यतीन्द्र मिश्र कविता के साथ कला के विभिन्न अनुशासनों पर क़लम चलाते रहे हैं। गिरिजादेवी, उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां ,बेगम अख़्तर , लता मंगेशकर और गुलज़ार पर आपकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं।
फ़िल्म और साहित्य के कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजे गए यतीन्द्र मिश्र की कविताओं में हिन्दी काव्य – परम्परा के साथ बांग्ला कविता का ताप दीखता है। विपुल चक्रवर्ती की एक कविता इस ताप का धधकता उदाहरण है :
इस तरह पीटो कि
सिर से पांव तक कोड़े का दाग़ बना रहे
इस तरह पीटो कि
दाग़ काफ़ी दिनों तक जमा रहे
इस तरह पीटो कि
तुम्हारी पिटाई का दौर ख़त्म होने पर
मैं एक धारीदार शेर की तरह लगूं।
-हरि भटनागर
कविताएं
तीर तलवार बरछी और भाले
चुभोया जाना जारी रहे
जब तक यह चुभन
हमारे मन तक न पहुँचे…
हथौड़े पड़ते रहें सिर पर
जब तक देह पर पड़े नीले निशान
अपना दर्द न दे सकें….
तीर, तलवार, बरछी और भाले भी
आजमाए जाएँ
जब तक उससे मिलने वाले गहरे जख़्म
मनुष्यता के मलहम से भरते रहें…
ये सब चलता रहे
इस पीड़ा को देने वाले
जब तक अपनी राह न बदल सकें…..
मछली और काँटा
मछली को आम आदमी माने
मछुवारे वे लोग
जो जनता के बीच से चुनकर
दिल्ली तक जाते हैं
जाल वे सारी घोषणाएँ
जो लुभावने घोषणा-पत्रों से निकलकर
पुराने अख़बार की रद्दी में हो जाती तब्दील
अब आप बताएँ!
दिल्ली सियासत घोषणा-पत्र और अख़बार
को आपस में ताश की गड्डी की तरह फेंटकर
कोई ऐसा काँटा बन सकता है?
जिससे मछली फँस सके….
उत्साह की नीली धारियाँ
चलते ढर्रे से उतरकर भी
कभी-कभी जीवन को देखना चाहिए
दुःस्वप्न और हताशा के बाद भी
जिस तरह जीवन चलता रहता अबाध
उस तरह भीतर ही भीतर
चलती रहती एक सच्चाई भी
टिकता है जहाँ आकर जीवन अकसर
ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होता हुआ….
ऐसे में अचानक एक दिन
किसी नीली चिड़िया को
मिल जाता है उसका निर्मल सत्य
दूर आसमान में उड़ते हुए
बादलों का रंग जिस तरह भर जाता है
उसकी अथाह जिजीविषा वाले पंखों में….
जीवन की उपस्थिति भी कई बार इसी तरह
लाल-पीले होते आसमान के कैनवास को
उत्साह की ढेरों नीली धारियों से भर देती है
शाम के धुँधलके में जब कभी नीली चिड़िया
लौटते हुए अपने घोंसले को देखती है….
अहं की घास
कई बार जीवन में
हारना अच्छा लगता है
जैसे झुकना बेहतर है
अपनी ही बनायी
वर्जना के खिलाफ़
यह जानना कम दिलचस्प नहीं
गलत थे हम हर उस जगह
जहाँ पक्का यकीन था
अपने सही होने पर
उग आयी थी वहाँ अहं की घास
और धूसर रंगों में फैली थी
उसके नीचे की सूखी मिट्टी
ख़ुद को हर हालत में सही साबित करती
जीवन में हारना
कई बार अपनी जड़ता को तोड़ना है।
कुश्ती का अखाड़ा-एक
हम धरती को
खेल का बिछावन बनाने के लिए छीलते हैं
जैसे किसान उसकी कोख को
उपजाऊ बनाने के लिए जोतता है
यह ज़मीन, जिस पर हमारे शरीर का भार है
हमारी देह को सबसे निखरे रूप में सौंपने की ख़ातिर
ख़ुद को वत्सला बनाती रहती है सदैव
ताकत का कोई भी अध्याय हो
शरीर के श्रम का कैसा भी आलोकित प्रदेश
यह मिट्टी है….
