प्रेम ध्रुपद एक प्रेम कविता है जिसे लीलाधर मण्डलोई ने पुकार संज्ञा से अभिहित किया है। देखा जाए तो यह एकायामी प्रेम कविता नहीं है, बल्कि यह सृष्टि का मेटाफर है । इसमें अव्यक्त – अदृश्य स्वप्न कामना की प्रार्थनाएं अन्तर्भुक्त हैं । यह एक साथ समय और समय से बाहर है। आज के इस क्रूर समय में जब सब कुछ छीज रहा है – कवि की यह पुकार जीवन को बचाने की एक पुकार है। जयशंकर प्रसाद भी संभवत: यही कहते हैं : नाच रही ज्यों मधुमय तान / जीवन जीवन की पुकार है।
लीलाधर मण्डलोई में हिन्दी उर्दू की काव्य परम्पराएं आपस में गुंथी हुई दीखती हैं जो मण्डलोई के काव्य की एक नई पहचान है , काव्य का एक नया प्रतिमान। देखते हैं इसे किस तरह पुकारा जाएगा ! – हरि भटनागर

 

प्रेम ध्रुपद

**
कठिन है
भूप राग का-सा
बस इबादत में इंतज़ार होता है
रसीली गुनगुनाहट का
रस खिली मोहक आवाज़ का
नज़र की ख़ूबसूरत जुम्बिश का

आंखों की चिलमन में चमकते ‘हां’ का
और पुकारती उस अलोनी मुस्कुराहट का

दो पत्थरों के अचानक टकराने से जनमे
उस अलौकिक अग्नि नाद का
जो अंत के मुहाने पर टिकी दुनिया को
एक नयी दिशा में मोड़ सकता है

मुन्तज़िर हूं
हां ! मैं मुंतज़िर हूं इसके ध्रुपद का
जो तुम्हारे स्वरों से दुनिया की स्वर लिपि में
सार्वभौमिक हो सकता है

गोधूलि हुई,पखेरू लौटने को हैं
तुम्हारी अवाई में भी आंखों में सूरज होगा
जिसमें कायनात की तान होगी
न हो कभी जीवन का सूर्यास्त
ये जीव जगत की प्रार्थना है

प्रकृति के नियमों में बने रहने का
पागलपन और ज़िद भरी मनुहार तो कर ही सकता हूं

पुलिन पर अब भी ताज़ा हैं
परंपरा के पांवों में हमारे भी अक़्स
ये मुकम्मल रहें और गतिशील
चाहता है काल

कितनी लहरों के बाद भी अबहे जीवंत
मौन में डूबे अचल
प्रतीक्षारत कि लौट आयें
अभी तो समय ने भटियाली में आंख खोली है
उसी में दुनिया ख़ूबसूरत हो ये इज़हार बुरा कहां ?

ख़िलाफ़ है धर्म में समाज , बना रहे
बरजो उन ख़यालों को
जो बेवजह रोक रहे हैं
सीने में खिल रहे रक्तपुष्प को
सुगंध घिर रही है चौतरफ़ और
एक बच्चा किलकारियां भर रहा है
आने वाले कल में
उसका ख़ैरमकदम करें

उसे भूले बसंत की तरह अनुभव करो
दुलराओ, मनाओ, जगाओ
वह मन द्वार पर सगुन लिए खड़ा है

ढाके की मलमल की तरह संजो रखा है
स्वप्न सा झीना और रेशमी
मन की ख़ूबसूरत डिबिया में
डरो मत
अब कौन है जो चुरा सकता है तुम्हारा मंगल स्वप्न

क्या मुसीबत है
कि बार- बार ‘सिमसिम’ कहने पर
नतीजा सिफ़र है
कि असहाय हुआ जाए है हर जादू बिन तुम्हारे

इक सांवले धुंधलके में तुम्हारा होना भी
उम्मीद है इस सृष्टि में

झिलमिल सी ‘हां’ में
कोई वासना नहीं
विकल मानी है पानियों से भरा और
आने वाली नयी पीढ़ियां गर्भ से पुकार रही हैं

भटकता जुगनू
अयाचित अंधेरे में उतरकर
रूह से रूह को भासमान करने को बंद किबार खटखटाता
प्रकृति का यह सफ़र भला कहीं ख़त्म होता है

नदी है गहरी
सो गया भीतर एक सपना
तिश्नगी टहल रही है तट पर
अंखुआता जलफूल महक रहा है
खोल रहा है वह नयन और शिराओं में सिहरन है

