दिनेश कुमार कुशवाह नौवे दशक की कविता के प्रमुख कवि हैं। आप मूलत: प्रेम के कवि हैं जिनमें हिंदी काव्य- परम्परा की धड़कने गूंजती दीखती हैं। कविता के लिए कुशवाह कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करते बल्कि कविता उनके लिए स्वत:स्फूर्त है जो जीवन का रंग बिखेरती जाती है। स्त्री को कुशवाह सिर्फ़ कायिक उपादान के रूप में न लेकर उसको उसकी सम्पूर्णता में पेश करने के हिमायती हैं। स्त्री का उत्पीड़न चाहे मौजूदा समय का हो या अतीत का कुशवाह उसके विरोध में होते हैं।
बहरहाल , कुशवाह की कविताएं प्रस्तुत हैं , कवि शमशेर के शब्दों में कहूं :
बात बोलेगी, हम नहीं
भेद खोलेगी बात ही…
– हरि भटनागर
कविताएँ :
1/ अनुत्तरित
अनुबन्धों की शर्त लगाकर
लौट गयीं तुम घर तक आकर
तब तो बहुत अकेली थीं तुम
अब कैसे रह पाती होगी!
कभी आँख भर आती होगी
मन की व्यथा सताती होगी
पहले तुम दौड़ी आती थीं
अब किससे कह पाती होगी!
जब कोई मिलता है तुम सा
मन हो जाता है ये गुम सा
मेरे जैसा कभी किसी को
तुम भी तो पा जाती होगी!
2/ महारास
प्रेम करना मैंने
अपने पुरखों से सीखा
यह कबीर से लेकर निराला
ग़ालिब से लेकर फै़ज़
और उसके बाद के पुरखों की
एक लम्बी यात्रा थी।
शुरुआत मैंने
केदारनाथ अग्रवाल की कविता से की
प्रिया से कहा- ‘वंशी मत बजाओ
मेरा मन डोल रहा है।‘
वह मोहिनी लेकर
डोलने लगी मेरे आस-पास
कहा- चलो!
सब कुछ छोड़कर नाचो मेरे साथ
मैं नाचने लगा
और नाच के सिवा सब कुछ भूल गया।
एक दिन मुझे उदास देखकर
उसने कहा- प्रिय मेरे लिए
एकान्त मत खोजो
सबके सामने प्रेमनृत्य ही महारास है।
मैंने उसे धन्यवाद दिया
त्रिलोचन की कविता से
कहा- ‘यूँ ही कुछ मुसकाकर तुमने
परिचय की यह गाँठ लगा दी।
इतना ही क्या कम है
तुम्हारा ऋणी होने के लिए
भय-घृणा-हिंसा और बलात्कार भरे इस समय में
तुम्हारा होना ही अहोभाग्य है।
मैंने परिहास किया –
वैसे भी आज की हिन्दी कविता
एकान्त के अनुभव के मामले में बहुत दरिद्र है
लगता नहीं कि हम कालिदास के वंशज हैं।
उसने कहा – मैंने कुछ समझा नहीं
मैंने कहा- इसमें समझ में न आने वाली
कौन सी बात है?
उसने कहा – तुम नहीं समझोगे!
मैं जा रही हूँ
मैंने प्रेम को विदा किया
केदारनाथ सिंह की कविता से
कहा – जाओ
यह जानते हुए कि ‘जाना’
हिन्दी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है।
3/ भतीजों के देश में
जब पलकों की जगह ले ले
नागफनी का जंगल
‘सत्यमेव जयते‘ की तख़्ती के नीचे
झूठ का फैलता कारोबार
आँखों का सहज एतबार हो जाय
तो समझना
देश के दस नम्बरी झूठे
सत्यवादियों के भतीजे लगते हैं।
जब पड़ोसी की चीत्कार में तुम्हें
सुनाई पड़े मंदिर का घंटा
मस्जिद की अज़ान
गुरुद्वारे की बानी
जब तुम्हारे कान बंद कर दें सुनना
आदमी का आर्त्तनाद
और सिर्फ़ बुलेटिन सुनने के
अभ्यस्त हो जायँ
तो समझना
देश जंगल में तब्दील होने लगा है।
उसकी सरायों पर दो मुँहे साँपों
और धर्मशालाओं पर
शिकारियों का कब्जा हो गया है
लोगों की ज़र ज़मीन जोरू
पर सेठों की नज़र है
और देश की प्रयोगशालाएँ
अधिकारियों के ऐशगाह
डाकबँगलों में बदल गयी हैं
अब कोई नहीं बचा सकता
देश के किसानों और वैज्ञानिकों को
आत्महत्या से।
4/ एक स्त्री के निर्वसन घुमाये जाने पर
दुहाई देकर निशाना
मछली की आँख में मारा जाता है
और एक स्त्री के
मनमानी इस्तेमाल की
छूट मिल जाती है।
आग लगती है हस्तिनापुर में
और जलता है द्रौपदी का लहँगा।
ख़ून हरियाली का होता है
वध मासूमियत का
पंख सुन्दरता के नोचे जाते हैं
और सिर्फ़ चिड़िया की आँख
देखने वाले कुछ नहीं देखते।
बोलती औरत को चुप कराने का
एकमात्र हथियार बेहयाई है।
निर्लज्ज लोगो!
