संजय कुंदन की कविताएं

कुछ और कवि

कविता के संसार में
और भी है कई संसार
ऐसे कवि भी होते हैं
जो कभी किसी से नहीं कहते
वे कवि हैं

वे एकांत में कविताएं लिखते
और रख देते दराज में
अपनी गुमसुम रहने की आदत के कारण
कवि टाइप आदमी या कविजी कहे जाते
अपने दफ्तर में
पर नहीं बताते कि वे सचमुच कवि हैं

वे सिद्ध कवियों की तरह कभी दावा नहीं करते
दुनिया को बदल देंगे
पर वे किसी के दुख से परेशान हो जाते
चले जाते किसी घायल अजनबी को खून देने
अपने साथियों के साथ धरने पर बैठते, जेल जाते
गवाही दे आते

उन्हें पता ही नहीं रहता
कविताएं कैसे छपती है पत्रिकाओं में
कभी किसी का मन करता, क्यों न किताब छपाएं
फिर खयाल आता बेटी के लिए साइकिल
खरीदना ज्यादा ज़रूरी है

उनमें से कोई किसी दिन एक गोष्ठी में पहुंच जाता
पर वहां इस्तरी किये चेहरों और
शब्दों के झाग से घबरा जाता
भागकर आता अपनी अंधेरी दुनिया में
जहां उसकी कविताएं उसका इंतज़ार कर रही होतीं।
……..

पुनर्जन्म

जब हम उसके जाने के शोक से
उबर जाते हैं
तब उसे फिर से खोजते हैं

उसकी बार-बार चर्चा होती है
किसी न किसी बहाने

जब तक वह सशरीर था
बहुत कम उपस्थिति रहती थी उसकी घर में
पर अब वह ज़्यादा मौजूद रहने लगा
बिना शरीर के

खाने के वक़्त उसकी पसंद का ज़िक्र होता है
फिर यह अफ़सोस भी जताया जाता है
कि ओह, वह कितना मन मार के रहता था
उसकी पसंद के हिसाब से चल सकते थे सब लोग

कोई अचानक उठकर उसके लिए दरवाज़ा
खोल बैठता है
कोई बाज़ार में उसके पसंदीदा रंग की
क़मीज़ ख़रीदते-ख़रीदते ठिठक जाता है
कोई मन ही मन उससे माफ़ी मांगता है
उसके साथ हुई किसी ज्यादती के लिए

उसकी डायरी में खंगाला जाता है उसका एकांत
अलमारी में रखी कुछ चीजों से
पता चलता है उसका शौक
जिसका कोई अंदाज़ा नहीं था अब तक किसी को भी

अब पता चलता है कि वह तो कुछ और भी था
उससे अलग जो जीते-जी समझा गया

उसके इस नए रूप को स्वीकार किया जाता है
इस तरह उसका पुनर्जन्म होता है।
…………..

तुम्हारा दुख कोई नहीं बांट सकता

बहुत कम देर टिक पाते हैं सांत्वना के शब्द
वे जो तुम्हें भरोसा दिलाते हैं
कि तुम्हारे साथ हैं इस घड़ी में
कुछ ही देर में मशगूल हो जाते हैं
अपनी कठिन दिनचर्या में
तुम्हें अपने दुख के साथ छोड़कर

दुख को मापने की कोई इकाई
नहीं बनी है अब तक
तुम कैसे कह सकते हो कि
कितना तीखा है
किसी के हमेशा के लिए चले जाने का बिछोह
और कितनी है अकेलेपन की गहराई

यह भी संभव नहीं कि कोई
किसी के कुर्ते की तरह पहन ले
या ओढ़ ले उसकी चादर की तरह
उसका मौन विलाप

दुख का हर पाठ अधूरा है
वह महाकवि भी नहीं रच सका
ठीक-ठीक अपना दुख
जिसका दुख ही जीवन की कथा था

कोई तुम्हारा दुख बांट नहीं सकता
तुम ख़ुद ही निकलते हो एक दिन
उसके बियाबान से बाहर

एक दिन अचानक तुम्हें अपने कमरे की चीज़े
दिखने लगती हैं साफ़-साफ़
जैसे बहुत दिनों बाद लौटी हो रोशनी
तुम्हारा ध्यान उस किताब पर जाता है
जिसे लाए थे तुम पिछले दिनों

चादर पर पड़ी धूल तुम्हें खटकती है
और तुम उसे झाड़ना शुरू करते हो
तुम बिस्तर पर पड़ी एक क़मीज़ को उठाकर
अलमारी में डाल देते हो
फ़र्श पर पड़े मुड़े-तुड़े कागज को उठाकर
डाल देते हो डस्टबिन में

