‘गुम ख़ज़ाना’ एक ऐसे कलाप्रेमी संग्रहकर्ता की कहानी है जो अपनी आंखों की ज्योति खो बैठा है ,लेकिन दुर्भाग्य का खेल कहें ,वह अपनी जमापूंजी – कला – कृतियों को भी खो बैठता है और इसका उसे रत्ती भर भी संज्ञान नहीं। भूख की आग में जल रहे परिवार के लोग उसकी कला – कृतियों को बेचकर गुज़ारा करते हैं । नेत्रहीन को लगता है कि उसका ‘ख़ज़ाना ‘ सुरक्षित है। पढ़ें , स्टीफेन ज्वाइग की जर्मन कहानी। अनुवाद सूरज प्रकाश का है। – हरि भटनागर
कहानी :
ड्रेसडेन स्टेशन के बाद वाले जंक्शन पर एक बूढ़ा-सा भलमानस बंदा हमारे डिब्बे में आया। उसने सबकी तरफ़ मुस्करा कर देखा और मेरी तरफ़ कुछ ख़ास अंदाज़ से सिर हिलाया, मानो बहुत पुराना परिचित हो। जब उसने देखा कि मैं उसे पहचान नहीं पाया हूं तो उसने हल्के से मुस्कुरा कर अपना नाम बताया। मैं वाकई उसे जानता था। वह बर्लिन का सबसे मशहूर कला पारखी और कला विक्रेता था। युद्ध से पहले मैंने उसकी दुकान से ऑटोग्राफ और दुर्लभ किताबें ख़रीदी थीं। हम थोड़ी देर तक यूं ही इधर-उधर की फ़ालतू बातें करते रहे तब अचानक बातचीत का रुख़ मोड़ते हुए वह सीधे ही मुद्दे पर आ गया,“मुझे लग रहा है कि मैं अपनी उस यात्रा के मकसद के बारे में आपको ज़रूर बताऊं जो मैं अभी पूरी करके आ रहा हूं। मैं कलात्मक चीज़ों की ख़रीद-फरोख़्त के अपने कारोबार के सैंतीस बरसों में लगा हुआ हूं लेकिन ऐसी अजीबो-गरीब यात्रा मैंने आज तक नहीं की थी।
आप जानते ही हैं कि जब से रुपये की कीमत में इतनी गिरावट होनी शुरू हुई है, मेरे धंधे का क्या हाल हो चला है। युद्ध के मुनाफाखोरों में पुरातन महान कलाकारों (मैडोना और इस तरह के दूसरे) के लिए, इन्कुनाबुला के लिए, फर्नीचर के लिए चित्रकारी किये कपड़ों के लिए अभिरुचि पनपने लगी है। उनकी लालसा को पूरा कर पाना बहुत मुश्किल होता है, ख़ासकर मेरे जैसे आदमी के लिए, जो सबसे बढ़िया चीज़ अपने खुद के इस्तेमाल और आनन्द के लिए रखना चाहे, यह मामला सचमुच बहुत मुश्किल में डालने वाला होता है कि मेरा खुद का घर कहीं नंगा-बुच्चा न हो जाये, अगर मैं उन्हें ख़रीदने की इजाज़त दे दूं तो वे मेरी कमीज के बटन और मेरी लिखने की मेज़ पर रखे लैम्प के लिए भी बोली लगाने से हिचकेंगे नहीं। बेचने के लिए ‘बिकाऊ माल’ खोज पाना दिन-पर-दिन मुश्किल होता चला जा रहा है।
मुझे माफ करेंगे जनाब, इस सिलसिले में मैं ‘बिकाऊ माल’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं। आपको जरूर अटपटा लग रहा होगा। लेकिन यह शब्द मैंने इस धंधे में नये-नये आये दलालों से सीखा है। शब्दों का अवमूल्यन। अब इस्तेमाल कहें या आदत, अब मैं चीज़ों को इसी नज़रिये से देखने लगा हूं। सदियों पहले किसी वेनिस प्रेस में छपी कोई बेशकीमती किताब मुझे वैसी ही दिखायी देती है, जैसे कोई फिलीस्तीनी – किसी ओवरकोट को देख कर उसका मोल लगाये या गुएरसीनो जैसे महान कलाकार का स्कैच मेरे लिए अब जीवंत नहीं रहता, बल्कि कुछ हज़ार फ्रांक के नोटों पर छपी किसी तस्वीर में तब्दील हो जाता है, जिन लोगों के पास फूंकने के लिए पैसा ही पैसा हो, उनके लालच को पूरा कर पाना नामुमकिन ही होता है।
उस रोज़ मैं अपनी दुकान में इधर-उधर निगाह मार रहा था तो मैंने देखा कि वहां ऐसा कुछ भी तो नहीं बचा था जो वाकई कीमती हो और जिसके लिए मैं दुकान खुली रखूं। एक वक्त था जब यही कारोबार धड़ल्ले से चलता था। इसे पहले मेरे दादा ने चलाया, फिर मेरे पिता ने, अब इतनी ख़राब हालत आ पहुंचा था यह। अब तो दुकान में इतना कूड़ा-कबाड़ भरा पड़ा था कि 1914 से पहले का समय होता तो कोई फेरी वाला कबाड़ी भी इसे अपने हथठेले में ढोकर ले जाने में शर्म महसूस करता।
इसी पसोपेश में था कि अचानक मुझे कुछ सूझा और मैंने अपनी पुरानी बहियों के पन्ने पलटने शुरू किये। शायद इस तरह से मुझे अपने पुराने, भूले-बिसरे किन्हीं ऐसे ग्राहकों का अता-पता ही मिल जाये जो अपनी समृद्धि के दिनों में ख़रीदी एकाध चीज़ ही बेचना चाहें। आपको यकीन नहीं आयेगा, पर यह सच है कि कई बार इस तरह के ख़रीदारों की फेहरिस्त ठीक वैसे ही लगती है, जैसे – लड़ाई का मैदान कत्ल किये गये लोगों से अटा पड़ा हो। और तुरंत ही यह बात मेरी समझ में आ गयी कि जिन लोगों ने कभी अपने सुनहरे दिनों में हमारी फर्म से कुछ ख़रीदा भी होगा तो वे अब तक मर खप गये होंगे या उनकी माली हालत इतनी ख़राब होगी कि इस बात की पूरी गुंजाइश है कि अपने पास की कीमती चीज़ें कब की बेच-बाच कर बराबर कर चुके होंगे, अलबत्ता, मेरे हाथ चिट्ठियों का एक ऐसा पुलिंदा लग गया, जिन्हें लिखने वाला – अगर वो ज़िंदा होता तो अब तक ज़िंदा रहने वाला सबसे बुजुर्ग आदमी होता। लेकिन वो इतना बूढ़ा था कि मैं उसके बारे में बिल्कुल ही भूल चुका था।
