निर्मला भुराड़िया नौवे दशक की महत्त्वपूर्ण कथालेखिका हैं। कहन का अंदाज़ निर्मला का
चुहलभरा है जिसके आलोक में सामाजिक बुराई
– विद्रूपता छुप नहीं पाती। निर्मला में व्यंग्य की एक ऐसी मीठी मार दीखती है जो अनायास ही उन्हें परसाई, ज्ञानरंजन और ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन की पांत में ला खड़ा करती है।
ख़ैर, निर्मला भुराड़िया की यह कहानी पाठक पढ़ेंगे और हमारे लिखे से ज़्यादा ही कुछ महसूस करेंगे। – हरि भटनागर
शैतान के सींग
• निर्मला भुराड़िया
सालभर की मुन्नी हुई रजस्वला
पूरा परिवार सन्नाटे में था। ‘ये कैसी अनहोनी? न कभी देखी न सुनी, घोर असगुन हैं।’ सालभर की छोरी महीने से हो गई; बप्पाजी बोल रहे थे। बहू-बेटियां मैले-कुचैले लंबोतरे पर्दे के पीछे से झांककर, घर की आपात बैठक में भागीदारी कर रही थीं। मरदजात पालथी मार बैठे बप्पाजी के इर्द-गिर्द घेरा बनाए थी, जिनमें छोरे-छपाटी से लेकर, घर के अधेड़ भी थे। शहर से आया भांजा कुक्कू भी बैठक में शामिल था। आखिर वो भी कोई गैर थोड़े ही था, घर का ही आदमी था। बप्पाजी की छोरी का छोरा। अपनी स्वर्गीय मां की तरह ही खूबसूरत, दूध नहाया। दिखने में चोखी थी इसीलिए तो बप्पाजी की बाकी औलादों से अलग बिमला का रिश्ता थोड़े ठीक शहरी घर में हो गया था। वरना बप्पाजी की क्या औकात थी, जो अपनी बेपढ़ छोरी को चार अंकों की आय वाली नौकरी कर रहे लड़के से ब्याह देते? इसी बिमला का छोरा था कुक्कू।
जब बप्पाजी ने कहा, ‘छोरी असगुनी है, इसे उठाकर कहीं फेंक आओ, रातमरात गाढ़ आओ, नहीं तो नदी में सिरा आओ, तो बाकी सब मरद लोगों ने हां में हां करके मुंडी हिलाई थी, बस कुक्कू ही इसके खिलाफ था। वह बोला, ‘नहीं बप्पा नाना, ऐसा गजब ना करना। खुदा न खास्ता किसी ने देख लिया या किसी को भनक भी पड़ गई तो बात पुलिस में जाएगी। फिर तो आपकी और मामा की खैर नहीं।’
कमरे के पार्टीशन वाले पर्दे के पीछे खड़ी औरतों की राय तो किसी ने पूछी नहीं थी, हां यह जरूर हुआ था कि जैसे ही बप्पाजी ने कहा था कि छोरी को फेंक आओ तो उनमें से एक औरत की भेंऽऽ, भेंऽऽ करके रोने की आवाज आई थी, जो कुक्कू के सुझाव के आते ही धीरे होते-होते, सुबुक-सुबुक और नाक ऊपर-नीचे खींचने के स्वर में तब्दील होते-होते बंद हो गई थी। यह बच्ची की मां थी।
पर कुछ तो करना होगा। अपशगुन की कुछ तो काट करना होगी। सो तय हुआ कि पंडित बुलाकर कुछ पूजा-पाठ करवा ली जाए। ऐसे में कौन सी पूजा करवानी होगी, वो रास्ता भी पंडितजी ही बताएंगे। फिर घर के मर्दों के बीच पूजा कराने के चंदे की थाली घूमी तो सबसे ज्यादा रुपए कुक्कू ने ही दिए। पूरे सौ रुप्पए! सबके सब कुक्कू के मुरीद हो गए।