दुनिया जब कृष्ण के सीमित राग – मद में डूबी थी
मैं सत्तर का हुआ
और इस ज़माने का दोगाना गुनगुनाने लगा
जो विलीन होने लगा अंतरिक्ष में
कुछ है नये में आने से दूर है और तुम नहीं
सही ताल को याद करते
कुछ ठुमकने लगा देहराग में
कि जहां धरती की जड़ें हैं
बिरजू महाराज वहां रियाज़ में हैं

इश्क़ की बारगाह में
बेतरतीब दुनिया को संवारने में
एक बारिश उतरने लगी इस उम्मीद में
कि खिल उठेगा आबी फूल
कितना मुश्किल हुआ जाए है
बच्चों की मुस्कानों को ज़मीन देना
कि करिश्मे का वक़्त इस तरह बीत रहा
जिम्मेदारियों में कहीं रखकर भूल गये जो हँसी
वह स्मृति में झरने लगती है हरसिंगार सी

जो क़समें थीं
उसमें एक यही थी
कि बढ़ती उम्र में भी हम फिर से
बदसूरत होते समाज के सामने
उम्र को बिसराकर आज का ज़रूरी पाठ लिखेंगे

हम पुरानी परवाज़ को नये पंख लगाकर
उड़ जाएंगे उस इलाक़े में
जो बदलाव की प्रतीक्षा में है
तुम आधी दुनिया हो
और तुम्हारे बिन असंभव है आकांक्षित जगत

एक के बिना दूसरा नहीं
जैसे सूरज बिन चांद-सितारे
निरर्थक न हो हमारा वजूद इस अन्धकार में

हमारी मिट्टी डूबीं आंखें
हमारी पानियों से चेहरे
हमारी हवाओं सी उड़ान
भिन्न समाजी कैफ़ियत के हलातोल में
हमारी एकसांस फिजूल न हो जाए

यह अबूझ अंतरिक्ष है
इसके भीतर ऊष्ण कृष्ण विवर हैं
और बाहर करुण-अरुण तिलिस्मी शीत
और तुम्हारी सृजन मेधा का

इस तरह होना एक अज़ीम बात है
कि मुहब्बत के कम होने के इस दौर में भी
हस्बमामूल हैं हमारे भीतर , दुर्लभ आब और ताब
जो फ़ना होने से रोक सकते हैं सुंदर संसार को

सालों साल के खटमिट्ठे तजुर्बों के बाद
जब ख़त्म सा हो रहा है तजुर्बों का समय
और कुछ न कुछ खटक जाता है बेवजह पड़ोस में
उसे रोकने का यही तो वक़्त है

यह अब भी कम ख़ूबसूरत हासिल नहीं
कि अब भी लान में एक मेज़ है और दो कुर्सियां
शाम की चाय पर
अब भी त्वचा पर सिहरते स्पर्श आबाद हैं
और रूह से बरस रही करुणा नमदीद है

अभी वक़्त टहल रहा है इर्द-गिर्द
अभी देह का पारा गिरा नहीं है
बिन मौसम जाड़ा आ गया है
कोहरे ने घेर लिया आस-पास के पर्यावरण को

आओ ! ढांप लें बदन
थोड़ा आवारा हो जाएं प्रतिकूल हवाओं में
मोड़ के उस पार ढलान में उतरें बेपरवाह
प्रेम की उसी प्राचीन जगह
जहां दुनिया आज़ाद ख़यालों में रोशन है

वहां वही आग होगी
वही दोआब
और फ़ैज़ की कविताएं

इस उम्र में डरकर भूलने लगे हैं रोज़
कभी कुछ तो कभी कुछ और पकी इबारतें
इतना भूलना कि यह ‘कुछ’ भूलना नहीं है
इस भूलमभुलाई में जो याद से जाता नहीं
वह है सृष्टि के माथे पर कांपता तुम्हारा बोसा

आसमान के आंगन में
देखो! उगे हैं चंद्रपुष्प
महक रही है नाभि में कस्तूरी
आश्चर्य न करो !
जिधर बही आ रही है लरजती आकाशगंगा
वहां जाने कितने हमख़याल पुकारते बाट जोह रहे हैं

सानेहा है ज़माने का ये दौर और
दिल जब तक विचारों में धड़कते हैं
तब तक कुछ भी मुल्तवी नहीं होता

