दारा शिकोह मुग़ल बादशाह शाहजहां के बड़े बेटे थे। उनका जन्म 1615 में अजमेर के तारागढ़ क़िले में हुआ था। युवा काल से ही दारा शिकोह को सूफ़ियों, संतों और आध्यात्मिक परम्परा में गहरी दिलचस्पी थी। सिरेॅ अकबर नाम से दारा शिकोह ने उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया। मजमा – उल – बहरीन – दो समुंद्रों का संगम – उनकी मशहूर किताब है। दिल्ली में उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना की थी जो आज भी वजूद में है। उत्तराधिकार की जंग में दारा शिकोह मारे ज़रूर गए किन्तु अपने अवदान के लिए वे आज भी जीवित हैं।
यहां हम दारा शिकोह की रूबाइयां प्रस्तुत कर रहे हैं।अनुवाद जे एन यू के प्रोफ़ेसर अख़लाक़ आहन ने किया है।
– हरि भटनागर
अनुवाद : अख़लाक़ ‘आहन’
दो शब्द
बनामे आंके ऊ नामे नदारद
बे हर नामे के ख़ानी सर बर आरद
(दारा शुकोह)
(अर्थात उसके नाम से, जिसका कोई (निश्चित) नाम नहीं है. जिस नाम से भी उसे पुकारोगे वो सर उठा देगा अर्थात ध्यान देगा और सुनेगा)।)
दारा शुकोह (१६१५-1669) को आमतौर से उत्तराधिकार की जंग और उसमें उनकी हार के हवाले देखा और जाना जाता है, लेकिन उनकी असल पहचान उनका वो कौतूहल और जिज्ञासा, सूफी परंपरा में गहरी रुचि, विद्वानों, पंडितों और ज्ञानियों से सम्बन्ध और उसके नतीजे में इस्लाम के साथ ही सनातन और दूसरी परम्पराओं का गहरा अध्ययन, ५२ उपनिषदों, योगवशिष्ठ और ऐसी दूसरी संहिताओं का फ़ारसी अनुवाद, सूफी परंपरा पर सकीनतुल-औलिया, सफ़ीनतुल-औलिया, रिसाला-ए-हक़नुमा जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की रचना है. इस जिज्ञासा का सबसे अहम् उदाहरण फ़ारसी में मज’मउल-बहरैन और संस्कृत में समुद्रसंगम जैसी किताबें हैं, जो दार्शनिक रूप से भारतीय उप-महाद्वीप में परम्पराओं की बहती धाराओं को समझने की संजीदा कोशिश है. उसी तरह हज़रत शाह मुहिबुल्लाह इलाहाबादी, मियां मीर, मुल्ला शाह बदखशी जैसे महान सूफियों, बाबा लाल जैसे महान संत और बनारस के पंडितों से उनका जुड़ाव और लगाव इसका सबूत है।.
आज हमारे सामने जो सब से बड़ा मसला खड़ा दिखाई दे रहा है वो है सदियों से बह रही ज्ञान, संस्कृति और तहज़ीब की साझी विरासत की धारा का छोटी-छोटी अस्मिताओं से जुड़ना और इन शनाख्तों में बँट जाना. ये हमारे इतिहास की सबसे बड़ी विडंबना है, त्रासदी है, और इसके भयानक परिणाम का सामना हम कर रहे हैं, और इससे भी अधिक भयावह सूरतेहाल का शायद सामना है. अगर हम अभी भी न सम्भले तो इतिहास हमें किसी लायक़ न छोड़ेगा.
इस पूरी परंपरा को समझने के लिए उपनिवेशिक काल से पहले के तहज़ीबी रिवायात और सांस्कृतिक रवैय्यों को ग़ौर से देखना और परखना होगा. इस विरासत की समझ के लिए उस दौर का एक चमकता सितारा दारा शुकोह है, इसीलिए दारा की शख्सियत, उसकी नीतियों, उसके दर्शन, उसका बौद्धिक और साहित्यिक योगदान को समझने की भी ज़रूरत है. बहुत काम लोग उसे एक हारे हुए शहज़ादे से अधिक जानते हैं. लेकिन वो एक विद्वान, फ़ारसी, अरबी, संस्कृत आदि के जानकार के साथ-साथ एक सूफी और शायर भी था. मुग़ल बादशाहों, शहज़ादों और शहज़ादियों में साहित्य-प्रेम बहुत आम था. इनमें से कइयों ने बड़े लेखक, साहित्यकार और कवि के रूप में भी ख्याति प्राप्त की. मध्य एशिया खासतौर से उज़्बेकिस्तान में बाबर की पहचान मूलतः एक महान लेखक के रूप में ही है. उसे कम ही लोग एक शासक के रूप में जानते हैं. उसी तरह हुमायूँ, उसका भाई मिर्ज़ा कामरान के साथ दारा-शुकोह और शहज़ादी ज़ैबुन्निसा ऐसे हुए हैं, जिन्होंने दीवान की रचना की. दीवान एक तरह से शायरी का सम्पूर्ण संकलन है. ज़ैबुन्निसा को ये गर्व भी प्राप्त है कि वो पूरे फ़ारसी साहित्य के इतिहास में पहली कवयित्री हुईं, जिनका दीवान है. इनके इलावा लगभग सभी मुग़लों ने कविता की शक्ल में कुछ न कुछ योगदान दिया है.
दारा शुकोह के दीवान में मुख्य रूप से ग़ज़लें और रुबाईयाँ हैं. ग़ज़ल की विधा के बारे में हम जानते हैं कि उसमें हरेक शे’र का अलग अर्थ होता है और आमतौर से ग़ज़ल किसी एक विषय में बंध कर नहीं रहती, जबकि रुबाई किसी एक विषय पर कवि की राय, दर्शन, अथवा फलसफे के इज़हार का ज़रिया होती है. इसीलिए जिन दार्शनिकों ने शायरी की तरफ धयान दिया या अपनी बात कहनी चाही, उन्होंने रुबाई की विधा को अपनाया. उनमें ख़य्याम के अलावा महान दार्शनिक इब्ने सीना, महान सूफी जैसे ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी, बाबा कोही, सरमद आदि का नाम आता है. लेकिन मुझे दारा की रुबाइयों को पढ़ते हुए ये देखकर बड़ी हैरत और आश्चर्य हुआ कि मैंने अब तक किसी दूसरे शायर के यहाँ ऐसी विषय-एकरूपता नहीं देखी जैसी दारा की रुबाइयों में देखने को मिलती है. लगभग दो सौ के क़रीब रुबाईयाँ हैं, उनमें कुछ ही ऐसी मिलती हैं जिन में वह्दतुल-वजूद अथवा अद्वैत के विषय में चर्चा या चिंतन न हो, या उसके किसी पहलू पर बहस न हो. ऐसा लगता है, मानो वो पूरी तरह से उसमें डूबा हुआ है, और शायद यही सही भी है कि अगर ऐसा न होता तो एक ही विषय को अलग अलग तरह से हर रुबाई में पेश करना मुमकिन न होता. हमारे सामने उनके समकालीन सूफी कवि सरमद की मिसाल है, जो उसी परंपरा के हैं, और उनकी मग्नता और भक्ति से हम सब वाक़िफ़ हैं, यहाँ तक कि इस राह में जान दे दी, लेकिन उनकी रुबाइयों में सूफी परंपरा के विभिन्न पहलुओं पर चिंतन मनन मिलता है, जबकि दारा पूर्णरूप से वह्दतुल-वजूदी नज़रिये की व्याख्या में लीन नज़र आते हैं. इस लिहाज़ से दारा शायद न केवल फ़ारसी परंपरा में बल्कि पूरे साहित्यिक परमपरा में अनोखा और एकलौता कवि नज़र आता है.
