जार्ज लुकाच के विरुद्ध बर्तोल्त ब्रेख़्त
Bertolt Brecht against Georg Lukács

-संतोष चौबे

 


जार्ज लुकाच: एक परिचय

अनुवाद: संतोष चौबे

जार्ज लुकाच की साहित्यिक अवधारणाओं को अब अंग्रेज़ीभाषी विश्व में ज्यादा बेहतर तरीके से पहचाना जाता है हालाँकि तीस के दशक में लिखे गए उनके सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक निबंधों का अनुवाद प्रकाशित होना अभी बाकी है। इसी दशक में हंगेरियन कम्युनिस्ट पार्टी की ज़िम्मेदारियाँ छोड़ने के बाद लुकाच ने सौंदर्य शाóीय लेखन शुरु किया और धीरे-धीरे जर्मनी के वामपंथी साहित्यिक विश्व में अपनी प्रभुत्वकारी जगह बना ली। इस भूमिका में उनका अवतरण ‘कॉमिनटर्न’ के तीसरे चरण में हुआ जब वे ‘लिंक्सकर्व’ के सहयोगी बने जो स्वयं एसोसिएशन ऑफ प्रॉलिटेरियन रिवॉल्यूशनरी राइटर्स का एक अंग था, जिसे के.पी.डी. ने 1928 के अंत में बनाया था।
लुकाच ने सबसे पहले ‘लिंक्सकर्व’ में विली ब्रिदिल, जो एक कारखाने में टर्नर का काम करने वाले मजदूर लेखक थे, के उपन्यासों पर कटु हमला करते हुए ख्याति प्राप्त की। उन्होंने अंर्स्ट ओटवॉल्ट पर भी जो ब्रेख्त के निकट सहयोगी थे, इस आधार पर हमला किया कि उन्होंने अपनी कहानियों में शास्त्रीय ढंग के ‘चरित्र चित्रण’ को ‘अखबारी रिपोर्टिंग’ से विस्थापित कर दिया है। स्वयं ब्रेख्त एवं रूसी लेखक त्रेत्याकोव को, उपरोक्त दोनों लेखकों द्वारा प्रस्तुत नकारात्मक दृष्टांतों से जोड़ा गया और ब्रेख्त के वस्तुनिष्ठ, ‘अरस्तू विरोधी’ नाटक के विचार को अस्वीकार कर दिया गया।

नाज़ियों द्वारा जर्मनी में सत्ता हथियाने के बाद और थर्ड इंटरनेशनल द्वारा पापुलर फ्रंट की लोकप्रिय नीतियों को फासीवाद के खिलाफ अपनाने के बाद, लुकाच की साहित्यिक अवधारणाएँ जर्मनी के कम्युनिस्ट विस्थापितों के औपचारिक संगठनों के बीच अधिक से अधिक प्रभावशाली होने लगीं जहाँ वे बुद्धिजीवियों द्वारा एक सौंदर्यशास्त्रीय प्रति कथानक के रूप में, वामपंथ और मजदूर संगठनों पर राजनैतिक हमलों से बचाव के लिए, काम में लायी जा सकती थीं। अपने निर्वासन के दौरान लुकाच का दूसरा लक्ष्य था जर्मन साहित्य में अभिव्यंजनावादी परंपरा का आकलन, जिसका उन्होंने ‘इंटरनेशनल लिटरेचर’ नामक पत्रिका के जनवरी 1934 के अंक में अपने निबंध Grosse and Verfall des Expressionismus में गहराई से विश्लेषण किया। कई अन्य जर्मन लेखकों की तरह ब्रेख्त ने अपने कॅरियर की शुरुआत 1920 के दशक में अपने नाटकों में अर्ध अभिव्यंजनावादी के रूप में ही की थी। लुकाच ने उनके खुद के कलात्मक विकास के प्रमुख चरणों पर उलटते क्रम में आक्रमण किया। दो वर्षों के बाद लुकाच ने अपने सबसे समृद्ध एवं शुरुआती निबंध का प्रकाशन किया जिसका नाम Erzahlen oder Beschreiben? था। इस निबंध में उन्होंने साहित्यिक यथार्थवाद की उन मुख्य श्रेणियों एवं सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जिन्हें वे जीवन भर के लिए अपना आधार बनाने वाले थे जैसे- प्रकृतवाद और यथार्थवाद की घोषित प्रतिस्थापनाओं का प्रतिपादन, सामाजिक एवं व्यक्तिगत के अंतःसंबंध से किसी प्रतिनिधि चरित्र के निर्माण का विचार, बाह्य विवरण और भीतरी मनोवैज्ञानिकतावाद दोनों का ही अस्वीकार, निष्क्रिय विवरण और सक्रिय आख्यान के बीच का भेद तथा बाल्ज़ाक और टॉल्सटॉय के शास्त्रीय रूप की, आधुनिक उपन्यास के निर्माण के संदर्भों में प्रशंसा। लुकाच ने उन सभी आधुनिक कलाकारों को, जिन्होंने उपरोक्त आधारभूत सिद्धांतों की अवहेलना की या उनका उल्लंघन किया, ‘रूपवादी’ घोषित कर दिया। वाइमर गणतंत्र में उभरने वाले जर्मनी के सबसे बड़े नाटककार ब्रेख्त ने, जो लुकाच के सहयोगी मार्क्सवादी भी थे, लुकाच के इन नियमों के कारण बहुत दबाव महसूस करना शुरू किया क्योंकि ये नियम अब यू.एस.एस.आर. में भी (जहाँ लुकाच 1933 में पहुँच गए थे) प्रधानता के साथ स्वीकार किए जा रहे थे और जिन्हें कोरेला जैसे कम महत्व वाले सहयोगियों का समर्थन प्राप्त होने के कारण ‘कॉमिनटर्न’ के भीतर भी अधिक स्वीकार्यता मिल रही थी।

बेंजामिन ने ब्रेख्त के साथ अपने संवाद को लिपिबद्ध करते हुए 1938 में डेनमार्क में कहा, ‘‘लुकाच और कोरेला आदि के प्रकाशन ब्रेख्त को भारी तकलीफ पहुंचा रहे हैं।’’ नाम के वास्ते ब्रेख्त स्वयं भी विस्थापितों की पत्रिका ‘दास वार्ट’ के तीन संपादकों में से थे जो 1936 से 1939 के बीच मॉस्को से प्रकाशित हो रही थी और जिसके दूसरे दो संपादक विली ब्रिदिल और लियोन फेटवेनगर थे। असल में तो उनका नाम सिर्फ प्रतिष्ठा के लिए जोड़ा गया था और अपने निर्वासन स्थल स्वेंडबोर्ग से पत्रिका के नीति निर्माण में वे कोई योगदान नहीं कर रहे थे, तथापि 1938 में, अपनी निजी डायरियों में तीखी फटकार लगाने के साथ-साथ उन्होंने लुकाच के विरुद्ध तीखे और कटुतापूर्ण आलेखों की श्रृंखला लिखी, जिसे जनता के हस्तक्षेप की तरह, ‘दास वार्ट’ में छपाया गया, जिसमें अभी भी अभिव्यंजनावाद पर जोरदार बहस चल रही थी और जिसे अर्न्स्ट ब्लॉक एवं हांस आइलर का समर्थन प्राप्त था। इनमें से चार सबसे महत्वपूर्ण निबंधों- Die Essays von Georg Lukacs (I), Uber den formalistischen Charakter der Realismustheorie (II), Bermerkungen zu einem Aufsatz (III), and Volkstumlichkeit und Realismus (IV) को आगे अनुवादित किया जा रहा है।
इनमें से कोई भी ब्रेख्त के जीवन काल में दास वार्ट में प्रकाशित नहीं हुआ। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ब्रेख्त ने उन्हें ‘दास वार्ट’ में प्रकाशित होने मॉस्को भेजा था और वे वहाँ अस्वीकृत हो गए थे या फिर उनकी स्वभावगत रणनीतिक बुद्धिमत्ता ने उन्हें इसे प्रकाशनार्थ भेजने से ही रोक दिया था। बेंजामिन, जिन्हें उन्होंने इनका कुछ हिस्सा पढ़कर सुनाया था बताते हैं कि ‘‘उसने मुझसे पूछा था कि इनका प्रकाशन किया जाए या नहीं, क्योंकि उस समय लुकाच की स्थिति वहाँ पर बहुत मजबूत थी। मैंने उससे कहा कि मैं कोई सलाह नहीं दे सकता। इससे सत्ता संबंधी सवाल जुड़े हुए हैं। तुम्हें वहीं के लोगों से पूछना चाहिए। तुम्हारे भी तो वहाँ दोस्त हैं? ब्रेख्त ने कहा था, असल में नहीं। मेरे कोई दोस्त नहीं। स्वयं मास्को वासियों के भी वहाँ दोस्त नहीं हैं, जैसे कि मुर्दों का (कोई दोस्त नहीं होता)।’’ महान आतंक के उस समय में शायद स्वयं ब्रेख्त ने इन निबंधों के प्रकाशन के विरुद्ध निर्णय लिया हो। जो भी हो, ये सबसे पहले 1967 में प्रकाश में आए जब मृत्यु के बाद सुरकैंप वरलॉग का संस्करण Schriften zur Kunst und Literatur पश्चिम जर्मनी में प्रकाशित हुआ।

ब्रेख्त का लुकाच के विरुद्ध ये प्रतिवाद उस शुरुआती निबंध के अलावा, कहीं भी लुकाच का नाम नहीं लेता था। लेकिन फिर भी वह कहीं से भी रक्षात्मक नहीं था। इसके उलट वह आक्रामक कटुता से भरा हुआ था जिसमें बड़ी संख्या में ऐसे तर्कों को शामिल किया गया था जो लुकाच के सौंदर्यशास्त्र के पूरे जीवन प्रवाह को अवरुद्ध कर सकें। सबसे पहले तो ब्रेख्त ने साफ-साफ दिखने वाले लुकाच के उस अंतर्विरोध पर अपना ध्यान केंद्रित किया जो 19वीं शताब्दी में यूरोपियन यथार्थवादियों को, एक ओर तो बुर्जुआ लेखक मानता था और दूसरी ओर ये दावा भी करता था कि उनकी साहित्यिक उपलब्धियाँ बीसवीं शताब्दी के ‘प्रॉलिटेरियन’ या समाजवादी लेखकों के लिए दिशासूचक का काम कर सकती हैं। क्योंकि बाल्जाक और टॉल्सटॉय के उपन्यास स्पष्ट रूप से वर्ग इतिहास के एक चरण के उत्पाद हैं जिसका स्थान इतिहास के नए चरण ने ले लिया है, तो फिर कोई मार्क्सवादी कैसे यह तर्क कर सकता है कि इन पुराने पड़ चुके उपन्यासों के सिद्धांत किसी नए चरण के उपन्यासों पर लागू किए जा सकेंगे, विशेषकर तब, जबकि इस नए चरण में नई तरह के वर्ग संघर्ष प्रधानता रखते हैं। बीसवीं शताब्दी में पूंजीवाद के सामाजिक यथार्थ में क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं। अब वह बाल्जाक या टॉल्सटॉय की तरह के व्यक्तिवाद को जन्म नहीं देता। अतः नई परिस्थितियों में पुराने तरह के चरित्रों की दोबारा स्थापना करना असल में यथार्थ से दूर भागना है। उदाहरण के लिए अमेरिका में महिलाओं की स्थिति (रूस की तो बात ही छोड़ दीजिए) बाल्ज़ाकनुमा अंतर्विरोधी भावनाओं के ढांचे का निषेध करती है। इसके विरुद्ध जब लुकाच आधुनिकतावादियों पर ऐसी बिखरी हुई तकनीकों जैसे- आंतरिक एकालाप या फिल्म की तरह के दृश्य चित्रण के कारण रूपवादी होने का आरोप लगाते हैं, तो वे स्वयं एक समयहीन रूपवाद की गर्त में गिर रहे होते हैं जहाँ वे गद्य के सिद्धांतों को परंपरा में खोज रहे होते हैं, बिना यह समझे कि ऐतिहासिक यथार्थ सभी किस्म के साहित्य को छूता है और अपने बदलने की प्रक्रिया में साहित्य को भी रुपान्तरित कर देता है। वास्तविक यथार्थ, ब्रेख्त खुद को जिसका दृढ़ समर्थक मानते थे, सिर्फ एक सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि नहीं होता; यह विश्व का एक राजनैतिक और दार्शनिक स्वप्न होता है जिसमें उसके भौतिक संघर्ष भी शामिल होते हैं जो उसे विभाजित करते हैं। इसी के साथ-साथ ब्रेख्त ने सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से भी लुकाच के सिद्धांतों की संकुचित सीमाओं पर ध्यान आकर्षित किया जिनके भीतर सिर्फ उपन्यास अँटता था और कविता तथा नाटक जिसके बाहर रह जाते थे। ये छूटी हुई विधाएँ वो थीं जिनमें स्वयं ब्रेख्त महारत रखते थे। सामान्य रूप से कहा जाए तो 1918 के बाद जर्मन संस्कृति में सबसे क्रांतिकारी नवाचार, सबसे पहले नाटक में ही हुए। ब्रेख्त ने कलाओं में प्रयोगशीलता की अनिवार्यता पर जोर दिया और माना कि कलाकारों को इतिहास के संक्रमणकालीन समय में, कलात्मक उपकरणों की खोज करते हुए असफल होने या अर्द्ध-सफल होने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. आंतरिक एकालाप या फिल्म की तरह के दृश्यचित्रण या विभिन्न विधाओं का किसी एक रचना में सम्मिश्रण किया जा सकता है और उपयोगी भी हो सकता है तब, जबकि वो अनुशासित और सचेत रूप से सामाजिक यथार्थ के प्रति सत्यनिष्ठ रहे। तकनीक की बहुलता कला में किसी यांत्रिक गरीबी को इंगित नहीं करती बल्कि वह उसमें पायी जाने वाली ऊर्जा और स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह भय कि तकनीकी नवीनताएँ कला को जनता से दूर करती हैं या उसे अबोधगम्य बना देती हैं, एक मूलभूत गलती है। उन्होंने बहुत ही तीखेपन के साथ लुकाच को याद दिलाया कि मजदूर वर्ग के लोगों को बाल्ज़ाक और टाल्सटाय के बहुप्रशंसित लम्बे-लम्बे फुरसतिये आख्यान उबाऊ लग सकते हैं और ऐसा करते समय उन्होंने स्वयं नाटककार के रूप में, अपने अनुभव को सामने रखा और बताया कि असल में तो दर्शक मंच पर की गई प्रयोगशील निर्भीकता को पसंद करते हैं, और कलात्मक अतिरेक को अस्वीकार करने के बदले उसके प्रति उदारता बरतते हैं। इसके बरक्स लोकप्रिय कला संबंधी कोई भी पारंपरिक विचार, विशेषकर जर्मनी में, प्रतिक्रियावादी परंपरा से प्रदूषित रहता है। इसलिए ऐसे तूफानी समय में जबकि शोषितवर्ग अपने शोषकों के साथ अंतिम लड़ाई लड़ रहा है, कलाओं को, दुनिया में आ रहे क्रांतिकारी बदलावों के साथ स्वयं को बदलना होगा।

