राकेश बिहारी कथाकार के साथ कथालोचना का एक बड़ा नाम है। संवेद और रचना समय के कथा विशेषांक आपके सम्पादन कौशल के साथ आलोचना – दृष्टि को रेखांकित करते हैं जिसके लिए आपको महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाजा गया है।
यहां जो आलेख प्रस्तुत है राकेश बिहारी की बेबाक आलोचना – दृष्टि का उदाहरण है जिसके तहत वे हिन्दी कथा के क्षेत्र में टैबू या कहें नकार की कुत्सित राजनीति को नकारते हुए सच्चे या अस्मितावादी पाठ की ज़रूरत पर रौशनी डालते हैं। – हरि भटनागर

 

आलेख

बीसवीं सदी के नब्बे का दशक उन आर्थिक बदलावों की भूमिका का कालखंड है, जिसका स्पष्ट और मुखर प्रभाव आज जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के साथ बावरी मस्जिद के विध्वंस की छाया में सांप्रदायिक शक्तियों के उभार को भी जोड़ लें तो सामान्यतया इसे ही इक्कीसवीं सदी की भूमिका के रूप में देखा जाता रहा है। विगत बीस-पच्चीस वर्षों के कथा साहित्य पर इसके प्रभावों कों भी आसानी से देखा-समझा जा सकता है। लेकिन पिछले पच्चीस वर्षों की हिन्दी कहानीको सिर्फ इन्हीं दो परिघटनाओं के आलोक में देखने का यह परिणाम हुआ है कि कई जरूरी चीजें चर्चा के केंद्र में आने से रह गई हैं। इसलिए इस कालावधि की उन तारीखों पर एक दृष्टि डालना जरूरी है, जो समवेत रूप से इक्कीसवीं सदी की पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं। मण्डल आयोग की सिफारिशों का लागू होना (07 अगस्त,1990), सोमनाथ से लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा की शुरुआत (25 सितंबर, 1990), वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का पहला बजट यानी नई आर्थिक नीति का आरंभ (24 जुलाई,1991), बाबरी मस्जिद का विध्वंस (06 दिसंबर,1992), तत्कालीन संचार मंत्री सुखराम और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बीच हुई बातचीत के साथ मोबाइल फोन का आना (31जुलाई, 1995) तथा पब्लिक इन्टरनेट की शुरुआत (15 अगस्त, 1995) ये वो छह मुख्य परिघटनाएँ हैं जिनसे मिलकर हमारे देश में इक्कीसवीं सदी की पृष्ठभूमि तैयार होती है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस की तारीख यानी 06 दिसंबर, 1992 को भले एक टर्निंग तारीख की तरह सामने रखकर उससे पहले या उसके बाद के समय और साहित्य को विश्लेषित करने की तमाम कोशिशें की गई, लेकिन मेरी दृष्टि में वह प्रस्थान से कहीं ज्यादा परिणाम था, जिसकी जड़ में सोमनाथ से शुरू हुई लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ही थी।
तारीखें गवाह हैं कि आडवाणी की रथयात्रा यानी मण्डल कमीशन की सिफ़ारिशों के लागू किए जाने के बाद उत्पन्न सामाजिक समीकरणों के बीच अपनी पार्टी की राजनैतिक जमीन को बचाए रखने का एक सुनियोजित उपक्रम था। सांप्रदायिक उभार की लकीर के इस पार-उस पार की राजनीति शायद प्रगतिशील प्रतिरोधी शक्तियों को भी ज्यादा सूट करती है, इसी का यह नतीजा हुआ कि किंचित विरोध और प्रतिरोध की रस्मअदायगी के बीच नई आर्थिक नीति और संचार क्रान्ति को लगभग अनिवार्य नियतियों की तरह स्वीकार चुकी प्रगतिशील शक्तियों की राजनीति इस बीच लगभग सांप्रदायिकता केन्द्रित