दारा का पूरा नाम मुहम्मद दारा शुकोह था और वो पांचवे मुग़ल सम्राट शाहजहां का बड़ा बेटा था. उसका जन्म २० मार्च १६१५ में मौजूदा राजस्थान के शहर अजमेर के नज़दीक सागरताल में हुआ था. उस वक़्त शाहजहां ख़ुद राजकुमार था और ख़ुर्रम के नाम से जाना जाता था. दारा सम्राट जहांगीर का भी बेहद प्रिय था. दारा को युवाकाल से ही सूफियों, संतों और आध्यात्मिक परंपरा में गहरी रुचि हो गयी. उसे राजकुमार और भावी उत्तराधिकारी की हैसियत से कई प्रशासनिक और सैन्य ज़िम्मेदारियाँ भी दी गयीं, लेकिन उसकी असल दिलचस्पी का महवर कुछ और ही रहा. उत्तराधिकार की जंग में वो हार गया, लेकिन उसने ऐसे कारनामे अंजाम दिए जो हमेशा उसे ज़िंदा रखेंगे. इन कारनामों में उसकी रचित किताबें और सिर्रे-अकबर के नाम से उपनिषदों के फ़ारसी अनुवाद का महान कार्य है, जिसने भारतीय दर्शन परंपरा को पूरे विश्व में परिचय कराया. यहाँ यह कहना आवश्यक है कि दारा ऐसा पहला व्यक्ति नहीं था जो ऐसा कर रहा था, बल्कि यही भारतीय परंपरा सदियों से रही थी, दारा ने उसमें अहम् योगदान दिया. हमारी परंपरा में ज्ञान को अस्मिता का हिस्सा नहीं माना गया, इसीलिए हम पूर्व-उपनिवेश काल में मुल्लाओं को संस्कृत और दूसरी परम्पराओं के विद्वान के रूप में पाते हैं और पंडितों को अरबी और इस्लामी विद्या के ज्ञाता के रूप में. खुसरो, अब्दुल-क़ुद्दूस गंगोही, गुरु नानक, महेश ठाकुर, मुहिब्बुल्लाह इलाहाबादी, चंद्रभान ब्राह्मण, दारा शुकोह, बाबा लाल, मज़हर जाने-जानां आदि इस परम्परा के ज्वलंत उदहारण हैं।
रुबाईयाते – दारा शुकोह
(1)
किसी ज़र्रा को हमने ख़ुरशीद (सूर्य) से अलग नहीं देखा, वैसे ही जैसे समुंद्र का हर क़तरा बज़ात-ए-ख़ुद दरिया (का ही हिस्सा) है। ज़ात-ए-हक़ (परम-सत्य) को किसी भी नाम से पुकारा जाये, क्योंकि जितने भी नाम (या वजूद/अस्तित्व) हैं वो सब ख़ुदा ही के नाम (से मुस्तआर अथवा अर्जित/व्युत्पन्न) हैं।
(2)
बशर (प्राणियों) की तारीफ़ में मेरी ज़बान न खुली, क्योंकि मेरा वजूद ज़ात-ए-हक़ के सिवा किसी और की तलाश में न रहा।
(3)
तुम क़तरे को समुंद्र से जुदा या अलग देखते हो, यद्पि ऐसा नहीं है। हर वो क़तरा जिसने ख़ुद को समुंद्र में समो लिया, उसे फिर समुंद्र से अलग नहीं किया जा सकता।
(4)
अगर तुम नेक-मनिश या चित्त के हो तो सबको नेक समझोगे, और अगर ख़ुद ही बुरे हो तो दूसरों को भी वैसा ही देखोगे। तुम्हारी सूरत के इलावा और कोई सूरत ज़ाहिर ना होगी, (दरहक़ीक़त) तुम अपने आईना में ही सबको देखते हो।
(5)
ऐ! वो कि हर जगह ख़ुदा की तलाश में भटक रहे हो, (क्या तुम्हें मालूम है कि) तुम ख़ुद ही ख़ुदा (का हिस्सा) हो और इस से जुदा नहीं हो। तुम्हारा ख़ुदा की तलाश ऐसा ही है जैसे समुंद्र में मौजूद एक क़तरा, समुंद्र का ढूंढ रहा हो।
(6)
नबी ने तौहीद (एकेश्वरवाद) के बारे में बताया और ये कहा कि ख़ुदा वहदते-ज़ात के सिवा और कुछ नहीं अथवा पूरी सृस्टि उसी एक अस्तित्व में समाहित है। जब ख़ुदा ने और उनके पैग़म्बरों ने इस की व्याख्या कर दी तो मैं अब मुल्ला से इस की क्या व्याख्या करूँ।
(7)
तौहीद के बारे में बताऊँगा अगर तुम हमारी बात समझ सको कि ख़ुदा के सिवा कोई और वजूद है ही नहीं। ये बाक़ी जिन चीज़ों को जो तुम देखते हो और उसे अलग वजूद समझते हो, दर-हक़ीक़त सब एक ही अस्तित्व (का हिस्सा) हैं, जिसका नाम ख़ुदा है।
(8)
तुम ये चाहते हो कि तुम्हें ईमान की तालीम करूँ, (तो सुनो) शरीर के सारे अंगों को इस (को देखने वाली) आँख कल्पना करो और बाक़ी भी इसी तरह।
(9)
एक आरिफ़ (प्रबुद्ध संत) के दिल पर किसी भी वक़्त किसी ख़तरा (ख़ौफ़) का गुज़र नहीं होता, और अगर कभी (इत्तेफ़ाक़न) ऐसा हो भी जाये तो फ़ौरन मिट जाता है। यधपि घास-पात और कचरा हर वक़्त समुंद्र में बहते रहते हैं, लेकिन किसी भी वक़्त सतह पर ठहर नहीं पाते।
(10)
घड़े के अंदर और बाहर से हवा भरा होता है, और घड़े के अंदर आवाज़ गूँजती रहती है। (लेकिन) जब वो टूट कर आवाज़ के साथ बिखर जाता है, तो ऐसा ही होता है जैसे पानी का बुलबुला टूट कर समुंद्र हो गया (या समुंद्र का हिस्सा हो गया)।
(11)
ऐ भाई! अपनी आत्मा (रूह) का हमेशा ख़्याल रखो, (क्यों कि) ये इस ख़ाना-ए-मारेफ़त (यानी बदन) में मेहमान का निशान है। और इश्क़ की राह में जो कुछ भी सामने आए या जिन हालात का भी सामना हो, उसे सहर्ष क़बूल करो।
(12)
अगरचे ख़ुदा का कोई साया नहीं है, लेकिन (ऐसा मान भी लें तब भी) उसका साया किसी नुमाईश या दिखावे के लिए तो नहीं हो सकता। मुझे पीड़ा होती है जब कोई मुझे ख़ुदा का साया कहता है, और मुझे डर लगता है कि इस से कहीं ख़ुदा की दुई का पुष्टिकरण और समर्थन न हो।
(13)
परमेश्वर तो समुंद्र की तरह है, और समस्त आत्मायें और जीव पानी की लकीरों की तरह हैं। ये समुंद्र ही है जो जोश में आता रहता है, और वो कभी क़तरा, कभी मौज और कभी बुलबुला की शक्लें बनाता रहता है।
