धूमिल, गोरख पाण्डे और मान बहादुर सिंह के बाद अष्टभुजा शुक्ल ऐसे कवि हैं जो अपने गंवई अंदाज़ में समय को ज़ुबान देते हैं। समाज के तल में बैठे दुख को वे छूते भर हैं कि वह व्यवस्था सामने आ जाती है जो हमें कहीं का नहीं छोड़ रही है। हिंदी कविता में आज लोकेल – स्थानीयता तकरीबन ग़ायब है – अष्टभुजा स्थानीयता को अर्थ देकर कवित्त का ऐसा संसार रचते हैं कि एक व्यक्ति की पीड़ा सारे संसार की अपनी हो जाती है। अष्टभुजा की कविता में एक प्ले है – Joyful Style जिसमें रुदन नहीं, जुझारूपन है जो अपनी जातीय परम्परा की तरफ़ इशारा करता है। आमीन آمین ۔ – हरि भटनागर
कविताएँ
1. आज की रात
कल जो जो कहोगे
वो वो बना दूँगी
प्याज, लहसुन, नमक और हरी मिर्च मिलाकर
सेंक दूँगी खरी खरी गुदगर रोटी
मजूरी के बदले उस दिन
बडे़ बाबू ने जो
पुरानी नीली वाली कमीज दी थी
फींच दूँगी उसे लकालक
अपनी भूख में से
आधी भूख मुझे दे दो
मेरी खटिया में से
आधी खटिया ले लो
मेरी कथरी से
दो तिहाई कथरी चाहो तो
पूरी चादर ले लो
या ओढ़ लो
मेरी आधी साड़ी ही
जहाँ मन हो वहाँ
रख लो मेरे बदन पर
अपना हाथ
मेरी नींद में से
आधी नींद ले लो
लेकिन हाथ जोड़ती हूँ
बगल में सोए
बिट्टू की कसम
आज रहने दो .
2. अब क्या होगा
इसी गाँव पर हमें नाज
वनराज सरीखा
इसी गाँव में हम पर
थू थू करनेवाले
उस टोले में धारासार
बरसती लक्ष्मी
इस टोले में पड़े हुए
रोटी के लाले
इसी हवा में अपनी भी
दो चार साँस है
इसी तवे पर अपनी भी
दो एक चपाती
इस झलकी में अपने
नाखूनों का सत है
इन सफेदपोशों में
कुछ शातिर अपघाती
इसी समय में समय
एक भारी विमर्श है
इसी देश में देश
एक लम्बा आलाप
इन क्षोभों में अपने कुछ
एतराज़ दर्ज़ हैं
इसी कीर्तिगाथा में कुछ अपने अपलाप
सत्याग्रह में इसी
चंद पाल्थियाँ हमारी
असहयोग में अपने भी
ये मूक नयन
वैचारिक हिंसा पर
उतरे कोविद जन
क्या होगा कैसे अब
रे रे गांधी मन! .
3. जवान होते बेटो !
जवान होते बेटो!
इतना झुकना इतना कि
समतल भी खुद को
तुमसे ऊँचा समझे
कि चींटी भी तुम्हारे
पेट के नीचे से
अदबी निकल जाए
लेकिन झुकने का कटोरा लेकर
मत खड़े होना
किसी घाटी में कि
ऊपर से किसी कृपा की
बरसात हो
इस उमर में इच्छाएँ
कंचे की गोलियाँ होती हैं
कोई कंचा फूट जाए
तो विलाप मत करना
आँखें सुजाकर
और कोई
आगे निकल जाए तो
तालियाँ बजाते चहकना
कि फूल झरने लगें
किसी को
भीख न दे पाना
तो कोई बात नहीं
लेकिन किसी की
तुमडी़ मत फोड़ना
किसी परेशानी में
पड़े हुए की तरह
मत दिखाई देना
किसी परेशानी में से
निकलकर आते हुए
की तरह दिखाई देना
कोई लड़की
तुमसे प्रेम न करती हो
तो कोई लड़की
तुमसे प्रेम कर सके
इस लायक
खुद को तैयार करना
जवान होते बेटों!
इस उमर में
संभव हो तो
घंटे आध घंटे
मोबाइल का स्विच ऑफ
करने की कोशिश करना
और इतनी चिकनी
होती जाती दुनिया में
कुछ खुरदरे बने रहने की कोशिश करना
जवान होते बेटो!