दुनिया! आग! हवा! और पानी!
स्त्री ने नहीं बनाया फिर भी
उसी के दम पर सिरजी है दुनिया
उसी के जतन से जिन्दा है आग
उसी की साँसों से महकती है हवा
स्त्री की आँखों से ही बचा है
धरती का पानी।
5/ इतिहास में अभागे
इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं वे अभागे
जो बोलना जानते थे
जिनके ख़ून से
लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिये गये
जिनके चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिघाड़ना।
वे अभागे अब कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गयी
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पीरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।
सारे महायुद्धों के आयुध
जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे अब
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।
सारे पुरातत्ववेत्ता जानते हैं कि
जिनकी पीठ पर बने वकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गये
और इस जुर्म में
टाँग दिये गये भालों की नोक पर।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियां
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गयीं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी
घसिआरिन तरुणियां
जिनसे राजकुमारों ने प्रेम किया
और बाद में उनके सिर के बाल
किसी तालाब में सेवार की भाँति तैरते मिले।
इतिहास नायकों का भरण पोषण
करने वाले इनके अभागे पिताओं के नाम पर
नहीं रखा गया
हमारे देश का नाम भारतवर्ष।
हमारी बहुएं और बेटियां
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को
उनके लिए नहीं कहते भारत माता।
6/ अंतिम इच्छा जैसा कुछ भी नहीं है जीवन में
जब हमें कुछ खोया-खोया सा लगता है
और पता नहीं चलता कि
क्या खो गया है
तो वे दिन जो बीत गये
दिल की देहरी पर
दस्तक दे रहे होते हैं।
वे दिन जो बीत गये
लगता है बीते नहीं
कहीं और चले गये
बहुत सारे अनन्यों की तरह
और अभी रह रहे हैं
इसी देश काल में।
जो बीत गया इस जीवन में
उसे एक बार और
छूने के लिये तरसते रहते हैं हम
बीते हुए कल की न जाने
कितनी चीज़ें हैं जिन्हें
हम पाना चाहते हैं उसी रूप में
बार-बार
नहीं तो सिर्फ़ एक बार और।
ललकते रहते हैं
उन्हें पाने के लिए हम
मरने से पहले
अंतिम इच्छा की तरह
और अंतिम इच्छा जैसा
कुछ भी नहीं है जीवन में।
7/ एक दिन प्रेम
एक दिन जब
तुम किसी और से मिलने आयीं
मैं तुम्हें जानता था
ठीक उसी तरह जैसे
अपने घर से बाहर
लहलहाती वन तुलसी को।
एक दिन जब
एक चाँदी की मछली तैर रही थी निर्झर में
मैंने अनायास छू लिया तुम्हें
और तुझसे पूछा तक नहीं
कि तुम्हें कैसा लगा।
एक दिन जब
मैं हिसाब लगा रहा था
कितने बरस बीत गये तुम्हें छुए
तो चाँदनी बरस रही थी
तुम्हारे घर के चारो ओर और
तुम मेरे बारे में ही सोच रही थीं।
मुझे पता चला कई सारे राग
बनाये हैं तुमने उस छूने के बारे में
जिन्हें अपने एकांत में गाती हो तुम।
एक बार छूने से कहीं ऐसा संगीत फूटता है
तुम्हारा नाम तो सितार होना चाहिए
इतने सुर छिपे हैं तुम्हारे भीतर
स्वर लहरियों का मेला है तुम्हारा गीत
अब छूना नहीं
डूबकर सुनना चाहता हूँ
वह राग
जो सिर्फ़ तुम्हारी वीणा से फूटता है।
8/ सिवाय इश्क़ या कि
हुआ था जो भी हुआ था हुआ वो फिर न हुआ
इस शहर में तो मेरा कोई मुन्तज़िर न हुआ।
परीखाने से चले चांद के मुसाफ़िर का
क्या कोई दिल न हुआ क्या कोई जिगर न हुआ।
हज़ार ख़्वाहिशों का दम निकल गया लेकिन
वो एक मकान जो अपना था, कभी घर न हुआ।
इश्क़ आदत नहीं फितरत है मेरी क्या कहिए
मेरे मिज़ाज का क़ायल वो सितमगर न हुआ।
सिवाय इश्क़ या कि इंक़लाब करने के
दिले नादां पे किसी बात का असर न हुआ।
कमी नहीं है मेरे चाहने वालों की यहाँ
हँसी आती है कि उनमें कोई दिलबर न हुआ।
9/ पूछती है मेरी बेटी
जनक बहुत कुछ जानते थे सीते!
