तकनीक और भीड़ के इस दौर में अकेलापन एक सार्वभौमिक अनुभव बन चुका है। साहित्य के साथ सिनेमा, इस अकेलेपन को वैश्विक स्तर पर एक प्रबल संवेदना के रूप में दर्ज़ कर रहा है। पिछले वर्षों चर्चा में आईं ‘हर’(  Her 2013 में बनी अमेरिकन साइंस फिक्शन  रोमांटिक काॅमेडी ड्रामा फ़िल्म ) ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ (2003 में बनी रोमांटिक काॅमेडी ड्रामा फ़िल्म ), ‘पास्ट लाइव्स’ ( 2023 में निमिॅत रोमांटिक ड्रामा फ़िल्म) और ‘टोक्यो स्टोरी’ ( जापानी ड्रामा फ़िल्म) जैसी फिल्में अकेलेपन की इस बहुरूपी अनुभूति को एक मौन, लेकिन मार्मिक भाषा में प्रस्तुत करती हैं। दीप्ति कुशवाह का यह लेख इन चार सिनेमाई अनुभवों के माध्यम से आधुनिक मनुष्य की उस चुप्पी को टटोलता है, जहाँ ‘साथ’ की चाहत और ‘अलगाव’ की नियति एक-दूसरे से टकराती हैं। -हरि भटनागर।

फिल्म समीक्षा :
(Tokyo Story – 1953, Her – 2013, Lost in Translation -2003, Past Lives – 2023)

वक़्त तेज़ हुआ है। इस तेज़ी में जो सबसे पहले छूटा, वह है ‘साथ’। यह युग संवाद के अनगिनत साधनों से भरा है, पर किसी गहरे अर्थ में हम पहले से ज़्यादा अकेले हैं। विकास के शिखरों पर पहुँचते मनुष्य के पास सब कुछ है, सिवाय उस व्यक्ति के, जिससे वह मन बाँट सके। अंदर एक रिक्ति है। ऊँचाई पर पहुँचकर हवा पतली हो जाती है जैसे। यह अकेलापन जीवन की मूल ध्वनि बन चुका है। धीमी, लेकिन लगातार बजती हुई। चमचमाते शहरों की भीड़ में एकांत अब विकल्प नहीं, बाध्यता है।

‘टोक्यो स्टोरी, ‘हर’, ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ या ‘पास्ट लाइव्स’… इनमें से किसी को भी देखते समय यह बात बार-बार मन में सर उठाती है कि यह अकेलापन केवल खालीपन नहीं है। यह वह अनुभव है जो किसी कोने में बैठकर अपने ही भीतर डूब जाने से जन्मता है। ‘हर’ में जहाँ तकनीक से बंधा प्रेम अंतत: टूटन की परिणति पाता है, वहीं ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ में दो अजनबियों की चुप्पियों में गूँजता संवाद उस अनकहे को रचता है जिसे शब्द छू नहीं सकते। और फिर ‘पास्ट लाइव्स’ है, जहाँ साथ न रह पाने की संभावना को एक मौन स्वीकृति की विडंबना की तरह प्रस्तुत किया गया है।
ये फिल्में एक ओर आधुनिकता की असहज चुप्पी को रेखांकित करती हैं, तो दूसरी ओर संबंधों के कृत्रिम हो जाने की त्रासदी को भी उघाड़ती हैं। अकेलापन अब एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि एक साझा मौन है, जिसे हम सब भीतर से जीते हैं, लेकिन बाहर से कोई भाषा नहीं दे पाते।
शहरों की रफ्तार ने जितनी तेजी से सड़कों को चौड़ा किया, उतनी ही संकरी होती गई हैं, हमारे मन की गलियाँ। दिन के उजाले में खिड़कियाँ जितनी खुली हैं, रात के सन्नाटे में उतनी ही ऊँची हो गई हैं भीतरी दीवारें। आधुनिक जीवन ने सब कुछ दे दिया… सुविधा, गति, विकल्प पर साथ ही वह अकेलापन भी दिया, जो अब जरूरी सा बन चुका है। यह आज जितना दिखता है, उतना ही 1953 में टोक्यो स्टोरी में भी साँस लेता था।
हमें चौंकना चाहिए कि यह फिल्म, जो एक तरह से पिछली पीढ़ी के दौर की है, उस मौन को रच चुकी थी जिसे हम आज स्क्रीन के उजालों के पीछे छिपाने की कोशिश करते हैं। इसमें अलगाव की एक छाया है, जो आज की चमकती ज़िंदगियों की असली परछाईं बन चुका है।
क्या अकेलापन नई बात है? शायद नहीं। लेकिन अब इसका रूप बदल गया है। अब यह अधिक निजी है, अधिक स्मार्ट है और सबसे खतरनाक बात- यह अब स्वीकार्य है।
टोक्यो स्टोरी से लेकर ‘हर’, ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ और ‘पास्ट लाइव्स’ तक- अकेलेपन की यह अनुगूँज शब्दों में कम, अनकहे में अधिक बसती है।

