मूल अंग्रेजी से अनुवादः संजय कुंदन

प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने  ‘ Our History, Their History, Whose History’ पुस्तक अंग्रेजी में लिखी है जो वाम प्रकाशन से हिन्दी में  प्रकाशित होकर  शीघ्र आ रही है।
पुस्तक का अनुवाद सुप्रसिद्ध कवि संजय कुंदन ने किया है।
यहां हम पुस्तक का एक अंश दे रहे हैं जो मध्यकाल में हिन्दुओं के उत्पीड़न के आरोप के सच को उद्घाटित करता है।
– हरि भटनागर

चूंकि हिंदू-मुसलमानों के बीच धार्मिक शत्रुता होने या हिंदुओं के मुसलमानों द्वारा उत्पीड़न के आरोप लगाए जाते हैं, इसलिए पिछले एक हज़ार साल- जब से दोनों इस महाद्वीप में साथ रह रहे हैं- के उनके आपसी संपर्क और प्रथाओं के कुछ लिखित दृष्टांतों पर नज़र डाली जाए।
उनके अध्ययन से हम यह पता कर पाएंगे कि वाकई उनके संबंधों की जड़ में उत्पीड़न रहा है या नहीं। कई बार हिंदू-मुस्लिम संबंधों को लेकर दिए गए वक्तव्य ग़लत होते हैं, क्योंकि इसके लिए आवश्यक स्रोतों की सहायता नहीं ली जाती या उन्हें ठीक से समझा नहीं जाता। प्रायः स्रोतों को लेकर जागरूकता कम रहती है या नहीं रहती है। फिर कई बार इस तरह के वक्तव्य एक ख़ास विचारधारा से जुड़े तथाकथित इतिहासकारों की तरफ़ से आते हैं और कल्पना का हिस्सा बन जाते हैं। मैं कुछ ख़ास स्थितियों के उदाहरण देना चाहूंगी, जो दोनों समुदायों के बीच के संबंधों के एक बड़े हिस्से पर रोशनी डालते हैं।

सती प्रथा के प्रचलन के पीछे की वजह को लेकर एक आम धारणा बनी हुई है। जब किसी पुरुष की मृत्यु होती थी, तो उसकी विधवा को मृतक पति की चिता में प्रवेश कर आत्मदाह करना होता था। कहा जाता है कि दूसरी सहस्राब्दी ईस्वी में मुस्लिम आक्रमण शुरू होने के बाद यह प्रथा आवश्यक हो गई, क्योंकि आक्रमणकारी विजित आबादी, विशेषकर महिलाओं के साथ घोर दुर्व्यवहार करते थे। इस तथ्य के अलावा कि यह तर्क समाज को सभी की सुरक्षा सुनिश्चित करने से मुक्त कर देता है, यह प्रथा अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने और महिलाओं के साथ घृणित व्यवहार को एक अनुष्ठान कहकर उसे पवित्र रूप देने का एक अक्षम्य प्रयास है। ऐतिहासिक रूप से यह एक भूल है। पूर्व-इस्लामिक काल के विभिन्न ग्रंथों में विधवाओं के आत्मदाह का उल्लेख मिलता है। लेकिन इनमें से किसी में भी इसे महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की आशंका की बात कहकर आवश्यक नहीं बताया गया है। और पिछली शताब्दियों में आक्रमणकारियों की कोई कमी नहीं थी।
ऋग्वेद में इसका संकेत है, लेकिन एक अंतर के साथ, जिसमें कहा गया है कि एक महिला को अपने मृत पति के साथ अंतिम संस्कार की चिता पर लेटना चाहिए, लेकिन चिता जलने से पहले उसे छोड़ देना चाहिए। महाभारत में इससे संबंधित खंड में इस बात पर बहस है कि पांडु की मृत्यु पर माद्री को आत्मदाह करना चाहिए या नहीं। बाणभट्ट के सातवीं शताब्दी ईस्वी के दो ग्रंथों में अलग-अलग मत हैं: सती की घटना का वर्णन हर्षचरित में है, लेकिन कादंबरी में इसका विरोध है। 510 ईस्वी के एरण शिलालेख से इस संबंध में मज़बूत साक्ष्य मिलता है। यह शिलालेख गुप्तकाल के एक राजा का है। ऐसा कहा जाता है कि गोपराज नामक किसी उच्च पदस्थ व्यक्ति के युद्ध में मारे जाने के बाद उसकी पत्नी ने सती होने का फ़ैसला किया। शिलालेख में इस घटना को दर्ज किया गया है।
