प्रेम ध्रुपद एक प्रेम कविता है जिसे लीलाधर मण्डलोई ने पुकार संज्ञा से अभिहित किया है। देखा जाए तो यह एकायामी प्रेम कविता नहीं है, बल्कि यह सृष्टि का मेटाफर है । इसमें अव्यक्त – अदृश्य स्वप्न कामना की प्रार्थनाएं अन्तर्भुक्त हैं । यह एक साथ समय और समय से बाहर है। आज के इस क्रूर समय में जब सब कुछ छीज रहा है – कवि की यह पुकार जीवन को बचाने की एक पुकार है। जयशंकर प्रसाद भी संभवत: यही कहते हैं : नाच रही ज्यों मधुमय तान / जीवन जीवन की पुकार है।
लीलाधर मण्डलोई में हिन्दी उर्दू की काव्य परम्पराएं आपस में गुंथी हुई दीखती हैं जो मण्डलोई के काव्य की एक नई पहचान है , काव्य का एक नया प्रतिमान। देखते हैं इसे किस तरह पुकारा जाएगा ! – हरि भटनागर
प्रेम ध्रुपद
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कठिन है
भूप राग का-सा
बस इबादत में इंतज़ार होता है
रसीली गुनगुनाहट का
रस खिली मोहक आवाज़ का
नज़र की ख़ूबसूरत जुम्बिश का
आंखों की चिलमन में चमकते ‘हां’ का
और पुकारती उस अलोनी मुस्कुराहट का
दो पत्थरों के अचानक टकराने से जनमे
उस अलौकिक अग्नि नाद का
जो अंत के मुहाने पर टिकी दुनिया को
एक नयी दिशा में मोड़ सकता है
मुन्तज़िर हूं
हां ! मैं मुंतज़िर हूं इसके ध्रुपद का
जो तुम्हारे स्वरों से दुनिया की स्वर लिपि में
सार्वभौमिक हो सकता है
गोधूलि हुई,पखेरू लौटने को हैं
तुम्हारी अवाई में भी आंखों में सूरज होगा
जिसमें कायनात की तान होगी
न हो कभी जीवन का सूर्यास्त
ये जीव जगत की प्रार्थना है
प्रकृति के नियमों में बने रहने का
पागलपन और ज़िद भरी मनुहार तो कर ही सकता हूं
पुलिन पर अब भी ताज़ा हैं
परंपरा के पांवों में हमारे भी अक़्स
ये मुकम्मल रहें और गतिशील
चाहता है काल
कितनी लहरों के बाद भी अबहे जीवंत
मौन में डूबे अचल
प्रतीक्षारत कि लौट आयें
अभी तो समय ने भटियाली में आंख खोली है
उसी में दुनिया ख़ूबसूरत हो ये इज़हार बुरा कहां ?
ख़िलाफ़ है धर्म में समाज , बना रहे
बरजो उन ख़यालों को
जो बेवजह रोक रहे हैं
सीने में खिल रहे रक्तपुष्प को
सुगंध घिर रही है चौतरफ़ और
एक बच्चा किलकारियां भर रहा है
आने वाले कल में
उसका ख़ैरमकदम करें
उसे भूले बसंत की तरह अनुभव करो
दुलराओ, मनाओ, जगाओ
वह मन द्वार पर सगुन लिए खड़ा है
ढाके की मलमल की तरह संजो रखा है
स्वप्न सा झीना और रेशमी
मन की ख़ूबसूरत डिबिया में
डरो मत
अब कौन है जो चुरा सकता है तुम्हारा मंगल स्वप्न
क्या मुसीबत है
कि बार- बार ‘सिमसिम’ कहने पर
नतीजा सिफ़र है
कि असहाय हुआ जाए है हर जादू बिन तुम्हारे
इक सांवले धुंधलके में तुम्हारा होना भी
उम्मीद है इस सृष्टि में
झिलमिल सी ‘हां’ में
कोई वासना नहीं
विकल मानी है पानियों से भरा और
आने वाली नयी पीढ़ियां गर्भ से पुकार रही हैं
भटकता जुगनू
अयाचित अंधेरे में उतरकर
रूह से रूह को भासमान करने को बंद किबार खटखटाता
प्रकृति का यह सफ़र भला कहीं ख़त्म होता है
नदी है गहरी
सो गया भीतर एक सपना
तिश्नगी टहल रही है तट पर
अंखुआता जलफूल महक रहा है
खोल रहा है वह नयन और शिराओं में सिहरन है
दुनिया जब कृष्ण के सीमित राग – मद में डूबी थी
मैं सत्तर का हुआ
और इस ज़माने का दोगाना गुनगुनाने लगा
जो विलीन होने लगा अंतरिक्ष में
कुछ है नये में आने से दूर है और तुम नहीं
सही ताल को याद करते
कुछ ठुमकने लगा देहराग में
कि जहां धरती की जड़ें हैं
बिरजू महाराज वहां रियाज़ में हैं
इश्क़ की बारगाह में
बेतरतीब दुनिया को संवारने में
एक बारिश उतरने लगी इस उम्मीद में
कि खिल उठेगा आबी फूल
कितना मुश्किल हुआ जाए है
बच्चों की मुस्कानों को ज़मीन देना
कि करिश्मे का वक़्त इस तरह बीत रहा
जिम्मेदारियों में कहीं रखकर भूल गये जो हँसी
वह स्मृति में झरने लगती है हरसिंगार सी
जो क़समें थीं
उसमें एक यही थी
कि बढ़ती उम्र में भी हम फिर से
बदसूरत होते समाज के सामने
उम्र को बिसराकर आज का ज़रूरी पाठ लिखेंगे
हम पुरानी परवाज़ को नये पंख लगाकर
उड़ जाएंगे उस इलाक़े में
जो बदलाव की प्रतीक्षा में है
तुम आधी दुनिया हो
और तुम्हारे बिन असंभव है आकांक्षित जगत
एक के बिना दूसरा नहीं
जैसे सूरज बिन चांद-सितारे
निरर्थक न हो हमारा वजूद इस अन्धकार में
हमारी मिट्टी डूबीं आंखें
हमारी पानियों से चेहरे
हमारी हवाओं सी उड़ान
भिन्न समाजी कैफ़ियत के हलातोल में
हमारी एकसांस फिजूल न हो जाए
यह अबूझ अंतरिक्ष है
इसके भीतर ऊष्ण कृष्ण विवर हैं
और बाहर करुण-अरुण तिलिस्मी शीत
और तुम्हारी सृजन मेधा का
इस तरह होना एक अज़ीम बात है
कि मुहब्बत के कम होने के इस दौर में भी
हस्बमामूल हैं हमारे भीतर , दुर्लभ आब और ताब
जो फ़ना होने से रोक सकते हैं सुंदर संसार को
सालों साल के खटमिट्ठे तजुर्बों के बाद
जब ख़त्म सा हो रहा है तजुर्बों का समय
और कुछ न कुछ खटक जाता है बेवजह पड़ोस में
उसे रोकने का यही तो वक़्त है
यह अब भी कम ख़ूबसूरत हासिल नहीं
कि अब भी लान में एक मेज़ है और दो कुर्सियां
शाम की चाय पर
अब भी त्वचा पर सिहरते स्पर्श आबाद हैं
और रूह से बरस रही करुणा नमदीद है
अभी वक़्त टहल रहा है इर्द-गिर्द
अभी देह का पारा गिरा नहीं है
बिन मौसम जाड़ा आ गया है
कोहरे ने घेर लिया आस-पास के पर्यावरण को
आओ ! ढांप लें बदन
थोड़ा आवारा हो जाएं प्रतिकूल हवाओं में
मोड़ के उस पार ढलान में उतरें बेपरवाह
प्रेम की उसी प्राचीन जगह
जहां दुनिया आज़ाद ख़यालों में रोशन है
वहां वही आग होगी
वही दोआब
और फ़ैज़ की कविताएं
इस उम्र में डरकर भूलने लगे हैं रोज़
कभी कुछ तो कभी कुछ और पकी इबारतें
इतना भूलना कि यह ‘कुछ’ भूलना नहीं है
इस भूलमभुलाई में जो याद से जाता नहीं
वह है सृष्टि के माथे पर कांपता तुम्हारा बोसा
आसमान के आंगन में
देखो! उगे हैं चंद्रपुष्प
महक रही है नाभि में कस्तूरी
आश्चर्य न करो !
जिधर बही आ रही है लरजती आकाशगंगा
वहां जाने कितने हमख़याल पुकारते बाट जोह रहे हैं
सानेहा है ज़माने का ये दौर और
दिल जब तक विचारों में धड़कते हैं
तब तक कुछ भी मुल्तवी नहीं होता
बस एक पल की दूरी पर है मंज़िल और
और ये पांवों में हरकत
इसी जगह तो हमारे सपनों का ठिया है
याद है पिछले जाड़े की शाम
जब धुंधलके में गुम थे
कि जब ख़ून बर्फ़ हुआ जाता था
हम दूर -दूर चलते सिहर रहे थे
जैसे बरसते पानी में धान की बालियां
एक अबोली अमूर्त पुकार भरपूर सुनाई में थी
जबकि ठहर गया है एकाएक समय अब
याद में डूब जाने का लुत्फ़ कम तो नहीं
कितने हसीन थे वे लम्हे
जब ठहरती ज़िंदगी के पिछवाड़े लात लगाते
दिन की खिड़की पर पर्दा खींच, हम ठहाके लगाते थे
बिंधने के लिए नहीं हुआ ये जन्म
महज शरीर नहीं पहन रखा है हमने
गमले में उगते पौधों को धूप चाहिए और
आंखों को चांद सितारे
दोनों ने पृथ्वी पर
सितारा देवी का गतनिकास साक्षात अनुभव किया है
रोने के लिए ज़िंदगी पड़ी है
सीने में कुछ जागता है,जागने दो
असमंजस से निर्भय निकल आने का
यही एक पल है
युद्ध में शांति के अलावा कोई और कामना नहीं होती
जोग संग बिजोग की कुड़माई
दिलफूल भी भीतर चुभता है
जब ख़त्म हो रही हैं बोलियां
वनस्पतियां
सुंदर प्रेम प्रजातियां
एक पेड़ में खिल रहा है दूसरा
अब ये प्रेम है
लगभग अंतिम नस्ल सा
कम अज कम इसको बचा लें
कि एक यही है जिसकी जड़ें
धरती से आसमान तक फैली हैं
मैं डूबती सांसों में इसे संभाले पुकारता हूं
और जब टपकता है तुम्हारी दायीं पलक का मोती
बायीं फरकती आंख में , मैं सिहर जाता हूं
फिर शाम हुई
फिर वही मधुकौंस
फिर वही आलाप
फिर वही प्रतिस्वर
आ भी जाओ
आलाप से आगे राग उपज
अधूरी है तुम बिन
एक विकल प्रतीक्षा फूल पत्तियों ,चांद- सितारों और
शाम में गुम होते सूरज को भी है
इसे पहचानो
थर-थर, फर-फर की अड़बड़ बंदिश
हवा में द्रुत तत्कार साक्षात है
और वही तांडव
अब निकल आओ जंजीरों से बाहर
ये यातना और तमाम से ज़ियादा त्रासद है
कितनी देर तक यह मौन है
कितनी और देर आंखें बंद रखूं
कितना और जागती आंखों में जलमग्न रहूं
अप्रकृत जलवायु में
समय स्खलनों की ज़द में किलस रहा है
धरती घूम रही है ऋतुओं के लिए
जो कुछ बदल रहा है
प्रेम उसे बचाना चाहता है
आक्सीजन लड़ना चाहती है फैलते अंधेरे कार्बन से
आओ ! अंतरिक्ष की देह पर लिखें हाकिंग की प्रेम कविता
अब यह सगुण स्मृति का निर्गुण ढब है
छूटी हुई घास की भीगी सुगंध में दूब बार-बार उग आती है
गोया तुम्हारा पुनर्जन्म
इस रूप में प्रेम अरूप है
और वह फ़कीर परिंदे सा नृत्य में झूमता रहता है
अब इस बेमक़सद जीवन में , दु:ख और संताप के बीच
हम दुनिया की सबसे हसीन नेमत के हमसफ़र हैं
प्रेम के आधुनिक उत्पाद नहीं कि चुक जाएं
वह नमक से भरा मीठी नदियों के स्वाद का समुद्र है
कोई कल्पवृक्ष नहीं है अब कि मांग लें सुनहरा वक़्त
अभी ज़िंदा होने के अहसास में सांसें क्रियाशील हैं
चौतरफ़ गुलाबी से स्याह होते रंग में
जीने की उम्मीद तकलीफ़देह हो चली है
कम होता जा रहा है जीवनजल
सांसें कम होती जा रही हैं
आकाशगंगा में कृष्ण विवर बढ़ता जा रहा है
भीतर की वनस्पतियों की ‘कसक-मसक’ मुरझा रही है
राग मल्हार सूख चला है
बसंत की आमद ने दरवाज़ा बंद कर रखा है
पारिजात सा हँसता -विहँसता मन उदासी के अन्धकार में अभिशप्त है
और तुम्हारे पाजेब के घुंघुरू के सुर ख़लाओं में खो रहे हैं
बारिश की बूंदों की जगह दहकते अंगारों का सबब समझ से परे है
दुनिया को संवारने का रास्ता प्रेम की दीवानगी में खुलता है
इसके पहले कि ख़त्म हो जाएं , लौट आओ
बच्चों की सुंदर सुबह के लिए
बिन तुम्हारे नहीं मिलते कविता को सुरशब्द
बेसुरा-बेताला हो जाता है राग
जुगलबंदी के खोये सादे और सुरीले आलाप में
भैरवी भी इंतज़ार में बीत रही है
मेरी अंत:चेतना में चेतावनी का करुण गीत है
धूसर-स्याह छवियों में आवाज़ का आईना दरक रहा है
ज़िन्दगी के केनवस पर काले रंगों का साम्राज्य गतिशील है
और समंदर अशांत है
जीव जगत नये जीवन की प्रार्थना में आंख बंद किये है
हवा दस्तक दे रही है मन द्वार पर
बीज खोलना चाहते हैं अपना मुख
एक ही बोली है
जो कोई और नहीं समझता
सब आपस में बोलते नहीं लेकिन
हर अकहा शब्द समझ लेते हैं
ख़त्म नहीं हुआ है सब काले परिवर्तन के हड़बोंग में
उम्मीद की अंतिम खिड़की अभी खुली हुई है
प्रेम पहाड़ है
वह कांप -कांप जाता है
संपूर्ण ढहता नहीं
अगर संभाल लें
उसमें से जन्म ले सकता है एक और अमर ख़्वाब
जो रहे हैं अकेले
वे ही जानते हैं साथ होने का अर्थ
आंधियों के बीच तितली अभी फूल के संग हँसी में है
मन का जल पहाड़ी चश्मे सा गर्म है
वह ज़िद्दी सख़्त हड्डियों को मुलायम बना देता है
ज़िन्दगी अवसर है
वह बार- बार नहीं लौटता
इसे खोकर समझना त्रासदी होगी
चट्टान न बनो यह जानते हुए कि उसके भीतर की जलराशि में
उगने को है एक और जीवन
एक अनोखा कोमल गांधार सकल व्योम में उभरने को है
सरलता आसान नहीं होती , जैसे यह जीवन
अग्नि परीक्षा है रोज़
सपने में हम देख नहीं पाते
आपदाएं आती हैं
महामारियां भी
जीवन की उम्मीद जहां नहीं होती
वहां से भी वह लौट आती है
बुरे अनुभव सौंपते हैं जीने का हुनरमंदअंदाज़
वह जज़्बा भरपूर ज़िंदा है
हमारी हर सांस ,प्यार में मुसीबत को
नग़मों की तरह गाती , दु:खों को बांहों में भर लेती है
खिले हैं दो सांवले गुलाब अब भी
दूर से बह रही है दिव्य सुगंध
सांवली बंदिश में हम अंतरिक्ष में उमड़ -घुमड़ रहे हैं
बारिश कभी भी संभव है पहाड़ों में
कभी भी बेग़म अख़्तर ठुमरी में मीठी उपज लिए कारनामा कर सकती है
दो के एक होने का , कोई एक समय नहीं होता
हर वक़्त मुहब्बत पुकारती है और कोई कमअक़्ल ज़िद रास्ते का पत्थर हो जाती है
भीतर का अदृश्य गति में भासमान है
वह निगाह से परे है
जीवन से परे भला क्या हासिल होगा
वह ईश्वर का भी आदर्श न हुआ
अपने नियम ऐसे न बनें, जो क़ामयाब न हों
देखो अंधकार से घिरे सूरज को , जो किरणों की राह उदित हो रहा है
सूरजमुखी खिलने को व्याकुल है
बिन सूरज बड़ी मुश्किल में कटी है रात
हमारे गुम दिन, रातों के हवाले हैं
सूरज जो काले बादलों से झांकने को है, हमारा क्यूं नहीं हो सकता?