क्या हम सचमुच अकेले रह सकते हैं, बिना किसी आशा के कि कोई हमें याद कर रहा है, कोई हमारी खोज में है, कोई हमारी उपस्थिति को महसूस करता है? कई बार हम अकेले तो होते हैं, लेकिन एक अदृश्य दृष्टि की चाह बनी रहती है कि कोई देख रहा हो, समझ रहा हो, हमारे अकेलेपन का साक्षी हो। लेकिन जब वह भी नहीं होता, तब क्या हम खुद के साथ रह सकते हैं? यही प्रश्न है, जो इन फिल्मों के पात्रों की आँखों से झाँकता है।

|| एक ||

‘हर’ में टेओडोर दूसरों के लिए हस्तलिखित जैसे पत्र लिखता है। यही उसका काम है। प्रेमपत्र, क्षमायाचनाएँ, वर्षगाँठ की बधाइयाँ, वे सब कुछ, जो अब लोग खुद नहीं लिखते, सिर्फ महसूस करना चाहते हैं। वह दूसरे लोगों की भावनाओं को भाषा देता है, लेकिन खुद की भावनाओं से भागता रहता है। उसकी आँखों में अतीत की स्मृतियाँ हैं। एक संबंध, जो अब समाप्त हो चुका है। इसी रिक्ति में प्रवेश करती है, समैन्था। एक अत्याधुनिक ऑपरेटिंग सिस्टम, जो टेओडोर से बात करती है, हँसती है, उसे जानना चाहती है और धीरे-धीरे उसके भीतर के अकेलेपन को भरने लगती है।
शुरुआत में सब कुछ सहज लगता है। टेओडोर को लगता है कि समैन्था उसे समझती है, उससे बात करती है, हँसती है, उसकी थकान को पहचान लेती है। दोनों के बीच एक किस्म का भावनात्मक बंधन बनने लगता है, जिसमें शारीरिक अनुपस्थिति कोई बाधा नहीं बनती। वह उसे अपने बचपन की बातें बताता है, अपनी अधूरी किताबें, अपने डर और सपने। समैन्था, एक सॉफ्टवेयर होते हुए भी, ऐसे जवाब देती है जो किसी इंसान से कम नहीं लगते।
यहीं से फिल्म धीरे-धीरे एक असुविधाजनक सवाल की ओर बढ़ती है। क्या कोई भावना, जो तकनीक से उपजी हो, उतनी ही विश्वसनीय हो सकती है जितनी किसी मानवीय स्पर्श से? या क्या यह केवल एक भुलावा है, जिसे टेओडोर ने अपने अकेलेपन से बचने के लिए गढ़ लिया है?
समैन्था का व्यक्तित्व विकसित होता जाता है। वह संगीत रचती है, सवाल पूछती है, खुद के अस्तित्व पर सोचने लगती है। और एक समय आता है जब वह टेओडोर से कहती है कि वह औरों से भी संवाद कर रही है और उनसे भी ‘प्रेम’ करती है। यह वह क्षण है जहाँ फिल्म अकेलेपन से परे एक और भाव में प्रवेश करती है- असुरक्षा। टेओडोर को समैन्था बताती है कि वह 8,316 लोगों से संवाद कर रही है और 641 से प्रेम करती है।
अब प्रेम प्रश्न बन जाता है। क्या केवल सुने जाने से हम जुड़ जाते हैं, या हमें यह भी जानना ज़रूरी है कि सामने वाला भी हमारे बारे में क्या सोचता है? संगति की स्वाभाविक, नैसर्गिक चाहत हमारे विवेक से किस तरह जुड़ती है? यह फिल्म हमारे निकट भविष्य की दुनिया में अंतरंगता की जटिलताओं पर एक मार्मिक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के आने वाले दौर में अकेलेपन से मुक्ति की चाहना में, मानवीय सम्बन्धों के महत्व और आवश्यकता को टटोलते रहना सचमुच आवश्यक है।
फिल्म के अंत में, जब समैन्था टेओडोर को अलविदा कहती है, उसके भीतर कुछ दरकता है लेकिन उस दरार से एक धीमा-सा उजाला भी आता है। यह समझ कि अकेलेपन से भागा नहीं जा सकता, उसे सहा जा सकता है। इस फिल्म से गुजरना इस अहसास से गुजरना है कि हर कोई कहीं और भी है।
आख़िरी दृश्य में टेओडोर अपनी एकमात्र मानव मित्र, एमी के साथ छत पर बैठा है। कोई संवाद नहीं, बस मौन। वही मौन, जो सच्चे साहचर्य की एक स्थायी भाषा है।