बस एक पल की दूरी पर है मंज़िल और
और ये पांवों में हरकत
इसी जगह तो हमारे सपनों का ठिया है

याद है पिछले जाड़े की शाम
जब धुंधलके में गुम थे
कि जब ख़ून बर्फ़ हुआ जाता था
हम दूर -दूर चलते सिहर रहे थे
जैसे बरसते पानी में धान की बालियां
एक अबोली अमूर्त पुकार भरपूर सुनाई में थी

जबकि ठहर गया है एकाएक समय अब
याद में डूब जाने का लुत्फ़ कम तो नहीं
कितने हसीन थे वे लम्हे
जब ठहरती ज़िंदगी के पिछवाड़े लात लगाते
दिन की खिड़की पर पर्दा खींच, हम ठहाके लगाते थे

बिंधने के लिए नहीं हुआ ये जन्म
महज शरीर नहीं पहन रखा है हमने
गमले में उगते पौधों को धूप चाहिए और
आंखों को चांद सितारे
दोनों ने पृथ्वी पर
सितारा देवी का गतनिकास साक्षात अनुभव किया है

रोने के लिए ज़िंदगी पड़ी है
सीने में कुछ जागता है,जागने दो
असमंजस से निर्भय निकल आने का
यही एक पल है
युद्ध में शांति के अलावा कोई और कामना नहीं होती

जोग संग बिजोग की कुड़माई
दिलफूल भी भीतर चुभता है
जब ख़त्म हो रही हैं बोलियां
वनस्पतियां
सुंदर प्रेम प्रजातियां
एक पेड़ में खिल रहा है दूसरा
अब ये प्रेम है
लगभग अंतिम नस्ल सा

कम अज कम इसको बचा लें
कि एक यही है जिसकी जड़ें
धरती से आसमान तक फैली हैं

मैं डूबती सांसों में इसे संभाले पुकारता हूं
और जब टपकता है तुम्हारी दायीं पलक का मोती
बायीं फरकती आंख में , मैं सिहर जाता हूं

फिर शाम हुई
फिर वही मधुकौंस
फिर वही आलाप
फिर वही प्रतिस्वर
आ भी जाओ
आलाप से आगे राग उपज
अधूरी है तुम बिन

एक विकल प्रतीक्षा फूल पत्तियों ,चांद- सितारों और
शाम में गुम होते सूरज को भी है

इसे पहचानो
थर-थर, फर-फर की अड़बड़ बंदिश
हवा में द्रुत तत्कार साक्षात है
और वही तांडव
अब निकल आओ जंजीरों से बाहर
ये यातना और तमाम से ज़ियादा त्रासद है

कितनी देर तक यह मौन है
कितनी और देर आंखें बंद रखूं
कितना और जागती आंखों में जलमग्न रहूं
अप्रकृत जलवायु में
समय स्खलनों की ज़द में किलस रहा है

धरती घूम रही है ऋतुओं के लिए
जो कुछ बदल रहा है
प्रेम उसे बचाना चाहता है

आक्सीजन लड़ना चाहती है फैलते अंधेरे कार्बन से
आओ ! अंतरिक्ष की देह पर लिखें हाकिंग की प्रेम कविता

अब यह सगुण स्मृति का निर्गुण ढब है
छूटी हुई घास की भीगी सुगंध में दूब बार-बार उग आती है
गोया तुम्हारा पुनर्जन्म
इस रूप में प्रेम अरूप है
और वह फ़कीर परिंदे सा नृत्य में झूमता रहता है
अब इस बेमक़सद जीवन में , दु:ख और संताप के बीच
हम दुनिया की सबसे हसीन नेमत के हमसफ़र हैं
प्रेम के आधुनिक उत्पाद नहीं कि चुक जाएं
वह नमक से भरा मीठी नदियों के स्वाद का समुद्र है
कोई कल्पवृक्ष नहीं है अब कि मांग लें सुनहरा वक़्त
अभी ज़िंदा होने के अहसास में सांसें क्रियाशील हैं
चौतरफ़ गुलाबी से स्याह होते रंग में
जीने की उम्मीद तकलीफ़देह हो चली है
कम होता जा रहा है जीवनजल
सांसें कम होती जा रही हैं
आकाशगंगा में कृष्ण विवर बढ़ता जा रहा है
भीतर की वनस्पतियों की ‘कसक-मसक’ मुरझा रही है
राग मल्हार सूख चला है
बसंत की आमद ने दरवाज़ा बंद कर रखा है
पारिजात सा हँसता -विहँसता मन उदासी के अन्धकार में अभिशप्त है
और तुम्हारे पाजेब के घुंघुरू के सुर ख़लाओं में खो रहे हैं
बारिश की बूंदों की जगह दहकते अंगारों का सबब समझ से परे है
दुनिया को संवारने का रास्ता प्रेम की दीवानगी में खुलता है
इसके पहले कि ख़त्म हो जाएं , लौट आओ
बच्चों की सुंदर सुबह के लिए
बिन तुम्हारे नहीं मिलते कविता को सुरशब्द
बेसुरा-बेताला हो जाता है राग
जुगलबंदी के खोये सादे और सुरीले आलाप में
भैरवी भी इंतज़ार में बीत रही है