(14)
मैं ये बात शोध और जाँच-पड़ताल की बुनियाद पर कह रहा हूँ, अगर तुम (समझदार) इन्सान हो तो उसे क़बूल करो और रुगिरदानी ना करो अथवा पीछे न हटो। (ये जान लो) गुण कभी स्तित्व का पर्दा नहीं होते, ऐसे ही जैसे समुंद्र की सतह की लकीरें कभी समुंद्र (की हक़ीक़त) को छिपा नहीं कर सकते।
(15)
तुम ये कहते हो कि सूफ़ियों का कोई तरीक़ा नहीं होता, लेकिन वो (किसी ना किसी) तरीक़त अथवा मार्ग से ही मंज़िल तक पहुंच गए। तुम ये समझते हो कि सूफ़ी किसी तरीक़े से जुड़े नहीं हैं, तो तुम ऐ भटके हुए (बेशक) बड़ी ग़लती कर रहे हो।
(16)
ऐ वो शख़्स जो ज़ाहिद अथवा तपस्वी की तरह पुण्य-कार्य पर ख़ुशी का प्रदर्शन करते हो, ख़ुद को ख़ुदा के नज़दीक लाओ और मौजूदा हालत से दूर करो। (तुम्हें चाहिए कि) वियोग में तड़पो, यधपि सोने की ज़ंजीर में जकड़े हुए हो, (अब फ़ैसला तुम्हारे हाथ में है कि) तुम पुण्य (और इतमीनान) की बंदिश में रहना चाहते हो या तड़प की क़ैद में।
(17)
वो स्तित्व जिस के अमरत्व के रंग से हज़ारों लोक परिपूर्ण है, हमारे और तुम्हारे रंग की तो अपनी कोई शनाख़्त (हक़ीक़त) ही नहीं। बाक़ी जितनी भी शनाख़्त हैं, उन्हें महज़ हवस, लोभ और लोलुपता समझना चाहिए। परम-अस्तित्व तो तमाम रंगों (शनाख़्तों) से परे है, उसी की पहचान में गुम होजाना चाहिए।
(18)
(19)
रहस्यवादी संत उसके ऐक्य अथवा वहदत के विवरण में शराबे- (मानी, अर्थ, आशय) ताज़ा लाता है, बावजूद इसके कि असल हक़ीक़त से ख़ुद ग़ाफ़िल है और अज्ञान-लोक में पड़ा हुआ है। (जबकि) वो ख़ुद जानता है कि इस बात को हर ऐरा-ग़ैरा नहीं समझ सकता, इस नुक्ते की अनुभूति (इर्फ़ान) दुनिया में विरले है।
(20)
वहदते-ज़ात अथवा अद्वैत के बारे में शक नहीं हो सकता। ये अपने आप में सोना है, इसे सिर्फ निशानी नहीं कह सकते। एक परम सत्य के इलावा किसी अस्तित्व का होना विवेक को स्वीकार्य नहीं। चूँकि तौहीद अथवा अद्वैत साबित है, इसलिए कोई और बात नहीं कह सकते।
(21)
ऐ कि तेरे बग़ैर मुझे कब आरामो-सुकून हो सकता है, चूँकि मैं तुझमें ही खो गया, मेरी अपनी शनाख़्त कहाँ है। तुम्हारी आरज़ू के सिवा मुझे और कौन सी आरज़ू हो सकती है, मेरी तमन्ना जब तुम हो तो और कोई तमन्ना कब हो सकती है।
(22)
आशिक़ और माशूक़ के दरमयान बहुत सारी बातें होती हैं, सैंकड़ों नाज़, वादों और गुफ़्तगु के मरहले होते हैं। साहचर्य की बेशुमार नज़ाकतें जो उनके बीच होती हैं, कोई और इस से अवगत नहीं होता क्यों कि वो वो राज़ की बातें होती हैं।
(23)
वो जिसकी ख़ातिर आसमान गर्दिश में है, वो जिसकी विशेषताओं के विवरण करने में फ़रिश्ते अथवा देवता भी असमर्थ हैं, वो जिसके लिए ज़मीन नत्मस्तक हो,वह केवल इन्सान को ही मयस्सर है।
(24)
जिधर भी नज़र उठाता हूँ वही हसीन चेहरा दिखाई देता है, वही मेरे ज़हनो-दिमाग़ में भी है और वही मेरे तन में भी। हर चीज़ की हालत, ये जान लो कि शुद्ध हो या विशुद्ध, सब वही है।
(25)
ऐ दोस्त! दुनिया से उदासीन होजाना, सत्ता और शौर्य से दूर होजाना शौभाग्य की निशानी है। मै इसके लिए जितनी भी कोशिश करता हूँ, लेकिन मेरा राज़ फ़ाश हो जाता है, (क्यों कि) ईश्वर का रहस्य भी इस अस्तित्व के साथ है।
(26)
ईश्वर के रहस्य की प्राप्ति जीवन-चक्र से बाहर होना है, क्यों और क्या की बहस से निकल कर ज्ञान अर्जित करना है। वहां सबूतों और दलीलों की कोई प्रासंगिकता नहीं है,वहां विवेक से परे हो कर मजनूं होना है।
(27)
पड़ोसी, सहपाठी और हमसफ़र सब वही है, भिखारी के कशकोल (कटोरे) और बादशाह के ताज में वही है। प्रजा के सम्मलेन और लोगों के घरों में भी, क़सम उसकी वही है, क़सम उसकी, सब वही है।
(28)
इस संसार में जिसकी चर्चा नहीं, वो भी वही (वैसे ही) है, जैसा कि दाने को छिलके की शक्ल का पता नहीं होता। जब परमेशवर का पूर्ण ज्ञान किसी को हासिल हो जाता है, फिर तो उस के लिए इस अज्ञानता के अंत के लिए मृत्यु ज़्यादा बेहतर है।
(29)
जो कोई भी सत्ता-मोह से गुज़र गया, उसी ने (गुमराही के) गड्ढे को पार कर लिया, और वो बिजली की तरह अपने होने के वहम से शीघ्र निकल गया। तपस्वी ने सिर्फ इस बुनियाद पर मुझे गुमराह किया,(क्यों कि) आरिफ़ मुक़ामे-हक़ीक़त (परम-सत्य) तक अपने रास्ते से पहुंच गया।
(30)
जिस किसी ने देखा, वो देखी हुई (बात) सुनाएगा, जिसने उन्हें देखा, वो सुनी हुई पर यक़ीन कर के बताएगा। जिस किसी को महबूब का वस्ल अथवा संयोजन नसीब ही नहीं हुआ,वो किस तरह से सुनी हुई बात को बयान करेगा।
(31)
(आश्चर्य है) जिसे वर्तमान का अनुभूति नहीं, उसने भी तौहीद (अद्वैत) की पहचान कर ली? वैसा शख़्स राहे-तलब में साहसी नहीं हो सकता। भाग्यशाली है वो जिसने ख़ुद अपने अस्तित्व में परम-सत्य की पहचान कर ली,(क्यों कि) वो तो हर जगह मौजूद है, कोई ज़र्रा उस से ख़ाली नहीं।
