हो निमाई को देखता रह गया l गंगा में फेंकी गई पुस्तक को निमाई के मित्र ने बचाने की बहुत कोशिश कि परन्तु वह नदी की तेज़ धारा में बहती हुई, उनकी पहुँच से बहुत दूर निकल गई l निमाई गंगा की लहरों के संग बहकर जाती हुई अपनी अधूरी किताब को तब तक अपलक निहारता रहा, जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गई l
नाव अब गंगा के किनारे आ लगी l वे दोनों उससे उतर आए l नाव से उतरने के बाद निमाई ने गंगा की उछाल मारती लहरों की तरफ़ देखा, और अपने उस थैले को भी नदी में फेंक दिया, जिसमें न्याय पर लिखी वह अपनी अधूरी पांडुलिपि को रखकर लाया था l
हरिदासी जब भी अपने बाबा द्वारा सुनाए गए इस प्रसंग को याद करती है, उसकी आँखों से गंगा में हिचकोले खाती नाव में बैठे निमाई के मित्र की तरह आँसू झरने लगते हैं l मित्र के लिए ऐसे त्याग की कथा हरिदासी ने अपने जीवन में कभी नहीं सुनी l
इस घटना के बाद निमाई पंडित फिर कभी पाठशाला नहीं गया l घर पर रखी पिता की किताबों से ही ज्ञान अर्जित करने लगा। इस बीच माँ के ज़ोर देने पर निमाई ने पंडित वल्लभाचार्य की बेटी लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर चला गया, परन्तु इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई।
निमाई अपनी माँ को बहुत चाहता था । माँ की आज्ञा से लक्ष्मीदेवी की मौत के बाद उसने विष्णुप्रिया से शादी कर ली। इस तरह विष्णुप्रिया के जीवन में आने से धीरे-धीरे माँ शचीदेवी और निमाई , लक्ष्मीदेवी के विछोह का दु:ख भूल गए l
एक बार अपने कुछ साथियों के साथ अपने पिता का श्राद्ध करने निमाई नबद्वीप से गया गया l गया में इसी दौरान निमाई संन्यासी ईश्वरपुरी से मिला। हालाँकि नबद्वीप में एक बार वह पहले भी इस संन्यासी से मिल चुका था । मिलते ही निमाई ने उसके चरण पकड़ते हुए विनती की,”स्वामी ! संसार की गति के साथ मेरा यह जीवन इसी तरह बीत जाएगा। अब मुझे भी आप कृष्ण-भक्ति की दीक्षा दीजिए !”
“तू तो अपने आपमें कृष्ण का रूप है…पहुँचा हुआ पंडित है। तुझे कोई क्या दीक्षा देगा ?” संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा l
लेकिन निमाई संन्यासी ईश्वरपुरी के पैरों में ही पड़ा रहा l हारकर संन्यासी ने दीक्षा देते हुए निमाई के कान में न जाने कैसा मन्त्र फूँका कि वह बेहोश हो गया l कुछ देर बाद जब निमाई को होश आया, तब वह अपने साथियों से बोला,”अब तुम घर लौट जाओ ! मैं तो अब कृष्ण के पास वृन्दावन जाता हूँ।”
निमाई की बात सुन संन्यासी ईश्वरपुरी पहले मुस्कराया और फिर उसे समझाते हुए बोला,”निमाई , वृन्दावन जाने की अभी कोई ज़रूरत नहीं है l वहाँ बाद में जाना। पहले अपने नबद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। सामाजिक बुराइयों से अपने यहाँ के लोगों का उद्धार करो !”
