दो गज़ की दूरी
-ममता कालिया

पहले उन्होंने कुछ देर इस पर बहस की थी कि खाना यहीं कमरे में मंगवा लिया जाय या डाइनिंग हॉल में चला जाय।
समिधा ने कहा, ‘यहीं मंगा लो। मुझे ज्यादा भूख नहीं। मैं रात में बहुत देर से खाती हूँ।’
‘क्या करती रहती हो ?’
‘कुछ नहीं, पता नहीं कैसे देर हो जाती है। किसी किताब में मन लग जाता है तो घड़ी की तरफ़ ध्यान ही नहीं जाता।’
‘पहले मैं भी बहुत पढ़ता था। मैंने बाथरुम में भी एक शेल्फ़ में किताबें रखी हुई हैं।’
‘अब नहीं पढ़ते?’
जब से रेडियो में काम मिला और ऊपर से यह प्रोग्राम एंकरिंग का, तब से कमी आ गई।’
‘क्या यह काम पसन्द है तुम्हें ?’
देखो हम काम पसन्द करें न करें, कई काम हमें चुन लेते हैं। पहले सिर्फ रेडियो में काम किया फिर ये स्टेज शो का काम गले पड़ गया।
‘बैंक वाले ऐतराज नहीं करते।’
‘क्यों उन्हें क्या प्रॉब्लम है। इनमें कोई भी काम स्थायी नहीं है। रेडियों में फरमाइशी गीत या कहानी का जॉकी होता हूं तो स्टेज पर भी तकरीबन वही काम है। बस यहाँ साथ में थोड़ी एक्टिंग करनी पड़ती है।
श्यामल की आदत थी, बोलते बोलते वह खड़ा हो जाता जैसे स्टेज पर डायलॉग बोल रहा हो।
समिधा ने देखा निजी बातचीत में भी वह अदायगी कई बार झलक जाती।
समिधा को लगता इस नीलगिरि जैसे लंबे मित्र में काफी कुछ ऐसा है जो इसे सचित्र बनाता है। उसके सिर के ऊपर काले घुँघराले बालों का गुच्छा आधा माथा ढक लेता, उसकी हँसी बड़ी मोहक थीं, छोटी से छोटी बात पर वह हँस लेता और बड़ी से बड़ी बात उसे ठंडा छोड़ जाती। वह हमेशा नहाया हुआ तरोताज़ा नज़र आता। कभी कभी उसकी बातें नाटकीय लगतीं। पता चला विद्यार्थी जीवन का काफी हिस्सा उसे थिएटर के शौक को दे रखा था।
‘तुम बैंक जैसी नीरस नौकरी कैसे कर लेते हो?’
समिधा ने पूछा।
‘कोई नौकरी सरस नहीं होती। हर नौकरी का शुष्क पक्ष ही हमें सँभालना होता है तभी हम अच्छे नौकर होते हैं।’
बातें करते करते वे सीढ़ियाँ उतरने लगे।
रॉयल होटल का हिसाब बड़ा अजीब था। रिहायशी कमरे जहाँ थे वहाँ डाइनिंग हॉल नहीं था। वहाँ केवल एक टी-रुम था जिससे कमरों में सुबह चाय दी जाती। खाना खाने के लिए मेहमानों को पहले सारी सीढ़ियाँ उतरकर गलियारे में आना पड़ता। फिर तीन चार स्टोर के बाद लिखा मिलता ‘रॉयल रेस्तरां’ जिसमें नीचे फुटकर मेहमान बैठते और ऊपर रिहायशी।
सीढ़ियाँ उतरने में ही समिधा थक गई।
याद आया उम्र सबसे पहले घुटनों पर उतरती है।
एक मिनट उसे अपने पर ताज्जुब हुआ।
अपना सारा कामकाज स्थगित कर वह श्यामल से मिलने आखिर क्यों आई है।
आभासी परिचिता एक ऐसा सम्पर्क जिसका न पूर्व न पश्चात्।
मुमकिन है आज के बाद वे कभी न मिलें।
मुमकिन है यही शंका श्यामल को भी हो।
ताज्जुब यह कि मोबाइल पर चैट करते वक्त इनमें से एक भी आशंका सिर नहीं उठाती।
चंदन पानी जैसा मेल होता है उनका।
कई बार अभी उसने कुछ कहा भी नहीं होता कि श्यामल बोल उठता है वही बात जो उसके लबों पर होती है।
कई बार वह सामान्य होता है कि समिधा भांप लेती है आज कुछ असामान्य हुआ है। क्या cloud technology, mind psychology भी जानती है।
श्यामल कहता है, ‘तुम बिना मेरे बोले समझ जाती हो, कोई बोलने पर भी नहीं समझता।’
कोई याने वोई
‘तुम्हीं समझा करो कोई क्या चाहता है?’ समिधा समझाती।
आधी रात के संलाप, विलाप और प्रलाप माहौल गमगीन कर जाते। ‘हमारी समझ के की-बोर्ड अलग है समिधा।’ श्यामल कहकर बात खत्म करता।
समिधा मोबाइल रख देने के बाद भी श्यामल की मुश्किल से मुब्तिला रहती। सोचती साथ रहने का क्या मतलब है अगर दूसरे के एकांत में न बसा जाय। उसे एक भूली बिसरी, बहुत पहले पढ़ी एक किताब का शीर्षक याद आता ‘दो एकांत’।
श्यामल के बारे में सोचते सोचते वह वरुण की याद में खो जाती। क्या कभी कू की बाहों में लेटे हुए उसे अपनी पहली प्रेमिका/पत्नी समि याद आती होगी।
समिधा ने अपना सिर झटक कर यादें भी झटक दीं।
अब कैसे विदा ली जाय। श्यामल का खाना खराब हो जायेगा।
समिधा ने लाल कार्पेट बिछी हुई ऊँची सीढ़ियाँ देखीं और दम साधा।
‘आप चाहें तो हम किसी और जगह खाना खा लें।’
श्यामल ने उसकी दिक्कत पहचान ली।
यह आप तुम और तू की भूल भुलैया भी जानलेवा थी।
सीढ़ियां तो खैर थीं ही।
समिधा को झुंझलाहट हुई। श्यामल को क्या पड़ी थी यहाँ ठहरने की। फिर याद आया कि आयोजकों ने यहाँ ठहराया होगा।
दिल्लीवालों के लिए कनॉट प्लेस अब एक पिछड़ा हुआ इलाका है। किसी को इसकी गोलाई से शिकायत है तो किसी को इसकी लम्बाई चौड़ाई से। आधा वक्त तो बाहरी और भीतरी गोलार्द्ध का चक्कर समझने में ज़ाया जाता है। वन-वे ट्रेफिक का टंटा ऐसा कि जरा सा कोई ब्लॉक पीछे छूट जाय तो फिर पूरे मेरी-गो-राउंड का चक्कर लगाओ जिसमें सैकड़ों गाड़ियों का हुजूम आगे पीछे, दायें बायें।