यह दुनिया एक दूसरे के साथ संपूर्ण है
अकेले जीने की ज़िद, अधूरा ख़याल है
और प्रकृति के जीवन चक्र के विरुद्ध
देखो उठा हुआ पांव ठहरा हुआ है
सूर्य के चारों ओर धरती ,यूं ही तो नहीं घूम रही
याद करो!
हम एक दूसरे के फेरे हैं किसी अंधेरे मोड़ पर लय टूट रही है
हम बिन चाहते ठिठके हुए हैं
पुकारते हुए मैं कांप-कांप जाता हूं
अक्षर-अक्षर जोड़ते हांफ – हांफ जाता हूं
एक सही वाक्य रच नहीं पाता तुम्हारे बिना
भाषा जो साथ होकर बनी थी
बिखर रही है
हम भाषा में आख़िरी सांसें ले रहे हैं
देखो ! ग्रेट अंदमानियों की प्रेम की आदिम भाषा हमेशा के लिए खो गयी
सूर्य यह ढाई आखर का है
निकल कर बाहर इसे एक मानी दो
एक दरख़्त में उगता है दूसरा
कि वहां उसकी जगह बची है
कि आईने से बाहर उसका भी होना है
सूर्य जब धरती को चूमता है ,अंधेरा रोशनी का फूल हो जाता है
करुणा निरा शब्द नहीं है
अपने भीतर प्रेम को आकार देते हुए
वह पालता-पोसता है
और त्याग का रूपक हो जाता है
अपने होने को भूलता वह
दूसरों की धड़कनों में संगीत हो जाता है
पुकार रहा है कबीर
अपने हथियारों को रखकर भूल जाओ
युध्द प्रेम से हर बार जीता गया है
देखो , आंखें पहले से अधिक ख़ुश्क़ हैं और
सहरा में उड़ती रेत का बवंडर
देखने को खुली हैं आंखें
रेत में तुम्हारा चेहरा है जो डूबता नहीं
फिर वही आलापचारी
और रेत घड़ी की महीन ध्वनि
और सवाल कि इम्तिहान की उम्र इतनी तवील क्यूं है?
मुरझाता फूल है ,उसे धूप चाहिए
यह अजीब समय है
उसकी आवाज़ में गुहार का ऐसा आलम कभी देखा न था
आवाज़ पहले इतनी धुंआ न थी
आसमान में भला कौन है सुनने वाला
वह तकता है निर्निमेष
जाने किस उम्मीद में आंखें ठहरी हुई हैं
ज़िंदगी मिट्टी का दिल
कोई जादू है कि उस सरीखा दूसरा नहीं
जिस तरह नृत्य में आंख पांव हैं
और चलना , देखना हुआ जाता है
मैं आंख बंद कर चला
आंखें पांवों से बाहर निकलती नहीं
दिग-दिगंत तक फैली है जैविक प्रेमगंध
यह अदृश्य जुगलबंदी है
अमूर्त रेखाएं
अमूर्त आकार
अमूर्त रंग
अमूर्त प्रकाश
अमूर्त मनुष्य
अमूर्त चित्र
यह प्रेम अमूर्त लगे तब भी है
कुछ और न सोचो
इसके अकथ में खो जाओ
जब नहीं था, वह था
जंगल में निशाने पर था
पानी के भीतर एक घर बना रहा था
दिव्यास्त्रों के प्रभाव को अपने भीतर शांत कर रहा था
अमरबेल को सूखने से बचा रहा था
आग के भीतर जल पांव लिए दौड़ रहा था
भविष्य के जीवन बीज बो रहा था
वह सिर्फ़ प्रेम बचा रहा था
वह हमारे भीतर उगता अशेष हो जाना चाहता था
हम हैं ,और अंतिम नहीं
हम प्रेम को पहचान नहीं पा रहे और दु:ख का बाना पहने भटक रहे हैं
हम न होने में
अपने होने के उदाहरण हैं
हँसते – रोते साथ थे
इससे बेहतर नसीब में क्या?
हमारे बीच अब दूरी है परिंदें की उड़ान भर
हम लिखा-अलिखा सूनी सेज पर बांच लेते हैं
पर्वतारोही हैं हम
भूले न होगे कि एक पहाड़ चढ़ते थे
शिखर से ,उससे बड़ा पहाड़ दिखता था
सीधी चढ़ाई और कठिन
उसे बमुश्किल चढ़ पाते थे
तो शिखर से और बड़ा तीसरा नुमाया होता था
इसके बाद कितने और ,मालूम नहीं
हर पहाड़ प्रेम की तरह अपराजेय लगता है
वह अचल है,अभेद्य है ,अतुलनीय है, और दुरूह
वह गतिशील संघर्ष है
वह अपने शिल्प में जीवन की क्रांति है
विजय पराजय दोनों में ,केवल प्रेम है
देख रहा हूं ,जो देखा न था
बंद आंखों में ख़्वाब है
आकाशगंगाओं में खोज रहा हूं
तारामंडल के बाग़ीचे में कितने रंग बिरंगे फूल हैं
मैं दाखिल होता हूं इस अनोखे संसार में इस विश्वास के साथ
होगे किसी एक ग्रह में प्रतीक्षारत
किसी भौतिक यान की आमद के पहले
पहुंच जाऊंगा और तुम दो से एक हुई उस रूह को पहचान लोगे
सूरज डूब जाता है रोज़ रात के लिए
नदी उतर आती है खेतों-पठारों की पुकार सुन
परिंदे उतर आते हैं आकाश से धरती के संगीत के लिए
बादल उतर आते हैं प्यासे कंठों की आवाज़ सुनते
हवा दौड़ आती है झुलसते जीवन में भीगे स्वर गुनगुनाती
यह रिश्तों का पवित्र हासिल है
बहुत देर हुई उठो!
ढाई आखर रह-रहकर तुम्हें पुकार रहा है
सुनो ! मेघ एक दूसरे गले मिल रहे हैं
सीने में अग्नि संभाले
मांदल का आदिम स्वर गूंज रहा है आसमान में
ओजोन की परत में हलचल है
अनबन की धूल फैलती जा रही है
और प्रेम का पर्यावरण ख़तरे की ज़द में है
आंखें हैं कि बेनूर हुई जाती हैं
अंधकार गोया हक़ीक़त का दूसरा नाम है
कोई दूसरा जन्म जबकि मुमकिन नहीं
हम दो एकराग हैं
दो स्केल , दो भिन्न टोन और दो अलग स्केल पर ,यह सच है
तिस पर रियाज से समान पिच पर गा सकते हैं
दोनों के प्रकृत गायन में संतुलन हो प्रतियोगिता नहीं
एक दूसरे का किसी बिंदु पर समर्पित एक हो जाना ही रागफल है
याद करो जसराज का ‘जसरंगी’ *
राग के हर स्वर को “सा” मानकर
अब भी आरोह -अवरोह को साध सकते हैं
यह जुगलबंदी अतिशय के हर सवाल का सुंदर समर्पित मिलन है
ये अचीन्हा दु:ख , देखता हूं दूर से
इक राग सुरों को ढूंढ रहा है
मैं दुआओं का स्वरमंडल उठाता हूं
मिलाता हूं एक तार, वह दूसरे से रूठ जाता है
हम कब एक दूसरे की सांस बनेंगे
कब लौट आएंगे उसी शाख पर
जहां फूल खिलना चाहते हैं
देखो मिट्टी ज़्यादा बंजर नहीं है अभी
दो परिंदे एक फल को कुतर रहे हैं
और एक दूजे से मुख़ातिब हैं
कायनात में प्रेम एक है दो नहीं
कोई तो रास्ता होता जो अबूझ अभेद्य न होता
किस सिम्त जा रही हैं
अब एक में दो होती ज़िंदगियां
अब कल की नीलसर बारिश नहीं है
हवा में जीवन के नुकूस धुंधला चले हैं
पहाड़ के शानों पर राग की परछाईं विलीन हो रही है
बारिश के दृश्य सहरा की उड़ती रेत में तब्दील होने लगे
हम अपने निर्वासन की वजह तारों से पता पूछते गुम हैं
आसमान से धरती तक अब एक अनजानी खटखटाहट है
यह भीतर की उम्मीद है कि कोई संशय
बेनतीजा खटखट में काली रिदा फैली हुई है
मैं किस किनारे पर ठिठका हूं
समय इस खटखट का अजीब सा अनुवाद हो गया है
एक विकल प्रतीक्षा का रूपक हूं मैं
मेरा अक़्स आईने के टूटने में बिखर गया
और भीतर बाहर किरचें रक्तरंजित होकर चीख रही हैं
इन चीखों में बस उसकी असहाय ध्वनियां हैं
दर्द में मेरे मन का दरवाज़ा बाहर से बंद है
अब कुछ भी नहीं , नामुराद सांय-सांय सन्नाटे में जो है ,वही है
सफ़र यह जाने अंधेरे किस बोगदे में है
कोई उम्मीद इतनी नाउम्मीद न थी
मंझधार में एक तारा फिर टूटा
फिर डूबना हुआ
फिर तुम्हारी पीठ पश्चिम की सिम्त
अंधेरा फिर और घना हुआ
रात के पार सूरज एक इंतज़ार है कल का
चांद की आंखों में हमारा ख़्वाब है
कायनात में मंज़र उदास है और
ज़ेहन में ज़िंदा हैं
गुफ़्तगू रफ़ाकतों की
वुसअतों का सफ़र
आबी उड़ानों का तसव्वुर
और राग केदार की टेर
लम्हा-ब-लम्हा
ख़ामोशी और ख़ुशबू
और अधखिली उम्मीद की प्रतिध्वनि
ये बेदिली
ये रंजो-ग़म
ये हिचकियां
और याद
यहीं बैठा पुकारता है
तुम्हारा हमनवा
ज़मीं समेटे हुए आधा-अधूरा
जिसकी एक आंख रोती है, दूसरी दीवानगी पर हँसती
उसमें सातों सुर का प्रीत उल्लास और वेदना एक साथ है
यह विदा का समय नहीं
पहाड़ लांघने का है
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है
और इस प्रार्थना का है
कि अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना
सो आओ !