ब्रेख्त और लुकाच के बीच चल रहे इस तिर्यक वाद-विवाद में, ब्रेख्त का वैध और तीखा प्रतिवाद सरल भी है और स्फूर्तिकारक भी। 1968 में अपने राजनैतिक पुनर्जन्म के बाद ब्रेख्त के तर्कों को पश्चिम जर्मनी के मार्क्सवादी वामपंथी तबकों में भारी समर्थन मिला। लुकाच के सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांतों की बहुत थोड़े आलोचक इतनी सारगर्भित आलोचना कर सके। वर्तमान कलाओं के आकलन के लिए अपने विरोधी द्वारा की गई संस्तुतियों में ब्रेख्त द्वारा खोजी गई असंगतियाँ और अंतर्विरोध लगभग अनुत्तरित ही रहे हैं। शायद इसलिए भी कि समाजवादी आंदोलन में किसी भी अन्य मार्क्सवादी लेखक ने इतने पुरजोर तरीके से कलात्मक स्वतंत्रता और नवाचार की वकालत नहीं की।
ब्रेख्त की भावनाओं की प्रगाढ़ता और अपने काम के प्रति खतरे को, जो वे लुकाच और मास्को में बैठे उनके साथियों की रूपवाद के प्रति आलोचना में छुपा हुआ देखते थे, बेंजामिन को लिखे गए उनके एक पत्र में देखा जा सकता है- ‘‘सीधे-सीधे कहा जाए तो ये सब उत्पादन के दुश्मन हैं। उत्पादन उन्हें असहज बना देता है। आप नहीं जान सकते हैं कि उत्पाद के साथ आप कहाँ होंगे, उत्पादन एक अज्ञात चीज है, आप नहीं जानते कि बाहर क्या आएगा, और वे खुद कुछ बताना भी नहीं चाहते। वे बस संदेशवाहक बने रहना चाहते हैं और हर चीज पर नियंत्रण कर लेना चाहते हैं। उनकी हर आलोचना में एक धमकी छुुपी होती है।’’ कलाकार की आलोचक के प्रति ये प्रतिक्रिया, कर्ता का दर्शक के प्रति यह दृष्टिकोण, ब्रेख्त के तर्कों को ताकत प्रदान करता है। लेकिन इसके साथ ही, यह उसकी उन सीमाओं को भी इंगित करता है जो नकारात्मक हैं। जहाँ ब्रेख्त एक ओर तो लुकाच की साहित्यिक सैद्धांतिकी में कमजोरियां और अंतर्विरोध खोज पाते हैं वहीं दूसरी ओर वे कोई भी धनात्मक विकल्प प्रदान करने में अक्षम नजर आते हैं। अपनी तमाम संकीर्णता और कठोरता के बावजूद लुकाच का काम ज्ञानोदय (एनलाइटनमेंट) के समय से यूरोपियन साहित्य में हुए ऐतिहासिक विकास को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का व्यवस्थित प्रयास था। बीसवीं शताब्दी की कलाओं के लिए निकाले गए उनके नियम प्रतिगामी और व्यामोह से ग्रसित लग सकते हैं लेकिन एक विश्लेषक के रूप में, भविष्य को समझने के लिए भूतकाल पर ध्यान देने को एक अनिवार्य शर्त मानते हुए, वे ब्रेख्त की बनिस्बत कहीं ज़्यादा गंभीर नज़र आते हैं।

ब्रेख्त के सौंदर्यशास्त्रीय निष्कर्ष, उनके अपने नाटकों के लिए तैयार नोट्स की तरह थे, ये अपने आप में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। ये भी कहा जा सकता है कि नाटकों के बारे में उनके सिद्धांत उनकी अपनी कार्यशैली के प्रति एक त्वरित माफीनामे की तरह थे इसके बदले कि वे एक सार्वभौमिक प्रतीक के रूप में उभरते। ब्रेख्त के नियम लुकाच से कहीं अधिक मुक्तिदायक थे पर, उनकी सैद्धांतिक समझ बहुत ही उथली थी। लुकाच के सिस्टम की सबसे बड़ी खामी उसका यूरोप केन्द्रित होना था और वहाँ भी, वे यूरोपीय साहित्य की विविधताओं के बीच मनमाने ढंग से चुनाव कर रहे थे- संक्षेप में, उनमें इतिहास बहुत कम था। ब्रेख्त स्वयं उन गलतियों को ठीक करने की स्थिति में नहीं थे। यूरोपियन इतिहास के प्रति उनका अपना दृष्टिकोण ज्यादा से ज्यादा उदार और अनुभववादी था (‘‘कहीं से भी, कुछ भी उठा लेना, इसके बदले कि निषेधात्मक परंपराओं को देखना’’)। एशियाई संस्कृतियों के प्रति उनका छिटपुट किस्म का उत्साह बहुत ही सतही था, कुछ-कुछ मिथकीय।
पश्चिमी जर्मनी में विकसित हुई वर्तमान प्रवृत्ति जो मार्क्सवाद के भीतर उभरी, केंद्रीय सौंदर्यशास्त्रीय बहसों को दरकिनार करती है और लुकाच और ब्रेख्त के बीच के वैषम्य को भी। वह उन सीमांतों को नहीं पहचान पाती जो दोनों के बीच समान थे। अपने समय में लुकाच की जॉयस के प्रति, और ब्रेख्त की मान के प्रति वितृष्णा, ये बताते हैं कि उन दोनों में किस तरह का विभेद था। पर, दोनों के द्वारा दास्तोएवस्की और काफ्का की भर्त्सना और उनके बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक बंधन उस साम्य को भी बताता है जिसने उन्हें तीस के दशक का वार्ताकार और प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनाया।

इसी श्रेणी की संबद्धता हमें दो अन्य जर्मन मार्क्सवादियों में भी देखने मिलती है जो इसी समय में साहित्य सृजन कर रहे थे। ये थे- बेंजामिन और अडोर्नो। दोनों ने, विशेषकर अडोर्नो ने, काफ्का के काम को केन्द्रीय महत्व दिया, यदि मलारमे और प्रूस्ट की बात छोड़ भी दी जाए तो। इसी के साथ-साथ बेंजामिन और अडोर्नो तथा ब्रेख्त और लुकाच के बीच संबंधों में एक असाधारण संतुलन भी दिखाई देता है। जब नाजियों ने जर्मनी में अपनी सत्ता पुख्ता कर ली तो विस्थापित दो विपरीत दिशाओं में गए। 1938 तक लुकाच यू.एस.एस.आर. में स्थापित हो चुके थे और अडोर्नो अमेरिका में। ब्रेख्त डेनमार्क में अकेले रह गए थे और बेंजामिन फ्रांस में। ब्रेख्त और बेंजामिन की व्यक्तिगत और राजनैतिक दोस्ती ज्यादा गहरी थी बनिस्बत लुकाच और अडोर्नो के साथ उनके औपचारिक संबंधों के। फिर भी उनका बौद्धिक तनाव प्रतीकात्मक रूप से मास्को और न्यूयार्क में बिखरे पत्रकारों के कारण था। दोनों ही राजधानियों से इन दोनों व्यक्तियों के सामने बौद्धिक चुनौतियाँ फेंकी जाती थीं जो उनके काम की दिशाओं के साथ गुत्थम-गुत्था होती रहती थीं। दोनों ही मामलों में विचारधारात्मक प्रश्न सांस्कृतिक दबावों से मुक्त नहीं थे लेकिन, वे सिर्फ सांस्थानिक दबावों में ही नहीं बदल गए थे। कम्युनिस्ट आंदोलनों के संगठकों ने लुकाच और ब्रेख्त के बीच एक उभयनिष्ठ जमीन खोज ली थी जबकि इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च के दुर्ज्ञेय वातावरण ने बेंजामिन और अडोर्नो को पास ला दिया था। पर, अंततः अडोर्नो द्वारा की गई बेंजामिन की आलोचना और लुकाच द्वारा की गई ब्रेख्त की आलोचना ने ज्यादा ताकतवर स्थान हासिल किया क्योंकि वे ज्यादा अकाट्य थीं और अपने विरोधी तर्कों के ज्यादा निकट थीं। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि ‘पश्चिम’ के वाद-विवाद ने अपने ‘पूरब’ के प्रतिरूप की तरह दो समस्याओं को उठाया- एक, 19वीं शताब्दी की ऐतिहासिक कला और वर्तमान के लक्ष्य और दो, बीसवीं शताब्दी की सौंदर्यशास्त्रीय परिस्थितियाँ। ब्रेख्त की इस इच्छा का सम्मान करते हुए कि मार्क्सवादी साहित्यिक सैद्धांतिकी को उपन्यास से बाहर निकलना चाहिए, अडोर्नो – बेंजामिन संवाद में बॉडलेयर की कविता को लक्षित किया गया। जहाँ लुकाच और ब्रेख्त के बीच का तात्कालिक संघर्ष इस बात पर केंद्रित था कि राजनैतिक संघर्ष के बीच समाजवादी कलाओं का स्वरूप क्या होना चाहिए, वहीं, बेंजामिन और अडोर्नो का आधुनिक सांस्कृतिक कार्यवाही पर केंद्रित विवाद अलग बिंदुओं को उठाता था- वह ‘नये और समानान्तर’ तथा ‘व्यावसायिक कलाओं’ के बीच, पूंजी के भीतर रहते हुए, संबंधों की तलाश करता था। इस समस्या के सातत्य और असाध्यता ने इसे वामपंथी सौंदर्यशास्त्रीय बहस का केंद्र बिन्दु बना रखा है जहां ‘उच्च’ और ‘निम्न’ कलाओं का अंतर्विरोध- एक वह जो व्यक्तिपरक होते हुए भी प्रगतिशील होती है किन्तु अपनी विषयपरकता में श्रेष्ठि वर्ग की दिखती है और दूसरी वो जो अपनी विषयपरकता में लोकप्रिय होती है लेकिन व्यक्तिनिष्ठता में प्रतिगामी नजर आती है- कभी सुलझाया नहीं जा सका है, अपनी लँगड़ी और जटिल द्वंद्वात्मकता के बावजूद। इस इतिहास की पृष्ठभूमि में ब्रेख्त की कला एक असाधारण उन्मुक्ति की तरह आती है। उनका नाटक रुसी क्रांति के बाद एक ऐसे महत्वपूर्ण कला रूप की तरह सामने आता है जो अपने रूप से कोई समझौता नहीं करता फिर भी दुराग्रही होने की हद तक लोकप्रिय होना चाहता है। लुकाच के साथ चल रहे तर्क में ब्रेख्त का सबसे मजबूत दावा यह है कि उसके नाटकों ने जर्मन मजदूर वर्ग के साथ गहरा तादात्म्य स्थापित कर लिया है। इस दावे की वैधता को जाँचा जाना ज़रूरी है। वाइमर शासन में ब्रेख्त की सबसे बड़ी सफलता – दि थ्री पेनी ऑपेरा – बड़ी संख्या में बुर्जुआ दर्शकों और व्यवसायिक थियेटरों के कारण सफल हुई थी, एक मार्क्सवादी के रूप में उनका रूपान्तरण इसके बाद हुआ। उनके सबसे महान नाटक निर्वासन और युद्ध के दौरान लिखे गए जब उनका जर्मन दर्शकों से कोई संबंध नहीं था (मदर करेज़ 1939, गैलिलियो गैलिली 1939 पुंतिला 1941, दि कॉकेसियन चॉकसर्किल 1944-45)। अंततः जब उन्हें युद्ध के बाद पूर्वी जर्मनी में खेला गया तो उनके दर्शक मूलतः मजदूर वर्ग के थे। क्योंकि कोई वैकल्पिक मनोरंजन (ये ब्रेख्त के ही शब्द हैं) उपलब्ध नहीं था इसलिए बर्लिनेर एन्सेबल द्वारा, खेले गये नाटकों पर मजदूर वर्ग की प्रतिक्रिया और वास्तविकता को मापना मुश्किल है। फिर भी, इस बात में शंका नहीं की जा सकती कि ब्रेख्त की नाट्य कला का ढाँचा इतना सुंदर और प्रांजल तो था ही कि वह उन दर्शकों द्वारा समझा जा सके जिनके लिए वो तैयार किया गया था। इस नाटक की उपलब्धि उसका एकाकीपन है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद कई समाजवादी लेखकों की उपस्थिति होने के बावजूद कोई तुलनात्मक रूप से इतना समृद्ध कार्य यूरोप में नहीं किया गया। जबकि, पश्चिम में बेकेट का उच्च कलाओं के नए अवतार के रूप में उत्थान (जिनका अडार्नो ने अभिषेक किया था) इसलिए किया गया था कि ब्रेख्त ‘गोडो’ के जवाब में एक नाटक लिखें। ब्रेख्त की मौत के कुछ दिनों पहले हुई इस घटना में ब्रेख्त के संश्लेषण की कमजोरियाँ उभरकर सामने आ गई थीं जिन्हें बाद के सौंदर्यशास्त्रीय विकास ने पुष्ट किया। ज्याँ लूक गोडार्ड के सिनेमा के पतन ने, जो खुद पिछले दशक के एक बहुत प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी क्रांतिकारी कलाकार थे और जिनका पतन तब हुआ जब उन्होंने राजनैतिक पक्षधरता का आरोहण करना चाहा वैसा ही जैसा ब्रेख्त ने तीस के दशक में किया था, इस बात का प्रमाण है कि इस विस्तारवादी विश्व में सांस्कृतिक नवाचार का काजल लगाने पर किस तरह की कठोरता का सामना करना पड़ता है। ब्रेख्त का उदाहरण एक ऐसी सीमा रेखा है जिसे कोई अभी तक पार नहीं कर पाया है, यहाँ तक कि कोई उस तक पहुँच भी नहीं सका है।