(32)
चूँ कि मेरी आँखों की रोशनी चली जा रही है। इस कमी की वृद्धि कहाँ और किस के यहां चली जा रही है? तुम्हारे नज़दीक उस के कम और ज़्यादा होने पर यक़ीन की निर्भरता है, मेरे लिए तो मेरी आँखें इस महीने चौधवीं का चांद हैं।
(33)
(34)
बग़ैर मदद या तदबीर के कोई काम अंजाम नहीं पाता,और कोई भी चीज़ चार दोस्तों से बेहतर नहीं होती। मेरी क़िस्मत को बस यही दरकार है कि चार पांव दरुस्त रहें।
(35)
ऐ तपस्वी! अधिक तपस्या का मक़सद क्या है,अगर वो अनुपस्थित है तो फिर उपस्थित कौन है?
पूरे ध्यान और आसक्ति के साथ अगर एक-बार भी परम-सत्य का नाम ले लिया तो वही काफ़ी है।
(36)
साक़ी ने जिस किसी को जामे-अलस्त पिला दिया, वो फिर कभी होश में ना आ सका और बे-ख़ुदी-ओ-मस्ती में रहा। हस्ती या वजूद की हालत तो ढोंग होता है,(जब इस से निकला) तो पाया कि वो ख़ुद कुछ नहीं, जो है सो एक ही है।
(37)
दुई अथवा द्वैत (की गुमराही) को अद्वैत (यगानगी) से ख़त्म कर डालो, और अपनी ज़हनी कज-फ़हमी का ईलाज इस तरह करो। गिनतियों से एक कई या संयुक्त नहीं हो जाता, वैसे ही जैसे समुंद्र मौजों की वजह से टुकड़े नहीं होता।
(38)
दुनिया में मदिरा (ज्ञान) से बेहतर कुछ भी नहीं, तुम्हें चाहिए कि इस के सिवा कुछ और तलब ना करो। अद्वैत को मानो और सुलहे-कुल (सहिष्णुता) को पेशे-नज़र रखो, और हठधर्मी को त्याग दो, क्यों कि फ़िर्काबंदी बेफायदा और बेहूदा रवैय्या है।
(39)
सुबह हुई और अब जामे-सुबूह (सुबह की मदिरा) हाज़िर करो, विरह-काल तमाम हुई और उत्सव-दिवस आ गया। अपनी हस्ती की बुनियाद को तबदील करो, जब वहम का पर्दा उठता है तो साँसें रूह में बदल जाती हैं।
(40)
पानी हर-गिज़ बर्फ़ के अंदर पिनहां नहीं हो सकता,या ये कि वो बर्फ़ के अंदर बुलबुले के निशान बना दे। परम-सत्य तो सत्य-समुन्द्र है कि जिस में पूरी कायनात, ऐसे ही अदृश्य अथवा तिरोभूत है, जैसे बर्फ़ में पानी और पानी में बर्फ़।
(41)
जो मुश्किल काम है, उसे दरवेश अंजाम देता है, दिलों पर मरहम लगाता है ताकि वो ठीक हो जाए। जब वो मरता है तो उसका (प्रभाव) बढ़ जाता है।और नंगी तलवार की भांति अपने काम को आगे बढ़ता है।
(42)
फ़ना होने वाले को ख़ुदा बक़ा (शाश्वतता) प्रदान करता है,जो बीमारे-तरीक़त (ज्ञान-लोलुप रोगी) है, उसे दवा बख़्शता है।
ऐ पथिक! मारे जाने और मरने से मत डरो,पारा जब कुश्ता में परिवर्तित होता है, तभी शिफ़ा बख़्शता है या उस के काबिल हो पाता है।
(43)
जब अपने वजूद के होने को मैंने रद्द कर दिया, तो हम तुम सब अच्छे-बुरे एक जैसे हो गए।
अब अपना या उस का नाम लेने की ज़रूरत ही नहीं,अब अगर मैं अपना नाम लूँगा तो वो रंजीदा हो जाएगा।
(44)
मैं ईश्वर (पूजायोग्य) की तलाश में बहुत सरगर्दां रहा, लेकिन ख़ुद में पूजनीय और पुजारी की (भेद) तलाश ना कर पाया। इन सब कोशिशों के नतीजे में यही तहक़ीक़ हो पाई कि दोनों आलम (जगत) में सिर्फ एक ही अस्तित्व मौजूद है।
(45)
जो लोग ख़ुदा को वहां देख पाते हैं, उनके बारे में मालूम करो कि क्या वो इस दुनिया में भी देख पाते हैं। ख़ुदा का दीदार यहां और वहां यकसाँ (तौर पर संभव) है। (देखनेवाले) हर पल प्रकट और अदृश्य हालत में उसे देखते हैं।
(46)
इबलीस ने हज़रते-आदम का कैसा इनकार किया, लेकिन हज़रते- हुसैन ने या हक़! कहा और दार पर चढ़ गए । छल और बुराई मुल्लाओं और पुरोहितों की प्रकृति है, जिसके कारण औलिया और नबियों को तकलीफ़ पहुँचती रही।
(47)
तत्व जब एक दूसरे में मिल गए, तो तत्वों से लताफ़त (सूक्छमता) अर्जित करने के पश्चात् सर्वोत्तम अस्तित्व (इन्सान) वजूद में आया। फिर हम दुबारा अपनी असल की तरफ़ वापिस हो गए, इस तरह ये मसला (जीवन-मृत्यु) हमारे फ़लसफ़ी के लिए हल हो गया।
(48)
ख़ुदा के नज़दीक तुम्हारे ज़ोहदो-तक़्वा (तपस्या, पूजा-पाठ) की क्या गिनती, ख़ुदा के नज़दीक कब तुम्हारे दिल की कैफ़ीयत ज़ाहिर होगी। तुम्हें चाहिए कि ख़ुद को ज़ात-ए-हक़ (परम-सत्य) से अलग मत समझो, तुम्हारा फ़ना हो जाना ख़ुदा के किस काम का है।
(49)
आरिफ़ (सिद्ध-संत, ज्ञानी) को चाहिए कि ख़ुद पर ख़ुदाई का दवा ना करे,और परम-अस्तित्व से ख़ुद को जुदा ना समझे। अगर कोई बंदा के बतौर होगा तो उस का ख़ुदा भी होगा, चूकि वही परम-अस्तित्व है (और कोई उस से जुदा नहीं तो) ख़ुद को भिन्न बताने दिखाने की ज़रूरत नहीं।
(50)
दोनों जहां में मेरे महबूब के सिवा और कुछ नहीं, कोई दूसरा बादशाह उस जैसा नहीं। ऐ दोस्त! जब ये ज़ाहिरी पर्दा हटेगा, तो मालूम होगा कि उस दिलबर के सिवा और कोई वजूद नहीं।
(51)
किताबे-इश्क़ (प्रेम-ग्रन्थ) के सिवा भी कोई और सबक़ पढ़ता है? या पढ़ने लायक़ है? दोस्त के सिवा भी किसी और के बारे में कोई सोचता है? या सोच सकता है? जो बे-हौसला हैं, वो मुझे नादान कहते हैं, क्या दीदारे-महबूब से भी कोई उकता सकता है?