और शामिल हो जाओ
उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में
कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं
****
(* पंडित जसराज ने इसे सिद्ध किया था । यह जुगलबंदी मूर्च्छना पद्धति पर आधारित है जिसे स्त्री – पुरुष गायक अपने अपने राग में , एक ही समय में सुर में गा सकते हैं। वहां जाने में एक बिंदु पर संभावित भिड़ंत के पहले ठहरकर दो राग के, एक हो जाने का आश्चर्य है।)
लीलाधर मंडलोई
जन्म : छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे-से गाँव गुढ़ी में जन्माष्टमी के दिन। जन्म वर्ष : 1953।
कृतियाँ : काव्य-संग्रह : घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज़, काल-बाँका तिरछा, क्षमायाचना तथा देखा-अदेखा व कवि ने कहा (चयन)।
गद्य : कविता का तिर्यक (आलोचना), दिल का क़िस्सा तथा अर्थ जल (निबन्ध), काला पानी (वृत्तान्त), दाना पानी (डायरी), पहाड़ और परी का सपना (अंदमान-निकोबार की लोककथाएँ)। पेड़ भी चलते हैं और चाँद का धब्बा (बाल कहानियाँ), इनसाइड लाइव (मीडिया)।
अनुवाद : शकेब जलाली की ग़ज़लों का लिप्यंतरण मंज़ूर एहतेशाम के साथ। अनातोली पारपरा की रूसी कविताओं के अनुवाद अनिल जनविजय के साथ।
सम्पादन/प्रस्तुति : कविता के सौ बरस (आलोचना), स्त्री मुक्ति का स्वप्न (विमर्श : अरविंद जैन के साथ), कवि एकादश (अनिल जनविजय के साथ) और सुदीप बॅनर्जी की प्रतिनिधि कविताएँ (विष्णु नागर के साथ) तथा उनके अंतिम संग्रह ‘उसे लौट आना चाहिए’ का संयोजन विष्णु नागर के साथ।
सम्मान : पुश्किन, रज़ा, शमशेर, नागार्जुन, दुष्यन्त, रामविलास शर्मा तथा कृति सम्मान।
अन्य : फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन, मीडिया कर्म (टेलीविज़न व रेडियो)।
सम्पर्क : B 253, sarita vihar, new delhi 76
दूरभाष : 26258277 (निवास)।पता:
ए-2492, नेताजी नगर, नई दिल्ली 110023
Email: leeladharmandloi@gmail.com
Phone: 9315305643
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आदरणीय मंडलोई जी की कविता कविता ही है।
सादर
प्रांजल धर
मण्डलोई जी को पढ़ना भाषा के नये कलेवर से परिचित होना और कथ्य की एक नहीं लय से जुड़ना है। इस कविता में संगीत के अमूर्त को जीवन में प्राप्त करते हुए प्रेम में घटित हो जाने जैसा है। भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों स्तरों पर यह कविता पाठक को समृद्ध करती है।
मण्डलोई जी को पढ़ना भाषा के नये कलेवर से परिचित होना और कथ्य की एक नहीं लय से जुड़ना है। इस कविता में संगीत के अमूर्त को जीवन में प्राप्त करते हुए प्रेम में घटित हो जाने जैसा है। भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों स्तरों पर यह कविता पाठक को समृद्ध करती है।
मंडलोई जी की अनेक कविताओं से गुजरी हूँ। उनकी कविताओं के विषय उनके पसंदीदा विषयों की आवाजाही के बीच से आते हैं- निरद्वंद्व.. वे किसी भी वाद से विवाद से आक्रांत रचनाएँ नहीं हैं, भले ही उनकी पक्षधरता असंदिग्ध हो। यह एक बहुत बड़ी खूबी है। उनकी कविताएँ विभिन्न विधाओं का परस्पर संवाद का बेहतरीन नमूना हैं। इस कविता में सूरज कई कई बार आया है और जितनी भी बार आया है, मन उदास हो गया है, बावजूद इसके कि यह जिजीविषा की कविता है, जीने के पुकार की कविता है। भाषा की आवाजाही भी ध्यातव्य है। कविता कई बार पढ़ने पर खुलेगी… यह इसकी ताकत है!
मनुष्य का समग्र बोध , सम्पूर्ण चेतना और समस्त संवेदनाएं कला और कला सृजन के मूल में विद्यमान रहती हैं ।इसलिए संसार की सभी कलाएं, जीवन का प्रतिबिंब हैं ।जीवन न होना उन्हें सृजनात्मक बनाता है।हर कविता कला इस प्रतिबिम्ब को खोजती है। लीलाधर मंडलोई भी इस कविता में जीवन के प्रतिबिम्ब को खोजते हैं। खोज तो फिर खोज है। लहरों का अतिक्रमण है।विधाओं की हदबंदी के पार जाकर ही खोजा जा सकता है।इसलिए यहां संगीत भाषा और अंतस की संवेदना एक नया द्रव्य बनाती हैं।एक नई खोज।नया विस्मय ।नई पुकार।अनुकूलन से मुक्त। सच्ची कविता।
लीलाधर मण्डलोई की मौलिकता गद्य और पद्य दोनों में झलकती है।इस लंबी कविता का वितान व्यापक है।प्रेम का ध्रुपद भी ऊंची उड़ान चाहता है,लंबे आलाप की तरह।यह प्रथम अनुभूति है।कविता धीरे धीरे ज़ेहन में और खुलेगी,नए अर्थ दिखती हुई।
यह कवि मंडलोई जी की अद्भुद प्रेम कविता है। प्रेम भी सीमित अर्थ वाला नहीं बल्कि जीवन का सर्व व्यापी प्रेम है।
इस कविता में ध्रुपद गायन को महसूसते हुए जीने की निरंतरता का पीछा करती अनेक पंक्तियां है । यह जीवन , प्रकृति और संसार के भक्ति रस से लबरेज कविता है। इसमें ढाके की मलमल का जिक्र भी है , एक पंक्ति में कवि के सत्तर बरस के होने की कैफियत भी दर्ज है। इस तरह कविता जीवन राग की एक नई कविता है। उम्र को बिसराकर एक जरूरी पाठ यह कविता रच रही है।
कविता में रूप, रस ,रंग ,गंध के अनेक बिंब है। अच्छे रूपक है। उपमाएं भी अनूठी हे। यह कविता जीवन और प्रकृति की दिव्यता का जोशभरा बखान भी करती है अनेक मोड़ों पर ।
इसे पढ़ते हुए मुझे यह रचना *कविता* की शक्ति से भरी हुई रचना भी लगती रही । किसी भी पंक्ति में सीधा सा और एक पत्रकारिता वाला वक्तव्य भी नही है जो अद्भुद विशेषता है वरना लंबी कविता अक्सर अनेक जगहों पर वैचारिक संबोधन बन जाती है। मंडलोई जी के कवि ने इस खतरे से खुद को बच लिया है।
हां, कविता में अनेक जगह ग़ज़ल जैसी शब्दावली कुछ अधिक, कुछ कम है।
अपने संपूर्ण असर में ये कविता मानवीय प्रेम की अनूभूति पर रची हृदय हिला देने वाली कविता है, इसमें मंडलोई की काव्य-ध्वनि पूरे असर के साथ सुनाई देती है । कविता की मूल चेतना को उजागर करती कुछ पंक्तियां देखें —
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है और इस प्रार्थना का है कि
अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना सो आओ !
और शामिल हो जाओ उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं
नरेश चन्द्रकर
यह कवि मंडलोई जी की अद्भुद प्रेम कविता है। प्रेम भी सीमित अर्थ वाला नहीं बल्कि जीवन का सर्व व्यापी प्रेम है।
इस कविता में ध्रुपद गायन को महसूसते हुए जीने की निरंतरता का पीछा करती अनेक पंक्तियां है । यह जीवन , प्रकृति और संसार के भक्ति रस से लबरेज कविता है। इसमें ढाके की मलमल का जिक्र भी है , एक पंक्ति में कवि के सत्तर बरस के होने की कैफियत भी दर्ज है। इस तरह कविता जीवन राग की एक नई कविता है। उम्र को बिसराकर एक जरूरी पाठ यह कविता रच रही है।
कविता में रूप, रस ,रंग ,गंध के अनेक बिंब है। अच्छे रूपक है। उपमाएं भी अनूठी हे। यह कविता जीवन और प्रकृति की दिव्यता का जोशभरा बखान भी करती है अनेक मोड़ों पर ।
इसे पढ़ते हुए मुझे यह रचना *कविता* की शक्ति से भरी हुई रचना भी लगती रही । किसी भी पंक्ति में सीधा सा और एक पत्रकारिता वाला वक्तव्य भी नही है जो अद्भुद विशेषता है वरना लंबी कविता अक्सर अनेक जगहों पर वैचारिक संबोधन बन जाती है। मंडलोई जी के कवि ने इस खतरे से खुद को बच लिया है।
हां, कविता में अनेक जगह ग़ज़ल जैसी शब्दावली कुछ अधिक, कुछ कम है।
अपने संपूर्ण असर में ये कविता मानवीय प्रेम की अनूभूति पर रची हृदय हिला देने वाली कविता है, इसमें मंडलोई की काव्य-ध्वनि पूरे असर के साथ सुनाई देती है । कविता की मूल चेतना को उजागर करती कुछ पंक्तियां देखें —
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है और इस प्रार्थना का है कि
अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना सो आओ !
और शामिल हो जाओ उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं
आभार आप सभी के प्रेम का।
ये बेदिली
ये रंजो-ग़म
ये हिचकियां
और याद
यहीं बैठा पुकारता है
तुम्हारा हमनवा
ज़मीं समेटे हुए आधा-अधूरा
जिसकी एक आंख रोती है, दूसरी दीवानगी पर हँसती
उसमें सातों सुर का प्रीत उल्लास और वेदना एक साथ है
यह विदा का समय नहीं
पहाड़ लांघने का है
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है
और इस प्रार्थना का है
कि अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना
सो आओ !
और शामिल हो जाओ
उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में
कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं
****
(* पंडित जसराज ने इसे सिद्ध किया था । यह जुगलबंदी मूर्च्छना पद्धति पर आधारित है जिसे स्त्री – पुरुष गायक अपने अपने राग में , एक ही समय में सुर में गा सकते हैं। वहां जाने में एक बिंदु पर संभावित भिड़ंत के पहले ठहरकर दो राग के, एक हो जाने का आश्चर्य है।) इन पंक्तियों ने देह, दिमाग़ और दिल को जिस पाक सिहरन से भर दिया है, उससे निजात पाऊं तो कुछ तर्क संगत कमेंट करूं। रफ्ता रफ्ता होगा।
सुंदर से भी बहुत सुंदर।
वरिष्ठ कवि *लीलाधर मंडलोई* जी की कविता पर अनेक लोगों की टिप्पणियां प्राप्त हो रही हैं। उसमें से कुछ लोगों की टिप्पणियां आप लोगों के अवलोकन हेतु यहां प्रस्तुत है- ख़ुदेजा ख़ान
१
शामिल हो जाओ
उनके साथ जो प्रेम की लय में
संगठित होना चाहते हैं।
इस विलक्षण कविता का केंद्र ऊपर दर्ज़ प्रेम का आव्हान लगता है।
ऐसी सघन संवेदना और विराट फलक वाली कविता को स्क्रीन पर पढ़ने से मन नहीं भरता।
तिश्नगी बनी रहती है।कई -कई बार पढ़ने के लिए इसका मुद्रित रूप सामने होना लाज़िमी है।
बहरहाल यह बड़ा कारनामा आपकी रचनात्मकता को ऊंचाई देता है।
कबीर से फ़ैज़ तक के विस्तार से सरसरी तौर पर नहीं गुज़रा जा सकता।ठहरकर देखें-सोचें तो इस विस्तार में
दोआब के कितने ही रंग और रूप अपनी आबो-ताब के साथ मौजूद मिलेंगे—ये सब मिलकर प्रेम की एक निर्भय दुनिया रचते हैं जिसे संभव बनाने की ख़्वाहिश इस रचना में प्रमुखता के साथ व्यक्त की गई है।
*डा जानकी प्रसाद शर्मा*
२
मुस्कुराता है जो इस आलम में
ब-ख़ुदा मुझको तो ख़ुदा लगता है
आपकी कविता इस आलम में मुस्कुराहट की तरह है।
हम कब एक दूसरे की सांस बनेंगे
कब लौट आएंगे उसी शाख़ पर
जहां फूल खिलना चाहते हैं
देखो मिट्टी ज़्यादा बंजर नहीं है अभी
दो परिंदे एक फल को कुतर रहे हैं
और एक-दूजे से मुखातिब हैं
कायनात में प्रेम दो नहीं एक है
बहुत सुंदर,फिर पढूंगा एक गैप के बाद।इसे एक पुस्तिका की तरह छापें।
*कुमार मुकुल*
३
लीलाधर, मेहरबानी तुम्हारी कि तुमने मौक़ा दिया,प्रेम के अनंत विस्तार में विचरण का, उसमें जीवन के मर्म को जानने का, आस्था और विश्वास की अजस्र रस धार में ऊब-चूब होने का।
*सतीश जायसवाल*
४
यह एक अप्रतिम प्रेम कविता है।जिसमें प्रेम अपने उदात्त स्वरूप में प्रकट हुआ है।अनोखे बिंब, दिलचस्प उपमाएं,ज़िद भरी मनुहार,उष्ण कृष्ण विवर। कविता लंबी है लेकिन बांधे रखती है और एक राग की तरह खिलती-खुलती जाती है।पढ़ते हुए कभी मन निष्फल प्रेम को याद करता है और व्याकुल होता है।कभी बच्चे सा
मुस्कुराता है।
हमारे समय में जबकि प्रेम छीज रहा है आपकी कविता उसे बचाती है।
*अशोक मिश्र* मुंबई
५
अपनी सांसों में सहेज कर रख देने वाली कविता।समय मिलने पर इस पर विस्तार से लिखूंगा।
*विनोद शाही*
६
अनेक बार पाठ करना पड़ेगा। यथार्थ और अमूर्तन की घनी जुगलबंदी, शब्दों के अद्भुत प्रयोग, अनूठापन सबसे
अलग कहन शैली आदि चमकीले लोक में ले जाते हैं जहां देखने-समझने के अनोखे द्वार खुलते हैं।
*राजकमल नायक*
७
पढ़ गई।आपकी तरह यह कविता भी है,उम्मीदों की तरफ़ दिखाती कि सब कुछ के बावजूद प्रेम ही है जो हमें
सृष्टि में गतिशील किए रहेगा।इस सत्य को पहचानना हमारे मनुष्य होने की निशानी भी है।सारे युद्ध,सारी मार-काट के बावजूद हम यहीं लौट आते हैं। यहीं हमारी अनगिनत सांसें प्रकृति बचाए रखती है। बहुत बधाई।
*सविता सिंह*
८
अभी तो एक पाठ में ‘प्रेम ध्रुपद ‘को छू सका हूं ,लय ,ताल ,जीवन से भरी इस अद्भुत प्रेम कविता को जीने के लिए धैर्य चाहिए।अभी तो सिर्फ़ बधाई स्वीकार करें।
*विजय सिंह*
९
प्रेम के पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने की एक कबीरी कोशिश है जिसकी आज बड़ी ज़रूरत है।
*श्री प्रकाश शुक्ल*
१०
आप की लंबी कविता ‘प्रेम ध्रुपद ‘ पढ़ ली और उसे अपने कंप्यूटर पर सेव कर ली।पहली रीडिंग बहुत सघन,संश्लिष्ट और महत्वपूर्ण लगी,सनातन, सामयिक और सांस्कृतिक संदर्भों से परिपूर्ण भी।
ज़रा बाड़मेर यात्रा से लौट आऊं फिर इत्मीनान से लिखूंगा।
*नंद भारद्वाज*
सातों सुर की प्रीत उल्लास और वेदना एक साथ है l हृदय के तारों को झंकृत करती उदात्त प्रेम कविता भाव , शैली, अनुपम । खगोल से भूगोल तक कविता अपने लिए गजब का शब्द
सामर्थ्य रखती है अनंत महासागर प्रेम का है गहरी डुबकी लगाकर सीप से हासिल असली मोती की अद्भुत खनक का राग भी अप्रतिम है।
त्रिलोक महावर
बिंधने के लिए नहीं हुआ ये जन्म
महज शरीर नहीं पहन रखा है हमने
गमले में उगते पौधों को धूप चाहिए और
आंखों को चांद सितारे
प्रेम की यह अनंतता वह एक निरंतर प्रवाह हो, जो समय और परिस्थितियों से परे है । यह प्रेम एक भावनात्मक अनुभव ही नहीं आत्मा का संगीत और जीवन की असल धुन भी है। प्रेम यहां सार्वभौमिक है, सृष्टि की धुरी है, राग ध्रुपद की तरह । ऐसे प्रेम के लिए स्वर, ताल व पद के अद्वितीय संतुलन वाले राग ध्रुपद का रूपक बहुत मार्मिक है। बहुत लम्बी कविता कौशल से साधी है।
दूसरा कमेंट दूसरे पाठ के बाद।
सत्तर साल के शावक, आपसे 16 साल आगे चल रही हूं , इसलिए आपके कंधे पर हाथ रख कर कह सकती हूं, अब भी बहुत है आगे के बरसों में पाने को।और उससे ज्यादा देने को।
यह कविता प्रेम ध्रुपद लिख कर यही तो साबित किया है आपने
और यह भी कि स्मृति का खजाना भी कम मूल्यवान नहीं। उसे साथ लेना ही होगा। स्मृति में जो संग्रहित है हमारे, केवल हमारी नहीं, सब की पूंजी है। और उसी के माध्यम से हम उस प्रेम को पा सकते हैं, जिसे पाना, सृष्टि का आधार पाना है।
कहा है बारम्बार इस कृति में,
जब प्रेम पा लिया तो सब कुछ पा लिया। पर एक का प्रेम किसी अन्य के प्रेम में हुए बिना फलीभूत नहीं हो सकता। दो के बिना, न प्रेम संभव है, न जीवन, न निर्माण, न सृष्टि।
बस यह आस्था, भविष्य में भी हमसे छूटे नहीं। उसी के लिए लीलाधर मण्डलोई ने यह अनेक रस रूप व्यंजित महाकाव्य, प्रेम ध्रुपद रचा है और उसे लंबी कविता ने समोने की कोशिश की है। पर वह उसमें सीमित रहा नहीं।
कभी विषाद में, कभी उल्लास में; कभी दीप्तमयी आशा में, कभी निविड़ अंधकार पूर्ण हताशा में, कभी नष्ट करने वालों की हिंसा के विरोध में, पर सदा प्रेम में और एक अन्य की उत्तप्त चाहना में, वह अपने डैने फैला कर महाकाव्य की ओर परवाज़ भरता रहता है।
हांं, यह महाकाव्य ही है।
समय…स्मृति…विध्वंस, युद्ध, शांति, आध्यात्म, निर्माण, सृष्टि सब का विहंगम रूप हमें इसमें मिल जाएगा।
इसमें सबके लिए जगह है। संगीत, चित्रकला, विज्ञान, कविता, दर्शन, …..
