माताचरण मिश्र ने कम कहानियां लिखीं लेकिन जो भी लिखीं,नायाब हैं। नायाब इस मानी में कि उन्होंने सनसनी को मुद्दा नहीं बनाया। उन विषयों को चुना जो आज के समय की ज़रूरत हैं और आज जो इंसान का नसीबा हैं। माताचरण हाशिये पर ढकेल दिए गए लोगों की जुबान बनते हैं जिनमें घोर मानवीयता है। और जिन्होंने बुरे से बुरे समय में इंसानियत को गले लगाके रखा। ‘शेरवानी’ कहानी इसकी मिसाल है। पाठक इस कहानी पर अपनी राय ज़रूर देंगे। – हरि भटनागर
कहानी
मुमकिन है वह शेरवानी अभी भी मिर्जा उमराव की दुकान के शोकेस में टंगी हो। वही मिर्जा उमराव जिन्होंने एक बार प्रदेश के मुख्यमंत्री का नाप लिए बिना सिर्फ ऊपर से नीचे तक एयरपोर्ट के लाउंज में खड़ा देख उनकी शेरवानियाँ सिल दी थीं। जिसे देख प्रदेश के मुख्यमंत्री भी पिघलकर मोम हो गए थे और उन्होंने विदेश के अपने दौरे पर जाने से पहले मिर्जा उमराव को अपने गले से लगा, उनकी जेब नोटों से भर दी थीं। शहर के सबसे जाने माने शेरवानी सिलने वाले टेलरमास्टर मिर्जा उमराव कुदरत की कारीगरी के बहुत अजीब से उदाहरण कहे जा सकते हैं। दुकान पर बैठ आँखों पर गोल कमानी का चश्मा लगाए जब मिर्जा उमराव कपड़ों की कटिंग करते हैं या अपने किसी शागिर्द को ठीक से तुरपन करने की आवाज लगाते हैं तो उन्हें देख मजा ही आ जाता है। लोग बताते हैं कि अपने कई अधकचरे शागिर्दों को उन्होंने काम के वक्त गुस्से में कैंची तक फेंक मारी है परन्तु मजाल है कि किसी ने चूँ तक की हो, क्योंकि एक बात जरूर है कि जो भी शागिर्द उनकी नाराजगी और गुस्से को पी गया एक दिन जरूर वह दुनिया में अपना नाम करेगा।
उस शेरवानी का इतिहास तो आपको भी नहीं मालूम होगा जो अरसे से उनकी दुकान के शो केस में टंगी है। सिर्फ इसी इंतजार में कि वह जिसके नाप की है, जिसने वह शेरवानी मिर्जा उमराव को कभी सिलने के लिए दी थी, वह उसे लेने के लिए ही नहीं आया। मिर्जा उमराव ने भी उसे सिर्फ इसी उम्मीद पर टांग रखा है कि किसी न किसी दिन उस शेरवानी का मालिक उनकी दुकान की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आएगा और सिलाई के साढ़े तीन सौ रुपये गिनकर शेरवानी ले जाएगा।
मिर्जा उमराव ने शेरवानी सिलने का यह हुनर अपने पंचनमाजी चचाजान कलीमबख्श से सीखा था। किसी जमाने में वे नवाब भोपाल के खास दर्जियों में थे। जब कभी भी उन्हें अपने लिए कुछ सिलवाना होता था, पैगाम के साथ उनकी काली गाड़ी धूल उड़ाती हुई आती थी और चचा कलीमबख्श अपने भतीजे उमराव को दुकान सम्भालने की ताकीद कर कैंची फीता साथ लिए वाली गाड़ी पर बैठ नवाब की हवेली चले जाया करते थे। उन दिनों भोपाल की शख्सियत ही और थी। वह प्रदेश की राजधानी भी नहीं बना था। रास्तों पर इक्केवाले ही नजर आते थे। आटोरिक्शा और भटसुअर जैसी कोई चीज भी लोगों के जेहन में तब तक नहीं आ पाई थी। शाहजहांनाबाद ताजुल मस्जिद के पास अपने खपरैल वाले मकान की खुली परछी में बैठ चचा कलीमबख्श कपड़ों की कटिंग किया करते थे और उमराव बटन टाँकने और तुरपन लगाने जैसे काम में अपने चचा का हाथ बंटाया करते थे। तब मिर्जा की मसें भी नहीं भीगी थी और वे पूरी तरह चचा के शागिर्दों में अपने पैर निकाल रहे थे तब शेरवानी फैशन में भी थी और शादी ब्याहों और निकाहों में शेरवानी का आम रिवाज सा भी था जो अब थ्री पीस सूट और सफारी सूट में सिमट कर रह गया है। फिर चचा का भी इन्तकाल हो गया और चूंकि चचा की कोई औलाद नहीं थी इसलिए उमराव मियाँ को विरासत में वह शाहजहांनाबाद वाला घर और इब्राहिमपुरे की दुकान हासिल हो गई जिसे चचा ने अपने फन और कारीगरी के दिनों में बड़ी मेहनत और मशक्कत से बनाया था।