मेरी अंत:चेतना में चेतावनी का करुण गीत है
धूसर-स्याह छवियों में आवाज़ का आईना दरक रहा है
ज़िन्दगी के केनवस पर काले रंगों का साम्राज्य गतिशील है
और समंदर अशांत है
जीव जगत नये जीवन की प्रार्थना में आंख बंद किये है
हवा दस्तक दे रही है मन द्वार पर
बीज खोलना चाहते हैं अपना मुख

एक ही बोली है
जो कोई और नहीं समझता
सब आपस में बोलते नहीं लेकिन
हर अकहा शब्द समझ लेते हैं
ख़त्म नहीं हुआ है सब काले परिवर्तन के हड़बोंग में
उम्मीद की अंतिम खिड़की अभी खुली हुई है

प्रेम पहाड़ है
वह कांप -कांप जाता है
संपूर्ण ढहता नहीं
अगर संभाल लें
उसमें से जन्म ले सकता है एक और अमर ख़्वाब

जो रहे हैं अकेले
वे ही जानते हैं साथ होने का अर्थ
आंधियों के बीच तितली अभी फूल के संग हँसी में है
मन का जल पहाड़ी चश्मे सा गर्म है
वह ज़िद्दी सख़्त हड्डियों को मुलायम बना देता है
ज़िन्दगी अवसर है
वह बार- बार नहीं लौटता
इसे खोकर समझना त्रासदी होगी
चट्टान न बनो यह जानते हुए कि उसके भीतर की जलराशि में
उगने को है एक और जीवन
एक अनोखा कोमल गांधार सकल व्योम में उभरने को है

सरलता आसान नहीं होती , जैसे यह जीवन
अग्नि परीक्षा है रोज़
सपने में हम देख नहीं पाते
आपदाएं आती हैं
महामारियां भी
जीवन की उम्मीद जहां नहीं होती
वहां से भी वह लौट आती है
बुरे अनुभव सौंपते हैं जीने का हुनरमंदअंदाज़
वह जज़्बा भरपूर ज़िंदा है
हमारी हर सांस ,प्यार में मुसीबत को
नग़मों की तरह गाती , दु:खों को बांहों में भर लेती है

खिले हैं दो सांवले गुलाब अब भी
दूर से बह रही है दिव्य सुगंध
सांवली बंदिश में हम अंतरिक्ष में उमड़ -घुमड़ रहे हैं
बारिश कभी भी संभव है पहाड़ों में
कभी भी बेग़म अख़्तर ठुमरी में मीठी उपज लिए कारनामा कर सकती है
दो के एक होने का , कोई एक समय नहीं होता
हर वक़्त मुहब्बत पुकारती है और कोई कमअक़्ल ज़िद रास्ते का पत्थर हो जाती है

भीतर का अदृश्य गति में भासमान है
वह निगाह से परे है
जीवन से परे भला क्या हासिल होगा
वह ईश्वर का भी आदर्श न हुआ
अपने नियम ऐसे न बनें, जो क़ामयाब न हों
देखो अंधकार से घिरे सूरज को , जो किरणों की राह उदित हो रहा है
सूरजमुखी खिलने को व्याकुल है
बिन सूरज बड़ी मुश्किल में कटी है‌ रात
हमारे गुम दिन, रातों के हवाले हैं
सूरज जो काले बादलों से झांकने को है, हमारा क्यूं नहीं हो सकता?