इसमें जसराज भी है, बिरजू महाराज भी, बेगम अख्तर भी। कबीर हैं ,पिकासो हैं, हॉकिंग भी हैं । क्योंकि हॉकिंग केवल वैज्ञानिक नहीं, जीवन नष्ट होने से खुद को बचाए सम्पूर्ण जीवन हैं। या कहें जीवन को पुष्ट करने के आधीश्वर हैं।
उनकी कविता लीलाधर मण्डलोई की इस आध्यात्मिक कविता में सुपुष्ट होती है।
तो क्या हम अब भी इस विश्वास में जी सकते हैं कि इतना सब नष्ट होने के बाद और नष्ट होने की प्रक्रिया में कहीं कुछ नया जीवन प्रकट होता रहेगा। प्रकृति और परिवेश में दो अलग उठ रहे राग के सुर ऐसी जुगलबंदी करेंगे, कि आपस में भिड़ने के बजाय यूं प्रेम में अपनी दिशा बदलेंगे कि मिल कर एक हो जाएंगे। संगीत में तो जसराज ने करवा दी थी, जसरंगी में। क्या जीवन में, अपने बंटे समाज में, ह्रास होती प्रकृति में, नष्ट होती न्यायप्रियता में भी हम कर सकते हैं? उद्यम से, आस्था से,विचार से, हॉकिंग और कबीर की साझा कविता से, और सर्वोपरि प्रेम
से?
हां, कर सकते हैं आने वाली पीढ़ी के साथ उसे गुरुत्व का दर्जा दे कर।
यही सार है प्रेम ध्रुपद का जो भाषाई विविधता में इतने सरस अध्यात्म के साथ प्रकट हुआ है और इतने आयामों में कि महाकाव्य बन गया है।
मृदुला गर्ग
रचना समय ‘ में लीलाधर मंडलोईजीजी की कविता ‘ प्रेम ध्रुपद ‘ कविता पढ़ी। मुझे लगता है, लंबी कविता को साधना, ज्ज्वलनशील चीज के निकट चिंगारी को ले जाना जैसा है। कविता के कथ्य तथा संरचना, दोनों ही के बिखरने का खतरा सा बना रहता है लेकिन कवि ने अंतिम शिखर के निकट पहुँच चुके, दाम्पत्य जीवन की जड़ों में डूबकर, उसकी मस्ती में चूर होकर, यह कविता लिखी है ; इसलिए इसमें संवेदना की एक सुस्पष्ट अर्थवत्ता, खूबसूरत लय, अंत तक बनी रहती है। इसमें प्रेम में टकराते दो पत्थर है, जिनकी टकराहट से उत्पन्न चिंगारियों में एक अलग तरह की शीतलता है ; जो अंत के निकट पहुँच चुकी दुनिया को वापस लौटा सकती है। ढाके की मलमल सा प्रेम की डिबिया में रखे मंगल स्वप्न की कल्पना बहुत विलक्षण है। खुद को जल्दी चुक जाने वाले प्रेम का आधुनिक उत्पाद नहीं मानने वाली यह कविता, अब तक लिखी गई लंबी कविताओं की परंपरा में वेहद महत्वपूर्ण कविता है, जो पाठकों से बहुत डूबकर, सावधान पाठ की माँग करती है। यह मनुष्य की आत्मा को एक वेपनाह मुहब्बत से सराबोर कर देने वाली कविता है। इसमें अपने काव्य जीवन के कई दशक पूरे कर चुके कवि का रचना कौशल या चतुर काव्य मुहावरा नहीं ; निराशा के विकट अँधेरे में, प्रेम के एक छोटे से जुगनू का विकट हठ दिखता है।
उम्मीद है यह, कविता प्रेमी समाज की स्मृति में एक मूल्यवान निधि की तरह लंबे समय तक बनी रहेगी।
मोहन कुमार डहेरिया
लीलाधर मंडलोई की कविता
*प्रेम और अग्नि नाद का जबरदस्त संबंध है,आग के दरिया से दसियों कदम आगे का,दो पत्थरों को पिघलाने की क्षमता इसके अलावा किसी में कहां।आंख तो मन की खिड़की है इससे भीतर भी तो झांका जा सकता है,समर्थ कवि ही यह कर सकता है, चिलमन केवल बाहर का देखने के लिए नहीं होती। प्रवाह पकड़ जबरदस्त है बावजूद लंबी कविता के,आप इससे शुरुआत से ही ऐसे जुड़ जाते हैं कि पूरी कविता से गुजर कर ही थमते है,यह कवि की सफलता ही है ।
प्रेम पर दसियों कविता है,इस शाश्वत विषय को, संवेदनशील विषय को इतने अच्छे से निर्वहन आपके बूते की बात है। उर्दू शब्दावली आपकी काव्य भाषा को अलग अंदाज़ देती है, कहते हैं जिसको अंदाजे बयां ओर।
प्रेम उम्र की मोहताज नहीं,देह में रहकर देहातीत होने की बात किताब कविता से आगे जीवन में भी साकार हो सकती है, खुल जा सिम सिम और वाकई खुल जाता है दरवाजा, इतनी सघन संलग्नता हो तो
अच्छी कविता के लिए बधाई अभिनंदन,
लगभग नामुमकिन होता है,अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करना..!अरूप को स्वरूप प्रदान करना..!!कहते हैं कि पृथ्वी पर एक घटना का घटित होना बाकी है…और वो घटना है..प्रेम!!धरती पर अभी तक केवल ‘जिस्म’घटित हुआ है।मन उदित हुआ है..और आत्मा का अवतरण हुआ है!लेकिन प्रेम का घटित होना अभी भी बाकी है।राधा का जिस्म में अवतरित होना अभी भी बाकी है।कृष्ण का सम्पूर्ण होना आज भी बाकी है।लीलाधर मंडलोई जी ने इस कविता के द्वारा उसी चिर-प्रतिशिक्षित घटना को अरूप के नेपथ्य से मुक्त करने का यह कवित्त पुरुषार्थ किया है।मंडलोई जी की यह कृति एक चित्र है,जिसे बनाते-बनाते यह चित्रकार अपनी अंगुलियां तक कविता में रखकर भूल गया है..!
इतनी सुंदर रचना के लिए मंडलोई जी को प्रणाम करता हूँ।और यह लिखना चाहता हूं कि यहां आकर इस तरह ‘रचना’ सृष्टि में एक मोर्चा हो जाता है..चाहे फिर वो मोर्चा प्रेम के लिए हो तो चाहे युद्ध के लिए..
रचना..मोर्चा हो जाती है।
-रविदत्त मोहता
परिवर्तनशील समय में “ प्रेम ध्रुपद“ का सनातन प्रवाह
/ शाश्वत के सजग शिल्पी: लीलाधर मंडलोई
डॉ मयंक मुरारी
===================
सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो। इनपर भारतीय सभ्यता की आधारित है, जिसका संरक्षण और संवर्द्धन साहित्य सृजन के माध्यम से विरले लोग करते हैं। भारतीय साहित्यांगन में लीलाधर मंडलोई जैसे कुछेक सृजनधर्मी बचे है, जो देश और काल के शाश्वत प्रवाह को अपनी लेखनी का केंद्रीय भाव बनाते हैं। परिवर्तनशील समय में “ प्रेम ध्रुपद“ का सनातन प्रवाह के संग लीलाधरजी प्रेम की गहराई में उतरते है। इसके साथ ही इस अस्तित्व में गूंजायमान अनहद को शब्द प्रदान करते हैं। उनके सृजन-शब्द और भाव में संगीत की धारा और उसमें मधुरता का समावेश अनायास नहीं है, बल्कि यह लीलाधरजी की स्वाभाविक गुण है, जो दंडकारण्य के जंगल में उनको मिला। इसी जंगल में निवास के दौरान त्रेता में श्रीराम को जीवन का अर्थ मिलता है, जिसकी एक धारा उनकी लंबी कविता “ प्रेम ध्रुपद“ में दिखती है।
जब कोई कविता आत्मा तक पहुंच जाए तो उसकी सार्थकता सिद्ध होती है। उनकी लंबी प्रेम कविता “ प्रेम ध्रुपद“ में प्रेम की गहराई के साथ हरेक शब्दों के बीच भाव की गूंज हमें एक चिरस्थायी संबंध का आमंत्रण देता है। दो पत्थरों के अचानक टकराने से जनमे उस अलौकिक अग्नि नाद का…। इन पंक्तियों के माध्यम से एक साथ सभ्यता के शुरूआत, विकास और उसके भविष्य पर सकारात्मक दस्तक होता है। कविता की सकारात्मकता में मंडलोईजी का सूफियाना फक्कड़पन दिखता है। यह कभी शब्दों के मिठास और जनजीवन के सजीव चित्रण में हमारे समक्ष आता है। बचपन में एक कविता पढ़ी थी- सतपुड़ा के घने जंगल, ऊंघते अनमने जंगल…। उनकी कविताओं में प्रकृति का वर्णन विशेष रूप से होता है। ये पंक्तियां हैं- उसे भूले बसंत की तरह अनुभव करो, दुलराओ, मनाओ, जगाओ। वह मन द्वार पर सगुन लिए खड़ा है। नदी है गहरी सो गया भीतर एक सपना, हमारी मिट्टी डूबी आंखें, हमारी पानियों से चेहरे, हमारी हवाओं सी उड़ान। इन कविताओं को पढ़कर अर्जेंटीनी लेखक होर्हे लुई बोर्हेस याद आते है जिनको दृष्टिदोष था। वह देख नहीं सकते थे। इसके बाद भी विश्व साहित्य में उनका नाम है। उनका मानना था कि दुनिया का सारा साहित्य अलग-अलग लोग नहीं लिखते हैं, बल्कि असख्ंय अलग-अलग नामोंवाला एक ही आत्मा लिखती है। वह लिखते है कि- मैं ही होमर था, कुछ समय पश्चात मैं नहीं रहूंगा। कुछ देर में मैं समस्त मनुष्य हो जाऊंगा।
जीवन भी सृजन है। जगत भी सृजन है। अस्तित्व में विराट सृजन का यज्ञ चल रहा है। लीलाधरजी को पढ़ने पर लगता है कि वे भी अपनी लेखनी कर्म के माध्यम से इस यज्ञ में सृजन की आहुति प्रदान कर रहे है। सृजन की असीमता में अमरत्व के बीज खोज रहे हैं। कहा गया है कि अथक सृजन कर्म में शाश्वत जीवन का सुख है। चिरंतन यात्रा में कभी-कभी सृजन का सौंदर्य “दिक्काल“ का भी अतिक्रमण करता है। लीलाधरजी की कविता में भी यह देखने को मिलता है। उनकी “ प्रेम धु्रपद“ की एक पंक्ति है- आओ ! ढांप लेे बदन, थोड़ा आवारा हो जाएं प्रतिकूल हवाओं में, मोड़ के उस पार ढलान में उतरें बेपरवाह, प्रेम की उसी प्राचीन जगह, जहां दुनिया आजाद ख्यालों में रोशन है। उनकी इस प्रेम कविता को पढ़कर कभी वसंत की भोर, गुलमोहर के फूल और सतपुड़ा की तलहटी में हम यात्रा करते है तो कभी उनके ही शब्द संग्रह- कथा, गीत, डायरी यात्रा की जीवंत शब्द-लहरी से गुजर आत्मिक शांति को महसूस करते है।
आभार आपकी आत्मीय दृष्टि का।भरोसा और ताकत देने के लिए आभार।
नरेश अग्रवाल – कवि *लीलाधर मंडलोई* जी की कविता पर अनेक लोगों की टिप्पणियां प्राप्त हो रही हैं। उसमें से कुछ लोगों की टिप्पणियां आप लोगों के अवलोकन हेतु यहां प्रस्तुत है:-
1. लगभग नामुमकिन होता है,अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करना..!अरूप को स्वरूप प्रदान करना..!!कहते हैं कि पृथ्वी पर एक घटना का घटित होना बाकी है…और वो घटना है..प्रेम!!धरती पर अभी तक केवल ‘जिस्म’घटित हुआ है।मन उदित हुआ है..और आत्मा का अवतरण हुआ है!लेकिन प्रेम का घटित होना अभी भी बाकी है।राधा का जिस्म में अवतरित होना अभी भी बाकी है।कृष्ण का सम्पूर्ण होना आज भी बाकी है।लीलाधर मंडलोई जी ने इस कविता के द्वारा उसी चिर-प्रतिशिक्षित घटना को अरूप के नेपथ्य से मुक्त करने का यह कवित्त पुरुषार्थ किया है।मंडलोई जी की यह कृति एक चित्र है,जिसे बनाते-बनाते यह चित्रकार अपनी अंगुलियां तक कविता में रखकर भूल गया है..!