संन्यासी ईश्वरपुरी की बात सुन निमाई वापस नबद्वीप लौट आया l
गया से आने के बाद निमाई का दुनियादारी से मन उचट गया l वह अब हर समय कीर्तन में लीन रहने लगा। कीर्तन के दौरान वह कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करता l कई बार लीलाओं का वर्णन करते हुए वह कृष्ण-वियोग में रोना शुरू कर देता और फिर ज़ोर-ज़ोर से नृत्य करने लगता l निमाई को नृत्य करते देख उसके साथ-साथ और भी कृष्ण-भक्त नाचने लगते l इस तरह निमाई के कारण नबद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर का संचार हो उठा। उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। हर जाति के लोग अब उसके कीर्तन में शामिल होने लगे। इस तरह निमाई को लोग कृष्ण का अवतार मानने लगे।
बंगाल में उन दिनों कालीपूजा की परम्परा पूरे ज़ोरों पर थी। इस पूजा में पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई इसी पशु-बलि के विरोध में कृष्ण-भक्ति के संदेश का प्रचार करने लगा । बंगाल का यह क्षेत्र उन दिनों गौड़ देश के नाम से जाना जाता था और एक मुसलमान बादशाह का यहाँ राज था। बादशाह ने शासन की ओर से हर बड़े नगर में क़ाज़ी की अदालत स्थापित करवाई हुई थी।
निमाई के विरोधियों ने एक बार क़ाज़ी की अदालत में शिकायत की कि उनके कीर्तन से हम बड़े परेशान हैं। उसके शोर से रात को हम सो नहीं पाते हैं। इतना ही नहीं उसने बहुत से मुसलमानों को भी कृष्ण-भक्त बना लिया है।
सुनते ही क़ाज़ी ने तुरन्त फ़रमान जारी कर दिया कि आगे से कहीं भी कीर्तन नहीं होगा।
निमाई के भक्तों ने क़ाज़ी का यह फ़रमान जब निमाई पंडित को जाकर सुनाया, तो वह मुस्काराते हुए बोला,”घबराने की कोई बात नहीं है ? लगता है क़ाज़ी साहब के उद्धार का समय आ गया है। जाओ और इसी समय पूरे नगर में मुनादी करवा दो कि आज मैं नगर के बाज़ार में कीर्तन करता हुआ क़ाज़ी साहब के घर के सामने जाऊँगा और वहाँ कीर्तन करुँगा !”
निमाई की इस प्रतिज्ञा को सुन लोगों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने नगर के सारे बाज़ार सजा दिए। यहाँ तक कि दूसरी जाति और धर्म के लोगों ने भी अपने मकानों को सजा दिया।
इसके बाद निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ ‘हरिबोल ! हरिबोल !’ का उद्घोष करता हुआ निकल पड़ा l हरिबोल के उद्घोष से जैसे आकाश गूँज उठा । कीर्तन करता हुआ जुलूस बाज़ारों से गुज़रने लगा और निमाई कृष्ण-भक्ति में लीन होकर नृत्य करने लगा। नृत्य करते हुए उसकी आँखों से कृष्ण-विरह में झर-झर आँसू बहने लगे। उसकी यह हालत देख नगर के बाज़ार ही नहीं, गलियाँ और रास्ते भी ठिठक गए l जिन विरोधियों ने क़ाज़ी से निमाई की शिकायत की थी, उनका भी हृदय पिघल उठा l
देखते-देखते सारे नगरवासी अपने-अपने घरों से बाहर निकल आए और निमाई पंडित की अगुवाई में निकलनेवाले जुलूस में शामिल होने लगे l नगरवासियों में क़ाज़ी को लेकर लगातार ग़ुस्सा बढ़ने लगा l ग़ुस्साई जनता चिल्लाते हुए क़ाज़ी के मकान की तरफ़ यह कहते हुए बढ़ने लगी,‘क़ाज़ी का मकान जला दो ! क़ाज़ी को मार दो !’
निमाई पंडित इधर कीर्तन में मस्त था। इसी बीच जब कुछ भक्तों ने उसे नगरवासियों के क्रोध से अवगत कराया, तो उसने कीर्तन बन्द कर दिया और ग़ुस्साई जनता को शान्त करते हुए बोला,”सुनिए, क़ाज़ी साहब का जो बुरा करेगा, समझना वह मेरा बुरा करेगा। मैं उनका मन प्रेम से जीतना चाहता हूँ l किसी तरह का डर या भय दिखाकर नहीं। इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप मेरी तपस्याऔर साधना में किसी तरह की बाधा न पहुँचाएँ !”