बैठक खत्म हुई मगर बप्पाजी के एक और फरमान के साथ, ‘जैसे और लड़कियां पहली दफा छूने की होती हैं तब किया जाता है, वैसे ही अब पूरे सात दिन तक कोई मरद मुन्नी का मुंह नहीं देखेगा। बच्ची को बाहर हवा-अवा खिलाने ले जाने की भी जरूरत नहीं, चाहे कितना ही रोए। वो छूत की बखत देहरी नहीं लांघेगी। झाड़-पेड़ के नीचे ऐसी हालत में जाने से जिन्न-भूत लगते भी देर नहीं लगती। भोत सी छोरियों को पागल होते देखा है हमने… ब्याह-शादी मुश्किल हो जाती है।’ बप्पाजी का लेक्चर लंबा था, पर सबने सुना और हां अमल करना भी शुरू किया। घर के भीतर से मुन्नी के रोने की आवाजें आती रहीं, पर न कोई मर्द मुन्नी के सामने गया, न ही कोई रोती मुन्नी को बहलाने के लिए बाजार की सैर कराने ले गया। घर के भीतर महिला वृंद अपने-अपने अनुमान लगाती रहीं और नुस्खे बताती रहीं। ‘अरी पेट-कमर दुखता होगा, आखिर महीने से है मुन्नी, हल्दी का दूध पिला दो।’
बेचारी मुन्नी कष्टी थी। पर बोलना तो आया नहीं था। वो त-त-त कहती उंगली दिखाती रही, पर उसकी उंगली के निशाने पर जो था, वह तो पर्दे के उस पार मर्दों की दुनिया में था। मुन्नी तो अभी से औरतों की दुनिया की बंदिनियों में से एक बन गई थी। सो वह इशारे को सही निशाने पर बताए बगैर ही इस दुनिया से कूच कर गई। एक दिन के भीतर ही उसकी योनि से खून निकलना तो बंद हो गया था, मगर दो दिन बाद वहां से पीला पदार्थ निकलने लगा, साथ ही मुन्नी को तेज बुखार आया। मेडिकल स्टोर वाले भैय्या से पूछकर मुन्नी को क्रोसीन सीरप भी दी गई, मगर फिर भी मुन्नी ने दम तोड़ ही दिया। भगवान ने ऐसी करी कि बगैर कुछ किए बप्पाजी के मन की हो गई। न पुलिस कचहरी, न पूजा-पाठ। अपने आप ही आपदा से छुटकारा। बप्पाजी ने चैन की सांस ली।
कथा ऋषि कुमार की
नहीं-नहीं यह ऋषि पंचमी की कथा नहीं। रजस्वला शब्द आते ही धोखा न खा जाइएगा। मैं ऋषि पंचमी नहीं, ऋषि कुमार की कथा बता रही हूं। ऋषि कुमार एकउसम बंदा है। जाने कितनी लड़कियों का प्रिंस चार्मिंग। गोरा रंग, यूनानी देवताओं वाले नैन-नक्श, फ्रेंच कट दाढ़ी। उसके रहन-सहन और बोल-चाल में अजब-सा सॉफेस्टिकेशन है। ठठाकर हंसना, ऊंचे स्वर में बात करना उसने मानो सीखा ही नहीं। उसके सारे एटीकेट्स और मैनर्स अंग्रेजों वाले हैं। जाने उसकी मुस्कान में क्या बात है कि एक मुस्कान फेंकते ही कोई भी लड़की ढेर हो जाती है। वैसे सच तो यह है कि लड़कियां ही क्या अपनी जादुई मुस्कान से वह किसी को भी लपेट सकता है। स्त्री, पुरुष, बूढ़ा, जवान किसी को भी। मुस्कान के साथ ही उसकी बातों में भी जादू है। उसके दिमाग का करघा रेशमी, सूती, रंग-बिरंगे हर तरह के लच्छे बुनता है, यानी जिसको जैसे चाहिए, वैसे लच्छे वो बुन लेता है। उसकी बातों में मोहिनी है, आवाज में खनक। उसकी महीन-सी हंसी में चुम्बक है, उसके तर्कों में लोगों को कायल करने की ताकत। वैसे नौकरी वो कोई नहीं करता, काम भी जाने क्या करता है, मगर पैसे की कोई कमी नहीं उसके पास। उड़ाने वाला भी तो वह इकलौता ही है। मां-बाप गुजर गए, भाई-बहन हैं नहीं। सो, लड़कियां लाइन मारें सो मारें, लड़कियों के ऐसे बाप भी कई हैं, जो उसके पास बेटी की कुंडली लेकर पहुंचते हैं। मगर ऋषि अपनी कुंडली किसी पर नहीं खोलता। उसे इनमें से किसी लड़की से कुंडली मिलानी ही नहीं है! फिर कैसी लड़की चाहिए उसे?
ऋषि कुमार ने घोषणा की है कि वह किसी ऐसी लड़की से शादी करेगा, जो अनाथ हो। अनाथ भी ऐसी जिसके न आगे नाथ हो, न पीछे पगहा। अंकल-वंकल, बुआ-मौसी, भाई-बहन, लड़की का कोई भी हो तो फिर लड़की अनाथ कहां हुई? अनाथ हो तो पूरी, जिसका उद्धार करने का कोई मतलब हो!