तुम आते हो बालकनी में
और बड़ी देर तक
देखते हो बादलों का बायस्कोप
तुम एक चिड़िया को उसकी उड़ान के लिए
आंखों से शुभकामनाएं देते हो
सड़क पर दिखते कुछ लोगों के
पांवों में डाल देते अपने पांव
उनके थैले का बोझ महसूस करते अपने कंधे पर

तभी तुम्हें अपने कई स्थगित काम याद आते हैं
कई स्थगित यात्राएं भी

तुम जब निकलते हो दुख से बाहर
दुख तब भी तुम्हारे साथ ही होता है
असल में वही धकेलता रहता है तुम्हें
जीवन की ओर
अर्से बाद तुम किसी बहाने जब हंसते हो
तुम्हारी हंसी के साथ
बहुत दिनों से दबी हुई रुलाई
बाहर आने को होती है
पर तुम्हारा दुख उसे संभाले रखता है
किसी को उसका पता नहीं चलने देता।

……………..

बीमार आदमी की पत्नी

वह अकसर दिखती है अपने पति को सहारा देकर
ले जाती हुई अस्पताल में
बेंच पर बैठी, ऊंघती हुई
पर्ची लिए दवा के लिए क़तार में खड़ी
कभी याचक की तरह ताकती डॉक्टर की ओर
एक कम्पाउंडर की चिरौरियां करती हुई

कई बार बदहवास चढ़ती अस्पताल की सीढ़ियां
कभी ऑपरेशन कक्ष के बाहर सिसक रही एक लड़की
के कंधे पर हाथ रखती हुई
एक बूढ़े की खुलती पट्टी बांधती हुई
किसी मरीज़ को लड़खड़ाने से बचाती हुई
लगता है वह पूरी दुनिया के बीमार लोगों की तीमारदार है
और यह काम सदियों से करती आ रही है

अब नमक कम खाने लगी है
तड़का भी नहीं लगाती
पथ्य बनाते ही समय गुज़र जाता है
अपने लिए अलग से क्या बनाए

कमज़ोर हो गई है
कई बार ज्यादा बीमार लगती है पति से
लोग आते हैं पूछते हैं पति का हाल
कोई नहीं पूछता, तुम कैसी हो
उल्टे शिकायत करते हैं
तुम उसका ठीक से ख़याल नहीं रखती

अपने लिए बहुत कम समय मिल पाता है
कभी-कभार अपनी शादी के बक्से खोलती है
तहाकर रखे कपड़ों को उलटती-पलटती है
फिर तहाकर रख देती है

कई बार सोचती है थोड़ा रो ले
तभी पति झल्लाता हुआ पानी के लिए आवाज़ देता है
या कुछ रिश्तेदार पहुंच जाते हैं पति को देखने
वह चाय-नाश्ता बनाने में लग जाती है
मेहमानों के लिए।
…………

शोषित

जब मुझे पहली बार पता चला
शोषित होना क्या होता है
अपनी बहनें याद आईं

तब समझ में आया
उनके गीतों में कितनी करुणा थी

उन्होंने कभी कुछ नहीं मांगा
अपने लिए
जो थोड़ा सुख आया घर में
हमने जी भर निचोड़ा
उन तक कितना पहुंचा, कभी नहीं सोचा

हम सुर्खरू हुए
उनके कितने ही रंग छीनकर

फिर भी उन्हें कोसते रहे
कि वे ही हैं घर के विकास में बाधक
वे न होतीं तो चाँदी से मढ़े होते दरवाज़े

वे जब गुनगुनाती हुई झाड़ू लगा रही होतीं
या बर्तन चमका रही होतीं
हमें लगता उन्हें ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं है

हम मानकर चल रहे थे
वे बेहद ख़ुश हैं
पांच किलो राशन पर पलने वाले
लोगों की तरह।
…………

अकेले लोग

एक अकेला आदमी
दूसरे अकेले आदमी से मिला
और उसने तीसरे अकेले आदमी के बारे में पूछा
जिसके बारे में दूसरे ने कहा कि
उनसे बहुत दिनों से मुलाक़ात नहीं हुई

इस पर पहला कहना चाहता था
कि वह तो अपने आप से भी बहुत दिनों से
नहीं मिल पाया है, पर वह चुप रहा
क्योंकि उसे लगा कि यह कहते हुए
वह कहीं रो न दे।
जबकि दूसरे के जी में आया कि
वह कह ही दे आज कि उसका अब किसी पर
भरोसा नहीं रहा, अपनी संतान पर भी नहीं
लेकिन उसने किसी तरह अपने को रोके रखा।

ऐसा वह एक साल से कर रहा था
और कई बार जी में आता था
कि किसी पेड़ से जाकर यह कह आए।

तो उसने यह न कहकर कहा कि
सरकार बढ़िया चल रही है
उसे उम्मीद थी कि यह बात पहले को अच्छी लगेगी।

हालांकि पहला इस बात से सहमत नहीं था
मगर उसे लगा कि बात काटना ठीक नहीं तो
उसने भी हामी भरी और फिर कुछ देर दोनों ने
एक ताक़तवर नेता के बारे में चर्चा की
और लौट गए अपने अकेलेपन में।
………..