उधर क़ाज़ी मारे डर के अपने घर में छिपकड़बैठ गया। निमाई पंडित क़ाज़ी के घर के बाहर तैनात सेवकों के पास गया और उनसे बोला,”क़ाज़ी साहब से जाकर कहिए कि निमाई आपसे मिलने आया है ! उनसे कहना कि वे डरे नहीं l मुझ पर विश्वास करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बाँका नहीं होगा।” इसके बाद एक पल के लिए निमाई रुका और फिर मुस्कराते हुए सेवकों से कहा,”आपको नहीं पता कि गाँव के नाते क़ाज़ी साहब मेरे मामा लगते हैं l अब आप ही सोचिए कि भला कोई भांजा अपने मामा को नुक़सान पहुँचा सकता है ? जाइए, उनसे कहिए कि वे निडर होकर बाहर आएँ l”
सेवकों के समझाने-बुझाने पर क़ाज़ी डरता-सहमता बाहर आया, तो निमाई ने मज़ाक करते हुए उससे कहा, “मामाजी, आपसे आपका भांजा मिलने आया है और आप दरवाज़ा बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह क्या बात हुई मामाजी !”
इस पर क़ाज़ी बोला,”पंडित, मैं डर से नहीं, शर्म के मारे मुँह छिपाकर बैठ गया था। मैं चाहता तो अपनी मदद के लिए सिपाही बुला लेता l पर मुझसे ऐसा किया नहीं गया, क्योंकि तुम्हारा कीर्तन देख-देखकर मैं ख़ुद ही पागल हुआ जा रहा था। तुम तो साक्षात नारायण का रूप हो पंडित। मुझे मुआफ़ करना l तुम्हारे कीर्तन में रुकावट डालने का मुझे बेहद अफ़सोस और दु:ख है। मैं कुछ दुष्टों के बहकावे में आ गया था। जाओ, अब तुम ख़ूब कीर्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा ! यह मेरा हुक्म है l”
क़ाज़ी के इस अफ़सोस के बाद निमाई पंडित के दिल में संन्यास लेने की इच्छा और तेज़ हो उठी । वह सोचने लगा कि नफ़रत करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का सिर्फ़ एक ही उपाय है और वह है त्याग। भय अथवा डरा-धमकाने के बजाय त्याग से ही मैं दुनिया की भलाई कर सकता हूँ। यह इच्छा जब निमाई ने अपने भक्तों, अपनी माँ और पत्नी के बताई तो सुनकर सब रोने लगे।
माँ विलाप करते हुए बोली,”बेटा, हमें इस तरह बेसहारा छोड़ना कहाँ का त्याग है ?”
इधर पत्नी ने भी कहा,”स्वामी, मैं आपके बिना यह पहाड़-सा जीवन अकेली कैसे काटूँगी ?”
सभी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन निमाई पंडित अपने फ़ैसले पर चट्टान की तरह अडिग रहा l निमाई की इस ज़िद के आगे बेबस माँ और पत्नी ने उसका निर्णय स्वीकार कर लिया l
इस तरह गौतम बुद्ध की तरह एक रात निमाई ने अपनी पत्नी के कमरे का धीरे-से किवाड़ खोला l वह दरवाज़े पर ही खड़ा होकर कमरे में फैले मद्धिम उजाले में सोती हुई पत्नी का चेहरा निहारने लगा l एक बार उसके मन में आया भी कि वह पत्नी को आख़िरी बार छू ले परन्तु उसकी हिम्मत नहीं हुई l उसे लगा यदि उसके छूने से पत्नी की नींद खुल गई, तो उसके गृह-त्याग का सपना अधूरा रह जाएगा l निमाई ने दूर से ही सन्नाटे में लिपटे कक्ष और दिये की उदास रोशनी में भीगे पत्नी के चेहरे को देखा और दरवाज़े से ही उलटे पाँव लौट आया l उस रात निमाई माँ और पत्नी को सोता छोड़ संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़ा।
घर से निकल वह केशव भारती के आश्रम पहुँचा और उनसे दीक्षा देने की विनती की। चौबीस वर्षीय निमाई को केशव भारती ने बहुत समझाया और कहा,”पंडित, अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई औलाद भी नहीं है। इस अवस्था में जवान पत्नी और बूढ़ी माँ को अकेला, बेसहारा छोड़कर तुम्हारा संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ ! पहले गृहस्थ-जीवन का पालन करो l संन्यास लेने के बारे में बाद में सोचना !”
निमाई ने हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा,”गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूँ। मैं आदमी के दिल और दिमाग़ में समाए अज्ञान के अँधेरे को दूर करना चाहता हूँ। कृष्ण-भक्ति का सन्देश लोगों के बीच ले जाना चाहता हूँ। जात-पात के बन्धनों से लोगों को मुक्त करना चाहता हूँ। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें !”