पहले जनपथ बाजार अच्छा था क्योंकि वहाँ विद्यार्थियों को अपने बजट में काफी कुछ मिल जाता- झोले, पर्स, चप्पल और किताबें। पचास रुपए में पेपरबैक किताब कई बार समिधा ने भी ली है वहाँ। चार रुपए में चप्पल और बीस रुपए में झोला। धीरे धीरे वहां के दुकानदार लोलुप होते गए। उनके पास विदेश पलट हिन्दुस्तानी और भारत-प्रेमी परदेसी ग्राहक आने लगे। देखते देखते जनपथ का बाज़ार सीमित आय वालों की पहुंच से बाहर हो गया।
कनॉट प्लेस की विशाल दुकानों के मालिक बहुधा काउंटर के पीछे ऊँघते पाये जाते। वहां ग्राहकों की आवाज ही नगण्य थी। कनाट प्लेस भी कौन कहता है अब। CP चलता है।
लेकिन बाहर से आने वालों को CP का वैभव खींचता है। संसद जैसी गोलाई, विशाल गलियारे, ऊँचा विक्टोरियन पटाव और सुनियोजित ब्लॉक विभाजन। फिर टैक्सीवाले भी एयरपोर्ट या रेलवे स्टेशन उतरने वाले मुसाफिर की हैसियत भाँप कर उन्हें पहाड़गंज की बजाय कनॉट प्लेस के होटलों में पहुँचाना ज्यादा लाभकारी पाते।
इधर छह सात महीने से श्यामल दिल्ली नहीं आया था। वह इन्दौर, भोपाल और बम्बई के कार्यक्रमों में उलझा रहा। अपने बारे में ज्यादा बोलता नहीं था। वे तकरीबन रोज़ चैट करते लेकिन उसमें निजी चर्चा न्यूनतम रहती। वह क्या पढ़ता था इसका पता नहीं लगता।
समिधा लिखने में फँसी रहती, कोई न कोई आधी-अधूरी कहानी। उसके कई बार घर में आए अखबारों की तह भी नहीं खुलती। सामाचार का समय आता और बीत जाता, वह टीवी नहीं खोलती। उसकी हर जरुरत मोबाइल से पूरी हो जाती। खबरों की सुर्खियाँ उसे किसी भी एप से मिल जाती। ज़्यादा खुलासे में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। वह बाखबर रहने की बजाय बेखबर रह कर प्रसन्न रहती। बेटे टिन्नू का कई कई दिन फोन न आता। वह भी न करती। वह एक मैसेज कर देती, ‘कहाँ हो?’
टिन्नू बताता, ‘अभी इस वक्त बम्बई में हूँ माँ। आधी रात की उड़ान से इस्ताम्बुल जा रहा हूँ, तुर्की। तीन दिन में फोटो शूट करके लौट आऊंगा।’
यही काटता था कभी कभी। समिधा के इस जीवन में संवाद तो सबसे था लेकिन टुकड़ों में। धारावाहिक बातों के सिलसिले विरल होते जा रहे थे। वे बातें जो ऐसी चलती थी कि कन्धा उचका कर फोन कान से चिपका कर सुनी जायँ। भले ही वह चाय बना रही हो या कहानी लिख रही हो। अभी कुछ दिन पहले तक वह समय था जब पार्क में टहलते हुए भी उसका फोन टन टन करता ही रहता। साथ चलने वाले सड़क क्या फाटक भी पार कर जाते और समिधा वहीं की वहीं बेंच पर बैठी बतियाती रहती।
तब की बात और थी। तब दुनिया में कोरोना नहीं था। लाख और मुसीबतें थीं किन्तु महामारी नहीं थी। अभी इस साल 22 मार्च तक समिधा भी घूमती रही कभी बम्बई तो कभी जयपुर। दो बार विदेश हो आई। यकायक खबर फैली कि 23 मार्च 2020 से महामारी ने मारक रुप ले लिया है। उड़ने वाला विषाणु है जो कभी भी, कहीं भी शरीर के अन्दर घुस जाता है और घर बना लेता है। पहले खाँसी शुरु होती है, बाद में बुखार। बदन में टूटन होती है। गला बैठा रहता है, खाने में सवाद नहीं आता। फूलों फलों की गन्ध नहीं आती। कुल मिलाकर तबियत हाय हाय रहती है।
समिधा यह सब जान कर भी ज़रा नहीं डरी। इनमें से आधे लक्षण तो वह वर्षों से जी रही है। जब वरुण उसे त्याग कर तोक्यो बस गया था, तब शुरु के बरस इन्हीं लक्षणों के साथ बीते थे। समिधा को भूख लगनी बन्द हो गई थी। बस प्यास लगे जाती। वह फ्रिज से निकाल कर ठण्डी से ठण्डी बोतल का पानी पीती लेकिन उसे लगता उसके कलेजे में अंगारे बल रहे हैं। रात भर उसका बदन टूटता। दिन की चर्या की अनिवार्यता उसे निभानी ही पड़ती। उठ कर नहाना, नाश्ता बनाना टिन्नू को खिलाना, उसे स्कूल भेजना और अपने कॉलेज जाना।
टिन्नू तब सोलह साल का था। उसका यह बारहवीं का समय था। घर पर आए संकट को वह थोड़ा देख कर और थोड़ा सुन कर समझने की कोशिश करता। मम्मा और पापा में से कौन ज़्यादा दोषी है यह तय करना उसके लिए बहुत मुश्किल था। पिछले दस बरसों में उसने अपनी माँ के आँसू देखे थे तो पिता की आग। माँ का अकेलापन तो पापा की बेचैनी।
बहुत जल्द उसे समस्या का अन्दाज़ लगने लगा था। माँ-बाप की भिड़न्त में एक नाम बार बार आता ‘कू’।
‘तुम्हें शरम नहीं आती तुम्हारे बाल बच्चों की उमर की लड़की के साथ राहे लगे हो उहाँ। अपनी उमर बताए हो उसे ?’ माँ बार बार चुनौती देती।
पापा कोशिश करते कि तन्मय के सामने बहस न बढ़े। वे अपना पुकाता कस कर बदन से लपेट, अपना विस्की का ग्लास लेकर ऊपर वाली छत पर चले जाते।
