रोहिणी अग्रवाल हिंदी आलोचना की शीर्षस्थ हस्ताक्षर हैं। आलोचना में आपने जो रचा है, बेबाक दृष्टिसम्पन्नता का विरल उदाहरण है।
जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ पर लिखा यह लेख मुक्तिबोध के सोच के आगे की वैचारिकी को वाद- संवाद का स्पेस देता है।
– हरि भटनागर
-रोहिणी अग्रवाल
उत्कृष्ट रचना अपने समय का उत्पाद भर नहीं होती, वह पूर्व-परंपरा के रिसते घावों, दरकनों और उपलब्धियों से दो-चार होने के बाद ही समय को लिपिबद्ध करके भविष्य के सृजन का स्वप्न देखती है. रचना की जमीन भले ही कुछ एक घटनाओं, चरित्रों और सुनिश्चित कालखंड को घेरकर अपनी छोटी सी त्रिज्या बनाती प्रतीत हो, दरअसल वह जानी जाती है जमीन पर छाए अछोर आसमान के अपरिमित क्षेत्रफल से, जो हर देश-काल में परिवर्तनकामी आकांक्षाओं और संशयों, द्वंद्व और संकल्प के बीच घनीभूत होते दबाव को एक समग्र मानवीय दृष्टि से देखता चलता है. निजता के खूंटे से बंधा व्यक्ति पूर्वाग्रह की बेड़ियों का श्रृंगार करके मुकम्मल मानवीय दृष्टि अर्जित नहीं कर सकता. मनुष्य बनने के लिए खूंटों से मुक्त होना अनिवार्य है. उत्कृष्ट रचना कृतिकार और कृति दोनों के अंतस में निबद्ध इसी मनुष्य – भास्वर चेतना – को पहचानने की संवेदनशील व्यग्रता है. इसलिए रचना महज लेखक की अंतर्दृष्टि और संवेदनात्मक सरोकारों का परिणाम नहीं होती, संवेदना की गहराई और आयतन को मापने के लिए उत्तरदायी उसके व्यक्तित्व को भी सामने लाती है. जाहिर है ठीक इसी स्थल पर आलोचक का दायित्व दोहरा हो जाता है. कृति में निबद्ध समय-समाज की पड़ताल करते हुए उसे लेखकीय व्यक्तित्व/दृष्टि की निर्मिति की क्रमिक प्रक्रिया को भी पकड़ना है और अपने समय की बहुआयामी एवं परिवर्तित हो गई अपेक्षाओं के अनुरूप अपने से दूर किसी अन्य कालखंड में रचित रचना की प्रासंगिकता एवं गुणवत्ता पर भी विचार करना है. मैं उन प्रबुद्ध जनों की धारणाओं के विपरीत जाना चाहूंगी जो यह मानते हैं कि किसी भी रचना का मूल्यांकन उसकी समय-सीमाओं के फ्रेम में ही किया जाना चाहिए. यदि साहित्य को पढ़े-गुने जाने की एक शर्त कालाबद्ध दृष्टि (जिसे मैं यथास्थिति कहना अधिक पसंद करूंगी) है तो फिर क्यों नहीं अखबार की श्रेणी में रख हर बदलते कैलेंडर के साथ उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता? दरअसल कालजयी कही जाने वाली रचनाएं समय के साथ अपनी पैठ और प्रचार में इतनी महान या छुईमुई (वोलेटाइल) बना दी जाती हैं कि उनकी प्रासंगिकता पर अन्य कोण से उठी उंगलियां प्रशंसकों की ‘धार्मिक‘ आस्था पर चोट करने लगती हैं. कहना न होगा कि ‘कामायनी‘ पर विचार करते हुए मैं उसे जयशंकर प्रसाद के समय के मास्टर पीस के रूप में न देख कर हमारे समय की चिंताओं में शामिल होने वाली चेतना-मशाल के रूप में देखना अधिक पसंद करूंगी.
चक्रिल गति से घूमता समय उत्थान-पतन की घुमावदार गलियों के चक्कर काटने के बाद अंततः एक कटावदार मोड पर आ रुकता है जहां सांसों पर काबू पाने की लालसा में खड़ा है हताश-क्लांत मनुष्य. इस दिशाहारा मनुष्य के सामने संघर्ष-यात्रा का अगला पड़ाव खोजने के लिए वह आदिम सवालों से भरी उसी पोटली को पलट देता है जिन से जूझ कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी वह चलता रहा है. ये सवाल हैं – मैं कौन हूं? सृष्टि और प्रकृति, समय और समाज क्या है? मेरा इनसे क्या संबंध है? इस विशाल भूतल पर मेरे होने का अर्थ क्या है? भूख और अन्य भौतिक परितृप्तियों के बाद मनुष्य की सबसे बड़ी लड़ाई अस्मिता पाने की ही रही है. व्यक्ति के रूप में भी, समाज के रूप में भी. पुरानी परिपाटी और मूल्य, एक बिंदु पर आकर, नष्ट भले न हों, खोखले अवश्य हो जाते हैं. तब समय के क्षरणशील तत्वों को बीन-फटक कर परे फेंकने के साथ ही उन्हें प्रतिस्थापित करने वाले स्वस्थ पोषक तत्वों की तलाश भी जारी हो जाती है. आज का समय उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का समय है जो लोकतंत्र और सेकुलरिज्म की कोर को दबाते-दबाते अतीत-गौरव के नाम पर खूनी हुंकारे भरने लगा है. भय, हिंसा, आतंक और अविश्वास के माहौल ने मनुष्य को मनुष्यता से क्षरित कर धर्म, वर्ग, जाति, समुदाय, लिंग की हैवानियत में बदल दिया है. यह वह समय है जब सच में घुसकर झूठ प्रखर सत्य का रूप लेने लगा है, और देश की तमाम दौलत कुछेक घरानों के हाथों में केंद्रित होकर अमीरी-गरीबी के बीच अलंघ्य खाइयों को बढ़ा रहा है.
यह स्थिति सिर्फ भारत की नहीं, कमोबेश पूरी दुनिया की है जहां दक्षिणपंथी ताकतों और कॉरपोरेट कैपिटलिज्म ने मनुष्य को उसकी गरिमा से च्युत कर दिया है. लेकिन दुर्भाग्यवश परिवर्तन का आकांक्षी वर्ल्ड इकोनामिक फोरम जिस न्यू वर्ल्ड ऑर्डर (द ग्रेट रिसैट) की परिकल्पना कर समाजवादी व्यवस्था का सपना देखता है, वहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के सहारे मनुष्य की गरिमा ही नहीं, भौतिक अस्तित्व को कुचलने के दुष्चक्र हैं; पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर कार्बन क्रेडिट जैसी रियायतें देकर विकासशील देशों को निर्बाध भोग की सुविधा देने के प्रावधान हैं; स्मार्ट टेक्नोलॉजी की आड़ में मानव-श्रम की गरिमा को न्यूनतम करने की असंवेदनशील कवायदें हैं. ‘मेरे पास कुछ नहीं, फिर भी मैं प्रसन्न हूं‘ (आई ओन नथिंग, येट आई एम हैप्पी) – नई विश्व-व्यवस्था का यह नारा फकीरी निश्चिंतता का डमरू बजाकर विषमता एवं विभाजन को ही इक्कीसवीं सदी के उत्तरार्ध की मूल चेतना बनाना चाहता है.
जयशंकर प्रसाद के समय स्थितियां ठीक इतनी घिनौनी और डरावनी नहीं थीं, लेकिन राजनीतिक आजादी का स्वप्न आंखों में पालकर चिंतकों-समाजसुधारकों -साहित्यकर्मियों ने राष्ट्र-राज्य के रूप में ‘भारत‘ की अवधारणा को गढ़ना शुरू कर दिया था. यह वह समय था जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका से संत्रस्त हो यूरोप मनुष्य की स्वायत्तता और अस्मिता को केंद्र में रखने का स्वप्न बुनने लगा था. हिंसा की जगह शांति, भोग की जगह आत्मनियंत्रण, विध्वंस की जगह कल्याण के भाव ने साम्राज्यवाद और सामंतशाही दोनों व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाने शुरू कर दिए थे. टी. एस. इलियट 1922 में ‘द वेस्ट लैंड‘ कविता के जरिए भारतीय उपनिषद् से दत्त, दाम्यत, दयध्वम् एवं बौद्ध धर्म से शांति एवं अहिंसा का संदेश लेकर जिस नए विश्व-मानव की अस्मिता का स्वप्न देखते हैं, वह भौगोलिक सीमाओं और वैचारिक संकीर्णताओं का अतिक्रमण कर मनुष्य को सृष्टि की केंद्रीय चेतना का गौरव देता है.
