सकरिया रहता किस देश में है
-अमिताभ मिश्र
बीस साल पहले लिखी एक कविता से बाहर निकल कर सकरिया एकदम मेरे सामने खड़ा हो गया। वह सकरिया जो छककर दारू, ताड़ी पीता, वह सकरिया जो रोज अपने पेट का गड्ढा भरने रोज दाड़की करता, वह सकरिया जिसे यह पक्का मालूम कि किस सीजन में कहाँ दाड़की चोक्खी मिलेगी, वह सकरिया जिसे यह भी पता है कि अंगूठा कहाँ लगाना है और कहाँ से पीसा लेना है। बीस साल पहले मैंने उससे कविता बनाई या उसने मेरी कविता बनाई यह एक अलग बहस का मुद्दा है पर उसे यह तब भी नहीं पता था और ये तय है कि आज भी नहीं पता है कि वह रहता किस देश में है।
तो वही सकरिया उस दिन मेरे सामने था सशरीर। बीस साल एक लंबा समय होता है, एक पूरा दौर निकल जाता है, पूरी की पूरी पीढ़ी निकल जाती है और वो सकरिया भरे पूरे जंगलों को पार करके एक पूरी सदी फलांग कर मेरे सामने खड़ा था।
सकरिया मुझे बीस साल पहले मिला था एकदम जुदा माहौल में, एकदम भिन्न वातावरण में। ठेठ जंगल में झाबुआ के पेटलावद के एक गांव में या कहें फलिये के पास से नहर की खुदाई करता हुआ। तब भी ठगा जाता हुआ और आज भी लुटता हुआ। पर इस बार एकदम कविता के बाहर था चिलचिलाती धूप में नंगे पांव सड़क बनाने वाली गैंग में शामिल।
दरअसल मेरा एक दोस्त महेन्द्र यहाँ पी डब्ल्यू डी में ई ई था और हम लोग यूं ही मिलकर कहीं बैठने वाले थे कि उसने एक जगह सड़क पर गाड़ी रोकी और निरीक्षण करने लगा। मैं गाड़ी में ही बैठा था तभी दिखा वह। मैंने पाया कि वो एक बूढ़ापे की तरफ बढ़ता आदिवासी मजूर है जिसका चेहरा मुझे पहचाना सा लग रहा था। मैं उतर पड़ा गाड़ी से। उसके पास पहुंचा और उसका नाम पूछा तो उसने बताया
” सकरिया बाप का नाम मांग्ल्या रैने वाला गांव तोरनी जिला झाब्बा का और मजूरी एकदम सरकारी रेट पर मिलती हे साब”
यह जवाब हर मजूर को रटा होता है। सोते में उठाकर नाम पूछो तो वो ये ही बताएगा।
मैं तो पहचान ही गया था पर उसने मेरी तरफ देखा ही नहीं था तो पहचानने का तो सवाल ही नहीं है। पूछा मैंने उससे ” तू नी पौंचाणा म्हारे को”
उसने मुझे देखा बिलकुल सपाट और अनचीन्ही आंखों से वहाँ निपट सूनापन पसरा था। उसने इन्कार में सर हिला दिया था। मैंने उसे याद दिलाने की कोशिश की थी कि बीस साल पहले तब उसके गांव तलाई में तालाब का काम चल रहा था तब
मैं वहाँ एस डी ओ था यानि मोटला साब और उस पर एक कविता लिख कर सुनाई थी। उसे कुछ कुछ याद आ रहा था तो वो बोल पड़ा ” साब भौत मोटा हो गिया”
मुझे शरम हो आई। इन बीस सालों में मैं मुटिया गया और संपन्न भी हो गया और ये सकरिया लगातार घिस रहा है। मेरी ही उमर का होगा पर वह बूढ़ा हो चला था। उसकी हड्डियाँ गवाही दें रहीं थीं कि उसने बहुत से तालाबों की मिट्टी खोदी है ढोई है, मकानों का मसाला ईंट गारा सीमेंट ढोया हे, गड्ढे खोदे और भी पता नहीं क्या क्या किया पर कभी भी ठीक दाड़की नहीं पाई। वह वहीं बैठ गया पगड़ी से बीड़ी निकाल कर सुलगा कर मुझे एकटक देखने लगा। उसे कुछ कुछ याद आया