जा रहे हम

जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं
और यह देह
लेकिन अब आत्मा पर खरोंचे कितनी बढ़ गई हैं
कौन देखता है

कोई रोकता तो रुक भी जाते
बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी
इतना ही कहता
– यह शहर तुम्हारा भी तो है

उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर
जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं
उन्होंने भी कुछ नहीं कहा
जिनकी चूड़ियां हमने 1300 डिग्री तापमान में
कांच पिघलाकर बनाईं

किसी ने नहीं देखा कि एक ब्रश, एक पेचकस,
एक रिंच और हथौड़े के पीछे एक हाथ भी है
जिसमें खून दौड़ता है
जिसे किसी और हाथ की ऊष्मा चाहिए

हम जा रहे हैं
हो सकता है
कुछ देर बाद
हमारे पैर लड़खड़ा जाएं
हम गिर जाएं
खून की उल्टियां करते हुए

हो सकता है हम न पहुंच पाएं
वैसे भी आज तक हम पहुंचे कहां हैं
हमें कहीं पहुंचने भी कहां दिया जाता है

हम किताबों तक पहुंचते-पहुंचते रह गए
न्याय की सीढ़ियों से पहले ही रोक दिए गए
नहीं पहुंच पाईं हमारी अर्जियां कहीं भी
हम अन्याय का घूंट पीते रह गए

जा रहे हम
यह सोचकर कि हमारा एक घर था कभी
अब वह न भी हो
तब भी उसी दिशा में जा रहे हम
कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर
जो अपने जैसा लगेगा।

…………

सरदारजी

आएंगे सरदारजी
बहुत सारे सरदारजी
खाना लेकर पानी लेकर
दवा लेकर आएंगे
बहुतों के लिए सांस
उम्मीद और हौसला लेकर आएंगे

वे बिन बुलाए आएंगे
और किसी से कुछ मांगेगे भी नहीं
उन्हें नहीं चाहिए प्रशंसा और प्रशस्तिपत्र
वे अपना काम कर चुपचाप चले जाएंगे

अधिपतियो, सत्ता के दलालो
तुम उन पर सुनाते रहो चुटकुले
कहते रहो उन्हें गद्दार

वे आते रहेंगे बांहें फैलाए
बाबा फ़रीद की तरह
वारिस शाह की तरह

उनके हृदय में पांच नदियों के जल से भी
ज्यादा करुणा बहती है
वे नफ़रत के मलबे को हटाकर
निकाल लेंगे थोड़ी सी जगह कहीं भी

सेनानायको, कूटनीतिज्ञो, हथियार के सौदागरो
तुम उनका रास्ता नहीं रोक पाओगे
चलता रहेगा लंगर पृथ्वी पर कहीं न कहीं
आते रहेंगे बहुत सारे सरदारजी
ज़रूरतमंद इंसान के लिए

वे आते रहेंगे
तुम्हारे नक्शों और झंडों के सामने
मनुष्यता को लहराते हुए।
………..

पनीर

शाही पनीर
पनीर पसंदा
पनीर दो प्याजा
पनीर भुर्जी
पनीर हरियाली
-ये सब तो पनीर के ही व्यंजन हैं
लेकिन दूसरे खानों में भी पनीर का ख़ासा दख़ल है

वह छोले में घुसा हुआ है, दाल में टांग अड़ा रहा है
मटर और साग के साथ अभी गठबंधन कर रखा है
पर किसी भी दिन बेदख़ल कर सकता है उन्हें

थाली में अब सिर्फ़ वही रहना चाहता है
शहर से गांव तक वही दिखना चाहता है
आप चले जाएं अहमदाबाद या अलवर
चले जाएं पटना, कोलकाता या भुवनेश्वर
अब हर जगह मिलते हैं एक जैसे व्यंजन
एक जैसा स्वाद
हर जगह पनीर पनीर

जैसे शहरों की हरियाली छीन रहा कंक्रीट
वैसे ही उनके ज़ायक़ों पर क़ाबिज़ हो गया है पनीर

उसकी नरमी पर न जाएं
वह बाज़ार का दुलारा है
तिजारत के हर दांव जानता है

वह बिकने के लिए बदल सकता है रंग-रूप, आकार
किसी दिन वह दिख सकता है भंटे जैसा गोलमटोल
या भिंडी सा छरहरा
एक दिन वह इतना ज़्यादा नज़र आएगा
कि ज़िद की तरह बैंगन के भुर्ते
खाता हुआ आदमी भी
अपने को अकेला पाकर डर जाएगा
और पनीर खाने लगेगा।
………….

