पद्मा शर्मा की यह कहानी यौन शोषण के विरोध की कहानी है जिसे लेखिका ने आज़ादी की संज्ञा दी है। यह आज़ादी कितनी दीर्घजीवी है – यह विचारणीय पक्ष है । किन्तु लेखिका की क़लम की सराहना करनी ही होगी कि उसने इस मुद्दे को बिना ढँके – मूंदे – बेबाकी से जुबान दी । लीजिए , प्रस्तुत है – स्त्री की कहानी स्त्री की आंख से । – हरि भटनागर

 

उसकी आज़ादी

मुझे हतप्रभ छोड़ बादामी तो एक झटके से बाहर निकल गई लेकिन मैं उसके शब्दों के अर्थ खोजने लगी थी। उसकी बातें दोगुने वेग से मेरे विचारों पर छाती चली गईं।
दूसरी औरतों से कुछ अलग व्यक्तित्व है इसका । यूं वह बादामी छरहरे बदन की औरत है । त्वचा का रंग ख़ूब गहरा साँवला, किन्तु नाक-नक्श बड़े आकर्षक और तीखे। बदन सुघड़ और सुदंर ! ऐसा कि हर कोई ठिठककर उसे एक बार देखने को मजबूर हो जाए। कुल मिलाकर सौंदर्य की ऐसी प्रतिमा जिसे ब्लैक-ब्यूटी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मंगलसूत्र के नाम पर उसके गले में काला धागा, हाथों में सुर्ख लाल रंग की चूडियाँ, माथे पे बड़ी -सी बिंदिया, यही साधारण सा सिंगार था उसका ।
उस दिन मैंने चाय बनाकर एक कप अपने लिये ले ली और दूसरे कप में छानकर बाई के लिये रख दी थी। दीवार घड़ी पर नज़र दौड़ाई तो देखा सात बज गये थे। घड़ी देखकर मन मे शंका उठने लगी कि आज लगता है, वह नहीं आने वाली । बादामी के आने का समय साढ़े छः है यानी साढ़े छः । आप घड़ी मिला सकते हैं उसके आने से ।
अभी मैं आख़िरी घूँट पीकर कप रखने ही जा रही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई । दरवाज़ा खोला तो देखा बादामी की बारह बरस की बेटी , बबली घबराई – सी खड़ी है।
मैंने पूछा, ‘‘क्यों , मम्मी कहाँ है ? वो नहीं आई?‘‘
वह हकलाती बोली , ‘‘आंटी जी ,आज मम्मी नहीं आएगी, मैं यही कहने आई हूँ।’’
‘‘क्या ? कहीं बाहर जा रही है वो ? तबियत खराब है? ‘’
उसने नकारात्मक रूप से सिर हिलाया। कहा , ‘‘मम्मी ठीक है और घर पेई है।‘‘
मैं खीझ गई -‘‘घर पर है तो फिर क्यों नहीं आएगी ?’’
वह हड़बडा़ गई, आँखें नीचे कर कुछ देर शांत रही, फिर बोली ,‘ ‘पापा आ गए हैं ! ‘‘
इसके आगे कुछ भी पूछने की मुझे ज़रूरत नहीं थी। बबली वापस चली गई और मैंने क्रोध में दरवाज़े भेड़े जिनकी आवाज़ मेरे अंदर के तूफ़ान की आवाज़ से मेल खा रही थी। मैंने कोई प्लान यदि पहले से बनाया हो किसी कारणवश वह अधूरा रह जाए तो मुझे बहुत कोफ्त होती है। ऐसा लगता है कि प्लान फेल करनेवाला सामने मिल जाए तो उसको तड़ातड़ चांटे- घूंसे मारकर अपनी भडा़स निकाल लूँ। मेरे अंदर का तूफान झंझावात बनकर झाड़ू , बर्तन और पानी के भगोने पर उतरने लगा।
सहसा रुककर मैं सोचने लगी कि उसका पति कई दिनों के बाद घर लौटा है इसलिए उसने छुट्टी कर ली है! उसने चर्चा में एक दिन बताया था कि उसका पति गोटू ट्रक चलाता है, किसी बात पर दोनों अलग रहने लगे हैं, लेकिन सम्बंध अभी भी पति-पत्नी के हैं। यह भी कि एक महीने से वह कहीं दूर गया है ।