जवानी में
न बूढ़ा बन जाना
अच्छा होता है
न एकदम शिशु
यद्यपि कि बेटो
यह उपदेश देने का ही
समय है
फिर भी तुम्हारा फर्ज़ है
कोई भी
उपदेश न मानना .
4. यह बनारस है
सभ्यता का जल
यहीं से जाता है
सभ्यता की राख
यहीं आती है
लेकिन यहाँ से
सभ्यता का कोई चक्रवात नहीं उठता
और न ही यहाँ
सभ्यता की कोई
आँधी आती है
यह बनारस है
चाहे सारनाथ की
ओर से आओ
या लहरतारा की ओर से
वरुणा की ओर से आओ
या गंगा की ओर से
इलाहाबाद की ओर से आओ या
मुगलसराय की ओर से
डमरू वाले की सौगंध
यह बनारस यहीं
और इसी तरह मिलेगा
ठगों से ठगड़ी में
संतों से सधुक्कड़ी में
अंग्रेजों से अंग्रेजी और
पण्डितों से संस्कृत में
बौद्धों से पालि
पंडों से पंडयी और
गुंडयी में
लेकिन आपस में भोजपुरी में बतियाता हुआ यह
बहुभाषाभाषी बनारस है
गुरु से संबोधन करके
किसी गाली पर
ले जाकर पटक देने वाले बनारस में
सब सबके गुरू हैं
रिक्शेवाले गुरू हैं
पानवाले गुरू हैं
पंडे,मल्लाह, मुल्ले, माली और डोम गुरू हैं
नाई गुरू है, भाई गुरू है
कसाई गुरू हैं कामरेड गुरू हैं
शिष्य गुरू हैं और
गुरू तो गुरू हैं ही
फिर भी गुरु के बारे में
सबके अनुभव
अलग अलग हैं
किसी के लेखे
गंगा ही गुरु है
किसी के लेखे
ज्ञान ही गुरु है
किसी के लेखे
स्त्री गुरू है
किसी के लेखे
सीढ़ियाँ ही गुरू हैं
किसी के लेखे गाइड गुरू हैं
किसी के लेखे विभागाध्यक्ष सत्गुरु हैं
किसी के लेखे
ठेस ही गुरू है
बनारस में
बनारसी बाघ हैं
बनारसी माघ हैं
बनारसी घाघ हैं
बनारसी जगन्नाथ हैं
शैव हैं, वैष्णव हैं, सिद्ध हैं कबीरपंथी नाथ हैं
जगह जगह लगती हैं
यहाँ लोक अदालतें
कहने को तो कचहरी भी है बनारस में
लेकिन यहाँ
सबकी गवाह गंगा और
न्यायाधीश विश्वनाथ हैं
बनारस में मल्ल हैं
अखाड़े हैं,मठ हैं, आश्रम हैं
व्यायाम, प्राणायाम है
यहाँ सबका
बदन गीला है
लेकिन जाने क्यों
हर कोई
थोड़ा थोड़ा ढीला है
किसी बनारसी को
परिचय पत्र की जरूरत नहीं
लगता है समूचा बनारस
सिर्फ गंगा की
एक बूँद से बना है
मूल है बनारस
गंगा तना है
किसी को जोगी, किसी को जती,किसी को औघड़, किसी को स्कालर, किसी को कवि,किसी को भाँड़,किसी को गँजेड़ी-भँगेड़ी,किसी को सांड़
बना देता है बनारस
शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी
चंद्रघण्टा, सिद्धिदात्री आदि नवदुर्गा, भैरव, संकटमोचन आदि
बज्रहृदय पत्थर के देवी
देवता खड़े हैं यहाँ
ताक रहे हैं टुकुर टुकुर
गंगा भी खड़ी हैं यहाँ
पानी की भी प्रतिमा
बनी है बनारस में
जो भी बनारस जाता है
कोई सिर के बाल
कोई जेब,कोई मन, कोई तन अर्थात्
कुछ न कुछ खोकर ही जाता है
और जब कोई
बनारस से जाता है
हरी झंडी की तरह बनारस अपने दोनों हाथ
हिलाता है .