जार्ज लुकाच के विरुद्ध बर्तोल्त ब्रेख़्त

I. जार्ज लुकाच के निबंध

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि जार्ज लुकाच के निबंधों में, हालाँकि उनमें बहुत सी मूल्यवान सामग्री होती है, कुछ असंतोषजनक सा क्या होता है। वे एक पुख्ता सिद्धान्त से शुरु करते हैं फिर भी आपको यह महसूस होता है कि वे यथार्थ से कुछ दूर हैं, वे बुर्जुआ उपन्यास की उन ऊँचाईयों से पतन के कारणों की तलाश करते हैं जहाँ वह अपनी प्रगतिशील वर्गीय भूमिका में पहुंचा था। आधुनिक उपन्यासकारों के बारे में वे कितनी ही विनम्रता बरतें, वे उनमें भी पतनशीलता देखने से बच नहीं पाते, जब वे बुर्जुआ उपन्यास के शास्त्रीय स्वरूप की तर्ज पर यथार्थवादी उपन्यास लिख रहे होते हैं। उनमें उन्हें शास्त्रीय उपन्यासकारों की तरह का यथार्थवाद नहीं दिखाई देता जिसमें गहराई, व्यापकता और आक्रामकता तीनों हों। पर उनसे अपने वर्ग से ऊपर उठने की आशा कैसे की जा सकती है? वे उपन्यास की तकनीक में भी उसी तरह की सड़न का प्रमाण देते हैं, उसमें बहुत सारी तकनीक होती है, इतनी, कि लगता है उपन्यास अजीब तकनीकी किस्म की रचना बन गया है। इसे एक तरह का आतंक कह लीजिए, एक रूपवादी गुण चुपके-चुपके अपने आप को शास्त्रीय उपन्यासों के यथार्थवादी ढाँचे में घुसा लेता है। इसका कुछ विस्तार बड़े विलक्षण किस्म का है। वे लेखक भी, जो यह जानते हैं कि पूंजीवाद गरीबी बढ़ाता है, आदमियों को अमानवीय और यांत्रिक बनाता है और जो उससे लड़ते नजर आते हैं, खुद वैचारिक रूप से गरीब नजर आते हैं क्योंकि वे अपने लेखन में मनुष्य को ऊपर उठाने की चिन्ता नहीं करते, उसे गतिशील घटनाओं से गुजारते हैं और उसके यांत्रिक जीवन को तुच्छ मानते हैं। वे भी एक किस्म का सामान्यीकरण करते हैं। वे भौतिकी की ‘प्रगति’ की तरफ चले जाते हैं, वे सुनिश्चित कारणों की तरफ जाने के बदले आँकड़ों पर आधारित हो जाते हैं जहाँ व्यक्ति को छोड़कर बड़े समूहों की बात होने लगती है, वे अपने तरीके से श्रॉडिंगर के अनिश्चितता के सिद्धांत की बात करने लगते हैं, वे दर्शक से उसके अधिकार छीन लेते हैं और पाठक को खुद के खि़लाफ़ खड़ा कर देते हैं और ऐसा करते समय, वे व्यक्तिपरक तर्क देते जाते हैं जो असल में खुद उन्हें ही परिभाषित कर रहे होते हैं (गिडे, जॉयस, डबलिन)। आप उपरोक्त सभी अवलोकनों में लुकाच के पीछे चल सकते हैं और उसकी असहमतियों को स्वीकार कर सकते हैं। पर तब हम लुकाच के विचारों के सकारात्मक और रचनात्मक पहलुओं की ओर आते हैं। वह बस एक हाथ हिलाकर ‘अमानवीय’ तकनीक को परे कर देता है। वह अपने पूर्वजों की ओर मुड़ता है और उनके पतनशील वंशजों को उनकी नकल उतारने को कहता है, क्या लेखक एक अमानवीय मनुष्य के सामने खड़ा हैं? क्या उसका आध्यात्मिक जीवन पूरी तरह नष्ट हो गया है? क्या वह असहनीय गति के साथ अपने अस्तित्व के बीच से भागा जा रहा है? क्या उसकी तार्किक शक्तियाँ क्षीण हो गई हैं? क्या चीजों के बीच के संबंध बिल्कुल ही अदृश्य हो गये हैं? लेखक को बस करना यह है कि वो पुराने उस्तादों का अनुसरण करें, जीवन को आत्मिक ऊँचाईयों तक पहुँचाए, धीमी आख्यानत्मकता के साथ घटनाओं की गति को धीमा करें और मनुष्य को पुनः केन्द्रीयता प्रदान करे आदि आदि। यहाँ निश्चित तथा सुस्पष्ट नियम एक धीमी फुसफुसाहट में बदल जाते हैं। स्पष्ट है कि उसके प्रस्ताव अव्यावहारिक हैं। किसी को भी, जो लुकाच के मूल सिद्धांतों में विश्वास रखता है इस पर आश्चर्य नहीं होगा। तो क्या इसका कोई हल नहीं है? हल है। नया अग्रगामी वर्ग इसका संदेश देता है। ये पीछे जाने वाला रास्ता नहीं है ये पुराने अच्छे दिनों से नहीं बल्कि नये बुरे दिनों से जुड़ा हुआ है। ये तकनीक का नाश करना नहीं चाहता बल्कि उसे विकसित करना चाहता है।
जनता से बाहर निकलकर आदमी नहीं बनता वह जनता के बीच रहकर ही आदमी बनता है। जनता अपनी अमानवीयता छोड़ती है और तब आदमी दोबारा आदमी बन पाता है लेकिन अब वह पुराना आदमी नहीं रहता। ऐसे अमानवीय समय में, जब जनता ऐसी सब चीजों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है जो मूल्यवान और मानवीय हैं, जब वह इस फासीवादी समय में लोगों को पूँजीवाद द्वारा पैदा की गई अमानवीयता के खिलाफ खड़ा कर रही है, तब साहित्य को भी यही रास्ता पकड़ना चाहिए। आत्मसमर्पण का तत्व, पलायन का तत्व और यूटोपियन आदर्शवाद का यह तत्व ही वह चीज़ है जो लुकाच के निबंधों में से झाँकती है, जिस पर वे निश्चित ही विजय पा लेंगे, और फिलहाल जो उनके मूल्यवान काम को असंतोषजनक बनाता है क्योंकि वह ऐसी छाप छोड़ता है जैसे उनके लिए आनंद संघर्ष से ज़्यादा जरूरी है और पलायन आगे बढ़ने से।

II. यथार्थवादी सैद्धांतिकी के रूपवादी चरित्र के बारे में

यथार्थवादी सैद्धांतिकी का रूपवादी चरित्र न सिर्फ इस बात से प्रमाणित होता है कि वह लगभग पूरी तरह पिछली शताब्दी के बुर्जुआ उपन्यासों के रूप पर आधारित है (अगर नये उपन्यासों का जिक्र भी किया गया है तो वह पुरानो के उदाहरण के रूप में ही), बल्कि इससे भी कि वह सिर्फ उपन्यास केिन्द्रत है। तो फिर कविता में और नाटक में यथार्थवाद का क्या हुआ? ये वो दो विधाएँ हैं जिन्होंने विशेषकर जर्मनी में बड़ी ऊँचाईयाँ हासिल कीं।

मैं इस पर व्यक्तिशः बात करना चाहूंगा जिससे कि अपने तर्क के पक्ष में ठोस सामग्री जुटा सकूँ। मेरी गतिविधियाँ बहुत विविध किस्म की हैं और उनसे बहुत भिन्न, जिस पर हमारे यथार्थवादी सिद्धान्तकार विश्वास करते हैं। वे मेरे बारे में बहुत ही एकपक्षीय चित्र प्रस्तुत करते हैं। आज के समय में मैं दो उपन्यासों, एक नाटक और एक काव्य संग्रह पर काम कर रहा हूँ। इनमें से एक उपन्यास ऐतिहासिक है और रोमन इतिहास के क्षेत्र में व्यापक शोध की मांग करता है। यह व्यंग्यात्मक है। अब देखिए कि उपन्यास हमारे सिद्धान्तकारों की पहली पसंद है। मैं कोई मजाक नहीं उड़ा रहा हूँ, जब मैं कहता हूँ कि मुझे अपने इस उपन्यास के लिए उनसे छोटी-सी मदद भी नहीं मिलती जिसका नाम है ‘दी बिजनेस अफेयर्स ऑफ हर जूलियस सीजर’। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासों की कार्य पद्धति, जिसमें लम्बे-लम्बे ड्राइंगरूम दृश्यों में कई तरह के व्यक्तिगत संघर्षों को इकट्ठा कर दिया जाता है, मेरे किसी काम के नहीं। बड़े अध्यायों के लिये मैंने डायरी के फॉर्म का उपयोग किया है। अन्य अध्यायों के लिये मुझे अपना दृष्टिकोण बदलना ज़रूरी लगा। दो काल्पनिक लेखकों के, दृष्टिकोणों के फिल्म जैसे दृश्य, मेरे दृष्टिकोण को समाहित करते हैं। शायद इसे जरूरी नहीं होना चाहिए था और ये इच्छित ढांचे में समाहित भी नहीं हो पाता, लेकिन यथार्थ के प्रस्तुतीकरण के लिये मुझे यह तकनीक अच्छी लगी और इसे अपनाने का मेरा मंतव्य पूरी तरह यथार्थवादी है। दूसरी तरफ मेरा नाटक दृश्यों की एक ऐसी श्रृंखला है जो नाजियों के अन्तर्गत जीवन को दर्शाती है। मैंने अब तक सत्ताईस दृश्य लिखे हैं और उनमें से कुछ, ‘यथार्थवादी’ कहे जा सकते हैं यदि आप अपनी एक आँख बन्द कर लें। आश्चर्यजनक रूप से बाकी के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि वे बहुत छोटे हैं। पूरा नाटक तो किसी भी तरह यथार्थवादी ढाँचे में फिट नहीं होता लेकिन फिर भी मैं इसे यथार्थवादी नाटक मानता हूँ। मैंने इसको लिखते समय, किसान ब्रुगेल के चित्रों से ज्यादा सीखा बनिस्बत यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी से।
दूसरे उपन्यास के बारे में मैं लगभग नहीं के बराबर बोलने की हिम्मत जुटा पा रहा हूँ जिस पर मैं लम्बे समय से काम कर रहा हूँ। उससे जुड़ी हुई समस्याएँ इतनी जटिल हैं और सौन्दर्यशास्त्रीय यथार्थवाद की शब्दावली इतनी सीमित है कि मैं उस पर बात ही नहीं कर सकता। इसमें रूप संबंधी कठिनाइयाँ भी विशाल हैं। मैंने लगातार कुछ मॉडल बनाने की कोशिश की है। जिसने मुझे काम करते देखा है वह सोचता होगा कि मैं रूप संबंधी प्रश्नों से ही उलझता रहता हूँ। लेकिन मैं ये मॉडल इसलिये बनाता हूँ कि मैं यथार्थ को प्रस्तुत करना चाहता हूँ। अपनी छंदात्मक कविताओं में भी मैं यथार्थवादी दृष्टिकोण रखता हूँ। लेकिन ये मानता हूँ कि आपको उन्हें लिखते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिये। दूसरी ओर उपन्यास और नाटक से यथार्थवाद के बारे में बहुत कुछ सीखने मिल सकता है।