“निमाई , घर-गृहस्थी से मुक्त होने से पहले एक बार अपनी पत्नी के बारे में सोचो ? उसके उस अन्धकार के बारे में सोचो, जिसे तुम उसके जीवन में छोड़कर जा रहे हो ? बिना पति वह किसके सहारे अपनी ज़िन्दगी गुज़ारेगी ? तुम्हारे जाने के बाद वह अपने दुःख-दर्द को किसके साथ बाँटेगी ? अकेली औरत इस समाज और भूखे भेड़ियों से अपने आपको कब तक और कहाँ तक बचा पाएगी ? निमाई , अपनी बूढ़ी माँ और युवा पत्नी को इस तरह बेसहारा छोड़कर जाना एक पुरुष के लिए कायरता भरा काम है l एक औरत को अकेला छोड़कर जाना न्याय-संगत नहीं है l थोड़ी देर के लिए उसकी जगह तुम अपने आपको रखकर देखो ?” कहते-कहते केशव भारती के शब्द भीगने लगे l अकेली और बेसहारा स्त्री के असीमित दु:खों की कल्पना करते हुए उसकी आँखें भर आईं l
मगर निमाई पर केशव भारती के समझाने का कोई असर नहीं हुआ l
अन्त में केशव भारती ने पहले कुछ क्षण कुछ सोचा और फिर बोला,”अच्छा, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूँ और वह यह कि तुम अपनी माँ और पत्नी से इजाज़त लेकर आओ !”
केशव भारती की शर्त सुन निमाई ने तुरन्त जवाब दिया, “गुरुदेव, उन दोनों ने मुझे पहले ही आज्ञा दे दी है। मैं उनसे इजाज़त ले चुका हूँ।”
निमाई की इस बात पर केशव भारती ने उसकी आँखों में आँखें डाल, पहले एक तिरछी मुस्कान उछाली और फिर कटाक्ष करते हुए उससे जैसे अन्तिम प्रश्न किया,”निमाई , कहीं तुम कपिलवस्तु के इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ की तरह तो अपनी पत्नी से इजाज़त लेकर नही आए हो ?”
केशव भारती के इस कटाक्ष का निमाई से कुछ भी उत्तर देते नहीं बना l
हरिदासी के बाबा ने जिस वेदना और पीड़ा के साथ केशव भारती के शब्दों में, निमाई की युवा पत्नी के दुःख की कल्पना करते हुए जब पहली बार इस प्रसंग को सुनाया था, तब बाबा की आँखें तो गीली हो ही उठी थीं बल्कि हरिदासी भी अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई थी l उस दिन उसे पूरी रात नींद नहीं आई l रह-रहकर उसे लगता जैसे अँधेरे में उसके सरहाने खड़ी निमाई की पत्नी उससे रोते हुए गुहार कर रही है,”अपने पंडित से कहो वह मुझे इस तरह अकेला छोड़कर ना जाए ! मैं कैसे अपने पति के बिना इतना लम्बा जीवन जी पाऊँगी ?”