यह देखना खासा दिलचस्प है कि प्रसाद मनु के बहाने ‘कामायनी‘ में मनुष्य की अस्मिता के सवाल से टकराते हुए अपने समय की तमाम अंतर्ध्वनियों को सुनने-बुनने का क्या उपक्रम करते हैं? साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि क्या वे संस्कृति-निर्मित तमाम विभाजनों और विषमताओं से विच्छिन्न कर मनुष्य को उसकी संपूर्ण भास्वरता में देख पाए हैं? 1936 – कामायनी का रचना काल – से बहुत पहले आधुनिक भारत की निर्माण प्रक्रिया के प्रारंभिक चरण के रूप में राजनीतिक क्षेत्र एवं बांग्ला साहित्य में जातीय अस्मिता की तलाश शुरू हो गई थी. बंकिमचंद्र चटर्जी ‘आनंदमठ‘ (1882) में हिंदू संस्कृति के अभिमान से भरकर जिस प्रकार भारत की सदियों से चली आ रही साझी विरासत को छिन्न-भिन्न करके धर्माधारित पहचान का रूप दे रहे थे, वह निश्चय ही उदार एवं प्रगतिशील चिंतकों के लिए चिंता का विषय बन गया था. फलत: महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज‘ (1909) के जरिए आत्मनिर्भर कृषिप्रधान सेकुलर भारतीय अस्मिता को प्रयासपूर्वक रेखांकित करते दिखाई पड़ते हैं, तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ‘गोरा‘ (1910) में धर्म की पुनर्व्याख्या करते हुए इसे चिन्हों-प्रतीकों-कर्मकांडों से मुक्त उज्ज्वल मानवीय चेतना का नाम देते हैं जो प्रेम और अहिंसा से खाद-पानी लेकर विश्वास और बंधुत्व का प्रसर करती है. धर्म जब कट्टरता का जामा पहन कर ग्रंथि बन जाता है, तब भय और आतंक की स्थिति पैदा कर मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता, उत्पीड़क और उत्पीड़ित की बायनरी में विभाजित कर देता है. अतः टैगोर भारत राष्ट्र-राज्य की जातीय अस्मिता तलाशते हुए समन्वय और सद्भाव को आधारभूमि के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर का मनुष्य-केंद्रित समन्वयमूलक जातीय अस्मिता का यह स्वप्न हिंदी साहित्यकारों तक आते-आते ‘आनंदमठ‘ के मोहजाल में जकड़ता दखाई देता है. ‘साकेत‘ (1931), ‘उर्मिला’ (1915), ‘प्रियप्रवास’ (1913) जैसी कृतियों के जरिए वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता, और त्यागमयी समर्पिता भारतीय स्त्री की स्तुति के जैसे गीत गाए गए, वे एकबारगी इस तथ्य से दृष्टि हटाते हैं कि 1987 में पंडिता रमाबाई ‘हिंदू स्त्री का जीवन‘ लिखकर शास्त्रीय व्यवस्थाओं, संहिताओं एवं स्मृतियों के मनुष्यविरोधी स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह लगा चुकी थीं; और उनसे भी पहले सावित्रीबाई फुले स्त्री-शिक्षा एवं जागृति के प्रसार के लिए कन्या पाठशाला के अतिरिक्त ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह‘ और महिला सेवा मंडल (1852) जैसी समाज सुधार संस्थाओं के कर्मठ जुझारू योद्धा के रूप में स्वयं को प्रमाणित कर चुकी थीं. उल्लेखनीय है कि स्त्री की हीनता और सतीत्व की महिमा को सान कर बंकिमचंद्र चटर्जी बेहद तामझाम के साथ स्वामी जीवानंद की पत्नी शांति को पुरुष वेश में सुसज्जित कर एक दिलेर अनुशासित सैनिक का रूप देते हैं. इसके ठीक विपरीत सावित्रीबाई फुले एक इकाई के रूप में निजी और जाति के रूप में स्त्री की जातीय अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए सबसे पहले स्वयं को मनुष्य – जीवंत आत्मनिर्भर चेतन प्राणी – के रूप में महसूसने की संवेदना अपने समय-समाज को देती हैं; तदुपरांत सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपने मिशन को योजनाबद्ध रूप से संचालित करती हैं. यह भारतीय संदर्भ में स्त्री की ‘मनुष्य‘ के रूप में क्रमिक रूपांतरण की पहली महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिघटना है. जाहिर है, कामायनी का मूल्यांकन करते हुए इस सवाल को तो पैर पसारना ही था कि क्या प्रसाद सावित्रीबाई फुले की परंपरा के वारिस बन सके?
प्रसाद की विशेषता है – अध्ययन की व्यापकता और विश्लेषण का पैनापन. इतिहास एवं दर्शन उनके प्रिय विषय है जो उन्हें सभ्यता की खोज और संस्कृति के प्रादुर्भाव जैसी आदिम जिज्ञासाओं से जोड़ते हुए आर्य संस्कृति के उद्गम और विकास जैसे जटिल सवालों तक ले आते हैं. ‘काव्यकला और अन्य निबंध‘ में संग्रहीत ‘प्राचीन आर्यावर्त – प्रथम सम्राट इंद्र और दाशराज्ञ युद्ध‘ शीर्षक निबंध इसका साक्षी है. प्रलय का होना और नूह की नाव द्वारा सृष्टि को बचा लिया जाना एक ऐसी परिघटना है जो विश्व के सभी प्राचीनतम धर्मों एवं संस्कृतियों में अपने-अपने ढंग से दर्ज है. प्रसाद भारतीय संस्कृति के संदर्भ में इसे मनु अर्थात मानवता के नवयुग के प्रवर्तक के जरिए उठाते हैं जो ‘देवों‘ से विलक्षण है, मानव की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने के लिए कटिबद्ध है. दरअसल समूची विश्व-संस्कृति के सामने उपस्थित यह संकटापन्न समय था जब अपनी-अपनी विशिष्ट भौगोलिक सरहदों में सिमटकर उन्हें पूर्व-प्रलय-स्मृतियों के दंश से विचलित भी होना था; और अपनी तमाम अन्त:शक्तियों को संकेंद्रित करते हुए जर्जर परंपरा के विघटनशील घटकों से बचाकर एक उन्नत संस्कृति का पुनर्निर्माण भी करना था. भारत में यह प्रयास वैदिक संस्कृति के रूप में दिखाई देता है तो ईरान में जराथुष्ट्र के जरिए वह अवेस्ता धर्म का रूप लेता है जहां
प्रलय-पूर्व समानताओं के बावजूद बुनियादी भिन्नताएं एक ही उद्गम से निकली दोनों संस्कृतियों को क्रमशः भिन्न-भिन्न करने लगती हैं.
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“आज अमरता का जीवित हूँ मैं वह भीषण जर्जर दंभ‘ बनाम ‘जीवन में जागरण सत्य है या सुषुप्ति ही सीमा है‘
अपने समय की मनोभूमि पर खड़े होकर जयशंकर प्रसाद ने जिन दो तत्वों – संशय और आत्मसाक्षात्कार – को हस्तगत किया है, उन्हें ही मनु के व्यक्तित्व की निर्मात्री ताना-बाना शक्तियों के रूप में प्रतिस्थापित किया है. संकटापन्न स्थितियों के बीच मनु की हताशा मौजूद है, और दिशाहारा मनु की निर्रथक दौड़ में अपने युग को समझने-गढ़ने की विकलता है. यह वह समय है जो पूरी तल्खी से जानता है कि लीक पीटने में सांस की सुरक्षा भले हो जाए, अपने क्षरित होते अहं की पूर्ति के लिए उसे दो विकल्पों में से एक विकल्प चुनना ही होगा . एक, निष्क्रिय भाव से रहते हुए स्वयं को शून्य करते रहने की वैचारिक दरिद्रता जो अतीत के गौरव गान में आत्मप्रवंचनात्मक सुख देती है या दूसरे, कर्मक्षेत्र में सन्नद्ध होकर भविष्य के पुनर्निर्माण का उत्साह. अतीत के प्रति प्रसाद का व्यामोह और वर्तमान के प्रति आत्मसजग कर्तव्य-बोध उनके भीतर द्वंद्व को घनीभूत करते हैं जिसकी प्रतिच्छाया मनु के व्यक्तित्व में बार-बार देखी जा सकती है. प्रसाद जानते हैं, संस्कृति की संश्लिष्ट व्यापक यात्रा में संघटन और विघटन के स्वर बराबर मौजूद रहते हैं. मोह चेतना को आविष्ट किए जाने की मंथर प्रक्रिया है जो अंततः तर्कहीन भावविह्वलता और जड़ वैचारिक प्रतिबद्धता में विघटित हो जाती है. प्रसाद अपने नायक को इस विघटन से बचाने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए सिर धुनता मनु बार-बार परंपरा और विरासत की सार्थकता पर सवाल उठाता है – ‘स्वयं देव थे हम सब तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि‘.
सवाल में अपनी भूलों और ज्यादतियों की पहचान भी है – ‘प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में
भोले थे, हां, फिरते केवल सब विलासिता के नद में‘
या
‘अरे पुरातन अमृत! अगतिमय मोहमुग्ध जर्जर अवसाद‘
एवं
‘शक्ति रही, हां, शक्ति; प्रकृति थी पदतल में विनम्र विश्रांत‘.
अपनी आत्मसंकीर्ण मनोवृत्ति पर गहरा क्षोभ भी है – ‘प्रेम वेदना भ्रांति या कि क्या? मन जिसमें सुख सोता था‘.
वह जान गया है कि (१) ‘केवल सुख का संग्रह‘ किसी भी सत्ता-संस्कृति को नष्ट कर देने में समर्थ है; (२) कि समय रहते व्यक्ति न चेते तो ‘अन-अस्तित्व का तांडव नृत्य‘ धू-धू करता नाचने लगता है.
प्रायश्चित कर्म का पर्याय नहीं है, कर्म की पीठिका हो सकता है. लेकिन वह मनु जो जीवन में जरा सी भी प्रतिकूलता मिलने पर ‘शापित सा मैं जीवन का यह ले कंकाल भटकता हूं‘ कह कर रोने लगे, उससे कर्मशील संघर्ष की अपेक्षा कैसी? आत्ममुग्धता के बावजूद मनु को शायद अपने अ-संघर्षशील व्यक्तित्व को लेकर कोई मुगालता नहीं, लेकिन प्रसाद के लिए वह महानायक है, नई संस्कृति का गायक. इसलिए दो बार वे उसे कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त करते हैं. पहले तपस्या के जरिए अंतर्ज्ञान को दर्शन का रूप देने के लिए. दूसरी बार इड़ा के सारस्वत प्रदेश में प्रजापति के रूप में नई समाज व्यवस्था का नियमन करने के लिए. फिलहाल तपस्या की बात. जिस तरह तुलसीदास ‘रामचरितमानस‘ में राम की कांति और पराक्रम को दर्ज करते हुए बार-बार कलम तोड़ते रहे हैं, उसी तरह सागर किनारे अग्निहोत्र जलाकर ‘सुर-संस्कृति‘ को ‘सजग‘ करते ‘तपस्वी‘ मनु की छवि पर प्रसाद वारी-वारी जा रहे हैं –
‘उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है क्षितिज बीच अरुणोदय कांत.‘
सिर्फ मूर्ति का महिमामंडन नहीं, उसमें गुणों का आरोपण करना भी नहीं भूलते.
‘चेतनता चल जा, जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे‘ का आह्वान करने वाले मनु अब ‘दुख का गहन पाठ पढ़ कर‘ ‘नीरवता की गहराई में मग्न अकेले रहते हैं‘; प्रज्वलित अग्नि के पास बैठे थे वे नित्य नए प्रश्नों पर ‘मनन किया करते‘ हैं; और इस प्रक्रिया में निरंतर अधिक चेतन, अधिक उन्नत, अधिक भास्वर आंतरिक व्यक्तित्व पा वह मानो ‘त्राता‘ की शक्ल अख्तियार करते दिखाई देते हैं –
“अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते, प्रकृति सकर्मक रही समस्त
निज अस्तित्व बना रखने में जीवन आज हुआ था व्यस्त.”