ऐसे अनेक प्रारंभिक रूपों में सती की घटना को दर्ज किया गया है। जैसे कई जगहों पर इस बात को पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है या पट्टिकाएं लगाई गई हैं। इन सब में विशिष्ट प्रतीक हैं, जो केवल सती होने वाली महिलाओं की स्मृति से जुड़े हैं। आम तौर पर, ऐसा स्मारक दरअसल एक पत्थर की पटिया है, जिस पर एक महिला की दाहिनी बांह खुदी हुई है, जिसमें उसकी चूड़ियां ज्यों की त्यों हैं। एक विधवा को अपने पति की मृत्यु पर अपनी चूड़ियां तोड़नी पड़ती थीं, लेकिन सती बनकर वह मृत्यु के बाद भी अपने पति के साथ रहती थी। इस्लाम-पूर्व काल में ऐसे स्मारक संख्या में कम थे और कुछ ख़ास स्थानों पर ही पाए जाते हैं। अधिक विस्तृत सती स्मारक और यहां तक कि बहुत छोटे सती मंदिर भी बहुत बाद के समय के हैं और सीमित स्थानों पर ही हैं।
अनुष्ठानों की लोकप्रियता भी अलग-अलग थी। जैसे सती स्मारकों के पत्थरों के अपने विशिष्ट प्रतीक हैं, वैसे ही हीरो स्टोन या वीर पत्थरों के हैं, जो पहली सहस्राब्दी ईस्वी की शुरुआत के उन लोगों की याद दिलाते हैं, जो मवेशियों पर हमले में गांव के मवेशियों की रक्षा करते हुए या युद्ध में मारे गए। प्रारंभ में, इन स्मारकों को औपचारिक धर्म से अलग कुछ माना जाता था। वीर-पत्थरों में अकसर अप्सराओं द्वारा नायक को स्वर्ग ले जाए जाने का चित्रण हुआ है। पुनर्जन्म इन नायकों के लिए नहीं है। (इसे अपने-आप में कर्म के सिद्धांत पर एक टिप्पणी के रूप में लिया जा सकता है।) धीरे-धीरे, लेकिन केवल मामूली रूप से, इन अनुष्ठानों को औपचारिक धर्म में शामिल किया गया। मध्ययुगीन काल में नायकों और सती के अधिक स्मारक हैं, जिन्हें अकसर कीर्ति-स्तंभ कहकर संबोधित किया जाता है। उपमहाद्वीप के कई हिस्सों में भारी लड़ाइयां लड़ी गईं, लेकिन लड़ाई से प्रभावित हर क्षेत्र में सती स्मारक नहीं मिलते। वीर-पत्थरों को देखते हुए कहा जा सकता है कि मवेशियों की चोरी नायक की मृत्यु का अधिक सामान्य कारण थी। स्मारकों की विभिन्न श्रेणियों की गणना अनुष्ठानों को समझने में कारगर हो सकती है।
आधुनिक समय में सती प्रथा पर चर्चा हमें शर्मिंदगी से भर देती है, भले ही इसे बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया गया हो। किसी महिला का सती होना कितना भी पूजनीय हो, यह मूल रूप से एक महिला के बदतर जीवन का ही सूचक था कि उसे अपने पति की मृत्यु के बाद इसका त्याग करना पड़ता था। लेकिन इसे एक औचित्य प्रदान करने का प्रयास जारी है। विपरीत सबूतों के बावजूद दोहराया जा रहा है कि इसका प्रचलन मुस्लिम आक्रमणों के बाद शुरू हुआ, क्योंकि पकड़ी गई महिलाओं के साथ भयानक तरीके से दुर्व्यवहार किया जाता था। यह दो धार्मिक समुदायों के बीच निरंतर संघर्ष और मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के उत्पीड़न के तर्क का हिस्सा रहा है, जिसे इतिहासकारों ने ख़ारिज कर दिया।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि सती प्रथा तब से चलन में है, जब इस्लाम का विचार भी सामने नहीं आया था, मुस्लिम सेनाओं के आक्रमण की तो बात ही छोड़ दें। आरंभिक काल में एक अनुष्ठान के रूप में सती से लोग अपरिचित नहीं थे, हालांकि उसका कोई ख़ास चलन नहीं था। हमें यह समझना होगा कि कुछ अवसरों पर सती के मामले क्यों हुए, जबकि यह प्रथा बहस का विषय रही है। क्या सती होने की अपेक्षा सभी सामाजिक स्तर की महिलाओं से की जाती थी या केवल उच्च स्तर की महिलाओं से? सामाजिक उत्थान के लिए स्त्री की अनुष्ठानिक रूप से बलि क्यों चढ़ानी पड़ती है? यह भी कहा जाता है कि इस प्रथा की उत्पत्ति संपत्ति के उत्तराधिकार और विरासत पर संभावित विवादों को दूर करने की आवश्यकता से हुई होगी। महिलाओं के साथ इस तरह के क्रूरतापू्र्ण व्यवहार को समझने के लिए हमें इसकी तह में जाना होगा।