(52)
हर ज़र्रा उस की वहदत की आवाज़ लगा रहा है,और कह रहा है कि उस के सिवा कुछ और नहीं, या कोई और वजूद नहीं, नाक-नक़्श की विभिन्नता से वजूद की तादाद में इज़ाफ़ा नहीं होता, (दरअसल) तुम्हारा हर अंग भी ख़ुदा के नाम से ही संलग्न है।
(53)
एक नज़र के फ़ैज़ (कृपा) से सैंकड़ों काम अंजाम दे दोगे, महबूब आएगा, अगर इंतिज़ार कर पाओगे। हमें तुमसे हज़ारों दूसरे काम हैं, इस बार अगर ना हो सका तो आइन्दा हो जाएगा।
(54)
अगर तू चाहता है कि ख़ुदा तुम्हारे नाम की शनाख़्त हो जाये, और वो महबूबे-यकता तुम्हारा हो जाए। तो तुम अपने आपको अपनी राह से (अर्थात भोग-विलाष) से अलग कर लो, ताकि महबूब सुबहो-शाम (हर समय) तुम्हारा मददगार और दोस्त हो जाए।
55)
(56)
(57)
आशिक़ों पर हर पल नयी आकांक्षाओं का रहस्योद्घाटन होता रहता है, वो (दर-हक़ीक़त) ख़ुद ही नौजागरण के सर्जक होते हैं, ना कि लकीर के फ़क़ीर। शेर अपने शिकार के इलावा कुछ नहीं खाते, (ये तो) लोमड़ी होती है जो (जूठा) सूखा हुआ मांस खाती है।
(58)
मेरी तुलना किसी और से नहीं होनी चाहिए या किसी और जैसा मुझे ना समझा जाये, जो बात मैंने कही नहीं, उस पर अप्रसन्न न हों। अगर बुलबुल चार बच्चे देती है, (तो उनमें) बुलबुल का बड़ा बच्चा ही (उस) बुलबुल जैसा होता है।
(59)
आरिफ़ तुम्हारे दिलो-जान को सुसज्जित कर देता है, एक तरफ जहाँ वो कांटे लगाता है (यानी सख़्ती करता है तो), उसके एवज में गुलशन लगा देता है।(आरीफ़े-कामिल अथवा सिद्ध-संत) सबको उस की कमियों से निकाल लाता है, वो एक दिए से हज़ार दिए रौशन कर देता है।
(60)
मुझे वो दर्द है जिसका कोई ईलाज नहीं, मेरे अंदर इनकार का वो माद्दा या रवैय्या है, जहां ईमान (या मानने, अनुगमन) का ज़िक्र ही नहीं। इस के लिए में हर चीज़ से बेज़ार (और बे-परवाह) हो चुका हूँ, (लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि) सिर्फ एक की तरफ़ ही लौ लगा लेना आसान नहीं।
(61)
(अगर-चे) मालो-ज़र की ज़्यादा ख़ाहिश नहीं होनी चाहिए, और दिल की ख़ाहिशात भी कम से कम होनी चाहिए। (फिर) इस बार तूने ये बारे-गराँ क्यूँ-कर सर पर लाद लिया है, ज़िम्मेदारी अपने सर (अपनी औक़ात) के मुताबिक़ ही लेनी चाहिए।
(62)
हे शक्ति-श्रोत (ख़ुदा)! मेरी ज़िंदगी शर्मिंदगी का मुतरादिफ़ (पर्याय) हो गई है, मेरे दिल को तो सिर्फ तेरे मिलन से राहत होगी। मैं भी दूसरों की तरह कहाँ-कहाँ हालते-महरूमी में रहूँगा, जब कि मेरी ज़िंदगी का मुर्शिद (मार्ग-दर्शक, स्वामी) सिर्फ़ तेरा ख़याल ही है।
(63)
(एक-बार) माशूक़ ख़ुद शौक़े-इश्क़ में आशिक़ हो गया, और इस तरह (वो इश्क़ की) सख़्तियों में गिरफ़्तार हो कर रंज उठाया। दर-पर्दा उसने दर-असल ख़ुद ही से इश्क़ किया, (और जब) ख़ुद से पर्दा उठाया तो ख़ुद ही का दीदार किया।
(64)
महबूब के चेहरे के जैसा ही उस का निक़ाब भी होता है, यानी निक़ाब ब-ज़ाहिर अलग मालूम होता है, लेकिन वो उस के चेहरा का ही हिस्सा होता है, अगरचे वो हिजाब (ओट, आवरण) ज़ाते-हक़ीक़ी से जुदा मालूम होता है।
हर चीज़ अपनी असल की तरफ़ लौट जाती है, जैसे बुलबुला, जो आख़िरे-कार पानी का हिस्सा हो जाता है।
(65)
जो दिल तुमसे आसक्त हो, वो भला और किस की आरज़ू करेगा, जिसे मुरादो-मक़सूद (परम-लक्ष्य) हासिल हो जाए, वो किस चीज़ के लिए दुआ (गुहार) करेगा। जो कोई तुझसे जुड़ गया या तुझसे मिल गया, वो इश्क़ की मंज़िलों से परे हो गया,और जो तेरा माशूक़ हो गया, उसे फिर इश्क़ की क्या ज़रूरत।
(66)
दुनिया की हर चीज़ के लिए पसंद और नापसंदीदगी है, अदृश्य होने और ज़ाहिर होने की भी एक हद है। सभी वस्तु अस्तित्व में आते हैं और फिर मिट जाते हैं, अस्तित्व के समुंद्र में जवार-भाटा आता रहता है।
(67)
अगर किसी ने बर्फ़ देखा और पानी ना देख सका, अँगूर का दाना देखा और मदिरा ना देख सका। सीमित को देखकर असीमित या पूर्ण रूप की कल्पना करनी चाहिए। अगर परम-अस्तित्व को भी सीमित कर के कोई देखे, तो ऐसा ही है जैसे वो स्वप्न में कोई चीज़ देखे।