शरीफ़ दंगाई

कुछ दंगाई बड़े शरीफ़ होते हैं
वे कभी दंगा नहीं करते
वे इतने शांतिप्रिय होते हैं
कि एक चूहा तक नहीं मारते
इतने कोमल होते हैं
कि धूप में ज्यादा देर रह नहीं पाते

वे राजा बेटा होते हैं अपनी मां के
महंगे पब्लिक स्कूलों और
देश के सर्वोच्च इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट संस्थानों में
पढ़ने वाले
बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ऊंची तनख़्वाह पर
काम करने वाले

हर दंगे के बाद
वे दफ़्तरों, रेस्तरांओं और अपने परिवार में बैठकर
बात करते हैं
यू नो, इन लोगों ने गंद मचा रखी है देश में
इन्हें इसी तरह मारा जाना चाहिए।
………

पिता और प्रधानमंत्री

पिताजी अकसर कहा करते थे
बस दो मिनट के लिए हो जाए उनकी
प्रधानमंत्री से मुलाक़ात
वह बता देंगे उन्हें
देश की असल समस्या

हम पूछते
क्या है देश की असल समस्या
वह कहते
प्रधानमंत्री को ही बताएंगे

कई बार नींद में
वह अजीब ढंग से बोलने लगते
जैसे कोई गूंगा कुछ कह रहा हो
या कोई रो रहा हो
हम भाई-बहन बात करते
ज़रूर पिताजी सपने में पहुंच गए होंगे
प्रधानमंत्री आवास मगर रोक दिया गया होगा उन्हें गेट पर
वह गुहार लगा रहे होंगे पीएम से
कि सुन लें उनकी बात

अपनी मौत से एक दिन पहले
उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की थी
पर मुझे कुछ समझ में नहीं आया
शायद जाते-जाते वह मुझसे वही कह रहे होंगे
जो प्रधानमंत्री से कहना चाहते थे।
………..

कविता है तो…

दुकान पर बैठी वह महिला मुझे
बिलकिस बानो जैसी लगी
और उससे दूध के पैकेट लेता हुआ
मैं उसकी सलामती की दुआ करने लगा

पर यह बात मैं उसे बता नहीं सकता था
यह मैं किसी और से भी नहीं
कह सकता था
कह सकता था सिर्फ़ कविता में

डॉक्टर से नींद की गोली लिखवाते हुए
मैं उससे नहीं कह सकता था कि
मेरी अनिद्रा का संबंध ट्रेन में हुए एक हत्या से है
जो मैंने नहीं देखी
और मृतक मेरा कोई नहीं था
बस उसके बारे में सिर्फ़ अख़बार में पढ़ा था

मैं यह भी डॉक्टर से नहीं कह सकता
कि मेरे उच्च रक्तचाप का संबंध ग़ज़ा के नरसंहार से है
वहां किसी घर पर गिर रहा एक गोला मुझे
पड़ोस में फटता सुनाई देता है
और मेरी धड़कन तेज़ हो जाती है
आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है
यह बात मैं अपने परिवार में भी नहीं कह सकता
कह सकता हूं इसे सिर्फ़ कविता में

अगर मैं कविता नहीं लिख रहा होता तो
ये परेशानियां शायद मुझे पागल कर देतीं
या मार ही डालतीं
या मुमकिन है मैं कवि नहीं होता
तो ये परेशानियां मेरे साथ होती ही नहीं

तब मैं अपने मोहल्ले के
शरीफ़ लोगों की तरह होता
अपने शब्दों से चारों तरफ़
तेजाब उड़ेल रहा होता।
……….