हो कर रह गई। इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी पर भी इसका खास और लगभग केंद्रीय प्रभाव रहा, जिसे इस सदी की कथालोचना और विमर्शों में सहज ही महसूस किया जा सकता है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किए जाने के बाद सामाजिक यथार्थों में जो बड़े बदलाव हुये उसका कोई केंद्रीय प्रभाव इस अवधि की कहानियों पर नहीं दिखाई पड़ता है, जबकि इकीसवीं सदी के अबतक के तेईस वर्ष कहानी विधा की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इस कालावधि में जहां विधा के रूप में कहानी की केन्द्रीयता बनी रही, वहीं इस दौरान कथाकारों की नई पीढ़ी के आगमन पर भी खूब चर्चा-परिचर्चा, और वाद-विवाद भी हुये।
पीढ़ियाँ किसी खास तारीख को नहीं पैदा होतीं। पुरानी पीढ़ी का शिथिल होना, नई पीढ़ी का आना और इस दौरान पीढ़ियों के बीच एक व्यावहारिक अंतराल की उपस्थिति…यही पीढ़ी निर्माण की स्वाभाविक प्रक्रिया है जो तब अवरुद्ध या खंडित होती है, जब उसे किसी संकुचित एजेंडे की शक्ल दी जाय। यहां प्रक्रिया और एजेंडे के बुनियादी फर्क को समझने की भी जरूरत है। प्रक्रिया जहां समय और समाज की जरूरतों, अपेक्षाओं, सहूलियतों, चुनौतियों, संवेदनाओं आदि के साथ घटित होनेवाली एक स्वाभाविक और गतिशील स्थिति है, वहीं एजेंडा सुनियोजित तरीके से किन्हीं पूर्वनिर्धारित अवधारणाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों आदि को समय और समाज की अनिवार्य नियति के रूप में स्थापित करने का उपक्रम है। यही कारण है कि प्लानिंग, मार्केटिंग और ब्रांडिंग जैसी शब्दावलियां एजेंडे की अनिवार्य सहगामिनी होती हैं। यदि सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में इसे देखा जाय तो प्रक्रिया और एजेंडे का यही फर्क आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण को एक दूसरे से अलग करता है। एजेंडा अपने आप में कोई नकारात्मक शब्द नहीं है, लेकिन आपसी प्रतिस्पर्द्धा में तात्कालिक बढ़त के लिए सतत विकासशील सामाजिक राजनैतिक चेतना की अनदेखी ‘एजेंडा’ शब्द के निहितार्थों को संकुचित कर देती है। ऐसे में सच को विखंडित, विस्मृत या कांट-छांट कर किसी झूठ या अर्द्धसत्य को स्थापित करने का उपक्रम तेज हो जाता है। तब पीढ़ी-अंतराल की स्वाभाविकता पीढ़ियों की टकराहट का रूप ले लेती है और इस दौरान कब कैसे कोई वरिष्ठ लेखक ब्रांड एम्बेसडर तो कोई सेल्स प्रोमोटर की तरह इस्तेमाल कर लिया जाता है, पता ही नहीं चलता। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि विगत दो दशकों में हिन्दी कहानी की दुनिया में यह सब भी खूब हुआ है।
चूंकि एक समय में निकलने वाली सारी पत्रिकाएँ समवेत रूप से अपने समय का इतिहास साहित्य के माध्यम से दर्ज करती हैं, इसलिए साहित्यिक विमर्शों को ‘अमुक पत्रिका’ बनाम ‘अमुक पत्रिका’ की बायनरी में देखना ऊपर से उचित नहीं जान पड़ता है। लेकिन बीसवीं सदी के आखिरी और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के माध्यम से दलित और स्त्री प्रश्नों को जो केन्द्रीयता प्रदान की उसे नई पीढ़ी के आगमन के शोर में रवीन्द्र कालिया ने पहले ‘वागर्थ’ और फिर ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से एक संकुचित एजेंडे के तहत क्षतिग्रस्त करने का काम किया। दलित और स्त्री संदर्भों के मद्देनज़र ‘हंस’ (राजेन्द्र यादव) और ‘वागर्थ’ (रवीन्द्र कालिया) की भिन्न भूमिकाओं को ऊपर वर्णित ‘प्रक्रिया’ और ‘एजेंडा’ के उदाहरण की तरह भी देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि इक्कीसवीं सदी के पहले वर्ष के प्रथम तीन महीने में राजेन्द्र यादव ने हंस को ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’ शीर्षक के साथ स्त्री रचनाशीलता पर केन्द्रित किया। इन अंकों का सम्पादन तब अर्चना वर्मा ने किया था। यदि सिर्फ कहानियों और आत्मकथ्य की ही बात करें तो उन अंकों में मन्नू भण्डारी, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा अग्निहोत्री, दीपक शर्मा, सुशीला टाकभौंरे, उर्मिला शिरीष , जया जादवानी, पूनम सिंह, नीलाक्षी सिंह, वंदना राग, कविता आदि सहित तीन पीढ़ियों की तीस से ज्यादा कहानीकार शामिल थीं। अर्चना वर्मा के संपादकीय के साथ-साथ प्रभा खेतान, मृणाल पांडे, अनामिका, अभय कुमार दुबे, सुधीश पचौरी, समरेन्द्र सिंह, अरविन्द जैन आदि के लेखों ने उस अंक में स्त्री सरोकारों को एक सुदृढ़ वैचारिक आधार भी दिया था। नई सदी की शुरुआत में एक स्त्री रचनाकार को हंस का विशेष संपदान सौंपने और स्त्री विशेषांकों की वैचारिकी में पुरुष लेखकों को भी शामिल किए जाने के भी अपने निहितार्थ हैं। उसके बाद प्रकाशित विभिन्न पत्रिकाओं के सामान्य और विशेष अंकों में भी स्त्री और दलित कहानीकारों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी रही। लेकिन ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’ के प्रकाशन के लगभग चार वर्षों के बाद अक्तूबर 2004 में जब रवीन्द्र कालिया के सम्पादन में ‘वागर्थ’ का नवलेखन अंक आया हाशिये के समूहों के अस्मिता संघर्षों की वह तस्वीर वहाँ न सिर्फ लगभग गायब थी, बल्कि संपादकीय में जिन शब्दों के साथ उसे रेखांकित किया गया था, वह आपत्तिजनक होने के हद तक चिंताजनक भी था। वागर्थ- अक्तूबर 2004 के संपादकीय का वह हिस्सा देखा जाना चाहिए- “सबसे सुखद अनुभव यह जानकर हुआ कि युवा रचनाकार देहवाद से आक्रांत नहीं हैं। इनकी रचनाओं की भावभूमि में देहवाद, यौनिकता, स्त्री देह, यौनगत विकृतियों के लिए कोई स्थान नहीं है। जैसे महानगरों में शाम के झुटपुटे में रेल की पटरियों की आड़ में देह व्यापार चलता है, उसी प्रकार साहित्य में भी कुछ संभ्रांत नागरिक प्रेमचंद की आड़ में दैहिकता का धंधा चलाते हैं। नई पीढ़ी के युवा रचनाकार इस यौनाचार के प्रति पूर्णरूप से उदासीन हैं, सामाजिक अन्याय और आर्थिक विषमता के विरुद्ध रचनारत युवा रचनाकारों का तथाकथित दलित विमर्श के प्रति भी ठंडा रुख है। नारी स्वातंत्र्य और स्त्री सशक्तिकरण का पक्षधर होते हुए भी युवा रचनाकार तथाकथित नारी विमर्श के अतिचार से अघा चुके हैं। इसका प्रमाण यह है कि नवलेखन अंक के लिए प्राप्त एक सौ चौंसठ कहानियों में सिर्फ एक कहानी नारी विमर्श पर प्राप्त हुई और एक दलित विमर्श पर। ये दोनों कहानियां भी दरियागंज से सट कर बह रही यमुना की धारा के विरुद्ध तैर रही हैं। दलितों और स्त्रियों के प्रति एक बुनियादी मानवीय सरोकार से प्रत्येक युवा रचनाकार लैस है।”