1914 की गमिॅयों में हुई भयंकर तबाही के बाद से उसने हमसे कुछ भी नहीं ख़रीदा था। हां जनाब! बूढ़ा, बहुत बूढ़ा आदमी। शुरू-शुरू के ख़त तो लगभग आधी सदी पहले लिखे गये थे जब मेरे बाबा कारोबार संभाला करते थे। हालांकि मैं पिछले पैंतीस बरस से अपने इस धंधे में एक कर्मठ कामगार की तरह जुड़ा हुआ हूं, इसके बावजूद इस शख्स से मैं अपना कोई व्यक्तिगत रिश्ता याद नहीं कर पाया। सारे संकेत तो यही बताते थे कि यह बूढ़ा भी बाबा आदम के जमाने के उन थोड़े से सनकियों में से एक रहा होगा जिनमें से कुछ – जर्मन के प्रांतीय शहरों में अब भी जीवित हैं। उसका हस्तलेख बिल्कुल साफ सुथरा था और उसने जो भी आदेश दिए थे, उनके नीचे लाल स्याही से लकीर खींच रखी थी। हर कीमत को अंकों और शब्दों, दोनों में लिखा गया था, ताकि किसी भी किस्म की गलती की गुंजाइश न रहे। ये अजीब चीज़ें और लिखने के काग़ज़ के लिए किताबों के शुरू या आखिर के खाली पन्नों को इस्तेमाल करना, उन्हें तरह-तरह के लिफाफों में बंद करके भेजना इस बात की तरफ इशारा करते थे कि वह ज़रूर घने जंगलों में रहने वाला
कोई तंगहाल आदमी रहा होगा। हस्ताक्षर करने के बाद वह हर बार अपनी स्टाइल और पदवियों का पूरा ज़िक्र करता थाः “लेफ्टिनेंट रिटायर्ड रेंजर और आर्थिक पार्षद, रिटायर्ड धारक आयरन क्रॉस फर्स्ट क्लास”। चूंकि वह 1870-1871 के युद्ध का ही कोई पुराना फौजी रहा होगा, उसकी उम्र अब अस्सी बरस के आसपास ही आंकी जा सकती थी।अपनी इन सारी कृपणताओं और ऊल-जलूल आदतों की वजह से उसने प्रिंट और नक्काशीदार चीज़ों के संग्राहक के रूप में एक ख़ास तरह की व्यवहार-कुशलता, जानकारी और अभिरुचि विकसित कर ली थी। उसके ऑर्डर शुरू-शुरू में तो छोटी-छोटी रकमों के लगे, लेकिन जब मैंने उनको ध्यान से जांचा-परखा तो पाया कि ऐसे दिनों में जब कोई चोरी के एक सिक्के से खूबसूरत जर्मन काष्ठ चित्रों के ढेरों-ढेर खरीद सकता था, इस गंवई औंधी खोपड़ी ने धातु पर उत्कीर्ण कलाकृतियों और दूसरी चीज़ों का इतना.शानदार संग्रहण जुटा रखा था कि युद्ध के मुनाफाखोर जितनी चीज़ें जुटाने का ढिंढोरा पीटते नज़र आते हैं, उन्हें कहीं पीछे छोड़ दे। अगर हम सिर्फ उन्हीं आइटमों का हिसाब करें जो उसने दशकों के दौरान हमारी फर्म से खरीदी थीं तो तब उनकी कीमत ही लाखों-करोड़ों तक जा पहुंची होगी। मेरे पास यह कल्पना करने का कोई कारण नहीं था कि उसने इसी तरह की कीमती चीज़ें दूसरी जगहों से भी नहीं जुटायी होंगी। क्या उसका संग्रह इधर-उधर हो गया होगा? इस दौरान कला के कारोबार में जो कुछ होता रहा था, उसकी बारीकियों से मैं बहुत अच्छी तरह वाकिफ था और उसकी खरीद की आखिरी तारीख से अब तक जो हालात रहे थे, मुझे पक्का यकीन था कि ऐसा तो नहीं ही हो सकता कि यह खज़ाना किसी दूसरे के हाथों में जा पहुंचा हो और मुझे हवा भी न लगे, अगर वह मर भी चुका हो तो भी उसका यह खज़ाना उसके वारिसों के हाथों में पूरी तरह सुरक्षित रहा होगा।
कुल मिला कर यह सारा मामला मुझे इतना दिलचस्प लगा कि मैं अगले ही दिन (यानी पिछली शाम) सैक्सोनी शहर के उस दूर-दराज के इलाके की यात्रा पर निकल पड़ा। जब मैं स्टेशन से बाहर निकला और मुख्य सड़क पर चलने लगा तो यह बात मुझे नामुमकिन सी लगी कि इन भड़काऊ घरों, जिनकी भीतरी साज-सज्जा के बारे में आप शर्त बद कर बता सकते हैं, में से किसी एक में निश्चित रूप से रेम्बां के रेखाचित्रों का शानदार पूरा सेट, और उसके साथ ड्युरेर की काष्ठ कलाकृतियों की अनगिनत प्रतियां और, कोई बड़ी बात नहीं, मांटेग्नास का पूरा का पूरा संग्रह ही सुशोभित हो रहा हो। अलबत्ता, मैं सीधे ही पोस्ट ऑफिस गया ताकि उसका अता-पता खोज सकूँ। मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा जब मुझे पता चला कि मैं जिस भूतपूर्व रेंजर और आर्थिक पार्षद का जिक्र कर रहा हूं, वह शख्स अभी भी जीवित है। उन्होंने मुझे उसके घर तक पहुंचने का रास्ता समझा दिया। मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि उस वक्त मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था और जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रहा था, यह धड़कन तेज होती जा रही थी। अभी दोपहर ढलने में वक्त था।
मैं जिस कला पारखी की तलाश में था, वह इन भद्दी बनावट वाले घरों में से एक में दूसरी मंज़िल पर रहता था। पिछली शताब्दी के छठे दशक में बने इन घरों की लम्बी कतारें चली गयी थीं। पहली मंज़िल पर एक दर्जी की दुकान थी, दूसरी मंज़िल पर दायीं तरफ के दरवाजे पर स्थानीय डाक घर के मैनेजर के नाम की तख्ती पर वह नाम खुदा हुआ था जिसकी तलाश में मैं यहां तक आया था। मैंने उसे इस धरती पर ही खोज निकाला था।
जब मैंने घंटी बजायी तो तुरंत ही सफेद बालों वाली एक बहुत ही बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोला। उसने सिर पर काली लेस वाली टोपी पहन रखी थी। मैंने उसे अपना कार्ड दिया और पूछा कि क्या महाशय घर पर ही हैं। उसने शक की निगाहों से मुझे देखा, फिर मेरे कार्ड पर निगाह फेरी और एक बार फिर मेरे चेहरे पर अपनी आंखें गड़ा दीं। इस छोटे उदास और उजाड़ कस्बे में किसी महानगर के निवासी का आना अपने आप में बेचैन करने वाली घटना थी।
अलबत्ता, जितना अधिक हो सकता था, उतने दोस्ताना लहजे में उसने मुझसे आग्रह किया कि क्या एकाध मिनट के लिए उनके हॉल में रुक कर इंतज़ार करना गवारा करूंगा और इतना कह कर वह गलियारे में जा कर गायब हो गयी। मैंने फुसफुसाहट की आवाज़ सुनी। इसके बाद एक ऊंची, मर्दानी और उत्साहपूर्ण आवाज सुनीः ‘क्या!!! श्रीमान रैवनर, बर्लिन से?