ऋषि कुमार के इस आदर्शवाद पर कौन न मर मिटेगा? दरअसल जिन लड़कियों के बाप अपनी कन्या को ठुकराए जाने पर दु:खी हुए उन्होंने भी ऋषि कुमार के आदर्शवाद की सराहना जरूर की। और आखिर एक उद्धारगृह में ऋषि कुमार ने कुसुमलता से ब्याह करने के बदले, उद्धारगृह को रकम दी। कुसुमलता अनाथ ही नहीं, कम पढ़ी-लिखी भी थी। बमुश्किल पांचवीं पास। यानी कुसुमलता को अपनाने की ऋषि कुमार की महानता में थोड़ा और इजाफा।
आगे नाथ न पीछे पगहा
कुसुमलता सांवली थी। उसके सांवले चेहरे पर दो बड़ी-बड़ी आंखें थीं। कुसुमलता बहुत ही कम बोलती थी। बोलने का काम उसकी आंखें ही करती थीं। स्थितियों के अनुसार उसकी आंखों के भाव बदलते रहते थे, बाकी तो उसकी आंखों का स्थायी भाव भय ही था। वह भयभीत हिरणी की तरह टुकुर-टुकुर देखती रहती थी। ऋषि कुमार कुछ कहें तो ‘जी हां’ या ‘हां जी’ में से एक जवाब वह चुनती थी। इससे आगे न ऋषिकुमार ने कुछ पूछा, न कुसुमलता ने कुछ बताया। पर ऋषि कुमार में क्या बात अजीब है, यह कुसुमलता को पहली ही रात पता चल गया था। बिस्तर पर ले जाने से पहले उसने कुसुमलता की योनि दूध से धुलवाई। कुसुमलता को डर लगा कि कहीं उसका पति तांत्रिक तो नहीं? पर ऐसा नहीं था। इससे भी खराब था। उसे उत्तेजना के लिए दुधमुंही बच्चियों की फेंटेसी चाहिए थी। उसने कुसुमलता से कहा कि वह उसकी उत्तेजना के लिए पांच साल के भीतर-भीतर की बच्चियों के वर्णन करे। जैसे ही पति ने यह मांग की, कुसुमलता को जोर की उबकाई आई। उसकी ऊऽऽऽ को पति ने ना समझा और एक झन्नाटेदार तमाचा दिया। और जैसे बिगड़ा, बंद पड़ा टेप रिकॉर्डर थप्पड़ खाकर चल पड़ता है, वैसे ही कुसुमलता भी अपनी देखी-अनदेखी बच्चियों के बारे में ऊल-जुलूल बुनने और बकने लगी। खैर, उसके पति को तो यह आंय-बांय बकना बहुत पसंद आया। इस सबके बीच कुसुमलता की आंखों में क्या भाव आया होगा, यह जानना मुश्किल है, क्योंकि उस वक्त कमरे में अंधेरा था। जरूर उसकी आंखों ने भी उस वक्त उबकाई ली होगी! जो भी हो, अब तो उसे यह रोज करना था। भागकर जो कहीं जा नहीं सकती थी। …आगे नाथ न पीछे पगहा… ऋषि कुमार ने सही ही सोचा था।
ट्रॉफी वाइफ
लोग किसी मॉडल, किसी अभिनेत्री, किसी मिस कॉलेज, मिस मोहल्ला से शादी करते हैं ताकि ट्रॉफी की तरह उसे प्रदर्शित कर सकें, कि भई देखो मैंने ये जीती है। ट्रॉफी वाइफ के साथ पार्टियों में हाथ में हाथ डालकर जाया जाता है। ट्रॉफी वाइफ वो हो सकती है, जो अमेरिकन ऐक्सेंट में अंग्रेजी बोलती हो, पांच इंच के स्टिलेटोज पहनकर चल सकती हो। चलते-चलते उसकी कमर दाएं-बाएं हिलती हो। अटक-मटक, अटक-मटक। एक दफे अटक तो दूसरी दफे मटक यानी एक बार बाएं तो एक बार दाएं। ऐसी बीवी जो ब्रांडेड चीजों में रुचि रखती हो या फिर ऐसी जो चांदनी चौक से खरीदी ड्रेस भी पहने तो लोग समझें कि वो ब्रांडेड है, लिहाजा उसे बहुत सारे नामी डिजाइनरों और तरह-तरह के ब्रांड्स के नाम मुंहजबानी याद हो। बाकी किसी भी किस्म के इंटेलिजेंस की दरकार नहीं, सच कहें तो थोड़ी बुद्धू हो तो अच्छी।
मगर ऋषि कुमार की ट्रॉफी वाइफ तो कुसुमलता ही थी। ट्रॉफी वाइफ के उपरोक्त वर्णित गुणों के एकदम विपरीत मगर फिर भी ट्रॉफी वाइफ, क्योंकि ऋषि कुमार उसे प्रदर्शित करना चाहता था। ‘फुस-फुस-फुस… वाह क्या आदमी है, इस पर तो कोई भी लड़की बिछ जाती पर इसने तो अनाथाश्रम की गेली-गंगा से ब्याह कर लिया।’ ऋषि कुमार यही तो चाहता था कि लोग उसके आदर्श रूप पर वारि-वारि जाएं। वह कुसुमलता को लेकर गर्व से यहां-वहां डोलता था।