कायदे से मुझे मनु और प्रसाद दोनों की कर्मलीनता पर श्रद्धा ज्ञापित करते हुए नि:शंक आगे बढ़ जाना चाहिए था, लेकिन अपने माथे पर आई त्योरियों को देखते हुए मैं वही पांव खींच कर थम जाती हूं. विलासी, अहम्मन्य एवं निरंकुश सत्ताधारी देव-संस्कृति के पतन के कारणों पर विचार करने के बाद जो ‘सुर संस्कृति‘ को प्राणप्रण से सजग करने लगा है; अपने विवेक (संयम एवं दृढ़ता) पर किलात-आकुलि जैसी आसुरी शक्तियों (लोभ एवं भोग) को हावी करके पशु-बलि और मृगया (हिंसा) में आनंद पाने लगा है – (“मनु को अब मृगया छोड़ नहीं रह गया और था अधिक काम
लग गया रक्त था उस मुख में हिंसा सुख लाली से ललाम.”) ; और ‘पुराने‘ के नक्शे-कदम पर बनाई गई अपनी नव-सृष्टि को ‘स्वर्ग‘ का नाम देकर पत्नी को सहचरी नहीं, आमोद-प्रमोद की नायिका-गायिका मानने लगा है (‘स्वर्ग बनाया है जो मैंने उसे न विफल बनाओ/ अरी अप्सरे! उस अतीत के नूतन गान सुनाओ‘) – वह तपस्वी तो कदापि नहीं. ठीक यहीं मैं तप के अर्थ पर भी विचार कर लेना चाहती हूं. तप यज्ञ करना या समाधि की शून्यता में विलीन होना नहीं है, न ही संसार का परित्याग तप है. तप संसार से ऊर्जा लेता है, असंतोष आक्रोश, असहमतियां भी; और वहीं से चिंतन, मनन, स्वप्न और अंतर्दृष्टि पाता है. तप की सार्थकता अपने सवालों-संशयों पर एकाग्र चिंतन करके हस्तगत उपलब्धियों को कर्म की शक्ल में समाज के भीतर संचारित करना है. तप के ऐकांतिक चिंतन का एक सिरा यदि च्यवन ऋषि को छूता है तो दूसरा महात्मा बुद्ध को. च्यवन ऋषि की समाधि-अवस्था ऐसे नि:संग मनन की प्रतीक है जहां अंतःप्रज्ञा संस्कृति, समय-चेतना और चिंतन का श्रेष्ठतम पाने के दौरान ज्योतिपुंज बनकर आंखों में संकेंद्रित हो रही है; और भीतर के तमाम तरह के मलिन, उच्छि्ष्ट तत्व बाहर निकल कर अशुद्ध मिट्टी के ढेर, हिंसक जंतु, विषैली लतर के रूप में उनके गात पर लद रहे हैं. जहां तक महात्मा बुद्ध के तप का सवाल है, वह बुद्धत्व प्राप्त करने की अवस्था के बाद ही सही मायने में अस्तित्व ग्रहण करता है और समाज के बीचोबीच जाकर रोग, जरा, मृत्यु से उपजे दुख-शोक को नियंत्रित करने का साधन बन जाता है. इसके विपरीत मनु का तप सिर्फ यज्ञ-कर्म की नित्यक्रमिकता,ऐकांतिकता और छीन ली गई सत्ता एवं संस्कृति को पुन: लहलहाने की भौतिक आकांक्षा है. इसलिए दुख उसे मांजता नहीं, आत्मकेंद्रित अहंवादी बनाता है. मनु के दुख में जन सामान्य के दुख को समझने की उदारता नहीं. असलियत तो यह है कि अपने से इतर किसी अन्य जन की भौतिक सत्ता को वह स्वीकारता ही नहीं. यह मनु की रुग्ण निरंकुश वैचारिकता का एक उदाहरण भर है.
मैं एकाएक 1883 में रची गई नीत्शे की औपन्यासिक कृति ‘दस स्पोक ज़राथुष्ट्रा‘ का स्मरण करने लगी हूँ. मनु के विपरीत (और बुद्ध की तरह) इस कृति का नायक ज़राथुष्ट्रा लंबी तपश्चर्या के बाद ज्ञान प्राप्त कर लेने पर निर्जन एकांत में जी कर अपने जीवन और ज्ञान को व्यर्थ नहीं करता, बल्कि पहाड़ की ऊंचाइयों से उतर कर मीलों फैले जंगलों की नीरवता को पार करते हुए मनुष्य-संकुल बस्तियों में आता है, और अधनींद में सोई वैचारिक दृष्टि से रंक भीत असुरक्षित जड़ जनता का उद्बोधन करता है. तप के बाद अर्जित ज्ञान परंपरा का गर्दभ-बोझ नहीं होता, नई सरणी को खोलता है. इसलिए ‘गॉड इज डेड‘ की उद्घोषणा कर ज़राथुष्ट्रा अपने समय की अराजक व्यवस्था को चुनौती देता है जो ईश्वर का भय दिखाकर मनुष्य को बौना एवं अकिंचन बना रही थी. वह स्पष्ट उद्घोष करता है कि जिस तरह ब्रह्मांड की नाभिकीय शक्ति सूर्य है, उसी तरह पृथ्वी की नाभिकीय शक्ति मनुष्य है -आत्मबल, आत्माभिमान और आत्मविश्वास से कांतिमान सबल मनुष्य, जिसके पास नई मूल्य व्यवस्था के साथ सामाजिक नियमन का मनुष्य-संवेदी नया ब्लूप्रिंट हो. लेकिन मनु के पास ज़राथुष्ट्रा की तरह ऐकांतिक साधना का अकूत धैर्य भी नहीं. न ही उपहास उड़ाती आत्मसंकुचित भीड़ की असंवेदनशीलता झेलने की दृढ़ता, और न कुशल नेतृत्व क्षमता कि प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बना कर अनुयायियों-सुहृदों-समानधर्मा संवेदनशील चिंतकों का एक बड़ा जत्था तैयार कर सके.
प्रसाद ने मनु को आत्मसाक्षात्कार करने वाली कर्म-चेतना की अपेक्षा आत्मभर्त्सना में सुख पाने वाले अहंवादी निर्णय-दुर्बल पुरुष के रूप में गढ़ा है. उसके पास रुदालियों का ठाठ है जो उसे संघर्ष की तेजोमयता से विच्छिन्न करता है –
“ इस निर्जन प्रांत में विप्लव रखी मेरी पुकार उत्तर न मिला
लू-सा झुलसाता दौड़ रहा कब मुझसे कोई फूल खिला
मैं सपना देखता हूं उजड़ा कल्पना लोक में कर निवास
देखा कब मैंने कुमुद हास.”
तप ने उसे अपने को पहचानने का बुनियादी बोध तक नहीं दिया है. उसकी उद्धत अहम्मन्यता एक ओर स्वयं को ‘शून्यता का उजड़ा-सा राग‘ कहकर अपनी असफलताओं पर निर्लज्ज जश्न मनाने का मनोबल देती है तो दूसरी ओर अवसाद को जीवन-शैली बनाकर आत्ममुग्ध बने रहने का आश्वासन भी –
“अपने को आवृत्त किए रहो दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप
वसुधा के समतल पर उन्नत चलता फिरता हो दंभ स्तूप
श्रद्धा इस संस्कृति की रहस्य व्यापक विशुद्ध विश्वासमयी
सब कुछ देकर नवनिधि अपनी तुमसे ही तो वह छली गई
हो वर्तमान से वंचित तुम अपने भविष्य में रहो रुद्ध
सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध,”
तब सवाल उठता है कि जो स्वयं ‘मनुष्य‘ होने की भास्वरता से संपन्न नहीं, वह कैसे मनुष्यपरक समाज-व्यवस्था की नींव रख सकता है?
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‘मनु क्या यही तुम्हारी होगी उज्जवल नव मानवता/जिसमें सब कुछ लेना हो हंत! बची क्या शवता‘ बनाम ‘सब कलुष ढालकर औरों पर रखते हो अपना अलग तंत्र‘
स्वेच्छाचारिता का दुर्गुण मनु की मनुष्य-अस्मिता पर सवालिया निशान लगा देता है. सृष्टि के उद्भव एवं विकास-क्रम में मनुष्य चौपाया जानवरों के व्युत्पत्तिमूलक विकास की अद्यतन कड़ी है. फर्क यह है कि अन्य जानवरों या अपने पूर्वजों – इरेक्टोहोमस और निएंडरथल्स की तुलना में वह अधिक बुद्धिमान है. इसी वजह से गर्वपूर्वक उसे सेपियंस (बुद्धिमान) की उपमा दी जाती है कि नुकीले दांतों-सींगों-पंजों वाले फुर्तीले हिंसक बनैले जानवरों पर उसने अपनी औसत कद-काठी और सामान्य अंगों के साथ न केवल काबू पाया, बल्कि समूची चल-अचल प्रकृति की केंद्रीय शक्ति बन बैठा. हिंसा, भूख, हवस, लिप्सा और वर्चस्व – मनुष्य की बुनियादी विशेषताएं हैं जो सृष्टि के प्रारंभ से ही उसे गतिशील, कल्पनाशील और सृजनशील बनाती रही हैं. पाषाण युग से तकनीकी युग तक की सारी विकास-यात्राएं मनुष्य ने अपनी इन्हीं मूल मनोवृतियों के आधार पर तय की हैं. विकास और परिवर्तन के नाम पर हर बार वह युद्ध, उन्माद और मृत्यु की विभीषिका को धरोहर की तरह समय को सौंपता आया है, किंतु साहित्य, संस्कृति एवं दर्शन में इन पाशविकताओं से सुसज्जित प्राणी मनुष्य नहीं है. वह हैवान है, मनुष्यता का भक्षक. ‘मनुष्य‘ होने की पहली बुनियादी शर्त है – अपने समेत समूची प्रकृति को संरक्षण देने की शारीरिक-मानसिक ताकत. मनुष्य दरअसल एक समाज-निर्मित अवधारणा है. अवधारणा ऐसी संकल्पना है जिसके भीतर किसी एक निश्चित अर्थ/विचार/मूल्य/मंतव्य/ आचार संहिता को आरोपित कर उसे एक विशिष्ट पारिभाषिक रूप दे दिया जाता है. यानी वह एक ऐसी स्वयंसिद्ध परिकल्पना है जिसे स्वयं व्यवहार की कसौटी पर नहीं कसा जाता, लेकिन वह अपने समय, समाज और भविष्य के लिए मानदंड बन जाया करती है. चूंकि अवधारणा में मूल्य आरोपित किए जाते हैं, इसलिए वह मूलतः आरोपणकर्त्ता के मंतव्यों की वाहक होती है, समग्र सत्य का प्रतिरूप नहीं होती, सत्य को नियमित करने वाली एक शै बन जाती है. यानी अवधारणा अपनी अंतिम परिणति में पूर्वाग्रहों को बनाती भी है, और सत्य को धुंधला भी करती है. मनुष्य की अवधारणा (मानववाद) दार्शनिकों-चिंतकों की सुचिंतित विचारधारा का प्रतिफल है. चूंकि दर्शन सतह को आवेष्टित करने वाली क्षुद्रताओं का परिहार कर व्यक्ति के स्वतंत्र विकास एवं विचार की उन्नततर स्थिति का आरोहण करना चाहता है, इसलिए पशु से मनुष्य को अलगाने के लिए वह मनुष्य में उन सब गुणों और वृत्तियों की नियोजना करता गया जो उसकी निजी और जातीय अस्मिता को अधिक उदार, परिपक्व और गरिमामय बनाते हैं. इस प्रक्रिया में अहिंसा, प्रेम, सद्भाव, करुणा, त्याग, परोपकार, क्षमा, समन्वय जैसे गुण मनुष्य होने की बुनियादी शर्त बनते गए जहां स्व (मी) और स्वायत्तता (मी टाइम) का जितना महत्व है, उतना ही जरूरी है समतामूलक सह-अस्तित्वपरक बहुलतावादी समाज जो निरंकुशता की मनोवृत्ति को निरस्त कर आत्म-संयम एवं विवेक को प्रतिष्ठित करता है. मनु की आत्मारतिग्रस्तता और अहम्मन्यता जैसी मनोग्रंथियों ने उसे ‘मनुष्य‘ के स्वरूप के निर्माता गुण-मूल्यों से वंचित किया है. वह जिस सुर-संस्कृति की याद में डूबा हुआ है, वहां सुरबालाएं विलास की सामग्री के रूप में मौजूद हैं जो अपने यौवन-घट से उसे (पुरुष को) तृप्ति के घूंट पिलाती रहती हैं. उन सुर-बालाओं को साधन से इतर मनुष्य रूप में आंकने/ स्वीकारने का औदात्य चूंकि मनु ने कभी अर्जित नहीं किया, इसलिए उसी संस्कृति की दैवीय पदचापों को वह प्रलयोत्तर नवयुग में भी ले आता है जहां नई संगिनी श्रद्धा को अपने से कमतर, परनिर्भर और भोग्या मानने का संस्कार मौजूद है. गर्भवती श्रद्धा की आत्म-व्यस्तता और पुलकित आत्मनिर्भरता उसके स्फीत अहं पर करारी चोट करते हैं –
“यह क्यों क्या मिलते नहीं तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म
तुम बीज बीनती क्यों? मेरा मृगया का शिथिल हुआ न कर्म”
एवं
“मनु देख रहे थे चकित नया यह गृहलक्ष्मी का गृह-विधान
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा, यह क्यों किया सुख साभिमान.”