अगले दिन जब वह आई तो मैं चौंकी। उसके साँवले चेहरे की चमक ग़ायब थी। उसके स्थान पर गहरे काले झाईं जैसे धब्बे गाल के ऊपरी पड़ावों पर दिख रहे थे। अंदर धँसी आँखों के इर्द-गिर्द गहरे स्याह रंग के घेरे थे। माथे पर लाल बिंदिया सलवटों के साथ ऊँची-ऊँची लग रही थी। बाल जूड़े में नहीं थे। लटों की शक्ल में बिखर रहे थे। हाथों में बहुत ही कम चूड़ियां थीं और उनकी आवाज़ ऐसी लग रही थी मानो चटक गई हों। उसकी चाल-ढाल और उसके काम में रोज़ जैसी फुतीॅ न थी। बल्कि एक उदासीनता थी जैसे अपने काम से आज़िज आ गई हो और उससे छुटकारा पाना चाहती हो।
मैंने सहज होकर पूछा, ‘‘ क्यों बाई , क्या बात है ? तबियत तो ठीक है।”
वह विरक्त भाव से बोली, ‘‘बैनजी , मेई तबियत कों का भओ ? मैं तो कारे कऊआ खाकें आई हों। मरई जाती तो दुख काये उठाने पड़ते , सब जंजालन से मुकुति पा जाती !‘‘
मैं पटा डालकर आंगन में उसके पास बैठ गई । बोली – बबली बता रही थी कि पापा आये हैं इस लाने तुम नहीं आ पाओगी।
सहसा वह बिफर गई, बोली ,‘‘बेनजी , वो आदमी नईये पूरौ कसाई है । जासे तो होयई नई तौऊ अच्छो है। बिना बात भोतई पिटाई करते मेरी। कल खूब मारो धुंआ लगे ने मोको।”
मैं चौंकी , महिलायें पति की लंबी उमर के लिये व्रत – उपवास रखती हैं पर ये है कि पति की मरने की कामना कर रही है।
उसका गला रुंध गया सहसा। गीले स्वर में वह बोली, ‘‘बेनजी , तुम्हाईग सों मैं भौत परेशान हों। मैं वासे कौऊ संबंध नहीं रखै हों । न्यारे हो गये दोई जन ! मैं वासे अलग रह रई हों तौऊ मोए खाए जात है। बाने मेरी नाक में दम कर दई है।‘‘
मैंने कहा, ‘‘लेकिन हुआ क्या ?‘‘
वह बोली , ‘‘बैनजी , कछू नईं सोमवार को पइसा मिले होंगे सों बस मंगल को शराब पीेकें आ गओ और घर भर को गरियान लगौ।‘‘
मैंने सस्मित कहा, ‘तो क्या हुआ ? शराब पीना तो उसकी पुरानी आदत है न ? फिर वो चाहे तब तुम्हारे घर आता ही रहता है।‘‘
‘‘बेनजी , जे बात नईंयै, मैं तुमसे का कऊँ। ‘‘ कहकर वह कुछ लज्जाशील हो गई। उसने चारों तरफ़ देखा। जब वह संतुष्ट हो गई कि आसपास दूसरा कोई नहीं है तो वह फुसफुसा कर बोली , ‘‘बो मेरे संग के लाने मरो जा रहो है । आज तो बेनजी , वो काम पे नई आने दे रओ थो, कह रओ थो कि आज मत जा आज मौका देख के ….अब बेनजी तुमई बताओ मौंडी-मौडा बड़े हो गये हैं, उनके सामने… फिर दिन में जे काम सोभा देंते का …?
अब पूरी स्थिति मुझे समझ आ गई थी।
मैंने हँसकर कहा, ‘‘बाई, वो तुमको बहुत चाहता है !‘‘
मेरे यह शब्द सुनकर वह और अधिक सिकुड़कर गठरी बन गई । मैंने उसे समझाया , ‘‘देखो बाई, आदमी को भी समय देना चाहिए । जब तक उसके पास बैठोगी नहीं , उससे मन नहीं जोड़ोगी और उसे अपनी तकलीफ नहीं सुनाओगी , घर – गृहस्थी से भला वह कैसे जुड़ेगा !
मेरी बातों का असर माना जाए या जो भी बात हो।उसने आदमी को पटरी पर लाने का प्रयास किया होगा तभी लम्बे समय तक दोनों के बीच किसी तरह के टंटे की ख़बर मुझ तक नहीं आई ।