5. जीवन वृत्तांत
उठाया ही था
अभी पहला कौर
कि पगहा तुड़ाकर भैंस
भागी कहीं और
पहुँचा ही था अभी
खेत में पानी
कि ‘छप्पर में आग लगी’
बिटिया चिल्लानी
आरम्भ ही किया था
गीत के बोल
कि ढोलकिया के अनुसार
फूट गई ढोल
एक हाथ जोड़ा तो
टूट गया डेढ़ हाथ
यही सारा जीवन वृत्तांत
रहा दीनानाथ ! .
6. 11वीं की छात्रा
बचपन में
वर्णमाला सीखने की
ऐसी लगन थी
उसके भीतर कि वह
अपनी अँगुली को
कलम बना लेती
और जमीन को कागज
इतनी अलंकारप्रिय थी
कि बबूल के
फलों को मोड़कर
कलाइयों में
कंगन की तरह डाल लेती
महुए के फूलों को गूंथकर मटरमाला पहनती
भूने हुए चने को छीलकर
सोने के लॉकेट की तरह
पहनने के बारे में सोचती
मुल्तानी मिट्टी
और हल्दी पिस जातीं
पत्थर के नीचे
उसे कांति देने के लिए
मुस्कान ने उसे
अपने होंठ दिए थे
भिंडियों ने अंगुलिपना
तीसी के फूलों ने
नीली नीली बत्तियाँ
एकांत रुदन और
सामूहिक हँसी में
अडिग विश्वास था उसका
अचानक उसने अपना
साँचा तोड़ दिया था
जैसे रात भर बाद की लौकी
या हो गई हो
25 दिसंबर
या टूटी म्यान से
दिख रही हो
तलवार की नोक
कैरियर में बैग दबाकर
अपनी खड़ी साइकिल को देखती तो
विश्राम और तेजी में एक प्रतियोगिता
छिड़ जाती
साइकिल की गद्दी पर
हाथ फेरती तो
साइकिल सारंगी, बादल, पवन या चेतक
जैसी सिहर जाती
बारहवें किलोमीटर तक
पहुँच कर वह
ग्यारहवें किलोमीटर तक
पहुँचे समय की प्रतीक्षा
कर रही है वह
फिलहाल आण्डाल,अक्क,मीरा, लक्ष्मीबाई, ऊदादेवी,तलाश कुँवरि, महादेवी, इंदिरा, कल्पना चावला, मदाम क्यूरी आदि बनने के पहले वह साइकिल से
सावित्रीबाई फुले स्कूल पहुँचना चाहती है
आकाश की बिजलियों!
गिरना तो किसी ठूँठ पर गिरना
भारी वाहन के चालकों
अपनी बेटी को याद करते हुए चलाना
उड़ते हुए परिंदों!
उसे छाया करते हुए उड़ना
शुभकामनाएं पत्रकारों!कि रिजल्ट आने पर
मुखपृष्ठ पर उसका फोटो छाप सको
लेकिन हे साइकिल की चेन!
उतरना तो बीच में मत उतरना .
7.कलाकार
जाने दो जड़ों को
तनों को जाने दो
जाने दो कंटकों को भी
लेकिन कम से कम
पत्तियाँ तो
सबकी कोमल होती हैं
पर हे खजूर!
तुम्हारी तो पत्तियाँ भी
इतनी नुकीली हैं
और गजब की चोखार
फिर हम भी तो ठहरे कलाकार
उन्हीं से बनाएंगे झाड़ू
और बुनेंगे चटाइयाँ
बैठकर रमजान में
चुभलाएंगे तुम्हारे फल
बूँद बूँद चुवायेंगे तुम्हें
तुम्हीं से बुहारकर
तुम्हीं पर बैठाएंगे
अपने थके माँदे अतिथियों को घूँट घूँट पिलाएंगे तुम्हारा ही आसव .