खाना मेज़ पर रखा हुआ ठण्डा हो जाता। तीनों में से कोई न खाता।
कभी तन्मय अपनी प्लेट लगाता और माँ के पास ले जाता, ‘मम्मा पहले तुम खाओ तब मै खाऊँगा।’
समिधा बेटे को घपची में भर कर रो पड़ती, ‘मेरे बेटे, मेरे लाल, तू क्यों भूखा घूम रहा है। देख टिन्नू तू अब बड़ा हो जा। तेरे पापा ने हमारे साथ बड़ा धोखा किया। अच्छे जापान गए पढ़ाने, ये तो उलटा ही पाठ पढ़ कर आ गए।
तन्मय को पापा पर बहुत गुस्सा आया। अब तक उसने अपनी माँ को केवल हँसते, बोलते, मुस्कुराते देखा था पिछले एक डेढ़ साल में माँ कितनी बदल गई थीं। उन दोनों के बीच का हँसी मज़ाक, खिझाना मनाना सब पर जापान का पाला पड़ गया था। टिन्नू को धुंधली सी याद थी जब वह छह साल की उम्र में माँ के साथ जापान गया था। उसे वहाँ के पेड़ पौधों की खूबसूरती अभी तक याद है लेकिन वहाँ के लोग उसे पुतले जैसे लगे। वहाँ उसे हर जगह बड़ा सन्नाटा लगा था। उसे अपनी कॉलोनी की वह गली क्रिकेट याद आई थी और अपने खेल के साथी, फहद, नदीम, विकास और चेतन।
समिधा अपनी नौकरी से लम्बी छुट्टी नहीं ले सकती थी और तोक्यों में उसका मन भी उचटा रहा। वरुण मशीनी मुस्तैदी से युनिवर्सिटी चला जाता, आकर चुपचाप खाना खा लेता और कम से कम संवाद करता। वह मोबाइल पर लम्बी चैट करता और कभी छाता ले कर घूमने निकल जाता। वह घर में अपने पेड़ पौधों की देखभाल करता और अपनी चाय खुद बना कर पीता। वरुण ने एक ऐसी दुनिया यहां रच ली थी जो स्वतः पूर्ण थी। उसे इसमें किसी साथी या संवाद की जरुरत नहीं थी। धुंध भरे दिनों में समिधा अपने को काफी एकाकी पाती। जब तक हम अकेले हों, अकेलापन नहीं काटता। दुकेले होने पर अकेलापन जानलेवा होता है।
एक दिन धुलने वाले कपड़े इकट्ठे करते समय समिधा केबिनेट का नीचेवाला दराज़ खोल बैठी। उसमें कुछ अलग किस्म के कपड़े पड़े हुए थे। लड़कियों की छोटी साइज़ की टी और पजामी, शमीज़ और नाज़ुक अंतर्वस्त्र। समिधा चकरा गई थी। यह सब क्या है। शाम को वरुण दिखा तो उसने पहला सवाल उन कपड़ों की बाबत किया।
वरुण ने बिगड़कर कहा, ‘तुमसे किसने कहा घर की खाना-तलाशी लेने को। यह पूरी केबिनेट पहले वाली किराएदार की है। वह कहीं और चली गई है। मकानमालिक को बोल गई है जब उसे फुर्सत होगी अपनी केबिनेट ले जायेगी।’
समिधा के मन में शक बैठ गया। वरुण की चुप्पी, चालाकी और चोरी तीनों में उसे एक गहरा सिलसिला नज़र आया। जब वह बिस्तर में लेटती, उसे वहां से कोई परदेसी गन्ध आती। वह घबरा कर उठ बैठती। वह खाना बनाती। हर बर्तन उसे पहले से इस्तेमाल में लाया हुआ लगता। नन्हा तन्मय खाना खाते हुए कहता, ‘मम्मा मेरे को ये चिपचिपा भात नहीं खाना।’ वहाँ चावल ऐसे मिलते थे कि लाख पकाने पर भी खिलते नहीं थे। मसाले, समिधा भारत से ले गई थी लेकिन मशरुम, स्वीटकार्न और पत्तेदार सब्ज़ियों में उनकी लज़्ज़त पता न चलती।
समिधा समझ गई थी उसका प्रेमी पति उससे उछट चुका है। स्वाभिमान ने सिर उठाया था। नहीं रहेगी वह वंचिता बन कर। समानांतर केवल रेल की पटरियां चल सकती हैं, सम्बन्ध नहीं। वरुण की चालाक पेशकश को उसने ठुकरा दिया। वरुण ने कहा ‘तुम्हें क्या प्रॉब्लम है। पत्नी तो तुम ही रहोगी। कू तो मेरी लिव इन पार्टनर है।’
‘मुझे यह मंजूर नहीं।’
‘देखो मुझे गुस्सा न दिलाओ। तीन साल बाद वहीं लौटूंगा, उसी घर पे तुम्हारे पास।’
‘देखो वरुण तुम मेरा पहला प्रेम थे। एकदम अकलंक, अकेले और एकमात्र। उच्छिष्ठ न तो मैं परोसती हूं, न खाती हूँ।’
महीने भर की तनातनी के बाद वे लौट आए थे, समिधा और तन्मय।
एयरपोर्ट से घर आने वाले लम्बे रास्ते को टैक्सी में पार करते हुए समिधा ने निरुपायता में से निर्णय निकाल लिये थे। उसे अपनी स्थायी नौकरी और बेटा टिन्नू दोनों पतवार की तरह लगे थे। तय कर लिया आगे के दो वर्ष रो रो कर नहीं बिताने हैं। अगर वरुण उसके बिना रह सकता है तो वह भी अकेली रह सकती है। अभी टिन्नू को काबिल बनाना है। नौकरी के बचे हुए आठ साल पूरे करने हैं।
तीन कमरे के घर में अब एक कमरा उपेक्षित पड़ा रहता। वरुण के कमरे से समिधा ने अपना निजी सामान निकाल लिया, कपड़े, तौलिए, पुस्तकें, यहाँ तक कि अपना प्रिय सेमल का तकिया भी। रोशनी के बावजूद यह तीसरा कमरा मनहूस लगने लगा, मलिन और मायूस। धीरे धीरे घर का फालतू सामान उसमें रखा जाने लगा। खाली डब्बे, जूते, पुराने अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ।
तन्मय को विरासत में पिता का रंग रुप और कद मिला था। सुबह जब वह युनिवर्सिटी जाने को तैयार होता और कहता, ‘मम्मा मैं जा रहा हूं’ एक पल को लगता वरुण ही सामने खड़ा है।