इतनी सुंदर रचना के लिए मंडलोई जी को प्रणाम करता हूँ।और यह लिखना चाहता हूं कि यहां आकर इस तरह ‘रचना’ सृष्टि में एक मोर्चा हो जाता है..चाहे फिर वो मोर्चा प्रेम के लिए हो तो चाहे युद्ध के लिए..
रचना..मोर्चा हो जाती है।
-रविदत्त मोहता
2. लीलाधर मंडलोई की कविता *प्रेम और अग्नि नाद का जबरदस्त संबंध है,आग के दरिया से दसियों कदम आगे का,दो पत्थरों को पिघलाने की क्षमता इसके अलावा किसी में कहां।आंख तो मन की खिड़की है इससे भीतर भी तो झांका जा सकता है,समर्थ कवि ही यह कर सकता है, चिलमन केवल बाहर का देखने के लिए नहीं होती। प्रवाह पकड़ जबरदस्त है बावजूद लंबी कविता के,आप इससे शुरुआत से ही ऐसे जुड़ जाते हैं कि पूरी कविता से गुजर कर ही थमते है,यह कवि की सफलता ही है ।
प्रेम पर दसियों कविता है,इस शाश्वत विषय को, संवेदनशील विषय को इतने अच्छे से निर्वहन आपके बूते की बात है। उर्दू शब्दावली आपकी काव्य भाषा को अलग अंदाज़ देती है, कहते हैं जिसको अंदाजे बयां ओर।
प्रेम उम्र की मोहताज नहीं,देह में रहकर देहातीत होने की बात किताब कविता से आगे जीवन में भी साकार हो सकती है, खुल जा सिम सिम और वाकई खुल जाता है दरवाजा, इतनी सघन संलग्नता हो तो
अच्छी कविता के लिए बधाई अभिनंदन,
-प्रताप राव कदम
3. रचना समय ‘ में लीलाधर मंडलोईजीजी की कविता ‘ प्रेम ध्रुपद ‘ कविता पढ़ी। मुझे लगता है, लंबी कविता को साधना, ज्ज्वलनशील चीज के निकट चिंगारी को ले जाना जैसा है। कविता के कथ्य तथा संरचना, दोनों ही के बिखरने का खतरा सा बना रहता है लेकिन कवि ने अंतिम शिखर के निकट पहुँच चुके, दाम्पत्य जीवन की जड़ों में डूबकर, उसकी मस्ती में चूर होकर, यह कविता लिखी है ; इसलिए इसमें संवेदना की एक सुस्पष्ट अर्थवत्ता, खूबसूरत लय, अंत तक बनी रहती है। इसमें प्रेम में टकराते दो पत्थर है, जिनकी टकराहट से उत्पन्न चिंगारियों में एक अलग तरह की शीतलता है ; जो अंत के निकट पहुँच चुकी दुनिया को वापस लौटा सकती है। ढाके की मलमल सा प्रेम की डिबिया में रखे मंगल स्वप्न की कल्पना बहुत विलक्षण है। खुद को जल्दी चुक जाने वाले प्रेम का आधुनिक उत्पाद नहीं मानने वाली यह कविता, अब तक लिखी गई लंबी कविताओं की परंपरा में वेहद महत्वपूर्ण कविता है, जो पाठकों से बहुत डूबकर, सावधान पाठ की माँग करती है। यह मनुष्य की आत्मा को एक वेपनाह मुहब्बत से सराबोर कर देने वाली कविता है। इसमें अपने काव्य जीवन के कई दशक पूरे कर चुके कवि का रचना कौशल या चतुर काव्य मुहावरा नहीं ; निराशा के विकट अँधेरे में, प्रेम के एक छोटे से जुगनू का विकट हठ दिखता है।
उम्मीद है यह, कविता प्रेमी समाज की स्मृति में एक मूल्यवान निधि की तरह लंबे समय तक बनी रहेगी।
-मोहन कुमार डहेरिया
4. मृदुला गर्ग
दूसरा कमेंट दूसरे पाठ के बाद।
सत्तर साल के शावक, आपसे 16 साल आगे चल रही हूं , इसलिए आपके कंधे पर हाथ रख कर कह सकती हूं, अब भी बहुत है आगे के बरसों में पाने को।और उससे ज्यादा देने को।
यह कविता प्रेम ध्रुपद लिख कर यही तो साबित किया है आपने
और यह भी कि स्मृति का खजाना भी कम मूल्यवान नहीं। उसे साथ लेना ही होगा। स्मृति में जो संग्रहित है हमारे, केवल हमारी नहीं, सब की पूंजी है। और उसी के माध्यम से हम उस प्रेम को पा सकते हैं, जिसे पाना, सृष्टि का आधार पाना है।
कहा है बारम्बार इस कृति में,
जब प्रेम पा लिया तो सब कुछ पा लिया। पर एक का प्रेम किसी अन्य के प्रेम में हुए बिना फलीभूत नहीं हो सकता। दो के बिना, न प्रेम संभव है, न जीवन, न निर्माण, न सृष्टि।
बस यह आस्था, भविष्य में भी हमसे छूटे नहीं। उसी के लिए लीलाधर मण्डलोई ने यह अनेक रस रूप व्यंजित महाकाव्य, प्रेम ध्रुपद रचा है और उसे लंबी कविता ने समोने की कोशिश की है। पर वह उसमें सीमित रहा नहीं।
कभी विषाद में, कभी उल्लास में; कभी दीप्तमयी आशा में, कभी निविड़ अंधकार पूर्ण हताशा में, कभी नष्ट करने वालों की हिंसा के विरोध में, पर सदा प्रेम में और एक अन्य की उत्तप्त चाहना में, वह अपने डैने फैला कर महाकाव्य की ओर परवाज़ भरता रहता है।
हांं, यह महाकाव्य ही है।
समय…स्मृति…विध्वंस, युद्ध, शांति, आध्यात्म, निर्माण, सृष्टि सब का विहंगम रूप हमें इसमें मिल जाएगा।
इसमें सबके लिए जगह है। संगीत, चित्रकला, विज्ञान, कविता, दर्शन, …..
इसमें जसराज भी है, बिरजू महाराज भी, बेगम अख्तर भी। कबीर हैं ,पिकासो हैं, हॉकिंग भी हैं । क्योंकि हॉकिंग केवल वैज्ञानिक नहीं, जीवन नष्ट होने से खुद को बचाए सम्पूर्ण जीवन हैं। या कहें जीवन को पुष्ट करने के आधीश्वर हैं।
उनकी कविता लीलाधर मण्डलोई की इस आध्यात्मिक कविता में सुपुष्ट होती है।
तो क्या हम अब भी इस विश्वास में जी सकते हैं कि इतना सब नष्ट होने के बाद और नष्ट होने की प्रक्रिया में कहीं कुछ नया जीवन प्रकट होता रहेगा। प्रकृति और परिवेश में दो अलग उठ रहे राग के सुर ऐसी जुगलबंदी करेंगे, कि आपस में भिड़ने के बजाय यूं प्रेम में अपनी दिशा बदलेंगे कि मिल कर एक हो जाएंगे। संगीत में तो जसराज ने करवा दी थी, जसरंगी में। क्या जीवन में, अपने बंटे समाज में, ह्रास होती प्रकृति में, नष्ट होती न्यायप्रियता में भी हम कर सकते हैं? उद्यम से, आस्था से,विचार से, हॉकिंग और कबीर की साझा कविता से, और सर्वोपरि प्रेम
से?
हां, कर सकते हैं आने वाली पीढ़ी के साथ उसे गुरुत्व का दर्जा दे कर।
यही सार है प्रेम ध्रुपद का जो भाषाई विविधता में इतने सरस अध्यात्म के साथ प्रकट हुआ है और इतने आयामों में कि महाकाव्य बन गया है।
ये बेदिली
ये रंजो-ग़म
ये हिचकियां
और याद
यहीं बैठा पुकारता है
तुम्हारा हमनवा
ज़मीं समेटे हुए आधा-अधूरा
जिसकी एक आंख रोती है, दूसरी दीवानगी पर हँसती
उसमें सातों सुर का प्रीत उल्लास और वेदना एक साथ है
यह विदा का समय नहीं
पहाड़ लांघने का है
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है
और इस प्रार्थना का है
कि अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना
सो आओ !
और शामिल हो जाओ
उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में
कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं
****
(* पंडित जसराज ने इसे सिद्ध किया था । यह जुगलबंदी मूर्च्छना पद्धति पर आधारित है जिसे स्त्री – पुरुष गायक अपने अपने राग में , एक ही समय में सुर में गा सकते हैं। वहां जाने में एक बिंदु पर संभावित भिड़ंत के पहले ठहरकर दो राग के, एक हो जाने का आश्चर्य है।) इन पंक्तियों ने देह, दिमाग़ और दिल को जिस पाक सिहरन से भर दिया है, उससे निजात पाऊं तो कुछ तर्क संगत कमेंट करूं। रफ्ता रफ्ता होगा।
मृदुला गर्ग
5. बिंधने के लिए नहीं हुआ ये जन्म
महज शरीर नहीं पहन रखा है हमने
गमले में उगते पौधों को धूप चाहिए और
आंखों को चांद सितारे
प्रेम की यह अनंतता वह एक निरंतर प्रवाह हो, जो समय और परिस्थितियों से परे है । यह प्रेम एक भावनात्मक अनुभव ही नहीं आत्मा का संगीत और जीवन की असल धुन भी है। प्रेम यहां सार्वभौमिक है, सृष्टि की धुरी है, राग ध्रुपद की तरह । ऐसे प्रेम के लिए स्वर, ताल व पद के अद्वितीय संतुलन वाले राग ध्रुपद का रूपक बहुत मार्मिक है। बहुत लम्बी कविता कौशल से साधी है। – अनुराधा सिंह
6. सातों सुर की प्रीत उल्लास और वेदना एक साथ है l हृदय के तारों को झंकृत करती उदात्त प्रेम कविता भाव , शैली, अनुपम । खगोल से भूगोल तक कविता अपने लिए गजब का शब्द
सामर्थ्य रखती है अनंत महासागर प्रेम का है गहरी डुबकी लगाकर सीप से हासिल असली मोती की अद्भुत खनक का राग भी अप्रतिम है।
-त्रिलोक महावर
7. परिवर्तनशील समय में “ प्रेम ध्रुपद“ का सनातन प्रवाह
/ शाश्वत के सजग शिल्पी: लीलाधर मंडलोई
डॉ मयंक मुरारी
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सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो। इनपर भारतीय सभ्यता की आधारित है, जिसका संरक्षण और संवर्द्धन साहित्य सृजन के माध्यम से विरले लोग करते हैं। भारतीय साहित्यांगन में लीलाधर मंडलोई जैसे कुछेक सृजनधर्मी बचे है, जो देश और काल के शाश्वत प्रवाह को अपनी लेखनी का केंद्रीय भाव बनाते हैं। परिवर्तनशील समय में “ प्रेम ध्रुपद“ का सनातन प्रवाह के संग लीलाधरजी प्रेम की गहराई में उतरते है। इसके साथ ही इस अस्तित्व में गूंजायमान अनहद को शब्द प्रदान करते हैं। उनके सृजन-शब्द और भाव में संगीत की धारा और उसमें मधुरता का समावेश अनायास नहीं है, बल्कि यह लीलाधरजी की स्वाभाविक गुण है, जो दंडकारण्य के जंगल में उनको मिला। इसी जंगल में निवास के दौरान त्रेता में श्रीराम को जीवन का अर्थ मिलता है, जिसकी एक धारा उनकी लंबी कविता “ प्रेम ध्रुपद“ में दिखती है।
जब कोई कविता आत्मा तक पहुंच जाए तो उसकी सार्थकता सिद्ध होती है। उनकी लंबी प्रेम कविता “ प्रेम ध्रुपद“ में प्रेम की गहराई के साथ हरेक शब्दों के बीच भाव की गूंज हमें एक चिरस्थायी संबंध का आमंत्रण देता है। दो पत्थरों के अचानक टकराने से जनमे उस अलौकिक अग्नि नाद का…। इन पंक्तियों के माध्यम से एक साथ सभ्यता के शुरूआत, विकास और उसके भविष्य पर सकारात्मक दस्तक होता है। कविता की सकारात्मकता में मंडलोईजी का सूफियाना फक्कड़पन दिखता है। यह कभी शब्दों के मिठास और जनजीवन के सजीव चित्रण में हमारे समक्ष आता है। बचपन में एक कविता पढ़ी थी- सतपुड़ा के घने जंगल, ऊंघते अनमने जंगल…। उनकी कविताओं में प्रकृति का वर्णन विशेष रूप से होता है। ये पंक्तियां हैं- उसे भूले बसंत की तरह अनुभव करो, दुलराओ, मनाओ, जगाओ। वह मन द्वार पर सगुन लिए खड़ा है। नदी है गहरी सो गया भीतर एक सपना, हमारी मिट्टी डूबी आंखें, हमारी पानियों से चेहरे, हमारी हवाओं सी उड़ान। इन कविताओं को पढ़कर अर्जेंटीनी लेखक होर्हे लुई बोर्हेस याद आते है जिनको दृष्टिदोष था। वह देख नहीं सकते थे। इसके बाद भी विश्व साहित्य में उनका नाम है। उनका मानना था कि दुनिया का सारा साहित्य अलग-अलग लोग नहीं लिखते हैं, बल्कि असख्ंय अलग-अलग नामोंवाला एक ही आत्मा लिखती है। वह लिखते है कि- मैं ही होमर था, कुछ समय पश्चात मैं नहीं रहूंगा। कुछ देर में मैं समस्त मनुष्य हो जाऊंगा।