अब जबकि मैं वृहद ऐतिहासिक ग्रंथों के ढेर में कुछ खोज रहा हूँ (ये चार भाषाओं में हैं, और दो प्राच्य भाषाओं के अनुवाद हैं।) और संशय से भरे हुए किसी तथ्य को जाँचने की कोशिश कर रहा हूँ और कहा जाए तो अपनी आँखों की किरकिरी को मसलते हुए, मेरे दिमाग़ में कुछ धुँधले से रंग उभर रहे हैं जिनमें अलग-अलग मौसमों के रंग हैं, मुझे बिना शब्दों के कुछ ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं, बिना अर्थों के कुछ इशारे दिखाई देते हैं और मैं कुछ अनाम चेहरों के इच्छित समूह बनाने लगता हूँ। ये बिंब पूरी तरह अपरिभाषित हैं, किसी भी तरह से उत्तेजक नहीं और सतही सा है, या ऐसा मुझे लगता है। पर वह है। मेरे भीतर का ‘रूपवादी’ काम कर रहा है। फिर धीरे-धीरे ‘क्लाडियस’ की ‘फ्यूनरल बेनिफिट ऐसोसियेशन’ का महत्व मेरे ऊपर खुलता है और मैं अपनी इस खोज से खुश हो जाता हूँ। मैं सोचता हूँ कि काश मैं एक लम्बा पारदर्शी, शरदकालीन, स्फटिक जैसा पारदर्शी, अध्याय लिख पाता जिसका ग्राफ कुछ अनियमित जैसा होता, जिसके आरपार होकर एक लाल रंग की लहर निकल जाती। शहर ने अपने जनतांत्रिक ‘सिसरो’ को दूतावास में रख दिया है, वह हथियारबंद स्ट्रीट क्लब्स पर प्रतिबंध लगा देता है, जो अपने आपको शांतिपूर्ण ‘फ्यूनरल बेनिफिट एसोसियेशंस’ में बदल लेते हैं। शरदकाल में पत्तियाँ अब स्वर्णिम हो चुकीं हैं। एक बेरोजगार का मृत्यु संस्कार दस डालर में होता है, आप पूर्व शुल्क चुका कर सदस्य भी बन सकते हैं, मगर अगर आपने मरने में देर लगा दी तो आपको नुकसान हो जाएगा। पर देखिए कि हमारे पास लाल रंग की तरंग है। तो कभी-कभी इन एसोसिएशंस में हथियार निकल आते हैं, सिसरो को शहर से बाहर निकाल दिया जाता है, उसे नुकसान होता है, उसका घर जला दिया जाता है, जिसकी कीमत लाखों रुपए थी। कितने लाख? चलिए देखते हैं- छोड़िए, इसका कोई महत्व नहीं है। ईसा पूर्व 9 नवम्बर 91 को स्ट्रीट क्लब कहाँ थे? ‘‘सज्जनो मैं इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता’’ (सीजर)। मैं अपने काम के शुरुआती चरण में हूँ। क्योंकि एक कलाकार लगातार रूपवादी मसलों पर विचार करता रहता है, क्योंकि वह लगातार एक रूप का निर्माण ही करता है, इसलिए आपको रूपवाद को गंभीरतापूर्वक और व्यवहारपरकता के साथ परिभाषित करना चाहिए, अन्यथा ये कलाकार को कुछ भी सम्प्रेषित नहीं करेगा। यदि कोई हर उस कलात्मक रचना को रूपवादी कहना चाहेगा जो यथार्थवादी है- और यदि कोई आपसी समझ बनायी जानी है- तो फिर उसे रूपवाद के विचार को सौंदर्यशास्त्रीय संदर्भों में नहीं रखना चाहिए। एक तरफ रूपवाद और दूसरी तरफ कथ्यवाद। ये चीज़ों को समझने का बहुत पुराना और तत्ववादी तरीका है। सौंदर्यशास्त्रीय संदर्भों में सोचा जाए तो यह विचार कोई बड़ी कठिनाई उपस्थित नहीं करता। उदाहरण के लिए अगर कोई ऐसा वक्तव्य देता है जो असत्य है या बेमानी है लेकिन एक छंदात्मक ध्वनि उत्पन्न करता है तो वह एक रूपवादी हुआ। पर हमारे पास असंख्य ऐसी गैर यथार्थवादी रचनाएँ हैं जिनमें रूपवादी अनुभूति तो है लेकिन उन्हें रूपवादी कहा नहीं जाता।
हम पूरी तरह बोधगम्य रहते हुए भी इस विचार का और व्यावहारिक और रचनात्मक विस्तार कर सकते हैं। इसके लिए हमें साहित्य से हटकर दैनंदिन जीवन की ओर देखना होगा। वहाँ रूपवाद क्या है? इस वाक्य को देखिए:- औपचारिक रूप से वो सही है। इसका मतलब है वह वास्तव में सही नहीं है पर, चीज़ों के बाह्य रूप को देखा जाए तो वह सही दिखाई देता है, लेकिन सिर्फ रूप के अनुसार ही। या एक और वाक्य देखिए; औपचारिक रूप से काम खत्म हो गया। इसका मतलब है कि काम ख़त्म नहीं हुआ, या मैंने इतना ही किया कि उसके बाह्य रूप को बनाए रखा। इसका मतलब है कि मैंने जो किया वह महत्वपूर्ण नहीं था। मैं करता तो वहीं हूँ जो मुझे करना होता है, पर मैं बाह्य रूप को बनाए रखता हूँ जिससे मैं जो चाहूँ कर सकूँ। जब मैं पढ़ता हूँ कि थर्ड राइक की आत्मनिर्भरता संपूर्ण थी तो मैं समझ जाता हूँ कि यह राजनैतिक रूपवाद का एक उदाहरण है। राष्ट्रीय समाजवाद, समाजवाद का एक रूप है- एक और राजनैतिक रूपवाद। यहाँ हम रूप की अधिकतम अनुभूति से नहीं जूझ रहे हैं।
यदि हम विचार को इस तरह परिभाषित करते हैं तो वह बोधगम्य भी हो जाता है और महत्वपूर्ण भी। फिर जब हम साहित्य की ओर लौटते हैं (दैनंदिन जीवन को पूरी तरह न छोड़ते हुए) तो हम उस साहित्यिक रचना को पहचान सकते हैं जो साहित्यिक रूप को सामाजिक कथ्य पर तरजीह तो नहीं देती, लेकिन फिर भी यथार्थवादी नहीं है। और हम उन रचनाओं को भी पहचान सकते हैं जो अपने रूप में यथार्थवादी हैं। ऐसी ढेर सारी रचनाएँ हैं। रूपवाद को इस तरह का अर्थ देने के बाद हम उस घटना के लिए पैमाना बना सकते हैं जिसे अवाँ गार्द (अग्रसर रचना) कहा जाता है। एक हरावल दस्ता पीछे की ओर भी मुड़ सकता है और गड्ढे में भी गिर सकता है। वह मुख्य सेना से इतना आगे निकल सकता है कि उसकी आँख से ओझल हो जाए। इस तरह उसका अ-यथार्थवादी चरित्र उजागर हो जाता है। यदि वह अपने मूल शरीर से विच्छिन्न हो जाए तो हम पता कर सकते हैं कि वह क्यों और कैसे उससे दोबारा जुड़ेगा। प्रकृतवाद और अराजकतावादी दृश्य चित्रों से उनके सामाजिक प्रभावों के माध्यम से मुठभेड़ की जा सकती है, यह बताते हुए कि वे सिर्फ सतह पर दिखने वाले लक्षणों को प्रदर्शित कर रहे हैं न कि समाज के भीतर की गहरी जटिलताओं को। एक पूरे के पूरे साहित्यिक प्रदेश को, जो कि रूप के अनुसार क्रांतिकारी दिखता है, सुधारवादी सिद्ध किया जा सकता है, ये बताते हुए कि वह सिर्फ कागज़ पर औपचारिक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा है। रूपवाद की इस तरह की गई परिभाषा उपन्यास, छंद, कविता और नाटक को लिखने में मदद करती है और अंत में, वह आलोचना की उस रूपवादी पद्धति को पूरी तरह खारिज कर देती है जो सिर्फ रूप में विश्वास करती थी, जो सिर्फ एक काल में लिखी गई एक विधा के प्रति समर्पित थी। यह परिभाषा साहित्य-सृजन की वर्तमान कठिनाइयों को सुलझाने का यत्न करती है हालांकि उसने अपने में एक ऐसी दृष्टि को समाहित कर लिया है, जो कभी-कभी साहित्यिक आधारों पर, अपने ऐतिहासिक भूतकाल में भी झाँक आती है। जॉयस के महान व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘यूलिसिस’ में- लिखने की विविध प्रविधियों और अन्य असाधारण तत्वों के अलावा- एक अंतरंग आत्मालाप भी है। एक निम्न मध्यम वर्गीय महिला बिस्तर पर सुबह के समय लेटी हुई है और स्मृति में चली जाती है। उसके असंबद्ध विचार प्रस्तुत किए जाते हैं जो कभी एक-दूसरे को काटते हैं कभी एक-दूसरे में प्रवेश कर जाते हैं। यह अध्याय फ्रायड के अलावा और कोई नहीं लिख सकता था और इसके लेखक पर जिस तरह के हमले हुए वे वैसे ही थे जैसे फ्रायड को अपने समय में झेलने पड़े। आरोपों की बारिश कुछ इस तरह थी; अश्लील है, कचरे में रुग्ण आनंद ढूँढता है, नाभि के नीचे की घटनाओं को ज्यादा महत्व देता है आदि-आदि। आश्चर्यजनक रूप से कुछ मार्क्सवादियों ने भी अपने आपको इस बकवास से जोड़ लिया और अपनी ओर से उसमें निम्न मध्यमवर्ग के प्रति अपनी घृणा को भी शामिल कर लिया। तकनीक के रूप में भी अंतरंग आत्मालाप को ख़ारिज कर दिया गया, उसे रूपवादी माना गया। मुझे इसका कारण कभी समझ नहीं आया। सिर्फ इसलिए कि टॉल्सटॉय इसको कुछ अलग तरीके से करते, जॉयस की पद्धति को ख़ारिज नहीं किया जा सकता। ये आलोचना इतनी सतही थी कि ऐसा महसूस हुआ, कि यदि जॉयस ने इस आत्मालाप के बदले किसी मनोवैज्ञानिक के साथ संवाद कराया होता तो सब कुछ ठीक हो जाता। ये बताना अत्यंत आवश्यक है कि अंतरंग आत्मालाप एक ऐसा तरीका है जिसको प्रयोग में लाना बहुत कठिन है। बिना किसी सुस्पष्ट पैमाने के (जो तकनीकी ही होगा) आंतरिक आत्मालाप किसी भी तरह से यथार्थ को प्रस्तुत नहीं करता, या यूँ कहा जाये, कि विचार की संपूर्णता और संबद्धता को प्रस्तुत नहीं करता, जैसे कि वह ऊपर से करता नज़र आता है। वह सिर्फ औपचारिकता का एक और उदाहरण है जिसे हमें संज्ञान में लेना चाहिए- यथार्थ के साथ की गई एक तरह की जालसाज़ी। ये वैसी कोई रूपवादी समस्या नहीं है जिसे ’चलो टॉल्सटॉय की ओर’ कहकर निपटाया जा सके। रूपवादी संदर्भों में हमारे पास ये आंतरिक आत्मालाप पहले भी था जिसे हम मूल्यवान मानते थे। मैं इस समय टकोलस्की के बारे में सोच रहा हूँ।
कई लोगों के लिए अभिव्यंजनावाद की बात करना, इच्छा स्वातंत्र्य की भावना को उभारना है। मैं भी एक समय में आत्म अभिव्यक्ति का व्यवसाय की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ़ था (वर्सूस के लिए अभिनेताओं को दिए गए, मेरे निर्देशों को देखें)। मैं दर्द से भरी उन दुर्घटनाओं के प्रति संदेह से भरा हुआ था जिनमें आदमी खुद से अलग नज़र आता है। इस स्थिति में कैसा महसूस होता है? ये बहुत जल्दी स्पष्ट हो गया, कि ऐसे लोग अपने आपको व्याकरण से मुक्त कर लेते हैं, पूंजीवाद से नहीं। हासेक को ‘श्वीक’ के लिए सर्वोत्तम पुरस्कार से नवाज़ा गया। पर मेरा विश्वास है कि मुक्ति के कार्यों को भी गंभीरता से लेना चाहिए। आज कई लोग अभिव्यंजनावाद पर हुए हमलों को देखने के अनिच्छुक हैं क्योंकि वे इस बात से डरते हैं कि स्वातंत्र्यकामी कार्यों को बिना किसी कारण के दबाया जा रहा है, आत्ममुक्ति संकुचित नियमों से जकड़ी हुई है और पुराने नियम बेड़ियाँ बन चुके हैं। इन हमलों का उद्देश्य भू-स्वामियों के कहने के तरीकों को बरकरार रखना है तब, जबकि स्वयं भू-स्वामियों को बुहार कर एक तरफ़ कर दिया गया है। राजनीति से एक उदाहरण लेते हुए कहा जाये तो यदि आप क्रांति करना चाहते हैं तो आपको क्रांति के बारे में पढ़ाना चाहिए, क्रमिक विकास के बारे में नहीं।
साहित्य, जैसा मैं समझता हूँ अपने विकास के क्रम में देखा जाना चाहिए, और यहाँ मेरा मतलब आत्म विकास से नहीं है। तब प्रयोगवादी चरणों को देखा जा सकेगा जिनमें दृश्य असह्य रूप से संकुचित हो जाता है, एकपक्षीय या बहुपक्षीय उत्पाद उभरते हैं और परिणामों को आरोपित करना कठिन हो जाता है- कुछ प्रयोग ऐसे होते हैं जिनका कोई परिणाम नहीं निकलता और कुछ ऐसे, जिनका परिणाम देर से निकलता है या आधा ही निकलता है। हम ऐसे कलाकारों को देखते हैं जो अपनी सामग्री के बोझ तले दबे जाते हैं- अंतःकरण से शुद्ध ऐसे व्यक्ति जो काम के परिमाण को तो समझते हैं, उससे दूर नहीं भागते, लेकिन उसे पूरा करने की पर्याप्त क्षमता नहीं रखते। वे अपनी गल्तियाँ नहीं समझ पाते, कई बार उनकी गल्तियों को अन्य लोग कठिनाइयों की तरह देखते हैं। उनमें से कुछ पूरी तरह, कुछ विशिष्ट सवालों में डूब जाते हैं- पर ये सभी वृत्त को आयत बनाने में व्यस्त नहीं रहते। दुनिया के पास इनके प्रति धैर्य दिखाने का अधिकार है और वह इस अधिकार का उपयोग भी करती है, ऐसा करने का उसके पास कारण भी है। कला कभी सफल होती है और कभी असफल। हमारे तत्व मीमांसकों को इस बात को समझना चाहिए। एक कलात्मक रचना बड़ी आसानी से असफल हो सकती है और वह कठिनाई के साथ सफल होती है। एक आदमी इसलिए चुप रह सकता है कि उसे कोई अनुभूति नहीं हो रही और दूसरा इसलिए कि भावना के कारण उसका गला भर आया है। तीसरा अपने आपको भावना के बोझ से इसलिए मुक्त करना चाहता है क्योंकि वह अपने आपको बहुत बंधा हुआ महसूस कर रहा था। चौथा आदमी अपने उपकरण इसलिए तोड़ डालता है क्योंकि वे उसके शोषण के काम में लिए जा रहे थे। दुनिया भावुक होने के लिये बाध्य नहीं है। पराजयों को स्वीकार किया जाना चाहिए, पर इसका अर्थ यह नहीं कि अब संघर्ष होंगे ही नहीं। मेरे लिए अभिव्यंजनावाद सिर्फ एक लज्जास्पद व्यापार नहीं है, सिर्फ एक विचलन। क्यों? क्योंकि मैं सिर्फ इसे एक ‘घटना’ नहीं मानता और इस कारण इसके माथे पर एक लेबल नहीं चिपका देता। वे यथार्थवादी जो सीखना चाहते हैं और चीज़ों को व्यावहारिक दृष्टि से देखते हैं इससे काफी कुछ ग्रहण कर सकते हैं उनके लिए कैसर, स्टर्नबर्ग, टॉलर और गोयरिंग के पास काफी कुछ सिखाने के लिए है। खोलकर कहें तो मैं वहाँ से ज्यादा आसानी से सीखता हूँ जहाँ मेरी तरह की समस्याओं को सुलझाया जा रहा होता है। साफ़-साफ़ कहें तो मैं टॉल्सटॉय और बालज़ाक से ज्यादा कठिनाई के साथ सीखता हूँ। उन्हें कुछ अन्य समस्याओं से जूझना पड़ा था। इसके अलावा- अगर आप मुझे कहने की अनुमति दें तो, उनका बहुत-सा हिस्सा मेरे शरीर का अंग बन चुका है। स्वाभाविक रूप से, जिस तरह से उन्होंने अपनी समस्याओं को निपटाया- मैं उस बात की प्रशंसा करता हूँ, आप उनसे भी सीख सकते हैं। पर अकेले उनके पास न जाएँ, अपने साथ स्विफ्ट और वॉल्टेयर जैसे लेखकों को भी ले लें। लक्ष्यों की विविधता तब स्पष्ट हो सकेगी और तब हम आवश्यक अमूर्तन कर पायेंगे और उन तक, अपनी समस्याओं के आधार बिन्दुओं की, पहुँच बना पायेंगे।
हमारे राजनीति से सम्पृक्त साहित्य के सामने जो सवाल खड़े हैं उन्होंने एक समस्या पर वास्तविक प्रभाव डाला है- वह है- किसी एक कलात्मक रचना के भीतर एक प्रविधि से दूसरी प्रविधि की ओर उछाल मारने की समस्या। यह प्रभाव बहुत व्यवहारिक रूप से आया। जब राजनैतिक और दार्शनिक संदेश कलात्मक ढाँचे को बनाने में असफल रहे, तब संदेश को यांत्रिक रूप से कथानक में घुसा दिया गया। यह संपादन सामान्यतः बहुत ही अकलात्मक रूप से किया गया- इस तरह कि कथानक के अकलात्मक रूप को जिसमें संदेश घुसा हुआ था, अनदेखा कर दिया गया (कथानक को वैसे भी ज्यादा कलात्मक माना जाता था बनिस्बत संपादन के)। अब एक गहरी खाई खुद गयी। व्यवहार में दो समाधान थे, संपादकीय प्रयत्न को कथानक में घुलाया जा सकता था या कथानक को संपादकीय प्रयत्न में, जिससे संपादकीय कार्य कलात्मक हो जाता, कथानक को कलात्मक बनाया जा सकता है और संपादकीय कार्य को भी (हाँ, इससे वह अपना संपादकीय गुण खो बैठता), एक मुहावरे से दूसरे की तरफ उछाल मारते हुए और उसे कलात्मक रूप देते हुए। ये समाधान कुछ नवाचारी लगता था। यदि आप चाहें तो कुछ पुराने मॉडल्स का ज़िक्र भी किया जा सकता है जिनकी कलात्मक गुणवत्ता किसी भी संदेह के परे थी जैसे- पुराने किस्म के गवाक्षों वाले नाटक में वृंदगान का अचानक रुक जाना। चाइनीज़ नाटकों में इस तरह के प्रयोग किए जाते हैं।
यह प्रश्न कि किसी को अपने विवरण में कितने संकेत चाहिए, और वे कितने नम्य होंगे या कितने नम्य नहीं होंगे यह अलग-अलग मामलों में व्यावहारिक दृष्टिकोण रखकर सुलझाया जा सकता है। कुछ रचनाओं में हमें अपने पूर्वजों से कम संकेतों की जरूरत पड़ती है। जहाँ तक मनोविज्ञान का सवाल है, यह पूछना कि नए स्थापित विज्ञान का प्रयोग किया जाए या नहीं, ये आस्था का सवाल नहीं है; इसके लिए प्रत्येक मामले को जाँच कर देखना पड़ेगा कि क्या कोई चरित्र वैज्ञानिक दृष्टि के समावेश के बाद बेहतर रूप से उभर पाया या नहीं, और जिस पद्धति का उपयोग किया गया वह उपयोगी पायी गयी या नहीं। साहित्य को मनुष्य द्वारा प्राप्त नए कौशलों से वंचित नहीं रखा जा सकता, जैसे- एक साथ कई चीज़ों का संज्ञान लेने की क्षमता, निर्भीक अमूर्तीकरण या तीव्र गति से किया गया समन्वय! यदि वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाना है तो फिर विज्ञान की अथक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी- ये जानने के लिए कि प्रत्येक मामले में कैसे उपरोक्त कौशलों का कलात्मक उपयोग हुआ है। कलाकारों को छोटा रास्ता पकड़ना पसंद है, वे हवा में से भी चीज़ें निकाल लेते हैं और बड़ी-बड़ी प्रक्रियाओं में से सचेत रूप से अपना रास्ता खोज़ लेते हैं। आलोचना को, कम से कम मार्क्सवादी आलोचना को, व्यवस्थित रूप से, और ठोस रूप से, कहा जाए तो वैज्ञानिक पद्धति से काम करना चाहिए। गैर ज़िम्मेदार बातचीत से यहाँ कोई मदद नहीं मिलने वाली- उसकी शब्दावली कितनी ही अच्छी हो। किसी भी हालत में यथार्थवाद की व्यावहारिक परिभाषा के दिशा-निर्देश सिर्फ साहित्यिक रचना से नहीं उठाये जा सकते (टॉल्सटॉय की तरह हो जाओ- उसकी कमज़ोरियों के बिना! बाल्ज़ाक की तरह हो जाओ- सिर्फ आधुनिकतम)। यथार्थवाद सिर्फ साहित्य का मामला नहीं है, यह एक प्रमुख राजनैतिक, दार्शनिक और व्यावहारिक सवाल है और उसे इसी तरह देखा जाना चाहिए- एक सामान्य मानवीय संदर्भ की तरह।