कहा जा सकता है, बल्कि कहा जाना चाहिए कि दलित और स्त्री अस्मिता की स्वाभाविक प्रक्रिया को ‘हंस’ ने एक सुचिन्तित आंदोलन का रूप दिया, जिसकी शक्ति और सीमाओं पर तबसे आजतक बहस होती रही है। इन तमाम बहसों-विमर्शों, सहमतियों-असहमतियों के बीच सबने दलित और स्त्री चेतना के संदर्भ में ‘हंस’ की ऐतिहासिक भूमिका को स्वीकार किया है। लेकिन ‘वागर्थ’ के उक्त संपादकीय में ‘हंस’ और राजेन्द्र यादव का नाम लिए बिना रवींद्र कालिया प्रेमचंद और दरियागंज जैसे इशारों से टीवी पर आने वाले डिटर्जेंट केक के विज्ञापनों की तरह ‘हमारी टिकिया उसकी टिकिया से अच्छी’ के तर्ज पर, इस पूरे अस्मिता आंदोलन को ‘देह व्यापार’, ‘यौनाचार’, ‘अतिचार’ और ‘तथाकथित विमर्श’ जैसे शब्दों में न सिर्फ सीमित करते हैं, बल्कि उसे नकार भी देते हैं। पिछले दिनों ‘पूर्वकथन’ के राजेन्द्र यादव विशेषांक में प्रकाशित ममता कालिया के संस्मरण-आलेख के एक अंश को भी यहाँ इस संदर्भ में उद्धृत किया जाना चाहिए– “ मूढ़ से मूढ़ पाठक भी यह तथ्य पहचानता है। फिर प्रखर, प्रतिभावान राजेन्द्र जी ही वह नहीं नहीं समझ रहे हैं क्या? असि-धार सरीखी उनकी बुद्धि आखिर किस दबाव में आकर इस सत्य को नकार रही है कि जिन लेखिकाओ की मैत्री का तुर्रा वह दिखा रहे हैं वे अपनी माल-मूत्र मार्गी रचनाओं के लिए ‘हंस’ का इस्तेमाल ‘सुलभ’ इंटरनेशनल वगैरह की तरह कर रही हैं।” आलोचना से कोई परे नहीं होता, होना भी नहीं चाहिए, लेकिन हमारी भाषा के दो वरिष्ठ और महत्त्वपूर्ण कथाकारों-संपादकों के द्वारा एक अपरिहार्य पत्रिका और संपादक के लिए ऐसी शब्दावली का उपयोग चिंतनीय भी है और निंदनीय भी। हैं। स्वस्थ प्रतियोगिताएं जहां बेहतरी की इबारतें लिखने में उत्प्रेरक का काम करती हैं, वहीं अस्वस्थ स्पर्धाएं कुंठावमन की सीमा का अतिक्रमण कर अंततः जरूरी विमर्शों को ही क्षतिग्रस्त करने लगती हैं।
सामाजिक चेतना की स्वाभाविक प्रक्रिया को नियोजित आंदोलन में बदलने के उपक्रम को किसी सीमित स्पर्धा के कारण क्षतिग्रस्त करने का ही यह नतीजा था कि इस बीच चर्चित हुई कहानियों का एक बड़ा हिस्सा हमेशा ही भोगे जाने को आतुर कैरियरिस्ट और ऑपरचुनिस्ट स्त्रियों तथा लगभग गायब या दीन-हीन और अवसरवादी दलित चरित्रों को ही सामने लाता है। रवींद्र कालिया के शब्दों में ‘दलितों और स्त्रियों के प्रति एक बुनियादी मानवीय सरोकार से लैस’ कहानियाँ वास्तविकता के धरातल पर तब लगभग नहीं दिखीं। हालांकि वैसी कहानियों के लिखे जाने का एक समानांतर सिलसिला तब से आजतक जारी है। चर्चित पर ही चर्चा करने वाली हिन्दी कथालोचना सामान्यतया उन कहानियों का संज्ञान नहीं लेती है।