यहां मैं फ्रेडरिक एंगेल्स की पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उत्पत्तिमूलक अनुमानित सैद्धांतिकी का स्मरण कर लेती हूं, जहां वे कहते हैं कि गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के बाद स्त्री की शिशु के प्रति मोहग्रस्त चिंता और तल्लीनता ने पुरुष को इतना अधिक अवसन्न कर दिया कि वह समझ नहीं पाया, क्यों उसके संग रमण करके प्रसन्न रहने वाली स्त्री शिशु के आते ही उससे विमुख हो गई. यही नहीं, भोजन-संग्रहण और स्तनपान जैसी क्रियाओं के जरिए अपनी आत्मनिर्भरता को बढ़ाकर उसने मानो समाज के बीच अपनी नई दुनिया बना ली है. एंगेल्स मानते हैं कि हताशा ने पुरुष को पहले एकाकी बनाया, फिर हिंसक और अंततः सत्ता की भूख ने उसे दमन, षड्यंत्र और व्यवस्थाओं का नियामक बनाया. दरअसल अपने से इतर ‘अन्य‘ का दमन करने की प्रवृत्ति जब निजी स्तर पर न रहकर अपने जैसे समानधर्मी व्यक्तियों के संगठन की ताकत बन जाती है, तब अल्पसंख्यक समुदायों और संस्कृतियों के समावेशीकरण की जिद में तब्दील हो जाती है. मनु को प्रसाद ने चूंकि अधिक देर तक ‘समाज‘ कही जाने वाली संस्था के बीचो-बीच संघर्षरत या द्वंद्वग्रस्त स्थिति में नहीं रखा है, अतः वह डोमिनेटिंग संस्कृति द्वारा अन्य संस्कृतियों को समाविष्ट (उदरस्थ) कर दिए जाने के अप्रिय प्रसंग से बच गए हैं जिसकी पूर्व पीठिका विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक ‘हिंदुत्व‘ में स्पष्ट दिखाई देती है. लेकिन फिर भी वे अनजाने ही मनु के स्खलन और विघटन को, श्रद्धा के प्रसंग में, निरंकुश अधिनायकत्व के स्तर तक ले आते हैं. तब तपस्वी मनु क्रमशः उग्र तामसी प्रवृत्तियों का पुंज बन जाता है. सबसे पहले वह अपने हताश आक्रोश को जब्त करने की ‘शालीन‘ कोशिश में देह-गेह बिसरा कर मृगया के बहाने जानवरों पर हिंसा बरसाता है; फिर पाता है कि निरर्थक एवं उपेक्षित कर दिए जाने की पीड़ा ने उसके भीतर वर्चस्व की हिंसक आग को भड़का दिया है –
“हिंसा ही नहीं और भी कुछ वह खोज रहा था मन अधीर
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा जो बढ़ती हो अवसाद चीर.”
मनु की मनुष्य की अवधारणा में मनुष्य (प्रभु वर्ग) एक इकाई के रूप में आता है, या प्रजा के रूप में जो भीड़ है, चेहराविहीन है, नतशिर सेवा-प्रदाता है, और प्रभुत्व के उच्च आसन पर आरूढ़ कुलीन तंत्र का उपजीव्य है. फलत: संवाद और सहमेल की संभावना वहां न्यूनतम है. प्रसाद चाहते तो मनु के पलायन और सारस्वत प्रदेश में नई पारी की शुरुआत को मनु के आत्मोन्नयन की ऊर्ध्व यात्रा में रूपांतरित कर सकते थे. लेकिन यहां वे स्वयं संघर्ष, विश्लेषण और विज़न से बचते रहते हैं. यही कारण है कि ‘कामायनी‘ के कथानक के रूप में मिथक का चुनाव करते समय वे उसका पुनर्सृजन करने की बजाय परंपरानुमोदित ढंग से ही निर्वहण करते हैं. तब मनु-श्रद्धा-इड़ा त्रिक् में तीनों के समन्वित रूप को मुकम्मल मनुष्य का दर्जा देने की अपेक्षा इड़ा को विनाश की ओर प्रवृत्त करने वाली तर्कशक्ति तथा श्रद्धा को समर्पण और समन्वय का पाठ पढ़ाने वाली भावशक्ति में रूपायित करना आसान हो जाता है. जाहिर है आरोपित निष्कर्ष प्रसाद को दूर तक नि:संग और स्रष्टा नहीं बने रहने देते, बल्कि वे वैदिक संस्कृति की स्तुति के बहाने वर्णाश्रम व्यवस्था, पितृसत्तात्मक व्यवस्था एवं समाज का विषमतामूलक विभाजन करने वाली शास्त्रीय संरचनाओं के पैरोकार दिखाई देते हैं. कहना न होगा कि ‘कामायनी‘ में निरूपित मनु का रूपक प्रसाद की अपनी विचारधारा का प्रतिरूप है. मनु को रचते समय प्रसाद के समक्ष दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं. एक, मनु को भोगवादी विलासी देव नहीं बनाना है क्योंकि मनु के आधुनिक संस्करण (?) के जरिए वे अपने समय की पतनशील सामंती व्यवस्था पर चोट करना चाहते थे. दूसरे, मनु को नवीन मानव-सभ्यता के व्यवस्थापक के रूप में महिमामंडित करना है ताकि उसके बहाने स्वाधीनता-आकांक्षी भारत की शासन-व्यवस्था का ब्लूप्रिंट प्रस्तुत किया जा सके. दुर्भाग्यवश दोनों ही उद्देश्यों में प्रसाद बुरी तरह असफल रहते हैं.
प्रसाद प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पौराणिक साहित्य के जितने गंभीर अध्येता थे, उतनी ही गहनता से अपने समय के सरोकारों से भी जुड़े हुए थे. ‘कंकाल‘ उपन्यास में हिंदू धर्म के क्षरणशील तत्वों पर चिंता करते हुए जिस तरह वे उसके कर्मकांडी रूप का मजाक उड़ा कर उसे अधिक समावेशी, लचीला और मानवीय बनाने की कोशिश कर रहे थे, वह उनकी नि:संग उदार दृष्टि का परिचायक है. अस्पृश्यता, जातिगत अभिमान, धार्मिक असहिष्णुता, सामाजिक विषमता, संसाधनों का असमान वितरण और गरीबी की समस्या, स्त्री-शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के सवाल – इन सब से वे जिस बेलौस भाव से दो-चार होते हैं, उससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं रहता कि अपने हाथों अपने युग की सड़ांध को साफ करने का बीड़ा उठाने वाला यह मनस्वी युवक मनु बनकर ‘कामायनी‘ में क्यों हर मोड़, हर पड़ाव पर विचलित और हताश हो जाता है. कामायनी प्रसाद के मोहावेश की रचना है – भारतीयता की तलाश का महास्वप्न जो यथार्थ की विभीषिका से टकराकर कसैला नहीं होना चाहता; यथार्थ से कतरा कर अपने मनोलोक में महालोक का महास्वप्न साकार कर लेना चाहता है. यथार्थ से टकराने के लिए संघर्ष जरूरी है. मनु की देव-संस्कृति और प्रसाद का अभिजातवाद दोनों संघर्ष से कतराते हैं. इसलिए ‘मनुस्मृति‘ में वर्णित और भारतीय समाज की नींव में दीमक की तरह लगे जिस शास्त्रीय विधान को प्रसाद ‘कंकाल‘ में कठघरे में खड़ा करते हैं, उसे ही बिना किसी ऊहापोह के मनु के सिर पर ताज की तरह सजाने लगते हैं. इस प्रक्रिया में सारस्वत प्रदेश की क्रुद्ध आक्रामक जनता की आवाज को भी वे मनु के साथ सुनना नहीं चाहते, जो तख्तापलट की सख्त चेतावनी को युद्ध की अनगढ़ रणनीतिक व्यूह-रचना में ढाल कर एकजुट हो गई है –
“तुमने भोगक्षेम से अधिक संचय वाला, लोभ सिखाकर इस विचार संकट में डाला.
हम संवेदनशील हो चले यही मिला सुख, कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख.
प्रकृत शक्ति तुमने यंत्रों से सबकी छीनी,शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी
और इड़ा पर यह क्या अत्याचार किया है? इसलिए तू हम सब केवल यहां जिया है?”