III. एक निबंध पर कुछ टिप्पणियाँ

आपको उन लोगों से बहुत अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए जो ‘रूप’ शब्द का प्रयोग बार-बार इस तरह करते हैं जैसे वह कथ्य से अलग हो, या ऐसे भी, जैसे कथ्य से जुड़ा हो, या ‘तकनीक’ को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, उसे ‘यांत्रिक’ मानते हैं। इस बात पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए कि वे शास्त्रीय मार्क्सवादी ग्रंथों का बार-बार हवाला देते हैं जहाँ ‘रूप’ नामक शब्द भी उतनी ही बार आता है। शास्त्रों ने कभी किसी को उपन्यास लिखना नहीं सिखाया और ‘यांत्रिक’ शब्द से भी किसी को डरने की ज़रूरत नहीं है, जब तक उसका मतलब ‘तकनीक’ से हो। दुनिया में एक तरह की ‘यांत्रिकता’ है जिसने विश्व की बड़ी सेवा की है- उसका नाम है टेक्नॉलॉजी। हममें से ‘सही सोच’ वाले मनुष्यों की, जिन्हें स्टालिन एक अलग संदर्भ में रचनात्मक मनुष्यों से अलग करके देखते हैं, आदत होती है कि वे कुछ शब्दों का मनमाना प्रयोग करते हुए हमारे दिमाग़ों को सम्मोहित कर लें। हमारी सांस्कृतिक परम्परा का प्रशासन करने वालों ने ये निर्णय कर दिया है कि ऐसे कोई भी चरित्र बचे नहीं रहने चाहिए जिनमें मानवीय संबंधों का संघर्षमय आदान-प्रदान न हो रहा हो, जहाँ ‘‘वास्तविक कार्य करते हुए मनुष्य की परीक्षा न ली जा रही हो’’, जहाँ ‘‘इन संघर्षशील मनुष्यों में निकटता के अंतर्संबंध न दिखते हों।’’ लेकिन हासेक में वे जटिल पद्धतियाँ कहाँ हैं जिनसे पुराने लेखक अपने कथानक बुनते थे? फिर भी उनका ‘श्वीक’ (कथानायक) ऐसा चरित्र है जिसे भुलाया नहीं जा सकता। मुझे पता नहीं है कि वह ‘बचेगा’ या नहीं, मैं यह भी नहीं जानता कि टॉल्सटॉय और बाल्ज़ाक के चरित्र बचेंगे या नहीं, मैं किसी भी अगले आदमी से ज़्यादा नहीं जानता। सच कहूँ तो मैं इस बचे रहने के विचार को ज्यादा तवज्ज़ो नहीं देता। हम ये कैसे देख सकते हैं कि हमारे भविष्य की पीढ़ियाँ इन चरित्रों की स्मृति बचाये रखना चाहेंगी या नहीं? (इस बात की बहुत ही कम संभावना है कि बाल्ज़ाक और टॉल्सटॉय उन्हें समझाने की स्थिति में होंगे, अपने कथानकों को बुनने के चाहे जितने चतुर तरीके वे अपना लें।) मेरा सोचना है कि यह एक सामाजिक रूप से प्रासंगिक वक्तव्य होगा, यदि कोई यह कहता है कि, ‘वह’ (यहाँ वह का अर्थ आधुनिक संदर्भों में है) ‘‘एक पियरे गोरियो चरित्र है।’’ शायद ऐसे चरित्र बचे ही नहीं रहेंगे? शायद वे ऐसी विकृत परिस्थितियों में उत्पन्न हुए थे जो अब अस्तित्व में नहीं।
चरित्र और बाल्ज़ाक डॉस पेसॉस में हवाओं और लहरों के विरुद्ध प्रयुक्त की गई दृश्य चित्रों की वकालत करने का मेरे पास कोई कारण नहीं है। जब मैंने एक उपन्यास लिखा तो मैंने ऐसे चरित्रों की रचना की जो ‘मनुष्यों के बीच संघर्ष के समय में निकटता के अंतःसम्बंध की श्रेणी में आता था (मैंने दृश्य चित्रों की तकनीक का प्रयोग उपन्यास में कहीं और किया), पर मैं बचे रहने वाले चरित्रों के पक्ष में इस तकनीक को ख़ारिज़ करना नहीं चाहूंगा। सबसे पहले तो डॉस पेसॉस ने ‘संघर्षशील मनुष्यों के बीच निकटता के अंतःसम्बंध’ का बखूबी चित्रण किया, भले ही जो संघर्ष उसमें दिखाए गए हैं वे टॉल्सटॉय की तरह के न हों, या उसकी जटिलताएँ बाल्ज़ाक के कथानकों की तरह न हों। दूसरे, उपन्यास अपने चरित्रों के बल पर खड़ा होता या गिरता नहीं, कम से कम 19वीं शताब्दी के चरित्रों के साथ तो बिल्कुल भी नहीं, हमें बचे रहने वाले चरित्रों का वलहल्ला जैसा इंद्रजाल साहित्य में नहीं बिछाना चाहिए, हमें मैडम तूसो जैसी मूर्तियों की जरूरत नहीं जिनमें और कुछ नहीं बस बचे रहने वाले चरित्र कूट-कूट कर भरे रहें, एंटीगनी से लेकर नाना तक और एनीयाज़ से लेकर नेख्लियोदोव तक (ये कौन है भाई?), मुझे इस विचार पर हँसने में कोई अनादर नज़र नहीं आता। हम उन आधारों को जानते हैं जिनपर वर्ग आधारित समाज में व्यक्ति की महिमा का विचार टिका रहता है। ये ऐतिहासिक आधार हैं। हम व्यक्ति को निर्वासित करना नहीं चाहते, फिर भी हम कुछ विषाद के साथ यह देखते हैं कि व्यक्ति के महिमामंडन के विचार ने (जो ऐतिहासिक और सुनिश्चित है) आंद्रे गिडे जैसे व्यक्ति को, सोवियत युवाओं के बीच से किसी व्यक्ति को तलाश करने से रोक दिया। गिडे को पढ़ते समय मैं नेख्लियोदोव को (वह जो भी हो) बचे रहने वाले गुण से ख़ारिज़ करने पर आमादा हो गया था, यदि- जैसा कि निश्चित ही संभव लग रहा था- सोवियत युवा को खोजने का वह एकमात्र तरीका होता, जिसे मैंने खुद देखा है कि बचा रह सकता है। यदि हम अपने मूल प्रश्न पर वापस लौटें; तो यह पूरी तरह झूठ है, या यूँ कहें कि ये कहीं ले नहीं जाता, और किसी लेखक के लिए महत्त्वपूर्ण भी नहीं है कि वह अपनी समस्याओं को इस कदर सुलझा ले कि वास्तविक जीवन में घटने वाली जटिलताओं को, जो बुर्जुआ और प्रॉलीटेरियट के बीच अंतिम संघर्ष के दौरान घट रही हैं, को एक कथानक में बदल ले ऐसा, जिसमें महान पात्रों को सृजन करने की संभावना है। व्यक्ति को किताबों में असल जीवन से ज्यादा जगह नहीं घेरनी चाहिए और असल जीवन से अलग भी नहीं। व्यावहारिक संदर्भों में कहा जाए तो व्यक्ति सामूहिक प्रक्रियाओं के चित्रण के बीच से उभरते हैं और वहाँ वे ‘बड़े’ या ‘छोटे’ हो सकते हैं। ये कहना बिल्कुल झूठ है कि हमें पहले एक महान चरित्र बनाना चाहिए जो अलग-अलग तरीकों से व्यवहार करता है, जिसके कारण वह अन्य चरित्रों की तुलना में महत्त्वपूर्ण हो उठता है, और इस तरह बचा रह जाता है।
नाटक (जिसमें ताक़तवर टकराहटें होती हैं), और प्रेम (का तापक्रम), चरित्रों की सीमाएँ- इनमें से कुछ भी उनके सामाजिक कार्यों से विलग नहीं किया जा सकता, या उससे अलग करके नहीं दिखाया जा सकता। संघर्षों के दौरान मनुष्यों के बीच के गहरे अंतःसंबंध बढ़ते पूंजीवाद के प्रतिस्पर्धी संघर्ष हैं जिन्होंने मनुष्य को एक निश्चित तरह का बनाया। समाजवादी विकास मनुष्यों को अलग तरह से बनाता है और अलग तरह का बनाता है, फिर दूसरा सवाल यह है कि क्या हम पूंजीवादी किस्म की प्रतिस्पर्धा का व्यक्तिवादीकरण कर रहे हैं? तब हमें व्यक्ति की तरफ उछाला गया, अपने आलोचकों का नारा सुनाई पड़ता है- ‘ख़ुद को समृद्ध करो, पैसा कमाओ।’
बाल्ज़ाक क्रूरताओं के कवि हैं, उनके कथानायकों की जटिलताएँ (उनके रौशन चरित्र का पाट, और उनके अंधेरे पक्ष की गहराई) उत्पादन की प्रक्रिया की प्रगति को, गरीबी की प्रगति की तरह प्रतिबिंबित करती हैं। ’’वहाँ व्यापार काव्यमय हो उठता है’’ (टेन), लेकिन ‘‘बाल्ज़ाक प्रथमतः एक व्यापारी थे, एक ऋण में डूबे हुए व्यापारी, जो सट्टेबाज़ी की तरफ़ झुकता है, ऋण की अदायगी के समय को आगे बढ़ाता है और ऋण चुकाने के लिए उपन्यास लिखता है’’ उनके लिए कविता भी एक व्यापार ही है। जंगलों से घिरे हुए, पूंजीवाद के प्रारंभिक दिनों में, व्यक्ति, व्यक्ति से लड़ रहा था या व्यक्ति समय से लड़ रहा था, कुल मिलाकर वह पूरे समाज से लड़ रहा था ये लड़ना ही उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करता था। अब हमें सलाह दी जा रही है कि हम उसी तरह के चरित्रों का पुनर्निर्माण करते जाएँ और अगर नए बनाएं, जो स्वाभाविक रूप से पुरानों से अलग होंगे, तो भी वो उन्हीं की तरह के बनें। तो? ‘‘चीज़ों को इकट्ठा करने का बाल्ज़ाक का उन्माद, एकोन्माद की हद तक पहुँचा हुआ था’’। वस्तु कामुकता की यह प्रवृत्ति बाल्ज़ाक के उपन्यासों में सैकड़ों-हज़ारों पृष्ठों तक फैली हुई है। कहा जा सकता है कि हमें इससे बचना चाहिए। इसी आधार पर लुकाच त्रेत्याकोव की तरफ उँगली उठाते हैं। लेकिन यह वस्तु कामुकता ही बाल्ज़ाक के पात्रों को व्यक्तित्व प्रदान करती है। यह देखना हास्यास्पद है कि किस हद तक सामाजिक कामनाओं और कार्यों का सरल आदान प्रदान उनके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। क्या किसी समूह के लिए उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पाद, आज उसी तरह के व्यक्तित्व का निर्माण करता है जैसा वस्तुओं का ‘संग्रहण’ किया करता था? शायद यहाँ भी हम ‘हाँ’ कह सकते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया चलती रहती है और व्यक्ति भी बने रहते हैं, पर वे इतने अलग व्यक्ति होते हैं कि बाल्ज़ाक उन्हें शायद पहचान नहीं पाते (और गिडे आज भी पहचान नहीं पा रहे हैं)। अब उनमें क्रूरता का तत्व नहीं है, उनमें उच्चता और निम्नता सन्निहित हैं, उनमें आपराधिकता और पवित्रता एक साथ पायी जाती है, आदि-आदि। नहीं, बाल्ज़ाक दृश्य चित्रों के निर्माण में नहीं उलझते, वे बड़े-बड़े परिवारों के बारे में लिखते हैं, अपनी परिकल्पना में बनाए गए चरित्रों की शादियाँ कराते हैं, जैसे नेपोलियन ने अपने मार्शलों और भाइयों की करायीं, वे पीढ़ियों से गुज़रते हुए वस्तुकामुक बने रहते हैं और उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करते रहते हैं। वे एंद्रिकता के अलावा किसी और चीज़ की फिक्र नहीं करते, उनके परिवार एक तरह के जैविक समूह हैं जिनमें व्यक्ति ‘उग’ आता है। अब क्या हमें ऐसी इकाइयों का, या कारख़ानों का, या सोवियत का पुनर्गठन नहीं करना चाहिए? तब जबकि व्यक्तिगत स्वामित्व का उन्मूलन कर दिया गया है, और परिवारों ने व्यक्ति को बनाना समाप्त कर दिया है? लेकिन ये नए संस्थान जो आज व्यक्ति का निर्माण कर रहे हैं, परिवार की बनिस्बत, एक तरह के दृश्य-चित्र ही तो हैं जिन्हें शाब्दिक अर्थों में एकत्र कर दिया गया है। उदाहरण के लिए आधुनिक न्यूयार्क शहर में, (मॉस्को की बात छोड़ भी दी जाए तो), महिलाओं को पुरुषों द्वारा उस तरह नहीं बनाया जा रहा जैसा कि बाल्ज़ाक के पेरिस में, अब वे पुरुष पर कम निर्भर हैं। अब तक तो सब कुछ सरल है, कुछ ज्वरग्रस्तता की हद तक किए जाने वाले संघर्ष अब समाप्त हो चुके हैं, और उनका स्थान जिन संघर्षों ने लिया है (नए संघर्ष स्वाभाविक रूप से पुराने का स्थान लेते ही हैं) वे उतने ही भीषण हैं पर शायद कम व्यक्तिवादी। ऐसा नहीं है कि उनका कोई व्यक्तिगत चरित्र ही नहीं है, क्योंकि लड़ाइयाँ तो व्यक्ति के द्वारा ही लड़ी जाती हैं। पर अब सहयोगी भी उनके साथ मुख्य भूमिका निभा रहे हैं, जैसे कि वे बाल्ज़ाक के समय में नहीं निभा पाते।