गोकि हल की मुठिया
थामे बिना राजा
नहीं समझ सकता दुख प्रजा का।
कि क्या होती है पोषिता कन्या
योषिता कुमारी
कितना कठिन है उसका जीवन निर्वाह
इसलिए पिता विदेह ने
तुम्हें स्वयंवरा बनाया
कि स्वयं वर
बल-बुद्धि-संयम शील युक्त वर
पर रख दी शंभुधनु भंजन की शर्त।
जनक सुता! तुमसे पहले
पिता ने अग्नि-परीक्षा दी थी
कहती है मेरी पत्नी
अपनी अमूल्य धरोहर भी दांव पर लगाकर
पिता निश्चिंत होना चाहता है
एक लड़की का पिता होकर ही
जाना जा सकता है
बहुत कुछ कर सकने के सामर्थ्य
और कुछ न कर पाने की मज़बूरी को।
पूछती है मेरी बेटी
पापा! समय ने तुममें और जनक में
कोई फ़र्क़ किया है क्या
और सोचता हूँ मैं
एक वन से दूसरे वन जाना ही
नियति है क्यों
आज भी हमारी बेटियों की!
10/ हर औरत का एक मर्द है
छलना कह लो माया कह लो
नागिन, ठगिनि दुधारी।
ढोल, गँवार शूद्र पशु कह लो
कामिनि कुटिल कुनारी।।
डायन या चुड़ैल कह पीटो
अबला दीन बिचारी।
ज़हर पिलाओ गला-दबावो
अथवा करो उधारी।।
सावित्री घर की मर्यादा
सतभतरी रसहल्या।
पति परमेश्वर की आज्ञा है
पत्थर बनो अहिल्या।।
यज्ञों में दुर्गति करवाओ
जुआ खेलकर हारो।
प्रेम करे तो फाँसी दे दो
पत्थर-पत्थर मारो।।
बलि दे दो जिन्दा दफ़नाओ
जले बहू की होली।
पतिबरता तो मौन रहेगी
कुल्टा है जो बोली।।
सती बने या जौहर कर ले
डूब मरे सतनाशी।
विधवा हो तो ख़ैर मनाओ
भेजो मथुरा काशी।।
ज़ाहिल-ज़ालिम आक्रांता को
बेटी दे बहलाओ।
बेटे ख़ातिर राज बचा लो
ख़ुद भी मौज उड़ाओ।।
कुँआ, बावली, पोखर, नदियाँ
मर सीतायें पाटीं।
किस करुणाकर, करुणानिधि की
वत्सल छाती फाटी।।
अपनी दासी उनकी बेटी
अपनी बेटी उनकी।
महाठगिनि ने पूछा मुझसे
ये माया है किनकी।।
उन मर्दों में मैं भी शामिल
फिर भी कहूँ तिखार।
हर औरत का एक मर्द है
लुच्चा, जबर-लबार।।
11/ छूना मन
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
छूता है ठंडी हवा का झोंका
और हुलास से भर उठती हो तुम।
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
नहाते समय छूता है पानी
और नहाकर तुम और सुन्दर हो जाती हो।
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे भोर को छूती है सुनहली किरण
या जैसे तुम छूती हो अपने आपको
स्वयं पर मुग्ध होते हुए।
मैं नहीं चाहता छूना तुम्हें
जैसे तुम्हें
छूता है बगलगीर
या रास्ते की धूल
जो तुमसे चिपक जाती है
उस अनजान की तरह भी नहीं
जो कुण्डली मिलने पर
छूता है तुम्हें
और बना लेता है अपनी खेती।
12/ खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर
पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं
इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में
रंग छा जाते हैं
मानो ये चंचल नैन
इन्हें जनमों से जानते थे।
मानो हृदय ही फूला फला है
अपनी सारी उदारता के साथ
काया के ऊपर
डाल पर पके बेल की आभा और गंध लेकर।
एक मद्धम सुनहरी आँच
फूटती है इनके चतुर्दिक
जैसे भोर के सुरमई संसार में
दिन निकलने से ठीक पहले
दिखता है लालटेन का प्रकाश वृत्त।
सम्मोहन से सुचिक्कन ये कांति के कोहिनूर
दिप रहे हैं हज़ार वर्षों से
ताम्बई दीपाधारों पर फूट पड़ने को तत्पर
प्रथम सद्यःप्रसूता के स्तनों जैसे
उन्नत-उज्ज्वल और वर्तुल।
मनुष्य का सबसे मुलायम अनुभव
छेनी और हथौड़ियों से तराशा गया है