जीवन भी सृजन है। जगत भी सृजन है। अस्तित्व में विराट सृजन का यज्ञ चल रहा है। लीलाधरजी को पढ़ने पर लगता है कि वे भी अपनी लेखनी कर्म के माध्यम से इस यज्ञ में सृजन की आहुति प्रदान कर रहे है। सृजन की असीमता में अमरत्व के बीज खोज रहे हैं। कहा गया है कि अथक सृजन कर्म में शाश्वत जीवन का सुख है। चिरंतन यात्रा में कभी-कभी सृजन का सौंदर्य “दिक्काल“ का भी अतिक्रमण करता है। लीलाधरजी की कविता में भी यह देखने को मिलता है। उनकी “ प्रेम धु्रपद“ की एक पंक्ति है- आओ ! ढांप लेे बदन, थोड़ा आवारा हो जाएं प्रतिकूल हवाओं में, मोड़ के उस पार ढलान में उतरें बेपरवाह, प्रेम की उसी प्राचीन जगह, जहां दुनिया आजाद ख्यालों में रोशन है। उनकी इस प्रेम कविता को पढ़कर कभी वसंत की भोर, गुलमोहर के फूल और सतपुड़ा की तलहटी में हम यात्रा करते है तो कभी उनके ही शब्द संग्रह- कथा, गीत, डायरी यात्रा की जीवंत शब्द-लहरी से गुजर आत्मिक शांति को महसूस करते है।
8. शामिल हो जाओ
उनके साथ जो प्रेम की लय में
संगठित होना चाहते हैं।
इस विलक्षण कविता का केंद्र ऊपर दर्ज़ प्रेम का आव्हान लगता है।
ऐसी सघन संवेदना और विराट फलक वाली कविता को स्क्रीन पर पढ़ने से मन नहीं भरता।
तिश्नगी बनी रहती है।कई -कई बार पढ़ने के लिए इसका मुद्रित रूप सामने होना लाज़िमी है।
बहरहाल यह बड़ा कारनामा आपकी रचनात्मकता को ऊंचाई देता है।
कबीर से फ़ैज़ तक के विस्तार से सरसरी तौर पर नहीं गुज़रा जा सकता।ठहरकर देखें-सोचें तो इस विस्तार में
दोआब के कितने ही रंग और रूप अपनी आबो-ताब के साथ मौजूद मिलेंगे—ये सब मिलकर प्रेम की एक निर्भय दुनिया रचते हैं जिसे संभव बनाने की ख़्वाहिश इस रचना में प्रमुखता के साथ व्यक्त की गई है।
-डा जानकी प्रसाद शर्मा
9. मुस्कुराता है जो इस आलम में
ब-ख़ुदा मुझको तो ख़ुदा लगता है
आपकी कविता इस आलम में मुस्कुराहट की तरह है।
हम कब एक दूसरे की सांस बनेंगे
कब लौट आएंगे उसी शाख़ पर
जहां फूल खिलना चाहते हैं
देखो मिट्टी ज़्यादा बंजर नहीं है अभी
दो परिंदे एक फल को कुतर रहे हैं
और एक-दूजे से मुखातिब हैं
कायनात में प्रेम दो नहीं एक है
बहुत सुंदर,फिर पढूंगा एक गैप के बाद।इसे एक पुस्तिका की तरह छापें।
-कुमार मुकुल
10. लीलाधर, मेहरबानी तुम्हारी कि तुमने मौक़ा दिया,प्रेम के अनंत विस्तार में विचरण का, उसमें जीवन के मर्म को जानने का, आस्था और विश्वास की अजस्र रस धार में ऊब-चूब होने का।
-सतीश जायसवाल
11. यह एक अप्रतिम प्रेम कविता है।जिसमें प्रेम अपने उदात्त स्वरूप में प्रकट हुआ है।अनोखे बिंब, दिलचस्प उपमाएं,ज़िद भरी मनुहार,उष्ण कृष्ण विवर। कविता लंबी है लेकिन बांधे रखती है और एक राग की तरह खिलती-खुलती जाती है।पढ़ते हुए कभी मन निष्फल प्रेम को याद करता है और व्याकुल होता है।कभी बच्चे सा
मुस्कुराता है।
हमारे समय में जबकि प्रेम छीज रहा है आपकी कविता उसे बचाती है।
-अशोक मिश्र
12. अपनी सांसों में सहेज कर रख देने वाली कविता।समय मिलने पर इस पर विस्तार से लिखूंगा।
-विनोद शाही
13. अनेक बार पाठ करना पड़ेगा। यथार्थ और अमूर्तन की घनी जुगलबंदी, शब्दों के अद्भुत प्रयोग, अनूठापन सबसे
अलग कहन शैली आदि चमकीले लोक में ले जाते हैं जहां देखने-समझने के अनोखे द्वार खुलते हैं।
-राजकमल नायक
14. पढ़ गई।आपकी तरह यह कविता भी है,उम्मीदों की तरफ़ दिखाती कि सब कुछ के बावजूद प्रेम ही है जो हमें
सृष्टि में गतिशील किए रहेगा।इस सत्य को पहचानना हमारे मनुष्य होने की निशानी भी है।सारे युद्ध,सारी मार-काट के बावजूद हम यहीं लौट आते हैं। यहीं हमारी अनगिनत सांसें प्रकृति बचाए रखती है। बहुत बधाई।
-सविता सिंह
15. अभी तो एक पाठ में ‘प्रेम ध्रुपद ‘को छू सका हूं ,लय ,ताल ,जीवन से भरी इस अद्भुत प्रेम कविता को जीने के लिए धैर्य चाहिए।अभी तो सिर्फ़ बधाई स्वीकार करें।
-विजय सिंह
16. प्रेम के पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने की एक कबीरी कोशिश है जिसकी आज बड़ी ज़रूरत है।
-श्री प्रकाश शुक्ल
17. आप की लंबी कविता ‘प्रेम ध्रुपद ‘ पढ़ ली और उसे अपने कंप्यूटर पर सेव कर ली।पहली रीडिंग बहुत सघन,संश्लिष्ट और महत्वपूर्ण लगी,सनातन, सामयिक और सांस्कृतिक संदर्भों से परिपूर्ण भी।
ज़रा बाड़मेर यात्रा से लौट आऊं फिर इत्मीनान से लिखूंगा।
-नंद भारद्वाज
18. यह कवि मंडलोई जी की अद्भुद प्रेम कविता है। प्रेम भी सीमित अर्थ वाला नहीं बल्कि जीवन का सर्व व्यापी प्रेम है।
इस कविता में ध्रुपद गायन को महसूसते हुए जीने की निरंतरता का पीछा करती अनेक पंक्तियां है । यह जीवन , प्रकृति और संसार के भक्ति रस से लबरेज कविता है। इसमें ढाके की मलमल का जिक्र भी है , एक पंक्ति में कवि के सत्तर बरस के होने की कैफियत भी दर्ज है। इस तरह कविता जीवन राग की एक नई कविता है। उम्र को बिसराकर एक जरूरी पाठ यह कविता रच रही है।
कविता में रूप, रस ,रंग ,गंध के अनेक बिंब है। अच्छे रूपक है। उपमाएं भी अनूठी हे। यह कविता जीवन और प्रकृति की दिव्यता का जोशभरा बखान भी करती है अनेक मोड़ों पर ।
इसे पढ़ते हुए मुझे यह रचना *कविता* की शक्ति से भरी हुई रचना भी लगती रही । किसी भी पंक्ति में सीधा सा और एक पत्रकारिता वाला वक्तव्य भी नही है जो अद्भुद विशेषता है वरना लंबी कविता अक्सर अनेक जगहों पर वैचारिक संबोधन बन जाती है। मंडलोई जी के कवि ने इस खतरे से खुद को बच लिया है।
हां, कविता में अनेक जगह ग़ज़ल जैसी शब्दावली कुछ अधिक, कुछ कम है।
अपने संपूर्ण असर में ये कविता मानवीय प्रेम की अनूभूति पर रची हृदय हिला देने वाली कविता है, इसमें मंडलोई की काव्य-ध्वनि पूरे असर के साथ सुनाई देती है । कविता की मूल चेतना को उजागर करती कुछ पंक्तियां देखें —
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है और इस प्रार्थना का है कि
अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना सो आओ !
और शामिल हो जाओ उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं
-नरेश चन्द्रकर
19.
लीलाधर मण्डलोई की मौलिकता गद्य और पद्य दोनों में झलकती है।इस लंबी कविता का वितान व्यापक है।प्रेम का ध्रुपद भी ऊंची उड़ान चाहता है,लंबे आलाप की तरह।यह प्रथम अनुभूति है।कविता धीरे धीरे ज़ेहन में और खुलेगी,नए अर्थ दिखती हुई।
– ममता कालिया
20. मनुष्य का समग्र बोध , सम्पूर्ण चेतना और समस्त संवेदनाएं कला और कला सृजन के मूल में विद्यमान रहती हैं ।इसलिए संसार की सभी कलाएं, जीवन का प्रतिबिंब हैं ।जीवन न होना उन्हें सृजनात्मक बनाता है।हर कविता कला इस प्रतिबिम्ब को खोजती है। लीलाधर मंडलोई भी इस कविता में जीवन के प्रतिबिम्ब को खोजते हैं। खोज तो फिर खोज है। लहरों का अतिक्रमण है।विधाओं की हदबंदी के पार जाकर ही खोजा जा सकता है।इसलिए यहां संगीत भाषा और अंतस की संवेदना एक नया द्रव्य बनाती हैं।एक नई खोज।नया विस्मय ।नई पुकार।अनुकूलन से मुक्त। सच्ची कविता। -अच्युतानंद मिश्र
21. मंडलोई जी की अनेक कविताओं से गुजरी हूँ। उनकी कविताओं के विषय उनके पसंदीदा विषयों की आवाजाही के बीच से आते हैं- निरद्वंद्व.. वे किसी भी वाद से विवाद से आक्रांत रचनाएँ नहीं हैं, भले ही उनकी पक्षधरता असंदिग्ध हो। यह एक बहुत बड़ी खूबी है। उनकी कविताएँ विभिन्न विधाओं का परस्पर संवाद का बेहतरीन नमूना हैं। इस कविता में सूरज कई कई बार आया है और जितनी भी बार आया है, मन उदास हो गया है, बावजूद इसके कि यह जिजीविषा की कविता है, जीने के पुकार की कविता है। भाषा की आवाजाही भी ध्यातव्य है। कविता कई बार पढ़ने पर खुलेगी… यह इसकी ताकत है! -सुमन केशरी
22. मंडलोई जी को पढ़ना भाषा के नये कलेवर से परिचित होना और कथ्य की एक नहीं लय से जुड़ना है। इस कविता में संगीत के अमूर्त को जीवन में प्राप्त करते हुए प्रेम में घटित हो जाने जैसा है। भाषा, शिल्प और कथ्य तीनों स्तरों पर यह कविता पाठक को समृद्ध करती है। -प्रदीप मिश्र, इन्दौर
23. आदरणीय मंडलोई जी की कविता कविता ही है।
सादर
-प्रांजल धर
24. आपकी यह लंबी कविता मैंने पढ़ ली।प्रेम और उम्मीद से लबरेज इस कविता को पढ़ते हुए इसमें डूब गया -एक स्वप्न लोक में खो गया।किसी भी रचना की एक विशेषता यह होती है कि वह पढ़ने को विवश कर दे।सो इसमें यह गुण है।और भी बहुत कुछ है।इस कविता की भाषा पर भी बात हो सकती है।मगर अभी इतना ही।
राधेश्याम तिवारी
25. आपकी यह कविता एक लंबा आलाप है ऐसे स्वर का जो दो से एक हो जाना चाहता है जसराज की तरह।एक मंद्र सांध्य राग-जंगल, पहाड़,मरुथल के शानों पर निर्वासित सा भटकता है।अपने होने की वजह पूछता हुआ और तारों से पता पूछने की वजह पूछने की कोशिश करता हुआ सा।गहरे अनुराग से भरे हुए एक उत्तप्त हृदय की आंच से सीझे हुए शब्दों ने जैसे कबीरी देह धारण कर ली है और अपने अभीष्ट की ओर बढ़ चले हैं। हिंदी और उर्दू के मिलन से बना भाषा का नया कलेवर,कलाओं का साहचर्य इसे अद्भुत रूप अता करता है।
कुमार अनुपम,कवि व कला समीक्षक
26. तीव्र गति, असीमित आकाश,प्रेम के अनेक रूप।सुंदर कविता।
शशांक, वरिष्ठ कथाकार
नरेश अग्रवाल – कवि *लीलाधर मंडलोई* जी की कविता पर अनेक लोगों की टिप्पणियां प्राप्त हो रही हैं। उसमें से कुछ लोगों की टिप्पणियां आप लोगों के अवलोकन हेतु यहां प्रस्तुत है:-
27. बहुस्तरीय कविता।शास्त्रीय राग की तरह लंबी कविता के संतुलन को साधना,एक बड़ी साधना है। स्त्री पुरुष के संबंधों के अकथ, अमूर्त और ऐंद्रिकता का अपूर्व समुच्चय।ठहर कर दुबारा पढूंगा।
विनोद दास ,कवि ,गद्यकार व आलोचक
28. एक बेहतरीन कविता है ‘प्रेम ध्रुपद ‘।प्रेम के द्वीप से उड़ानें भर-भर कर देश-काल की यात्राएं हैं इसमें। कविता की शब्द योजना और मुहावरेदानी क्या ख़ूब है।प्रेम को उसकी अमूर्तता में भी उसके अकथ में देखना -खोना मौलिक और मूल्यवान है।झोल या स्फीति लंबी कविताओं की नियति होती है,कवि ने इसे बख़ूबी साधा है। संगीत के इलाक़े में बार-बार विचरती यह कविता कबीर ,फ़ैज़, हाकिंस आदि की स्पर्शता लिये अंततः अपने
समकाल पर ठहर विद्रूपताओं के विरुद्ध एक ऐसी काव्य-संस्तुति है जहां किसी पिकासो को फिर कोई गोएर्निका न रचनी पड़े।
हरीशचंद्र पांडे ,वरिष्ठ कवि -आलोचक
