कविता, मैत्री और रोमान्स
-जय प्रकाश
हिंदी के मूर्द्धन्य कवि गजानन माधव मुक्तिबोध माधव कॉलेज उज्जैन में पढ़ाई पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए इंदौर आये। उन्होंने होलकर कॉलेज में जूनियर बी.ए. में दाख़िला लिया। वीरेंद्रकुमार जैन यहाँ उनके सहपाठी थे। दोनों के बीच परिचय में प्रारंभिक संकोच के बाद धीरे-धीरे साहचर्य का आत्मीय सम्बन्ध विकसित हुआ जो मुक्तिबोध के इंदौर-प्रवास-काल में सघन-सुदृढ़ होता गया। यहीं प्रभाकर माचवे मिले जो क्रिश्चियन कॉलेज के सीनियर छात्र थे। उनके साथ मुक्तिबोध और वीरेंद्रकुमार जैन का बौद्धिक संवाद का रिश्ता बना। इंदौर में ही मुक्तिबोध का शांताजी से अनुराग हुआ। यहीं मुक्तिबोध का काव्यानुराग भी तीव्र हुआ और एक तार्किक-साहित्यिक परिणति की ओर बढ़ा। इन सबका वृत्तांत यहॉं प्रस्तुत किया है सुप्रसिद्ध आलोचक, मुक्तिबोध के जीवनीकार जय प्रकाश ने।
ध्यातव्य है, दो खंडों में प्रकाशित मुक्तिबोध की जीवनी ‘मैं अधूरी दीर्घ कविता’ रज़ा फ़ॉउण्डेशन द्वारा प्रदत्त फ़ेलोशिप के अंतर्गत लिखी गई, जिसे सेतु प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। –हरि भटनागर
शाम को मुक्तिबोध घर में क़ैद रहना पसंद नहीं करते थे। आदतन यह उनकी तफ़रीह का समय होता था। उज्जैन और इंदौर में भी उनकी शाम अक्सर बाहर ही बीतती। लंबे-लंबे डग भरते हुए चलते थे। मंदसौर में एक शाम वे घर से निकले और चहलक़दमी करते हुए सराय बाज़ार की ओर चले गए। वह एक ख़ूबसूरत शाम थी, जैसी कि मालवा की शामें होती हैं। वातावरण बैसाख की उष्णता के बावजूद सुहाना था। मालवा में चैत के बाद गर्मी धीरे-धीरे बढ़ती है, और शीतलता एकदम से ग़ायब नहीं हो जाती। वातावरण में मिला-जुला ऊष्म-शीतल एहसास बाक़ी था। उस एहसास के दिलकश रोमान को मुक्तिबोध भीतर-ही-भीतर महसूस कर पुलक से भर गये थे। यह शाम उज्जैन या इंदौर की शामों से अलग नहीं थी। अभी मुक्तिबोध को इंदौर में बिताये दस महीने और उसमें भी वीरेंद्र के साथ गुज़रा समय याद आ रहा था। वे उसकी सुमधुर स्मृतियों में डूबे हुए थे। उन्हीं के बारे में सोच रहे थे। वीरेंद्र के रोमानी मिज़ाज और उनके नफ़ासत-भरे अंदाज़ के बारे में सोचते हुए सहसा ख़्याल आया कि मंदसौर में इस वक़्त अगर वीरेंद्र होते तो फूलों-सी महकती इस ख़ूबसूरत शाम की तासीर को महसूस कर उसके अनूठे सौंदर्य की उपमा कालिदास की शकुंतला की स्निग्ध-सघन और शीतलोष्म केशराशि से देते। यही सब सोचते, मन-ही-मन मुस्कुराते हुए मुक्तिबोध चले जा रहे थे कि उनका ध्यान एकाएक अपने आगे-आगे चल रहे दो हमउम्र नौजवानों की तरफ़ गया। उनकी पीठ दिखाई दे रही थी। पीछे से देखने पर उनमें से एक की गाहे-ब-गाहे दिखती झलक से किसी परिचित व्यक्ति के होने का अनुमान होता था।। लेकिन ठीक-ठीक सूझ नहीं पा रहा था कि वह कौन हो सकता है। सहसा मन में एक कौंध जगी—’अरे, यह तो वीरेंद्र हैं।’ मुक्तिबोध का मन पुलकित हो उठा। उन्होंने पीछे से वीरेंद्र के कंधे पर हाथ रखा। वीरेंद्र सहसा चौंक कर पीछे मुड़े। देखा, तो मुक्तिबोध थे—चेक की कमीज़ के वही बेतरतीब फैले बड़े कॉलर और मराठी-गुजराती काट के पैंटनुमा पाजामे की दोनों जेबों में हाथ डाले। दोनों एक दूसरे को देख कर हैरान थे। वीरेंद्र की आँखों में सवाल था—’यहाँ मंदसौर में कैसे?’ यही सवाल मुक्तिबोध के मन में भी था। पूछा—‘पार्टनर तुम यहाँ कहाँ?’ वीरेंद्र ने प्रतिप्रश्न किया, ‘और तुम यहाँ कैसे?’ दस महीने होलकर कॉलेज में साथ रहते दोनों ने एक-दूसरे से व्यक्तिगत जीवन को लेकर ज़्यादा पूछताछ नहीं की थी। उनके सम्बंधों के बीच सिर्फ़ साहित्य था। इसलिए एक-दूसरे के निजी जीवन के बारे में ठीक-ठीक जानते नहीं थे। दूसरे, यह पूरा समय एक-दूसरे को समझने और परस्पर तालमेल बिठाने में गुज़र गया था, इसलिए मंदसौर में इस तरह अकस्मात मिलने पर दोनों चौंक गये।
वीरेंद्र अपनी आदत के अनुसार अपनी सज-धज में, आकर्षक कुलीन वेशभूषा में थे। बढ़िया ख़स के साबुन से स्नान कर इस्तरी किये हुए मलमल के बेहतरीन कुर्ते के भीतर बेला की कलियों का ख़ुशबूदार हार पहने, ख़स का इत्र लगाये, सुगंधों की सरिता की तरंगों में तैरते हुए-से अपने एक मित्र के साथ मालव संध्या का आनंद लेने निकले थे। पूछने पर मुक्तिबोध ने बताया, ‘मेरे फ़ादर का तबादला यहाँ हो गया है। वे मंदसौर के शहर कोतवाल हैं।’ इस सूचना पर वीरेंद्र और ज़्यादा चौंके। वीरेंद्र को मालूम न था कि मुक्तिबोध शहर कोतवाल के बेटे हैं। उन्होंने इंदौर में कभी इसका ज़िक्र भी नहीं किया था। पहली बार इस बात का खुलासा वीरेंद्र के लिए हो रहा था। जानकर एकाएक उन्हें यक़ीन नहीं हुआ। सिर-से-पैर तक मुक्तिबोध को उन्होंने बेधती हुई नज़रों से देखा; मन में सोचा, ‘यह शहर कोतवाल के साहबज़ादे हैं?’ पहनने-ओढ़ने और सज-धज में घोर बेपरवाह मुक्तिबोध की अपने प्रति यह उदासीनता वीरेंद्र को खटकती थी। फिर भी वीरेंद्र मुक्तिबोध की सहजता, सरलता और सादगी से सचमुच प्रभावित हुए। मुक्तिबोध ने अपने पिता के सम्मान और रुतबे का कोई मान-गुमान नहीं किया। वह पिता के ओहदे और हैसियत का कभी ज़िक्र नहीं करते थे। वीरेंद्र को लगा, वाक़ई मुक्तिबोध निहायत सादा मिज़ाज के मलंग और फक्कड़ आदमी हैं। उनके भीतर ख़ुद्दारी है, लेकिन गुरूर नहीं है। वह बहुत सहज, सरल और आत्म-तन्मय व्यक्ति हैं।
लेकिन वीरेंद्र को मंदसौर में इस तरह मुक्तिबोध का मिलना कुछ अच्छा नहीं लगा। रोज़मर्रा की ज़िंदगी से अलग एक दूसरी जगह पर अप्रत्याशित ढंग से किसी मित्र के मिलने पर जो ख़ुशी होती है, वैसा कुछ वीरेंद्र महसूस नहीं कर पा रहे थे। हाँ, मुक्तिबोध ज़रूर इस आकस्मिक भेंट से आह्लादित हुए। लेकिन वीरेंद्र कुछ वैसा ही महसूस कर रहे थे, जैसा कि इंदौर में होलकर कॉलेज में उनसे संपर्क के शुरुआती दौर में। इस वक़्त मुक्तिबोध से भेंट उनके लिये अनचाही थी। वीरेंद्र को लग रहा था कि जल्द-से-जल्द मुक्तिबोध वहाँ से टल जाएँ, लेकिन प्रकट रूप में वह न तो अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर सकते थे, न ही मुँह से कुछ कह पा रहे थे। बस, भीतर-ही-भीतर कुलबुलाते रह गये। कुछ क्षणों की अनमनी-सी औपचारिक बातचीत के बाद दोनों विदा हो गए।