जैसे बल खाती नदी का जल
हौले-होले गढ़ता है शालिग्राम
कलेजे से लगाकर शिलाखंड।
कलाकार हाथों ने पत्थरों में जड़ दिए हैं
नवनीत के बड़े-बड़े लोने
कि वे सदा वैसे ही बने रहें
न ढलें, न गलें
प्रगाढ़ आलिंगनों से अक्षत
इतने उदग्र ऐसे उद्धत
जैसे संसार भर में बननेवाली रंग-बिरंगी चोलियाँ
पाँव पोंछने के लिए हों।
इन्हें देखकर मन करता है
कहीं से कटोरा-भर केसर घोल लाऊँ
और धीरे-धीरे करूँ इन पर लेप
जैसे ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया जाता है
मनुहार कर किसी को चलूँ अपने संग
ख़ूब आदर-सत्कार करूँ और पूछूँ
इन मंगलघटों में बसे
मनुष्य के प्राणों का रहस्य।
जिन दिनों आधी-आधी रात तक
चलती है पुरवाई
अमराइयों में अलसाई कोयल
बोलती है कुहु-कुहु
नारंगी का यह मदन-रस-माता बाग़
अपनी आती-जाती हर साँस के साथ डोलता है।
मौसम की पहली बारिश के बाद
तत्क्षण जब निकलती है धूप
घटा और घाम में एकसाथ नहाये
वक्षों से उठते हैं वाष्प के फाहे
माघ की सुबह मुँह से निकली भाप की तरह
जैसे किसी सद्यःस्नाता की देह से
उठती हो निःशब्द कामनाओं की लौ।
एक सखी दूसरी से कहती है
सखी! अपने ये फूल देख रही हो
नंदन वन का पारिजात भी
इनके आगे कुछ नहीं है
जब तुम कुएँ में पानी भरने जाओगी
तो धरती के ये फूलगेंदे
पाताल तक महकेंगे।
इस पर्वत उपत्यका में कभी
मृगछौने के पीछे दौड़कर देखो
ललछौंही आँखों वाले ये खरगोश
अपनी जगह उछल-कूद की
कैसी प्रीतिकर युगल-बन्दी करते हैं।
सजते सँवरते समय ये किसी व्याकुल छैला की तरह
उचक उचकर आईने में झाँकते हैं
तब मन करता है प्रिय की पठायी मुंदरी की तरह
इन्हें हाथ में लेकर हियरा भर देखूँ।
गोमुख से निकली गंगा की तरह
कंचनजंघा के इन सुनहरे शिखरों से भी
फूटती है एक गंगोत्री
जिससे यह सारी धरती
दूधो नहा और पूतों फल रही है।
दिनेश कुशवाह
जन्म सन् 1961 की 08 जुलाई को अयोध्या में । उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ग्राम गहिला में बचपन बीता। स्नातक से लेकर पी-एच. डी. तक की शिक्षा-दीक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में।
एक दशक तक साम्यवादी छात्र राजनीति के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे। राहुल सांकृत्यायन पर शोधकार्य। 1985 से काव्य-रचना के क्षेत्र में सक्रिय । ‘वसुधा’ के सम्पादन से सम्बद्ध रहे।
निराला सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार , मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार , सावित्री सम्मान, केदार सम्मान तथा स्पन्दन कृति सम्मान से सम्मानित एवं पुरस्कृत।
संप्रति : हिन्दी विभाग,अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (म.प्र.) के आचार्य एवं विभागाध्यक्ष तथा महाकवि केशव अध्यापन एवं अनुसंधान केन्द्र ,
ओरछा के निदेशक।
मो. : 9340730564
ई-मेल – dineshapsu@gmail.com
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दिनेश कुशवाह की कविताओं में समाज में हाशिए पर खड़े मनुष्य की व्यथा कथा की कलात्मक अभिव्यक्ति हुई हैं. कहना यह है कि इन कविताओं में व्यर्थ के शोरगुल से बचते हुए चीज़ों को उनकी सही नाम से पुकारा गया हैं. ये कविताएं गंभीर विचार विमर्श की मांग करती हैं.
कवि एवं संपादक को साधुवाद.