(68)
मैं (ज़ाहिरी) शानो-शुकोह (शान और वैभव) से गुज़र आया और कोई शान ना बची, मेरी नज़र में सिवाए ख़ुदा के और कुछ ना रहा। जो कोई भी परम-सत्य तक पहुंच गया, उसे लोगों ने गुमराह कहा। मुझे अब कहीं और नहीं पहुंचना, इसलिए मैंने सारे रास्ते भुला दिए।
(69)
मुस्लमान, ज़रतुश्ती (पारसी) और यहूदी सब उसी के पैदा किए हुए हैं, मुझे नहीं मालूम कि कौन प्रिय है और कौन अप्रिय। सब यही चाहते हैं कि (अपने) आईने में उस असीम सौंदर्य को देख लें, लेकिन तमाम कोशिशें बेकार हो गईं और नाकाम।
(70)
जब परम-अस्तित्व ने ख़ुद को एक चेहरे में सीमित किया, तो इश्क़ के आईने में उसने ख़ुद अपना ही चेहरा देखा। जब परम-प्रिय ने अपने दूसरे नाम (पहचान) का तक़ाज़ा किया, तो अपने चेहरे के अक्स का नाम मुहम्मद रखा।
(71-73)
(74)
आज़ाद (स्वतंत्र) तो वो है जिसे धोखाधड़ी और ढोंग नहीं आता, और सिवाए ईश्वर के किसी से कोई सरोकार ना हो। अगर किसी चीज़ से भी दिल लगाए हुए हो तो फिर तुम आज़ाद नहीं हो सकते,आज़ाद तो वो है जो किसी भी तरह के क़ैद में ना हो।
(75)
ज़्यादा नमाज़ें पढ़ने से तू ख़ुदा तक नहीं पहुंच सकता, ख़ुदा के लिए अपनी ख़ुदी (स्वयं की तलाश) को बढ़ाओ। सिर्फ ख़ुदा से लौ लगाओ और बाक़ी व्यस्तताओं को -नज़र-अंदाज़ करो, वर्ना सिर्फ व्यस्तताओं (को माध्यम समझना) आख़िरे-कार शिर्क (ईश्वर के बराबर समझना) साबित होगा।
(76)
इश्क़ में जो कोई ख़ूने-जिगर पीता है (कष्ट उठाता है), वो सुबह-शाम ख़ाबे-ग़फ़लत में नहीं होता। किसी की बातों के बजाय उस के कर्म देखो, तक़लीद (पद्चिन्हो पर चलना) दूसरी चीज़ होती है और तहक़ीक़ (शोध) अलग बात।
(77)
कहने की बात नहीं कि तू ने आख़िरे-कार मेरा दिल ले लिया,और अपनी मुहब्बत को मेरे दिल में ब-शिद्दत बढ़ा दिया। वो जिसे मैं पहाड़ो और जंगलों में ढूंढता फिर रहा हूँ, जितनी भी जुस्तजू करता हूँ, तेरे सिवा और कोई नहीं।
(78)
ज़िंदा-दिल और मरे हुए दिल में फ़र्क़ है, जिसने रास्ता गुम कर दिया और जो उस की तलाश में सरगर्दां है, दोनों बिलकुल मुख़्तलिफ़ हैं। अगरचे सब राज़ों का नतीजा एक ही है, लेकिन जो राज़ पर्दे में है और जो ज़ाहिर है, दोनों की बात अलग है।
(79)
जिस किसी ने उस मक़ाम-ए-बुलंद की ज़ियारत की, उसने अपनी आँखों से समस्त समुन्द्रों (रहस्यों) का अवलोकन कर लिया। किसी ने भी परमेश्वर का काबा में दीदार नहीं किया, लेकिन (यदि सच्चा प्रेम हो तो) वो अपनी कुटिया में ईश्वर को पा लेता है।
(80)
उस प्रियतम से स्वप्न में आमना सामना हो गया, मैंने बहुत आग्रह किया कि मुझे अपने दर्शन से प्रदान कर दे। उसने कहा कि अगर तुम यही चाहते हो तो, मेरी नसीहत है कि एक-बार ख़ुद का सामना करो अथवा स्वयं से मिल लो।
(81)
दुनिया के बाग़ में चूँकि फूल और कांटे साथ-साथ होते हैं, उसी तरह कभी सुख-दुःख आते-जाते रहते हैं। तुम अपने घमंड में ख़ुद को आरिफ़ (रहस्यवादी ज्ञानी) कहते हो, लेकिन (दर-हक़ीक़त) बीमार हो, अगर तुम्हारी उंगली से भी किसी को तकलीफ़ पहुँचती है।
(82)
अगर तुम ये चाहते हो कि अरबाब-ए-नज़र (मनीषी परेक्षक) की निगाहों में आ जाओ, तो ‘क़ाल’ (वाच परम्परा) से ‘हाल’ (अनुभूति) की तरफ़ कूच करो, सिर्फ तौहीद (अद्वैत) की रट लगा कर मोवह्हिद (वेदांती) नहीं हो सकते, (वैसे ही जैसे) चीनी कहने से मुँह मीठा नहीं होता।
(83)
प्रेमी को मौत से तकलीफ़ (या ख़ौफ़,भय) नहीं होगी। क्योंकि जिसका दिल बेदार होता है, वो ख़ाब से नहीं डरता। क्या होगा अगर तुम्हारी रूह ने तुम्हारे जिस्म को छोड़ दिया, ये ऐसे ही है जैसे पुराना हो जाने पर साँप अपना केंचुल छोड़ देता है।
(84)
अगर तुम्हारा दिल ग़फ़लतों से बेदार (जागृत) है, तो तुम समस्त अस्तित्व में हज़रत अहमद मुस्फ़तफ़ा की सूरत को देख सकते हो। हर ज़र्रा परम-सत्य की तरफ़ ले जाने वाला राहबर (मार्गदर्शक) है, जो कुछ तुम्हें नज़र आ रहा है, उसे तुम जलवा-ए-मुहम्मदी तसव्वुर करो।
(85)