” साब तमणे कुछ लिक्खा था फिर सुनाया था म्हारे को।”
मैंने कहा ” हां लिखी थी तेरे पर कविता लिखी थी फिर सुनाई थी और छपी भी थी। तेरा नाम भौत सारे मनख जान गए थे। ”
“पर मन्ने तो कईं नी पतो चल्यौ”
मैंने बात बदलने की गरज से बोला ” और हाल चाल कैसे हैं थारो”
” अब म्हारे तो कईं हालचाल बस येई दाड़की चल री हे”
“काईं घरे परिवार कैसा। अब तो सब बुढ्ढे हो गए होंगे। और तेरा बापू कहाँ हैं”
” अब कौन भी नी बचो। सारे लोग मर खप गए अब मेंईच बचा बस्स”
मुझे याद आया भगोरिया में उसने ब्याह किया था और बीवी के साथ आया था मजूरी पर। बात कोई बीस साल से ज्यादा पुरानी होगी।
” अरे कैसे मरे”
” म्हारी घराडी ने सात बच्चे जने सातों मर गै जचगी केई टाईम पे ओर आठवें को
जनते खुद भी मर गी। ”
” फिर अब क्या”
” अब कईं साब कईं करनो थो। मरो नी इसलिए जी रियो हू”
इस जीवन दर्शन से सकते में था मैं।
” और टोला अरे वो फलिये में बाकी लोग कैसे हैं।”
” वो टोला उजड़ीच गिया। ”
” कैसे कोई तालाब वालाब तो नहीं था।”
” डूब वाँ कोई नी हे।”
” तो फिर ”
” अरे वां पे पैलै से फेट्री की बात चल री थी। बिन्ने मावजा दियानी और सबको भेला कर भगई दियो।”
” तन्ने कितरा मिला मावजा।”
” कई नी। होगा पांच सौ रूपये के करीब।”
मैं दंग था ये सुनकर।
सकरिया से बात करते हुए मैं बीस साल पहले पहुंचने की कोशिश करता था और वो बार बार वहीं ले आता था चिलचिलाती धूप में नंगी सड़क पर।
बीस साल का समय बहुत मायने रखते हैं जीवन में खासतौर पर मध्यवर्ग के बीस बाइस साल से ले कर चालीस बयालीस तक के बीच का। इसी दरमियान आदमी का परिवार बनता बसता है। कैरियर संवरता है। धन संपत्ति का अर्जन भी इसी अंतराल में। तो मैंने भी मकान बनवा लिया, बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ लिख कर अपना बेहतर भविष्य बनाने में लगे हैं। संपन्नता के लिहाज से ठीक ठाक ही रहा जीवन।
पर सकरिया का जीवन इसी बीस साल में समाप्ति की कगार पर है। जो जमीन का टुकड़ा था वो हजार रुपए में हड़प लिया गया। परिवार खतम हो गया।
अब वो अकेला है निपट अकेला इस धरती और आकाश के बीच। जी रहा है इसलिए कि मरा नहीं।
बीस साल पहले लिखी कविता के सकरिया और आज मेरे सामने खड़े सकरिया में बस एक ही साम्य है कि वह तब भी नहीं जानता था और आज भी नहीं जानता कि वह रहता किस देश में है। और यह भी कि वह इस महादेश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है।
अमिताभ मिश्र
फिलहाल सेवा निवृत्ति के उपरांत लेखन और पढ़ना
प्रकाशित कृतियां :
ताज तम्बूरा (कविता संग्रह)
कुछ कम कविता (कविता संग्रह)
पत्ता टूटा डाल से (उपन्यास)
इस दश्त में एक शहर था (उपन्यास)
सितौलिया(कहानी संग्रह)
डुंगरी डुंगरी (कहानी संग्रह)
फिलिप्स का वो रेडियो (कहानी संग्रह)
संपर्क :
बी 18, महाकाली सोसायटी,
त्रिलंगा भोपाल
462039
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