जो हर एक का दर्प तोड़ देती है
उसे सहलाकर ही
भुजाओं में मछलियाँ उकेरी जा सकती हैं…
कुश्ती का अखाड़ा-दो
हम सिर्फ़ मैदान में लड़ते ही नहीं
अखाड़े के दाँव-पेंच से विरोधी को परास्त भर नहीं करते
न ही हमेशा मुट्ठियाँ भींचे हुए
दूसरे को कमजोर साबित करते हैं
हम में भी एक मनुष्य बसता है
हमारी साँसें भी गर्म होतीं
आँखें भीगती रहती हैं
हमें बचपन के खेल और
माँ के हाथ की बिलोई लस्सी
चूल्हे पर सिंकती रोटियों की याद आती है
हम मिट्टी की संतानें!
अखाड़े से बाहर बिना नींद के भी सपने देखते हैं
हमारे सपनों में भी
सूरज चाँद तारे और आसमान उतरते हैं….
कुश्ती का अखाड़ा-तीन
ताक़तवर को भी सुस्ताने की छाँह चाहिए
मुट्ठी में उतर आया विश्वास भी
नींद के सिरहाने जाने को उत्सुक रहता है…
फिर यह तो, अखाड़ा है हमारा
हर क्षण शक्ति के संन्धान का मंच
नये सिरे से ख़ुद को
आजमाने की एक कोशिश…
शक्ति के संचार के लिए
थोड़ा ठहरकर उठना
भुजाओं में आत्मविश्वास पाने का
एक तरीका भी हो सकता है…
कुश्ती का अखाड़ा-चार
मिट्टी में तपाई हुई यह कंचन-काया आप देखते हैं
भुजाओं में विश्वास
और आँखों में दीप्त अंगारे….
मगर क्या आप जानते हैं?
दिन-रात अखाड़े में पसीना बहाते हुए
हमारे शरीर भले ही फौलाद की तरह
पत्थरों में उकेरे गये
नायकों की बलिष्ठ देहयष्टि की तरह
दिखते हों….
फिर भी, एक मन है
जिस पर अखाड़े की मिट्टी का सोंधापन गिरता है लगातार
वही बचाये रखता है हमारी आत्मा के प्रकाश को
वही हममें यह विचार डालता है
ताकत का सही इस्तेमाल कब और कैसे किया जाता है…
अन्तःपुर
कविता चुनती
कृष्ण के प्रति आकण्ठ डूबी
मीरा की बानी से प्रेम के पराग
गाए जाते
रंगनाथ की सेवा में
पुष्पहार बुनती आंडाल के
हृदय में कुसुमित होते गीत
पोथी से निकालकर
बार-बार पढ़ी जाती
बहिनाबाई, जनाबाई की चेतावनी
उनके विट्ठल मोह में
संसार के स्मरण में
संचित रह गई कविताएँ
उस प्रेम को ही पुकारतीं
जो वर्जित होकर
स्त्रियों के अन्तःपुर में
सुरक्षित रहीं आईं…
करुणा
करुणा का कोई वर्जित फल नहीं
जिसे चखा न जा सके
न ही उसका स्वाद जानने के बाद
विस्थापन निश्चित हो स्वर्ग से
करुणा कहीं भी अंकुरित हो जाती है
वन में भीषण वियोग सहती शकुन्तला
एक गर्भवती हिरणी को देखकर
अपना दुःख भुला सँभाल लेती है उसकी पीड़ा
बहेलिए के तीर से कंटकाकीर्ण
वासुदेव के चरणों में संघर्ष के कितने
अनाम सन्देसे करुणा का बन जाते छन्द
जग की करुणा का वास तो
एक जुलाहा भी जाग कर
रोते हुए काट देता है
नदियों में विसर्जित अस्थियाँ
जीवन की करुणा का स्वीकार हैं
बचा रह जाता शेष जीवन
उन स्मृतियों के सहारे
जिसमें जाने कितने मन्वन्तरों से
अहर्निश बसती आई है करुणा…
एक दिन चोर आएगा
एक दिन चोर आएगा
लूटने तुम्हारी होशियारी
उस समय सचेत नहीं रह पायेगा
शहर में कोई
वह ले जाएगा
होशियारी और मक्कारी की सन्दूकची में
सालों साल छुपाया
तुम्हारा सारा सामान
चोर पछताएगा
अगर नहीं पाएगा
मक्कारी का कोई इंतज़ाम
उस दिन बेबस उदास और खाली हाथ
पकड़ा जाएगा
वह ढूँढ़ ही नहीं पाएगा
चालाकी से लकदक कहाँ रखा है
बिका हुआ ईमान
ईमानदारी की बरसों पुरानी गठरी
वो छोड़ जाएगा
इस उम्मीद के साथ
कभी तो हाथ आएगी उसके होशियारी
जिसे साधकर तुम पहुँचे ऊँचे आसमान….