कुसुमलता को देखकर औरतें अश्-अश् करती थीं। चंचल स्त्रियां कुसुमलता से रश्क करती थीं। पर उन बेचारी स्त्रियों को क्या पता था कि कुसुमलता तो मन ही मन नर्क की आग में जलती थी। उसके पति ने एक नया ही किस्सा शुरू कर दिया था। कुसुमलता की कल्पनाएं खल्लास हो गई थीं। वो नन्ही बच्चियों की और काम कथाएं नहीं बुन पा रही थी। पहले ही तो उबकाइयां ले हकला-हकला के रात की फेंटेसी सुनाया करती थी ऊपर से अब वो किस्से रिपीट भी करने लगी थी। ऋषि कुमार के थप्पड़ों का भी कोई असर नहीं हो रहा था अत: ऋषि कुमार ने नया ही प्रयोग शुरू कर दिया था। जब सारी खातिरी हो गई कि कुसुमलता कहीं भागकर नहीं जा सकती, किसी से कुछ कह नहीं सकती, तो उसने खुद ही अपने कारनामे रात में सुनाने शुरू कर दिए थे।
कुसुमलता यह जानकर कांप गई थी कि शराफत के पुतले और नफासत के अवतार ऋषि कुमार ने पहला बलात्कार नौ साल की उम्र में ही कर लिया था, आठ महीने की बच्ची के साथ! इसके बाद इतने कांड इसने किए मगर कभी पकड़ नहीं आया। उसके शातिर दिमाग ने हमेशा सफाई से काम को अंजाम दिलवाया और उसकी शरीफ छवि ने शक को दूर रखा। कुसुमलता जानती थी कि प्रथम तो यह कि कोई ऐसा है ही नहीं जिससे वह अपने मन की बात बांट सके, दूसरे यदि वह किसी से कहे भी तो भरोसा कौन करेगा? ऋषि कुमार ने बहुत होशियारी से अपनी इमेज बनाई है और उतनी ही होशियारी से वह लोगों को पटाना और उनका दिमाग बदलना जानता है। अब लोगों की आंखों के सामने हाथी को गायब कर देने वाले जादूगर के बारे में वह क्या कहे? भला कौन विश्वास करेगा? वह भी कुसुमलता जैसी अदना सी औरत पर। यह तो सिर्फ और सिर्फ कुसुमलता ही जानती थी कि इस शैतान के सींग पेट में हैं और ऋषि कुमार चाहता था कि कुसुमलता के पेट में जल्दी से एक बेटी आ जाए। वह कुसुमलता को देख-देख मुस्कुराता, सीटी बजाता और फिल्म ‘बॉम्बे’ का वो गाना गाता- ‘कुची-कुची रकमा पास आओ ना, एक प्यारी-प्यारी गुड़िया दे दो ना।’ अब कुसुमलता तो फिल्म की मनीषा कोईराला की तरह झूमकर नहीं गा सकती थी न, ‘प्यारी-प्यारी गुड़िया ना देना!’ मगर में पूरी कठोरता के साथ उसने प्रण कर लिया था कि वह औलाद को जन्म नहीं देगी। कहीं बेटी ही हो गई तो! ऋषि कुमार जैसे पिशाच का क्या भरोसा? सोचकर ही कुसुमलता की रूह कांप जाती थी। मगर ऋषि कुमार कोई प्रोटेक्शन इस्तेमाल नहीं करता था अत: कुसुमलता ही एक सरकारी केंद्र में जानकर गर्भ निरोधक गोलियां ले आई थीं।
पर्दे के पार, प्यार का संसार
और एक दिन ऋषि कुमार के ननिहाल से खबर आई कि बप्पा नाना नहीं रहे। और ऋषि कुमार उर्फ कुक्कू अपने नाना की मृत्यु के शोक में शामिल होने ननिहाल पहुंचे, सपत्नीक। बूढ़ी मौत थी। बैंडबाजा भी बजा और रोज नए पकवान भी परोसे जा रहे थे कि फलां-फलां चीज बप्पाजी को बहुत पसंद थी। बैठक में निठल्ले बैठे लोग जीवन दर्शन भी पेल रहे थे, ‘देखी भारतीय संस्कृति की महानता, यहां मौत का भी उत्सव मनाया जाता है।’ सबने अपने-अपने काम से छुट्टी ले ली थी। बाहर गांव से आए रिश्तेदारों का मेला लगा हुआ था। गांव के लोगों की आवक-जावक लगी थी। बाहर पुरुषों की बैठक में हंसी-ठट्ठा चलता रहता था, बस जैसे ही कोई नवागंतुक आता, सब सहसा कुछ क्षण के लिए चुप हो जाते। दोनों मामा लोग गले में लपेटे दुपट्टे का छोर आंख तक ले जाकर फिर छोड़ देते। और कुछ पल बाद ही दुनिया-जहान की बातें शुरू हो जातीं।