IV. लोकप्रियता और यथार्थवाद:

उन सभी को जो आधुनिक जर्मन साहित्य पर चिपकाए जा सकने वाले नारों की तलाश कर रहे हैं, ध्यान रखना चाहिए कि वे सभी चीज़ें जो अपने आपको साहित्य कहलाने की अभिलाषा रखती हैं, सिर्फ देश से बाहर मुद्रित की जा रही हैं और देश से बाहर ही पढ़ी जा रही हैं, इसलिए ‘लोकप्रिय’ शब्द बड़े दिलचस्प अर्थ ग्रहण कर लेता है। लेखक को अब उस समाज के लिए लिखना है जिसमें वह नहीं रहता, लेकिन यदि हम और थोड़ा गहराई से सोचें तो लेखक और जनता के बीच की यह खाई इतनी गहरी नहीं है जितनी दिखती है। आज वह उतनी गहरी नहीं है जितनी दिखती है और कल वह इतनी उथली नहीं थी जितनी दिखती थी। प्रचलित सौंदर्यबोध, किताबों की कीमतें और पुलिस ने मिलकर ये सुनिश्चित कर दिया था कि लेखक और जनता के बीच की दूरी बनी रहे। फिर भी यह कहना गलत होगा, या यूँ कहें कि अ-यथार्थवादी होगा, कि बढ़ती हुई यह दूरी सिर्फ़ बाह्य तत्वों के कारण है। निःसंदेह ‘लोकप्रिय’ रूप से लिखने के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। दूसरी ओर यह कुछ सरल भी हो गया है, सरल और बहुत ज़रूरी। लोग अपने ऊपरी तबकों से स्पष्ट रूप से कट गए हैं, उनके शोषक अब बाहर निकल कर उनसे बड़े पैमाने पर खूँखार युद्ध लड़ रहे हैं। पक्ष लेना अब सरल हो गया है। जनता के बीच अब खुला युद्ध छिड़ा हुआ है।
यथार्थवादी लेखन की मांग को अब इतनी आसानी से ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता, उसने एक तरह की अपरिहार्यता हासिल कर ली है। शासक वर्ग अब ज्यादा झूठ बोल रहा है- शायद ज़्यादा बड़े भी। तो सच बोलना अब एक ज़रूरी काम हो गया है। दुख अब बढ़ गए हैं और उनके साथ झेलने वालों की संख्या भी। जनता के ऊपर पड़े दुखों के बीच छोटी कठिनाइयाँ, या छोटे समूहों की कठिनाइयाँ, अब हास्यास्पद और तिरस्कार योग्य नज़र आती हैं।
बढ़ती क्रूरता के विरुद्ध एक ही सहयोगी है- वह है जनता, जो उसके कारण इतना दुख उठाती है, सिर्फ उससे आप कुछ अपेक्षा कर सकते हैं, अतः स्पष्ट है कि आपको उसकी तरफ मुड़ना पड़ेगा और उसकी भाषा बोलनी पड़ेगी। इस तरह, ‘लोकप्रिय कलाएँ’ और ‘यथार्थवाद’ आपस में दोस्त बन जाते हैं। ये जनता के और मजदूर वर्ग के हित में होगा कि वे साहित्य से जीवन के ईमानदार चित्र प्राप्त करें, और ये ईमानदार चित्र असल में लोगों के, मजदूर वर्ग के उपयोग के होने चाहिए; इसलिए उन्हें साफ-साफ समझ में आने वाले और लाभकारी होना चाहिए। संक्षेप में, ‘लोकप्रिय’ होना चाहिए। फिर भी, इन विचारों की पहले पूरी-पूरी सफ़ाई की जानी चाहिए, इसके पहले कि उन पर आधारित प्रस्ताव बनाए जा सकें और उनका उपयोग किया जा सके। ये मानना गलत होगा कि ये विचार पूरी तरह पारदर्शी हैं, ऐतिहासिकता से विच्छिन्न हैं और पूरी तरह समझौते से मुक्त और शुद्ध हैं (‘हम सब ये जानते हैं- बाल की खाल मत निकालो’)। लोकप्रियता का विचार ख़ुद कोई बहुत लोकप्रिय विचार नहीं है। कि वह बस है, इस पर विश्वास करना यथार्थवादी सोच नहीं होगा। ‘प्रियता’ के साथ बहुत सारी अमूर्त संज्ञाएँ जुड़ी हुई हैं जिन्हें सावधानी के साथ देखना चाहिए। आप ज़रा उपयोगिता, स्वाधीनता, पवित्रता के बारे में सोचिए तो आपको मालूम पड़ेगा कि राष्ट्रीयता के साथ कई विशिष्ट, सांस्कारिक, आडम्बरकारी और संदेहास्पद किस्म के विचार जुड़े हुए हैं जिन्हें हम अनदेखा नहीं कर सकते। इस विचार को हम इसलिए अनदेखा नहीं कर सकते कि हमें जल्दी से ‘लोकप्रियता’ की एक परिभाषा चाहिए।
असंदिग्ध रूप से कविता ही वह रूप है जिसमें ‘लोगों’ को अंधविश्वासी दिखाया जाता है या और बेहतर रूप में कहा जाए तो, कविता में एक तरह का रिवाज़ है जो अंधविश्वास को बढ़ावा देता है। वे (कवि) लोगों को न बदलने वाले गुणों से मढ़ देते हैं, भव्य परम्पराएँ, काव्य रूप, आदतें और कार्यव्यापार, धार्मिकता, पारम्परिक दुश्मन, अदृश्य शक्तियाँ आदि-आदि। उसमें पीड़कों और पीड़ितों के बीच एक अजीब एकता दिखाई देती है, शोषकों और शोषितों के बीच, धोखेबाजों और धोखा खाने वालों के बीच, इसमें छोटे मजदूर वर्ग से बनी हुई जनता का, अपने ऊपर के तबकों से विरोध का सवाल नहीं रह जाता।
‘जनता’ के विचार के साथ धोखेबाज़ी का इतिहास बहुत लम्बा और जटिल इतिहास है- वर्ग संघर्ष का इतिहास। फिलहाल हम उसमें जाना नहीं चाहते- हम फिलहाल सिर्फ़ इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहते हैं कि जब हम ‘लोकप्रिय कलाएँ’ कहते हैं तो हमारा मतलब उन कलाओं से है जो आम जनता के लिए हैं, उनके लिए जो एक छोटे समूह द्वारा शोषित किए जाते हैं, वे लोग जो उत्पादन के कार्य में लगे हैं, वे जो अब तक राजनीति का लक्ष्य रहे हैं और जिन्हें अब राजनीति का विषय होना चाहिए। आइए, हम याद करें कि ताकतवर संस्थाओं द्वारा लोगों को पूर्ण विकास करने से रोका गया है, ताक़त के द्वारा या अस्वाभाविक रूप से परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ते हुए, और ‘लोकप्रिय’ के विचार पर एक अनैतिहासिक, गतिहीन और अविकासशील होने का ठप्पा लगा दिया गया है।
‘लोकप्रिय’ का हमारा संदर्भ लोगों की बात करता है, उन लोगों की जो न सिर्फ इतिहास के विकास में भागीदार बनते हैं बल्कि सक्रियता के साथ उसे हथिया लेते हैं, उसकी गति को बढ़ाते हैं, उसकी दिशा को निर्धारित करते हैं। हमारे दिमाग में वो लोग हैं जो इतिहास बनाते हैं, खुद को और दुनिया को बदलते हैं। हमारे दिमाग़ में लड़ाकू लोग हैं इसलिए ‘लोकप्रिय’ का हमारा विचार, आक्रामक विचार है। लोकप्रियता का अर्थ; वह जिसे आम जनता समझ सके, उसकी अभिव्यक्ति के तरीके को अपनाना और उन्हें समृद्ध करना। उसके दृष्टिकोण को अपनाते हुए उसे सुधारना और उसे मान्यता प्रदान करना। सबसे प्रगतिशील तबकों का प्रतिनिधित्व करना जिससे वो नेतृत्वकारी शक्ति बन सके और इस तरह अन्य लोगों को भी समझ आ सके। परंपराओं के साथ संबंध स्थापित करना और उनका विकास करना। लोगों के उस समूह को संबोधित करना जो देश पर राज करने वाले समूहों की उच्चतर उपलब्धियों को हस्तगत करना चाहता है।
अब हम ‘यथार्थवाद’ के विचार पर आते हैं। इस विचार की भी पहले सफाई की जानी चाहिए क्योंकि यह बहुत पुराना विचार है और कई लोगों द्वारा कई लक्ष्यों को हासिल करने में प्रयुक्त किया जाता है। ये ज़रूरी है क्योंकि लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को हथिया कर ही उन्हें विकसित कर सकते हैं। साहित्यिक रचनाओं को कारखानों की तरह हस्तगत नहीं किया जा सकता, अभिव्यक्ति के साहित्यिक रूपों का कोई ‘पेटेंट’ नहीं होता। यहाँ तक कि लिखने के यथार्थवादी तरीकों पर, जिसके बारे में साहित्य में बहुत से उदाहरण मिलते हैं ये ठप्पा लगा रहता है कि उसका प्रयोग किसने किया था, कब और किस वर्ग ने उसे उपयोग में लाया था, इसके छोटे से छोटे विवरण भी उपलब्ध रहते हैं। जब लोग संघर्ष में लगे हों और यथार्थ हमारी आँखों के सामने बदल रहा हो तो हमें पहले प्रयोग में लाए गए आख्यान के नियमों से, पूजनीय साहित्यिक नमूनों से, पुराने सौंदर्यशास्त्रीय नियमों से नहीं चिपके रहना चाहिए. हमें यथार्थ की व्युतपत्ति वर्तमान में विद्यमान साहित्य से नहीं करनी है, हम उन सभी नए-पुराने, प्रयुक्त-अप्रत्युक्त, कला से या अन्य स्रोतों से उत्पन्न माध्यमों का उपयोग करना चाहेंगे जो मनुष्य तक यथार्थ को, किसी भी रूप में पहुंचा सके। हम किसी एक समय में, किसी एक ऐतिहासिक रूप में लिखे गए उपन्यास को ही यथार्थवादी घोषित नहीं कर देंगे। जैसे कि बाल्ज़ाक और टॉल्सटॉय के उपन्यासों को, और इस तरह यथार्थवाद के लिए एक औपचारिक किस्म का प्रतिमान नहीं बना देंगे। हम यथार्थवादी लेखन का ज़िक्र इस तरह से नहीं करेंगे कि हम उसे चख, सूँघ और छू सकें, या उसमें ‘वातावरण’ हो और इस तरह का जटिल कथानक हो जिसमें पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सके। यथार्थवाद का हमारा विचार एक खुला और राजनैतिक विचार होगा जो सभी नियमों से ऊपर होगा।
यथार्थवादी होने का अर्थ है; समाज के भीतर जटिल कारणों की खोज करना। चीज़ों के प्रति शक्तिशाली लोगों द्वारा प्रचलित किए गए दृष्टिकोण की नकाब उतारना। उस वर्ग के दृष्टिकोण से लिखना जो अधिकतम लोगों के लिए उन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है जिसमें समाज अभी फँसा हुआ है। विकासवादी दृष्टिकोण पर बल देना। ठोस को संभव बनाना और उसमें से अमूर्तन को भी संभव करना।
ये बड़ी विस्तृत नियमावली है और इसका और विस्तार किया जा सकता है। इसके परिपालन में हम कलाकार को ये स्वतंत्रता देना चाहेंगे कि वह अपनी कल्पना की उड़ान, अपनी मौलिकता, अपने हास्यबोध और अपनी खोज़ी प्रवृत्ति का उपयोग करे। हम कोई बहुत विस्तृत साहित्यिक नमूनों से नहीं चिपके रहेंगे, हम कलाकार को कठोरता से परिभाषित, आख्यानिक तरीकों से भी बांधना नहीं चाहेंगे। हम ये स्थापित करेंगे कि लिखने का वह ऐंद्रिक तरीका जिसमें हम चीज़ों को चख, सूँघ और महसूस कर सकते हैं- स्वाभाविक रूप से यथार्थवादी लेखन की श्रेणी में नहीं आता, हम इस बात को मानेंगे कि ऐंद्रिकता के साथ लिखी गई ऐसी भी रचनाएँ हैं जो यथार्थवादी नहीं हैं और ऐसी यथार्थवादी रचनाएँ भी हैं जो ऐंद्रिक तरीकों से नहीं लिखी गई हैं। हमें सावधानी से इस बात की जाँच करनी होगी कि क्या हम एक ऐसे कथानक का विकास कर रहे हैं जिसका अंतिम लक्ष्य चरित्रों के आध्यात्मिक जीवन को उघाड़ देना है। हमारे पाठक इस बात को जान लेंगे कि उन्हें घटनाओं को समझने की चाबी नहीं मिली है, यदि उन्हें विभिन्न कलात्मक उपकरणों से भ्रमित किया जाए और यदि वे सिर्फ अपने नायकों के जीवन में हो रही आध्यात्मिक हलचल को ही अनुभव कर पाएँ। बाल्ज़ाक और टॉल्सटॉय के उपन्यास रूपों को बिना जाँचे प्रयोग करने से हम अपने पाठकों को – जनता को – अपने से दूर कर देंगे जैसे ये दोनों लेखक खुद भी करते हैं। यथार्थवाद सिर्फ रूप का सवाल नहीं है। यदि हम इन यथार्थवादियों की नकल उतारते हैं तो हम खुद यथार्थवादी