*

बादामी इसी शहर की रहने वाली है । उसका भाई पुलिस में सिपाही है। उसके दो बेटे और सबसे छोटी बेटी बबली है। छोटा बेटा किराने की दुकान पर काम करने जाता है। बड़ा बेटा , महेश मजदूरी करता है । वह जवान हो गया है। बबली भी यौवन की सीढ़ियों पर है जिसे देख-देख कर बादामी चिंतित रहने लगी है। वह उसका विवाह कर चिंतामुक्त होना चाहती है।
एक दिन मैंने बादामी से कहा, ‘‘तुम्हारे घरवाले को बँधी तनखा मिलती है तो घर का खर्च उठाता होगा। संग में खाता है, जब- तब आकर रहता भी है , तो लड़की की भी उसे कुछ न कुछ चिंता होगी ही।
वह चीख सी पड़ी , ‘‘बैनजी , जेई तो है वो खीर मे सांझ महेरी में न्यारौ है। वैसे अलग रहेगो पर खुद की जरूरत पे आन ठाड़ो होगो।’’
ओह ! मैंने गहरी सांस छोड़ी।
*

धीरे- धीरे समय बीतने लगा। एक दिन माँ की जगह बबली काम करने आई तो मैं चौंक गई क्योंकि बाई कभी-भी अपनी लड़की को अकेले काम पर नहीं पहुँचाती थी। मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया, ‘क्यों बेटा, मम्मी नहीं आई आज ?
वह सर्द आवाज़ में बोली, ‘‘पापा हवालात मे बंद हैं। मामा ने बंद करवा दिया।‘‘
सुनकर मैं हैरत में पड़ गई। बबली से भला मैं क्या पूछती। खुलकर कोई बात वह बता भी नहीं सकती थी। ख़ैर, अगले दिन बादामी आई और घुनमथान (चुप और नाराज) बनी काम करने लगी तो मेरे सब्र का बाँध टूट ही गया ।
मैंने कहा- बाई , काम बाद में करना पहले ये बताओ कि बबली के पापा को तुम्हारे भाई ने बंद क्यों करवा दिया ?
वह तल्ख़ अंदाज़ में बोली , ‘‘बैनजी , बाको तो एकई काम है… दारू पीनो और ऊधम करनो। तौऊ नासमीटे को चैन नईये पूरे मोहल्ला में फजीती करवात फिरतै।”
मैंने कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारी तो उससे पटने लगी थी ? अब क्या हुआ ?‘‘
वह बोली , ” मैंने मुुतकेे दिनों से वासे बात बन्द कर राखी है सो फिरंट हो रहा है।” थोड़ी देर चुप रहकर शून्य में ताकती फिर वह बोली , ‘‘ बस जईपे से वो ऊधम कर रऔ है । वो कहतै कि कामवारे मालिकों से तेेरे गलत संबंध होंगे , तईसे तू मोसे बात नईं करती। वो मोये धमकी देतै कि तेरो पीछो करोंगो और तेरे काम वालों से लड़ के आओंगो। कल ज्यादई ऊधम करन लगौ तो भइया ने थाने में कह के बिठा दओ। पहलैं तो बानें खूब ठूंस के रोटी जे लई, तऊँ सिग रात गरियात रओ कि मैंने बाये भूखो रखो…बहनजी बाको तो ऐसोई हाल है कि
सात खाईं ताती और सात खाईं सद
जेठे बड़े को नौतो करो सात खाईं तब
सास के से साग ल्याइ सात खाईं तब
झांसी को वैद बुला दो भूंख नइयें अब ।