अब काम के प्रति वैसी लगन भी कहाँ है जो उनके चचा कलीमबख्श और उन जैसे लोगों में रहा करती थी। अब तो सभी कुछ व्यावसायिक होकर रह गया है। किसी को अपनी पेंट में सकरी मोहरी रखना है तो किसी को अपनी पेंट में पीछे पाकिट चाहिए, कोई बेलबॉटम सिलवाने आया है तो किसी को बेगी चाहिए और कुछ नहीं तो कोई दिलजला ऊलजुलूल अखबारनुमा कपड़े की फैशनेबुल शर्ट बनवाने के लिए दुकान पर चक्कर काट रहा है। कुल मिलाकर मतलब यह कि ग्राहक जो कहे वही पत्थर की लकीर है और कई बार तो उन्होंने यहाँ तक भी देखा है कि कपड़ा सिलने में कोई गलती रह जाए तो यहाँ वह भी नया फैशन साबित हो जाती है।
तब ऐसा कतई नहीं था। काम की कद्र थी। लोग दूर-दूर से मिर्जा उमराव का नाम पूछते उनके घर तक चले आया करते थे। वह शेरवानी भी उनके ऐसे ही किन्हीं दिनों की एक यादगार है। वाकया यह हुआ था कि ईद नजदीक थी। गर्मियों जोरों पर थी। संतरे और अंगूर बाजार में आ चुके थे। उनके रोजे चल रहे थे। शाम का इफ्तार लेने के बाद इत्मीनान से वह दुकान पर बैठे हुए थे कि एक अजनबी सा शख्स जिसकी उम्र पैंसठ से किसी भी मामले में कम नहीं थी, बड़ी फुर्ती से उनकी दुकान की सीढ़ियों पर आया था। वे अपने ग्राहकों का कपड़ा तैयार करने में मशगूल थे। पूरी दुकान ईद के कपड़ों से भरी थी। सिलाई मशीनें पूरी रफ्तार से अपने काम में लगी हुई थीं। उन्हें और कोई दूसरा काम लेने तक की फुरसत नहीं थी. और वे बार-बार अपने शागिर्दों पर झुंझला उठते थे।
वह शख्स उनके पास आकर सामने के एक स्टूल पर बैठ गया था। अपनी बातों से वह शख्स बेहद खुशमिजाज और मजाकिया किस्म का आदमी नजर आता था। बात-बात पर हंसी, कदम-कदम पर ठहाके, दरअसल उस शख्स के आने से उनकी दुकान में पैठा काम के बोझ का अहसास और उनकी झुंझलाहट भी कुछ हद तक कम हो गई थी और उन्होंने भी उसकी बातों से काफी ताजगी महसूस की थी।
“चचा, मैं तो सिर्फ आपका नाम और आपकी तारीफ के चर्चे सुनकर इतनी दूर से आपके पास आया हूँ। आपको यहाँ कौन नहीं जानता? मैं तो आपके पास सिर्फ इसलिए आया हूँ कि इस बार अपने शहर लौटते समय आपके हुनर का एक नायाब टुकड़ा इस शेरवानी के साथ अपने शहर ले जाऊँ ताकि भतीजे की शादी में बारात में मैं ही मैं दिखूं। टुकड़ों-टुकड़ों में उसकी बातों से मिर्जा उमराव भी लाजवाब हो चले थे।
उसके हाथों में कपड़े का अखबार के टुकड़े में लिपटा पैकेट था जिसे उसने खोलकर मिर्जा उमराव के काम करने की फैली हुई टेबल पर बिछा सा दिया था। मेहरून कलर का बहुत उम्दा किस्म का कपड़ा नजर आ रहा था वह। उस टक्कर का वैसा कपड़ा शायद अब पूरा बाजार ढूंढ़ने पर भी नहीं मिले। बिना अधिक कुछ कहे मिर्जा ने उसे खड़े कर फीते से उसका नाप ले दो महीने बाद आने को कह दिया। अधिकतर वे अपने पक्के ग्राहकों को इतना लम्बा समय ही दिया करते थे ताकि वे भी इत्मीनान से अपना काम कर सकें और उनके काम में कोई महीन से महीन नुक्स भी नहीं निकाली जा सके।