स्वाभाविक रूप से बढ़ती-पनपती एक कथा-पीढ़ी जिसमें स्त्री और दलित चेतना से संपन्न कथाकारों की भी महत्वपूर्ण उपस्थिति थी, को सीधे-सीधे नकारते हुये एक नई डाली को ही संपूर्ण पेड़ की तरह सुनियोजित रूप से प्रचारित-प्रसारित करने का यह एजेंडा एक तरह से अस्मिता विमर्श के महत्व को नकारने की एक अव्यावहारिक कोशिश थी। हमारे समय का इतिहास दरअसल सदियों से दमित-प्रताड़ित वंचितों, चाहे वे स्त्री हों या दलित, या आदिवासी, के उन्मेष का ही इतिहास है। ऐसे में किसी एक ऐसी कथा-पीढ़ी की प्रस्तावना जिसमें ये दोनों ही स्वर अनुपस्थित हों एक बहुत बड़े सामाजिक सत्य की उपेक्षा का नतीजा थी। यहां इस बात का उल्लेख किया जाना भी जरूरी है कि युवा पीढ़ी-युवा पीढ़ी के तमाम शोर के बीच इस सामाजिक यथार्थ की उपेक्षा का भान काशीनाथ सिंह को भी था – “इस तरह यह है कहानी की नई पीढ़ी – चंदन, राकेश, कुणाल, विमलेश, मो. आरिफ, दीपक, तरुण, मनोज, राजेश प्रसाद, पंकज सुबीर। न इसमें कोई स्त्री है न दलित। ऐसा क्यों है, कैसे हुआ – यह संपादक से बेहतर कोई नहीं जानता होगा। जबकि संपादक स्वयं एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं और जानते हैं कि इनके बगैर नई सदी का कोई भी साहित्य मुकम्मल नहीं होगा।” (यथार्थ का मुक्ति-संघर्ष : नई सदी की कहानी; वागर्थ, युवा पीढ़ी विशेषांक – दिसंबर २००५)
अस्मितावादी कहानियों को नकारने के बहाने अस्मिता विमर्श को ही खारिज करने की कई समानांतर कोशिशें लगातार होती रही हैं। अस्मिता विमर्शों के आधार पर साहित्य के विवेचन-विश्लेषित को अस्वीकार करनेवाली यह धारा लेखन को सिर्फ लेखन की तरह देखना चाहती है। यह धारा लेखन की दुनिया में दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों, बहुजनों आदि की उपस्थिति को तो स्वीकारती है, पर उसे अस्मितावाद को स्वीकारने से परहेज है। जाति और जेंडर के प्रश्नों से विमुख वर्ग संघर्ष पर जोर देने का ही यह नतीजा रहा है कि चाहे-अनचाहे भारतीय समाज में जाति और जेंडर आधारित विषमताएं आज भी मजूबत हैं। पिछले दिनों ई-पत्रिका ‘समालोचन’ पर प्रकाशित वरिष्ठ आलोचक रविभूषण के आलेख ‘लेखन और दृष्टि का स्त्री-अध्याय’ को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है। लगभग दस हजार शब्दों का यह सुदीर्घ आलेख भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में हुए स्त्री लेखन और स्त्री आंदोलनों का एक जरूरी सर्वेक्षण प्रस्तुत करता है। कई आवश्यक सूचनाओं से समृद्ध उस लेख की कुछ बातों का प्रसंगवश उल्लेख यहाँ उचित होगा।

अपने इस आलेख के आरंभ में रविभूषण थेरी गाथाओं (73 थेरियों की 522 गाथाएँ) की चर्चा करते हुये कहते हैं –“थेरियों की कोई एक जाति नहीं है. इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य, शूद्र सब हैं. अस्सी वर्ष ईसा पूर्व त्रिपिटक में इसका लिखित रूप है. इन गीतों में स्त्री-स्वरों का वैविध्य है. उनके साहस और संघर्ष के कारण इनका आज विशेष महत्व है. अधिकांश स्त्रियाँ ब्राह्मण हैं .दंतिका, सोमा, मैत्रिका आदि कुल 18 थेरियाँ ब्राह्मण वर्ण की हैं. आतरा और सिंहा क्षत्रिय कुल की हैं.” प्रश्न उठता है कि 18 ब्राह्मण और 2 क्षत्रिय वर्ण या कुल की थेरियों के बाद बची 53 थेरियाँ किन वर्णों की थीं? यदि अठारह और दो की गणना सही है तो ये सबकी सब वैश्य या शूद्र वर्ण की होंगी। इस सूचनासमृद्ध आलेख में उनका नाम क्यों नहीं दर्ज हो पाया? 72.60% (73 में53) थेरियों के अनाम और अज्ञात छूट जाने की चिंता किए बिना 33.96% (73 में 18) को ही अधिकांश मान लेने के क्या कारण हो सकते हैं?