मुक्तिबोध से मिलना वीरेंद्र के किये अकस्मात् ही नहीं, अनपेक्षित भी था। दरअसल मुक्तिबोध से इस औचक भेंट से वीरेंद्र का मूड बिगड़ गया था। कारण यह था कि वे उन दिनों एक रुमानी स्वप्नलोक में विचरण कर रहे थे। पैर ज़मीन पर नहीं थे। मन गुलाबी सपने की झील में तैर रहा था। यूँ भी वीरेंद्र रोमेंटिक तबीयत के थे। यहाँ मंदसौर में एक लड़की के प्रेम में पड़ गये थे। उसके ख़यालों में ग़ाफ़िल वे सराय बाज़ार से हो कर कहीं जा रहे थे कि यकायक मुक्तिबोध मिल गये। वीरेंद्र एक सुर में तरंगित थे। उनका सुर भंग हो गया। लड़की हर तीसरे पहर उनका इंतज़ार करती थी, या उसकी नौकरानी चिट्ठी लेकर आती थी। वीरेंद्र के साथ जो लड़का था, वह उनके उस दौर के दर्दे-दिल का साथी था। वह उसी लड़की से मिलने जा रहे थे। ऐसे रोमानी मौसम में वीरेंद्र किसी से भी मिलना पसंद नहीं करते थे। उन्हें इन क्षणों में तन्हा रहना ही अच्छा लगता था। किसी भी तीसरे व्यक्ति की मौजूदगी, चाहे वह कोई अच्छा दोस्त ही क्यों न हो, उसमें बेजा दख़ल की तरह लगती।
वीरेंद्र की अनमनी-औपचारिक बातों से मुक्तिबोध को झटका लगा। उनके बीच संबंध अब तक इस धरातल पर आ चुका था कि एक-दूसरे के साथ वे बहुत हद तक बेतकल्लुफ़ और सहज रह सकते थे। ऐसे में वीरेंद्र का फिर से औपचारिक हो जाना मुक्तिबोध को नहीं सुहाया, बल्कि अजीब -सा लगा। औपचारिकतावश वीरेंद्र ने कहा अवश्य था—’किसी दिन सुबह हमारे यहाँ आओ, बातें करेंगे।’ मुक्तिबोध ने पूछा, ‘कहाँ रहते हो?’ वीरेंद्र ने सामने खड़ी एक महल कोठी की ओर उँगली उठा दी। वह विशाल कोठी वीरेंद्र के ननिहाल की थी। मंदसौर वीरेंद्र की जन्मभूमि थी। अपनी ननिहाल में उनका जन्म हुआ था। अक्सर छुट्टियों में यहाँ आया करते थे। गर्मी की छुट्टियों में तो अवश्य ही। अपने घर और ननिहाल में वह इकलौते थे, इसलिए दोनों जगह उन्हें खूब लाड़-प्यार मिलता था। नाना-नानी उनका बहुत ख़्याल रखते थे। मामा भी उन्हें अपनी पलकों पर बिठाये रखते थे। ननिहाल अत्यंत समृद्ध था। नाना मंदसौर के रईस थे।। उनका बड़ा व्यवसाय था। ननिहाल की वह कोठी मंदसौर की नाक मानी जाती थी। कोठी को देख कर ही उनके वैभव-ऐश्वर्य का अनुमान होता था। शहर में ही नहीं, आसपास के इलाक़ों में बख़्शी खानदान की बड़ी प्रसिध्दि थी। वीरेंद्र उस आलीशान महल में शहज़ादे की तरह रहते थे। मुक्तिबोध आश्चर्यचकित-से उस विशाल कोठी की ऊँची छत को ताकते रह गए। उनके ऊपर उस महलनुमा कोठी और वीरेंद्र की रईस पृष्ठभूमि का आतंक-सा तारी हो गया।
कुछ घबराये-से स्वर में मुक्तिबोध ने पूछा—’वहाँ कहाँ तुम्हारा पता लगेगा?’