तुम्हारा मतलब!!! पुरानी कीमती चीज़ों के वो मशहूर डीलर? ज़रूर-ज़रूर!!! मैं उनसे खुशी-खुशी मिलना चाहूंगा।” इसके बाद वह बूढ़ी औरत एक बार फिर नमूदार हुई और मुझे भीतर लिवा ले जाने के लिए साग्रह सामने आयी।
मैंने अपना ओवरकोट उतारा और उसके पीछे-पीछे चला। सस्ते फर्नीचर की सजावट वाले उस कमरे के बीचों-बीच एक शख्स मेरी अगवानी के लिए खड़ा था। बूढ़ा लेकिन मज़बूत झबरीली मूंछें और मिलिटरी नुमा झालरदार स्मोकिंग जैकेट। उसने बेहद आत्मीयता और अपनेपन से मेरी तरफ हाथ बढ़ाये। हालांकि उसके हावभाव एकदम सहज और स्वाभाविक थे, लेकिन उसके व्यवहार का कड़ापन इसके विपरीत ही जा रहा था। वह मुझसे मिलने के लिए आगे नहीं बढ़ा, इसलिए मुझे खुद उससे हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़कर उस तक जाना पड़ा (मुझे यह मानना ही पड़ेगा कि मैं थोड़ी देर के लिए चिढ़ गया था।) तभी मैंने पाया कि उसके हाथ भी मेरी तरफ बढ़ने को, मेरे हाथों का इंतजार कर रहे थे, आखिर, मैंने अंदाजा लगा ही लिया कि झमेला क्या था, वह अंधा था।
बहुत छुटपन से ही, जब मैं निरा बच्चा था, अंधों की मौजूदगी में मैं हमेशा असहज हो जाया करता था। किसी भी ऐसे आदमी से आमना-सामना होने पर, जो पूरी तरह चुस्त -दुरुस्त है, लेकिन फिर भी अपनी इन्द्रियों का पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता, मैं बेचैन हो उठता हूं। उसकी मौजूदगी मुझमें एक तरह की घबराहट और शर्म की भावना भर देती है। मुझे लगने लगता है कि जैसे मैं सामने वाले से कोई बेजा फायदा उठा रहा होऊँ। जब मैंने उसकी सारडिन मछली से मिलती जुलती सफेद भौंहों के तले उसकी अचल और दृष्टिहीन पुतलियों में झांका तो मैं इस अहसास से बुरी तरह से दबा हुआ था।
अलबत्ता, उस अंधे आदमी ने मुझे इतना वक्त ही नहीं दिया कि मैं इस असहज स्थिति में देर तक रह सकूँ। उसने जोरदार ठहाका लगाते हुए हैरानी से कहा,“सचमुच आज का दिन मेरे लिए किसी त्यौहार से कम नहीं। बिल्कुल अजूबे जैसी बात है कि बर्लिन से कोई बड़ा आदमी, आप जैसा बड़ा आदमी हमारे घर पधारे, आपके आगमन से तो हम जैसे गंवारू लोगों को सावधान हो जाने की जरूरत है। आपको बताएं, आप जैसा विख्यात विक्रेता जब दुनिया फतह करने निकला हो तो सावधान होना ही पड़ेगा। हमारी तरफ एक कहावत चलती है – जब आस-पास खानाबदोश नजर आयें तो अपने दरवाजे बंद कर लो और जेबों के बटन लगा लो। मैं अंदाजा लगा सकता हूं कि आपने यहां पधारने की तकलीफ क्यों की होगी। मुझे पता चला है, आजकल धंधे में बरकत नहीं रही है।
ग्राहक या तो हैं ही नहीं या गिने-चुने बचे हैं। इसलिए आप लोग अपने पुराने ग्राहकों को खोजते फिर रहे हो। मुझे डर है श्रीमान, आपको खाली हाथ लौटना पड़ेगा। बेशक हम पेंशनयाफ्ता हैं लेकिन इतना तो जुगाड़ कर ही लेते है कि बेशक सूखी ही सही, दो रोटी जुटा ही लेते हैं, अपने वक्त में मैं चीज़ों का संग्राहक रहा हूं, लेकिन अब दइस खेल से वो दिन अब लद गए हैं। मैंने उसे हड़बड़ी में बताया कि वह गलत समझ रहा था। मैं उसके पास किसी किस्म की खरीद-फरोख्त करने की मंशा से तो कत्तई नहीं आया था। वो तो यूं हुआ कि मैं इधर पड़ोस में आया हुआ था तो सोचा, मुझे अपने एक ऐसे बहुत पुराने ग्राहक के पास जाकर दुआ-सलाम करनी ही चाहिए जो किसी वक्त जर्मन संग्राहकों में सबसे विख्यात संग्रहकर्ता रहा है। मैं इतने पास आकर आपसे मिलने का लोभ संवर नहीं पा रहा था। अभी मैंने अपना वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि उस बूढ़े आदमी के हाव-भावों में एक खास तबदीली आयी। वह कमरे के बीचों-बीच तनकर खड़ा हुआ था, लेकिन अब उसका चेहरा जैसे आलोकित हो गया हो। अब उसका चेहरा गर्व से दिपदिपाने लगा था। उसने उस तरफ चेहरा घुमाया, जहां उसे लगा, उसकी बीवी खड़ी है। उसने सिर हिलाया, मानो कह रहा हो,“तुम सुन रही हो ना?” तब, मेरी तरफ मुड़ते हुए उसने आगे कहना शुरू किया। अब उसकी फौजीनुमा, शुष्क और पथरीली आवाज, जिसमें वह अब तक बात करता रहा था, नम्र, मिठास भरी और काफी हद तक अपनत्व भरी आवाज में बदल चुकी थीः”कितना अच्छा किया आप यहां पधारे, दरअसल, मुझे अफसोस होगा अगर आपको इस तरह पधारने के अलावा कुछ भी हाथ न लगे, खैर, जो भी हो, मेरे पास आपको दिखाने लायक कुछ नायाब चीज़ें हैं इतनी कीमती कि आप वैसी चीज़ें बर्लिन में, विएना में, अलबर्टिना में और यहां तक कि लॉवरे (खुदा गारत करे पैरिस को!) भी खोज नहीं पाएंगे। मैं एक ऐसा आदमी हूं जो पिछले पचास बरस से एक मुस्तैद संग्रहकर्ता रहा है, जिसके पास सुरुचि और नज़र रही है, जो अपने पास एक ऐसा ख़जाना संजोए हुए है, जिसे हर गली और नुक्कड़ पर तो नहीं ही देखा जा सकता। लिस्बेथ, ज़रा मेरी अलमारी की चाभी तो देना।”