यधपि प्रीतम (परम) अपने और दूसरों के बीच अनंत पर्दे रखता है, (इसके बावजूद) उस का चेहरा बेहद हसीं और भव्य दिखाई देता है। चूँकि तुम्हारी ऐनक उस के चेहरा का निक़ाब बन जाता है, इसलिए तुम्हें चाहिए कि अपनी आँखों के सामने से ऐनक का ग़ुबार हटा दे।
(86)
ऐ वो कि जिसकी नज़र लोगों के (ज़ाहिरी) किरदार और कर्म पर रहती है, (लेकिन) जो बुद्धिमान हैं वो पाप और पुण्य की हक़ीक़त को समझते हैं। तुम इनकार करने वालों (काफ़िरों) को नर्क की पीड़ा से डराते हो, (लेकिन) समुंद्र में आग किसी को तकलीफ़ नहीं पहुँचा सकती।
(87)
चूँकि तेरे सिवा कोई और वजूद नहीं, इसी लिए किसी और को नहीं जानता, उसके अद्वैत में द्वैत की कल्पना भी नहीं कर सकता। ख़ुदा और उस के नबी में फ़र्क़ तो मुल्ला बताता है, मैं तो ख़ुदाए-वाहिद से हज़रत अहमद को जुदा नहीं मानता।
(88)
तुम ये पहचान लो कि दरवेश चार तरह के होते हैं, उनके इलावा बाक़ी सब ढोंग का लिबास(बहरोपीए) पहने हुए हैं। इन चारों में आरिफ़ (रहस्यवादी), आशिक़ (प्रेमी) और मुवह्हिद (अद्वैतवादी) हैं, लेकिन सबसे ऊँचा मक़ाम बे-शक साहिबे-हक़ीक़त है।
(89)
ख़ुदा की क़सम! आरिफ़ तो युगपुरुष होता है,(लेकिन) वो हमसे ख़ुद को अदृश्य कर के रखता है। और वो कभी किसी के इनकार से अप्रसन्न भी नहीं होता, (क्योंकि) उदण्ड और गंवार हर ज़माने में मौजूद होते हैं।
(90)
अगर तुम ये चाहते हो कि अपने दिल को ग़मों से नजात दे दो, तो ख़ुदा से इस बीमारी की दवा तलब करने की ज़रूरत नहीं। ये तमाम बलाऐं लोभ और लालच के कारण आती हैं। तुम्हारा लोभ जितना ज़्यादा होगा, तकलीफ़ें भी उतनी ही ज़्यादा होंगी।
(91)
यधपि फ़क़ीर रास्ते में ही सो जाता है,(लेकिन) स्वप्न में वो मंज़िल तक सबसे पहले पहुंच जाता है। मृत्यु के समय यधपि वो अचेत हो जाता है, (लेकिन) जब नींद से जगता है तो अपने रास्ते पर चल पड़ता है।
(92)
ऐ वो कि तेरे ही नाम से इश्क़ की शुरुआत होती है,और तेरे नाम और सन्देश से इश्क़ बरसता है। जो कोई भी तेरे कूचे से गुज़रता है, तेरा आशिक़ हो जाता है।तेरे ही द्वार से इश्क़ के सोते फूटते हैं।
(93)
(94)
प्रियतम के सिवा रहस्यवादी के मधमस्त नयन कुछ और नहीं देखते, (यधपि) जो अज्ञानी हैं, वो उस की जान के पीछे पड़े रहते हैं। यधपि वार्तालाप के दौरान वो मैं-तू की बात करता है, लेकिन अद्वैत का बोध उस के हाथों से दूर नहीं होता।
(95)
गुमराह करने वालों से ईश्वर आरिफ़ अर्थात ब्रह्मज्ञानी की हिफ़ाज़त करता है। उसका का अस्तित्व सत्य-प्रदर्शक होता है। ब्रह्मज्ञानी (की ख़ूबीयों का) विवरण विवेचना से परे है। उसकी चौखट को तो फ़रिश्ते भी बोसा देते हैं।
(96)
मैंने (हैरत से) कहा कि तू मुझसे इस तरह एक हो गया? उसने कहा कि तुझे अभी भी इस में शक है? मैंने कहा कि तुम तो मालिक हो और मैं तुम्हारा बंदा हूँ, उसने कहा कि “ऐ आरिफ़! मैं और तू के भेद की बात न करो”।
(97)
ख़ुदा के चेहरे पे एक बड़ा तिल मौजूद है, वो तब मालूम होता है, जब इर्फ़ाने-हाल में ऊंचे मुक़ाम पर पहुंच जाते हैं।
ख़ुदा की क़सम! ऐसा ही है जो मैं तुमसे कह रहा हूँ, हज़रत अहमद को इसी तरह चालीस साल की उम्र में मुक़ामें-उज़्मा तक रसाई हुई।
(98)
ऐ उम्र! ख़ुदा तुझे कमाल तक पहुंचाए,और तुम्हारे दिल को मिलन-योग में ख़ुश रखे. जब तक तू दुनिया में रहे, उस की साज-सज्जा का कारण रहे, तुम्हारे दिन महीने की तरह (कारा॓मद) हों और महीने साल की तरह।
(99)
ऐ दिल! जब तू संलंग्न और सम्बंधित हो गया तो आज़ादी पाली। ऐ दिल! तुम अपने आपको मार डालो ताकि ज़िंदा हो जाओ। तुम्हें मेरी नसीहत है कि अपनी बंदिश को पिघला दो, जब तुम उसे पिघला दोगे तभी तुम चल पाओगे या तुम्हारे अन्दर रवानी आ पाएगी।
(100)
सिवाए परम-सत्य के और कोई वजूद नहीं हो सकता, ये नुक्ता (गुत्थी) तुम जानते हो, जो कुछ मैंने बताया, वो सत्य है और इस में ग़लत कुछ भी नहीं। तुम सैंकड़ों लहरों से गुज़रो, लेकिन समुंद्र तो एक है, क्या समुंद्र के एक होने में कोई चीज़ रुकावट हो सकती है?