29. कविता पढ़ी।इसको कम से कम दस बार और पढ़ना है ।अलग अलग समय पर पढ़ना है।आज राज को जब सब सो जाएंगे,११बजे इसे फिर पढ़ूंगा।जीवन और प्रेम को बचाने की फ़िक्र और कशमकश जितनी इस कविता में है,मुझे याद नहीं पड़ता,कहीं और मैंने देखी,सुनी हो।मैं आपको बार बार लिखूंगा।
अजेय कुमार,सं उद्भावना
30. कल्पना का फैलाव और भावों की गहराई। कविता नये प्रस्थान की ओर है।
प्रकाश चंद्रायन, वरिष्ठ पत्रकार
31. कविता का मैं कोई अच्छा समीक्षक या पाठक नहीं हूं। सिर्फ़ इतना कि लंबी होने के बावजूद यह कविता मुझे पढ़ने के लिए प्रेरित करती रही। कविता का नया मुहावरा रचा है आपने ।भाषा और शिल्प की जुगलबंदी मन में
तरंगित होती रही।
अशोक अग्रवाल, वरिष्ठ लेखक
32. कविता आज पूरी पढ़ ली है।यह तो कविता पढ़ते ही स्पष्ट हो गया था कि यह एक पाठ की कविता नहीं है।यह भी तय है कि यह प्रेम की एकरेखीय कविता नहीं है।यह बड़ी परिधि,बड़ी माप की कविता है।परंपराप्रकृत प्रकृति प्रेम के भीतर से जीवन राग की ध्वनि को पकड़ने के लिए यह कविता इस पाठ को भी तैयार करती है कि
एक क्रूर और घोर अनास्था के भागीदार समय में प्रेम को जीवन और सृष्टि के गान के संदर्भ में कैसे गाया जा सकता है।इस कविता में दिलचस्प बात यह है कि प्रेम के परंपरागत रूप या कहें एक तरह के प्लेटानिक लव की परिधि से बाहर रहे प्रेम या प्रेम कविता के प्रति जो एक क़िस्म का अनादर है,उस जगह निर्वैयक्तिक प्रेम और प्रेम
की ऐंद्रिकता के द्वंद के निरर्थक हो चुके लगाव और आस्था को भी प्रेम की तरल दृष्टि की ताकत तिरस्कृत करती है।यहीं से एक मानवनिष्ठ चिंतन की सी सीमा रेखा भी बनना शुरु हो जाती है।
सबसे अच्छी बात तो यह है कि इस कविता में दुनिया में एकाएक बढ़ रही क्रूरता और मनुष्यता विरोधी
आस्था के लिए जिस पारमिता करुणा की निर्मिति है,वह करुणा निरा शब्द नहीं है,प्रेमिल विश्वास से है।यही कारण है कि वह उस निर्वैयक्तिक प्रेम से आगे जाकर प्रेम की संपूर्णता ‘सगुण स्मृति की निर्गुण ढब’ के निश्चय निर्णय में प्रकट करती है।और यह निर्णय ही इस कविता को ‘स्वप्न कामना’ होने से पृथक करता है। क्योंकि स्वप्न में निश्चय की गुंजाइश नहीं होती है। जाहिर है कि ‘सृष्टि’के मेटाफर में कायनात का प्रतीक शामिल होकर इसका अर्थ विस्तार ही करता है।ऐसा अर्थ विस्तार जिसमें प्रेम की विकलता और प्रेम को सृष्टि के विराट रूपक में प्रकट करने के अनुरागी श्रम में भावुकता की बाढ़ और संवेदना का अपव्यय नहीं है।इस कविता में सृष्टि और जीवन को जिस तरह एकाकार किया गया है वह निर्मिति प्रेम की उस निर्बंध आकांक्षा से पैदा हुई है जो ईश्वर से वरदान से हासिल नहीं होती है। कविता को एक बड़ा आधार इसकी नृत्य और सांगीतिक संदर्भ संरचना ने भी दिया है।इस पूरी कविता को इस संदर्भ से भी देखा जाना चाहिए।अभी बस इतना ही।कभी इसे दोबारा और पढ़ूंगा।
भालचंद्र जोशी, वरिष्ठ कथाकार
33. आपकी लंबी कविता दो बार पढ़ चुका हूं।आपने बड़ा दीर्घ कैनवास कवर किया है अपनी कविता में।प्रेम के होने न होने के मुख्य कार्ड के इर्द-गिर्द रागमाला है, पर्यावरण के संदर्भ हैं, मनुष्य का और मनुष्यता का इतिहास है,कबीर से फ़ैज़ तक फैला हुआ सांस्कृतिक परिवेश है , भविष्य की चिंता है,भाषा की एंबिगुएटी का सौंदर्य है।
हिंदी की आधुनिक दीर्घ कविता का अभ्यास आपकी इस कविता के बिना पूरा नहीं हो सकता।
चंद्रकांत पाटील, वरिष्ठ हिंदी -मराठी लेखक
34. मेरा सौभाग्य है कि मुझे इतनी सुंदर कविता पढ़ने को मिली।प्रेम कविता लिखना और पूरी तरह प्रेम में डूबकर
लिखना वर्तमान में असंभव हो रहा है। पूरी एक फ़ौज सन्नद्ध है,आपको यह बताने के लिए कि क्या सभी सामाजिक सरोकार समाप्त हो गये हैं जो आपको प्रेम सूझ हो रहा है।कुछ शब्द जो हमारी शब्दावली से बाहर हो गये थे यथा जुगनू,क़स्में, हरसिंगार,एकसांस हो जाना , अबूझ अंतरिक्ष,हसीन लम्हे,प्रेम की दीवानगी,सिहरन-जब तुम्हारी आंख से टपकता है मोती,मैं सिहर जाता हूं-बिन तुम्हारे नहीं मिलते कविता के सुर शब्द।यहीं कवि कहता है -रोने के लिए ज़िंदगी पड़ी है सोने में कुछ जागता है,जागने दो।यह कविता शाट्स-दृश्य और दृश्य क्रमों का स्वप्न बुनती है।रंग और प्रकाश योजना की अनंत छवियां निर्मित करती हैं।इस सत्य से भागना ग़ैर ज़रूरी है कि हम सब गमले के फूल हैं ।पचास मंज़िला की बीसवीं की पांच बाई पांच फुट की बालकनी में इस गमले को रहने की जगह मिली है।जहां दिन में एक-आध घंटे के लिए धूप की झलक आ जाती है। प्रेम हमें केवल स्वर्ग की ओर ही नहीं ले जाता,वह हमें तोड़ता छिन्न-भिन्न कर देता है।यह प्रेम की सार्थकता है।यही प्रेम की सुवास है।
मनमोहन सिंह चड्ढा ,वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक
35. कविता अभी -अभी सिर्फ़ एक बार पढ़ी। यक़ीनन बार -बार पढ़ना पढ़ेगा तभी इन आंखों को जला देने वाले सुलगते गूंजते अंधेरे में कोई रौशन किरन पकड़ जाऊंगा।माना कि दुनिया दर्द है और मुहब्बत इस दर्द का मुदावा लेकिन यहां तो बात और भी आगे निकल गयी है। फिलहाल इस नयी और अनोखी आवाज़ को बधाई।
चंद्रभान ख़याल ,शायर, आलोचक (उर्दू साहित्य)
36. पूरी कविता को ध्यान से पढ़ा।यह अकेले कंठ की पुकार नहीं है।यह समय की वह ज़रुरत है,जिसकी गूंज
दिक -दिगंत तक फैलना चाहिए। कविता को, संगीत को, समस्त लोक की सृजनात्मकता का मूल ही मनुष्यत्व
को बचा सकता है, यही इस कविता की सार्थकता है।वह विसम को सम पर ला सकता है।इस कविता का पाठ
इतना व्यापक और सघन है कि कवि की ऊर्ध्वमुख चेतना नाना छवियों में संतरण करती है और अपने मूल आशय को केंद्र में रखती है जैसे पृथ्वी अहर्निश अपनी धुरी पर घूमती है और समय की परिक्रमा करती है।यही
तो राग है जो हम रचते हैं और जिसने सब कुछ रचा है। संगीत के रागों के माध्यम से जिन भावनाओं की सृष्टि
की गई है,वह संगीत के साथ कवि की रागात्मकता और समझ का अनुपम उदाहरण है,जिसके बिना आज की कविता सूनी है।प्रेम ज़िंदगी का पर्याय है,यही इस कविता का प्रतिपाद्य है।
वीरेंद्र मोहन , वरिष्ठ आलोचक
37. बिंधने के लिए नहीं हुआ है ये जन्म
महज़ शरीर नहीं पहन रखा है हमने
गमले में उगते पौधों को धूप चाहिए
आंखों को चांद-सितारे
दोनों ने पृथ्वी पर
सितारा देवी का गतनिकास साक्षात अनुभव
किया है
एक झटके में पढ़ी जाने वाली नहीं है।किसी ढलती शाम ,एकांत के भीने धुंधलके में आत्मीय जन के साथ देर तक गुनगुनाई जाने वाली कविता है।
उत्तर काल का महाकाव्यात्मक प्रेमाख्यान है,जिसमें कितनी ही अविस्मरणीय कविताओं की अनुगूंजे हैं।
आशुतोष,वरिष्ठ आलोचक
38. नाउम्मीद समय में रौशनी की लकीर। संगीत और कला के समुच्चय का उत्कर्ष।ठहराव और शांतचित्त से लिखी
गई कविता जो ध्रुपद की तरह धीरे-धीरे खुलती है।अभी पढ़ी है ।
यह पहली प्रतिक्रिया समझिए।
रेखा सेठी ,लेखक , अनुवादक
39. ‘प्रेम ध्रुपद ‘को पढ़ते हुए साहिर लुधियानवी की ‘परछाईयां’ याद आ जाती है।अक्सर लंबी कविता थका देती है। लेकिन यह कविता क़ारी को जकड़ में रखती है। मंडलोई जी शब्द को धागे में ऐसे पिरोते हैं कि वह एब्सट्रेक्ट आर्ट में तब्दील हो जाता है।इबारत इबादत में महव हो जाती है। ध्रुपद का मानी ही इश्क़ है जो कविता की रूह है।दो लफ़्ज़ों के टकराव का शब्दनाद पूरी कायनात में गूंजता है।हंसी हरसिंगार सी आने वाले कल के होंठों पर हम ज़रूर देखेंगे। कविता में आप जिस तरह जी रहे रहे हैं,मुझे हसद होती है।प्यारे भाईजी ज़ोर ए क़लम और ज़ियादा मुबारक।
जयंत परमार , वरिष्ठ उर्दू कवि व चित्रकार।
40. ‘भ्रमर गीत’ रचने की परंपरा में कई उदाहरण मिलते हैं। जिनमें प्रेम-संदेसा भेजते हुए ‘लीलाधर ‘ कुछ तो बयानों से कहते हैं और कुछ नयनों से कहते हैं और जो भी रही-सही हूक है उसे हिचकियों से भी कहते हैं।यह कविता भी कुछ ऐसी ही भावना से बढ़त लेती है।यह अपने नामकरण में ध्रुपद के आलाप जैसी तो नहीं बल्कि प्रेम के छोटे-छोटे ख़यालों की बंदिशों में आकार लेती द्रुत -विलंबित लय के क़रीब लगी।
ध्रुव शुक्ल, कवि,गद्यकार व आलोचक
41. लक-ओ-दक इस कविता की फ़सीह में इस्तेमाल बलागत क़ाबिले तारीफ़ है।उल्फत की ज़रुरत से ख़िलकत मुंह नहीं मोड़ सकती ।सच में ख़िलकत जिस्म का मज़ा ही नहीं है।उल्फत की सरख़ुशी ताहम के लम्हों में अदिल -ओ-नज़ीर तरीक़े से यह कविता बखान करती है। वैयक्तिक मनोभाव पर आधारित घनीभूत संवेदनाओं के विविध बिंबों एवं उपमाओं से लबरेज़ अज़हद छटा बिखेरती,इस बेहतरीन कविता के लिए मुबारकबाद।
अशोक शाह,वरिष्ठ कवि
42. लीलाधर मंडलोई के कवि में नयी काव्य भूमि और नये स्वर के लिए सतत बैचेनी देखी गई है।समय के साथ उनके आशय गहरे और व्यापक होते चले गये हैं।या यूं कहा जाए कि उनकी कविता के स्वर समावेशी होते चले
गए। समाहित होने का भाव उसमें गहराता चला गया।आवाज़ धीरे धीरे एक पुकार में बदलती चली गई। विलुप्तता और क्षरण के इस सर्वग्रासी समय में जब चारों ओर से असहायता घेरती है तब कवि के अंदर से
एक पुकार उठती है। मंडलोई की कविता ‘प्रेम ध्रुपद ‘प्रार्थनाओं से अंतर्निहित एक पुकार है।एक आलाप है। धीरे-धीरे यह एहसास घनीभूत होता जा रहा है कि इस क्षरण में प्रेम ही अटल भूमि है जहां से समूची मनुष्यता को,सृष्टि को पुकारा जा सकता है।वहीं से प्रेम का ध्रुपद गाया जा सकता है।
मंडलोई के रचनात्मक अनुशासन में पेंटिंग और संगीत का भी अहम मुकाम है जिसकी बानगी ‘प्रेम ध्रुपद ‘में जगह -जगह मिलती है।इस कठिन समय में सृष्टि को बचाने के देखे लिए महास्वप्न को रचने के लिए बधाई।
रामकुमार तिवारी,कवि व कथाकार
43. पढ़ गया।निहायत महीन और व्यापक भावप्रसार अंकोरने वाली उम्दा कविता है।इसकी भाषा की ताज़गी मोहक है।यह आपकी काव्य यात्रा का बड़ा पड़ाव है।
डा राधावल्लभ त्रिपाठी , वरिष्ठ लेखक और संस्कृत साहित्य के विद्वान।
44. अद्भुत स्वर लहरी।
प्रेम के शतपथ की शतपदी।
ध्रुव की अविचल साधना का राग।
बहुत -बहुत बधाई और अभिनंदन।
अरुण कमल ,वरिष्ठ कवि
45. लंबे समय तक यात्रा में था।फिर अस्वस्थता। कविता मुझे बार-बार पुकारती रही।मैं ठिठक कर मुड़ -मुड़ कर देखता रहा और संपूर्ण एकाग्रता से कविता के साथ रूबरु होने की चाह में समय मेरे हाथों से फिसलता रहा।