दो माह तो बहुत अधिक होते हैं चचा मिर्जा-मेरे भतीजे की शादी तो चौदह जून की है। अधिक बेहतर हो अगर आप दस जून तक मेरे काम से फारिग हो लें। उसने फिर मिर्जा उमराव से अनुनय-सी की।
“ठीक है अगर आपको इतनी ही जल्दी है तो दस जून के दो चार दिन पहले किसी को भिजवा दीजिएगा आपकी शेरवानी तैयार मिलेगी।” उन्होंने उस शख्स से कहा और फिर अपने काम में व्यस्त हो गए थे।
फिर दस जून भी निकल गया। दस जुलाई और दस अगस्त भी कब बीत गया उन्हें इसका भी पता नहीं चला और इसी तरह साल दो साल चार साल निकल गए। कोई वह शेरवानी लेने नहीं आया और वह शेरवानी उसी तरह उनकी दुकान के शो केस में हेंगर पर टंगी रह गई। एक बार तो खुद उनके दिमाग में भी आया था कि नाहक वह शेरवानी रुकी पड़ी है क्यों न उसे किसी तरह बेच बांच कर अपनी रकम निकाल ली जाए, परंतु पूछने पर वे अब भी कहते हैं क्या पता कब वह शख्स आ जाए और अपनी शेरवानी माँग बैठे तो वे उसे क्या जवाब देंगे? और वह भी नहीं तो कयामत के दिन अगर उससे मुलाकात हो गई तो उसे क्या कहेंगे? कुछ भी नहीं तो उनका सिर तो नीचा हो जाएगा। यही सोच वे अभी ज़ज्ब किए बैठे हुए हैं।
सुहैल से पूछो तो वह अभी भी बताता है कि बहुत अरसे पहले की बात है, बात उन दिनों की है जब बीमारी के कारण चचा घर पर आराम फरमा रहे थे। एक दिन सुबह के वक्त एक स्कूटर वाले ने अपनी स्कूटर उनकी दुकान के सामने रोकी और जो बातें बताई तो वह भी सकते में रह गया।
उसने उसे बताया कि वह शख्स जो शेरवानी सिलने दे गया था। यहाँ से लौटने के बाद किसी काम के सिलसिले में ट्रेन से घर लौट रहा था कि तभी ट्रेन पर ही उसे दिल का दौरा पड़ा। रास्ते में कोई सेवा-जतन नहीं हो पाई। किसी तरह अपने घर लौटा, अस्पताल में दाखिल किया गया। परंतु कोई फायदा नहीं हुआ। अस्पताल में ही उनका इन्तकाल हो गया और यह भी कि वे उनकी रिश्तेदारी में थे इसलिए ही वह यह सब बताने आया है कि अभी भी अगर वे चाहें तो इसे बेचकर अपनी सिलाई निकाल लें।
पूरी बात जानते हुए भी सुहैल अपने अब्बा को यह नहीं बता सका। नाहक अब्बा परेशान होंगे। उनका दिल टूट जाएगा। आज भी वह शेरवानी उनकी दुकान के शो केस के हैंगर पर टंगी हुई है। कभी-कभार चचा जब दुकान पर आते हैं और जब उनकी नजर शोकेस में टंगी शेरवानी पर जाती है तो वे लम्बी सांस खीचते हुए सोचते हैं. मुमकिन है अभी भी किसी दिन उस शेरवानी का वह मालिक उसी फुर्ती से दुकान की सीढ़ियों पर चढ़ेगा और पैसे चुका अपनी शेरवानी ले जाएगा। मिर्जा उमराव अभी भी उम्मीद नहीं हारे हैं।
माताचरण मिश्र
जन्म- 3 नवंबर 1946 को बिलासपुर (छत्तीसगढ़), शिक्षा- एम.ए.
मुख्य रूप से कवि, कथाकार लेखक । 32 वर्षों भारतीय स्टेट बैंक में काम करने के बाद सेवानिवृत्त। नौकरी की शुरुआत बिलासपुर से करने के बाद उमरिया, जांजगीर, कोतमा और मनेन्द्रगढ़ जैसी छोटी जगह में लोगों का अथाह प्रेम पाया।
कविता के चार संग्रहों “अकेला कोई नहीं”, “जंगल चुपचाप”, “बच रहेगा जो”, “अपना नहिं देस बिराना है” के अतिरिक्त दो कहानी संग्रह “रौदे हुए गुलाब” और “थोड़ी सी जगह और अन्य कहानियां” भी हैं।
“अक्षरा संपादन सम्मान”,”अखिल भारतीय भवानी मिश्रा सम्मान”, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य सम्मान”,” अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान” प्राप्त हुए हैं।
संपर्क- 9893467069
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