स्याही बनाने का नुस्ख़ा
कैसे उस कारी अँधियारी रात को
उतारा जाए दवात में
किस नदी में बहकर आए
जोगन के आँसुओं का काजल
ताँबे के बर्तन में नीम की लकड़ी का जल
कितनी आँच पर तपाए
सोना, लाजवर्त, गोंद, कीकर
और दीये की कालिख
पुरखे संस्कृत में जिसे कहते थे मसिवर्धन
गुरु ग्रन्थ साहिब के अन्त में ढूँढे जाएँ
श्याम नीर को अक्षर देने वाली नसीहतें
कोयल चाहे तो फूँक दे
अपने कण्ठ की वेदना
गाढ़े दुःख के बरसते पानी में
जीवन के जितने अनजाने मोड़ हैं
अकस्मात घटने की शंका
कुछ छूट जाने का निरंतर रिसता भय
घर से बेघरी का बावरापन
जैसे शम्स तबरेज़ी का भटकना दीवानों जैसा
लैला मजनूँ, सस्सी पुन्नु और सारंगा सदावृक्ष का
उदासी में डूबकर अपने लहू को
नीला बना लेने की क़ैफ़ियत
हज़ार तरीकों से होकर गुज़रता है
रोशनाई का रास्ता
स्याही बनाने का नुस्ख़ा फिर भी
हाथ कहाँ आता?
यतीन्द्र मिश्र
हिन्दी के प्रतिष्ठित रचनाकार। भारतीय संगीत और सिनेमा विषयक पुस्तकें विशेष चर्चित । अब तक चार कविता-संग्रह समेत शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी पर ‘गिरिजा’, नृत्यांगना सोनल मानसिंह से सेवाद पर ‘देवप्रिया’, शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ के जीवन व संगीत पर ‘सुर की बारादरी’ तथा पार्श्वगायिका लता मंगेशकर की संगीत यात्रा पर ‘लताः सुर- गाथा’ प्रकाशित। अवध संस्कृति पर आधारित ‘शहरनामा: फ़ैज़ाबाद’, ‘अयोध्या की संगीत परम्परा’ तथा प्रख्यात ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर पर ‘अख़्तरी’ सम्पादित पुस्तकें हैं। ‘गिरिजा’, ‘विभास’ और ‘अख़्तरी’ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित है। राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार ‘स्वर्ण कमल’, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, मामी मुम्बई फ़िल्म फेस्टिवल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार, कलिंग साहित्य पुरस्कार, स्पन्दन ललित कला सम्मान, द्वारका प्रसाद अग्रवाल भास्कर युवा पुरस्कार, एच. के. त्रिवेदी स्मृति युवा पत्रकारिता पुरस्कार, महाराणा मेवाड़ सम्मान, हेमन्त स्मृति कविता पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार से सम्मानित । दूरदर्शन (प्रसार भारती) के कला-संस्कृति के चैनल डी. डी. भारती के सलाहकार के रूप में कार्यरत (2014-2016)। अयोध्या की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक पहचान के अभिलेखीकरण और लेखन में संलग्न । E mail: yatindrapost@gmail.com
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जीवन के संघर्ष और विमर्श को पूरा करती कविताएँ ।
सभी कविताएं बहुत अच्छी हैं 👌🏻👌🏻
सभी कवितायें अच्छी हैं