यह दुनिया एक दूसरे के साथ संपूर्ण है
अकेले जीने की ज़िद, अधूरा ख़याल है
और प्रकृति के जीवन चक्र के विरुद्ध
देखो उठा हुआ पांव ठहरा हुआ है
सूर्य के चारों ओर धरती ,यूं ही तो नहीं घूम रही
याद करो!
हम एक दूसरे के फेरे हैं किसी अंधेरे मोड़ पर लय टूट रही है
हम बिन चाहते ठिठके हुए हैं

पुकारते हुए मैं कांप-कांप जाता हूं
अक्षर-अक्षर जोड़ते हांफ – हांफ जाता हूं
एक सही वाक्य रच नहीं पाता तुम्हारे बिना
भाषा जो साथ होकर बनी थी
बिखर रही है
हम भाषा में आख़िरी सांसें ले रहे हैं
देखो ! ग्रेट अंदमानियों की प्रेम की आदिम भाषा हमेशा के लिए खो गयी

सूर्य यह ढाई आखर का है
निकल कर बाहर इसे एक मानी दो
एक दरख़्त में उगता है दूसरा
कि वहां उसकी जगह बची है
कि आईने से बाहर उसका भी होना है
सूर्य जब धरती को चूमता है ,अंधेरा रोशनी का फूल हो जाता है

करुणा निरा शब्द नहीं है
अपने भीतर प्रेम को आकार देते हुए
वह पालता-पोसता है
और त्याग का रूपक हो जाता है
अपने होने को भूलता वह
दूसरों की धड़कनों में संगीत हो जाता है
पुकार रहा है कबीर
अपने हथियारों को रखकर भूल जाओ
युध्द प्रेम से हर बार जीता गया है

देखो , आंखें पहले से अधिक ख़ुश्क़ हैं और
सहरा में उड़ती रेत का बवंडर
देखने को खुली हैं आंखें
रेत में तुम्हारा चेहरा है जो डूबता नहीं
फिर वही आलापचारी
और रेत घड़ी की महीन ध्वनि
और सवाल कि इम्तिहान की उम्र इतनी तवील क्यूं है?

मुरझाता फूल है ,उसे धूप चाहिए
यह अजीब समय है
उसकी आवाज़ में गुहार का ऐसा आलम कभी देखा न था
आवाज़ पहले इतनी धुंआ न थी
आसमान में भला कौन है सुनने वाला
वह तकता है निर्निमेष
जाने किस उम्मीद में आंखें ठहरी हुई हैं

ज़िंदगी मिट्टी का दिल
कोई जादू है कि उस सरीखा दूसरा नहीं

जिस तरह नृत्य में आंख पांव हैं
और चलना , देखना हुआ जाता है
मैं आंख बंद कर चला
आंखें पांवों से बाहर निकलती नहीं
दिग-दिगंत तक फैली है जैविक प्रेमगंध

यह अदृश्य जुगलबंदी है
अमूर्त रेखाएं
अमूर्त आकार
अमूर्त रंग
अमूर्त प्रकाश
अमूर्त मनुष्य
अमूर्त चित्र
यह प्रेम अमूर्त लगे तब भी है
कुछ और न सोचो
इसके अकथ में खो जाओ

जब नहीं था, वह था
जंगल में निशाने पर था
पानी के भीतर एक घर बना रहा था
दिव्यास्त्रों के प्रभाव को अपने भीतर शांत कर रहा था
अमरबेल को सूखने से बचा रहा था
आग के भीतर जल पांव लिए दौड़ रहा था
भविष्य के जीवन बीज बो रहा था
वह सिर्फ़ प्रेम बचा रहा था
वह हमारे भीतर उगता अशेष हो जाना चाहता था
हम हैं ,और अंतिम नहीं
हम प्रेम को पहचान नहीं पा रहे और दु:ख का बाना पहने भटक रहे हैं

हम न होने में
अपने होने के उदाहरण हैं
हँसते – रोते साथ थे
इससे बेहतर नसीब में क्या?