 

फासिस्ट समय में उत्सव

फासिस्ट समय में
उत्सवों पर ज़ोर बढ़ गया था

हत्यारों पर पुष्पवर्षा भी उत्सव थी
जब वधिकों के ऊपर से गिर रही होती लाल-लाल पंखुड़ियां
लगता वे रक्तस्नान कर रहे हों

चमगादड़ों की तरह शहरों पर लहरा रहे थे झंडे
लोग झंडों की तरह ख़ुद को लहरा देना चाहते थे
कोई शुभकामनाएं देता तो लगता धमका रहा हो

कभी आधी रात अचानक शुरू हो जाते जयकारे
कभी व्यस्त सड़क पर भरी दोपहर

जयकारे भी अब तरह-तरह के थे
पत्रकार खबर की शक्ल में लगाते थे जयकारे
इतिहासकार इतिहास का लेबल लगाकर
समाजशास्त्री अपने जयकारे को
अपना नया शोध बताते थे

कुछ जयकारे चुप रहकर भी लगाए जाते थे
जैसे कुछ दीये अदृश्य होकर जलते थे
खासकर कुछ हत्याओं के बाद
उन अदृश्य दीयों की चमक
दिख ही जाती थी, कई चेहरों पर

रंग-बिरंगे साहित्य महोत्सवों में
ढोल मजीरे की तरह
कविताएं बज रही थीं
वक्तव्य बज रहे थे

महोत्सवों से
दक्षिणा गिनते इस तरह लौटते लेखकगण
जैसे लौट रहे हों राजसूय यज्ञ से ब्राह्मण
………………………..

प्रश्न

प्रश्नकाल स्थगित है
जैसे स्थगित है न्याय
जैसे स्थगित है समानता
जैसे स्थगित है स्वतंत्रता
जैसे स्थगित है प्रेम

प्रश्न मारे जा रहे हर जगह
जैसे मारे जा रहे पक्षी
जैसे मारे जा रहे पेड़
जैसे मारी जा रही नदियां
वैसे ही मारे जा रहे प्रश्न

प्रश्न का शिकार एक फैशन ही नहीं
राष्ट्रीय कर्त्तव्य हो गया है

हर बात में अब हां कहने का चलन है
हां-हां की एक विराट ध्वनि गुंजायमान है

चूंकि अब प्रश्न पूछना ही ख़तरनाक है
तो कौन पूछे कि क्यों स्थगित है प्रश्नकाल

सचमुच कुछ दिन बाद यह यकीन करना
मुश्किल हो जाएगा कि
कभी हमारी भाषा में प्रश्नचिह्न भी हुआ करता था।
…………..

देशद्रोही

वह अनाम कवि
अपने देश को डूब कर प्यार करता था
पर उसे देशभक्त बनना नहीं आया

वह देश के बारे में बात करता हुआ
अंधेरे कोनों, बीहड़ों की चर्चा करने लग जाता
फिसलन भरे रास्तों
भहराते घरों और हारे हुए लोगों
के बारे में बोलने लगता था

वह अकसर गाता
उदास कर देने वाला गीत
कई बार तो किसी विजय जुलूस के सामने
आकर गाने लगता

एक दिन भूख और अकेलेपन से
दम तोड़ देने वाली
एक बूढ़ी वेश्या के बारे में
उसने कहा- वह राष्ट्र की मां थी

यह बात राजमाता को बुरी लगी
राजमाता नाराज़ हुईं
तो राजा भी नाराज़ हो गया
राजा नाराज़ हुआ
तो दरबारी भी नाराज़ हो गए

दरबारी नाराज़ हुए
तो व्यापारी भी नाराज़ हो गए
नाराज़ हुए कुछ कवि-कोविद भी
और इन सबके साथ
सारे के सारे देशभक्त नाराज़ हो गए

उन्होंने एक स्वर में मांग की-
उस अनाम कवि के ख़िलाफ़
देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जाए।
………..

संजय कुंदन

जन्म: 7 दिसंबर, 1969, पटना में
पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए।
संप्रति: वाम प्रकाशन, नई दिल्ली में संपादक।
प्रकाशित कृतियां:
कागज के प्रदेश में (कविता संग्रह), चुप्पी का शोर (कविता संग्रह), योजनाओं का शहर (कविता संग्रह), तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह), बॉस की पार्टी (कहानी संग्रह), श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह), टूटने के बाद (उपन्यास), तीन ताल (उपन्यास), ज़ीरो माइल पटना (संस्मरण)

पुरस्कार/सम्मान:
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, हेमंत स्मृति सम्मान, विद्यापति पुरस्कार और
बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार
अनुवाद कार्य: एनिमल फार्म (जॉर्ज ऑरवेल), लेटर्स ऑन सेज़ां (रिल्के), पैशन इंडिया (जेवियर मोरो) और वॉशिंगटन बुलेट्स (विजय प्रशाद) का हिंदी में अनुवाद।
रचनाएं अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, असमिया और नेपाली में अनूदित।

संपर्कः ए-701, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012 (उप्र)
मोबाइलः 9910257915
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


Discover more from रचना समय

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Categorized in: