मोहन सगोरिया कवि होने के साथ एक गद्यकार भी हैं। उनका गद्य पाठकों को इस तरह बांध लेता है कि उससे विलग हो पाना सहज-सरल नहीं होता। मोहन विश्वसनीय लहजे़ से अपनी बात के लिए चौंकाते भी हैं; किंतु यहां पाठकों का चौंकना इतना सहज होता है कि अचरज से भरे होने के बावजूद पाठक उनके पाठ का हिस्सा बन जाते हैं।
प्रस्तुत गद्य में आप उनका बिल्कुल नूतन शिल्प पाएंगे जिसमें आख्यान के साथ खिलंदड़ापन भी है। यूं तो यह एक कथा है, गल्प ; किंतु इसे कथेतर कहना अधिक प्रासंगिक होगा। हमारे लिए इस तरह की सामग्री को किसी विधा विशेष के खांचे में प्रकाशित करना मुश्किल काम है।
बहरहाल, पाठकों पर निर्णय के लिए यह कार्य छोड़ते हुए हम यह गद्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
– हरि भटनागर

 

आलेख :

कथा कहो या व्यथा कहो दोनों का द्वार खोलने की प्रथा कुछ इस तरह रही है :
तब सूत जी महाराज बोले कि हे ऋषियो, या अमुख नामक तपस्वी ने मुनियों से पूछा, या बहुत पुरानी बात है, या कुछ नहीं के पहले घना अंधकार था, या ऐसे-ऐसे नगर में एक राजा हते।
कहानी कहने का दूसरा लहज़ा यह भी है :
बताओ भला, पूरी शादी में फूफा जी नाराज़ क्यों रहे? या हॉस्टल पहुँचकर साहबज़ादे ने पढ़ाई की या मटरगस्ती? या मामा के जीजा की बहू से मेरी गहरी छनती थी।
इस भाँति, आदि-इत्यादि कथा आरंभ होती है। लेकिन ; इस कहानी की शुरुआत और रविश कुछ अलग थी क्योंकि यह कम होती रफ़्तार से प्लेटफार्म पर लगने वाली सवारी गाड़ी से उतरते वक़्त का किस्सा है।
सहयात्री ने शिष्टाचारवश पूछा होगा कि आप कहाँ के हैं?
जाने मैंने क्यों खींझकर झपट्टा मारा :
“अरे क्या कहा,
मैं कहाँ का हूँ ?
मैं तो कहीं का ना रहा
जिस सिम्त दौड़ा
वक़्त का बिगड़ैल घोड़ा
उसकी उल्टी दिशा नापने की
झक मुझे हाँकती थी।” उसी रवानी में मैंने यह भी जोड़ दिया- “भैया काहे परेशान हो? काबुल का नहीं हूँ मैं!”
मेरे उत्तर से घायल वह अपनी घड़ी के डायल पर गिरा। यद्यपि वह कह सकता था कि काबुल में सबसे अच्छी नस्ल के घोड़े होते हैं किंतु वहाँ गधे भी पाए जाते हैं। लेकिन, वह ख़ामोश रहा और अपनी कलाई पर ढीली बंधी हुई घड़ी को कंगन की तरह घुमाने लगा । उसे देखते ही मुझे एहसास हुआ कि मैं उसकी दरयाफ़्त से नाहक बिदका था।
दरअसल, अपना स्टेशन छूने के थोड़ी देर पहले ही मैंने लक्ष्मीधर मालवीय का उपन्यास ‘रेतघड़ी’ पूरा किया था और उसके प्रभाव में बसा रहना मुझे भा रहा था। सुदूर जापान में हिंदी का परचम फहराने वाले वे अनन्य लेखक थे। हिंदी समाज उन्हें भुला बैठा जिसके कारण मेरा मन थोड़ा क्षुब्ध था। …फिर विदेश से स्वदेश की यात्रा ! टोक्यो से दिल्ली और दिल्ली से ट्रेन से भोपाल ! परेशान हो गया था मैं।
टोक्यो से दिल्ली का हवाई फासला या तो दिन भर का था या रात भर का। यानि दस-बारह घंटे। समुद्री दूरी का अनुमान मैं नहीं लगा पाया। ध्यान में यह अवश्य आया कि रेतघड़ी ग्यारहवीं शताब्दी के समंदर के सफ़र के वास्ते ज़रूरत से उपजी थी। समय की वीणा पर पलों के तार की झनझनाहट से जो स्वर उत्पन्न होते हैं वे न व्यतीत होते हैं, न अतीत होते हैं- कलाई घड़ी में झाँकते हुए मैंने सोचा।
घर पहुँच कर मैंने अपने को बिस्तर के हवाले कर दिया। बक़ौल कै़फ़ भोपाली –
‘ऐ क़ैफ़ जागते तुझे पिछला पहर हुआ
अब लाश जैसे जिस्म को बिस्तर में डाल दे।’
ज़ेहन में इस ग़ज़ल का मतला भी कौंध गया –
‘थोड़ा सा अक़्स चाँद के पैक़र में डाल दे
तू आके जान रात के मंज़र में डाल दे।’
… और; सचमुच उसने रात के मंज़र में जान डाल दी। मैं बंद पलकों में अधजगा-सा था कि चमत्कार हुआ। हुस्नपरी मेरे सामने खिलखिला पड़ी । वह ऊपर से चौड़े, नीचे से उतने ही चौड़े लिबास में थी । कमर ऐसी पतली कि न के बराबर । इन दिनों जो सिनेजगत में जो ज़ीरो-फिगर का मानक है- वही।
” मैं रेतघड़ी हूँ, तुम मुझे लेकर कल्पनाशीलता की करवट लेते थे।”
” ओह !” मैं अचरज से भर गया।
लेकिन, मेरे आश्चर्य का उस पर कोई असर नहीं हुआ। वह कहे जा रही थी,”मुझे तुम्हारे स्वप्न में आना अच्छा लगा। तुम्हारी धारणा सही है कि सागर का विस्तार नापने वाले नाविकों को वो पैमाना चाहिए था जो माप सके कि तटों को इतना पीछे छोड़ने में कितना व्यय हुआ। और; यह भी कि अगले बंदरगाह पहुँचने में कितना वक़्त लगेगा। इस ज़रूरत में मेरा ईज़ाद हुया। वो कहते हैं ना कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मुझे सेंडग्लास, ग्लास, आॕवरग्लास जैसे कई नाम मिले। अब तो मैं टेबल पर शोपीस या पेपरवेट होने की हैसियत भी खो चुकी हूँ। आजकल तो नित नये घड़ी-अवतार, आधुनिक रूपाकार लोकप्रिय हैं।”
परी की मुख-मुद्रा पर हताशा छलक पड़ी। लिहाज़ा, मैंने कहा, “प्राचीन, पुरातन, जूना, पुराना ये तो जुमले मात्र हैं। हे घड़ी की आरब्धि, आध्या, आराध्या आप अमर हैं…”
उसने मुझे वाक्य समाप्त नहीं करने दिया, “मैं अपूर्वा नहीं हूँ। मेरी पैदाइश के पहले की पूर्वाएँ हैं। धूपघडी़ की उत्पत्ति ईसा से डेढ हज़ार वर्ष पूर्व की है। इन नामों से तुम्हारी मुलाक़ात हुई होगी – सूर्यघड़ी, सनडायल, शैडो-क्लाॕक्स। धूप के होते किसी वृक्ष या अचल वस्तु – पत्थर, खंबा, छप्पर की छाया आदि से तुम्हारे पुरखे समय की अटकलें या अनुमान लगाते थे।”
“किंतु, रात में सूरज डूबने के बाद तो छाँह गायब हो जाती है ?”
“हाँ, उन घड़ियों की निर्भरता आकाश में सूर्य के चलने पर थी। वे परछाईं की चाल से पहर बीत जाने का हिसाब बैठाते थे। ऊपर नीले आकाश में नक्षत्रों, तारों को निहारते, उनकी स्थिति में फेरबदल से वक़्त की नब्ज टटोलते। तुम्हारी दादी-नानी हिरणी की गति से टोह लेती थी कि भोर कब होगा।”
” हाँ-हाँ, मेरी माँ भी ऐसा करती थी।” मुझे याद आया- जब हम छोटे थे। पिता बैतूल जिले के छोटे से रेलवे स्टेशन ढोडरामोहार पर केबिनमैन हुआ करते थे। उनकी दिनपाली होती थी- आठ से चार बजे तक। चूँकि पिता ‘रेस्टगिव्हर’ थे, सो दस मील दूर दूसरे स्टेशन बरबतपुर पर तीन दिन जाना होता था। वह सुबह छह बजे अपनी साइकिल से निकलते। घर में घड़ी नहीं थी। माँ रात में दो-तीन मर्तबा उठतीं। वह हिरनी, खटोला या सप्त-ऋर्षियों की स्थिति देखती; और …तड़के मुर्गे की बांग या चिड़ियों की चहचहाहट से भोर का अनुमान लगातीं। सूरज उगते-उगते उनका टिफिन तैयार हो जाता था। पिता स्नान-ध्यान करते, रामचरितमानस का पाठ करते, तुलसी के चौरे पर अगरबत्ती लगाते और अपनी साइकिल उठा बरबतपुर को रवाना हो जाते।
“अगरबत्ती जलाकर …” मैं बुदबुदाया।
“हाँ”, उसने मेरी बात लपक ली – “तुम्हारे देश में तो एक अगरबत्ती के जलकर राख होने से समय की नपती होती रही। ‘इन्सेंस क्लॉक’ का रिवाज तो इंडिया से ही शुरू हुआ हुआ। माय डियर!”
उसने भारत या हिंदुस्तान नहीं कहा तो मैं चौक पड़ा और मेरे स्वप्न-संवाद की साइकिल की चेन उतर गई। पैडल ‘फ्री’ होते ही मैं हड़बड़ा गया। ज़ोरदार झटका लगा था। आँखें खुलीं तो परी ओझल थी। कहीं भूल ना जाऊँ यह सोचकर इस घटना को मैंने डायरी में दर्ज कर लिया। इसे ही आप कहानी के रूप में पढ़ रहे हैं।
… तो, कहानी यूँ हुई कि सुबह, नाश्ते से निवृत्त होते ही मैं अपने निजी पुस्तकालय में आ टिका। मैं घड़ियों का वृत्तांत जानने को उत्सुक था। किताबों के निकट हुआ तो पहली ही पुस्तक ने विज्ञापन के तर्ज पर राय दी- “तुम जलपरी को भी तसव्वुर में तलब कर सकते हो। तुम्हें वह अच्छी लगेगी। वह अपनी जैसी ही हसीन जलघड़ी से तुम्हें मिलवाएगी।”
“जलघड़ी ?”
“तुमने मंदिरों में मूर्ति पर बूंद बूंद टपकता हुआ जल देखा है ना! एक युग में लोग घड़े से झरते जल के आरंभ से लेकर रिक्त होने के समय को आँकते थे। वह एक कियांश था। निश्चितार्थी नाप तो था नहीं। यही बात मोमबत्ती-घड़ी और ‘कैंडल वाॕच’ पर भी लागू होती है।”
दूसरी पुस्तक के पृष्ठ बोल रहे थे- “जानते हो, कैंडल वॉच का इन्वेंशन इंग्लैंड के अल्फ्रेड महान ने किया। मोमबत्ती पर निशान लगे होते हैं। वह जब जलकर एक चिह्न से अगले तक नीचे आती है तो ‘पैसिज़ आॕफ टाइम’ का; समय की पारगमन यात्रा का ‘मेज़र’ या माप बन जाती है।”
“अच्छा!” मेरा विस्मय बढ़ा। मुझे ख्याल आया कि रेतघड़ी वाली परी ने ‘आॕवर ग्लास’ शब्द का प्रयोग किया था। ‘ग्लास’ से तो यह स्पष्ट था कि बर्तन काँच का, वह बर्तन पारदर्शी हो, रेत का क्रमिक पतन दिखें और ऊपरी आधे की रेत ख़त्म होने पर नज़र आए। लेकिन, ‘आॕवर’ ?
“क्या आॕवर, घंटा, साठ मिनट, साठ सेकंड, तीन हज़ार छह सौ सेकंड का समयांश है? यह रेतघड़ी के पहले प्रचलित
था?” मेरा प्रश्न था।
“ओह येस, साठ पर आधारित प्रणाली अव्वल तो सुमेरियंस बेबिलोनियंस ने निश्चित की थी। अंग्रेजी का आॕवर मूलतः ग्रीक है। तुम्हारी हिंदी में वह घंटा है, होरा है। होरा की जड़ें बेशक लेटिन भाषा में है।”
“जी हाँ, मैंने बचपन में कविता सुनी थी- घंटाघर में चार घड़ी, चारों में जंज़ीर पड़ी।”
“घंटा की अंग्रेजी है ‘क्लॉक टॉवर’- ए स्क्वेअर टाउअॕर हेविंग ए क्लाॕक एट द टाॕप विथ ए फेस आॕन ईच एक्सटिअरियर वाॕल…” एक किताब ने मुझे बताया।
मौका ताड़कर चैंबर्स की बीसवीं सदी की डिक्शनरी ने हमारे संवाद के मैदान में चौका मारा- “क्लाॕक किसे कहेंगे, सुनो- ए मशीन फॉर मेजरिंग टाइम स्ट्रिक्टली विथ अ बेल! ज़ोर से बजने वाले घंटे से लैस यंत्र, जिससे सुनने वाले समझ सकें कि जितना बार बजा है, उतना ही बजा है…”
मुझे स्कूल के दिनों का घंटा याद आ गया। वह कक्षा में प्रवेश के पेशतर प्रार्थना-प्रांगण में पंक्तिबद्ध होने का आदेश देता था। दोपहर में आधे घंटे का अवकाश और अंततः पूरी छुट्टी का प्रसन्न-भाव। कतिपय कोई उपद्रवी बच्चा इसे कुछ मिनट पहले बजा देता तो सारी कक्षाओं के बच्चे ‘हो हो’ करके बाहर निकल आते। इस हो-हो पर हमें खूब डांट पड़ती। मिडिल स्कूल के हेड मास्टर साहब अपने कक्ष से बाहर आकर गरज पड़ते – ‘ओ भैया, जो का हे ? काय चीख रय हो ! तुमरे बाप-महतारी जा रहे हैं का – सड़क पे’ !
कभी-कभी यह हो-हो हम अपने घरों तक भी ले आते। रात्रि भोजन के बाद भी खूब धींगा-मस्ती होती, तब निद्रा-निमंत्रण का निर्देश भी हमें घड़ी से ही मिलता। टिक्-टिक् की लय में गाती घड़ी हमें दिन उगे जगा देती थी- ‘सुबह सवेरे कहती जागो ! हुआ वक़्त पढ़ने का, भागो!’ बड़े होते जाने का और जीवन की डोर थामे बढ़ते जाने का दौर आन पहुँचा है, तब भी घड़ी ही हमारी हमराही है, हमदम है।
तभी मुझे लपक लिया ‘द टाइम मशीन’ नामक नावेला ने। कुल जमा अस्सी पेज की उपन्यासिका। एचजी वेल्स ने अठारह सौ पिन्चानबे में लिखा था इसे। इसके जरिए उन्होंने अपने पाठकों को अनागत से अवगत कराया था। पता है ना, वह घड़ी से बड़ी शातिर मशीन? एक कल्पितयान जिसमें कोई भी समय में सुदूर का सफ़र कर ले। इस विज्ञान-कथा की बुनियाद पर उन्नीस सौ पैसठ में एक फिल्म बनी थी और दो हज़ार दो में दूसरी फिल्म सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई। इसमें उन्नीसवीं सदी का एक खोजी, बीती घटनाओं को बदलने की नीयत से गुम वक़्त में वापसी चाहता