तभी एक अजीबोगरीब घटना घटी। उसकी पत्नी जो अब तक स्मित हास्य के साथ हमारी बातें सुन रही थी, अचानक भौंचक्की रह गयी। उसने मेरी तरफ हाथ उठाए, जैसे गिड़गिड़ाते हुए हाथ जोड़े और इनकार में सिर हिलाया। इन हावभावों से वह क्या कहना चाह रही थी, मैं रत्ती भर भी नहीं समझ पाया। तभी वह अपने पति के समीप गयी और उसका कंधा छूकर कहने लगी,“फ्रांज, डीयर, तुम हमारे मेहमान से यह पूछना तो भूल ही गये हो कि उसका कहीं और अपाइंटमेंट तो नहीं है; और वैसे भी, खाने का समय होने ही वाला है – मुझे माफ करेंगे।” उसने मेरी तरफ देखते हुए कहना जारी रखा – “कि घर में ही आए इस अप्रत्याशित मेहमान की खातिर-तवज्जो कर पाने लायक खाना घर में मौजूद नहीं है। जहां आप ठहरे हैं, वहां आप खाना खा ही लेंगे। अगर आप बाद में हमारे साथ कॉफी पीना गवारा करें, मेरी बेटी अन्ना मारिया तब यहीं होगी। इन अलबमों में क्या-क्या रखा है, इसके बारे में वह मुझसे ज्यादा जानती है।”
उसने एक बार फिर मेरी तरफ याचक दृष्टि से देखा। यह तो तय था कि वह मुझसे यह उम्मीद कर रही थी कि मैं वहीं और उसी वक्त संग्रह देखने के प्रस्ताव को ठुकरा दूं। यह आभास पाते ही मैंने बताया कि दरअसल गोल्डन स्टैग रेस्तरां में मुझे किसी के साथ लंच लेना है, अलबत्ता तीन बजे लौट कर आने में मुझे बेहद खुशी होगी। तब मेरे पास खूब वक्त होगा ताकि मैं वह सब कुछ देख-परख सकूँ जो रॉनफेल्ड महाशय मुझे दिखाना चाहते हैं। मैं वैसे भी छ: बजे तक रुकने ही वाला हूं।
वह बूढ़ा बुजुर्ग इतना कातर हो उठा मानो किसी बच्चे से उसने सबसे प्यारा खिलौना छीन लिया गया हो।
“हां-हां, क्यों नहीं,” वह बुदबुदाया,“मैं जानता हूं, बर्लिन से आने वाले आप जैसे बड़े लोगों के पास समय की कितनी मारा-मारी रहती है। फिर भी, मुझे पक्का यकीन है, आप मेरे लिए कुछेक घंटे ज़रूर निकालेंगे। मेरे पास दो-चार प्रिंट नहीं हैं जो मैं आपको दिखाना चाहत हूं। मेरे पास तो पूरे सत्ताइस फोल्डर हैं। पूरे सत्ताइस, हर मास्टर के लिए एक अलग फोल्डर। और ये सारे के सारे फोल्डर एक से बढ़कर एक बेशकीमती प्रिंटों से भरे हुए हैं। अलबत्ता, अगर आप ठीक तीन बजे आ जाएं तो मुझे यकीन है, हम छः बजे तक सारे फोल्डर देख लेंगे।”
उसकी बीवी मुझे बाहर तक छोड़ने आयी। गलियारे में, बाहर का दरवाजा खोलने से पहले वह फुसफुसायी: “आप बुरा तो नहीं मानेंगे अगर आपके यहां दोबारा लौटने से पहले अन्ना मारिया आपसे होटल में आकर मिले? मैं इस वक्त बयान नहीं कर सकती, लेकिन यह कई वजहों से बेहतर रहेगा।’
“ज़रूर!!! ज़रूर, मुझे बहुत खुशी होगी। सच तो यह है कि मैं अकेले ही खाना खाने वाला हूं। आपकी बिटिया अपना खाना खत्म करते ही सीधे मेरे पास आ सकती है।”
एक घंटे बाद जब मैं डाइनिंग रूम से निकल कर अपने होटल के पार्लर में आया तो अन्ना मारिया रॉनफेल्ड आ पहुंची। वह एक अधेड़ औरत थी। शुष्क, मुरझाई हुई और संकोची, उसके कपड़े बिल्कुल सादे थे। उसे देखते ही मैं खासी उलझन में पड़ गया। यह तय था कि वह सहज नहीं थी, मैंने भरसक कोशिश कि वह सहज हो सके, मैंने यहां तक पेशकश की कि अगर उसके पिता मुझसे मिलने के लिए उतावले हो रहे हों तो हम अभी चले चलते हैं। यह सुनते ही उसका चेहरा सुर्ख हो गया। वह पहले से भी ज्यादा परेशान नज़र आने लगी। बड़ी मुश्किल से उसने हकलाते हुए अनुरोध किया कि चलने से पहले वह कुछ देर बात करना चाहेगी।
“प्लीज़ बैठ जाइये,” मैंने उससे कहा, आपकी बात सुनने के लिए हाजिर हूं। कहिये, क्या कहना चाह रही हैं आप?”