एक और प्रतिभा तन्मय ने पिता से पाई थी। कैमरा प्रेम। लाख उसने एमबीए की पढ़ाई की लेकिन उसकी मैमरा- आँख इतनी मौलिक और बेधक थी कि उसके खींचे हुए चित्र छपते ही रहते, हर अखबार में। धीरे धीरे उसे बड़े काम मिलने लगे और अब तो वह नेशनल ज्योग्रेफिक का फोटो-जर्नलिस्ट बन गया था। उसी ने समिधा को आइ-फोन देकर सिखाया था कि इसमें मन लगाओ मम्मा। सारी दुनिया तुम्हारी हथेली पर है।’
पिछले दस साल में यह मोबाइल उसका जीवनसाथी बन गया था। अब तो यह उसका पत्र-कोष, मित्र-कोष, शब्द-कोश, सूचना तंत्र सब था। यहाँ तक कि अब मोबाइल उसका दूधवाला, सब्जीवाला, दवाईवाला और पँसारी भी। बहुत सारे अखबार भी मोबाइल में मिल जाते।
डाइनिंग हॉल में उन दोनों के बैठने लायक कोई छोटी मेज़ थी ही नहीं जहाँ सिर्फ दो अतिथि बैठ सकें। यह एक बड़ा, भव्य दरबार हॉल जैसा था। लम्बी मेज़ें थीं और ऊँची पीठ वाली कुर्सियाँ। हर मेज़ पर एक सुगंधित मोम-दीवा भी आलोकित था। छत पर से कई झाड़ फानूस लटके हुए रोशनियों का प्रिज़्म बना रहे थे। अशर उनका स्वागत करते हुए कोने की मेज़ तक उन्हें ले गया।
ऑर्डर लेने वाले स्टअर्ड ने उनके हाथों में बेवरेज़स का मैन्यू थमा दिया।
श्यामल दिलचस्पी लेने लगा।
संवाद आपसे तुम पर अपने आप आ गया।
‘तुम क्या लोगी। मैं सिंगिल मॉल्ट लार्ज’
‘मै फ्रेश लाइम विद सोडा।’
‘देखा शाम तबाह न करो। हम यहाँ रिलैक्स होने आये हैं।’
‘मैं नहीं लेती। मैं कभी नहीं लेती।’ समिधा ने प्रतिवाद किया।
‘तब तो आज ज़रुर लो। जीवन में हर गुनाह एक बार ज़रुर कर लेना चाहिए वरना आखिरी वक्त मलाल रह जाता है।’
‘मुझे सूट नहीं करता और घर भी जाना है।’
‘जब लेती नहीं तो कैसे पता चला कि सूट नहीं करेगा। कार भी तुम खुद तो ड्राइव नहीं करतीं। फिर क्या प्रॉब्लम है।’
‘मुझे अभ्यास नहीं है।’
‘अभ्यस्त मैं भी नहीं हूँ। बाहर निकलने पर ही यह होता है। मेरे कहने से एक छोटा पेग वोदका ले कर देखो। न अच्छा लगे तो छोड़ देना।’
वह चुप हो गई।
आज की शाम श्यामल मेहमान और मेज़बान दोनों बना हुआ था।
समिधा ने एक छोटा सिप लिया उसमें कोई स्वाद नहीं था, बेस्वाद भी नहीं था, साके की तरह। ‘कब वापसी है श्यामल, कल ?’
‘नहीं कल शाम तो अरिजित सिंह का शो करुँगा। परसों की उड़ान है।’
यानी यह उनकी पहली और आखिरी शाम थी। ‘कोरोना के समय यह शो नहीं रखना चाहिए था आयोजकों को।’ समिधा ने कहा।
‘बड़ी मुश्किल से इजाज़त मिली है उन्होंने बताया। पहले कलाकार को महामारी से बचाव के संदेश सुनाने होंगे। हॉल में सिर्फ 100 दर्शक होंगे। मास्क, सेनिटाइज़र, दो गज़ की दूरी, तमाम हिदायतें।’
‘तुम्हें क्या पड़ी थी इसमें फंसने की।’
‘देखो मैदान छोड़ना मैंने कभी नहीं सीखा। फिर मैं घर में ऊब भी जाता हूँ।’
‘ऑफिस जाते हो?’
‘वह तो जाना पड़ता है लेकिन दिन दफ्तर से कहाँ कटता है।’
‘घर पहले से बेहतर हुआ होगा। तुम्हें एक दूसरे को समझने का मौका मिल रहा होगा।’
‘हम अपने अपने लैपटॉप पर लगे रहते हैं। हाँ चाय साथ पीते हैं, खाना इकट्ठे खाते हैं।’
श्यामल की आँखों में झाँका समिधा ने। एक उसांस निकल गई कलेजे से। इस इन्सान की आँखों में उमंग नहीं आशंका थी, विश्वास नहीं असुरक्षा थी। समिधा सोचा करती थी कि वह खुद एक टूटी फूटी शख्सियत है। लेकिन उसके सामने बैठा श्यामल उससे भी कहीं ज्यादा टूटा फूटा लग रहा था। अन्दर की टूट फूट का पता तभी चलता है जब हम किसी के सामने हों या कोई हमारे सामने। आँखें अंदर के तहखाने खोल देती हैं।
‘मैं एक और पेग लूँगा, तुम ?’
‘नहीं, मैं, बस।’
‘साथ तो देना होता है न। देखा हम अभी साथ हैं, आगे क्या पता कब मिलें।’
उसके सामने एक छोटा पेग और आ गया।
उनके सामने कुटकने के लिए मूँगफली, सलाद और चीज़ रखी थी। श्यामल ने टूथपिक से चीज़ का एक टुकड़ा उठाते हुए कहा, ‘यह समता तो मेरे लिए विषमता बनती जा रही है?’
‘‘क्यों कोई नया संघर्ष हुआ क्या ?’
‘नया कुछ नहीं होता। एक ही संघर्ष कर क्रमशः हम जीते रहते हैं। आजकल उसे मेरा मोबाइल जाँचने का चस्का लग गया है।’
‘क्या तुम लॉक नहीं करते ?’
‘करता हूँ, फिर भी वह पीछे पड़ी रहती है मेरे मोबाइल के।’
सुनो मेरी चैट क्लियर कर दिया करो, मैं नहीं चाहती मेरी वजह से कोई गलतफहमी पैदा हो।’
वह में कर देता हूँ। बात तुम्हारी या किसी की नहीं उसके एटीटयूड की है। बात बात में मुझसे सरकारी भाषा बोलने लगती है। ‘दो गज की दूरी’ जुमला उसे इतना पसंद आया कि हरेक पर आज़माती है।
समिधा की हँसी फूटी, ‘क्या तुम पर भी?’
‘मुझ पर तो सबसे ज़्यादा।’
‘तुम क्या करते हो ?’
