कविताएं

1.।। भागलपुरी चादर ।।

मूलतः किसान थे रामसुफल,
कहते कभी गांधी जी को देखा था
किसी सभा मे,
तभी से विदेशी चीजों का
उपयोग करने,व बेचने से
बचते रहे सदा,वैसे हमेशा से,वे
खरीफ और रबी की फसल कट
जाने के बाद बचे हुए खाली समय मे
बेचने निकलते थे वे भागलपुरी चादर,

शहर में सबसे पहले पहुँचते थे
वे हमारे ही घर, पिताजी
को देकर ही करते थे, धंधे की
शुरुआत, पिताजी भी, गर्मियों के
शुरू होते ही याद करने लगते थे
रामसुफल जी, व मुलायम टसर,से
हल्के पीले प्राकृतिक रंग से बुनी,
भागलपुरी डल चादर को,

गर्मी में, घर मे हर कोई ओढ़ता था
भागलपुरी चादरें ही, मेहमानों के
लिए भी मां रख ही लेती एक दो
कोरी बचाकर, उन दिनों आ ही
जाता कोई न कोई मेहमान घर पर,

रामसुफल जी बारहवीं पास थे,
उनका लड़का सेना में सिपाही था,
हम बच्चों को वे बताते थे,
भागलपुर का हूँ ।
भारत की रेशम नगरी,फिर कहते,
रेशम का चार भैरायटी होता है,
मलबरी, टसर, ऐरी,और मूंगा,
सबसे बढ़िया सिल्क टसर ही होता है
वो भी भागलेपुर का,
तब ककून और रेशम के बारे में,
हमे कुछ नही मालूम था
हम तो बस, रामसुफल जी और,
चादर को चिन्हते थे,

कई बार तो चेहरे पर रहस्य ओढ़े,
अपने दोनों हाथों को हवा में
हिलाते हुए, जब वे कहते ,
पूरी दुनिया मे प्रसिद्ध है,
हैण्डलूम से भागलपुर के
बुनकरों के हाथों की बनी चादरें,
युगों से करते आ रहे है,वे यह काम,
आसान नही है बुनकर बनना,
तब रामसुफल जी न तो किसान,
और न ही कपड़ा व्यापारी,बल्कि किसी,
अलग ही दुनिया के इंसान नजर आते,
व भागलपुरी चादरें,लगने लगती थी
एक अबूझ पहेली उन दिनों,

रामसुफल जी केवल हैण्डलूम की
बनी चादरें बेचते थे,
पिताजी को भी पसन्द नही थी
पावरलूम की बनी चादरें,
वे अच्छी तरह जानते थे
हैण्डलूम और पावरलूम की
चादरों में अंतर,
हर बार वे रामसुफल जी से पूछते,
कितने बुनकर बचे है,कितनी बस्ती बची है
बुनकरों की, भागलपुर में
और रामसुफल जी हर बार
जो आँकड़ा देते वह कम ही होता,
जाता था पिछ्ले सालों की तुलना में,
जिसे सुनकर पिताजी गालियां
बकने लगते, देश के कुछ नामी
टेक्सटाइल मिलो के मालिकों को,

अक्सर पिताजी जी
बात करते हुए बताते रहते थे
चंपानगर,नाथनगर, पुरैनी
की बुनकर बस्तियों,के बारे में,
बहुत सी बुनकर, बस्तियों व
बुनकरों के नाम कण्ठस्थ थे उन्हें,
भागलपुर के सुल्तान गंज के
रहने वाले थे हैदर अंसारी काम करते थे,
पिताजी जी साथ ओरियंट पेपर मिल
अमलाई मध्यप्रदेश में
दोनों में दोस्ती इस बात पर थी कि,
दोनो का शहर , बलिया और भागलपुर
बसा था गंगा नदी के किनारे पर,

पिताजी के चाचा जी रहते थे भागलपुर में
बचपन मे कई दफा हो आये थे वे
भागलपुर, उनके दिल के बहुत
करीब था, महाभारत कालीन
अंगप्रदेश, वे चाहते थे भागलपुर के
विश्वविद्यालय में पढ़ना ,देखना कैसे
लगते है दिनकर बात करते, बोलते,
पढ़ाते, पाठ करते अपनी कविता का,
लेकिन रोजी- रोटी की तलाश में
आ बसे मध्यप्रदेश फिर नही
जाना हो सका उनका भागलपुर,