उसे बात शुरू करने के लिए शब्द नहीं सूझ रहे थे। उसके हाथ और होंठ कांप रहे थे। आखिरकार उसने अपनी बात कहनी की: “मेरी मां ने मुझे भेजा है। हम आपसे अनुरोध करते हैं। आप मेहरबानी करके यहीं से वापिस लौट जायें। पिताजी आपको अपना संग्रह दिखाना चाहेंगे; और संग्रह में!! सच तो यह है कि अब उस संग्रह में कुछ बचा ही नहीं है।”
वह हांफने लगी। सुबकते हुए उसने किसी तरह अपनी बात जारी रखी,”मुझे सारी बात साफ-साफ कह देनी चाहिए!! आप तो जानते ही हैं कि हम लोग कितने कठिन दौर से गुजर रहे है। मुझे यकीन है आप इस बात को समझ रहे होंगे। लड़ाई छिड़ने के तुरंत बाद ही मेरे पिता की आंखों की रोशनी जाती रही थी। वे पूरी तरह अंधे हो गये थे। वैसे उनकी नज़र उससे पहले कमज़ोर होनी शुरू हो गई थी। लड़ाई से – शायद उनकी नज़र पर ज्यादा ही असर हुआ।
हालांकि उस वक्त वे सत्तर बरस के होने को आए थे, फिर भी लड़ने लिए मोर्चे पर जाना चाहते थे। उन्हें तो पिछली लड़ाई याद आ रही थी जिसमें उन्होंने बहुत अरसा पहले हिस्सा लिया था। निःसंदेह अब उनकी सेवाओं का कोई मतलब नहीं रह गया था। तब, जब हमारी सेनाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया गया तो वे इस बात को दिल से लगा बैठे।
डॉक्टरों ने यही सोचा कि इस बात से, हो सकता है उनका अंधापन कुछ पहले ही आ गया हो। जहां तक दूसरी बातों का सवाल है, वो तो आपने देख ही लिया होगा कि वे कितने तंदुरुस्त हैं। 1914 तक तो वह लंबी सैर पर भी जा सकते थे, शूटिंग करने के लिए चले जाते थे। आंखों की रोशनी जाने बाद से उनका एकमात्र शगल उनका कलेक्शन ही रहा है। वे रोजाना अपना कलेक्शन निकाल कर देखते हैं।
‘देखते हैं कह रही हूं, लेकिन उन्हें दिखाई कुछ भी नहीं देता। रोज़ाना दोपहर को वे सारे फोल्डर मेज पर फैला कर बैठ जाते हैं। वे एक-एक प्रिंट पर उंगली फिरा कर देखते हैं, उनका क्रम एक जैसा ही होता है। बरसों के अभ्यास ने उन्हें इस काम में माहिर बना दिया है। इसके
अलावा उनकी दिलचस्पी किसी भी चीज में नहीं है। वे मुझे नीलामियों की रिपोर्ट पढ़ने के लिए कहते हैं। कीमतें जितनी ऊपर जाती हैं, उनका उत्साह उसी के अनुसार बढ़ता रहता इस हालत का एक सबसे डरावना पहलू पिताजी को मुद्रास्फीति के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं है। उन्हें नहीं पता कि हम बरबाद हो चुके हैं। उन्हें नहीं पता कि उनकी मासिक पेंशन से हम दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा सकते। इसके अलावा खाने वाले और भी मुंह हैं। मेरा बहनोई वेरद्रन में मारा गया था। उसके चार बच्चे हैं। रुपये पैसे के ये सारे मसले उनसे छुपा कर रखे गये हैं। खर्च में हम हर तरह की कतर-ब्योंत करते हैं इसके बावजूद दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है। हमने छोटे-मोटे गहने बेचने शुरू किए, इधर-उधर की चीज़ें बेचीं, लेकिन उनके प्रिय कलेक्शन को छुआ तक नहीं, बेचने के लिए इतनी चीज़ें थी ही कहां, सब कुछ तो, जो कुछ भी पिता इधर-उधर से बचा पाते थे, काष्ठ कलाकृतियां, तांबे पर बनी अनुकृतियां और इस तरह की दूसरी कलाकृतियां खरीदने में खर्च होता रहा था। कलाकृतियां जमा करने वाले की खब्त! खैर, तो आखिर में हमारे सामने यह सवाल सिर उठाए खड़ा हो गया था कि हम उनके कलेक्शन को हाथ लगायें या उन्हें भूखे मर जाने दें। हमने उनकी इजाज़त नहीं ली थी। इजाज़त लेने का कोई मतलब ही नहीं था। उन्हें तो इस बात का रत्ती भर भी अंदाजा नहीं है कि खाना जुटाना कितना मुश्किल है, किसी भी कीमत पर चीज़ें नहीं मिलती हैं। उन्हें तो कभी यह भी नहीं बताया गया कि जर्मनी की पराजय हो चुकी है और अल्साके-लोराइन वापिस लौटाने पड़े थे। हम इस तरह की चीज़ें अखबारों से पढ़ कर उन्हें नहीं सुनाते थे। सबसे पहली कलाकृति जो हमने बेची थी, वह रेम्बां का एक बेशकीमती रेखांकन था। डीलर ने हमें उसके ढेर सारे पैसे दिये थे। कई हज़ार मार्क। लगा था, इन पैसों से हम कई बरस खींच ले जाएंगे। लेकिन आपको तो पता ही है, 1922 और 1923 के दिनों में पैसे की कीमत ही कितनी रह गई थी। मुद्रा जैसे पिघल-पिघल कर बह रही थी। अपनी तत्काल जरूरतें पूरी कर लेने के बाद हमने बाकी पैसे बैंक में रखवा दिये थे। दो महीने बीतते-न-बीतते ये पैसे भी चुक गए थे। तब हमें दूसरी कलाकृति बेचनी पड़ी थी। उसके बाद तीसरी। ये मुद्रास्फीति के सबसे बुरे दिन थे। हर बार डीलर पैसे देने में टालमटोल करता रहता। कई बार तो इतनी देर लगा देता कि वह जितने पैसे देने का वादा कर चुका होता, अदायगी करते समय कीमत उसका दसवां हिस्सा या सौवां हिस्सा भी नहीं रह जाती थी। हमने नीलाम घरों में भी कोशिश की थी और वहां पर भी हम ठगे गए थे। हालांकि वहां पर भी बोलियां लाखों-करोड़ों तक जा पहुंचतीं, लेकिन जब तक वे लाखों-करोड़ों या लाख मार्क के नोट हमारे हाथों में आते, उनकी कीमत रद्दी कागजों से ज्यादा न होती। पूरा कलेक्शन ही दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में इधर-उधर हो रहा था। वह भी पूरी नहीं पड़ती थीं।
