कुशल सम्पादक के साथ हरेप्रकाश उपाध्याय दृष्टिसम्पन्न कवि हैं। लोक से अपनी खुराक लेने वाले हरेप्रकाश लगातार जागरूक हैं और समय – समाज के बांकपन को कवित्त का रूप देते हैं जिसमें कहीं वाचालता नहीं , वरन एक ख़ामोशी है जो उन्हें अपने समकालीनों में अलग पहचान देती है। – हरि भटनागर

कविताएं

 

कविता में तुम प्यार लिखो

रोज-रोज का वही रोना-धोना
थरिया कनस्तर और बिछौना
तुम भी लिखा करो ज़रा बाबू-शोना!

जेठ में फुहार लिखो
कविता में तुम प्यार लिखो
प्यार में चीत्कार लिखो

बलात्कार कांड पर डालो पर्दा
पान में खाओ डाल खूब जर्दा
कई मेहरिया लिखो एके मर्दा

प्रेम कविता मत ऐसी सपाट लिखो
आसमान में है सोने की खाट लिखो
खड़ी दीवार को तुम सुगम बाट लिखो

कविता लिखो सिली-सीली सी
उसमें बातें हों गीली-गीली सी
एक तितली हो पीली-पीली सी

लिखो मौसम बड़ा सुहाना था
सुग्गी भूखी उसको खाना था
बहेलिये ने भी डाला दाना था

यार थोड़ा जगर मगर लिखा करो
तुम भी कवि की तरह दिखा करो
जाकर लोदी गार्डेन में सिखा करो

महाकवि बहुविध समझा मुस्काए
एक बोतल कांच के गिलास दो लाए
आगे की कथा अब हम क्या बतलाएं!

 

विधायक चाचा

मेरे चाचा हैं मिलन चौक से विधायक
समझो ऐसे जैसे फिल्मों के खलनायक!

अरे नहीं! उनकी मूँछें क्या होंगी चौड़ी
वे तो मूँछमुंडा हैं
हाँ भैया! मगर शहर के बड़े गुंडा हैं

अरे मोटे-ताजे तो बिलकुल नहीं हैं
हैं जैसे होती मरियल बिल्ली
पर उनकी हेकड़ी से हिलती दिल्ली

चाचा का बहुत ही ज्यादा चलावा है
मिलता हर पार्टी से उनको बुलावा है
पार्टी तो उनकी बस एक छलावा है
देखते केवल किधर दूध और लावा है

हथियारों के साये में चाचा नहाते हैं
कई कई रखैलें बदलकर नचाते हैं
अपराधियों पे पैसे पानी सा बहाते हैं
कितना कमाते हैं जो इतना लुटाते हैं

उनके पास तो कई कई गाड़ियाँ हैं
चाची को पसंद बनारसी साड़ियाँ हैं

चाचा को मिलता बहुत ज्यादा उपहार है
उनकी फैमिली की तो बहार ही बहार है
चंदा या वसूली उनको हर तरह स्वीकार है
उनका दीपक तो नंबर वन का मक्कार है

मत बोलो भैया तुम इतना बढ़-बढ़कर
हुमच देंगे चमचे तुम्हारी छाती पर चढ़कर
उनका लगा रहता बेल और जेल का चक्कर
किसकी शामत आई कौन ले उनसे टक्कर

तलवे सहलाने लगा देखकर चाचा लेटे हैं
कहने लगे राजू हम भी गरीब के बेटे हैं
बहुत मेहनत से ये सारी दौलत समेटे हैं!

 

माई का हाल

ग़ज़ब हाल है मेरी माई का
समझती वह इशारा भाई का
मोल करती है बस पाई का
पूजा करती बाबा साईं का

मैं कहता हूँ सुन लो मेरी भी कुछ अम्मा
सबसे कहती सतेन्दर निकला निकम्मा
साफ़ कहता मैं नहीं चढ़ा पाता मुलम्मा
कर नहीं पाता कभी कोई नौटंकी डरम्मा

भाई की नौकरी है गजटेड सरकारी
मैं बेचता कृष्णानगर में आलू तरकारी
कमाई मेरी ज्यादा समझती है महतारी
दे देती भाई को पेंशन सारी की सारी

माई मेरी बहुत ज्यादा कंजूस है
पाई पाई बचाकर होती खुश है
पैसे उड़ जाते उसे न महसूस है
उसी के पैसे से पी रहा वो जूस है

माई मेरी छल-कपट भरी नहीं है
सुंदर पर्दे देख समझती सब सही है
करती भरोसा ग़र चिकनी बतकही है
सोचती ज़रा! बग़ैर दूध कहाँ से दही है

कभी कभी या अक्सर मेरा दिल करता
माई मेरे पास या मैं ही माई के पास रहता
कपड़े धोता थोड़ी सेवा उसकी मैं करता
माई कुछ कहती कुछ मैं माई से कहता

मगर मेरी माई ने मुझसे मुँह फेर लिया है
न जाने किस लक्ष्मण रेखा ने घेर लिया है
इससे क्या ज्यादा देगी उसने जनम दिया है
माई हक़ है डाँटो ग़र मैंने कुछ गलत किया है

माई मैंने दिन ही में नहीं कोई नशा किया है
सब देख रहा तुमने अपनी जो दशा किया है!