आज बंदिनी मेरी रानी इड़ा यहां है, ओ यायावर! अब तेरा निस्तार कहां है?”
युद्ध और पलायन – चिंतन और कर्म के नाम पर मनु के पास बस यही दो हथियार हैं. प्रसाद जानते हैं, युद्ध संघर्ष की उर्वर कर्मयात्रा नहीं, जय की आकांक्षा का अहम्मन्य मुखर निनाद है. संघर्ष में ‘अपने सुख को विस्तृत करके‘ ‘सब को सुखी‘ बनाने की आकांक्षा है. श्रद्धा जिसे ‘कर्म का भोग‘ ‘भोग का कर्म‘ कह कर ‘आनंद‘ की स्थिति को रेखांकित करती है, वह यही संघर्ष है. संघर्ष का प्रारंभिक बिंदु एक इकाई से शुरू होता है, फिर आह्वान और आंदोलन में तब्दील हो अपनी फल निष्पत्तियों को समूची मनुष्यता तक ले जाता है. यह निज से नि:संग होकर सृष्टि तक समाविष्ट हो जाने की चेतना है. लेकिन मनु अपनी कर्मणा शक्ति के द्वार कस कर बंद रखता है, यह जानते हुए भी कि कर्मठता ही चेतना को सहचरी बनाकर अभिज्ञान की जमीन को विस्तृत और लक्ष्य के आसमान को व्यापक करती चलती है. संघर्ष मनुष्य को रचने वाला सबसे बड़ा तत्व है. मनु इस दृष्टि से हिंदी महाकाव्य का सबसे रंक, पंगु और निष्प्रभावी नायक है. संघर्ष से कतराने की प्रवृत्ति मनुष्य को पलायनवादी और कमजोर ही नहीं बनाती, उसे अपनी करनी के प्रति अनुत्तरदायी भी बनाती है. इसलिए मनु ठंडे दिमाग से सोचने का यह विवेक न अर्जित कर सका कि जो वर्णाश्रम व्यवस्था और वर्ग विभाजन पहले-पहल उजड़े सारस्वत प्रदेश के एकीकरण और समृद्धि के लिए सहायक हुए, क्यों कालांतर में वे प्रजा के भीतर असंतोष को बढ़ाते गए? व्यवस्थाएं पत्थर की लकीर नहीं होतीं कि उन्हें बदलती परिस्थितियों के अनुरूप परिमार्जित न किया जा सके. सिर्फ हठ है जो परिष्कार की तमाम संभावनाओं की अनदेखी करता हुआ रक्तोन्माद में कूदता-फलांगता चलता है.
सारस्वत प्रदेश की समाज-व्यवस्था प्रजापति मनु के विजन और सृजन का ड्राफ्ट है. देव-संस्कृति प्रलय के नर्तन में नष्ट हो चुकी है. उसकी स्मृतियों की डोर से बुनी सारस्वत प्रदेश की व्यवस्था से असंतुष्ट प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है. तब ऐसे में मनु के सामने एक ही सवाल उपस्थित होना चाहिए था कि मनुष्य की अस्मिता की रक्षा के लिए क्या उपाय किए जाएं कि (१) वर्ग भेद एवं वर्ण भेद न रहें, (२) संसाधनों का सामान वितरण हो ताकि प्रबुद्ध वर्ग (पुरोहित) ज्ञान पर कुंडली मारकर ज्ञान की उपासना में लीन रहने का स्वांग न करें, बल्कि कर्म की आभा से युक्त हों और समरसता की अभिलाषा में विषमता न फैलाएं; (३) संसाधनहीन श्रमशील समाज नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त न रहे; (४) असंतुष्ट प्रजा को रोष और प्रतिरोध व्यक्त करने का लोकतांत्रिक अधिकार मिले;और (५) सत्ता का चरित्र निरंकुश न रहे.
लेकिन दुर्भाग्यवश मनु में सत्ता के सब सुखों का भोग कर लेने की आदिम भूख है –
इड़े! मुझे वह वस्तु चाहिए जो मैं चाहूं!
तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूं.”
एवं
“आह! प्रजापति होने का अधिकार यही क्या? अभिलाषा मेरी अपूर्ण ही सदा रहे क्या?
मैं सबको वितरित करता ही रहूं क्या? कुछ पाने का यह प्रयास है पाप, सहूं क्या?”
निरंकुशता उसे राजसत्ता से पहले पितृसत्ता ने दी है. इसलिए श्रद्धा की आत्मनिर्भरता की तरह इड़ा की जनता में पैठ, प्रखर बौद्धिक व्यक्तित्व और गत्यात्मकता मनु को आत्महीनता का बोध करा कर दृष्टिहीन प्रतिशोध से भर देती है. स्वनिर्मित व्यवस्था के धराशायी हो जाने का जो क्षण मनु के लिए आत्मचिंतन और मंथन की अनिवार्य सीढ़ी होना चाहिए था, उसे वह बलात्कार की घिनौनी कोशिश के रूप में नष्ट कर देता है. निजी जीवन के बाद सामाजिक जीवन में यह मनु की दूसरी बड़ी पराजय है. क्या यहीं से पराजय और प्रतिशोध की ज्वाला में जलते मनु के चरित्र का संघटन नहीं किया जाना चाहिए था? अपनी ही राख से उठते फिनिक्स पंछी की तरह यदि प्रसाद मनु को हिमालय-आरोहण की यात्रा पर ले जाने के बदले जनता एवं प्रबुद्ध नीतिकारों-चिंतकों के साथ संवाद-मनन की गंभीर रचनात्मकता में लीन दिखाते तो क्या ‘कंकाल‘ उपन्यास के सरोकारों की तरह वह अपने युग की विभीषिकाओं को दूर करने का कोई भी झीना-सा सूत्र न पा लेते?
बलात्कार शारीरिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से कमजोर का मर्दन नहीं, अपनी ही अहंवादी विकृतियों और कमजोरियों का सार्वजनिक प्रदर्शन है. लेकिन चूंकि बलात्कारी के ‘कृत्य‘ में उस जैसे वर्ग की मौन सहमति छुपी होती है, इसीलिए न केवल उसकी ‘करनी‘ को कठोर दंड के जरिए सामाजिक आचरण से बाहर करने की इच्छाशक्ति का अभाव होता है, बल्कि इसके विपरीत कमजोर (बलात्कृत) को ही दंडनीय ठहराया जाता है. प्रसाद जिस तरह से इस घटना के पश्चात इड़ा की तेजस्विता को क्रमशः मलिन होते दिखाते हैं; इड़ा की हिमायती क्रुद्ध भीड़ को क्रमशः पराजित एवं ‘पालतू‘ होता दिखाते हैं; और एरोगेंट श्रद्धा द्वारा इड़ा को स्त्री-सुबोधिनी का पाठ पढ़ाते हैं, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की जातीय अस्मिता की खोज का सवाल प्रसाद के सामने तीन रूपों में व्यक्त हुआ है – (१) पुरुष की मर्दवादी सत्ता की स्तुति एवं स्वीकृति; (२) आदर्श भारतीय स्त्री की दोयम दर्जे की छवि-निर्मिति; तथा (३) मिथकों (अतीत के महिमामंडन) के सहारे वर्तमान को पुनर्सृजित करने की आकांक्षा.
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“मैं स्वयं सतत आराध्य, आत्ममंगल उपासना में विभोर/उल्लासशील मैं शक्ति केंद्र, किसकी खोजूं फिर शरण और”
उल्लेखनीय है कि टी. एस. इलियट जब ‘द वेस्टलैंड‘ के जरिए भविष्य का मानचित्र बनाने की सृजनशील कोशिश करते हैं, तब वह युद्ध के उन्माद और विनाश-लीला का चित्रण करके मात्र राजनीतिक नेताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करते, बल्कि अनेक सांस्कृतिक आख्यानों, ऐतिहासिक घटनाक्रमों, किंवदंतियों और लोक-मान्यताओं के जरिए अपनी ऐतिहासिकता में विकसित होने वाले मनुष्य और समाज के मनोविज्ञान एवं कार्यशैली को समझने का प्रयास करते हैं. विकास की प्रक्रिया के दौरान जब चेतना की गतिशील समग्रता में हठ, लिप्सा, भोग और वर्चस्व की भूख जैसे रुग्ण तत्व घुलने-मिलने लगते हैं, तब चेतना की कर्मशीलता के कारण आकार पाने वाली संस्थाएं, व्यवस्थाएं और आचार-संहिताएं अपना रूप बदल कर जड़-विकृत होने लगती हैं. उस समय मनुष्य की अस्मिता को अक्षरित भाव से गरिमामय बनाए रखने के लिए जरूरी हो जाता है कि परंपरा और आधुनिकता दोनों की रुग्णताओं को फटक-बीन कर स्वस्थ गतिशील तत्व रेखांकित किए जाएं.
प्रसाद की पर्यवेक्षण क्षमता जितनी समृद्ध है, उतनी ही सशक्त है अपने समय की आहटों और मनोविज्ञान को गुन-बुन कर अभिव्यक्त करने की क्षमता. सारस्वत प्रदेश की रुष्ट प्रजा के जरिए वे जिस पूंजीवादी व्यवस्था और सारस्वत प्रदेश के विभाजनकारी सामाजिक विधान पर सवाल उठाते हैं, वह उनके समय का दारुण सत्य तो है ही, जो आज तकनीक और बाज़ार की सहायता से विषमता का प्रसार करते हुए उपभोक्तावादी संस्कृति में तब्दील हो गया है. दोनों ही कालखंड अपनी वैचारिक निष्क्रियतात्मकता और दिशाहीन भागदौड़ के कारण गति के बीच जड़ता, व्यापकता के बीच शून्य का प्रसार कर रहे हैं. लोभ, अकर्मण्यता, स्मृतिविहीनता, काल्पनिक दुखों की सर्जना से मिलने वाला ‘आनंदमय दुखवाद‘ और व्यक्ति को ईश्वर/अवतार बनाकर पूजने का संस्कार – यह सब हमारा अपना वर्तमान भी है. प्रसाद चाहते तो आत्मविश्लेषण की इस जमीन पर मज़बूती से पैर टिका कर अपने समय का क्रिटीक रच सकते थे, लेकिन यह हिन्दी पट्टी का दुर्भाग्य रहा है कि तद्युगीन समाजसुधार आंदोलन की आहटें हिंदी पट्टी तक पहुंचती तो हैं, लेकिन वैचारिक जड़ता एवं सामाजिक यथास्थितिवाद के मोटे आवरण से टकराकर वहीं दम तोड़ देती हैं; बौद्धिक बहस और विकास का एजेंडा नहीं बन पातीं. इसलिए जोतिबा फुले, पेरियार, अंबेडकर की ब्राह्मणवाद को दी गई चुनौती और महात्मा गांधी का ‘हरिजन‘ नाम से अछूतोद्धार का व्यापक सामाजिक आंदोलन प्रेमचंद जैसे रचनाकार के अलावा तद्युगीन हिंदी साहित्य का केंद्रीय सरोकार नहीं बन पाता. यही बात किसानों, किसान-मज़दूरों और मज़दूरों के संदर्भ में भी कही जा सकती है. महात्मा गांधी ने 1917 में चंपारण आंदोलन की शुरुआत करके सिर्फ किसानों की समस्याओं को ही नहीं जाना था, यह भी समझा था कि संसाधनों का विषम विभाजन कैसे समाज में गरीबी, शोषण और वर्ग-वैषम्य की खाइयां बढ़ाता है. लेकिन अंतत: एक इकाई के रूप में मनुष्य की अस्मिता को कमतर करके नहीं आंका जा सकता. राष्ट्र की जातीय अस्मिता में आखिरी पंक्ति के आखिर में खड़ा व्यक्ति भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना नायक या कुलीन वर्ग.