उधर पर्दे के पार जनानखाने में भी माहौल कुछ खास अलग नहीं था। सुबह और रात की रसोइयों के बीच औरतें तनिक फुर्सत में होती थीं और बैठक में बैठी रहती थीं। औरतों के बीच गपशप चलती रहती, वे हंसती भी थीं, पुरुषों की तरह ठठाकर तो नहीं पर मुंह में पल्लू लेकर गुलगुल करतीं। जब बाहर से कोई नई औरत बैठक में प्रवेश करती तो घर की औरतें पूरे मुंह पर पल्लू काढ़कर रोने की आवाज निकालने लगतीं। पल्लू लेने की यह रस्म एक-आध मिनट में समेट ली जाती और औरतें फिर नॉर्मल होकर बातचीत में लग जातीं।
सब बड़े खुश थे कि कुक्कू भैया आए और साथ में अपनी लाड़ी को भी लाए। मामियों ने कुसुमलता का खूब दुलार किया। कुसुमलता जनानखाने की औरतों में ऐसे घुल गईं, जैसे कि दूध में शकर। इतना लाड़-प्यार तो उसे कभी और कहीं नहीं मिला था। ‘एक जलेबी और ले कुसु’, बड़ी मामी खाते वक्त मनुहार करतीं। तो सोते वक्त छोटी मामी कहतीं, ‘ला कुसु, मैं तेरे बालों में जरा तेल घाल दूं, माथे में तरी रहेगी।’ मामियों की लड़कियां कुसु भाभी, कुसु भाभी कहती घेरे रहतीं। आखिर वे उनके प्यारे कुक्कू भैया की बीवी जो थीं। अपने कुक्कू भैया भी बाहर पुरुषों की बैठक की शान थे तो जनानखाने की भी तो जान थे। उन्हें किसी भी वक्त जनानखाने में आ बैठने की इजाजत थी। आखिर वे घर के भांजे जो थे। कभी वे बाहर के लिए पांच कप चाय का ऑर्डर लेकर आते तो कभी लौंग-सुपारी की डिब्बी लेने। कभी तो वे यूं ही भीतर आ जाते कि बाहर बैठे-बैठे उकता गए हैं।
उस दिन कुक्कू भीतर कुछ तस्वीरें लेने आए थे, बड़े मामा की अलमारी में से। उन्होंने मामी से अलमारी खोल तस्वीरें निकालने को कहा। मामी ने पहले ही सब तैयारी कर रखी थी। कोई ज्योतिष बता गया था कि जिस दिन बप्पाजी की तेरहवीं हो उस दिन सिर्फ उन्हीं की नहीं, बल्कि सब पुरखों की तस्वीरें बैठक में लगाना। कई तस्वीरें अंदर से निकलीं। उनमें बप्पा नाना की पहली और दूसरी बीवी की तस्वीर, उनके मां-बाप की तस्वीर, किशोरावस्था में ही गुजर चुके एक भाई की तस्वीरें आदि थीं, लेकिन साथ ही एक साल खांड की बच्ची की तस्वीर भी थी। तस्वीरें जब पोंछने के लिए जमीन पर बिछाई गईं तो कुसुमलता ने भी झांका कि क्या-क्या है, कौन-कौन है! वह चमक गई कि एक नन्ही सी बच्ची की तस्वीर भी है। सिर्फ चेहरा, वह भी धुंधला-धुंधला और शायद किसी ग्रुप फोटो से काटकर निकाला गया है।
कुसुमलता को बड़ा अचरज हो रहा था कि एक छोटी सी छोरी की इतनी औकात यहां मान रहे हैं कि उसको बाकायदा पुरखों में शामिल किया गया है! कुसुमलता को पता नहीं था यह आदर-प्यार नहीं, डर का मामला था। ज्योतिष ने कहा था अकाल मौत वाले हर प्राणी को शामिल करना है, भूत-पलीत का क्या, वे तो मरे बच्चों के भी हो सकते हैं और घर वालों को तंग कर सकते हैं। पूजा-चढ़ावा करके उनको शांत करना जरूरी है।
निश्चित ही कुसुमलता ने मामियों से जानना चाहा कि हैजा, दस्त, बुखार, निमोनिया ऐसी किस चीज से बच्ची मरी थी? जब उसे पता चला कि बच्ची कैसे मरी तो उसका दिमाग ठनका। उसने जानना चाहा कि क्या तब कुक्कू वहीं था। जवाब हां में मिला। अब तक तो कुसुमलता हमेशा नहीं तो भी कभी-कभी अपने आपको बहलाती रहती थी कि उसका पति रात में जो कहता है, महज फेंटेसी ही होगी। संभव है कि सच में उसने किसी बच्ची के साथ ऐसा न किया हो। मगर अब वो अपने आप को झूठ-मूठ बरगला भी नहीं पा रही थी। यहां किसपे अपना शक जाहिर करती? यहां तो सब कुक्कू भैया के दीवाने थे। कुसुमलता के भी इतने लाड़-चाव उसके कुसुमलता होने की वजह से नहीं, बल्कि प्यारे कुक्कू की बीवी होने से हो रहे थे, यह तो वह समझती ही थी, चाहे कितनी ही बौड़म क्यूं न हो। उसने सोचा, काश! उसके पास यह ताकत होती कि वह इस आदमी को सजा दिलवा सकती, पुलिस में पकड़वा सकती और कुछ नहीं तो मुंह काला करके गधे पर ही घुमवा सकती। मगर वह कुछ नहीं कर सकती थी अत: मन ही मन श्राप देकर रह जाती कि ‘हे ऋषि कुमार तुझे कीड़े पड़ें, तू नरक की आग में जले, तू जेल में चक्की पीसे… वगैरह। पर ऋषि कुमार जेल में चक्की क्या पीसता, बस कुसुमलता ही दांत पीसकर रह जाती।
जो भी हो कुसुमलता को यहां अच्छा ही लग रहा था। कितनी झिलमिल और हिलमिल थी इस जनानखाने में। ढेर सारे नन्हे-मुन्ने बच्चे कौन किसका पता ही नहीं चलता। कोई औरत एकसाथ बच्चों को पाइप से नहलाती तो कोई सबको लाइन से बैठाकर परोसती। रात को सब भजन गातीं। बैठक में पांच बजे से सात बजे तक घर की हर औरत के पास एक लाल डायरी होती जिसमें वे बैठी-बैठी राम-राम लिखतीं। छोटी मामी ने कुसुमलता को भी एक डायरी दे दी थी।
आखिर ननिहाल भी कितने दिन रहतीं। एक दिन वहां से बिदा की बारी आ ही गई। बिदाई में कुसुमलता को दो हजार रुपए, साड़ी-ब्लाउज और एक अंगूठी भी मिली। कुसुमलता ने कुक्कू को साड़ी-ब्लाउज तो बताए, मगर दो हजार रुपए नहीं। अपनी राम-राम की डायरी भी वह पेटी में रख लाई थी। और बस घर आकर उसकी जिंदगी पुराने ढर्रे पर लौट आई थी।
और अंत में कुसुमलता की राम-राम
दो-चार दिनों से कुसुमलता का जी घबरा-सा रहा था। और अब तो उल्टियां होना भी शुरू हो गई थीं। कुसुमलता डर रही थी कि पता नहीं क्या बीमारी हो गई। हालांकि वे पति-पत्नी थे, मगर दिन के उजाले में वह ऋषि कुमार से इतनी खुली हुई भी नहीं थी कि झट से कह दे कि उसे डॉक्टर को दिखा दे। कभी तवे पर जीरा सेंककर फांकती, कभी खट्टी गोली खाती वह घरेलू नुस्खे ही करती रही। परिवार नियोजन की गोली लेती थी। पीरियड वैसे ही अस्त-व्यस्त रहते थे अत: उसे शुबहा ही न हुआ कि वह गर्भवती हो गई है। उस बेचारी को तो यह भी पता न था कि गर्भ निरोधक गोलियां लेने का भी एक कायदा होता है। यह नहीं कि जिस दिन काम हो, गोली ले ली तो सेफ हो गए। वह तो एक दिन पड़ोसन ने उल्टी करते देख लिया और उसे बधाई दे डाली। फिर भी तब उसने पड़ोसन ने कहा ऐसा हो नहीं सकता। वह तो गोली लेती है। तब पड़ोसन ने मुंह बिचका दिया और यह कहते हुए चली गई कि हो सकता है गोली से ही जी घबरा रहा हो। मगर यह भ्रम भी पाला नहीं जा सकता था। धीरे-धीरे पेट भी बढ़ रहा था जिसे ऋषि कुमार ने भी महसूस कर लिया था। और खुशी-खुशी प्रेग्नेंसी टेस्ट की किट भी लेकर आया था। रिपोर्ट पॉजिटिव थी। कुसुमलता गर्भवती थी। वह भी पूरे चार हफ्ते वाली।
कुसुमलता ने मन ही मन अपने आपको कई बार समझाया भी, जो कि वह समझाती रहती थी, कि हो सकता है लड़का ही हो जाए, या हो सकता है ऋषि कुमार कम से कम अपनी बेटी को तो बख्श ही दे। मगर यह तो वह अपने को समझा रही थी, पर डर था कि समझाने से जाता नहीं था। काश! पता चल जाता कि बेटा है या बेटी है तो वह चैन की सांस लेती। उसने सोचा।
आखिर कुसुमलता ने पड़ोसन की सहायता लेने की सोची। उसने पड़ोसन से कहा कि वह लड़का है या लड़की, यह जानने के लिए सोनोग्राफी टेस्ट करवाना चाहती है। सुनते ही पड़ोसन अर्थपूर्ण मुस्कान मुस्कराई। और बोली, ‘तो क्या लड़की होगी तो गिरवा लोगी?’