 

मेरी भीषण पीर

न जाने कौन देवता कौन फकीर
वहीं हरते रहते मेरी भीषण पीर
कह रहे ओला बाइक चलाते सुधीर
सर मन हो जाता है कभी बहुत अधीर

पहले एक सिक्यूरिटी कंपनी में गुड़गांव जाके कमाते थे
उसके पहले एक फैक्ट्री में पानी की टंकी बनाते थे
सब खर्चा काट पीट कर महीने का पाँच हजार बचाते थे
चल रही थी ज़िंदगी सही ही, सर हम भी ठीक ही कमाते थे

इस बीच सुनीता मेरी वाइफ की किडनी में हो गई दिक्कत
सर आंधी तूफान में कैसे उखड़ते हैं पेड़ समझ गए हकीकत
होता था बीपी अप एंड डाउन पर अचानक आई ऐसी मुसीबत
पता नहीं किस जनम का पाप जो चुका रहे उसकी अब कीमत

लखनऊ में हफ्ते में होती है दो दिन सुनीता की डाइलिसिस
चार हजार किराया दो हजार बिटिया की जाती है फीस
सर पेट मुँह दाबते कैसे भी उड़ जाते हैं बीस-इक्कीस
किसी महीने में उधारी दे देता है प्यारा दोस्त सतीश

बारह बजे दिन से बारह बजे रात तक गाड़ी चलाता हूँ
बहुत कोशिश करके महीने में बीस या बाईस कमाता हूँ
सर इतने से कैसे चलेगा, मैं लोगों को प्लॉट भी दिलाता हूँ
आपको कुर्सी रोड की तरफ चाहिए तो कहिए बताता हूँ

सीतापुर के बाशिंदा सुधीर के भाई हैं पाँच
सर आज के ज़माने कौन किसका यही है साँच
सब अपने में मगन दूर से हकीकत लेते हैं जाँच
सर लीजिए पहुँच गए, रुपये हुए कुल एक सौ पाँच!

 

रफीक मास्टर

हरदोई से भाग कर आये हैं रफीक मास्टर
पंडितखेड़ा में डेढ़ कमरे का किराये का घर
बरतन बासन कपड़ा लत्ता और बिस्तर
हँसकर कहते हैं, देख रहे नवाबों का शहर

कुछ अपनों ने मारा कुछ गैरों ने मारा
कब तक सहते छोड़ आये निज घर सारा
ज़िंदगी ऐसी दिखा रही दिन ही में तारा
सी कर ढँक रहे गैरों के तन फट गया वसन हमारा

पुलिया से आगे फुटपाथ के किनारे
तानी है पन्नी बांस बल्ली के सहारे
यही झोपड़िया लगाएगी नैया किनारे
फटी सब सीएंगे टूटी मशीन के सहारे

सुनो रे भैया कहानी उनकी तुम सच्ची
कभी कभी फांका कभी पक्की औ कच्ची
नेक है बगल वाली अपनी कलावती चच्ची
दे जाती है सुबह में रात की रोटी उनकी बच्ची

घर में मुर्गी न बकरी बस बीवी और बच्चे
समय पर चुके किराया मौला दे न गच्चे

सुबह से शाम करते हैं काम
कभी न उनको छुट्टी आराम
बड़े छोटे सबको करते सलाम

हफ्ते के सौ रुपये लेता चौराहे का सिपहिया
कभी आ जाता रंगदार मनोजवा चलाता दुपहिया
फटी उघड़ी सबकी बनाते, देखते सुखवा के रहिया
कैंची चलाते सोचते जाएगा दुखवा ई कहिया

पैंडल मार मार फूल रहा दम टूटही सड़क पे चलना मुश्किल
कहते रफीक होके उदास कैसे चलेगी जीवन की साइकिल
कहिये भैया अब आप ही कहिए
लग रहा पंचर भी हैं इसके दोनों पहिये!

 

कहे पत्रकार भोले

शहर के सेठ का निकलता है अख़बार
उसका नाम कितना प्यारा – जनता का समाचार
सेठ जी का नाम बड़ा दारू का व्यापार
वही लगा हूँ आजकल मैं बना पत्रकार!

हर माह के पंद्रह हजार मैं पाता हूँ
क्या बताऊँ कैसे घर-परिवार चलाता हूँ
अपनी बाइक में तेल बीडीओ से डलवाता हूँ
पान तो मैं हरदम दरोगा का ही खाता हूँ

मेरे अख़बार का शहर में बजता रहता डंका
जो हमसे चले टेढ़ा उसकी तो हम लगाते लंका
ख़बर हम पहले छापते जहाँ हो क्राइम की शंका
ईमानदार के नाती कप्तान का रहता माथा ठनका

शहर के सारे गुंडे और रंगदार मेरे यार
अपनी जान से अधिक करते मुझे प्यार
ख़बरें तो वहीं बताते असली धमाकेदार
मेरी ख़बरों पे हरदम चौंके पांडे थानेदार

शाम का इंतज़ाम कर देता तहसीलदार
परब-त्यौहार पर रहता लिफ़ाफ़ा भी तैयार
सप्लाई इंस्पेक्टर करता रहता अपना बेड़ा पार
रुआब मेरा इतना घर में दंग रहती है मेरी नार

सच तो यह भैया हम ही कमाकर अख़बार भी चलाते हैं
सेठ ससुर होंगे बड़े आदमी पर हमारी कमाई ही खाते हैं
हम डरते किसी के बाप से नहीं सेंध पे बैठ बिरहा गाते हैं
आना देखना होली दीवाली कैसे नंग नाचते खाते-चबाते हैं

सेठ जी मेरे जलवे देख मुझे क्रीम लोशन लगाते हैं
जब कहूँ प्रमोशन और वेतन हजार पाँच सौ बढ़ाते हैं
कुत्ता उनका बहुत प्यारा अपन उस पर जान लुटाते हैं
बिस्कुट लेकर रहता तैयार जब उसे आफिस वे लाते हैं

एक दिन सेठ मुझे बड़े अदब से बुलाए, बोले
तुम्हारी मेरिट का हम भी मानते लोहा भोले
एक कविता बनाओ जिसे मैं गाऊं हौले-हौले
कवयित्री है डीएम उसे सुन वह मेरे पीछे डोले!

 

मुन्नी बाई का गाँव

बिहार में जिला रोहतास ब्लॉक दिनारा गाँव नटवार
मुन्नी बाई से मिलने गए पूछते-पाछते इक इतवार

एक आदमी हँसकर बोला
बस्ती से बाहर है नटों का टोला
दबाकर बाईं आँख दाईं को कुछ ज्यादा ही खोला
बचाकर रखना भैया ज़रा तुम अपना झोला

मिला टोले में सबसे पहले ही मुन्नी बाई का घर
वहाँ का हाल जो लिखूँ किस्सा नहीं कहर
बाबू लोग बैठे थे था समय दिन का दोपहर
संगीनों के साये में गुड़िया नाचे कांपती थर-थर

मुश्किल से सौ-पचास लोगों की बस्ती थी
नाच-गाना खाना-पीना ऊपर से ज़रा मस्ती थी
अंदर गए भीतर झांका दिखती साफ़ पस्ती थी
कपड़े-लत्ते बरतन-बासन हारी-बीमारी हालत उनकी खस्ती थी

था नहीं बस्ती में कोई वैसा पढ़ा-लिखा
हर आदमी झूलता-झामता लचर-फचर दिखा
जीने हेतु औरतों ने नाचना मर्दों ने चुप्पी सिखा
पता नहीं कैसी बिजली मुझे तो आशंकाओं का बादल दिखा

बाबू लोग बडी जात उनके पानी से डरते थे
पर अनूठी बात उनकी बालाओं पर मरते थे
अपनी ताकत से उन पे मनमर्जी करते थे
उनके बच्चों को चोर उचक्का कहते थे

बड़े लोग ही नाच पार्टी चलाते थे
उसमें मुन्नी बाई उसकी बहनों को नचाते थे
जब जवानी ढली तो मार के भगाते थे
रूहानी-ज़िस्मानी संबंधों की कीमत इस तरह चुकाते थे
उनके बच्चे किसके बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते थे

मुन्नी बाई समझकर पुलिस या पत्रकार
मुझसे कुछ लेने को करने लगी इसरार
बोली रात यही बिताइये
मँगाती हूँ दारू ब्रांड बताइये
खड़े मसाले का मुर्गा भात पकाती हूँ खाइये
बरतन अलग रखा है आप लोगों का मत घबराइये
पूरी रात ये और वो बात ठहरकर आराम से बतियाइये!

 

नाच

छुपाना क्या
छुपाने से होगा भी क्या
सुन लीजिए साँच
चले गए देखने एक दिन नाच!

नाच हो रहा था काराकाट बाज़ार में
नाच आया था पैंसठ हजार में
नाच की चर्चा थी सारे गाँव जवार में
लाउडस्पीकर की आवाज जा रही आँगन-बधार में!

नाच देखने लोग दूर-दूर से आये थे
कोई कांधे पर लाठी
तो कोई कांधे पर ही बंदूक लटका लाये थे

महज सोलह साल की है मुन्नी
नाचती है कमर पे बाँध के चुन्नी

हँस-हँसकर मुन्नी गाना
बंद कमरेवाला ही सब गा रही है
जोकर के गंदे इशारे पे
तनिक नहीं शरमा रही है
देखो ज़रा सी लड़की को
कैसे बुढ़ऊ का मजाक उड़ा रही है
चौकी के किनारे पहुँचा मंटू तिवारी
उसके दाँतों से रुपैया दाँतों से खींचकर जा रही है

नाच बड़ा हाहाकारी था
लगता वहाँ बच्चा से बूढ़ा तक
सब ही बलात्कारी था
कोई सीटी मारता
कोई शामियाने में तो कोई चौकी पर नाचता
न किसी को लाज लिहाज था
सबका ही गजब मिजाज था

दूल्हा भी एकटक ताकता मुन्नी को
दूल्हा का बाप भी ताकता मुन्नी को
कन्या का भाई
चौकी पर चढ़के खींचता मुन्नी के चुन्नी को

हर कोई था मुन्नी का प्यासा
कहना कठिन है ज़रा कविता में
कैसी बोल रहे थे लोग भाषा

मुन्नी सबसे छोटी थी
एक ज़रा उमरदराज़
दो थोड़ी-थोड़ी मोटी थी
नाचने वाली थी कुल चार
मगर मुन्नी का नशा सब पर सवार

लोग मुन्नी को बुला रहे थे बारंबार
नाचती रही मुन्नी पूरी रात लगातार

लोग बीच-बीच में उठ-उठकर जा रहे थे
बड़ा लज़ीज़ भोज था चटखारे लेकर खा रहे थे
कोई गाँजा कोई बीड़ी कहीं-कहीं जला रहे थे
कोई खटिया पर लेटकर कोई सामियाने में बैठकर
सब ही जैसे जी चाहे अपना मन बहला रहे थे

मुन्नी नाचती रही
नाचते-नाचते हो गई भोर
अचानक गोली चली मच गया शोर
लगा गाँव में आया हो कोई चोर

अरे!
दिल्ली से दिहाड़ी कमाकर
पेट काटकर पैसे बचाकर
मंटू जो आया था ममेरे भाई की शादी में गाँव
रात भर पीता रहा सुबह खा गया ताव
वही दुष्ट चौकी पर टंगे परदे के पीछे
कर चुका था जघन्य कारस्तानी
भैया मत पूछो अब आगे की कहानी !

 

ज़िदगी अपनी थोड़ी कड़क है

नहीं जानते कौन बाप कौन माई है
मुझे क्या पता मेरी ज़िंदगी कहाँ से आई है!

बाबूजी शहर के बाहर
गंदे नाले से आगे
जो बस्ती झुग्गी है
वहीं तो रहती मेरी नानी डुगडुगी है

कहते हैं लोग वही मुझे
भगवान जी से माँग कर लाई है
बाबूजी वो बुढ़िया भी बहुत कसाई है

पर करिएगा क्या
उस पर भी मुझे आती दया
बाबूजी लगता है मुझे वह भी ज़माने की सताई है
उसने भी न जाने किस-किससे मार खाई है

छोड़िए ख़ैर अब उसकी बात
दिन भीख माँगते मेरी फुटपाथ पर कटती है रात
कभी-कभी तो एक ही चद्दर में हम लौंडे होते हैं सात
हँसकर कहा, बाबूजी है न यह अनोखी बात

ज़िंदगी अपनी थोड़ी कड़क है
पर मत समझिए बस यही सड़क है
जीने-पाने को और भी कई पतली गली है
बाबूजी यह दुनिया भी बहुत भली है

क्या जाड़ा क्या गरमी क्या बरसात
हम तो ठहरे बाबूजी माँगने वाली जात
हमें नहीं कोई शिकवा किसी से
जितना मिले पेट भरते उसी से

बाबूजी कहाँ देता है कोई काम
गिरे सब जिनके बड़े हैं नाम
ख़ुशबू से महकते हैं जिनके चाम
मुँह सूँघना उनका आप किसी शाम

बाबूजी अच्छा लगा
आपने कर ली इज्जत से थोड़ी बात
वरना तो अपन खाते ही रहते हैं लात
क़िस्सा बहुत है
कभी फुर्सत से करते हैं मुलाक़ात!


हरे प्रकाश उपाध्याय

बिहार के एक गाँव में जन्म। फिलहाल लखनऊ में वास। दो कविता संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित।
भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, अंकुर मिश्र कविता सम्मान सहित कुछ अन्य पुरस्कार।
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
महाराजापुरम, केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास, कृष्णा नगर, लखनऊ-226011
मोबाइल-8756219902

 


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