(101)
ऐ वो कि जो अद्वैत (इर्फ़ान) के कारण बुद्धिमान हो गए। परम-सत्य बिना किसी रुकावट के अंदर और बहार जलवागर है। तौहीद (अद्वैत) के बयान से यधपि तुम्हें कोई दुःख (उज़्र) नहीं, (लेकिन) ब्रह्मज्ञानी (आरिफ़) अद्वैत के क़ाइल हैं।
(102)
तुमने जन्नत और दोज़ख़ के बारे में सवाल किया है, ज़ात-ए-हक़ के मानने वाले (मोमिन) और इनकार करने वाले (काफ़िर) दोनों के साथ हर हाल में है।
आख़िरकार तमाम मछलियाँ चश्मा में ही जाती हैं, चाहे वो जलाल का रास्ता हो या जमाल का।
(103)
प्रिय (परम) से किसी भी वक़्त तुम्हारी जुदाई नहीं होती, ये बात ब्रह्मज्ञानी जान ले के तू मूल का ही अंग है। जब पानी से अलग होती है तब पानी के वजूद को समझ पाती है। मछली पानी में रह कर कब पानी से अपने मिलन को समझ पाती है।
(104)
अद्वैत ख़ामोशी के साथ महसूस करने का अमल है। जो ब्रहमज्ञाता होता है, वो वाद-विवाद से दूर रहता है। जब तू एक की बात करता है तो द्वैत को साबित करता है, जब तू नाम लेता तो अद्वैत का परिकल्पना आहत होता है।
(105)
(106)
दुनिया में जितनी भी बुराईयां हैं, वो सब मुझमें हैं, निष्कलंक कह के तुम मुझे तकलीफ़ ना पहुँचाओ। ख़ुदा के वास्ते मेरे किरदार की नेकी और बदी की बात छोड़ दो, शायद मैं ख़ुद ही अपने मामले ख़ुद ही दरुस्त कर लूं।
(107)
तूने पीड़ा देने के मक़सद से मुझे काफ़िर कहा, मैं तो समझता हूँ कि तू ने ठीक ही कहा है।
मेरे लिए पस्ती और बुलंदी सब बराबर हैं। मैं तो सारे पंथो (फ़िर्क़ों) का अनुयायी हूँ।
(108)
मैंने अपने अंत में ही अपने अमरत्व का अवलोकन किया, हम बीमार हुए और इस तरह दवा के स्वाद परीचित हुए। चूँकि ख़ुदा हमसे कभी भी जुदा नहीं, इसी लिए हमने अपने ही आईना में ख़ुदा का दीदार किया।
(109)
हम नज़दीक तो हुए लेकिन तूने मुझे याद नहीं किया, लेकिन इस याद न करने से भी मेरा दिल प्रसन्न हुआ। मेरे इस (क़रीब) आने को तू बख़ूबी जानता है,(और) तू ही सिर्फ मेरी प्रार्थना सुन सकता है।
(110)
तुम्हारे वियोग के कारण के सबब सारे ग़म और तकलीफ़ें थीं,और तुम से मिलन के फलस्वरूप मेरा अस्तित्व और मेरे बोध और बुद्धि सुन्न हो गए। इस तरह आनंद और उल्लास मुझे नसीब हो गई, (और इस तरह) मेरे शरीर और आत्मा पूरी तरह तुम्हारी राह पर चल पड़े।
(111)
ऐ दोस्तो! जिस किसी की आँखों में प्रियतम बसा हो, तो फिर उसे इस से बेहतर और क्या काम होगा। यधपि प्रियतम पर न्योछावर होने वाले केवल उसी एक से जोड़ कर देखते हैं।
(112)
तुम्हारे बिना में क्या हूँ और मेरी क्या बिसात? दर-हक़ीक़त में तो ‘तू’ हूँ और तुम ‘मैं’ हो, और हमारा नाम भी एक है। मैं तुम्हारे बिना और तुमसे जुदा हो के कुछ भी ना रहूँगा, सिर्फ ‘मैं’ का बोझ मुझ पर सौ मन से ज़्यादा भारी होगा।
(113)
तुम्हारी तलब में किसी क़िस्म की ग़फ़्लत नहीं होनी चाहिए और इस राह में दूसरी सभी चीज़ों से पूरे तौर पर ध्यान हटनी चाहिए।
जब तक कि परम-सत्य कि चाह में बिना किसी मिलावट के ध्यान-मग्न नहीं होते तो सिर्फ सुनी सुनाई बातों की बिना पर अद्वैत की बात नहीं करनी चाहिए।
(114)
ना उसे किसी व्यक्ति अथवा अस्तित्व से तुलना कर सकते हैं और ना किसी और की उस से। वो न ऐसा है, न वैसा, न शब्द है, न आवाज़। वो चूँकि अतुलनीय और अद्वितीय है और वही सर्वसंपुर्ण है तो फिर किसी और से तुलना करने का क्या मतलब?
(115)
आज तस्बीह ने मुझसे अजब बात कही,और कहा कि तुम मुझे क्यों उलट-पलट रहे हो।
(इस के बजाय) इसी तरह अगर तुम अपने दिल को हरकत दोगे, तो तुम्हें मालूम हो जाएगा कि इन्सान की रचना किस लिए की गयी है।
(116)
स्वप्न में जब प्रीतम का सामना हुआ, तो (मिलन की लालसा में) बेक़रार बुलबुल की तरह मैंने उलाहना किया।
तो प्रियतम ने ये कहा कि मुझे अपनी गोद में मज़बूती से बिठा लो, जब मैंने ये की कोशिश की तो ख़ुद के सिवा और कुछ न पाया।
(117)
(राहे- सुलूक अथवा ब्रह्म-प्राप्ति की राह में) हरेक मुक़ाम का नामो-निशान नहीं होता, (अगरचे) लोग कहते हैं कि ये मंज़िलें इसी दुनिया से सम्बंधित हैं।
जब कभी भी मैं किसी व्यक्तित्व के उद्भव का वर्णन करता हूँ, तो यही पाता हूँ कि जो भी नाम वस्तुओं अथवा तत्व हैं, दरहक़ीक़त परमेश्वर के ही नाम हैं।
(118) अगर तू चाहता है कि अपने दिल को लज़्ज़त-ए-वस्ल (मिलन के आनंद) से परिचित करे, तो ख़ुद को माशूक़ की जुस्तजू में झोंक दे।
जिस तरह से लोग ‘क़िबलानुमा’ से ‘क़िबला’ का रुख पता करते हैं, तू भी ‘हक़-नुमा’ से परम सत्य की तलाश कर और बाक़ी सब फ़रामोश कर दे।
(119)
मैं अपनी आसानी और राहत के लिए तमाम दुनिया से उदासीन हो गया हूँ, लेकिन मैं तेरी तलाश और तलब से कभी भी ग़ाफ़िल नहीं हो सकता।
चूँकि हम तुम से ही मिलन की तलब में हैं, इसलिए हमें जन्नत, दीन-धर्म, ईमान वग़ैरा (की बहसों) से क्या ग़रज़।
(120)
मैं दोनों जहां के इश्क़ (को अपना लिया है) में गिरफ़्तार हूँ,और मैंने दोनों को ही अपने दोनों हाथों मज़बूती से पकड़ रखा है।
(ये दोनों) महबूब के रुख़्सार (मुख) पर पड़े दो लटों की तरह हैं, (लेकिन मैं अब उस मक़ाम पर हूँ कि) मैंने ख़ुद को फ़ना कर के और सिर्फ ख़ुदा से लौ लगा लिया है।
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अख़लाक़ ‘आहन’
अख़लाक़ आहन उर्दू और फ़ारसी के ख्याति-प्राप्त कवि हैं और फ़ारसी व मध्य एशियाई अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आचार्य एवं अध्यक्ष । आपकी तीस से अधिक पुस्तकें और सौ से अधिक शोध पत्र फ़ारसी, अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी में प्रकाशित हैं। आप फ़ारसी-भाषी देशों के राष्ट्राध्यक्षों द्वारा कवि और विद्वान की हैसियत से आमंत्रित हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित आपकी शख्सियत और शायरी पर ईरान में डाक्यूमेंट्री फ़िल्में बनी हैं।
akhlaque.ahan@gmail.com
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