इस लेख के आखिरी हिस्से के एक अनुच्छेद में बंग महिला (राजेंद्र बाला घोष) से अबतक की कुल 60 स्त्री कथाकारों के नामों का उल्लेख है, जिनमें लगभग एक तिहाई इक्कीसवीं सदी या पिछले सदी के आखिरी दशक के उत्तरार्द्ध की कथाकार हैं। आखिर क्या कारण है कि एक आदिवासी कथाकार को छोड़ दें तो पच्चीस-तीस वर्षों के कालखंड की इन बीस कथाकारों में एक भी दलित या अल्पसंख्यक स्त्री कथाकार का नाम शामिल नहीं है? कोई सूची कभी मुकम्मल नहीं होती, इसलिए किसी सूची में छूट जाने या छोड़ दिये जाने की बहस में मेरी कभी रुचि नहीं रही है। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण आलोचक की सूची में हाशिये के दो वर्गों की अनुपस्थिति को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। इस पर इसलिए भी चर्चा जरूरी है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर मुख्यधारा की हिन्दी आलोचना ने प्रायः जाति और जेंडर की चिंताओं को उचित स्थान नहीं दिया है।
60 स्त्री कथाकारों के नामों की चर्चा करते हुये रविभूषण प्रश्न करते हैं कि “इन कथाकारों का कथा-साहित्य क्या एक समान है? क्या रचनात्मक दृष्टि से सभी स्त्री कथाकारों की कहानियाँ एक कोटि की हैं?” कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी समय या श्रेणी के सभी रचनाकारों की रचनाएँ एक समान या एक कोटि की नहीं होती हैं; हो भी नहीं सकतीं। लेकिन यहाँ एक प्रतिप्रश्न मेरे मन में उठता है कि क्या इन और यहां छूट गई अन्य स्त्री कथाकारों के कथा-साहित्य में कुछ भी कॉमन या साझा नहीं है? निश्चित तौर पर इस प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ नहीं हो सकता। वही कॉमन या साझा जमीन ‘स्त्रीवादी रचना’ को अलग से समझे जाने की जरूरत को रेखांकित करती है। इन कॉमन या साझा तत्त्वों की अनदेखी कर “इन कथाकारों का कथा-साहित्य क्या एक समान है?” का प्रश्न खड़ा करना स्त्री लेखन की सराहना करने की आड़ में स्त्रीवादी रचना को नकारने का उपक्रम है।
रविभूषण कहते हैं –“हिन्दी में पितृसत्ता की बात जितनी की जाती है, उससे बहुत कम, राज्य-सत्ता (स्टेट पावर) पर ध्यान दिया जाता है। पितृसत्ता, धर्म सत्ता,राज्य सत्ता और अब बाजार सत्ता भी, कम प्रभावशाली नहीं है। ” यहाँ यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या राज्य सत्ता, धर्म सत्ता और बाज़ार सत्ता की संरचना में पितृसत्ता के रेशे प्रमुखता से शामिल नहीं हैं? इन तमाम सत्ताओं की संरचना में पितृसत्ता की व्यापक मौजूदगी भी स्त्रीवादी लेखन की जरूरत को ही रेखांकित करती है। इसलिए बिना पितृसता की बात किये बाकी सत्ता संरचनाओं पर बात करना अंततः पितृसत्ता को मजबूत करना ही होगा। स्त्री लेखन बनाम स्त्रीवादी लेखन के संदर्भ में यह भी देखा जाना चाहिए कि रविभूषण यह तो रेखांकित करते हैं कि “कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग सहित कई ऐसी कथाकार हैं जो लैंगिक आधार पर विभाजन को सही नहीं मानतीं”, लेकिन स्त्रीवादी लेखन (खासकर कथा के क्षेत्र में) के पक्ष में बात करनेवाली कथाकारों का वे कोई उल्लेख नहीं करते।