नहीं रह जाएँगे। समय बहता जाता है और यह अच्छा ही है अन्यथा ये उन लोगों के लिए ख़राब होता जो सुनहरी मेज़ों के आसपास नहीं बैठे हुए हैं। तरीके पुराने पड़ जाते हैं, उत्प्रेरणाएँ काम नहीं करतीं, नई समस्याएँ पैदा हो जाती हैं जो नए तरीकों की माँग करती हैं, यथार्थ बदलता है और उसे प्रस्तुत करने के लिए प्रस्तुतीकरण के तरीकों को भी बदलना चाहिए। कुछ नहीं में से कुछ नहीं निकलता, नया पुराने में से ही निकलता है पर इसलिए वो नया होता है। शोषक हर युग में एक ही तरह से काम नहीं करते, और उन्हें हर समय एक ही तरह से परिभाषित भी नहीं किया जा सकता, उनके पास न पहचाने जाने के भी बहुत से तरीके होते हैं। वे सेना के लिए बनाई गई सड़कों को वाहनों के लिए बनाई गई सड़कें कहते हैं, वे अपने टैंकों को मैगडफ़ के जंगलों की तरह पुतवा लेते हैं, उनके एजेंट भी अपने हाथों के छाले दिखाते हैं, जैसे वे कोई कामगार मजदूर हों। नहीं, शिकारी का शिकार करने के लिए कुछ नई चीज़ों का आविष्कार करना पड़ता है। जो कल लोकप्रिय था वह आज नहीं है, लोग कल जैसे थे, वैसे आज नहीं हैं। कोई भी जो रुपवादी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं है यह जानता है कि सत्य को कई तरीकों से छुपाया जा सकता है और उसे उतने ही तरीकों से प्रदर्शित भी किया जा सकता है। आप मनुष्य की स्थितियों के बारे में कई तरीकों के माध्यम से घोर अपमान की अनुभूति करा सकते हैं- सीधे-सीधे विवरण देते हुए (जो भावुक या वस्तुनिष्ठ दोनों हो सकता है, आख्यान के माध्यम से, दृष्टांत के माध्यम से, मज़ाक के द्वारा किसी चीज़ को ज़्यादा या कम रेखांकित करते हुए। नाटक में यथार्थ वस्तुनिष्ठ रूप से या परिकल्पना के माध्यम से दोनों ही तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है। अभिनेता बिना कोई मेक-अप लगाए या बहुत कम मेक-अप करते हुए कह सकता है कि वह पूरी तरह स्वाभाविक है और फिर भी यह एक बड़ा झाँसा हो सकता है। इसके बरक्स वह भयानक किस्म के मुखौटे पहन सकता है और फिर भी सत्य को प्रस्तुत कर सकता है। इसके बारे में कोई भी विवाद नहीं है कि साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त हो रहे साधनों पर सवाल खडा़ किया जाए, लोग उन्हें जानते हैं। पिस्केटर के उन महान प्रयोगों का जिसमें उन्होंने पारंपरिक रूपों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था, मजदूर वर्ग के सबसे प्रगतिशील तबकों ने सबसे ज्यादा स्वागत किया और मेरे नाटकों के साथ भी ऐसा ही हुआ। मजदूरों ने हर चीज़ को उसके कथ्य की सच्चाई से जाँचा, उन्होंने उन सारे नवाचारों का स्वागत किया जो सत्य के प्रस्तुतीकरण में सहायक थे, समाज के वास्तविक ताने-बाने को दिखाते थे, उन्होंने उन सारी चीज़ों को ख़ारिज़ किया जो नाटकीय दिखती थीं, उन तकनीकी उपकरणों को भी जो सिर्फ़ दिखावट के लिए रख दिए गए थे- या यूँ कहें कि वे किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर रहे थे या कर पा रहे थे। मजदूरों के तर्क कभी साहित्यिक आधारों पर नहीं किए गए और न ही उनमें नाटक के सौंदर्यशास्त्र संबंधी सवाल थे। उनमें कभी ये सुनाई नहीं पड़ा कि आप नाटक और फिल्म को नहीं मिला सकते। यदि फिल्म सही जगह पर नहीं डाली गई तो बस इतना कहा गया ‘‘फिल्म की ज़रूरत नहीं थी। वह ध्यान भटकाती है।’’ मजदूरों के वृंदगान समूह काव्यात्मक अंशों को जटिल तालों के साथ गा लेते थे। (‘यदि वह छंद में होगा तो वह पानी की तरह बह जायेगा और कुछ भी नहीं बचेगा’) और आइसलर के कठिन तथा अपरिचित संयोजनों को गा लेते थे (‘ये कुछ दमदार चीज़ है’)। पर हमें कुछ लाइनें बदलनी पड़ती थीं जिनके अर्थ साफ़ नहीं थे या जो ग़लत थीं। अभियान-गीतों के मामले में, जो छंदमय थे जिससे उन्हें जल्दी सीखा जा सके और जिनकी तालें बहुत सरल थीं जिससे वे बेहतर समझ आ सकें, कुछ परिष्कार किए गए थे (जैसे अनियमितताएँ और जटिलताएँ) तब उन्होंने कहा, ‘यहाँ पर कुछ घुमाव है- ये मज़ेदार है’। हर घिसी हुई, नगण्य, या आम वस्तु को, जो सोचने को मजबूर नहीं करती थी, उन्होंने पसंद नहीं किया (‘इससे कुछ नहीं मिलता’)। यदि किसी को सौंदर्यशास्त्र की ज़रूरत है तो वह उसे यहाँ ढूँढ़ सकता है। मैं उस क्षण को कभी नहीं भूल पाऊँगा जब एक मजदूर ने मेरी ओर देखा, जब मैंने उससे कहा कि मुझे इस वृंदगान में सोवियत यूनियन के बारे में कुछ जोड़ना चाहिए (‘इसे भीतर प्रवेश कर सकना चाहिए- अन्यथा इसका क्या मतलब है?’), तो उसने कहा था कि ऐसा करना उसके कलात्मक स्वरूप को बिगाड़ देगा। उसने अपने सिर को दूसरी ओर घुमाया था और वो मुस्कुरा दिया था। मजदूर हमें सिखाने से नहीं डरते थे, और न ही सीखने से।
मैं अनुभव से यह बात कह रहा हूँ कि आपको मजदूर वर्ग के लिए असामान्य चीज़ों का निर्माण करने से नहीं झिझकना चाहिए, यदि वे वास्तविक परिस्थितियों से जूझ रही हों। ऐसे लोग हर समय बने रहेंगे जिन्हें हम कला के लोग कहते हैं, कला के आस्वादक, जो कहेंगे कि; ‘ये आम आदमी के समझ के बाहर की बात है’ पर लोग बड़ी अधीरता के साथ ऐसे लोगों को परे खिसका देंगे और कलाकारों के साथ सीधे जुड़ना चाहेंगे। कुछ ऊँची उड़ान वाली चीज़ें होती हैं जिन्हें कुछ गुटों के लिए बनाया जाता है, जिनसे कुछ नए गुट पैदा होते हैं- जैसे एक पुराने फेल्ट हेट का दो हज़ारवाँ संस्करण, पुराने सड़े हुए मीट पर डाले गए मसाले, मजदूर इसे तत्काल खारिज़ कर देते हैं (‘इनकी क्या हालत हो गयी है’), अविश्वास के साथ, ज़ोरों से अपना सिर हिलाते हुए। यहाँ काली मिर्च को ख़ारिज़ नहीं किया जा रहा है, बल्कि वे सड़े हुए मीट को ख़ारिज कर रहे हैं, दो हजारवाँ संस्करण बनाने वाली कला को ख़ारिज़ नहीं किया जा रहा है बल्कि पुराने फेल्ट हेट को खारिज किया जा रहा है। जब उन्होंने ख़ुद लिखा और मंचन किया तो वे आश्चर्यजनक रूप से मौलिक थे। तथाकथित आंदोलनकारी कला जिस पर लोगों ने, और वो सदा सर्वोत्तम लोग नहीं थे, नाक भौं सिकोड़ी, नये कलात्मक तरीकों और अभिव्यक्ति के नए तरीकों की खदान थी, जिसमें युगों-युगों से भूले हुए लोकप्रिय कला के भव्य तत्व निकले, जिन्हें निर्भीकता के साथ नए सामाजिक लक्ष्यों के लिए परिवर्धित किया गया था। सांस रोक देने वाले उतार-चढ़ाव, सुंदर सरलता जिसमें आश्चर्यजनक गरिमा और ताक़त थी और जटिलताओं को देखने की एक निर्भीक दृष्टि भी। इसमें से काफ़ी कुछ को आदिम और अपरिष्कृत कहा जा सकता था, पर उन अर्थों में नहीं जिनमें बुर्जुआ कलाओं के आध्यात्मिक अंतःप्रदेश को कहा जाता, जो दिखने में तो गहरा पर वास्तव में पुरातन होता है। प्रस्तुतीकरण के किसी तरीक़े को सिर्फ इसलिए ख़ारिज़ करना कि उसके कुछ ‘दृश्य-संयोजन’ असफल थे, एक ग़लती होगी- एक ऐसे तरीके को जो सफल होने की कोशिश कर रहा है, जो अमूर्तन की गहराई को संभव करने की कोशिश कर रहा है अवसर मिलना चाहिये। मजदूरों की तीक्ष्ण निग़ाहों ने यथार्थवाद की स्वाभाविक सतहों के भीतर प्रवेश कर लिया था। जब ‘ड्रायवर हेनशेल’ के मजदूर आध्यात्मिक विश्लेषण के बारे में ये कहते हैं ‘हम ये सब जानना नहीं चाहते’, तो वे एक ऐसी इच्छा की अभिव्यक्ति कर रहे होते हैं जहाँ वे सामाजिक ताक़तों की उस विशुद्ध छवि तक पहुँच सकें जो तात्कालिक रूप से दिखने वाली सतह के नीचे छुपी हुई है। अपने अनुभव से कहूँ तो उन्हें ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ के विलक्षण परिधानों और अवास्तविक वातावरण पर कोई आपत्ति नहीं थी! वे संकीर्ण मनोवृत्ति के नहीं थे- उन्हें संकीर्णता से चिढ़ थी (उनके घर संकुचित थे और ठसाठस भरे हुए थे)। वे चीज़ों को बड़े पैमाने पर प्रस्तुत करना चाहते थे, जबकि उद्यमी छोटे दिल के थे। उन्होंने उन चीज़ों को अनावश्यक माना जिन्हें कलाकार ज़रूरी मान रहे थे। कलाकार उदार थे और बर्बादी के पक्ष में नहीं थे, वे तो ख़ुद उन लोगों के खि़लाफ़ थे जो फालतू थे। वे घोड़े के मुँह पर लगाम नहीं लगाते थे बल्कि चाहते थे कि वह सरपट दौड़े, वे ऐसे किसी चीज़ पर विश्वास नहीं करते थे जिसे ‘पद्धति’ कहा जाता है। उन्हें मालूम था कि अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्हें कई पद्धतियों का इस्तेमाल करना होगा। इसलिए लोकप्रिय और यथार्थवादी कलाओं की कसौटी को उदारतापूर्वक और सावधानीपूर्वक चुना जाना चाहिए। इसके बदले कि हम उसे वर्तमान में विद्यमान यथार्थवादी रचनाओं या लोकप्रिय रचनाओं के बीच ढूँढ़ें, जैसा कि अक्सर होता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो हम एक ऐसी रूपवादी कसौटी तक पहुँचेंगे जहाँ लोकप्रिय कला और यथार्थवाद के सिर्फ रूप ही बचेंगे। कोई कला यथार्थवादी है या नहीं- ये इस बात से निर्धारित नहीं होता कि वह किसी ऐसी रचना के समान है या नहीं जिसे आज यथार्थवादी कहा जा रहा है या जो अपने समय में यथार्थवादी कही गई थी। प्रत्येक उदाहरण में हमें रचना में दिखाए गए जीवन की स्वयं जीवन से तुलना करनी चाहिए, इसके बदले कि हम उसकी किसी अन्य चित्रण से तुलना करें। जहाँ तक लोकप्रियता का सवाल है, एक बहुत ही रूपवादी प्रक्रिया है जिससे आपको बचना चाहिए। किसी साहित्यिक रचना की ग्राह्यता इससे सुनिश्चित नहीं होती कि किसी और रचना की तरह लिख दिया जाए जो अपने समय में ग्राह्य थी। अपने समय में समझी जाने वाली रचनाएँ भी अपने से पूर्व में लिखी गई रचनाओं की तरह नहीं थी। उन्हें बनाने के लिए कुछ नए क़दम उठाए गए थे। इसी तरह हमें भी अपने समय की रचनाओं को ग्राह्य बनाने के लिए कुछ नया करना चाहिए। एक चीज़ होती है लोकप्रिय होना, लेकिन एक और चीज़ होती है लोकप्रिय होने की प्रक्रिया। अगर हम जीवंत और लड़ाकू साहित्य का निर्माण करना चाहते हैं, जो यथार्थ को समझता है और उससे मुठभेड़ करता है, जो वास्तव में एक लोकप्रिय साहित्य है, तो हमें यथार्थ में आ रहे तेज़ गति के परिवर्तनों को समझना होगा। महान मजदूर वर्ग अब प्रयाण पर है। उनके दुश्मनों द्वारा किए जा रहे प्रयत्न और उनकी हिंसा इस बात का प्रमाण हैं।