*

दो दिन बाद मेरे बेटे रिंकू का बडेॅ आया। मैं लगातार काम में जुटी रही। सो रात तक भारी थक गई थी। शरीर निढाल हो रहा था। रात के ग्यारह बज रहे थे।मन सोने को हो रहा था लेकिन संदीप की इच्छा तो कुछ और ही थी। मेरा मन न था… पर संदीप जिद पर था। संदीप की जबरदस्ती पर मैं खिसिया गयी। मन अचानक बादामी से खुद की तुलना करने लगा। उसको तो रोज़ इतना सारा काम रहता है। वह भी थक जाती होगी , फिर आराम के समय उसके आदमी का सलूक ! उसे कितना बुरा लगता होगा। कितना खलता होगा! मुझे अंदर ही अंदर बाई से एक अजीब-सी सहानुभूति होने लगी।
एक दिन सुबह-सुबह बादामी आई तो मैंने कहा, ‘‘पहले चाय पी लो बाई , फिर काम करना।ʼʼ
मेरे इस प्यार पर वह भीग गई। बिसूर- बिसूर कर रोने लगी।
मैं उसे चुप कराने लगी ।
वह रोते-रोते बोली , ‘‘बैनजी , अब तौ जीनौंई बेकार है ऐसे इल्जामन तैं तो अच्छौ है कि ईश्वर मोये मौत दै दे।‘‘
सदैव जिंदादिली से जीनेवाली तथा हर समस्या का जीवटता से सामना करने वाली बादामी, आज इस तरह निराशा भरी बातें कर रही है,ज़रूर कोई बात है … मैं सोच रही थी और दुख से भरती जा रही थी।
वह देर तक सुबकती रही फिर बोली, ‘‘वो रात कौ पी आऔ थौ। रोटी खा लई, पानी पी लओ, बिस्तर कर दओ, तौउ वाये चैन नई पड़ौ, तौ बस लगौ गारी दैवे। बडे़ मौडा़ पे सहन नई भई तो बानें बाप खौं पीट दओ। रात कों तौ उठि के जाने किते चलो गओ लेकिन भुनसारे आकें बानें ऐसी- ऐसी बातें कहीं, कै सही में बैनजी मोये तो कहतई में सरम आ रईये।‘‘
उसकी आँखों से झर – झर आँसू बह पडे़।
थोड़ी देर वह चुप रही, फिर रोते हुए बोली, ‘‘ अबें तक तौ कामबारन के संगें संबंध बतात थौ, लेकिन आज तो हद्दई हो गई… आज कहन लगो कि तेरे तो अपनेई बडे़ मौड़ा से गलत संबंध हैं, तइसें तू मौंसे बात नईं करती और बासे पिटवातै ,मैं तो जमीन में गड़ गई सीधी…
मुझे काटो तो ख़ून नहीं। लगा मानो धरती चाक सी तेज- तेज घूम रही है और आसमान गिरने को हो रहा है। मैं यंत्रचालित – सी अपने कमरे में आ गई और बिस्तर पर गिर पड़ी।
मन में अजीब से प्रश्न उठ रहे थे कि क्यों हमेशा स्त्री को ही अपनी शुचिता का प्रमाण देना पड़ता है ? आदमी क्या शुचिता के प्रमाण पत्र से परे है? वह स्त्री को लांछित करने के लिए है?

*

समय बीतता रहा ।
एक दिन अचानक बबली सूचित कर गई, ‘‘ आंटी जी, मम्मी अस्पताल गई हैं, वो नईं आएगी।‘‘
मैंने कहा, ‘‘क्यों, क्या हुआ मम्मी को ?
वह बोली ,‘‘पापा की तबियत खराब है, उनके संग गई है।”
– अब क्या हो गया? कौन सा संकट आन पड़ा उस पर ! बाई को लेकर मैं कई दिनों तक हैरान – परेशान रही।बबली से भला क्या पूछती ! एक दिन जब बाई आई , न चाहते हुए भी उससे मैंने पूछ ही लिया, ‘‘ बाई , तुमने अपने आदमी को भर्ती क्यों कराया? क्या वह जादा बीमार था? ’’
वह बोली , ‘‘ बैनजी , वो एंनई सूक गओ है। चार पाँच दिनों से खूब दस्त लग रए हते और बुखार चढ़ो हतो। हस्पताल में भर्ती कराओ तौ बाके शरीर में कई जगै गांठें भी मिली हैं। कई जगह खाल में छाले जैसे निशान भी पड़ गये। खांसी के मारे चैन नइये । कछु उधार दे दो, मोये डर है के वाये कोई बड़ी बीमारी न लग गए होए ।‘‘
पैसे लेकर वह तेजी से वापस चली गई लेकिन मेरे कई प्रश्नों को वह अनुत्तरित ही छोड़ गई । कैसा है स्त्री का मान ! उसी से नफरत , उसी से प्यार…। कहीं सचमुच उसके पति को कोई बड़ी बीमारी न निकल आए। फिर वह कहीं की न रहेगी!!!