था, परंतु जा पहुँचा था ‘टेंस फ्यूचर’ में – आठ लाख वर्षों के आगे एक तनावग्रस्त भविष्य में। उसमें वह मनुष्य जाति को दो युद्धरत नस्लों में विभाजित पाता है। ‘द फायर आॕफ साइंस फिक्शन’ एचजी वेल्स की कहानी हो या फिल्में हो, सबका सार रूप में यह आशय है कि विकास की हेकड़ी, अक्खड़पना और तरक्की का तांडव अंततः विनाश ही साबित होगा। उनमें वर्ग संघर्ष का संकेत निहित था; साथ ही सामाजिक चेतावनी जिसे आदमी ने गंभीरता से नहीं लिया।
अक्षरों के सहारे से कहूँ तो जब मैं इससे बाहर हुआ, तब भी मेरा दिमाग़ वक़्त व घड़ियों में लगा रहा। मैं उनके प्राकृतिक प्रस्थान में, यांत्रिकी तथा इलेक्ट्रॉनिक उत्थान में उलझा रहा। कम शब्दों में घड़ी को क्या कहूँ? यह कहूँ कि ऐसा उपकरण जो पूर्ण स्वचालित प्रबंध द्वारा वर्तमान समय को व्यक्त करें ? घड़ी वास्तविक मशीन है। उसमें नियमित ढंग से अपने आप आवर्तक क्रियाएँ उत्पन्न करने की युक्ति है। मसलन, लोलक या सर्पिल कमानी… यानि पेंडुलम अथवा स्प्रिंग द्वारा संतुलन चक्रों या दाब विद्युत मणियों का दोलन। इस ओर कभी, उस ओर कभी झूलते रहने में यह इशारा भी है कि उसमें जान है। यह भी कि ये जो वक़्त है; यह पवन वेग से उड़ता घोड़ा है। घोड़ा तो है ही शौर्य और शक्ति का प्रतीक। मशीन की क्षमता उसके ‘हॉर्स पावर’ से ज्ञात होती है। घड़ी वैसी मशीन नहीं। समय निरंतर ‘मूव’ करता है। सर्कस या सिनेमा-टीम सा ‘पैकअप’ करते हुए। एक जगह टिकता नहीं- घड़ी की टिक टिक कहते रहने को भाव नहीं देता। चिंतक हेनरी डेविड थोरौ ने कहा है – समय सिर्फ़ जल प्रवाह है जिसमें मछलियाँ पकड़ने जाता हूँ। एक कवि वक़्त के बारे में कहेगा- मछलियों सा सर्वदा, विचलित, चलायमान। वह सदा दक्षिणावर्त घूमता है, घड़ी की सुईयां भी। और; ध्यान दें कि यह वही दिशा है जो कुछ कसने, बंद करने की दिशा है। खोलना हो तो उसे एंटी घुमाना होगा। उसके खिलाफ़ जाना होगा। उसे नष्ट करने के सौ ढब ढूँढोगे, जतन करोगे; वह उतने ही उपायों से उजाड़ेगा।
समय का जो इसके अतिरिक्त आयाम है, वह उच्चतम टावर या महत्तम पावर है। वह चौकन्ना है, चौकोर नहीं गोल है। महाभारत सीरियल में जो ‘मैं समय हूं’ के साथ घूम रहा है- वही पहिया। आज के युवा इसे ‘सर्किल’ कहना पसंद करते हैं। यह दीगर बात है कि उन्नीस सौ चार में न्यूयॉर्क सिटी में जहाँ ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपना दफ़्तर खोला, वह चौराहा ‘टाइम्स स्क्वेयर’ कहलाया। खबरों की दुनियाएँ जाने किस गुमान में अपने नाम समय से संयुक्त कर लेती हैं, जोड़ लेती हैं। हमारे देश में भी यह चलन है।
चलन तो हमारे देश में उत्सव को मनाने का भी है और उत्सव के बहाने तरह-तरह के कार्यक्रम-समारोह आयोजित करने का भी।
विगत रविवार को गांधी भवन में कार्यक्रम होना था। बतौर श्रोता मैं उसमें शरीक होने नियत समय से पहले पहुँच गया। मेरा यह उपक्रम आदतन था। मन में यह भी ख़्याल आया था कि आयोजक मित्रों से गपशप हो जाएगी।
सारी दुनिया जानती है कि महात्मा गांधी वक़्त के पाबंद थे। यह भी जानती है कि उनका जीवन ही उनका संदेश है। भवन के भीतर राष्ट्रपिता की दुर्लभ तस्वीर थी। एक चित्र पर मेरी नज़र ठहर कर रह गई। उसमें ‘द फादर ऑफ नेशन’ की कमर में एक वाॕच लटक रही थी। बस, तत्क्षण उस घड़ी ने मुझे अपनी रामकहानी सुनाना चालू किया- “मेरा और गांधी का संग-साथ सुदीर्घ है। लंदन में कानून की पढ़ाई कर रहे मोहनदास इंग्लिश जेंटलमैन की वेशभूषा में होते थे जिसमें घड़ी पहनना शामिल था। पर मैं उस काल में क़तई नहीं …! मुझे तो भारत में उपहार स्वरूप सौंपा गया था। भेंट किसकी थी, बताऊँ?
” किसकी?” मैंने पूछा।
” इंदिरा नेहरू की।” उसने बताया और आगे कहा,”महात्मा जी भौतिक संपत्तियों से सौद्देश्य दूरी रखते थे। मगर समय का मोल पता था उन्हें। एक-एक पल का सदुपयोग करते रहे। एक यात्रा के दौरान किसी ने मुझे उनसे चुरा लिया। तब बापू ने मुझे लेकर बहुत भावुक संदेश लिखा था।
उसने गौर किया कि मैं उसकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ। उसने बात जारी रखी,”छह माह हुए थे कि उस उठाईगीर को पछतावे ने पराभूत कर दिया। वह नई दिल्ली आकर क्षमा-याचना के साथ मुझे लौटा गया। मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि उस महामानव की कटि के बाएं बाजू टँगती रही। उन्होंने अपने पुत्र कांतिलाल को एक दफे डांट दिया था – यदि तुममें ‘सेंस आॕफ टाइम’ नहीं है तो घड़ी रखते ही क्यों हो? वह तो बच्चा था, बापू तो बड़ों को भी नहीं बख़्शते थे। लोकमान्य तिलक के विलंब से आने पर चुटकी लेते हुए वे सभा में बोले थे – यदि हमें स्वराज प्राप्त करने में आधा घंटा देरी हुई तो दोष लोकमान्य जी के माथे होगा।”
“… तो गांधीजी तुम्हें कमर में लटकाते थे? वाह! अजी, वो हाथ-घड़ी का भी चुनाव कर सकते थे?”
“हरगिज़ नहीं, उनके लिए अलार्म कंपलसरी जो ठहरा। मैं क्या, कोई और भी घड़ी क्या?एक मीटर या एक डिवाइस- जीवन को सुनिश्चित करने का टूल। बापू सुबह चार बजे का अलार्म लगा कर मुझे तकिए के नीचे धरते। चार बजते, मेरे बजने के साथ ही उनके कामों का समयबद्ध सिलसिला चल पड़ता। जेबघड़ी या कलाईघड़ी में अलार्म कहाँ होता था, जनाब ?”
मैंने सहमति में अपनी मुंडी हिलाई।
“पहले तो घड़ी को हाथ में बाँधने का जुगाड़ भी नहीं था। किसी-किसी ने तब उसे सुतली या रस्सी से बाँधा। ‘रिस्ट वॉच’ को तो मूर्त किया ब्लेज पास्कल ने। अरे वही, जिन्हें केलकुलेटर के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है। पिछले के पिछले में थोड़ा चलें तो पन्द्रह सौ पचास में गैलीलियो के दिए विचार पढ़कर पेंडुलम-घड़ी आयी। फिर तो दीवालघड़ी, मेज़घड़ी, पोर्टेबलघड़ी आदि संस्करण आना ही था। उन्नीस सौ सैंतालीस में एक प्रतीकात्मक घड़ी बना दी गई ‘डूम्स डे क्लॉक’ तथा इसके बारह बजने से सात मिनट पहले का टाइम सेट किया गया। वह जब रात के बारह बजाएगी; मतलब होगा कि दुनिया का बारह बजना है। यानि वह नष्ट होने वाली है।”
” क्या दुनिया ख़त्म हो जाएगी? इसके बारह बजते ही?” मैं चौक पड़ा।
“यह तो वक़्त ही बताएगा। मैंने कहा ना कि यह प्रतीकात्मक है।” मेरी बात का जवाब देते हुए उसने अपनी बात जारी रखी, “समयमान के अनुमान से ‘एडजैक्ट टाइम’ तक की यात्रा उन्नीस सौ अड़तालीस में पूरी हुई। इसी साल संयुक्त राज्य अमेरिका के ब्यूरो आफ स्टैंडर्ड्स ने परमाण्वीय घड़ियों का प्रारूप निश्चित करने की घोषणा की ताकि समय दर्शाने में एक बरस में शून्य दशमलव शून्य एक का नुक्स भी घुसपैठ न कर पाए। तब से ही …अशुद्धि …संकेतक… तथा …त्रुटिमार्जक।”
” बोलते-बोलते उसका गला भर्रा गया। वह ख़ामोश हो गयी। उसके चेहरे पर घनीभूत पीड़ा, गहरी उदासी उभर आयी। रुककर भीगे स्वर में बोली, “माफ़ करना, मुझे तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस की वह शाम याद आ गयी। अंधेरा घिर आने को था। प्रार्थना वेला आ गई थी। राष्ट्रपिता तल्लीन थे चर्चा में। तब आभा बेन ने मुझे हाथ में लिया लधऔर धीमे से उनसे कहा- ‘बापू , आपकी घड़ी उपेक्षित महसूस कर रही है। बड़ी देर से आपने उसे एक बारगी ताका तक नहीं।’ तुरंत बापू उठे। मैं अभागी थी जो आभा बेन के पास छूट गयी थी। उनके महाप्रयाण के पलों में उनके निकट नहीं थी।”
इसके बाद उसने एक शब्द भी नहीं कहा। उसका सुबकना भी बंद हो गया। मैं भारी क़दमों से सभागार की ओर बढ़ा। लोग एकत्र हो रहे थे। यद्यपि वे समारोह में आए थे, लेकिन मुझे लगा कि वे प्रार्थना सभा में आए हैं।



मोहन सगोरिया

25 दिसंबर 1975 को भौंरा, बैतूल (मध्यप्रदेश) में जन्म। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर । ‘हिंदी कविता में वैज्ञानिक चेतना’ पर विषय पर शोध – कार्य में संलग्न ।
विभिन्न संस्थाओं प्रकाशनों अख़बारों में कार्य। ग़ैर शासकीय और शासकीय उपक्रमों में नौकरियां।
साक्षात्कार, पल प्रतिपल, रचना समय, समझ झरोखा, उत्तर संवाद और समय के साखी पत्रिकाओं के संपादन से संबद्ध रहे। ‘प्रबुद्ध भारती’ का लम्बे समय तक संपादन।
संतोष चौबे के उपन्यास ‘जलतरंग’ पर केंद्रित पुस्तक ‘संगत’ , विज्ञान कविता कोश का तीन खंडों में संपादन एवं समकालीन विज्ञान कविता संचयन का संपादन।
‘जैसे अभी-अभी’ और ‘दिन में मोमबत्तियां’ दो कविता पुस्तक प्रकाशित।
रज़ा पुरस्कार, शिवना सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार और शब्द शिल्पी सम्मान से सम्मानित।
इन दिनों विज्ञान पत्रिका ‘इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए’ के सह संपादक।

 

 


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