“और यही वजह थी कि आज जब आप पधारे तो मां इतनी अधिक आशंकित हो गयी थी। जैसे ही वे फोल्डर आपके सामने खोले जाते हमारी नेकनीयती वाली धोखाधड़ी जाहिर हो जाती। वे हर कलाकृति को स्पर्श से पहचानते है, आपको बताऊं कि जैसे ही हम कोई प्रिंट बेचते, तुरंत ही उसके स्थान पर उतनी ही मोटाई और आकार का, लगभग वैसा ही कोरा कागज़ रख देते थे ताकि जब वे उसे छूएं तो उन्हें कोई फर्क महसूस न हो। एक-एक कलाकृति को छूकर, स्पर्श करके वे कमोबेश उतना ही सुख पाते हैं जितना सुख वे उन्हें देख कर पाते। वे सारी कलाकृतियां एक-एक करके छूते हैं, उन्हें गिनते हैं। यहां वे उन कलाकृतियों को किसी को भी दिखाने की कोशिश नहीं करते। यहां कोई भी कला पारखी नहीं है। इस लायक तो कत्तई नहीं जो उन्हें देख सके लेकिन वे अपनी इन कलाकृतियों को इतनी शिद्दत से चाहते हैं, प्यार करते हैं कि मुझे लगता है, जब उन्हें पता चलेगा कि उनका कलेक्शन इधर-उधर कर दिया गया है, तो उनके दिल की धड़कन ही रुक जाएगी। आखिरी बार उन्होंने अपनी ये कलाकृतियां ड्रेसडेन नगर में कॉपर प्लेट अनुकृतियों के क्यूरेटर को दिखलाई थीं, उसे गुजरे भी कई बरस हो गए हैं।”
“मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूं” उसकी आवाज रुंध गई-“आप उनका भ्रम न तोड़ें, उनके विश्वास को ठेस न पहुंचाएं, आपके सामने वे जिस खज़ाने का बखान करें, आप यही जतलायें-आप सचमुच उसे देख रहे हैं। वे अपने नुक्सान की खबर पाने का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। शायद हमने उनके साथ ज्यादती की है, लेकिन इसके अलावा हम और कर ही क्या सकते थे। जो भी हो जीना तो होता है न…। और हम लोगों की जीवन .. चार यतीम बच्चे, मेरी बहन के, और कुछ भी हो, उनका जीवन छपे हुए कागज़ों की तुलना में ज्यादा कीमती है। आज तक हमने उन्हें इनकी वजह से किसी आनंद से वंचित नहीं किया है। उन्हें खुशी मिलती है जब हर दोपहर वे अपने पोर्टफोलियो पर हाथ फेरते हैं कागज के उन टुकड़ों से बात करते हैं मानो इन्सानों से बात कर रहे हों। और आज, आज शायद उनकी जिंदगी का सबसे खुशनुमा दिन है। वे बरसों से इस बात के लिए तरस रहे थे कि अपनी सबसे प्रिय संपत्ति को किसी कला पारखी को दिखा पायें। प्लीज़… मैं दोनों हाथ जोड़ कर आपसे विनती करती हूं, उन्हें इस खुशी से वंचित मत कीजिये। यदि आप इस कपटपूर्ण दिखावे के लिए अपनी सेवाएं दे सके।
मैं अपने इस शुष्क, ठण्डे बखान में आपको बता नहीं सकता कि उसकी इस अपील में कितनी करुणा थी। मैंने अपने कारोबारी जीवन में एक से बढ़ कर एक ओछे लेनदेन देखे है, मुझे मुद्रास्फीति से बरबाद हो गए लोगों को अपने सदियों पुराने सबसे प्रिय अमूल्य खज़ानों से कौड़ियों के मोल बेचते देखा है लेकिन यहां तो हालात के मारे इन लोगों के साथ नियति कुछ अलग ही खेल खेल रही थी। इस व्यथा-कथा को सुनकर मैं एकदम पसीज गया था। मुझे यह कहने की जरूरत नहीं है कि मैंने इस दिखावे के खेल में शामिल होने और अपनी तरफ से बेहतरीन करने के लिए हामी भर दी।
हम एक साथ उसके घर पहुंचे। रास्ते में जब मुझे यह पता चला कि इन बेचारी दयालु
औरतों को बेहद कीमती और कई बार दुर्लभ कलाकृतियों के एवज में कितनी कम कीमतें देकर टरका दिया गया था तो मुझे बहुत तकलीफ हुई थी, हालांकि इसमें हैरान होने जैसी बात नहीं थी। इस बात से मेरा यह संकल्प पक्का ही हुआ है कि मैं इनकी भरसक मदद करूंगा। अभी हम सीढ़ियां चढ़ ही रहे थे कि खुशी की किलकारी सुनाई पड़ी, “आइये!!! आइये!” नेत्रहीन लोगों की सुनने की शक्ति वैसे भी तेज़ होती है। उन्होंने हमारे कदमों की आहट पहचान ली थी। वे कब से हमारी राह देख रहे थे।
“हारवर्थ आमतौर पर दोपहर के खाने के बाद थोड़ी देर के लिए झपकी ले लेते हैं, लेकिन आपको आज अपना खज़ाना दिखाने की उत्तेजना ने उन्हें जगाए रखा है।” हमारी अगवानी करते हुए उस वृद्ध महिला ने मुस्कुराते हुए कहा। अपनी लड़की पर एक निगाह डालने से ही उसकी तसल्ली हो गयी कि बीच सब-कुछ ठीक-ठाक से सहमति हो गयी है। फोल्डरों का एक अम्बार मेज पर रखा था। अंधे बूढ़े ने मुझे बांह से थामा और बिना किसी और दुआ सलाम के मेरे लिए तैयार रखी कुर्सी पर मुझे बिठा दिया।
“हम तत्काल ही शुरू कर दें। हमें ढेरों चीज़ें देखनी हैं। वक्त के सरकने का पता ही नहीं चलता। इस पहले फोल्डर में पन्द्रहवीं शताब्दी के अल्ब्रेन ड्युरेर की कृतियां हैं। लगभग पूरा ही सेट है। आप देखिए, हर एक कृति के उभार, कटाव दूसरी कृति से बारीक हैं, शानदार हैं। अद्भुत कृतियां, आप खुद ही फैसला कीजिए।” यह कहते हुए उन्होंने पहला पोर्टफोलियो खोला।
“हम एपोकैलिप्स सीरीज से शुरू करते है। क्यों ठीक है ना!”