देखों पलंग 6 X 6 का है। हमने अपनी अपनी दीवार चुन रखी है।’
समिधा ने श्यामल की आँखों का एकांत देखा और महसूस किया।
वह क्या सलाह देती। वह तो खुद किसी के ठंडेपन की मारी हुई थी। उसे काफी देर से वरुण की याद आ रही थी। ज़िन्दगी में पहली बार उसी के साथ सुरापान किया था। वह उसकी पहली छुट्टियां थीं। वरुण तोक्यो से साके की बॉटिल लाया था। उसने क्रिस्टल ग्लासों में डाली थी और इसरार किया था ‘समि चलो आज तुम्हारे नाम का जाम पियें।’
‘लेकिन मैं तो पीती नहीं।’ समिधा ने अपने होठों पर उलटी हथेली रख ली थी।
वरुण के आगे उसकी एक न चली। उसने एक बड़ा घूँट भर कर अपने गीले होठ उसके होठों पर रख दिये थे, ‘ज़िन्दगी जीना सीखो समि। नौकरी तो सभी करते हैं जिन्दगी की वर्णमाला का पहला अक्षर भी नहीं बोलना जानते।
समिधा को साके कसैली और बेमज़ा लगी थी। चावल का बासी, पसाया हुआ पानी। वरुण ने कहा था, ‘यही तो इसकी खासियत है। शुद्ध चावलों से बनने वाली शराब है यह।’
छह माह में ही वरुण आधा जापानी बनकर लौटा था। वहाँ के समाज की अच्छाइयों का गुणगान करता, कैम्पस पर अपने विद्यार्थियों के अनुशासन की तारीफ़ करता और जापानी स्त्रियों की खासियत गिनाता। जापानी स्त्रियाँ इतनी कोमल और कर्मठ होती हैं। सफाई पसन्द तो ऐसी कि पूछो मत। हर घर शीशे की तरह चमकता है। अब तो वहाँ सिंगिल मदर बहुत हो गई हैं। पति से नहीं पटी तो बिना हाय तौबा के अलग हो जाती हैं। सुबह अपनी साइकिल की टोकरी में बबुए जैसा बच्चा बैठा कर काम पर जाती हैं। रास्ते में बच्चा क्रैच में छोड़ती हैं।’
‘किस सोच में हो?’ श्यामल ने धीरे से पूछा।
समिधा वर्तमान में लौट आई।
शर्मिन्दा हुई। यह अतीत अब व्यतीत क्यों नहीं बन जाता। जब देखो तब चलने फिरने लगता है सामने।
एक बार उसने थोड़ा सा बताया था श्यामल को अपने बारे में।
श्यामल ने उसे निश्चिंत किया था, ‘तुम अपना जीवन जियो जैसे वरुण अपना जीवन जी रहा है।
कैसे ? क्या इतना आसान होता है। उसके पास तो कू है, इक्कीस साल की जवान, ज़हीन लड़की। मेरे घर के तो प्लेट प्याले तक पुराने हैं।’
‘फेंक दो सब। नए सिरे से ज़िन्दगी शुरु करो।’
सलाह अच्छी थी पर उम्र के छठे दशक में इस पर अमल करना दुष्कर था। हर चीज के साथ स्मृतियां थीं, कहानियां थीं।
प्रकट समिधा ने कहा, ‘अब खाना मँगाएँ, देर हो रही है।’
श्यामल ने आर्डर दिया था, अपने लिए सामिष, समिधा के लिए निरामिष। मटन दो प्याजा, तन्दूरी रोटी, दाल फ्राइ और भिंडी।
‘तुम सामिष भोजन चख कर देखो।’
श्यामल ने इसरार किया
‘न, प्लीज ऐसा मत कहो। मेरा हाल गाँधी जी से भी बुरा हो जायेगा।’
खाना आने तक श्यामल उसे अपने पहले के किए हुए स्टेज शो के क्लिप दिखाने लगा।
‘यह देखो मैंने मुम्बई में आशा भोंसले का प्रोग्राम कंडक्ट किया। कितनी जानदार परफार्मेंस थी उनकी। बिल्कुल टीनएजर की तरह मेरे साथ थिरक रही थीं।
वेटर जो अभी खाने की ट्रे लाया था, चाव से श्यामल के मोबाइल में वीडियो देखने लगा। वाकई एक जगह आशा भोंसले श्यामल का हाथ पकड़कर नृत्य की मुद्रा थी।
फिर उसने श्रेया घोषाल का लाइव शो दिखाया।
श्यामल के पास लम्बी सूची थी।
समिधा ने देख कर मोबाइल, उसे लौटाते हुए कहा
‘तुम अपनी सारी रचनात्मकता फिज़ूल खर्च कर देते हो। इसमें तुम्हें क्या लाभ है?’
श्यामल को बुरा लगा, ‘मैं लाभ हानि देख कर कोई काम नहीं करता। जिसमें मेरा मन लगे, वह करता हूँ।’
‘ओह मैने सोचा बैंक वाले तो लाभ हानि ज़रुर सोचते होंगे।’
समिधा मुस्कुरा दी।
‘अपनी कोई किताब नहीं लाईं मेरे लिए?’ श्यामल ने कहा।
‘तुमने कब माँगी?’
‘औरतों के साथ यही मुश्किल है। दोस्ती मैं कुछ नहीं देतीं। याचना से ही देती हैं।’
‘इस सामान्यीकरण को तुम्हारा अतिकथन समझा जाय श्यामल। मैं सामान्य श्रेणी से ज़रा ऊपर हूँ।’
‘एक कलाकार दूसरे कलाकार को इसके सिवा और क्या दे सकता है?’ श्यामल ने कहा
समिधा विस्मय और विभ्रम में उसकी तरफ देखती रही। ‘तुम सोच रही होंगी मैं कहां का कलाकार। दूसरों के कलाम अपनी आवाज़ में सुना कर मजमा जमाता हूँ, तालियां बटोरता हूँ।’
‘मैंने ऐसा कुछ भी नहीं सोचा। यह देखो मेरी किताबें। कौन सी पढ़ोगे मैं अभी तुम्हारे पते पर ऑर्डर कर दूं’, समिधा ने अपने मोबाइल में ऐमेज़ॉन पर क्लिक किया।
‘रहने दो मैं मँगाना जानता हूँ’ श्यामल ने कहा। उसने एक नज़र किताबों पर डाली, ‘बाप रे बहुत ज़्यादा हैं। इतनी क्यों लिख डालीं?’ और क्या करुँ। करने को कुछ है भी नहीं।’ समिधा ने कहा। फिंगर बोल में हाथ धोते हुए उसे वापस जाने की जल्दी हो गई। उसे सुरुर और नींद की डगमग अब बैचैन कर रही थी।
शायद कार में उसकी झपकी लग गई। उसे नहीं पता चला कब वह घर पहुँची। उसकी तन्द्रा तब खुली जब ड्राइवर ने कहा, ‘मैडम गाड़ी बेसमेंट में खड़ी करें या ऊपर?’