वीरेंद्र ने कहा—’नीचे दरबान से कहना। वह तुम्हें ऊपर पहुँचा देगा।’
मुक्तिबोध को एक क्षण के लिए लगा कि वीरेंद्र किसी दूसरी दुनिया के व्यक्ति हैं। वह कुछ असहज-से हो गए। अब तक वह सम्पन्न आर्थिक पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति की सोहबत में नहीं आये थे। लेकिन उन्हें लगता था ऐसे व्यक्ति के संग संबंध निभा पाना मुश्किल होगा। वह सजग हो उठे। सोचने लगे, ‘क्या वीरेंद्र के साथ तालमेल बन पाएगा?’ उन्हें इस पर संदेह होने लगा। लेकिन उनका मन मानता नहीं था। वीरेंद्र से उन्हें लगाव हो गया था। वीरेंद्र के रहन-सहन और जीवन-शैली के कारण वह किसी हद तक उनसे बेगानापन ज़रूर महसूस करते थे, लेकिन कुछ दिनों के संग-साथ और कॉलेज के अजनबी परिवेश में अपनी ही तरह वीरेंद्र के एकाकीपन ने मुक्तिबोध के मन में उनके प्रति अंतरंग साहचर्य का भाव जगा दिया था। अब मंदसौर में वीरेंद्र की समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि को देख कर बेगानेपन का भाव तीव्र हो उठा। इसे लेकर अब वह अँदरूनी कशमकश से घिर गये थे। वीरेंद्र से इस तरह अकस्मात भेंट होने पर पहले तो थोड़ी देर के लिये वह ख़ुश हुए कि अब मंदसौर में गर्मी की छुट्टियाँ मज़े से गुजरेंगी और वीरेंद्र से नित्य मुलाक़ात हो सकेगी। लेकिन वीरेंद्र के ननिहाल की इस विशाल कोठी को देख कर वे संकोच और झिझक से भर गये थे।
घर लौट कर इस बारे में वह देर तक सोचते रहे। वीरेंद्र से उनके यहाँ जाने का वादा तो किया है, लेकिन जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही है। पता नहीं, दरबान मिलने देगा या नहीं। इसी द्वंद्व में मुक्तिबोध उलझे रहे। एकबारगी लगा कि वीरेंद्र ने महज़ औपचारिकता के नाते अपने यहाँ आने के लिए आमंत्रित किया है। याद आया, इंदौर में स्वयं वीरेंद्र ने अपने घर के द्वार से उन्हें लौट जाने दिया था। शायद वह मुक्तिबोध को अपने घर ले जाना पसंद न करते हों। मगर अगले ही क्षण लगा, शायद मुझे ही कोई ग़लतफ़हमी हो। इस ऊहापोह से उबरने के बाद मुक्तिबोध ने आख़िरकार वीरेंद्र के घर जाना तय किया।
और एक सुबह मुक्तिबोध वहाँ पहुँचे।
कोठी में पहुँचते ही गेट पर दरबान ने उन्हें टोका। अपना परिचय दिया कि मैं वीरेंद्र का दोस्त हूँ। लेकिन दरबान पर उसका ख़ास असर नहीं हुआ। उसने मुनीमजी को आगंतुक के विषय में बताया। मुनीमजी ने उन्हें वहीं रोक लिया। मुक्तिबोध को देखकर मुनीमजी को एकाएक यक़ीन नहीं हुआ। साधारण-से कपड़े पहने एक बेपरवाह-सा लड़का सामने खड़ा था। भला यह वीरेंद्र का दोस्त कैसे हो सकता है। उन्हें थोड़ी खीझ भी हुई, लेकिन ऊपर जाकर उन्होंने वीरेंद्र को ख़बर दी, आगंतुक का नाम बताया। वीरेंद्र ने कहा, ‘मेरे दोस्त हैं। ऊपर लिवा लाओ।’ मुनीम जी बोले, ‘अजीब उठंग-सा लड़का है बाबू, ऊपर बुलाना ठीक नहीं।’ मुनीमजी द्वारा मुक्तिबोध पर संदेह किए जाने से वीरेंद्र नाराज़ हो गये। उन्होंने तमतमा कर कहा, ‘मेरा दोस्त है। बेशक, ऊपर आएगा। नहीं, तो मैं अभी यहाँ से चला जाऊँगा। और उठंग क्या होता है, मुनीमजी? ज़रा तहज़ीब से बोलिए। वह कवि है और मेरा दोस्त है, और उठंग नहीं, शहर कोतवाल का बेटा है।’ शहर कोतवाल का नाम सुनते ही मुनीमजी नरम पड़ गये। उनका रवैया बदल गया। वह फ़ौरन नीचे आये और मुक्तिबोध की खुशामद करने लगे। पीछे-पीछे वीरेंद्र भी आ गये। उनके साथ हुए इस व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी और अदब से उन्हें ऊपर लिवा ले गए।
मुक्तिबोध ने कहा—’पार्टनर, तुम बेवजह परेशान हो रहे हो। माफ़ी माँगने की कोई ज़रूरत नहीं है। दरअसल बुर्जुआ संस्कारों का असर मानसिक धरातल पर उन लोगों पर भी होता है, जो अपेक्षाकृत निम्न सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से आते हैं। उनकी सोच-समझ और जीवन-दृष्टि का स्वतंत्र रूप से विकास नहीं हो पाता, क्योंकि बुर्जुआ वर्ग की चाकरी करते-करते वे उसकी मानसिकता का शिकार हो जाते हैं।’
वीरेंद्र ने कहा—’सही कह रहे हो। वे भी उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं। मुनीमजी का व्यवहार अपने ख़ुद के वर्गीय मनोविज्ञान की बजाए उच्चतर वर्ग के मनोविज्ञान से संचालित था। इसमें संदेह नहीं।’
दर्शन और मनोविज्ञान में दिलचस्पी होने के कारण मुक्तिबोध ने थोड़ा-बहुत मार्क्सवाद पढ़ रखा था। वीरेंद्र भी मार्क्सवाद और उसकी शब्दावली से कुछ-कुछ परिचित थे।
—’वर्ग-विभाजित समाज में व्यक्ति का मन भी विभाजित होता है, चाहे वह इसे स्वीकार करे, चाहे न करे। मन के इस विभाजन के रूप अनेक हो सकते हैं। वे प्रच्छन्न भी रह सकते हैं अप्रच्छन्न भी।’ मुक्तिबोध ने कहा।
—‘लेकिन निम्नवर्ग के लोगों का बुर्जुआ मनोवृत्ति का शिकार हो जाना चिंता का विषय है। भाई मुक्तिबोध, कोठी में मैं ज़रूर रहता हूँ, लेकिन कोठी वाले वर्ग से मुझे हार्दिक विरक्ति है। मुझे लगता है, मैं अपने परिजन-परिवेश से भी मानो अपने को निर्वासित-सा महसूस करता हूँ, और अंतःकरण में कहीं लावारिस और ला-बिरादरी होने का भाव है।’ मुक्तिबोध के प्रति दरबान और मुनीमजी के आपत्तिजनक व्यवहार से अभी भी वीरेंद्र ग्लानि महसूस कर रहे थे।
उन्होंने कहना जारी रखा—’मैं अपने वर्ग और परिवार में अपने जन्म लेने को एक अकस्मात घटना मानता हूँ, और सच कहूँ तो कभी उसे बिलॉन्ग न कर सका। मैं अपनों के बीच भी स्वयं को विदेशी महसूस करता रहा हूँ। मेरा भाव, मेरी संस्कृति, मेरा मुहावरा, मुझे परिवार और कुल-परंपरा से नहीं मिला। वह लेकर मैं जन्मा नहीं था और अपने आप ही मैंने उसका विकास किया।’ वीरेंद्र के भीतर का पढ़ा-लिखा बौद्धिक बोल रहा था। उनकी बातों में तार्किकता की बजाए एक तरह की रोमांटिक भावुकता थी। इसके चलते उन्हें लगता था, वह संपन्न वर्ग से आने के बावजूद उससे घृणा करते हैं। अपनी इस स्थिति के प्रति स्वयं विद्रोही महसूस करने लगे थे।
मुक्तिबोध सुनते रहे। वह वीरेंद्र की इस कैफ़ियत से उकताने लगे थे। विषयांतर के लिये उन्होंने वीरेंद्र की कविताओं की बात छेड़ दी। वीरेंद्र यूँ भी रोमान की लहरों पर सवार थे। अपनी कविताओं के रोमानी स्वभाव की व्याख्या करने लगे। वीरेंद्र के घर कुछ समय बिता कर दुबारा मिलने के वादे के साथ मुक्तिबोध लौट आए। वह इन छुट्टियों में वीरेंद्र से रोज़ाना मिलने को उत्साहित थे। उस दिन ख़ुद वीरेंद्र ने कहा था—’पौराणिक और ऐतिहासिक नगरी मंदसौर के नदी, घाट, मंदिर, दरगाह, शाही क़िला, ध्वंसावशेष और पुरातत्त्व में मिलजुल कर काव्य-यात्रा करने को हम दोनों के लिए बहुत कुछ है।’ मुक्तिबोध पहली बार मंदसौर आए थे। मंदसौर के सांस्कृतिक वैभव को लेकर उनमें उत्सुकता थी। वीरेंद्र की बातों से उन्हें तसल्ली हुई। लगा कि अब छुट्टियाँ आनंद के साथ ग़ुज़रेंगी।
लेकिन वीरेंद्र तो अपनी ही एकाकी दुनिया में रमे हुए थे। किसी और का प्रवेश उसके भीतर वर्जित था। अक्सर अकेले ही अपने मन के निजी परिसर में, रोमानी ख़यालों में, खोये हुए रहते थे। उस मुलाक़ात के बाद उन्हें मुक्तिबोध का ख़्याल तक नहीं आया। बी.ए. जूनियर क्लास की साल-भर की उस अवधि में दोनों के रिश्तों में प्रगाढ़ता और अंतरंगता का भाव विकसित नहीं हुआ था। तब ‘एक दोशीज़ा के दामन-ए-रूहानी में गिरफ़्तार वीरेंद्र मालवा की मेहंदी-फूलों से गमकती शामों में बैठकर प्रेम की कविताएँ’ लिखने में मशगूल थे। मुक्तिबोध के लिए भला कहाँ से वे समय निकालते। उनकी भेजी हुई कविताएँ कुछ पत्रिकाओं में इधर छपी थीं। वह अपनी प्रकाशित रचनाओं पर मुग्ध थे और साथ ही रोमांस में डूबे हुए थे। अपनी रचनाओं के कारण मिल रही प्रशंसा ने उन्हें घेर रखा था। मंदसौर-प्रवास में वीरेंद्र का साहचर्य मुक्तिबोध के लिए इतना ही था। छुट्टियों के दौरान उनकी फिर मुलाक़ात नहीं हो सकी। 1936 की गर्मियाँ मुक्तिबोध ने मंदसौर में अकेले घूमते-फिरते, बाज़ार और प्राचीन स्थलों की सैर करते हुए बितायी।
डायरी-लेखन
मुक्तिबोध कभी-कभी डायरी लिखते थे। उसमें वह अपने अनुभव को दर्ज़ करते थे। नियमित डायरी लिखने का अभ्यास नहीं था। मन होता तो लिख लिया करते। मंदसौर में एक दिन मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में बचपन को याद करते हुए लिखा—