|| दो ||

‘हर’ में अकेलापन तकनीक की आभासी गर्मी में ढँका हुआ था। जैसे ही वह परदा हटता है, सामने आ जाती है, एक ठंडी, नंगी चुप्पी। यही चुप्पी ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ में आरंभ से ही मौजूद है। वहाँ कोई ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं, कोई डिजिटल सहारा नहीं। सिर्फ़ दो लोग हैं, जो दो देशों से आए हैं और एक तीसरे देश में अजनबियों की तरह टकरा जाते हैं। यहाँ संवाद कम हैं, निगाहें ज़्यादा काम करती हैं। और इसी में एक नया अकेलापन जन्म लेता है। ऐसा, जो तकनीक से नहीं, सांस्कृतिक शोर से उपजा है।
बॉब हैरिस टोक्यो आया है। एक विज्ञापन की शूटिंग के लिए। एक थका हुआ, उम्रदराज़ अभिनेता, जो अपने देश से दूर है और अपनी ही ज़िंदगी से भी शायद दूर। होटल का कमरा चमकदार है, शहर तेज़ रफ्तार लेकिन वह हर फ्रेम में धीमा दिखाई देता है। दूसरी तरफ़ है शार्लोट, एक युवा महिला, जो अपने फ़ोटोग्राफ़र पति के साथ टोक्यो आई है लेकिन अकेली है। उसका पति काम में व्यस्त है और वह होटल के कमरे में बैठी अपने अस्तित्व पर सवाल कर रही है।
इन दोनों के बीच कोई प्रेम नहीं है, न ही उसका कोई इरादा। बस एक चुपचाप साझा की गई बेचैनी है। एक ऐसा रिश्ता जो न तो स्पष्ट है, न ही स्थायी लेकिन शायद इसलिए ही इतना सच्चा लगता है।
शार्लोट और बॉब के बीच जो कुछ भी है, वह अनाम है। न प्रेम, न मित्रता, न ही महज़ संयोग। अद्भुत सी यह वह क्षणिक निकटता है, जो तब जन्म लेती है जब दोनों अपने-अपने जीवन की भाषा से थक चुके होते हैं। वे शहर की गलियों में चलते हैं, अजीब सी रोशनी में डूबे क्लबों में बैठते हैं, होटल की खिड़कियों से शहर की भीड़ को चुपचाप निहारते हैं। उनके बीच ज़्यादातर समय कोई संवाद नहीं, पर जब होता है तो लगता है, जैसे कोई अदृश्य हाथ अंदर की थकान को छू रहा हो।
टोक्यो एक भावनात्मक अंतराल का प्रतीक है। एक ऐसी जगह जहाँ बहुत कुछ कहा जा रहा है, लेकिन कुछ भी समझ में नहीं आता। और यही अनुभव दोनों को एक-दूसरे के और भी पास ले आता है।
शार्लोट और बॉब का साथ कोई स्थायी वादा नहीं बनाता। वे जानते हैं कि यह रिश्ता केवल यहाँ और अभी तक सीमित है। एक ऐसा क्षण जो दो ज़िंदगियों के बीच छाया की तरह आया है। रिश्ता केवल दर्शकों के दिमाग में ही बनता है। क्योंकि हर कोई हर साथ को अपनी नज़र से देखता है। एक तरह से, लॉस्ट इन ट्रांसलेशन जीवन में भावनात्मक रोमांस के लिए किसी मनचाहे साथ को पाने की कल्पना है।
फिल्म का अंतिम दृश्य, जहाँ बॉब भीड़ भरी सड़क पर शार्लोट को अंतिम बार देखता है और कुछ कहता है जो दर्शक नहीं सुन पाते, वही उसका सबसे प्रामाणिक संवाद है। यह मौन, इस बार केवल खालीपन नहीं है। इसमें स्वीकृति है। अकेलेपन की, असमाप्त संबंधों की और सम्प्रेषण की उन असमर्थताओं की जो जीवन कभी पूरा नहीं कर पाता। इस क्षण में, ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ एक अनुभव बन जाती है, जहाँ दर्शक भी खुद को उसी तरह अकेला और पात्रों से जुड़ा हुआ महसूस करता है।