लेकिन सिवाय आँखों से बहते आँसुओं के उसके पास कोई उत्तर नहीं था l वह चाहकर भी अपने सरहाने खड़ी असहाय और नितान्त अकेली निमाई की पत्नी की कोई मदद नहीं कर पाई l
इधर सारे नगरवासी और नबद्वीप के अनेक अनुयायी निमाई को ढूँढते हुए केशव भारती तक पहुँच गए l देखनेवाले बताते थे कि वह बहुत ही हृदय विदारक दृश्य था। जब निमाई के भक्तों और अनुयायियों को यह पता चला कि निमाई अपनी युवा पत्नी और बूढ़ी माँ को बेसहारा छोड़कर संन्यासी बनने जा रहा है, आसपास और नगर के सारे स्त्री-पुरुष इकट्ठे हो गए। सबने निमाई को मनाने की बहुत कोशिश की l यहाँ तक एक भी नाई निमाई के सर के बालों को काटने के लिए तैयार नहीं हुआ।
बड़ी मुश्किल से निमाई के समझाने से एक नाई उसके बाल काटने के लिए तैयार हो तो गया, परन्तु उसने उसी समय यह क़सम खा ली कि इसके बाद वह कभी किसी के बाल नहीं काटेगा l निमाई के बाल काटने के बाद वह नाई भी कृष्ण-भक्त हो गया। इसी घटना के बाद निमाई पंडित चैतन्य कहलाने लगा।
कुछ ही दिनों में चैतन्य इतना प्रसिद्ध हो गया कि उसे कहीं भी आने-जाने की पूरी आज़ादी थी। इस बीच उसे पता चला कि एक यात्रा में उसका बड़ा भाई दो साल साधु रहकर मर गया। संन्यासी बनने के बाद चैतन्य अपनी माँ से केवल दो बार मिला। हालाँकि माँ के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से लेता रहता था l
एक बार चैतन्य अर्थात निमाई अकेला ही चेरानन्दी वन में जा रहा था l उस वन में मशहूर दस्यु नौरोजी भी रहता था। निमाई को इस वन से न जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उसके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समैया हुई थी। जब निमाई नौरोजी दस्यु के सामने पहुँचा ,तो उसको देखते ही वह उसका भक्त हो गया और वह भी संन्यासी बन उसके साथ रहने लगा। निमाई अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहता और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करता था।
बाबा बताते थे कि अपने मित्र के लिए अपनी अधूरी पुस्तक को गंगा में फेंकने के बाद चैतन्य ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा l संस्कृत में मात्र आठ श्लोक लिखे, जिन्हें ‘शिक्षाष्टक’ कहा जाता है l हरिदासी को लगता था कि उसके बाबा को जब निमाई पंडित के बारे में इतना पता है, तब उसे उसके लिखे ये आठों श्लोक भी याद होंगे l इसलिए एक दिन वह अपने बाबा से ज़िद करने लगी कि वे उसे इन श्लोकों को सुनाएँ l
पिता बेटी की इस हठ को सुन बेचैन हो उठा कि वह अपनी इस नादान बेटी को कैसे समझाए कि वह कोई विद्वान नहीं l उसने तो ऐसा सुनाभर है l मगर जब वह ज़िद करने लगी, तब उसने ना-समझ बच्ची को पहले यह श्लोक, जो उसे न जाने कैसे याद था, इसे सुना दिया-
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥
अर्थात हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे हरेक क्षण एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । आँखों से वर्षा के समान निरन्तर आँसू बह रहे है और सारा जगत एक शून्य के समान दिख रहा है l
हरिदासी जैसे ही अपने बाबा के झाँसे में आई, अवसर देख बाबा ने यह पद सुनाकर अपना पीछा छुड़ा लिया-
राधा पूर्ण शक्ति कृष्ण पूर्ण शक्तिमान l
दुइ वस्तु भेद नाहिं शास्त्रेण प्रमाण l
मृगमद तार गन्ध जइसे जइसे अविच्छेद l
अग्निज्वाला ते जैछे वासु नाहिं भेद l
राधाकृष्ण एछे सदा एकइ स्वरूप l
लीलारस आस्वादि ते धरे दुइ रूप l
निमाई पंडित अर्थात चैतन्य के बारे में हरिदासी को उतना ही पता है, जितना उसके बाबा ने उसे बताया था l इसके बाद हरिदासी इन्हीं पदों को इस तरह सच मानने लगी कि उसे निमाई पंडित के ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे !’ के अलावा अपने बाबा के सुनाए ये दो पद ही आज तक याद हैं l