दोनों समुदायों के सदस्यों के बीच के रिश्ते को देखें, तो उन पर एक समूह के रूप में चर्चा नहीं की जा सकती, क्योंकि इनका रूप विभिन्न सामाजिक स्तरों पर अलग-अलग रहा है। इस बारे में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त साक्ष्यों को उन भाषाओं के आधार पर नहीं, जिनमें वे लिखे गए हैं, बल्कि उस सामाजिक समूह के आधार पर देखना होगा, जिसका वे वर्णन कर रहे हैं। विभिन्न तरह के स्रोतों को गहराई से देखने की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए, ऐतिहासिक प्रश्नों पर बहस के संदर्भ में बारहवीं शताब्दी ईस्वी के बाद के शिलालेखों का पर्याप्त रूप से अध्ययन नहीं किया गया है। फिर भी वे अकसर सटीक और विश्वसनीय साक्ष्य प्रदान करते हैं, विशेषकर सामाजिक इतिहास पर।
मैं दूसरी सहस्राब्दी ईस्वी के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के व्यापक संबंधों पर विचार करना चाहूंगी, दूसरे शब्दों में पिछले हज़ार वर्षों के रिश्तों पर, जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदुओं को मुसलमानों द्वारा पीड़ित किया गया था। मैंने समाज के अलग-अलग स्तरों पर हालात का ख़ुलासा करने वाले कुछ चुनिंदा उदाहरण लिए हैं ताकि एक सामान्य नज़रिया सामने आ सके। ये विभिन्न स्रोतों से इकट्ठा किए गए हैं, मुख्यतः संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में और ग़ैर-मुसलमानों द्वारा लिखे गए हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पीड़ित थे। ये आवाज़ें उतनी नहीं सुनी गईं, जितनी सुनी जानी चाहिए थीं। न ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के संबंधों को लेकर उनके दृष्टिकोण पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है। उनके द्वारा एक-दूसरे के लिए इस्तेमाल किए गए शब्दों और उनके संदर्भ को समझने की कोशिश नहीं की गई है।
अभिजात वर्ग से शुरू करें, हम जानते हैं कि कई हिंदू शाही परिवारों को उच्च सामाजिक स्थिति वाला माना जाता रहा है। यही कारण था कि कुछ सुल्तानों और मुगल शासकों ने इन परिवारों में शादियां कीं। जिन राजाओं ने आधिपत्य स्वीकार कर लिया और प्रशासन में शामिल हो गए, वे प्रायः अपने पूर्ववर्ती राज्यों में प्रशासन के प्रमुख बने रहे और राजा का उनका दर्जा और पदवी बरक़रार रखी गई, कभी-कभी कुछ मनसब भी दिया जाता था जो कि प्रशासनिक ओहदा था और इनमें कुछ आय भी थी। मौजूदा व्यवस्था के कुछ हद तक जारी रहने से प्रशासन की राजनीति को लाभ हुआ। ऐसे राजाओं की कृषि और वाणिज्यिक स्रोतों से आने वाली आय उनकी कुलीन जीवन शैली को बनाए रखने के लिए पर्याप्त थी।