आज एकाग्र होकर कविता में प्रवेश करने पर, मैं प्रेम की पुकार और एक अलौकिक दुनिया में खो गया।एक सांस में कविता के संग घुल-मिल गया।वाकई सार्थक शीर्षक से ‘प्रेम ध्रुपद’।वह पाठक के भीतर भी एक तान को निरंतर दोहराती रहती है —प्रतीकों और बिंबों ने नये-नये वस्त्र धारण किए हैं —अलोनी मुस्कान, अग्नि नाद, सांवला धुंधलका और साथ-संगत रहा सितारा देवी का गतनिकास,बेग़म अख़्तर की ठुमरी,जसराज का जसरंगी,पिकासो और कबीराई रंग—-नृत्य में आंख पांव —-सुंदर!डूब गया मैं —–क्योंकि नदी गहरी है ,सो गया भीतर एक सपना—–इस विसंगत समय में प्रेम ही सृष्टि को बचा सकता है। अद्भुत प्रेम कविता है।
दामोदर खड़से, हिंदी -मराठी के वरिष्ठ लेखक
46. करुणा निरा शब्द नहीं है
अपने भीतर प्रेम को आकार देते हुए
वह पालता पोसता है
और त्याग का रूपक हो जाता है
****
हम कब एक दूसरे की सांस बनेंगे
कब लौट आएंगे उसी शाख पर
जहां फूल खिलना चाहते हैं
देखो!मिट्टी ज़्यादा बंजर नहीं है अभी
दो परिंदे एक फल को कुतर रहे हैं
और एक दूजे से मुख़ातिब हैं
कायनात में प्रेम एक है दो नहीं
पढ़ गया एक नज़र सारी कविता।पहले पाठ में बार -बार मोहती कविता लगी।इस पर ठहरकर बात होना चाहिए।यह भी लगा कि कहीं -कहीं पैराफ्रैज़िंग है,हो सकता है, फिर से और पढ़ने पर ऐसा न लगे।
कविता सदाशयता और संवेदनशीलता की साक्षात पुकार लगती है।
विनय विश्वास,कवि व आलोचक
47. कविता कई बार पढ़ी। बहुत पसंद आई।
पूरी कविता में एक नदी का सा सौन्दर्य है।चाहो तो उदगम से अंत तक की यात्रा की जा सकती है लेकिन उससे भी बेहतर बात ये है कि पाठक कहीं से भी जुड़े वह संपूर्ण मिलती है।किसी भी पंक्ति से उसे पार किया जा सकता है।हम जैसे नई पीढ़ी के लिए इसमें बहुत कुछ सीखने को है।
घनश्याम कुमार देवांश,युवा कवि
48. वाह! अद्भुत है यह अनूठी प्रेम लय जो मोहित करती है और फिर झकझोरती है—। आपकी इस अनूठी कविता को पढ़कर जो अर्जित किया है वह अभी अंतर्मन में गूंज रहा है।इस गूंज को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द खोज़ रहा हूं।
शैलेन्द्र शैली ,सं राग भोपाली
49. पूरी कविता से गुज़रकर अव्यक्त मौन में हूं।यह कविता प्रचलित अर्थों में प्रेम कविता नहीं है।है भी तो विराट स्तर पर।यह फैलकर प्रकृति ,जीवन,समय, सभ्यता और क्षितिज या उसके पार ले जाती है।कभी -कभी व्योम की ओर ले जाती है और फिर भौतिक दुनिया में उतार देती है।जहां से ले गई थी।इस कविता में इतने तरल और मार्मिक स्थल हैं कि बिना लिखित फार्म के हम उद्धरित नहीं कर सकते।समय की विडंबना के इतने मंद और शालीन स्वर क्यों आए हैं?ठहरकर सोचने लगा।फिर ख़याल आया यह तो प्रेम कविता के कलेवर में है। स्मृति कमज़ोर होने लगी है। लिखते समय पाठ को देखना ज़रूरी है। आख़िरी बात बदली हुई नयी भाषा को लेकर। हिंदी -उर्दू की अभेदता हमारी भाषा की एक शैली रही है-एकदम सहोदर! उसे पाकर हम अपने ही गांव तो आए
हैं। एक आत्मीय अहसास पूरी कविता को और क़रीब और क़रीब रखने को विवश करती है।
कर्मेंदु शिशिर, वरिष्ठ आलोचक /लेखक
50. ‘प्रेम ध्रुपद ‘पढ़ी।सच कहूं तो मेरे लिए यह चुनौतीपूर्ण है, जितनी तैयारी से आपने इस कविता को लिखा है, उतनी तैयारी मेरी इस कविता के पाठ के लिए भी नहीं है,समझ और व्याख्या तो दूर की बात है। पाठकीय इन्वाल्वमेंट से इसकी व्यंजना को शायद कुछ हद तक समझ पाऊं।पढ़ने के बाद इतना पेशनेट हुआ हूं कि बस उधेड़बुन में ही लगा हुआ हूं।मेरे लिए प्रेम के संदर्भ में केवल शमशेर की कविताएं चुनौती बनती हैं या आज आपकी ‘प्रेम ध्रुपद ‘ही बनी है। हिंदी में प्रेम पर लिखीं गई तमाम कविताओं का संबंध ध्रुपद संगीत के भाव से अलग है, इसलिए उन कविताओं का और उनसे आगे के प्रेम का सांगीतिक भाव एवं साथ लिए दिखती है यह
कविता,बाक़ी चीज़ों को निस्सार बनाती हुई।
प्रो दुर्गा प्रसाद गुप्त,वरिष्ठ कवि -आलोचक
आभार शब्द छोटा है।
कविता कुछ बेहद ज़रूरी सरोकार को अभिव्यक्त कर सकी,यही उसका काम है।
इससे अधिक शब्द नहीं हैं।
यह कविता समय और सृजन का नायाब, अंतरंग पाठ है। गहरे सरोकारों और सृजनात्मक विकलता को बांधती, पिरोती। पढ़ते हुए एक लय बनती जाती है।
किसी भी कवि का यह उत्कर्ष हो सकती है।
इसे कई बार पढ़ना होगा।
आपको सलाम और बधाई।
ओमा शर्मा, वरिष्ठ कथाकार
जीवन और प्रेम के आज तक अबूझ तिलिस्म को भेदने की चेष्टा में आदरणीय लीलाधर मंडलोई जी ने अपने सत्तर साल के तीनों कलाओं (साहित्य, संगीत एवं चित्रकला) में पारंगतता को इस्तेमाल करने का अद्भुत प्रयोग किया है और शीर्षक ‘प्रेम ध्रुपद’ रख कर इस जटिल अन्वेषण के प्रति आरंभिक वैधानिक चेतावनी दे डाली है कि इस लंबी कविता के सागर में गोता लगाने की हिमाकत वही करे जो भंवर में उतर कर समुद्र मंथन से हासिल रत्नों को समेटने का धैर्य तो रखे ही, साथ ही उनके संग कंकड़-पत्थर को अनमोल समझने की भूल कर गठरी इतनी भारी न कर ले कि बाहर ही न आ पाए।
एकाकी से लेकर शिखरों की श्रृंखलाओं की भीड़ (जो एक के मानमर्दन के उपरांत अगली चुनौती बन बारंबार आती है) में प्रेम की ताकत का लोहा मनवाने की उनकी जिद्द देखते ही बनती है। इस जादुई जिंदगी में भटकाव को सुरीले राग में संजोकर विभिन्न संगीतकारों को जो अपने अपने क्षेत्र के मील के पत्थर रहें हैं संदर्भित करते हुए चित्रकार पिकासो को याद कर लेना मंडलोई जी के ही क़ुव्वत की बात है और कविता के सुर ताल में कुशल नट की तरह साधे रखना वाकई आश्चर्यचकित कर जाता है। चंद पंक्तियां उद्धृत करने का लोभ छोड़ते हुए मैं इस प्रेम ध्रुपद को आत्मसात करने का भागीरथी प्रयास करने का विकल्प चुनता हूं। उन्हें सादर अभिवादन के साथ हार्दिक बधाई देते हुए अपनी लेखनी को विराम देता हूं हालांकि लिखना लंबा चाहता था परंतु पाठक की सहुलियत का ध्यान रखना श्रेयस्कर होगा।
डॉ संजीव कुमार चौधरी, जयपुर
sanjeew09@yahoo.in
शुक्रिया।आपने आत्मीय.गंभीरता. से लिखा.हैः
जी सादर आभार बंधुवर🙏
मैं न लेखक हूं न कवि ,मैं एक कला कर्मी हूं , हां कविता हजारों की संख्या में पढ़ी है ।हजारों कविता पोस्टर बनाए हैं ।मैं कविता को कविता के अंश को पाठक या दर्शक की सुप्त पड़ी चेतना को जगाने के लिए ,जीवन के तमाम संघर्षों की सामूहिकता में शामिल करने के लिए “इस्तेमाल”करता हूं ।
पिछले दिनों में आपकी कुछ कविताओं के मैने इस्तमाल किया है।
यह कविता शायद साहित्य के किसी नए शिल्प को हो सकता है किसी नए ढंग को अभियक्त कर रही हो ,
आम मनुष्य की समझ से परे है ।
कविता के बगैर काम नहीं चल सकता पर कविता काम क्या है ये मैं नहीं बता सकता … कांट
मैं कविता के काम पर ही काम करता हूं
और काम की कविता की तलाश में हमेशा रहता हूं।
कविता मैने एक दो दिन पहले पढ़ी थी। आज दुबारा पढ़ने की इच्छा थी मगर संबंधित पृष्ठ अब खुलने से इंकार कर रहा है।
कविता के प्रथम पाठ में भी बहुत आनंद आया था। प्रेम की आपकी व्याख्या में काव्य तो है ही, गहन दर्शन भी है। आप प्रेम को मांसलता के स्तर से ऊपर उठाते हुए उसे ऐसे उदात्त शिखर पर ले जाते हैं जहां वह साक्षात ईश्वर का पर्याय बन जाता है । यह विश्व की संचालिका शक्ति का रूप ले लेता है। कृष्ण भी तो प्रेम के ही मानवीय प्रतिरूप थे, जो बचपन में गोपिकाओ के साथ परिलक्षित होता है और पकी उम्र में वह अपने विराट रूप में प्रकट होता है। बहुत बधाई।
धीरंजन मालवे
“अब कौन है जो चुरा सकता है तुम्हारा मंगल स्वप्न”
×××
“आने वाली नयी पीढ़ियां गर्भ से पुकार रही हैं”
×××
“जो क़समें थीं
उसमें एक यही थी
कि बढ़ती उम्र में भी हम फिर से
बदसूरत होते समाज के सामने
उम्र को बिसराकर आज का ज़रूरी पाठ लिखेंगे”
आज दुनिया में जिस तरह के संकट गहरा रहे हैं, यहाँ एक बड़ा संकट यही है कि हम “ज़रूरी पाठ” लिखने से बचने वालों से घिर गए हैं। जीवन के सारे राग से बढ़कर आज राग जयजयवंती का बढ़ता चलन हो गया। दुनिया में कोलाहल जितना बढ़ रहा है उतना ही उसके इस्तेमाल का गणित विकसित हो रहा। सत्ता मुखौटे उतार कर हमारे बीच के लोगों को उससे पहनने के तरीक़े इज़ाद करने पर विवश कर चुकी है। ऐसे समय में सृजन-कर्म से जुड़े लोगों को क्या करना चाहिए, यह बात इस कविता के पाठ के दौरान मेरे मानस पर बार-बार दस्तक देती रही।
शुक्रिया मंडलोई जी!
–गौरीनाथ
आपकी कविता में मैंने शब्दों को नहीं बल्कि सुरों के आरोह-अवरोह, पकड़ और लय को महसूस किया है
….इस भूलमभुलाई में जो याद से जाता नहीं
वह है सृष्टि के माथे पर कांपता तुम्हारा बोसा
….सूर्य यह ढाई आखर का है
निकल कर बाहर इसे एक मानी दो
….आवाज़ पहले इतनी धुंआ न थी
( बहुत सुदर अभिव्यक्ति )
👍👍
अरुण चड्ढा, फिल्म निर्माता, निर्देशक
‘ध्रुपद ‘ बड़ी सुंदर कविता है। इसकी सघनता और शाब्दिक प्रयोग तो बांधते ही हैं, प्रेम की आकांक्षा और संसार के कोलाहल के बीच वाचक के आत्म की विकलता झिंझोड़ कर रख देती है। कविता में चित्र, संगीत और नृत्य के समवेत स्वर में जिस विकल मनुष्यता की पुकार है, वह बरबस मोहती है और आज के भयावह अंधेरे में प्रकाश की आमद की तरह करुणा की लय में उतरती पाठक के भीतर उसके अंतर को भेद देती है-
‘ नदी है गहरी
सो गया है सपना एक भीतर
तिश्नगी टहल रही है तट पर
अँखुआता जलफूल महक रहा है
खोल रहा है वह नयन और शिराओं में सिहरन है…’
ऐसे समय में अयाचित स्थितियों से टकराती कविता जिस भाव लोक को सिरजती है, उसीमें मनुष्य का वह ‘ आत्मबोध ‘ भी आकार पाता है जो कविता को विशिष्ट बनाता है। बधाई।
मंडलोई जी की यह कविता कला और साहित्य की वैसी ही जुगलबंदी का नमूना है, जैसा जसरंगी में जसराज जी ने किया है। प्रेम अगर शाश्वत मूल्य है तो उसके छीजने का पहला प्रभाव तो कवि पर ही होगा। इस कविता पर कई बार ठहरने का मन है। कविता में कई ऐसी पंक्तियां हैं जो हमारे साथ दूर तक देर तक रहेंगी। सघन अनुभव और गहरी ऐन्द्रिकता से यथार्थ को इस कविता में सिरजा है।
अतीत से वर्तमान तक के सफर का प्रेम और अपनेपन के धागों का ऐसा गुँथन कि सबका सौंदर्य निखरकर सामने आ गया… जिसमें न समाज छूटा न ही प्रकृति,न कवि छूटा न कलाकार, न वैज्ञानिक छूटा न विज्ञान, न संगीत छूटा न साधना…! असाध्य को साधना इतना भी सरल नहीं है…! लंबी कविता की परिपाटी लौटाने के लिए आपको साधुवाद 💐💐