आज कई बरस हुए रामसुफल
जी नही आये न ही आई
उनके न आ पाने की कोई खोज खबर ही,
लेकिन भागलपुर अभी भी,
बसा है पिताजी के भीतर,
उनके बिस्तर के सिरहाने
बारहों मास रखी ,भागलपुरी
डल चादर में,

भागलपुरी चादर सिर्फ चादर नही है,
इतिहास, है कला है, लगाव है, बचपन
जवानी के कुछ दिन, गंगा का किनारा है
एक दुनिया है, पिताजी के लिए,

वे चाहते उनके जाने के बाद भी,
बनी रहे भागलपुरी डल चादरें घर में,
बनी रहे गंगा, उसका का किनारा
बनी रहे,टसर उपजती मिट्टी
बने रहे , बुनकर,उनकी बस्तियाँ,
अपने हथकरघे के साथ
बचा रहे, यहीं कहीं भागलपुर,
भागलपुरी चादरों के लिए,

परन्तु कितना निर्मम है
यह आज का नया बाजार
जिसमें न मिट्टी की गंध है
न पसीने की चमक
चाहता है, खत्म हो
हाथों से बनने वाले सामान
खत्म हो हाथ, सामान बनाने वाले

2.उस्ताद-बिस्मिल्ला खां

डुमराँव जहाँ तुम पैदा हुए,
बिस्मिल्ला,मैं कई बार गया हूँ,
तुम्हे खोजते हुए,
मैने बहुत बार और बहुत करीब से
जानना चाहा, की वहाँ की मिट्टी को
जिसने तुम्हे,और तुम्हारी,
रस भीनी शहनाई को बनाया था,
क्या अभी भी उपजती है कोई बाँसुरी,
कोई शहनाई या उपजता है
कोई बिस्मिल्ला उस मिट्टी में,

तुम्हारे जीते जी तो नही, पर
तुम्हे खोजता कई बार गया,
बाबा विश्वनाथ के दर पर,
तब लगा कि इतना आसान नही है,
नही भी रहा होगा कभी तुम्हे ढूंढ पाना,
पर मैंने अक्सर यह पाया,
मंदिर में बजते घण्टे, आरती-पूजन हवन में,
छुप कर तुम्ही बैठे हो,फूंकते शहनाई,

काशी की वह गली में जहां बसते थे तुम,
गंगा की कलकल बहती जलधारा,
धूप, हवा ,पानी, सुबह दुपहरी, शाम,
कजरी, चैता, फाग को ध्यान से
सुनने पर, तुम्हारी,
शहनाई की गूंज ही सुनाई देती है,
हर पहर,

सुना, कोई जादू आता था तुम्हे,
जब तुम जाते थे, शहनाई फूंकने
देश परदेश,
तो अपनी आत्मा छोड़। जाते थे काशी में ही,
जहां भी जाते तुम्हारी देह ही जाती,
तुम स्वयं कहीं नही गए बाबा विश्वनाथ,
गंगा मइया,अपने बना+रस को छोड़कर,
कहीं भी,

आजादी के उस पहले दिन,
सन सैंतालीस 15 अगस्त को, लाल किले से
तुमने अपनी शहनाई से ही फूंक था,
अनीति,अत्याचार, शोषण, ताकत, और जुल्म
के साम्राज्यवाद के अंत का घोषणा स्वर,
अपनी बनाई स्वरलहरियों में,

जैसे कि यह धरती,दूर नीला आकाश,
बादल, सूरज, चंदा, नदिया,जंगल
पहाड़, हवा पानी , समस्त वनस्पतियां,
सबके हैं, वैसे ही उस्ताद तुम और
तुम्हारी शहनाई सबके हैं।

आज जब तुम सदेह नही रहे
हमारे बीच, तुम सदा रहोगे, उस्ताद
अपनी शहनाई, अपनी स्वरलहरियों में
एक अदद पुल की तरह,
आने वाली हमारी संततियां
एक दूजे के दिलों तक पहुंचेगी
इसी से।

 