‘ऊपर’ उसने चौंक कर कहा और अपने को जगाया। ड्राइवर ने कार लॉक कर उसे चाभी सौंपी। और अपनी मोटरबाइक की तरफ़ बढ़ गया।

ऊपर आकर समिधा ने जैसे तैसे कपड़े उतारकर नाइटी पहनी। वॉशरुम जा कर कुछ हल्की हुई। दाँत साफ किए, मुंह धोया, कोल्डक्रीम लगाई और बिस्तर पर लेट गई। नींद का क्रमशः आँखों में अटका था।
रात आधी थी या पौनी जब सूखते होठों पर जुबान फेरते हुए समिधा ने आदतन सिरहाने हाथ बढ़ाया कि देखे क्या बजा है।
वहाँ मोबाइल नहीं था।
दिमाग खट् से जाग गया। कहां है मोबाइल। रुमाल और पर्स वहीं बिस्तर पर पड़े थे। उसने पर्स की पॉकेट टटोलीं। मोबाइल वहां भी नही था। समिधा ने उठकर कमरे की बिजली जलाई। मोबाइल कहाँ रख दिया? वह हैरान हो गई।
एक बार वॉशरुम जाकर देखा। वहाँ भी मोबाइल नही था। उसने आगे का कमरा, दोनों मेजें, सोफा, सब देखा, मोबाइल नदारद।
अब चिंता शुरु हुई।
कहाँ छोड़ आई मोबाइल।
घर का एकमात्र संचार माध्यम।
न कोई लैंडलाइन न दूसरा फोन।
क्या श्यामल के कमरे पर छोड़ दिया।
नहीं वहाँ से जाकर तो उन्होंने रेस्तरां में खाना खाया था।
तब मोबाइल उसके पास था।
दीवार-घड़ी में तीन बजे हुए थे। इस वक्त किसी को भी जगाना मुमकिन न था। फिर इस कालोनी में किसी से इतनी आत्मीयता भी नही थी कि वह कॉल बैल दबा दे।
नींद हवा हो गई।
मुँह का स्वाद बेस्वाद लग रहा था। उसने थोड़ा सा पानी पिया तो मिचली हुई और वह वॉशबेसिन पर भागी। उलटी के बाद दिमाग थोड़ा सचेत हुआ।
वह अपनी शाम रीकेप करने लगी। सात बजे रॉयल होटल पहुंची। वहां दार्जिलिंग चाय पर बातें हुई। आठ बजे वे दोनों नीचे आए। तब मोबाइल उसके हाथ में था।
रॉयल रेस्तरां की सीढ़ियाँ चढ़े। जब ड्रिक्स की बात चली उसने मोबाइल मेज़ पर रखा था। कितनी देर वे आपस में बोलते रहे।
लेकिन समिधा को यह उलझन बराबर होती रही कि जो खुलापन और दोस्ती उनके बीच मोबाइल पर रहती, वह आमने सामने गायब थी। ड्रिंक्स पर वे थोड़े खिले और खुले।
याद है श्यामल ने उसे छेड़ा था, ‘तुम तो ऐसे सध कर पी रही हो, जैसे लम्बा अभ्यास हो। धीरे धीरे, सिप बाय सिप।’
‘मुझे होश खोना पसन्द नहीं’ समिधा ने सतर्क उत्तर दिया था।
‘मुझे होश में रहने से चिढ़ है। ‘श्यामल ने कह कर एक लम्बा घूँट लिया था।
वास्तव में वे दो ध्रुव थे व्यक्तित्व और विचारों में। उनमें उम्र का फासला भी खूब था। समिधा बार बार अपने को आगाह करती कि उसके मुँह से आठवें नौवें दशक की वे बाते’ न निकल जाये जिनका कोई इल्म श्यामल को नहीं।
वह पिछले बीस सालों की समकालीनता टटोलती इसीलिए जब वह आशा भोंसले के कार्यक्रम का वीडियो क्लिप दिखा रहा था, समिधा को वह बहुत बचकाना लगा।
तब तक भी मोबाइल उसके सामने रखा था।
फिर वह भी बिखरने लगी थी उसे दार्जिलिंग की ऊँची नीची ड्राइव और खड्ड में बहती तीस्ता नदी। उसने रास्ते के बंदर दिखाए और हाथियों के झुण्ड।
हाँ याद आया उसने अपनी किताबों की फेहरिश्त भी दिखाई थी आखिर में।
कोई किताब ऑर्डर नहीं की थी।
श्यामल उसकी पुस्तकों के आवरण देख रहा था। हो सकता है मोबाइल उसके पास छूट गया हो। उससे कैसे सम्पर्क हो। सुबह वह किसी पड़ोसी से फोन उधार लेकर सम्पर्क करेगी तो किस नंबर पर। उसे तो श्यामल का फोन नंबर तक याद नहीं। उसे टिब्बू का भी नंबर याद नहीं। कभी ज़रुरत नहीं पड़ी मुँह जुबानी नंबर याद करने की। यहाँ तक कि ड्राइवर का नंबर भी उसे कहाँ पता है। सब कुछ मोबाइल डायरी में दर्ज है। ले देकर वह अपना नंबर याद है या वरुण का क्योंकि वह तुकबंधा नंबर उसके ध्यान में नाचता रहता है।

तभी उसके दिमाग की ट्यूबलाइट जली। बाहरी कमरे में लैपटॉप है। वह ई मेल कर सकती है। पहले कई बार की है। उसका ई मेल आईडी होगा इनबॉक्स में इस समय, साढ़े तीन बजे।
कोई बात नहीं। जब उठेगा देख लेगा। कल वह पूरे दिन शो में लगा रहेगा। परसों उसकी वापसी है। कहीं फोन बैग में पटककर इन्दौर न चला जाय।
नींद काफूर हो चुकी थी।
धड़कते दिल से उसने उसका ई मेल आईडी ढूंढा। मिल गया। उसने लिखा, ‘सुनो श्यामल क्या मेरा मोबाइल तुम्हारे पास है। मुझे जल्द से जल्द ला देना। घर में और कोई फोन नहीं है। मैं टिन्नू को नहीं बताना चाहती।’ थोड़ी देर वह टकटकी लगाए अपनी प्रेषित डाक देखती रही।
अभी मेल देखी वहीं गई।
लैपटाॅप वैसा ही खुला छोड़ समिधा बिस्तर पर आ गई। नींद तबाह हो चुकी थी। करवटें लेती रही। उसे याद आती गईं अपनी बेवकूफियाँ। कैसे एक बार रेल में वह अपना मोबाइल भूल आई थी। तब भी ऐसी चकरघिन्नी बैठी रह गई थी घर में। हार कर तन्मय को ई मेल किया था। उसने मोबाइल का लोकेशन शेयरिंग पर लगा रखा था। उसी ने बताया कि मोबाइल रेल में है। दो तीन घण्टों की कवायद से मोबाइल हाथ आया था। सबसे यादगार बात यह थी कि जिस कोच अटैन्डेंट ने उसका फोन संभाल कर रखा था वह रेलवे का अस्थायी कर्मचारी था। आफताब नाम था उसका। वह चाहता तो सिमकार्ड निकाल कर मोबाइल पर कब्जा कर सकता था लेकिन नहीं उसने वह फोन ज्यों का त्यों वापस कर दिया।
इससे पहले एक बार वह टिन्नू के घर बम्बई में ही मोबाइल भूल आई थी। एयरपोर्ट पहुँच कर ध्यान आया तब तक उड़ान का समय हो चुका था। एयरपोर्ट से तन्मय का घर चालीस किलोमीटर पर था।
लेकिन उन वक्तों में फोन सस्ते थे। टिन्नू ने तुरंत उसके लिए दूसरा मोबाइल ऑर्डर कर दिया था और पहला संभाल कर घर में रख दिया।
समिधा दिन भर में इतनी व्यस्तताओं का प्रबन्धन कर लेती है। क्लासें पढ़ाना, शोध छात्रों को निर्देशित करना, डायरी लिखना, किसी न किसी मीटिंग में भाग लेना लेकिन उसका निजी प्रबन्धन औंधा है। कभी बाई नहीं आती तो सारा दिन चाय पर गुजार देती है। नहा कर जब तैयार होती है तो जो साड़ी पहनना चाहती है, उसके मेल का ब्लाउज़ ढूँढे से नहीं मिलता। अक्सर कॉन्ट्रस्ट रंग का ब्लाउज़ पहन कर कॉलेज जाती हैं उसे लगता रहता है इस अकेले घर में सभी चीज़ों में पहिए लगे हुए हैं। कोई भी सामान अपनी सही जगह पर नहीं मिलता। जब जो किताब ढूँढती है, कभी नहीं मिलती। हार कर नई प्रति ऑर्डर कर देती है। जिस दिन किताब आती है कूरियर से, उस दिन वह पहले वाली प्रति फट से दिख जाती है। आलमारी में, उसका दिल जलाती, उसके बजट में आग लगाती।
बार बार वह लैपटॉप खोल कर देखती रही। श्यामल ने ई मेल देखा ही नहीं। शाम चार बजे जब वह मन बना रही थी कि जाने दो, इस बार कोई सस्ता सा मोबाइल खरीद ले ताकि खाने का अफसोस न हो। यकायक लैपटॉप पर श्यामल का जवाब दिखा, ‘बहुत व्यस्त हूं। रात में बात करुंगा।’
तसल्ली के साथ तड़प उठी। क्या वह एक शब्द भी फोन के बारें में नहीं लिख सकता था। उसके पास है या रेस्तरां में ही छूट गया। वहां छूटा होगा तो अब तक क्या पड़ा रहेगा। किसी न किसी की जेब में पहुंच गया होगा।

श्यामल पर झुँझलाहट हुई। पुराना मर्ज़ है उसका। जो पूछो उसका जवाब नदारद।
कभी बेवक्त फोन करेगा। अगर पूछो, ‘क्या आज ऑफिस नहीं गए?’