हरिदासी ने अपने बाबा से हठ करके एक एकतारा भी बनवा लिया था l जब भी मोहल्ले में रंग-बिरंगे छोटे-बड़े कतरनों के घुटनों से नीचे तक बने फोतुआ पहने, घर-घर जाकर कीर्तन करनेवाले बाउलों को एकतारा के साथ बाउल गाते देखती, वह भी उनकी तरह एक हाथ में एकतारा ले उनके साथ-साथ बजाने लगती l घर आने पर माँ से वह अक्सर ज़िद करती कि वह उसे भी वैसा ही एक फोतुआ सिलवा दे l उसे याद है रंग-बिरंगा फोतुआ पहने जब कोई बाउल उनके दरवाज़े पर आकर कीर्तन करता, तब कीर्तन समाप्ति के बाद माँ उसे केले के पत्ते पर कच्चा खाना खिलाती l इस दौरान कई बार उसका मन करता कि वह ज़मीन पर रखे बाउल के इकतारे को लेकर भाग जाए l बचपन में बाबा से बनवाया वह गोपी जंतर अर्थात एकतारा उसने बड़े जतन से सँभालकर रखा हुआ था, जिसे वह नबद्वीप से अपने साथ यहाँ लेकर आई थी l उसका मन जब भी उदास होता इसके तार को तर्जनी के पोर से इस तरह छूती कि उसका रोम-रोम में बैरागी हो उठता l
नबद्वीप से निकल हरिदासी अब शान्ति निकेतन की स्मृतियों से अठखेलियाँ करने लगी l
(मोक्षवन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित )
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भगवानदास मोरवाल
देश की राजधानी दिल्ली और राजस्थान व उत्तर प्रदेश के ब्रज से सटे हरियाणा के काला पानी कहे जानेवाले मेवात के जिला नूंह के क़स्बे नगीना में 23 जनवरी, 1960 को जन्मे ग्रामीण जीवन के आधुनिक चितेरे, हिंदी क्षेत्र की जनपदीय गंध और उसकी लोक-संस्कृति में रचे-बसे भगवानदास मोरवाल ने अपनी अदम्य व जिजिविषापूर्ण कथा-यात्रा में एक अलग पहचान बनाई है l हमेशा अछूते विषयों को केंद्र में रखकर हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अलग और देशज छवि बनाए रखनेवाले, तथा अपने लेखन के माध्यम से लोक-मानस की अनुकृतियों को उकेरने वाले इस कथाकार का समकालीन हिंदी-कथा साहित्य में एक विशिष्ठ स्थान है l प्रचलित विमर्शों के बरअक्स मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों, सर्वसत्ता व लोकविरोधी तत्वों, तथा आम आदमी की प्रबल अदम्यता और जिजीविषा की पड़ताल करनेवाले इस कथाकार ने काला पहाड़, बाबल तेरा देस में, रेत, नरक मसीहा, हलाला, सुर बंजारन, वंचना, शकुंतिका, ख़ानज़ादा, मोक्षवन और काँस जैसे ग्यारह महत्त्वपूर्ण उपन्यासों के माध्यम से न केवल हिंदी कथा-साहित्य को समृद्ध किया है, अपितु अपने लेखन के माध्यम से ये वंचित, उपेक्षित और हाशिए के समाजों का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं ।
समय पर इनके रचनात्मक अवदान के लिए इन्हें ‘अज्ञेय शब्द सृजन सम्मान’, बेंगलुरु, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का ‘कर्तृत्व समग्र सम्मान’, दिल्ली विधानसभा का ‘मुंशी प्रेमचंद सारस्वत सम्मान’, ‘वनमाली कथा सम्मान’, भोपाल, ‘स्पंदन कृति सम्मान, भोपाल, ‘अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान,कथा (यूके) लन्दन, ‘कथाक्रम सम्मान , लखनऊ, ‘साहित्यकार सम्मान हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है l कई उपन्यासों के अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद होने के अलावा देश के कई विश्वविद्यालयों में इनकी रचनाएँ पाठयक्रम में शामिल हैं l
संपर्क:
WZ-745G, दादा देव रोड, नज़दीक बाटा चौक, गली नं. 2, पालम, नई दिल्ली-110045
मोब. 9971817173 ई-मेल : bdmorwal@gmail.com
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चैतन्य प्रभु के जीवन की प्रेममय प्रस्तुति ।
मूर्धन्य उपन्यासकार की इस कृति का एकांश bhi बहुत प्रभावी
मोक्षवन के अंश पढ़कर मैं अपनी स्मृति वन में घूमते हुए वृंदावन जा पहुंची । पढ़ते हुए आंखों के सामने वे तमाम सारे दृश्य उपस्थित हो गए जो बचपन में वृंदावन में देखे और जिए हैं।
बहुत ही सुंदर,रोचक और मनमोहक
उपन्यास अवश्य ही पठनीय होगा।
साझा करने के लिए आत्मीय आभार
हरि बोल
मोरवाल जी की यह रचना बहुत गहरी और सार्थक है।
सादर,
प्रांजल धर