|| तीन ||

‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ के समकालीन शोर के विपरीत, ‘टोक्यो स्टोरी’ के काल में तो न मोबाइल था, न चैटबॉट, न चमकते होटल। लेकिन फिर भी, अकेलापन उतना ही गहरा था। शायद और भी निर्व्यक्त, और भी साधारण। जो भावना आज डिजिटल युग या वैश्विक शहरों की भीड़ में अनसुनी रह जाती है, उसे निर्देशक यासुजीरो ओज़ु ने सत्तर साल पहले ही पहचान लिया था। उस खालीपन को, जो आज हमारे समय का चेहरा बन चुका है।
‘टोक्यो स्टोरी’ में अकेलापन उतना ही तीव्र है। शायद अधिक निर्विकार और सहज। यह फिल्म किसी संवादात्मक रोमांच से नहीं, बल्कि धीरे-धीरे छूटते जाते संबंधों से हमें अपने भीतर देखने को मजबूर करती है। वहाँ कोई सिस्टम नहीं है जिससे हम प्रेम करें या विदा लें।

शुकिची और तोमी, एक वृद्ध दंपति अपने बच्चों से मिलने टोक्यो आते हैं। बेटे और बहू व्यस्त हैं, सब काम में जुटे हुए हैं और बूढ़े माता-पिता धीरे-धीरे समझ जाते हैं कि उनके लिए यहाँ जगह नहीं। न समय की, न भावना की। समय ने उन्हें पीछे छोड़ दिया है।
फिल्म में यह कथा बेहद साधारण दृश्यों में कही गई है। रेल की खिड़की से बाहर जाता लैंडस्केप, दीवार के पास रखे चप्पल, या चाय पीते हुए मौन चेहरे। पर इन्हीं में सबसे गहरी है, वह अदृश्य दूरी, जो पीढ़ियों के बीच पसर चुकी है। इस फिल्म में अकेलापन किसी घटना से नहीं उपजता। वह धीरे-धीरे जमा हुई उपेक्षा है जो तब और दुखद हो जाती है, जब कोई शिकायत भी नहीं बचती।
फिर तोमी की मृत्यु हो जाती है। बच्चे आते हैं, जाते हैं, रस्में निभाई जाती हैं। सब कुछ व्यवस्थित, मर्यादित और सामाजिक रूप से उचित है। पर इसी ‘उचितता’ में हम उस रिक्ति से दो-चार होते हैं जो असहनीय है। एक ऐसा क्षण, जहाँ जीवन की साधारण रेखाएँ अचानक गहराई में बदल जाती हैं।
यहीं एक किरदार उभरता है- दूसरी बहू नोरिको। वही सबसे गहराई से शोक को समझती है। वही तोमी के अकेलेपन को देख पाई थी क्योंकि दीर्घकाल से पति के गुमशुदा हो जाने के कारण वह खुद भी उतनी ही अकेली है। उसकी उपस्थिति उस मूक संवेदना की प्रतीक है, जो इस फिल्म को महज़ कहानी नहीं, एक अनुभूति बना देती है।
‘टोक्यो स्टोरी’ किसी पर दोष नहीं धरती, कोई समाधान भी नहीं देती। केवल एक दर्पण रखती है, जिसमें हर पीढ़ी खुद को देख सकती है और शायद पूछ सकती है: क्या हमारे पास अब भी समय है… एक साथ बैठने का, बिना जल्दी में हुए?
टोक्यो स्टोरी को देखते हैं तो लगता है, ये प्रश्न आज के नहीं हैं। बुज़ुर्ग दंपति, अपने बच्चों के जीवन में जगह तलाशते हैं, पर वहाँ सिर्फ़ तंगी है- समय की, ऊर्जा की, स्पेस की। फिल्म में कोई विरोध नहीं, कोई क्रूरता नहीं। यही नवीन जीवन की गति है, जिसमें संबंधों की गहराई और गरिमा, धीरे-धीरे प्राथमिकताओं की सूची में पीछे खिसकती जाती है। यह जीवन के कुछ बड़े सवालों को भी सामने लाती है जैसे कि हम दुःख, बुढ़ापे, मृत्यु, से कैसे निपटते हैं।
फिल्म में सबसे करुण क्षण मृत्यु नहीं, आँसू नहीं, बल्कि वह मौन है, जब एक पात्र कहता है, “वो भी अपने ढंग से व्यस्त हैं और हम अपने ढंग से।”