*
दो-तीन महीने बीत गए। बादामी का कहीं अता – पता न था। बबली भी काम छोड़ गई थी। अब मैंने दूसरी बाई रख ली थी। बादामी को मैं अब बिसरा सी बैठी थी।
कि एक दिन वह सुबह- सुबह आई ।
मैंने उसे सवालिया निगाह से देखा। मैंने पूछा, ” कैसी हो ? तुमारा आदमी अब भला-चंगा होगा…
बादामी सिसकने लगी, बोली कि अब क्या बताएं बहन ! आदमी तो बड़ा खिलाड़ी निकला। ट्रक ले के जहाँ – तहाँ घूमत थो और जाने कहाँ-कहाँ मुँह मारत हतो । सो कहीं की बीमारी ले लाओ । बैनजी , डाॅक्टरन ने तो जबाब दे दओ। तुम सबन की दुआ लग जाय तो बच जायेगो। मौड़ा – मौड़िन के ब्याए कर लेयगो। अब तो बैनजी , खूब कसमें खातै, कि अब तोये परेसान नहीं करउंगो, तोए तनखा लाके देउंगो, बस बचा ले मोय।लेकिन अब का हो सकतै ?’’ फिर एक आशा भरी निगाह से मुझे देखकर उसने पूछा , ‘‘काए बैनजी जा बड़ी बीमारी कौ कौनऊ इलाज नइये का ?‘‘
मैं माथा सिकोड़े खड़ी रही। कोई जवाब न दिया।
सहसा फुसफुसाते हुये बादामी बोली , ‘‘बैनजी , जे मर्द कित्तेऊ दूबरे हो जायें , फिर भी इनमें घोड़ा जैसी ताकत बनी रहते। आज अस्पताल में बबली के बाप खों नहलावे के लाने ले गई तो धुंआ लगे ने लपक के दरवाजे बंद कर लये और मेरी साड़ी खेंच …
मैं हतप्रभ – सी उसकी बात सुन रही थी। उबकाई से भरी।
– लेकिन बैन जी , भूखी होने के भी मैंने उसकी इच्छा पूरी नहीं होने दी। अपनी भी कोई इच्छा है कि नईं!
उसकी इस बात पर मेरी उबकाई जाती रही।



पद्मा शर्मा

जीवन की नई सुबह, रेत का घरौंदा, जलसमाधि तथा अन्य कहानियाँ, इज़्ज़त के रहबर कहानी संग्रह , लोकतंत्र के पहरुए उपन्यास तथा साइकिल तथा अन्य कविताएँ ( काव्य संग्रह ) प्रकाशित पुस्तकें।
निबंध संग्रह, आलोचनात्मक पुस्तक, शोध पुस्तक
तथा दो पुस्तकों का संपादन

सुभद्राकुमारी चौहान पुरस्कार, वागीश्वरी पुरस्कार,
साकीबा लक्ष्मण सीताराम भागवत भनिति सम्मान ,
जयपुर अलंकरण सम्मान , साहित्य रत्न सम्मान

कहानियों का तेलुगु, पंजाबी, मराठी, उर्दू , अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद।

साहित्यिक अवदान पर आईसेक्ट यूनिवर्सिटी रवींद्रनाथ यूनिवर्सिटी भोपाल , विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन , जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर तथा छत्रसाल विश्वविद्यालय छतरपुर के शोधार्थियों द्वारा शोधकार्य।

संप्रति- मध्यप्रदेश उच्चशिक्षा विभाग में प्राध्यापक
पता : एल-1, 14 विंडसर हिल्स
ग्वालियर, म. प्र. , मोबाइल नं.- 09406980207

ई मेल:- dr.padma_sharma@rediffmail.com


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