पड़ोसन का यह सवाल सुनकर कुसुमलता ऐसे घबराई, जैसे मन का चोर पकड़े जाने पर व्यक्ति घबरा जाता है। उसने कुछ नहीं कहा, बस सिर झुका लिया। पड़ोसन ने ही बात का सिरा वापस पकड़ा और उठाया, ‘अरी भली मानुस, सोनोग्राफी सेंटर सिर्फ यह बताएगा कि तुम्हारा शिशु नॉर्मल है या नहीं; लड़का या लड़की नहीं बताएगा… जिले में नया कलेक्टर आया है वो बहुत सख्त है, नहीं तो पहले सोनोग्राफी वाला ‘जय श्रीकृष्ण’ या ‘देवी की कृपा रहे’ कहकर ही बता देता था।
उस दिन कुसुमलता गहन सोच-विचार में पड़ी रही। आखिर उसने सोचा डॉक्टर के पांव पकड़ लेगी कि उसके जीने-मरने का सवाल है, बता दे बेटा है कि बेटी। भोली कुसुमलता ने सोचा पांव पकड़ने से डॉक्टर पिघल जाएगा। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। डॉक्टर पिघल सकता था अगर कुसुमलता के पास तीस हजार रुपए होते तो। डॉक्टर पिघल सकता था अगर नए कलेक्टर ने सोनोग्राफी सेंटर्स पर ट्रेकर न लगवाए होते तो। मगर ऐसी कोई स्थिति नहीं थी अत: डॉक्टर ने सोनोग्राफी तो की, पर लिंग बताने से साफ इंकार कर दिया।
उस दोपहर सोनोग्राफी सेंटर से आते ही कुसुमलता ने पहला काम यह किया कि अपनी साड़ी को मरोड़-मरोड़कर एक फंदा तैयार किया और स्टूल पर चढ़कर पंखे से लटक गई और स्टूल को लात मार दी।
शहरभर के टेबलॉयड्स में यह प्रकरण ही छाया हुआ था। यही चर्चा शहर की महफिलों की खुसफुस में थी। लोग यही कह रहे थे कि ऋषि कुमार जैसा पति पाकर तो कुसुमलता को निहाल हो जाना था, मगर वह तो जान दे बैठी, ये कैसी पहेली है? मामला आत्महत्या का था अत: पुलिस भी प्रकरण बना चुकी थी। ऋषि कुमार के बयान हुए, घर के अलमारी, ड्राअर टटोले गए। कहीं कोई सुसाइड नोट, कहीं कोई खामी नहीं मिली। बस एक लाल डायरी थी, पर उसमें तो सिर्फ राम-राम लिखे पड़े थे और कुछ भी नहीं लिखा था। इस बीच कुसुमलता के पोस्टमॉर्टम की जांच आ गई। उसके पेट में कन्या भ्रूण था।
इस बीच जांचकर्ताओं ने कुसुमलता के घर आने-जाने वालों से और उसकी पडोसन से भी बात की। पड़ोसन ने बताया कि कुसुमलता भ्रूण का लिंग परीक्षण कराना चाहती थी। उसने यह भी बता दिया कि कुसुमलता किस सोनोग्राफी सेंटर में गई थी। सेंटर के ट्रेक रिकॉर्ड पर मिल गया कि वहां कुसुमलता की सोनोग्राफी हुई थी। सेंटर वाले डॉक्टर ने लाख समझाने की कोशिश की कि उसने लिंग नहीं बताया, पर पुलिस उसे ले गई।
कुसुमलता के न माता-पिता थे, न सास-ससुर, न कोई ननद-देवर, जो उस पर दबाव डालते कि वो बेटा ही जने। पति से पूछताछ जारी थी, मगर उसमें कहीं यह निकलकर नहीं आ रहा था कि ऋषि कुमार ऐसा कोई दबाव डाल सकता है। नाते-रिश्तेदार और मिलने-जुलने वाले ऋषि कुमार के पक्ष में बयान दिए जा रहे थे। ननिहाल के लोगों ने कहा ऋषि कुमार तो बच्चों को बहुत चाहता है, वह तो उनके साथ घंटों खेलता है। लड़का हो या लड़की उससे उसको फर्क पड़ता हो ऐसा कभी लगा नहीं, वह तो सबको खूब दुलारता है। कामवाली बाई ने भी इस बात की ताकीद की कि वह उसकी नाक सुड़कती बच्ची से भी घृणा नहीं करता। जब बच्ची छोटी थी तो वह जरूरी काम होने पर एक-दो बार उसे ऋषि कुमार के पास छोड़कर भी गई थी। ऋषि कुमार के दोस्तों में से एक ने भी कहा कि वे उनके