श्यामल जवाब देगा, ‘अपनी सुनाओ, कौन सा नया किस्सा गढ़ रही हो?’
वह फोन करती है तो कभी नहीं उठाता फोन। लेकिन अगर श्यामल खुद करे और वह कहीं काम में फंसी हो तो जीना दूभर कर देता है, ‘क्यों नहीं उठाया फोन? कहाँ हो। क्या कर रही हो। कहाँ बैठी हो?’
रात तक का वक्त काटना आसान नहीं था।
बेमन से उसने टीवी चलाया। आजकल खबरें देखने में मन नहीं लगता। रिपोर्ट की जगह खण्डन-विखण्डन, धरना-प्रदर्शन, हिंसा-अपराध के विवरण रहते हैं। ऐसा लगता है कहीं कोई सकारात्म्कता नहीं बची है। जैसे कोविड-19 का संदेश सुनाया जाता है वैसे कुछ चैनेल सरकार की सराहना में कुछ घोषणाएं करते हैं। ऊब कर समिधा बहुधा दस मिनट में टीवी बंद कर देती है। आज की विकट ऊब में वह यों ही चैनल स्क्रोल कर रही थी कि एक चैनल पर खबर पढ़ने में आया ‘आज नोयडा में अरिजित सिंह के लाइव शो में स्टेज टूटने से कलाकार चोटिल।’ समिधा का जी धक्क रह गया। हे भगवान यही शो तो आज श्यामल को करना था। उसका क्या हुआ ? वह भी स्टेज पर रहा होगा।
उसने घबराकर ‘आज तक’ चैनेल लगाया। वहाँ भी कोई सजीव समाचार नहीं था, कोविड 19 का विश्व दर्शन दिखाया जा रहा था।
समिधा के दिल में अब मोबाइल की जगह श्यामल की चिन्ता आ समायी। कैसे पता करे। कहाँ होगा वह ! वह ईमेल करे। अगर उसे चोट आई हैं तो वह ईमेल कैसे देखेगा। नोयडा इतना बड़ा है कहाँ आयोजन था, उसे कुछ भी तो खबर नहीं।
समिधा की भूख प्यास सब सूख गई।
वह अन्दाज़ लगाने लगी। अपने कॉलेज की स्टेज को ध्यान में रख कर सोचा कहाँ गायक खड़ा होगा। कहाँ उद्घोषक का माइक होगा। ऊपर नीचे कर सारे खबरिया चैनेल खंगाल लिए। कहीं खबर का खुलासा नहीं था। नोयडा में रहने वाली दोस्तों के नम्बर भी याद नहीं थे। कोरोना के कारण कॉलोनी ऐसी निर्जन पड़ी थी जैसे सब यहां से कूच कर गए हों। कॉलोनी के लम्बे चौड़े परिसर में मुश्किल से तीन बल्ब जलते हुए दिखाई दे रहे थे जो अंधेरे को और गाढ़ा कर रहे थे।
बुझे हुए मन से ही उसने चाय की केतली का प्लग लगाया। एक प्याला पानी मिनटों में उबल गया। दूध, चीनी डालने की इच्छा नहीं हुई। एक रस्क और चाय ले कर अपने कमरे में आ गई।
उसने रसोई की बिजली बन्द की। बैठक की रोशनी रहने दी। अपने कमरे में लेट कर तय करने लगी क्या पढ़े। बिस्तर पर कई किताबों पड़ी थीं। उसने ढेर सी साहित्यिक पुस्तकों को छोड़ जासूसी उपन्यास ‘तकदीर का तोहफ़ा’ उठाया। रात से अब तक दिमाग इतना तन्ना और भन्ना गया था कि वह उस पर और बोझ नहीं डालना चाहती थी।
कॉफी रात गए घर की कॉलबैल की तीखी आवाज़ से उसकी नींद टूटी। तुरन्त ख्याल आया कहीं श्यामल न हो। इसका मतलब वह सही सलामत है। उसने भाग कर दरवाजा खोला।
सच में द्वार पर श्यामल था, एक अनजान व्यक्ति के साथ।
‘आओ श्यामल। क्या हुआ। तुम ठीक तो हो न।’ समिधा ने कहते हुए ही देख लिया कि उसका दाहिना हाथ स्लिंग में बंधा है और चाल भी अस्थिर है।
पकड़ कर उसे सोफे पर बिठाया, ‘तुम मंच पर थे?’
‘और कहाँ होता!’ श्यामल ने कहा।
उसके साथ आयोजन मंडल का कोई सदस्य था जिसका नाम विपिन मदान था।
समिधा पानी लाई।
‘खाना खाओंगे’ उसने पूछा।
श्यामल ने बायें हाथ से उसका मोबाइल जेब से निकाल कर मेज़ पर रखा, ‘लो सँभाल लो। यहाँ वहाँ छोड़कर चल देती हो। वैसे सारा दिन ज्ञान बाँटने का धन्धा करती हो।’
तकलीफ में भी वह हँसा।
समिधा फूल की तरह हलकी हो गई। श्यामल की बाँह पर छू कर शुक्रिया जताया। साथ आये शख्स से कहा, ‘इन्हें इतनी चोट कैसे लग गई। आप लोगों की ज़िम्मेदारी थी कि सही इन्तज़ाम करते।’
‘क्या बताएँ मैडम, हॉल में सिर्फ सौ लोगों को दाखिल किया था। अचानक गेट क्रैश करके भीड़ आ गई। लड़के स्टेज पर आकर डांस करने लगे। कॉन्ट्रेक्टर ने तख्त जोड़ कर स्टेज बनाया था। लड़कों के धमाल से धसक गया।’
‘अब इनको क्या इलाज दिया गया है? दवायें, इंजेक्शन?’