उन्होंने तब हौले से, प्यार से, नाजुक तरीके से खुरदरे कागजों के उस करीने से लगे बण्डल में से पहला कोरा कागज उठाया। वे जैसे कोई नाजुक और टूटने वाली चीज़ उठा रहे हो, इस कागज को उन्होंने मेरी दृष्टि युक्त आंखों और अपनी दृष्टिहीन आंखों के सामने प्रशंसा के भाव के साथ थामा। उनकी अंधी आंखों में इतना उत्साह था कि यकीन करना मुश्किल था कि वे देख नहीं सकते है। हालांकि मैं जानता था कि यह कल्पना ही है, लेकिन मेरे लिए इस बात पर शक करना मुश्किल था कि उस झुर्रीदार बूढ़े चेहरे पर पहचान की चमक थी।
“क्या आपने कभी इससे ज्यादा बारीक प्रिंट देखा है? इसकी छाप कितनी महीन है, छोटी से छोटी रेखा भी क्रिस्टल की तरह साफ। अपनी इस कृति को तुलना मैंने ड्रेसडेन में एक अन्य कृति से की थी। निश्चय ही वह अच्छी थी। बेशक सुन्दर थी, लेकिन जो कृति इस समय आप देख रहे है, इसकी तुलना में वह धुंधली थी। और फिर, मेरे पास तो पूरी वंश-परंपरा है।”
उन्होंने उस कागज़ को पलटा और पूरे यकीन के साथ पृष्ठ भाग की तरफ इशारा किया कि मैं भी न चाहते हुए उस आलेख को पढ़ने के लिए आगे की तरफ झुका जो वहां पर लिखा हुआ ही नहीं था।
“नैग्लर कलेक्शन की मुहर, उसके बाद रैमी और एशाइल की मुहरें। मेरे विख्यात पूर्ववर्ती धारक कभी सोच भी नहीं पाए होंगे कि उनका खजाना इस दड़बेनुमा कमरे में आराम फरमाएगा।”
लेकिन जब संदेह से परे उस उत्साही संग्रहकर्ता बूढ़े ने उस कोरे कागज़ की हद से ज्यादा तारीफ करनी शुरू कर दी तो मैं दहल कर रह गया। उस वक्त तो मेरे रोंये खड़े हो गये जब उन्होंने ठीक उसी स्पॉट पर नाखून रखा जिस पर अरसा पहले गुजर चुके पूर्ववर्ती संग्रहकर्ताओं ने तथाकथित रूप से अपने निशान छोड़े थे। सब कुछ ऐसा लगने लगा था मानो जिन व्यक्तियों के वे नाम ले रहे थे, उनकी मुक्त आत्माएं कब्रों से उठ कर वहां आ गयी हों। मेरी जीभ तालू से चिपक गयी थी। तभी मेरी निगाह एक बार फिर घबरायी हुई मां-बेटी की निगाहों से मिली। उन्होंने सहमति में सिर हिलाए, तब मैंने अपने भीतर सारी ताकत संजोयी और अपनी भूमिका अदा करते हुए कहा: “आप बिल्कुल सही फरमाते हैं। यह अनुकृति अपने आप में अनूठी है। इसका कोई जोड़ नहीं।”
वे विजयी भाव से फूल कर कुप्पा हो गये।
“लेकिन ये तो कुछ भी नहीं।” उन्होंने कहना जारी रखा,“जरा इन दो प्रिंटों को देखो -मैलनकलिया और पैशन का जगमगाता प्रिंट। इस पैशन का तो बिला शक कोई सानी ही नहीं है। रंगों की ताज़गी देखिए। वो, बर्लिन में आपके साथी और कलादीर्घाओं के कस्टोडियन तो इसे देखते ही ईर्ष्या से जल-भुन उठेंगे।”
मैं आपको और ब्यौरे देकर बोर नहीं करूंगा। और इस तरह, यह स्तुतिगान दो घंटे से भी ज्यादा देर तक चलता रहा। वे एक के बाद दूसरा पोर्टफोलियो खंगालते रहे, इन दो या तीन सौ कोरे कागजों को प्रदर्शन भाव से दिखाए जाने का यह अनुभव, और उस पर सही क्षणों में तारीफ के पुल बांधना सचमुच अजीबोगरीब घटना थी। ये चीज़ें उस अंधे संग्रहकर्ता के लिए इतनी ज्यादा वास्तविक थीं कि जैसे जैसे तारीफ से उनका विश्वास बढ़ता, मेरी खुद की हिम्मत बढ़ती (यही मेरी मुक्ति थी। सिर्फ एक ही बार संकट के बादल मंडराये। वे मुझे रेम्ब्रां के ‘एन्टीओप’ का पहला प्रूफ दिखा रहे थे। यह कृति ज़रूर ही कूती न जा सकने वाली कीमत की रही होगी और इसमें दो राय नहीं थी कि उसे कौड़ियों के मोल बेच दिया गया होगा। एक बार फिर उन्होंने प्रिंट के महीन उभारों को सामने महसूस किया और उन पर उंगलियां फिराने लगे।
अचानक उनकी उंगलियों के संवेदनशील पोरों ने चित्र के कुछ चिर परिचित उभार गायब पाये।
उनका चेहरा मलिन हो आया। उनके होंठ कांपने लगे। उन्होंने कहा : ‘निश्चित रूप से यह एन्टीओप ही है ना? काष्ठ कला की इन कृतियों और कलाकृतियों, अनुकृतियों को मेरे अलावा तो और कोई छूता तक नहीं, यह इधर-उधर कैसे हो गया?”
“बिला शक यह एन्टीओप ही है, श्रीमान नॉरफेल्ड”, मैंने हड़बड़ी में उनके हाथ से प्रिंट लेते हुए कहा। मैंने तब उसकी बारीक से बारीक खूबियों के बारे में तारीफ करनी शुरू कर दी। अपनी स्मृति के बल पर मैंने उस कोरे कागज़ को एन्टीओप की प्रति में ही बदल डाला था।
उनकी परेशानी कम हो चली थी। मैं जितनी अधिक प्रशंसा करता, वे उतने ही भाव-विभोर होते चले गये। आखिरकार उन्होंने उन दोनों महिलाओं से परम हर्ष से कहा : “देखो, यहां एक ऐसा शख्स है जो चीज़ों को जानता है। तुम लोग इस बात पर मुझ पर कुढ़ते रहते थे कि मैं अपने कलेक्शन पर अपनी पूंजी फूंकता रहा हूं। यह सच है कि मैंने पचास बरस से भी ज्यादा तक खुद को बीयर, शराब, तम्बाकू, घूमने-फिरने, नाच-नौटंकी देखने जाने, किताबों तक से वंचित रखा और जैसे भी, जहां से भी हो सका, इन कलाकृतियों को खरीदता रहा। तुम लोगों की निगाह में तो ये तुच्छ ही था। खैर, श्रीमान रैक्नर मेरे फैसले को सही ठहराते हैं। जब मैं मर जाऊंगा और इस दुनिया में नहीं रहूंगा तो तुम लोग इस शहर के सबसे अमीर लोग बन जाओगे। ड्रेसडेन के लोगों की तरह खूब धनवान, तब तुम लोग खुद ही मेरी इस सनक के लिए अपने आपको बधाई दोगे। लेकिन जब तक मैं जिंदा हूं, कलेक्शन से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। जब मेरा ताबूत तैयार करने का वक्त आएगा और मैं दफना दिया जाऊंगा तो यह विशेषज्ञ या कोई और जानकार आदमी ये सब बेचने में तुम्हारी मदद करेंगे। तब तुम्हें सब कुछ बेचना ही पड़ेगा। मेरा पैशन भी मेरे साथ ही दफन हो जाएगा।’
जब वे बोल रहे थे तो उनकी उंगलियां लुटे-पिटे फोल्डरों को सहला रही थीं। यह दृश्य बहुत ही हृदयविदारक और करुणा जनक था। कई बरसों से, शायद 1914 के बाद से मैंने पहली बार किसी जर्मन नागरिक के चेहरे पर इस तरह की असीम खुशी के भाव देखे थे।
उनकी पत्नी और बेटी अश्रु पूरित आंखों से उन्हें निहार रही थी। लेकिन उनकी आंखों में सौन्दर्य की प्रशंसा के भी भाव थे। लेकिन बूढ़े आदमी की तसल्ली मेरी तारीफ से नहीं हो पा रही थी। वे एक के बाद दूसरा फोल्डर खोलते रहे। एक प्रिंट से दूसरे प्रिंट की बात करते रहे। मेरे शब्दों को भीतर उतारते रहे। आखिरकार थक कर मैं चुप हो गया और तब मेरी किस्मत से उन सारे कोरे कागजों के फोल्डर वापिस यथास्थान रख दिए गए, तब कमरे को कॉफी पीने के लिए तैयार मेरे मेज़बान के चेहरे पर थकान का नामो-निशान भी नहीं था। वे तंदुरुस्त नजर आ रहे थे। उन्होंने जिस तरह से यह अकूत खजाना जताया था, उसके बारे में उनके पास मुझे बताने के लिए पच्चीसों किस्से थे, और इनके लिए वे एक बार फिर संबंधित प्रिंट बाहर निकाल कर दिखाने के लिए आतुर थे। लेकिन जब मैंने बहुत आग्रह किया, उनकी पत्नी और पुत्री ने आग्रह किया कि अगर मुझे और देर तक ठहराया गया तो मेरी ट्रेन छूट जाएगी तो उन्हें झेंप होने लगी!!!