8. जो हूँ,सो हूँ
अब भाई
जो हूँ,सो हूँ
कोई टीवी तो हूँ नहीं
कि दाएँ बाएँ कर दो रिमोट
तो दृश्य दर दृश्य बदलता जाऊँ
कोई बोतल तो हूँ नहीं
कि खोल दो ढक्कन तो
आ जाऊँगा सामने
कोई लिफ्ट तो हूँ नहीं
कि दबा दो बटन तो
होने लगूँ ऊपर नीचे
आम का पेड़ हूँ भाई
शीशम की तरह केवल
तना ही तना तो नहीं रह सकता
वैसे थोड़ी बहुत गाँठ
तो हर लकड़ी में
होती ही होती है
फिर भी हमारी लकड़ी
थोड़ी कच्ची तो है ही
इसमें आसानी से धँस जाएगी काँटी
चल सकते हैं आरी और रन्दे फर्राटे से हम पर
लेकिन भाई
मौसम आने पर
आ सकती हैं मंजरियाँ भी हममें
फल सकते हैं भाई
और चाहते हैं कि जब
पकने लगें हम
तो सुत उठकर कोई
धीरे से हिला ले हमें
इतनी आवृत्ति से
कि हमारे कच्चे फल
कदापि न टूटें
बावजूद इसके
कोई तना ही
देखना चाहता है तो
तने में भी तने
केले के तने हैं हम
परत दर परत
दुनिया में सबसे लंबी चौड़ी पत्तियाँ भी
हमारी ही हैं भाई
और सबसे बड़ा कत्थई फूल भी हमारा ही है
फूल से
ज्यों ज्यों झरते हैं
एक एक दल
पंजे के पंजे फल
निकलते हैं
नन्हीं नन्हीं अँगुलियों जैसे
और घौद ऐसी कि शायद किसी दिन
लिए दिए भहरा पड़ूँ
तने सहित
अपने ही भार से
फिर भी
हमारे बगल से ही
निकल आएगी
कोई नई पुत्ती
कभी निष्फल
नहीं होने पाएगा
यह संसार .
9. सहानुभूति
जब
दो लोगों के सुख
एकसमान होंगे
तो दोनों ही
खोल खोलकर दिखाएंगे
एक दूसरे को
अपना अपना सुख
लेकिन जब
दो लोगों की परेशानियाँ
एकसमान होंगी
तो उनमें से
किसी एक को
छिपानी ही पड़ेगी
अपनी तकलीफ़
अगले को
थामने के लिए .
10. पकी फसल
पकी फसल
काट ले गए होते
दिन दहाड़े
आँखों के सामने
तो भी
उतना दुःख नहीं होता
जितना कि
कच्ची फसल काटकर
छोड़ गए खेतों में
रातों रात .
11.अभी कहाँ मानुष बन पाया
अभी कहाँ मानुष बन पाया
गढ़ने वाला कहाँ चाक को अंतिम बार घुमाया
कितने साँचे बने और टूटी कितनी छवि-छाया
हुई कहाँ चुम्बन की इति या इति प्रवेश पर -काया
रति का अहका जस का तैसा कामदेव छुछुवाया
अहं का कुत्ता हर ऊँचे पर पिछली टाँग उठाया
मिली कहाँ वह खुशी कि जिसमें सद्यजात शिशु गाए
रुकी कहाँ वेदना प्रसव की कि कुतिया मुसकाये
अभी झुकेंगी डालें कितनी कितने तने तनेंगे
आने वाले कल को कितने दर्पन अभी बनेंगे
टूट चुकीं कितनी तलवारें कितने लोथ गिरे
जल में जल की तरह कहाँ दो लोग अभेद मिले
मन का मानुष बनने में कितने हो गए सफाया
एक अदद यह अष्टभुजा भी इसी दौर में आया .
अष्टभुजा शुक्ल
जन्मतिथि – 8 अबटूबर 1957
रचनाएं – सात कविता – संग्रह और दो ललित निबंध संग्रह ।
संपादन
1- त्रिलोचन के अवधी संग्रह ‘अमोला’ का संपादन ।
2 – बस्ती : अतीत से वर्तमान तक ।
3 – ललित निबंध : अवधारणा एवं सृजन ।
श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान, केदारनाथ अग्रवाल सम्मान , परिवेश सम्मान , माटी रतन
अशफाकुल्ला खाँ सम्मान , चक्रधर सम्मान ।
केन्द्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अन्तर्गत मॉरीशस-यात्रा।
सम्प्रति – आचार्य रामचंद्र शुक्ल नगर (इटैली पाण्डेय) कैली रोड, पो० लबनापार बस्ती – 272002 (उत्तर प्रदेश)। मो.8795594931۔
ई-मेल- astbhujaskandshukla@gmail.com
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