आठ माह के बेटे और तीन साल की बेटी को ऋषि कुमार के पास छोड़कर गए थे तो ऋषि कुमार ने उन्हें ऑफिस से छुट्टी लेकर संभाला था। खैर, ये सब तो बातें हैं, बातों का क्या। पुलिस बातों पर नहीं, ठोस सबूतों पर जाती है। वह भी आ गया, हालांकि पूरे दो महीने बाद। कुसुमलता की डायरी फोरेंसिक वालों को दे दी गई थी। जो सामान्य लोगों को समझ नहीं आ सकता था, वह उन्होंने चीन्ह लिया था। राम-राम वाली डायरी के पीछे के पन्ने कुछ भारी से लग रहे थे, आगे के अपेक्षाकृत हल्के। पीछे के पन्नों पर हाथ फेरा गया तो वे चिकने लगे। जांचकर्ता की आंखें चमकीं। वहां मोम से कुछ लिखा गया था।
उन्होंने उन पन्नों पर ब्रश से लाल वॉटर कलर घुमाया। और ये लो साफ-साफ लिखा था, कई बार, कई तरह से, कई तारीखों में लिखा था कि ‘भगवान मुझे लड़की मत देना, नईं तो मेरे सिरिमानजी पता नी क्या करेंगे।’ ‘प. ने कहा लड़की हुई तो गिरवा लोगी।’
अधपढ़ी कुसुमलता ने अपने ढंग से कच्ची-पक्की भाषा में वाक्य बनाए थे। प. ने कहा लड़की हुई तो गिरवा लोगी वाले वाक्य में प्रश्नवाचक नहीं लगाया था। इससे यह सवाल नहीं आदेश जैसा लगता था। जांचकर्ताओं को यह भी नहीं पता था प. का मतलब पड़ोसन है। उन्होंने तो उसे पति ही समझा और पढ़ा।
ऋषि कुमार अब चंगुल में था। उस पर प्रकरण दर्ज कर लिया गया था। कुसुमलता ने ऋषि कुमार को सजा दिलवा ही दी थी। सिर्फ वही जानती थी किस अपराध में। दुनिया कुछ और समझ रही थी। उससे क्या?
निर्मला भुराड़िया
लेखक, पत्रकार।
तीन उपन्यास-“ऑब्जेक्शन मि लॉर्ड”,” गुलाम मंडी” और “ज़हरख़ुरानी” प्रकाशित।
दो कहानी संग्रह-एक ही कैनवास पर बार-बार और मत हँसो पद्मावती। दो कविता संग्रह-घास के बीज और विश्व सुंदरी।
प्रकाशित गद्य पुस्तकें-फिर कोई प्रश्न करो नचिकेता, खुशी का विज्ञान, कैमरे के पीछे महिलाएं।
देश के महत्त्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविता कहानी और आलेख प्रकाशित।
nirmala.bhuradia@gmail.com
116, उषानगर, इंदौर (मप्र)-452009
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ऋषि कुमार उर्फ़ कुक्कू का चरित्र एकांगी तौर एक बुरे व्यक्ति की रह गई है ।कथा में कुक्कू का विवरण और भी था क्या यह छूट ही गया ।
निर्मला भुराड़िया जी ने शैतान के सींग कहानी में
ऋषि कुमार के चरित्र की बारीक परतों को उजागर किया है । यह समय अपराधी गिरोहों का समय है जिसमे ऋषि कुमार मात्र एक छोटा सा किरदार है ।स्त्री के प्रति समाज के बहुत से लोगों के अंदर फैली विकृत मानसिकिता का सटीक प्रतिरूप है ऋषि ।इस साहसिक और सराहनीय कहानी के लिए रचना समय और लेखिका को बधाई ।
शैतान के सींग कहानी में निर्मला भुराड़िया ने ऋषि कुमार के माध्यम से समाज में पैठे अपराध का बारीक चित्रण दर्ज किया है ।विशेषकर महिलाओं के प्रति हमारी चेतना में किस तरह की सोच बैठती जा रही है ,उसको उन्होंने अच्छी तरह साझा किया है ।
कहानी कि शुरुआत बहुत ही चौंकाने वाली है । हैवानियत का एक अविश्वसनीय पक्ष। अंत तक बांधे रखने वालीप्रभावी कहानी। स्त्री प्रसंग करुणायुक्त लेकिन उसे बेहद कमजोर दर्शाने वाला। बहरहाल समाज की हकीकत यही है।
कथाकार निर्मला भुराडिया को हार्दिक बधाई।