स्त्री स्वतन्त्रता के संदर्भ में देह की आज़ादी को प्रायः यौन सम्बन्धों की आज़ादी मान लेने के कारण भी कई बार लोग स्त्रीवादी साहित्य को नकारने लगते हैं। दहमुक्ति एक बहुपरतीय और बहुआयामी अवधारणा है। स्त्री अस्मिता और देहमुक्ति के अंतर्संबंधों को समझने के लिए ‘हंस’ के विशेषांक ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’ में अर्चना वर्मा के संपादकीय का एक अंश देखा जाना चाहिए- “पुरुष की पुरुष जाने। स्त्री स्वयं अपने आप को लेकर, अपने शरीर को लेकर सदियों से इतनी सहज कभी नहीं थी जितनी सदी के अंत में केयर-फ्री और विस्पर और माला डी और कोहिनूर और पीटर पैन और लिबर्टीना के माध्यम से अपने मासिक धर्म, अपने उन्मद रति भाव और अपने देहिक ऐश्वर्य के विषय में हुई है-सदियों बाद एक भरपूर खुली सांस ले पाने में समर्थ। परंपरागत समाज की नींव अगर स्त्री की शर्मिंदगी पर टिकी थी तो बेशक वह हिल उठी है और ऐसे कुछ दुष्ट चुटकुलों में निहित शरारती विचारों की चोट से तो पूरी इमारत ही अगर ढह जाए तो आश्चर्य नहीं कि यदि आर्थिक आत्मनिर्भरता ही स्वाधीनता की कुंजी है तो जब तक स्त्री के पास देह है और संसार के पास पुरुष तब तक स्त्री को चिंता कीं क्या जरूरत? जरूरत है तो देह को पुरुष के स्वामित्व से मुक्त करके अपने अधिकार में लेने की क्योंकि यौन शुचिता, पातिव्रत, सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के सम्मान का नहीं, पुरुष के अहंकार की दीनता और असुरक्षा का पैमाना हैं, पितृसत्ता के मूल्य हैं और स्त्री की बेड़ियां हैं।”
अर्चना वर्मा के उपर्युक्त संपादकीय लिखने के बाद चौबीस वर्ष बीत गए। इस बीच स्त्री स्वतन्त्रता की यह लड़ाई बहुत आगे बढ़ चुकी है। किंचित बाधा, अस्वीकार और नकार के बावजूद, निर्णय के अधिकार का वह संघर्ष आज बहुआयामी होकर जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ चुका है। इस कालावधि में प्रकाशित कहानियों में इसकी विश्वसनीय छवियाँ सहज ही देखी जा सकती हैं। इस आलेख की प्रकृति और सीमा उन कहानियों के विस्तार में जाने की इजाजत नहीं देती हैं। हाँ, इस संदर्भ में ‘वनमाली कथा’ के मार्च 2024 अंक में प्रकाशित संपादक कुणाल सिंह की बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि ‘वनमाली कथा’ के नवलेखन विशेषांक और युवा पीढ़ी विशेषांक के लिए प्राप्त और प्रकाशित लगभग आधी रचनाएँ स्त्री-लेखकों की थीं, साथ हीं अल्पसंख्यक समुदाय के लेखकों की रचनाएं भी अच्छी तादात में आई थीं। विगत कुछ वर्षों में प्रकाशित विभिन्न पत्रिकाओं के स्त्री विशेषांक भी इसकी गवाही देते हैं। इस बीच स्त्री-कथाकारों की एक और पीढ़ी मजबूती के साथ उभरी है। स्त्री कहानीकारों की यह नई पीढ़ी इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि इसमें दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी कहानीकारों की भी उल्लेखनीय हिस्सेदारी है। इस लेखन की बहुआयामिता और इनके साझेपन की विशिष्टता समकालीन कथालोचना की तरफ गहरी उम्मीद से देख रही है।
इस लेख में आए उद्धरण और विचार महज कुछ उदाहरण हैं, जिनके आलोक में अस्मितावादी लेखन को नकारने की राजनीति और उसके परिणामों को देखने-परखने की कोशिश की जा सकती है। इसे इक्कीसवीं सदी की कहानी या कथालोचना के छिद्रान्वेषण के बजाय आत्मावलोकन और आत्मसमीक्षा के लघु प्रयास की तरह देखा जाना चाहिए। कछुए की गति से ही सही, पर इसी कालावधि में मैंने भी लगभग पच्चीस कहानियाँ लिख ली हैं। इन कहानियों का मूल्यांकन तो पाठक-आलोचक ही कर सकते हैं, लेकिन खुद आज अपनी कहानियों पर एक निगाह डालूँ तो पता चलता है कि इन पच्चीस कहानियों में एक भी ऐसी कहानी नहीं है जिसके केंद्र में दलित या अल्पसंख्यक समाज का जीवन यथार्थ हो। कमोबेश यही स्थिति हमारे समकालीन अन्य कहानीकारों की भी है। ऐसे में एक प्रश्न सहज ही उठता है कि दलित जीवन के