प्रसाद यह बात ‘कंकाल‘ में समझते हैं. इसलिए कर्म की डोर से बंधे ऐसे महाफलक की रचना करते हैं जहां ईसाई धर्म में दीक्षित लतिका के साथ ब्राह्मण-पुत्री घंटी, और मुसलमान मां तथा आदिवासी पिता की संतान गाला मिलकर स्त्री जागृति हेतु कन्या पाठशाला चलाती हैं. मंगल, निरंजन और विजय मिलकर समाजोद्धार में जी-जान से जुट जाते हैं. यही नहीं, वहां भिखारी बना दिए गए मनुष्य भी अपने स्वतंत्र भौतिक अस्तित्व और मानवीय गरिमा के साथ दिखाई पड़ते हैं. वास्तव में समाज-कल्याण कार्य तब तक शुरू नहीं किया जा सकता, जब तक समाज की जटिल-संश्लिष्ट संरचना की भीतरी परतों की बुनावट में छुप कर बैठे उपेक्षित, पददलित वर्गों को ठोस मानवीय उपस्थिति के सहारे मूर्त न किया जा सके. प्रजा राजा का विलोम नहीं है कि अमूर्त प्रजा की बात कर राजा को प्रजा-वत्सल एवं प्रजाहितैषी होने का गौरव दिया जा सके. राजा/शासक की गरिमामयी अस्मिता प्रजा के रेशे-रेशे को उसकी तमाम विविधता, विपन्नता एवं विडंबनात्मकता में प्रत्यक्ष करने, और फिर तदनुसार उद्धार एवं कल्याण की नीतियां बनाने में है. अन्यथा कागजों पर बनी हवाई नीतियां राजसत्ता और राजकोष को संपुष्ट करने का उपक्रम बनकर ही रह जाती हैं.
जातीय अस्मिता की तलाश दरअसल समाज-व्यवस्था की शिनाख्त के बिना संभव नहीं. समाज व्यवस्थाएं जातीय अस्मिता की विशिष्टताओं को थहाने वाली सरणियां हैं जो बहुलतावादी स्वर के बरअक्स वर्चस्वशाली निरंकुश सत्ता के केंद्रीकृत होते जा रहे स्वरूप और विडंबना को उद्घाटित करती हैं.
अतीत के मोहपाश में बंधी प्रसाद की दृष्टि पूंजीवाद और विज्ञान के गतिशील चरित्र को नहीं समझना चाहती. वे इन दोनों से भयभीत हैं. अतः इनके सकारात्मक पक्ष – लोकतांत्रिक चेतना का विकास – की पैरवी नहीं कर सके. प्रसाद के समय से ही लोकतांत्रिक चेतना से संपन्न स्वतंत्र भारत पाने की राजनीतिक लड़ाइयां लड़ी जाने लगीं थीं. लोकतंत्र राजशाही और सामंतवाद दोनों को समाप्त कर राजा के स्थान पर आम आदमी, ईश्वर की निरंकुश सत्ता के स्थान पर सेकुलरिज्म, और धर्म-ग्रंथों के स्थान पर संविधान को तरजीह देता है. प्रसाद का दौर अपने समय के आर-पार देख लेने का दौर था जहां शिद्दत से यह बात महसूस की जा रही थी कि समय का चक्का उल्टा घुमा कर पीछे नहीं जाया जा सकता. अप्रीतिकर स्थितियों के बीच रहकर वहीं से टकराने की दृष्टि और ताकत पाना जरूरी है, जैसे गोर्की, दोस्तोवस्की और टॉलस्टॉय अपने साहित्य में करते रहे हैं. प्रसाद सामंतवाद की मनुष्य-विरोधी सोच से आतंकित नहीं थे. वे पूंजीवाद को समाज का घुन मानते थे. इसलिए पूंजीवाद और विज्ञान को बुद्धि का दुष्परिणाम मान जब वे मनु के मुख से श्रद्धा को मनुष्य-सभ्यता का त्राता होने का गौरव दिलाते हैं, तब एक बार फिर अपने ही बुने मिथक के संकुचित दायरे में फंस जाते हैं. वैदिक संस्कृति चूंकि स्त्री को पुरुष की सत्ता के अधीन मान उसका स्वायत्त चित्रण नहीं करती, इसलिए वह प्रवृत्ति या प्रतीक के रूप में ही पुरुष के नायकत्व का संवर्धन करती रही है. प्रसाद श्रद्धा को मनु के संवेदनात्मक चेतन और इड़ा को उसके ज्ञानात्मक चेतन का प्रतीक बनाकर सीधी लकीर खींचने का प्रयास करते हैं, लेकिन यही युक्ति उनके पैर की बेड़ी भी बन जाती है. श्रद्धा और इड़ा यदि मनु-निर्भर दो प्रतीकात्मक स्थितियां न होतीं तो स्वतंत्र चरित्रों के रूप में जीवन और भविष्य के प्रति अपनी दृष्टि और देन का बखान कर सकतीं थीं, लेकिन जब वे समग्र पुरुष -मनु – के व्यक्तित्व के दो अलग-अलग पक्षों का प्रतिनिधित्व करती हैं, तब उन्हें एक-दूसरे से काटकर देखने का अर्थ है मनु को इड़ा की अनुपस्थिति में वैचारिक रूप से अपंग, और श्रद्धा की अनुपस्थिति में संवेदनहीन निरंकुश पुरुष बना देना. गौरतलब है कि ‘दर्शन‘ सर्ग से ‘कामायनी‘ के अंत तक प्रसाद मनु को पूरी तरह श्रद्धा पर अवलंबित दिखाते हैं –
“यह क्या श्रद्धा! बस तू ले चल, उन चरणों तक, दे निज संबल.”
इस दौरान मनु कर्म-योद्धा और भविष्यदर्शी स्वप्नद्रष्टा नहीं दिखाई देता, शरतचंद्र चटर्जी के रुग्ण असहाय कथा-चरित्र श्रीकांत की याद दिलाता है जो राजलक्ष्मी का सहारा लेकर जीवन के तमाम पड़ावों को अभिमानपूर्वक पार कर रहा है. संभवतया प्रसाद उसकी निरीहता पर लट्टू हैं, अन्यथा क्या एक बार भी यह चेतनासंपन्न सजग सर्जक इस सवाल से न टकराता कि क्या श्रद्धा (भावना) इड़ा (विवेक) के अभाव में भावुकता में स्खलित हो कर अंध आस्था नहीं बन जाएगी, जहां हठधर्मिता और एकांगी दृष्टि में ही विश्वदर्शन के सपने निबद्ध हो जाएंगे? यह एक ऐसी आशंका है जिसे टैगोर ‘गोरा‘ में पहले ही प्रश्नांकित कर चुके थे और जो प्रसाद के अपने समय में सावरकर के ‘हिंदुत्व‘ को सोपान बनाकर गोलवलकर जैसे शुद्धतावादी पुरातनपंथियों की उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवादी हुंकारों में उभर चुकी थी. दुर्भाग्यवश इसे ही आज हम 21वीं सदी के दूसरे दशक में फासीवाद के हिंदुत्ववादी सांस्कृतिक संस्करण के रूप में भारत की सरज़मीं पर उतरता हुआ देख रहे हैं. यह ऐसी मरीचिका है जहाँ आध्यात्मिकता/अतीत के गलियारों में घूमकर ही यथार्थ जीवन की समस्याओं को सुलझाने के स्वप्न पाले जाते हैं. ज़ाहिर है इसलिए प्रसाद का रोमानी आदर्शवाद ‘कामायनी‘ की भूमिका में श्रद्धा और मनु के सहयोग को ‘मनन‘ का गौरव अवश्य देता है, लेकिन सुविधानुसार भूल जाता है कि मनन अर्थात् चिंतन-विश्लेषण बुद्धि के बिना संभव नहीं.
प्रसाद के वैचारिक आग्रह युगीन आकांक्षाओं के अनुरूप श्रद्धा को मातृशक्ति के रूप गढ़ रहे थे. मातृत्व की कुल अर्हताएं श्रद्धा के चरित्र में गुंथी दिखाई देती हैं – त्याग, समर्पण, देखभाल, ममत्व, क्षमा, धैर्य… । बुद्धि/ विचारशक्ति चूंकि इन गुणों के अंध-निर्वहण में खलल डालती है, अतः गाहे-बगाहे इड़ा को फटकारने /नसीहत देने का विशेषाधिकार श्रद्धा को दे दिया जाता है ताकि वह अपनी श्रद्धा-निर्भर नियति को लेकर संतुष्ट रहे. ‘कामायनी‘ के अंतिम तीन सर्गों में जहां कथा-तत्व झीना हो जाता है, और चिंतक के रूप में प्रसाद/मनु का दर्शन नए समय की वैचारिकी का रूप लेकर उभरता है, वहां श्रद्धा की क्रमशः मुखर और मजबूत होती उपस्थिति बहुत से संदेह और असहमतियां उत्पन्न करती है. एक, कर्मलोक को श्यामल क्यों बताया गया है? दूसरे, ‘आनंदवाद‘ की स्पष्ट प्रपत्तियां क्यों नहीं दी गई हैं? आनंद भले ही अनुभूति हो, लेकिन जब वह ‘आनंदवाद‘ के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है, तब उसके पीछे दर्शन की तमाम चिंताएं और चिंतन- सरणियां होती हैं. तीसरे, मनु के वारिस के रूप में मानव के अपनी प्रजा के साथ क्या संबंध हैं? ये सवाल इसलिए कि साहित्य जब किसी नई दृष्टि, संरचना, यूटोपिया की तलाश में समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता है, तब वह सत्ता और व्यवस्था – यथास्थितिवाद – को बनाए रखने की अपेक्षा इनके दमन-तंत्र में फड़फड़ाते आम आदमी की मुक्ति का आख्यान रचने को कटिबद्ध होता है.