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डॉ. नामवर सिंह

एक आलोचक के रूप में लुकाच की बौद्धिक ईमानदारी की प्रशंसा करनी ही पड़ेगी। उनके यथार्थवाद का निकष चाहे जितना प्राचीन और जड़ हो किन्तु उसके व्यावहारिक उपयोग में किसी प्रकार का लचीला अवसरवाद न था। स्तालिनवादी आतंक की छाया में रहते हुए भी उन्होंने ‘समाजवादी यथार्थवाद’ की सरकारी नीति के अनुसरणकर्ता सोवियत कथाकारों की उपेक्षा की। यही नहीं बल्कि स्तालिन के मूर्ति-भंजन के बाद ‘समकालीन यथार्थवाद का अर्थ’ (1956) नामक पुस्तक में उन्होंने समाजवादी यथार्थवाद के नाम पर लिखी गई यांत्रिक कथाकृतियों की कड़ी आलोचना की और उनमें निहित मार्क्सवाद के विकृत रूप ‘अर्थवाद’ का उद्घाटन किया। लुकाच की इस बौद्धिक ईमानदारी का चरमोत्कर्ष है सोल्जेनित्सिन पर लिखा हुआ दूसरा लेख (1969)। जिस सोल्जेनित्सिन को सोवियत सरकार और सोवियत लेखक संघ एकांगी और निषेधात्मक यथार्थ चित्रण के लिए लांछित कर रहा था, उसी के समर्थन में लेखनी उठाकर अपने जीवन की संध्या को अतिरिक्त अरुणिम आभा से जगमगा दिया। लुकाच ने
निश्चय ही लुकाच की सोल्जेनित्सिन की समीक्षा अमिश्रित प्रशंसा मात्र नहीं है। सोल्जेनित्सिन की दृष्टि की सीमा का निर्देश करते हुए लुकाच ने स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने स्तालिनवादी युग की आलोचना कम्युनिस्ट दृष्टि से नहीं बल्कि सामान्य निम्नवर्गीय (प्लेबियन) दृष्टि से की है। फिर भी लुकाच ने सोल्जेनित्सिन को एक नये सृजनशील युग का अग्रदूत और उनके उपन्यासों को समाजवादी यथार्थवाद के शुभारंभ का पुनर्जागरण कहा है। किन्तु जैसा कि सोल्जेनित्सिन के उपन्यास ‘द फर्स्ट सर्किल’ के एक पात्र के सनकीपन का विवेचन करते हुए लुकाच ने कहा है, एक आतंकवादी व्यवस्था का सबसे ईमानदार प्रतिरोध विकृत होकर प्राय: सनकीपन में परिणत हो जाता है। क्या स्वयं लुकाच के बारे में भी यह कथन लागू नहीं होता?
-डॉ. नामवर सिंह

फ्रेडरिक जेम्सन

मेरा मानना है कि लुकाच के जीवन भर के कार्यों को देखने का एक तरीका, समाजवादी शिक्षा-विज्ञान में उनका योगदान है… वह ऐसे, कि वे केवल आलोचनात्मक निर्णय देने, या साहित्यिक इतिहास लिखने का काम नहीं कर रहे थे, बल्कि, अर्न्स्ट ब्लॉच के शब्दों में जिसे ‘धरोहर का इस्तेमाल’ कहते हैं, उसके बारे में सोच रहे थे, और यह भी, कि समाजवादी गठन, समाजवादी शिक्षा में उन्हें क्या भूमिका निभानी चाहिए। मालूम नहीं कि मैंने पहले सार्वजनिक रूप से क्यूबा के इस अद्भुत प्रारम्भिक स्कूल की चर्चा की थी, या नहीं, जहाँ दो या तीन वर्ष का मानविकी का पाठ्यक्रम था, जो कि लुकाच की पूर्वदृष्टि की तुलना में बहुत विशाल था। उनके छमाही में क्लासिक्स, काव्य- इतिहास, लुकाच का महान यथार्थवाद, उनका अपना राष्ट्रीय क्रान्तिकारी साहित्य, और समकालीन लेखन होता था। वहाँ वैश्विक संस्कृति और एक अधिक सामान्य समाजवादी शिक्षा प्रणाली के सम्पूर्ण विस्तार में किशोरों के लिए एक विशेष गठन के संबंध की कल्पना करने का एक तरीका था। निस्संदेह, यदि उचित तरीके से उपयोग में लाया जाए, तो यहाँ लुकाच का काम बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या उसे ठीक प्रकार से उपयोग में लाया गया? अथवा, क्या स्टेट पार्टी सिस्टम्स में तथाकथित दर्शनशास्त्र के पाठ्यक्रमों में मार्क्सवाद का अक्सर दुरुपयोग नहीं हुआ, जो आवृत्ति के कारण मार्क्स और एंजेल्स के (लेखन के) तुच्छ प्रारूप के शिक्षण से अधिक कुछ नहीं थे। यह निश्चित रूप से स्पष्ट है कि पूर्व में मार्क्स, मार्क्सवाद और मार्क्सवादी शब्दावली का बहुत अधिक प्रभाव है, जिससे बाहर आने में कई पीढ़ियां लग जाएंगी – मार्क्सवादी भाषा की एक अतिशय अप्रियता, बौद्धिकों की अनेक भावनाओं में से एक के साथ, कि यह पुराना माल है, और वे नए पाश्चात्य शब्द और कोड और अवधारणाएँ चाहते हैं, और यह सब प्राचीन इतिहास के हवाले कर दिया गया है।
-फ्रेडरिक जेम्सन

 

संतोष चौबे

जन्म : 22 सितम्बर 1955, खंडवा, म.प्र. ।

कवि, कथाकार, उपन्यासकार संतोष चौबे हिन्दी के उन विरल साहित्यकारों में से हैं जो साहित्य तथा विज्ञान में समान रूप से सक्रिय हैं। उनके छह कथा संग्रह – ‘हल्के रंग की कमीज़’, ‘रेस्त्राँ में दोपहर’, ‘नौ बिन्दुओं का खेल’, ‘बीच प्रेम में गाँधी’, ‘मगर शेक्सपियर को याद रखना’ तथा ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’; तीन उपन्यास- ‘राग केदार’, ‘क्या पता कॉमरेड मोहन’ और ‘जलतरंग’; तीन कविता संग्रह – ‘कहीं और सच होंगे सपने’, ‘कोना धरती का’ एवं ‘इस अकवि समय में’ प्रकाशित और चर्चित हुए हैं। टेरी इगल्टन, फ्रेडरिक जेमसन, वॉल्टर बेंजामिन, ओडिसस इलाइटिस एवं ई.एफ. शूमाकर के उनके अनुवाद ‘लेखक और प्रतिबद्धता’, ‘मॉस्को डायरी’ तथा ‘भ्रमित आदमी के लिए एक किताब’ के नाम से प्रकाशित हैं और व्यापक रूप से पढ़े व सराहे गये हैं। उन्होंने कथाकार वनमाली पर केन्द्रित दो खंडों में ‘वनमाली समग्र’ का तथा कथा एवं उपन्यास पर केन्द्रित वैचारिक गद्य की तीन पुस्तकों ‘आख्यान का आंतरिक संकट’, ‘उपन्यास की नयी परम्परा’ एवं ‘कहानी : स्वप्न और यथार्थ’ का सम्पादन भी किया है। इसी के साथ उनकी दो आलोचना पुस्तकें ‘कला की संगत’ एवं ‘ अपने समय में’ भी प्रकाशित हुई हैं। वर्तमान में वे नाटक तथा कलाओं की समादृत अंतर्विधायी पत्रिका ‘रंग संवाद’ के प्रधान सम्पादक हैं। उनके द्वारा सम्पादित मध्यप्रदेश के दो सौ से अधिक कथाकारों पर केन्द्रित कथाकोश ‘कथा मध्यप्रदेश’ को राष्ट्रव्यापी ख्याति मिली है। इसी क्रम में ‘विश्व रंग’ के अवसर पर उन्होंने देश भर के छह सौ से अधिक कथाकारों के कथा संचयन ‘कथादेश’ को अठारह खंडों में सम्पादित किया है। वनमाली कथा सम्मान 2022 के अवसर पर प्रकाशित, भोपाल के एक सौ पचहत्तर से अधिक कथाकारों पर केन्द्रित ‘कथा भोपाल’ तथा हिन्दी में विश्व की 200 से अधिक विज्ञान कथाओं को ‘विज्ञान कथा कोश’ के वे प्रधान सम्पादक हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा और भारतीय संस्कृति के प्रसार के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय ‘विश्वरंग’ की वर्ष 2019 में भोपाल से शुरुआत की जिसके आज 50 से अधिक सदस्य देश हैं। अंतरराष्ट्रीय ‘विश्वरंग’ समारोह की त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वरंग संवाद’ के प्रधान सम्पादक हैं।

उन्हें कविता ( कहीं और सच होंगे सपने) के लिए‌ मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् का दुष्यंत कुमार पुरस्कार, आलोचना (कला की संगत) के लिए‌ स्पंदन आलोचना सम्मान, अनुवाद (मास्को डायरी) के लिए मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का पुरस्कार एवं उपन्यास (जलतरंग) के लिए शैलेश मटियानी तथा अन्तरराष्ट्रीय वैली ऑफ वर्ड्स पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। समग्र साहित्यिक अवदान के लिए उन्हें राष्ट्रीय दुष्यंत एवं शिवमंगल सिंह सुमन अलंकरण भी प्राप्त हुए हैं। भारतीय इंजीनियरिंग सेवा तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित संतोष चौबे, वर्तमान में डॉ. सी.वी. रामन् विश्वविद्यालय तथा रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय के चांसलर हैं तथा आईसेक्ट नेटवर्क, राज्य संसाधन केन्द्र, वनमाली सृजन पीठ एवं टैगोर अंतरराष्ट्रीय साहित्य एवं कला केन्द्र के अध्यक्ष हैं।


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