‘मैडम सर को बाँह में हेयरलाइन फ्रेक्चर है। पैर में मामूली मोच आई है। सर की दवाओं का किट नीचे टैक्सी में रखा है।’
समिधा ने गम्भीर होकर कहा, ‘निहायत गैर जिम्मेदार है आप लोग। इतना बड़ा प्रोग्राम करते हैं और कोई माकूल इन्तज़ाम नहीं। आप इनका सामान ऊपर दे जाइए। इन्हें आराम करने दीजिए।’
श्यामल ने प्रतिवाद किया, ‘इनसे क्यों बिगड़ रही हो। सुनो मैं रुकूँगा नहीं। तुम्हारा मोबाइल देने आया था। मेरा जाना जरुरी है।’
‘तबियत से ज़्यादा ज़रुरी कुछ नहीं’ समिधा ने अधिकारपूर्वक ककहा, ‘आराम करो। पास में मैक्स हॉस्पिटल है। कल वहां एक्सरे वगैरह करवा लेंगे।’
‘वह सब हो चुका है समि। मुझे जाने दो। इलाज इन्दौर में भी हो जायेगा।’
‘नहीं मैं तुम्हें ऐसे हाल में हरगिज नहीं जाने दूँगी।’
‘समझो मेरी बात। देखो समता के पास मेरा होना जरुरी है। उसे किसी भी वक्त अस्पताल दाखिल करने की जरुरत पड़ सकती है। दरअसल मुझे इस शो में आना ही नहीं था।’
समिधा अकबका कर श्यामल की तरफ देखने लगी, ‘तुम्हारा मतलब ? अच्छा तो तुम्हारे यहाँ खुशखबरी आने वाली है। अरे वाह। मुबारक।’
श्यामल, विपिन मदान का सहारा लेकर खड़ा हो गया, ‘चलता हूँ समिधा, ध्यान रखना अपना और मोबाइल का भी।’
समिधा श्यामल को लिफ्ट तक जाते देखती रही। लिफ्ट आकर दोनों को अपने अन्दर समा कर चली भी गई। फिर भी समिधा खुले दरवाजे पर खड़ी ताकती रही सूना गलियारा। आखिरकर उसने दरवाज़ा बन्द किया। मोबाइल में चार्जिंग खत्म थी। बिना चार्ज हुए वह सिर्फ प्लास्टिक का एक टुकड़ा था, बेमतलब, बेजान और फालतू। चार्ज हो जाने पर यही मोबाइल कितनी बकबक कह लेता है, सह लेता है। ज्ञानी, ध्यानी और समझदार लोग जानते हैं चैट एक शगल है। चैट करो। डिलीट दबाओ। भूल जाओ।
इंदौर में उसका दोस्त एक नॉर्मल ज़िन्दगी जी रहा है, कितनी बड़ी बात है !
उसे ज़्यादा चोट नहीं लगी, कितनी बड़ी बात है !
मोबाइल सही सलामत मिल गया, कितनी बड़ी बात है !
जीवन हर हाल में चलता रहता है, कितनी बड़ी बात है !
‘दो गज़ की दूरी, मास्क है ज़रुरी’ एक सरकारी जुमला है। नहीं वह नींद की गोली नहीं खायेगी। यह तो जागने का समय है।

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ममता कालिया

ममता कालिया का जन्म 2 नवम्बर, 1940 को वृन्दावन में हुआ। आपकी शिक्षा दिल्ली, मुम्बई, पुणे, नागपुर और इन्दौर शहरों में हुई। आप कहानी, नाटक, उपन्यास, निबन्ध, कविता और पत्रकारिता अर्थात् साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं। हिन्दी कथा साहित्य के परिदृश्य पर आपकी उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। आप महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक अंग्रेज़ी पत्रिका ‘HINDI’ की सम्पादक भी रह चुकी हैं।
आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं : ‘बेघर’, ‘नरक-दर-नरक’, ‘दौड़’, ‘दुक्खम सुक्खम’, ‘सपनोंकी होम डिलिवरी’, ‘कल्‍चर-वल्चर’ (उपन्यास); ‘छुटकारा’, ‘उसका यौवन’, ‘मुखौटा’, ‘जाँचअभी जारी है’, ‘सीट नम्बर छह’, ‘निर्मोही’, ‘प्रतिदिन’, ‘थोड़ा-सा प्रगतिशील’, ‘एक अदद औरत’, ‘बोलनेवाली औरत’, ‘पच्‍चीस साल की लड़की’, ‘ख़ुशक़िस्‍मत’, दो खंडों में अब तक की सम्पूर्ण कहानियाँ ‘ममता कालिया की कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह);
‘A Tribute to Papa and other Poems’, ‘Poems ’78’, ‘खाँटी घरेलू औरत’, ‘कितने प्रश्न करूँ’, ‘पचास कविताएँ’ (कविता-संग्रह); ‘आप न बदलेंगे’ (एकांकी-संग्रह); ‘कल परसों के बरसों’, ‘सफ़र में हमसफ़र’, ‘कितने शहरों में कितनी बार’, ‘अन्‍दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा’ (संस्‍मरण); ‘भविष्‍य का स्‍त्री-विमर्श’, ‘स्‍त्री-विमर्श का यथार्थ’, ‘स्‍त्री-विमर्श के तेवर’ (स्त्री-विमर्श); ‘महिला लेखन के सौ वर्ष’ (सम्‍पादन)।
आप ‘व्यास सम्मान’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘यशपाल स्मृति सम्मान’, ‘महादेवी स्मृति पुरस्कार’, ‘राममनोहर लोहिया सम्मान’, ‘कमलेश्वर स्मृति सम्मान’, ‘सावित्री बाई फुले स्मृति सम्मान’, ‘अमृत सम्मान’, ‘लमही सम्मान’, ‘सीता पुरस्कार’ ढींगरा फैमिली फ़ाउंडेशन, अमेरिका का ‘लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’, ‘ओ.पी. मालवीयस्मृति सम्मान’ से सम्मानित की जा चुकी हैं।

ममता कालिया
बी 3ए/303 सुशांत एक्वापोलिस
क्रांसिंग्ज़ रिपब्लिक
गाज़ियाबाद— 201016
मो. 9212741322
ई-मेल : mamtakalia011@gmail.com

 


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