सबसे पहले ‘रहस्य‘ सर्ग में श्रद्धा द्वारा मनु को त्रिलोक की यात्रा पर ले जाने का संदर्भ. इन तीन लोकों में पहला है इच्छा लोक. मनोरम रागारुण रंग के प्रतीक में उभारा गया यह लोक “जीवन की मुख्य भूमि है” जो “रस धारा से सिंचित” होती है. मनु का मन यहां खूब रमता है. तीसरा लोक “सुख-दुख से उदासीन” ज्ञान क्षेत्र है जहां “बुद्धि चक्र” अनवरत घूमता चलता है. ‘पुंजीभूत रजत‘ जैसे उज्ज्वल रंग में रंगे इस लोक की विशेषता है – “सामंजस्य चले करने थे किंतु विषमता फैलाते हैं, मूल स्वत्व कुछ और बताते, इच्छाओं को झुठलाते हैं.” इन दोनों लोकों के विपरीत है कर्मलोक. यह न केवल श्यामल रंग से रंगा धुंधला मलिन लोक है, बल्कि यहां है –
“श्रममय कोलाहल, पीड़नमय विकल प्रवर्तन महायंत्र का
क्षण भर भी विश्राम नहीं है प्राण दास है क्रिया तंत्र का
यहां सतत संघर्ष विफलता कोलाहल का यहां राज है
अंधकार में दौड़ लगा रही मतवाला यह सब समाज है
यहां शासनादेश घोषणा विजयों की हुंकार सुनाती
यहां भूख से विकल दलित को पदतल में फिर-फिर गिरवाती
यहां राशिकृत विपुल विभव सब मरीचिका से दीख पड़ रहे
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे विलीन, ये पुन: गड़ रहे.
बड़ी लालसा यहाँ सुयश की अपराधों की स्वीकृति बनती
अंध प्रेरणा से परिचालित कर्त्ता में करते निज गिनती.”
यह वह अति भीषण कर्म-जगत् है जो चार्ल्स डिकेंस (1812 से 1870) के उपन्यासों में जब उभरता है तो अपनी-अपनी नियति से दो-चार होते ‘लघुमानव‘ सरीखे कथा-चरित्रों में विभीषिकाओं से टकराने का हौसला भरता है. बेशक ‘कामायनी‘ की तरह इस कर्मलोक में भी पीड़ा, त्रास, शोषण और भूख का प्राचुर्य है, लेकिन जड़ता के भीतर गति के लिए तड़पते डिकेंस के ये संघर्षशील चरित्र कर्मलोक की तमाम मलिनता और श्यामलता को ऊर्जा की भास्वर ऊर्मियों से आलोकित कर देते हैं. किंतु भोग और ऐश्वर्य को जिंदगी का पर्याय समझने वाला मनु आगे बढ़कर कर्मलोक के इन रहवासियों का उद्धार करने का हौसला नहीं जुटा पाता. अपनी तमाम संवेदना और सहानुभूति को कातर दृष्टि बनाकर वह वहां से कूच कर जाना ही श्रेयस्कर समझता है –
“बस! अब और न इसे दिखा तू यह अति भीषण कर्म जगत है.”
तब सवाल उठता है कि मनु की इतनी भागदौड़ का मकसद आखिर क्या है? यदि वह जनता को उनकी पेशेवर दक्षता और उनसे जुड़ी समस्याओं के साथ देखकर पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की पुनर्समीक्षा करने का विवेक नहीं अर्जित करता तो उसके चिंतन का लक्ष्य अंततः कौन है? क्या वह स्वयं? आत्मरतिग्रस्त आत्मकेंद्रित इकाई?
“मैं शासक मैं चिर स्वतंत्र, तुम पर भी मेरा हो अधिकार असीम, सफल हो जीवन मेरा!”
श्रम के प्रति तिरस्कार का भाव श्रमिक वर्ग यानी मनुष्य मात्र के प्रति तिरस्कार है. प्रसाद के दर्शन की सबसे बड़ी कमी यह रही कि उन्होंने मनु की कर्म-चेतना और संघर्षशीलता का चित्रण नहीं किया उसे. उन्होंने उसे भावोच्छ्वास में खोई अस्पष्ट-सी लकीर के रूप में गढ़ा है – “मैं भाव-चक्र में पिस-पिस कर, चलता ही आया हूं बढ़कर.” लेकिन ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान को कर्म की विवेकशील ऊर्जा में ढालने वाले किसी चरित्र की सृष्टि नहीं की है
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प्रसाद ने मनु-पुत्र मानव के चरित्र और कार्यशैली को ‘कामायनी‘ में बुना नहीं है, लेकिन जिस विश्वास से श्रद्धा सारस्वत प्रदेश और इड़ा को उसके हाथ सौंपती है, उसमें रचयिता की गहरी स्वीकृति भी शामिल है –
“तुम दोनों देखो राष्ट्र नीति, शासक बन फैलाओ न भीति …./
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, तू मननशील कर कर्म अभय
इसका तू सब संताप निचय, हर ले, हो मानव भाग्य-उदय.”
मानव को चूंकि मानव-सभ्यता का प्रवर्तक होने का श्रेय दिया गया है, अतः जरूरी हो जाता है कि ‘आनंद‘ सर्ग में मानव की संक्षिप्त उपस्थिति और पंक्तियों के बीच सजी अर्थगर्भी रिक्तियों को पकड़कर उसका चरित्र-चित्रण किया जाए. मानव पहली नजर में मनु का ही प्रतिरूप लगता है, अधिक से अधिक उसका संवर्धित संस्करण. मनु के पास गौरवमयी अतीत की निरर्थक स्मृतियां हैं, खोखला अहं है, इच्छाओं की निरंकुशता है. वह देना नहीं, पाना जानता है. मानव के पास श्रद्धा का समर्पण और लचीलापन है. स्मृतियां नहीं,वर्तमान का कटुबोध है. पिता की असफलताओं ने उसे अपने और व्यवस्था के भीतर पड़ताल भरी निगाह के साथ उतरना सिखाया है. इड़ा पर अधिकार उसे भी चाहिए, लेकिन पिता की तरह अनियंत्रित भावनाओं को लंपटता का बाना पहना कर नहीं. वह जानता है, बलपूर्वक छीनी गई वस्तु ज्यादा देर तक नहीं टिकती. इसलिए वह इड़ा से राज्य-नीति सीखने का स्वांग करता है; इड़ा की मानवीय गरिमा एवं स्वायत्तता की रक्षा का आश्वासन देकर धीरे-धीरे उसे अपनी मुट्ठी में करता है. मानव-शासित सारस्वत प्रदेश में इड़ा ‘रानी‘ नहीं, ‘सहचरी‘ है जो, ज़ाहिर है पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री होने के नाते दोयम दर्जे की प्राणी है, और जिसकी स्वायत्तता पुरुष के व्यक्तित्व में लय हो जाने के लिए नियतिबद्ध है.
बुद्धि के उपयोग से बुद्धि को बंदिनी बनाने की कला मानव को मनु से विलग करती है. वह मनु की तरह निरंकुश शासन करना चाहता है, लेकिन प्रजा के हाथों पिटने-मरने का जोखिम नहीं उठाना चाहता. इसलिए प्रत्यक्षतया वह ऐसी कोई जनविरोधी नीति /क्रिया नहीं करता कि जनता शत्रु हो जाए. वह उसे अनुयायी बनाता है, ठीक उसी कूटनीति के जरिए जैसे इड़ा को. वह जनता की भावनाओं का दोहन करके स्वयं को उसका संरक्षक होने का विश्वास दिलाता है. जनता की तर्कशक्ति और मेधा को अपने जादुई व्यक्तित्व द्वारा भोंथरा बनाकर उसकी दमित वासनाओं को उद्बुद्ध कर रहा है; उसे वह सब देखने-सोचने-समझने को मजबूर कर रहा है जो वह चाहता है. मानव के शासन में इड़ा उसके साथ है, पर उसकी उपस्थिति ठोस क्रियात्मक नहीं, प्रतीकात्मक है पोस्टर पर बसी तस्वीर की तरह. पिता की गलत नीतियों के प्रति राज्य की क्रुद्ध जनता को भेड़ बनाकर अपने पीछे-पीछे पिता (ईश्वर का प्रतिरूप?) के दर्शन के लिए ले आना सरल नहीं. भावनाओं का दोहन किए बिना ऐसा संभव नहीं. भावनाओं का दोहन करने के लिए मनुष्य की आदिम वृत्तियों – भूख, असुरक्षा, घृणा की आग को लहकाए रखना जरूरी है. मानव भावनाओं का कारोबार फैलाने का हुनर जानता है. पेट की भूख को शांत करके भी जनता को भूखा रखने की कला में वह सिद्धहस्त है. बस उसके लिए उसके भीतर लोभ-काम, सुख-आकांक्षा की अग्नि जलानी पड़ती है. सत्ता द्वारा नियंत्रित सुख-साधनों को अबाध पाने की भूख उनकी सुरक्षा को बढ़ाती है और सत्ता-कृपा की आकांक्षा में उसे दोबारा सत्ता का चारण बनाती है. सत्ता की संरचना पिरामिड-सी है तो सत्ता-चाटुकारों के बीच गला काट प्रतियोगिता भी बढ़ती चलती है. जहां धीरे-धीरे अपनी भूख की कीमत दूसरे का खून हो जाए, तब घृणा को पवित्र और न्यायोचित बताने के उपाय ढूंढ लिए जाते हैं. जैसे मनु पशु-बलि की ललक के लिए अपनी आसुरी वृत्ति को दोषी नहीं ठहराता, बल्कि आकुलि-किलात जैसे असुरों के सिर अपनी कलुषता का ठीकरा फोड़ता है. प्रसाद चूंकि मनु की हिमालय-यात्रा के दौरान मानव को दृष्टिओझल रखते हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसने प्रजा के नियंत्रण के लिए उनकी भूख और असुरक्षा को घृणा की किन महिमामंडित जटिलताओं के सहारे भड़काए रखा होगा, लेकिन इतना जरूर है कि आसुरी शक्तियों के समानांतर उद्धारक के रूप में ईश्वर/ ईश्वर की संतान/ईश्वर का अवतार जैसी परिकल्पना गढ़ने में वह भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता. इड़ा के साथ पूरे सारस्वत प्रदेश को लादकर हिमालय की दुर्गम ऊंचाइयों तक लाना और फिर इड़ा के माध्यम से छोटे-छोटे बच्चों की ओरियंटेशन को उस ‘पवित्र ईश्वर‘ मनु के महत्व के साथ जोड़ना – प्रजा की स्वायत्तता, दृष्टि और विवेक को बंधक बनाए रखने की जुगत ही है –
“हम जहां चले हैं वह जगती का पावन
साधना प्रदेश किसी का शीतल अति शांत तपोवन
वरदान बने फिर उसके आँसू करते जग मंगल; सब ताप शांत होकर, वन हो गया हरित सुख शीतल
गिरि निर्झर चले उछलते ही छायी फिर से हरियाली
सूखे तरु कुछ मुसक्याये फूटी पल्लव में लाली.