3. ।। मां और अंधेरा ।।

मुझे बचपन से ही अंधेरे से डर
लगता रहा,उन दिनों जब
चलते चलते सूरज चला जाता
पश्चिम की पहाड़ी के उस पार,

रास्ते,घर, गांव,जंगल, पहाड़,
नदी, बाग खेत, चिड़िया सब खो
जाते अंधेरे में,

मुझे दूर खड़े पेड़ अजीब
से डरावने दिखते
आंगन, दालान, सारे कमरे में,
राह पर,फैला जाता अंधेरा
डरता हुआ मुझे,

पिता जी मुझ पर हंसते थे, कहते
लड़का हो कर भी डरता है।
मेरे भाई बहन अक्सर मुझे
अंधेरे में अकेला छोड़कर भाग जाते
और मेरे रोने पर ताली पीट कर
हंसते ,

तब मां ही होती जो हाथ पकड़ कर
अंधेरे से मुझे निकाल लाती,
अंधेरे में मां ही मेरा अंतिम और
असली सहारा रही,
मां ही थी जिसका हाथ पकड़े पकड़े
चलता था,घर के अंदर, बाहर अंधेरे में,

बड़ा होते हुए मैने पाया, दुनिया
अनेक अंधेरों से भरी है।
हर कोना दुनिया का भरा है
कई कई तरह के अंधेरों से,
यहां उजालों के अपने अलग
चटख, रंग रंगीले अंधेरे है,
यह भयावह नही, बडा मोहक, व
आकर्षक है,

पर मेरे लिए मां थी
हर जगह मौजूद ,
हर अंधेरे में मेरा हाथ थामे, मजबूती से
मां कोई दरवेश है अंधेरा उसके
सामने ठहरता ही नही, उसका
कोई रंग कोई सम्मोहन
लुभा ही नही पाता, मां को
कलई खुल जाती है, सरे राह उसकी,

पिता भाई बहन दोस्त सगे संबंधी
जब मुझे अंधेरे की तरफ दिखाते
रहे, और प्रमाणित कर कहते रहे,
अंधेरा तुम्हारे मन का भ्रम है।
हिम्मत से जियो,
केवल मां ही है जिसने
कभी नही बताया मुझे
अंधेरे के बारे में कभी कुछ,
वह बस मेरा हाथ पकड़े चलती रही
निरंतर, मेरे साथ

सबसे अलग है,मां की चिन्हारी
वह अंधेरे को नही जानती है
वह अंधेरे में साथ खड़े रहना
को जानती है।

इस तरह मां ही रही,
मेरे हर अंधेरे के आसमान में
अकेला चमचमाता तारा
जिसकी रौशनी में
मैं हर अंधेरे को पार करता रहा हूं।

4.।। जड़ ।।

पेड़ पर बोलते हुए
सभी ने,फूलों की,उनके
रंग , सुगंध कोमलता व
सुंदरता के बारे में
बातें की

पत्तियों के हरेपन पर
चहकते हुए,सभी, उनके
पीले पड़ने के दुःख में
भी शामिल रहे बारी बारी ,

फलों के रूप रंग स्वाद
को मन ही मन सराहा
सभी ने

तने की गोलाई,मोटाई
एवम मजबूती पर सबने
रखी अपनी अपनी बात
उसके होने के महत्व को
रेखांकित किया सभी ने

अंत में सभी ने बातें
की जड़ की और पाया ,
असंभव था
जड़ को आंक पाना ,

5.।। तेंदू ।।

मैं तेंदू को ,
पहले-नही जानता था,
एक दिन बाजार में,
बोरी पर रखकर
इसे, बेचने वाली,
महिला से पूछा
यह क्या है?