मुग़लों की पूरी रियासत में राजा बिखरे पड़े थे। उनमें से कई ऐसे थे, जो महाराजाधिराज की उपाधि के साथ ‘सुरत्राण’ की उपाधि धारण करते थे, जो सुल्तान का लिप्यंतरण है। विजयनगर के एक राजा ने कोई जोख़िम न लेते हुए हिंदूराय-सुरत्राण यानी हिंदू राजा सुल्तान की उपाधि धारण की! हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या हिंदू द्वारा वह भौगोलिक इकाई अल-हिंद के एक व्यक्ति का उल्लेख कर रहा था या हिंदू धर्म का – क्योंकि दोनों ही अर्थ तब प्रासंगिक थे। पहले रणक, रौता, ठक्कुर और नायक जैसी उपाधियां अनिवार्य रूप से नहीं छोड़ी जाती थीं। प्रशासन के उच्च स्तर पर कुछ हिंदू अधिकारियों का काम जारी रहा, वे प्रशासन के लिए राजस्व संग्रहकर्ता भी थे। जहां यह एक पारिवारिक व्यवसाय था, जैसा कि अकसर होता था, वे अच्छी तरह जानते थे कि इसमें करना क्या है। संस्कृत में अनेक अभिलेखीय दस्तावेज़ मिलते हैं, जो ब्राह्मणों ने लिखे हैं। जब उनमें से कई में एक निश्चित क्रम दिखाई पड़ता है, तो उनसे काफ़ी मदद मिलती है।
कई और अभिलेख और शाही आदेश फ़रमान के रूप में थे। ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय स्तर के प्रशासन में इस्लाम-पूर्व काल से कुछ हद तक निरंतरता रही है।
स्थानीय व्यक्तियों को उच्च पद पर नियुक्त करने की प्रथा सदियों से चली आ रही थी। इससे स्थानीय मामलों पर केंद्रीय प्रशासन को नियंत्रण रखने में सहूलियत होती थी। तुर्क, अफ़गान और मुगल शासकों – जिन्हें हम ‘मुसलमान’ कहते हैं और जिन्हें तब ‘तुरुष्क’ कहा जाता था- द्वारा राजपूतों को उच्च पद पर नियुक्त करने या उन्हें बरक़रार रखने का यह एक कारण हो सकता है। उदाहरण के लिए, मुगल अर्थव्यवस्था राजा टोडरमल के भरोसेमंद हाथों में थी। एक अन्य राजपूत, अंबर के राजा मान सिंह ने हल्दीघाटी की लड़ाई में मुग़ल सेना की कमान संभाली थी। इस लड़ाई में उसने मुग़लों के विरोधी राजपूत, राणा प्रताप को हरा दिया। प्रताप की सेना में शेरशाह सूरी के वंशज हकीम खान सूरी के नेतृत्व में अफ़गान सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी थी। यदि विशुद्ध रूप से धर्म के संदर्भ में देखा जाए, तो इसे सेना में एक उल्लेखनीय मुस्लिम टुकड़ी के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें एक मुस्लिम कमांडर भी शामिल था, जो एक राजपूत हिंदू की ओर से लड़ रहा था।
लेकिन लड़ाइयां, जैसा कि हम जानते हैं, अकसर किसी एक कारण से नहीं होतीं, उनके पीछे विभिन्न प्रकार के संघर्षपूर्ण और अनिश्चित रिश्ते होते हैं, जिन्हें सुल्टाना होता है। कुछ लड़ाइयां तो इसलिए हुईं कि नए हमलावरों ने कई राज्य छीन लिए थे और उन्हें फिर से हासिल करना था। इसके अलावा भी कई स्तरों पर टकराहटें थीं। मुग़ल सेना का नेतृत्व मुग़लों के करीबी कछवाहा राजपूत कर रहे थे, जो मुगलों के क़रीबी थे। वे सिसोदिया राजपूतों से हिसाब बराबर कर रहे थे, जिनमें से एक महाराणा प्रताप भी थे। इसलिए वे विपरीत पक्षों से लड़ रहे थे। नए विजेताओं के हाथों गंवाए गए राज्यों को पुनः प्राप्त करने की मंशा ही संघर्षों के पीछे सबसे ज़्यादा रहती थी। महाराणा प्रताप और हकीम खान सूरी दोनों इसी कारण मुग़लों के ख़िलाफ़ थे। ज़ाहिर है यह संघर्ष मुस्लिम शासन के प्रति हिंदू प्रतिरोध से अलग कुछ और भी था।
इस जटिल राजनीतिक संघर्ष में राजनीतिक और धार्मिक, दोनों ही अस्मिताओं की दोनों ही तरफ़ भागीदारी थी। राजपूत कुलों की आपस में और शाही शक्ति के प्रति अलग-अलग वफ़ादारी थी। इस लड़ाई की राजनीतिक व्याख्या यह हो सकती है कि इसमें एक अफ़गान और राजपूत मिलकर उस चीज़ के लिए लड़ रहे थे, जिसे वे अपनी विरासत मानते थे, जिसे मुगल शासन ने उनसे छीन लिया था। कोई अगर इस लड़ाई के प्राथमिक कारण के बारे में फिर से सोचे तो उसके मन में यह सवाल उठेगा कि क्या वाकई धार्मिक संघर्ष ही शत्रुता का मुख्य कारण था?