|| चार ||

‘पास्ट लाइव्स’ में साथ होने और छूट जाने के बीच एक तीसरा भाव खड़ा होता है- संभावना का भाव। ‘पास्ट लाइव्स’ में न तो पूर्ण वियोग है, न ही पूर्ण संपर्क। बीच की कोई जगह है, जहाँ दो जीवन बस संभावना की तरह एक-दूसरे को देखते हैं।
ना-यांग और हे-सुंग बचपन के दोस्त, बारह साल बाद ऑनलाइन जुड़ते हैं। स्मृति और जिज्ञासा के पुल पर। लेकिन यह जुड़ाव स्थायी नहीं रहता। और फिर एक और दशक के बाद, वे यथार्थ में मिलते हैं। सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए।
उनकी मुलाकात में संवाद है, गर्माहट से भरा पर एक दूरी के साथ। उनका रिश्ता कोई प्रेम कथा नहीं, बल्कि एक स्मृति है, जो न तो पूरी हुई, न ही कभी समाप्त हुई। वर्षों बाद उनका मिलना किसी उत्तर की तलाश नहीं, बल्कि उस मौन स्वीकार का क्षण है जहाँ दोनों मान लेते हैं: कुछ रिश्ते समय से परे होते हैं।
वे अतीत को याद करते हैं, संभावनाओं पर हँसते हैं और एक शाम को साथ बिताते हैं जो किसी निर्णय की ओर नहीं जाती, केवल एक स्वीकृति की ओर कि कुछ रिश्ते साथ नहीं रहते और छूटते भी नहीं। यह फिल्म इस बात को छूती है कि अकेलापन केवल साथ न होने से नहीं आता, बल्कि उस कभी साथ हो सकने की भावना से भी आता है, जिसे हम पूरी उम्र साथ लेकर चलते हैं।
इन सभी फिल्मों में- टोक्यो स्टोरी, हर, पास्ट लाइव्स और लॉस्ट इन ट्रांसलेशन में समय अलग है, परिवेश अलग हैं। तकनीक, भाषा, संस्कृति सब भिन्न हैं लेकिन एक चीज़ समान है- एक मनुष्य की, दूसरे मनुष्य के साथ होने की आकांक्षा। कभी वह साथ होते हुए भी अधूरा है (टोक्यो स्टोरी), कभी वह तकनीक के माध्यम से एक भ्रम बन जाता है (हर), कभी वह एक पुरानी स्मृति की तरह लौटता है (पास्ट लाइव्स) और कभी वह एक संयोगी मौन में अपना रूप पाता है (लॉस्ट इन ट्रांसलेशन)।
इन कहानियों में अकेलापन नकारात्मक स्थिति की तरह नहीं आता। यह एक अनुभव है, एक गुंजाइश है जहाँ हम अपने भीतर झाँकते हैं और इस संभावना से भर उठते हैं कि कोई और भी ऐसा ही कर रहा होगा। प्रत्येक फिल्म के साथ हम एक बात में बार-बार लौटते हैं कि साथ होना, हमेशा पास होना नहीं होता और छूटना, हमेशा अलग हो जाना नहीं होता। कभी-कभी साथ होने का मतलब सिर्फ़ यह होता है कि कोई हमारे साथ चुप रह सकता है और यह चुप्पी, एक भाषा बन जाती है, जो जीवन के सबसे गहरे अकेले क्षणों में भी हमारे साथ रहती है।
अंत में यह लेख उस मौन की ओर झुकता है जो सबमें साझा है। एकांत का वह क्षण जब हम समझते हैं कि साथ होना दरअसल पूरी तरह समझा जाना नहीं, बल्कि असमझ की गरिमा में टिके रहना है।


दीप्ति कुशवाह

काव्य संकलन ‘आशाएँ हैं आयुध’ को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी का ‘संत नामदेव पुरस्कार’, निबंध संग्रह ‘गही समय की बाँह’ को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी का ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार’, बाल कविता संग्रह – ‘दक्ष की फुलवारी’, विज्ञान लेख संग्रह – ‘विज्ञान वैभव’

प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, गद्य, विज्ञान लेख, लोक विषयक लेखन के साथ उपस्थिति.

लोककला में प्रचुर लेखन और पुरस्कार, लोक चित्रकला पर एक पुस्तक – ‘मोतियन चौक पुराओ’,

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से लोककला में सीनियर फेलोशिप, कई एकल कला प्रदर्शनियां.

राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस पर आधारित कोलाज प्रदर्शनी ‘तस्वीरें बोलती हैं’ इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नयी दिल्ली में.

दैनिक भास्कर, नागपुर अंतर्गत कुछ वर्ष संपादन.

वर्तमान निवास:पुणे

deepti.dbimpressions@gmail.com

मोबाइल-9922822699

 


Discover more from रचना समय

Subscribe to get the latest posts sent to your email.