प्रश्नों को समझने के लिए हमें दलित कहानीकारों के पास ही क्यों जाना पड़ता है? सवाल यह भी है कि पुरूष दलित कथाकारों की कहानियाँ प्रायः दलित स्त्री के प्रश्न पर खामोश क्यों रहती हैं? स्त्री जीवनानुभावों की विश्वसनीय कथाएँ सामान्यतया स्त्री कथाकारों के यहाँ ही क्यों मिलती हैं? बहसों, विमर्शों में साझा संस्कृति की चाहे जितनी बात की जाय, लेकिन क्या कारण है कि मुस्लिम समाज और जीवन की विश्वसनीय कहानियाँ प्रायः हम हिन्दू कहानीकारों के यहाँ नहीं मिलती हैं? यह परकाया प्रवेश के लेखकीय गुण के अभाव का भी मामला नहीं है, कारण कि जाति और जेंडर सामाजिक और जैविक संरचना ही नहीं एक राजनैतिक निर्मिति भी है। संवाद का यह सिलसिला आगे बढ़े इसके लिए प्रश्नों की इस सूची में आप भी अपने प्रश्न जोड़ सकते हैं।
ऊपर उल्लिखित तमाम चिंताओं के बीच मुझे इस बात का संतोष भी है कि आत्मसमीक्षा की इस प्रक्रिया के अंकुर फूटने लगे हैं। ‘वनमाली कथा’ (मार्च, 2024) में प्रकाशित कुणाल सिंह के लेख का यह अंश इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है- “पिछली सदी के आखिरी दशक के बाद भूमंडलीकरण पर भी खूब लिखा गया। नये विषय, नयी भाषा लिये कई नये कहानीकार उभरे। लेकिन यह देखना मजेदार है कि इस समयावधि में मंडल कमीशन भी आया। मगर जिस तरह से भूमंडलीकरण और साम्प्रदायिकता की पृष्ठभूमि में कहानियाँ लिखने की होड-सी मच गयी, नये जातिगत समीकरणों पर उस तरह से कलम चलाने से लोग बचते रहे। राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के माध्यम से दलित विमर्श और अस्मिता विमर्श को आकार देने का प्रयत्न किया, लेकिन सवर्ण लेखकों ने सिरे से इस समीकरण को स्वीकार करने, उसे भाषा व कथ्य में बरतने का ‘दुस्साहस’ नहीं दिखाया। पुरातन सम्प्रदाय व वर्णगत व्यवस्था उनके लिए मुफीद है, इसलिए यह करना भी उनके लिए ‘सेफ’ नहीं था। ” उल्लेखनीय है कि ऊपर उल्लिखित वागर्थ के अंकों के तब के सहायक संपादक कुणाल सिंह अब वनमाली कथा के संपादक हैं। ‘वनमाली कथा’ की प्रस्तुति, स्तंभों के नाम, विशेषांकों की संकल्पना आदि से मुझे ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ की पुनरावृत्ति की शिकायत रही है। लेकिन कुणाल सिंह की इस संक्षिप्त और मूल्यांकनपरक टिप्पणी ने इस बात के प्रति आश्वस्त किया है कि वे इक्कीसवीं सदी की कथा-यात्रा को ‘अपनी’ निगाहों से देख रहे हैं।
हम मंचों से बोलें कि नहीं, पर कहानियों की अस्मितावादी पढ़त के प्रति लेखकों-आलोचकों के बीच प्रायः एक नकार का भाव दिखाई पड़ता है। इक्कीसवीं सदी की कहानियों की समग्र और सम्यक पड़ताल के लिए अस्मितावादी पाठों को धैर्य से सुने जाने की जरूरत है और सुनने की सार्थकता गुनने में ही निहित होती है!


राकेश बिहारी

(अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय.
प्रकाशन: वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह),केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी (कथालोचना) सम्पादन: स्वप्न में वसंत, ‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’,‘पहली कहानी: पीढ़ियां साथ-साथ’, ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ आदिवर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान तथा सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य सम्मान से सम्मानित. आदि
मोबाईल – 9425823033; ईमेल – brakesh1110@gmail.com


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