मुगल प्रशासन में उच्च पदों पर काम करने वाले हिंदू मुख्य रूप से उच्च जातियों-ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री- से थे। साधन-संपन्न जैन भी उनमें शामिल थे। दरअसल उच्च प्रशासन में उच्च जातियों के वर्चस्व वाली पिछली व्यवस्था को बरक़रार रखा गया था। ऐसे प्रशासकों का उपयोग करना उचित समझा गया क्योंकि इनके पास प्रशासनिक समस्याओं से निपटने का अनुभव और समझ दोनों थी। हमें चंद्रभान के लेखन से बहुत कुछ जानकारी मिलती है, जो औरंगजेब के दरबार में सर्वोच्च पदों पर रहा और उसने अपने शुरुआती दिनों में जहांगीर और शाहजहां की भी सेवा की थी। उसने उनकी बहुत सी गतिविधियों को दर्ज किया है। ख़ासकर औरंगजेब पर तो विस्तार से लिखा है। उसने अपने बारे में कहा कि वह एक ब्राह्मण और एक धर्मपरायण हिंदू है। संस्कृत के साथ-साथ उसे फ़ारसी में भी महारत हासिल थी। शाही दरबार के प्रबुद्ध सदस्यों ने उसकी बहुत प्रशंसा की थी। उसने मुगल सेवा में अन्य उच्च जाति के हिंदू मंत्रियों का उल्लेख करते हुए इस तरह की नियुक्तियों के सिलसिले को जारी रखने का सुझाव दिया था।
दिलचस्प यह है कि महाभारत के समय से भारत के इतिहास का वर्णन करते हुए चंद्रभान ने उन घटनाओं में युधिष्ठिर की भूमिका पर ज़ोर दिया, जिन्हें वह महत्त्वपूर्ण मानता था। उसने राजपूत शासकों के साथ-साथ विभिन्न सुल्तानों की गतिविधियों का विस्तार से वर्णन किया और इस क्रम में मुग़लों तक आया। इस आख्यान में मुग़लों को शामिल करने पर टिप्पणी की गई है और इसे औपचारिक ऐतिहासिक आख्यान में लाने का एक प्रयास बताया गया है। वर्तमान को वैधता देने के लिए अतीत का उपयोग सबने किया है, चाहे फ़ारसी के विद्वान हों या संस्कृत के।
मुग़ल दरबार की राजनीति में हिंदू राजाओं का हस्तक्षेप कुछ मामलों में बढ़-चढ़कर था। एक उदाहरण है बुंदेलखंड के साथ मुग़लों का संबंध, जो एक पीढ़ी से भी अधिक समय तक चला। बुंदेला राजा, बीर सिंह देव- जो जहांगीर का क़रीबी था और जिसे सर्वोच्च मनसब तथा राजस्व कार्यभार हासिल था- मुग़ल दरबार की राजनीति में इस क़दर डूबा हुआ था कि उसका नाम प्रमुख इतिहासकार और अकबर के क़रीबी रह चुके अबुल फज़ल की हत्या से जोड़ा गया था। यह हिंदू-मुस्लिम संघर्ष को नहीं दर्शाता। इसमें बहुत सारी चीज़ें हैं- मुग़ल शाही परिवार के भीतर उत्तराधिकार के लिए संघर्ष, दरबार में अलग-अलग गुटों की महत्त्वाकांक्षाओं की टकराहट, राजनीति के सर्वोच्च स्तर पर शाही परिवार से सीधे जुड़े मामले में, एक छोटे राजपूत के शामिल होने का प्रयास।

 


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