हमारे बीच अब दूरी है परिंदें की उड़ान भर
हम लिखा-अलिखा सूनी सेज पर बांच लेते हैं

पर्वतारोही हैं हम
भूले न होगे कि एक पहाड़ चढ़ते थे
शिखर से ,उससे बड़ा पहाड़ दिखता था
सीधी चढ़ाई और कठिन
उसे बमुश्किल चढ़ पाते थे
तो शिखर से और बड़ा तीसरा नुमाया होता था
इसके बाद कितने और ,मालूम नहीं

हर पहाड़ प्रेम की तरह अपराजेय लगता है
वह अचल है,अभेद्य है ,अतुलनीय है, और दुरूह
वह गतिशील संघर्ष है
वह अपने शिल्प में जीवन की क्रांति है
विजय पराजय दोनों में ,केवल प्रेम है

देख रहा हूं ,जो देखा न था
बंद आंखों में ख़्वाब है
आकाशगंगाओं में खोज रहा हूं
तारामंडल के बाग़ीचे में कितने रंग बिरंगे फूल हैं
मैं दाखिल होता हूं इस अनोखे संसार में इस विश्वास के साथ
होगे किसी एक ग्रह में प्रतीक्षारत
किसी भौतिक यान की आमद के पहले
पहुंच जाऊंगा और तुम दो से एक हुई उस रूह को पहचान लोगे

सूरज डूब जाता है रोज़ रात के लिए
नदी उतर आती है खेतों-पठारों की पुकार सुन
परिंदे उतर आते हैं आकाश से धरती के संगीत के लिए
बादल उतर आते हैं प्यासे कंठों की आवाज़ सुनते
हवा दौड़ आती है झुलसते जीवन में भीगे स्वर गुनगुनाती
यह रिश्तों का पवित्र हासिल है
बहुत देर हुई उठो!
ढाई आखर रह-रहकर तुम्हें पुकार रहा है

सुनो ! मेघ एक दूसरे गले मिल रहे हैं
सीने में अग्नि संभाले
मांदल का आदिम स्वर गूंज रहा है आसमान में
ओजोन की परत में हलचल है
अनबन की धूल फैलती जा रही है
और प्रेम का पर्यावरण ख़तरे की ज़द में है

आंखें हैं कि बेनूर हुई जाती हैं
अंधकार गोया हक़ीक़त का दूसरा नाम है
कोई दूसरा जन्म जबकि मुमकिन नहीं
हम दो एकराग हैं
दो स्केल , दो भिन्न टोन और दो अलग स्केल पर ,यह सच है
तिस पर रियाज से समान पिच पर गा सकते हैं
दोनों के प्रकृत गायन में संतुलन हो प्रतियोगिता नहीं
एक दूसरे का किसी बिंदु पर समर्पित एक हो जाना ही रागफल है
याद करो जसराज का ‘जसरंगी’ *
राग के हर स्वर को “सा” मानकर
अब भी आरोह -अवरोह को साध सकते हैं
यह जुगलबंदी अतिशय के हर सवाल का सुंदर समर्पित मिलन है

ये अचीन्हा दु:ख , देखता हूं दूर से
इक राग सुरों को ढूंढ रहा है
मैं दुआओं का स्वरमंडल उठाता हूं
मिलाता हूं एक तार, वह दूसरे से रूठ जाता है

हम कब एक दूसरे की सांस बनेंगे
कब लौट आएंगे उसी शाख पर
जहां फूल खिलना चाहते हैं
देखो मिट्टी ज़्यादा बंजर नहीं है अभी
दो परिंदे एक फल को कुतर रहे हैं
और एक दूजे से मुख़ातिब हैं
कायनात में प्रेम एक है दो नहीं

कोई तो रास्ता होता जो अबूझ अभेद्य न होता
किस सिम्त जा रही हैं
अब एक में दो होती ज़िंदगियां

अब कल की नीलसर बारिश नहीं है
हवा में जीवन के नुकूस धुंधला चले हैं
पहाड़ के शानों पर राग की परछाईं विलीन हो रही है
बारिश के दृश्य सहरा की उड़ती रेत में तब्दील होने लगे
हम अपने निर्वासन की वजह तारों से पता पूछते गुम हैं

आसमान से धरती तक अब एक अनजानी खटखटाहट है
यह भीतर की उम्मीद है कि कोई संशय
बेनतीजा खटखट में काली रिदा फैली हुई है
मैं किस किनारे पर ठिठका हूं
समय इस खटखट का अजीब सा अनुवाद हो गया है

एक विकल प्रतीक्षा का रूपक हूं मैं
मेरा अक़्स आईने के टूटने में बिखर गया
और भीतर बाहर किरचें रक्तरंजित होकर चीख रही हैं
इन चीखों में बस उसकी असहाय ध्वनियां हैं
दर्द में मेरे मन का दरवाज़ा बाहर से बंद है
अब कुछ भी नहीं , नामुराद सांय-सांय सन्नाटे में जो है ,वही है