वे युगल वहीं अब बैठे संस्कृति की सेवा करते; संतोष और सुख देखकर सबकी दुख-ज्वाला हरते
है वहाँ महाहृद निर्मल जो मन की प्यास बुझाता
मानस उसको कहते हैं सुख पाता जो है जाता”
स्वतंत्र बुद्धि का विकास और प्राणिमात्र के लिए संवेदना का प्रसार विवेकपूर्ण दृष्टि को जन्म देता है जो मनुष्य को मनुष्य से, मनुष्य एवं मनुष्येतर समाज से, प्रकृति-पर्यावरण और समय की अखंड चेतना से जोड़कर घृणा को प्रेम एवं सद्भावना द्वारा जय करने का औदात्य देता है. मनुष्य की अवधारणा ईश्वर या अवतार (लार्जर दैन ह्यूमन एंटिटी) की कल्पना को स्वीकार नहीं करती. ईश्वर की कल्पना सत्ता पक्ष द्वारा अपनी भीतरी दुर्बलताओं को ढांप कर जनता को गुमराह करने का हथियार है.
इड़ा और श्रद्धा को ऑपोजिट बायनरी बनाकर प्रसाद जब मनु-श्रद्धा के सहारे रहस्य-दर्शन-आनंद का आध्यात्मिक कुहासा बुनते हैं, तब पंक्तियों की रिक्तियों के बीच से हमारा अपना वर्तमान झांकने लगता है. अध्यात्म को सृष्टि के साथ मानवीय संवाद की उदात्त कोशिश न मानकर धर्म के कर्मकांड के साथ जोड़ कर रिड्यूस कर देना और सत्ताधारी को धर्म-रक्षक का रूप देते-देते स्वयं धर्म का पर्याय बना देना दरअसल मनुष्य की स्वायत्तता को ही अस्वीकारने की कोशिशें हैं. मानववाद धर्म को नहीं विज्ञान (कार्य-कारण की तथ्यपरक सुस्पष्ट श्रृंखला) को; आस्था को नहीं तर्क को; ईश्वर को नहीं मनुष्य की स्वायत्तता को केंद्र में रखता है. ‘कामायनी‘ में प्रसाद की विचार-यात्रा मनु की अंतर्यात्रा का अंकन नहीं करती; मनु को लार्जर दैन ह्यूमन एंटिटी में ढाल देती है –
“चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित वह चेतन पुरुष पुरातन
निज शक्ति तरंगायित था आनंद-अंबु निधि शोभन.”
सवाल उठता है कि जिस आनंदवाद को मनु श्रद्धा के सहयोग से अपने बौद्धिक चिंतन की उपलब्धि के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता है, आखिर वह क्या है? प्रसाद ने ‘कामायनी‘ में अपने तमाम कलात्मक आदर्शवाद को गूंथ कर एक यूटोपियन मानव-समाज की परिकल्पना की है जो 21वीं सदी के न्यू वर्ल्ड ऑर्डर की अनुगूंजों को भी अपने भीतर समाए हुए है –
“समरस थे जड़ या चेतन सुंदर साकार बना था चेतनता एक विलसती आनंद अखंड घना था.”
लेकिन इस आनंद को पाने का मार्ग वह नहीं बताते. किसी के पद-चिन्हों का अनुसरण करके जिंदगी नहीं चलती. जिंदगी जी जाती है अपनी जिजीविषा से, अपने संघर्ष एवं मजबूत इरादों से. इसलिए मंजिल एक होने के बावजूद सबके रास्ते अलग-अलग होते हैं. प्रसाद विजय और शांति/तारा के माध्यम से ‘कंकाल‘ उपन्यास में जो बात क्रमवार कह सके हैं, उसे ‘कामायनी‘ में मिथकों एवं आध्यात्मिकता के कुहासे में अस्पष्ट कर देते हैं. ‘कंकाल‘ में वे समूचे घटनाक्रम की नाटकीय यात्रा के बाद बताते हैं कि आनंद की प्राप्ति मनुष्य के नश्वर जीवन में संभव है लेकिन तभी जब वह (१) दुख की निरंतरता के सवाल से सजग-चैतन्य भाव से टकराए; (२) दुख के कारणों की शिनाख्त और परिहार करे अर्थात बौद्धिकता और कर्मशीलता की सम्मिलित अनिवार्यता को अंगीकार करे; तथा (३) आनंद की रोमांटिक खामख्याली में न खोकर संघर्ष के दौरान अपने से इतर अन्य मनुष्य-मनुष्येतर प्राणियों के साथ संवाद की श्रृंखला बनाए रखे. जाहिर है समरसता नहीं, समानुभूति बेहतर मनुष्य-समाज की परिकल्पना का अनिवार्य घटक है.
कुल जमा बात यह कि संघर्ष के बिना आनंद संभव नहीं. तब हैरानी होती है कि जो सवाल अनिवार्य रूप से उठने चाहिए थे, वे ‘कामायनी‘ में सतह पर लाए ही नहीं जाते कि (१) वह स्तुत्य युगल (मनु-श्रद्धा) उस बीहड़, दुर्गम, जनाकीर्ण क्षेत्र में ‘संसृति की सेवा‘ कैसे कर रहा था? क्या वहां अन्य आदिवासी जनजातियां/ बसाहटें हैं? यदि हां, तो वहां की जीवन-व्यवस्था कैसी है? (२) ‘संतोष और सुख‘ देकर वे सबकी ‘दुख-ज्वाला‘ कैसे हर रहे हैं? (३), क्या वे सिर्फ ‘सेवा‘ ही कर रहे हैं या सत्ता का दुशाला ओढ़ विनम्रता में अहं का कंटीलापन छुपा रहे हैं? यदि सचमुच ‘सेवा‘ के बहाने नवीन अनुकरणीय समाज-व्यवस्था खड़ी कर रहे हैं तो क्यों प्रसाद उसका सांकेतिक/ विस्तृत ख़ाका पाठकों और अखंड समय के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत करते?
‘कामायनी‘ की भूमिका में प्रसाद ने ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण एवं छांदोग्य उपनिषद से विविध उद्धरण देकर मनु को भारतीय इतिहास का आदि पुरुष माना है जिसके वंशज हैं राम, कृष्ण और बुद्ध. इन तीनों आर्ष ग्रंथों ने उन्हें महाकाव्य का नायक और दो आनुषंगिक चरित्र दिए हैं. मनु ही नहीं, श्रद्धा और इड़ा की चारित्रिक विशिष्टताओं एवं भूमिका को इन ग्रंथों में सुनिश्चित किया गया है. तीनों प्रतीक भी हैं, और मनुष्य भी. तीनों कालातीत कालखंड में संचरण करते हैं, और ‘कामायनी‘ में आकर रचयिता की कालगत चेतना के संवाहक होने की भंगिमा भी ओढ़ते हैं. प्रसाद कल्पना की उन्मुक्त उड़ान भी भरना चाहते हैं, और इन पौराणिक चरित्रों/मिथकों की ‘पवित्रता‘ पर रत्ती भर आंच भी नहीं आने देना चाहते. इस ऊहापोह में जब भी इन तीनों चरित्रों का चित्रण करते हैं, तब प्रतीत होता है कि बिंदुओं से बने किसी चित्र को पहले वे पेंसिल द्वारा उकेर रहे हैं, और फिर उन में निर्दिष्ट रंग भर रहे हैं. लेकिन जब-जब वे मिथकीय मोहपाश से मुक्त हो स्वतंत्र रूप से मनु (हताशा, अहं और पलायन वृत्ति), श्रद्धा (समर्पण एवं संवेदनशीलता) एवं इड़ा (प्रखर तर्कशक्ति) का चित्रण करते हैं, तब मनुष्य की मनोवृत्तियों, मनोभावों, आकांक्षाओं के कलात्मक शब्द-चित्र आंकते हैं. सभ्यता-समीक्षा को मानदंड बना कर यदि ‘कामायनी‘ को समग्र दृष्टि से पढ़ने का दबाव न हो तो यह कृति निश्चय ही बेजोड़ है. लेकिन जब इसमें समय का सृजन करने वाले नायक के रूप में मर्दवादी, निरंकुश एवं कमजोर मनु के दर्शन होते हैं, तब मनुष्य की अवधारणा को लेकर प्रसाद की दृष्टि पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है क्योंकि जातीय अस्मिता की तलाश मनुष्य की प्रतिष्ठा के बिना संभव नहीं.
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रोहिणी अग्रवाल
जन्म : 9 दिसम्बर, 1959; मानसा, पंजाब।
शैक्षणिक योग्यता : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेज़ी), पीएच.डी. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें : ‘हिन्दी उपन्यास में कामकाजी महिला’, ‘एक नज़र कृष्णा सोबती पर’, ‘इतिवृत्त की संरचना और स्वरूप’ (पन्द्रह वर्ष के प्रतिमानक उपन्यास); ‘समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार’ (आलोचना); ‘घने बरगद तले’ (कहानी-संग्रह); ‘कहानी यात्रा सात’ (सम्पादित कहानी-संग्रह); लगभग डेढ़ दर्जन कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्मान : कहानी ‘कोहरा छँटता हुआ’ तथा ‘आर्किटेक्ट’ वर्ष 1987 तथा 2003 में हरियाणा साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत; आलोचनात्मक पुस्तक ‘समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार’ वर्ष 2008 में हरियाणा साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत; ‘स्पन्दन आलोचना पुरस्कार’ (वर्ष 2010); ‘रेवान्त मुक्तिबोध साहित्य सम्मान’; ‘वनमाली कथा आलोचना सम्मान’; ‘डॉ. शिवकुमार मिश्र स्मृति सम्मान’।
सम्प्रति : प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा)।
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रोहिणी जी को पढ़ा. विस्तृत प्रस्तुति एवं गंभीर विश्लेषण. अपनी तरह से वे अपनी धारणा को पुष्ट कर सकी हैं. निर्णय तक, चाहे जो हों,पहुंचने में ऐसे आलेख मदद करते हैं. उन्हें और रचनासमय को धन्यवाद
बहुत सुंदर आलेख रोहिणी जी द्वारा