आखिर में वे मुझे विदा करने के लिए सहमत हो गए थे और उन्होंने मुझे विदाई दी।
उनकी आवाज़ भर्रा गयी थी। उन्होंने मेरे दोनों हाथ थाम लिए और उन्हें नेत्रहीन की स्पर्श प्रशंसा से सहलाने लगे।
“आपके पधारने ने मुझे असीम खुशी से भर दिया है।” कांपती आवाज में उन्होंने कहा,
“आखिर अरसे बाद मेरी जिंदगी में ऐसा मौका आया है कि मैं अपना संग्रह किसी जानकार आदमी को दिखा कर उसकी तारीफ पा सका हूं। मैं अपनी कृतज्ञता दिखाने के लिए, आपकी एक बूढ़े आदमी के पास आने की इस यात्रा को सार्थक करने के लिए कुछ कर सकता हूं। मेरी वसीयत की शर्तों में इस बात की व्यवस्था रहेगी कि आपकी फर्म को, जिसकी ईमानदारी जगजाहिर है, मेरे संग्रह की नीलामी का काम सौंपा जाएगा।”
उन्होंने अपने उस दो कौड़ियों की कीमत वाले फोल्डरों पर प्यार से हाथ फिराया।
“मुझसे वादा करो आप इन लोगों को एक खूबसूरत कैटलॉग देंगे। मैं इससे बेहतर किसी
स्मृति चिह्न के लिए नहीं कह सकता था।”
मैंने उन दोनों महिलाओं की तरफ देखा। वे भरसक प्रयास कर रही थीं, डर भी रही थीं कि कहीं उनके सिसकने की आवाज महाशय के तेज कानों तक न पहुंच जाएं। मैंने उस असंभव काम के लिए वादा किया और बूढ़े ने जवाब में मेरा हाथ दबाया।
मां-बेटी दरवाजे तक मुझे छोड़ने आयीं, कुछ बोल पाने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही
थी, लेकिन दोनों के गालों पर आंसू ढरके जा रहे थे, मेरी खुद की हालत उनसे बेहतर नहीं थी।
कला विक्रेता के रूप में मैं कुछ नफा कमाने के चक्कर में आया था। इसके बजाए, घटनाओं ने जिस तरह से करवट ली, एक तरह से सौभाग्य का देवता बन कर आ गया था। मैं एक ऐसे धोखे में, जिससे बूढ़े आदमी को खुशी मिली थी, मदद करने की नीयत से किसी पेशेवर की तरह झूठ बोलता रहा था।
झूठ बोलने के लिए शर्मिन्दा होने के बावजूद मुझे खुशी थी कि मैंने झूठ बोला था। कुछ भी हो, मैंने एक ऐसा सपना बुन दिया था जो पीड़ा और दुख के इस वक्त में मुश्किल सा ही लगता है।
जैसे ही मैं बाहर गली में उतरा, मैंने खिड़की खुलने और अपना नाम पुकारे जाने की आवाज सुनी। हालांकि मैं उस बूढ़े को दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन उन्हें पता था, मैं किस दिशा में जाऊंगा। उनकी दृष्टिहीन आंखें उसी तरफ मुड़ गयी थीं। वे खिड़की के बाहर इतने अधिक झुक गए थे कि उन्हें गिरने से बचाने के लिए उनके चिंतातुर स्वजनों को उन्हें बाँहों से थाम लेना पड़ा था। एक रुमाल हिलाते हुए, वे चिल्लाए थे,”श्रीमान रैक्नर, आपकी यात्रा सुखद रहे।”
उनकी आवाज में बाल-सुलभ मिठास थी।
मैं वह उल्लसित चेहरा कभी भी भूल नहीं पाऊंगा। वह चेहरा गली में से गुज़र कर जाने वाले राहगीरों के चिंतातुर, घिसे हुए चेहरों से बिल्कुल अलग था। मैंने उनके लिए जो भ्रम जाल बुन दिया था, उससे उनके जीवन में रंग भर गए थे, शायद गेटे ने ही तो कहा था संग्रहकर्ता सुखी प्राणी होते हैं।
सूरज प्रकाश
सूरज प्रकाश मूल रूप से कथाकार और अनुवादक हैं। उनका लेखन बहुत विस्तार लिये हुए है। उन्होंने लगभग साठ कहानियों के अलावा चार उपन्यास लिखे हैं। उनके सात कहानी संग्रह हैं। लेखकों की दुनिया उनकी शोध आधारित किताब है जिसमें दुनिया भर के पांच सौ लेखकों के बारे में रोचक और दुर्लभ जानकारियां दी गयी हैं।
सूरज प्रकाश ने गुजराती से सात और अंग्रेजी से सात पुस्तकों के अनुवाद किये हैं। ऐन फ्रैंक की डायरी, एनिमल फार्म, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा और चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा उनकी कुछ उल्लेखनीय अनूदित कृतियां हैं। महाराष्ट्र राज्य अकादमी और गुजरात राज्य अकादमी के सम्मान प्राप्त कर चुके सूरज प्रकाश ने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। उनके लेखन पर सात एम फिल हो चुकी हैं और तीन पीएचडी हो रही हैं।
पंजाबी भाषी सूरज प्रकाश ने गुजराती से महात्मा गांधी की आत्मकथा का हिंदी में अनुवाद किया है जो राजकमल प्रकाशन से छपा है। इसके अलावा वे गांधी जी के बड़े पुत्र हरिलाल के जीवन पर आधारित गुजराती उपन्यास प्रकाशनो पडछायो का तथा गिजू भाई बधेका की कई किताबों का अनुवाद कर चुके हैं। उनसे kathaakar@gmail पर संपर्क किया जा सकता है।
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