उसने कहा, फल है,
जंगल का फल,
और क्या है?
मैंने और कुछ ज्यादा
पूछना ठीक न समझा
और खरीद लिया,
जंगल के इस फल को

जब इसे बैठा खाने,तो केवल,
वह था, मैं था, और उसका
रोम रोम में समाता स्वाद था,
अदभुत सा,

उस तक पहुंचा था मैं
सीधा बिना किसी परिचय के
बाद में लोगो से जाना था,
बहुत कुछ तेंदू के बारे में,

उससे मिलते हुए मैंने,
पहली बार जाना,
किसी को जाने बगैर,
भी मिलना चाहिए
अजाने ही,
जान समझकर मिलने से,
किसी के बारे में कुछ नही
जाना जा सकता,

7.।। कूड़ादान ।।

हर गली हर चौराहे के किनारे
खडा है,वह चौकन्ना मजबूत
आसमान की तरफ देखता,
ऊपर की ओर मुंह खोले

जितनी बड़ी कालोनी उतना ही
बड़ा कूड़ादान, उतना ही उसके
कचड़ा रखने की क्षमता
जब हर कोई सफाई पसंद हो रहा है
वह पड़ा है कचड़े से भरा व घिरा ,

खाली शीशी बोतल, प्लास्टिक के
सामान,मैले कुचले कपड़े, सड़े गले
फल सब्जी जूठन तमाम अटरम – शटरम
से अटा पड़ा है इसके आस पास ही घूम रही
होती है थूथन गड़ाए कोई सूअर,आवारा कुत्ते
पशु व कचड़ा बीनते बच्चे

उसके बिना सुन्दर व स्वच्छ कालोनी
नगर गांव देश बस्ती की कल्पना भी
नही की जा सकती, उसके न होने से
कुछ ही दिन में दुर्गन्ध से भर उठेगा
सारा जहां

वह सदा से रहा है सबसे सहज
मिलनसार,भेद भाव जाति पात,
ऊंच नीच अमीर गरीब धर्म अधर्म से परे
कोई भी डाल सकता है
अपना कचड़ा वह जरा सी उफ्फ भी
नही करता,
वह भी इसी शहर का
बाशिंदा है। वह जानता है शहर को
गंदगी से दूर रखना, उसके ही
कंधे पर है।

फिर भी हर गली नुक्कड़
पर उपेक्षित सा पड़ा है वह ही,
कोई नहीं देखता उसके दुःख,
कोई नही पूछता उसका हाल समाचार
भीड़ भरे शहर में कोई नही
साझा करता उससे उसका
एकांत

वह नही ऊबता कचड़े के
बोझ से ,उल्लू की तरह
रात में भी जागता होता है
जब कोई किसी कपड़े या
पॉलिथिन में लिपटे मृत
अवैध नवजात शिशु को
फेंक जाता है रात के तीसरे प्रहर में,
किसी महिला से बलात्कार व हत्या के बाद
साक्ष्यों को छुपाने के
लिए फेंक जाता है कुछ सा सामान
कोई चाकू या अन्य कुछ

दुनिया सुंदर व स्वच्छ रहे इसके
लिए जरूरी है बने रहे कूडादान

धरती पर यह समय कूड़ादन
का है,हमारी सारी गंदगी
को समोकर फिर से
संसार को रचने की,
यही उम्मीद है
और संभावना भी है

8.।। टूटा हुआ पत्ता ।।

पेड़ की डाल पर
पहले हरे से पीला पड़ता है,और
फिर सूख कर गिर जाता है
धरती पर,

गिरकर मर ही नही जाता,
वह पत्ता
खा लेती है, उसे चीटियाँ,
बचा खुचा वह
मिल जाता है मिट्टी में,
चुपचाप बना रहता है
मिट्टी में मिट्टी की उर्वरता
बनकर,

कभी कभी बटोर कर
ले जाया जाता है।
किसी स्त्री के द्वारा चूल्हे तक
इसी की आग में पकती है फूली हुई रोटी
यही पत्ता फिर जीता है
आदमी में
आग बनकर
गिरकर मर नही जाता टूटा हुआ पत्ता



मिथिलेश रॉय
जन्मतिथि- 31/01/1975
पता- शहडोल मध्यप्रदेश
संप्रति – शा0 हायर सेकेंडरी स्कूल छतवई शहडोल में अंग्रेजी शिक्षक के पद पर कार्यरत
प्रकाशन- वागर्थ, रचना उत्सव, कविकुम्भ, बहुमत, कविता विहान, सृजनलोक सहित कई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित, इसके आलावा चार साझा कविता संग्रह व चार लघुकथा संग्रह प्रकाशित।
वर्तमान में साहित्यिक पत्रिका “वनप्रिया ” का संपादन

 


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