सफ़र यह जाने अंधेरे किस बोगदे में है
कोई उम्मीद इतनी नाउम्मीद न थी
मंझधार में एक तारा फिर टूटा
फिर डूबना हुआ
फिर तुम्हारी पीठ पश्चिम की सिम्त
अंधेरा फिर और घना हुआ
रात के पार सूरज एक इंतज़ार है कल का

चांद की आंखों में हमारा ख़्वाब है
कायनात में मंज़र उदास है और
ज़ेहन में ज़िंदा हैं
गुफ़्तगू रफ़ाकतों की
वुसअतों का सफ़र
आबी उड़ानों का तसव्वुर
और राग केदार की टेर
लम्हा-ब-लम्हा
ख़ामोशी और ख़ुशबू
और अधखिली उम्मीद की प्रतिध्वनि

ये बेदिली
ये रंजो-ग़म
ये हिचकियां
और याद
यहीं बैठा पुकारता है
तुम्हारा हमनवा
ज़मीं समेटे हुए आधा-अधूरा
जिसकी एक आंख रोती है, दूसरी दीवानगी पर हँसती
उसमें सातों सुर का प्रीत उल्लास और वेदना एक साथ है

यह विदा का समय नहीं
पहाड़ लांघने का है
परिंदों के साथ उड़ने का है
हृदय में बादल राग के होने का है
और इस प्रार्थना का है
कि अब किसी पिकासो को गुएर्निका न रचना पड़े
सो जो दुनिया के प्रेम में सड़कों पर आ गये हैं
कि बचा रहे प्रेम और उसी से बनी सुंदर सृष्टि
कि बचा रहे तुम्हारा प्रेम का धरती होना
सो आओ !
और शामिल हो जाओ
उनके साथ जो प्रेम की लय में संगठित होना चाहते हैं
और कबीराई रंग में
कायनात को पहली सी बना देने के लिए सफ़र पर निकल पड़े हैं

****
(* पंडित जसराज ने इसे सिद्ध किया था । यह जुगलबंदी मूर्च्छना पद्धति पर आधारित है जिसे स्त्री – पुरुष गायक अपने अपने राग में , एक ही समय में सुर में गा सकते हैं। वहां जाने में एक बिंदु पर संभावित भिड़ंत के पहले ठहरकर दो राग के, एक हो जाने का आश्चर्य है।)

 


Leeladhar Mandloi

लीलाधर मंडलोई

जन्म : छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे-से गाँव गुढ़ी में जन्माष्टमी के दिन। जन्म वर्ष : 1953।

कृतियाँ : काव्य-संग्रह : घर-घर घूमा, रात-बिरात, मगर एक आवाज़, काल-बाँका तिरछा, क्षमायाचना तथा देखा-अदेखा व कवि ने कहा (चयन)।

गद्य : कविता का तिर्यक (आलोचना), दिल का क़िस्‍सा तथा अर्थ जल (निबन्ध), काला पानी (वृत्तान्त), दाना पानी (डायरी), पहाड़ और परी का सपना (अंदमान-निकोबार की लोककथाएँ)। पेड़ भी चलते हैं और चाँद का धब्बा (बाल कहानियाँ), इनसाइड लाइव (मीडिया)।

अनुवाद : शकेब जलाली की ग़ज़लों का लिप्यंतरण मंज़ूर एहतेशाम के साथ। अनातोली पारपरा की रूसी कविताओं के अनुवाद अनिल जनविजय के साथ।

सम्पादन/प्रस्तुति : कविता के सौ बरस (आलोचना), स्त्री मुक्ति का स्वप्न (विमर्श : अरविंद जैन के साथ), कवि एकादश (अनिल जनविजय के साथ) और सुदीप बॅनर्जी की प्रतिनिधि कविताएँ (विष्णु नागर के साथ) तथा उनके अंतिम संग्रह ‘उसे लौट आना चाहिए’ का संयोजन विष्णु नागर के साथ।

सम्मान : पुश्किन, रज़ा, शमशेर, नागार्जुन, दुष्यन्त, रामविलास शर्मा तथा कृति सम्मान।

अन्य : फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन, मीडिया कर्म (टेलीविज़न व रेडियो)।

सम्पर्क : B 253, sarita vihar, new delhi 76

दूरभाष : 26258277 (निवास)।पता:
ए-2492, नेताजी नगर, नई दिल्ली 110023
Email: leeladharmandloi@gmail.com
Phone: 9315305643


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