“एक समय मुझे याद है, मैं पुराने किर्लोस्कर की फ़ाइलें उलट-पुलट कर रहा था कि अचानक एक लेख पर मेरी दृष्टि पड़ी। उस लेख का शायद नाम यह है—’फिरून पाहिले तर’ लेखक शायद प्रो. दांडेकर हैं। मुझे सबसे बड़ी बात जो उस लेख में दिखाई दी, वह है मेरे जीवन की बातों से उस लेख का विचित्र साम्य। उसमें लेखक स्वयं भी घटनाओं का पात्र था। उसमें लिखा था: ‘मेरा बचपन भूलों से भरा हुआ-सा दिखाई देता है। जो भी (अर्थात जबकि) वर्ड्सवर्थ बचपन को आध्यात्मिक महत्त्व देता है, और कहता है कि बचपन सुखों की खान है, दैवी है। पर मेरे लिए यह बात नहीं।’ मैंने कहा ‘बहुत ठीक।’ मैं भी बचपन को मेरे जीवन की भूलों का एक पृष्ठ समझता आ रहा हूँ। बच्चों पर जो अत्याचार माता-पिता करते हैं, मुझे याद है, मैं उसका कितना प्रतिकार किया करता था, अपनी ज़िद से, अपने सत्याग्रह से। मैं दांडेकर महोदय का कृतज्ञ हूँ। इसलिए कि उन्होंने पीछे घूम कर देखने की अभिलाषा मुझ में जाग्रत कर दी, जिसके वशीभूत होकर मैंने एक समय आत्मचरित लिखने का निश्चय-सा कर लिया था, और तद्भव आनंद दबा न सकने के कारण मैं यह बात अपने एक गहरे मित्र को इस शर्त पर कह दी थी कि वह मेरी बात किसी से न कहे।”
लेखन के प्रति मुक्तिबोध में अपूर्व उत्साह था। कविता के आलावा गद्य लिखने में भी उनकी रुचि जाग रही थी। मंदसौर में उस रात इसी उत्साह में डायरी लिखने की शुरुआत हुई थी। सत्रह वर्ष के किशोर के संक्षिप्त जीवन का निकटतम अतीत उसका बचपन था। दांडेकर के लेख के बहाने वह उन्हें याद आया।
बी.ए. की पढ़ाई के साथ मुक्तिबोध का अध्ययन और साहित्य-लेखन का अभ्यास जारी था।
बी.ए. जूनियर की परीक्षा का नतीजा आया। वीरेंद्र और मुक्तिबोध दोनों पास हो गये थे। जुलाई में बी.ए. सीनियर की कक्षाएँ शुरू होनी थीं। मुक्तिबोध इंदौर लौट आये। वीरेंद्र भी लौटे।
1936 में बी. ए. सीनियर के साल में वीरेंद्र मुंबई गये। वहाँ उनकी भेंट प्रेमचंद से हुई। प्रेमचंद ने उनकी एक कहानी ‘हंस’ में प्रकाशित की थी। उस कहानी की उन्होंने बड़ी प्रशंसा की और फिर उनकी एक कविता भी उन्होंने अपने ‘जागरण’ साप्ताहिक पत्र के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित की। वीरेंद्र के लिये यह बहुत ही उत्साहवर्द्धक था। इंदौर लौट कर प्रेमचंद से भेंट का पूरा वाक़या उन्होंने मुक्तिबोध को सुनाया। प्रेमचंद से भेंट कर वीरेंद्र स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। भेंट का वाक़या उन्होंने किंचित दर्प के साथ सुनाया था। सुनकर मुक्तिबोध के मन में वीरेंद्र के प्रति ईर्ष्या-भाव जागृत हुआ। फिर कुछ दिनों बाद वीरेंद्र के पास प्रेमचंद का पत्र भी आया। मुक्तिबोध अभी अपनी रचनाओं के प्रकाशन की शुरुआत कर रहे थे, जबकि वीरेंद्र की अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। मुक्तिबोध स्वयं को कुछ हीनतर महसूस करने लगे। एक अवांछित-सा प्रतिस्पर्द्धा-भाव मन में उठ रहा था। वीरेंद्र की साहित्यिक प्रतिभा का एक प्रभा-वलय बन चुका था। मुक्तिबोध उसके प्रभाव में आ गये थे। उन्हें लगा, वीरेंद्र जीनियस हैं। प्रेमचंद की पत्रिका में उनकी रचनाएँ प्रकाशन-योग्य हैं। माँ की दी हुई शिक्षा के चलते प्रेमचंद के प्रति उनके मन में विशेष अनुराग और श्रद्धाभाव था। वह मुक्तिबोध को देवर्षि-तुल्य जान पड़ते थे। उन्हें लगता था ‘प्रेमचंद उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रांति के प्रथम और अंतिम महान कलाकार थे।’ उन्हीं प्रेमचंद ने जब वीरेंद्र की रचनाओं की प्रशंसा की तो ईर्ष्या के साथ मुक्तिबोध के मन में भी वीरेंद्र के प्रति उच्च भाव जागृत हुआ।
इधर ‘वीणा’ में भी वीरेंद्र की कहानियों का प्रकाशन होने पर कई प्रशंसा पत्र आए थे। उनकी ख्याति तेज़ी से फैल रही थी। अब वीरेंद्र अपने एकांत के स्वप्न-जगत से निकलकर ज़्यादा ठोस दुनिया के संपर्क में आए। धीरे-धीरे मुक्तिबोध से उनकी प्रगाढ़ता भी बढ़ने लगी। इस तरह उनकी मित्रता काफ़ी परिपक्व और मुकम्मिल होती गई थी।
माचवे से मुलाक़ात
एक दिन वीरेंद्र मुक्तिबोध को साथ लेकर महारानी रोड पर एक मकान की तीसरी मंज़िल पर ले गए गये। वहाँ प्रभाकर माचवे अपने भांजे मुकुंद वढ़ालकर के साथ रहते थे। वह बी. ए. अंतिम वर्ष के विद्यार्थी थे। वीरेंद्र ने बताया, माचवे बहुत अच्छे कवि हैं, खूब पढ़ते-लिखते हैं। मुक्तिबोध भी माचवे से मिलने को उत्सुक थे। मुलाक़ात हुई, और देर तक तीनों कविता और अन्य विषयों पर बातचीत करते रहे। इस मुलाक़ात के बाद अक्सर शाम को तीनों उस कमरे में मिलने लगे। माचवे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह कविता, कहानी, लेख, आलोचना आदि हर विधा में रचना करते थे। बहुत अध्ययनशील थे। मिलवाने से पहले वीरेंद्र ने मुक्तिबोध से उनकी बड़ी प्रशंसा की थी। मुकुंद भी बड़े बारीक़ शिल्प वाली कहानियाँ लिखा करता था। आपस की इन चर्चा-बैठकों में उन्हें बहुत रस मिलता। साथ में हलवा, चिवड़ा, नमकीन और चाय चलती। अपनी रचनाओं के अलावा वे साहित्य और इतर विषयों पर भी घण्टों बातचीत करते।
बाद में माचवे क्रिश्चियन कॉलेज के हॉस्टल में रहने चले गये। अब उनकी बैठकें हॉस्टल के कमरे में जमने लगीं। तभी मुक्तिबोध का परिचय वीरेंद्र कुमार सेठी और राजेंद्र कुमार सेठी से हुआ था। दोनों भाई मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति से जुड़े हुए थे और वीरेंद्र कुमार जैन के मित्र थे। उन्हीं की मार्फ़त परिचय हुआ था। वीरेंद्र कुमार सेठी प्रभाकर माचवे के भी मित्र थे। सेठी बंधु भी साहित्यिक बैठकी में आया करते थे। कभी-कभी वीरेंद्र कुमार सेठी के यहाँ साहित्य समिति में गोष्ठी जुट जाती। कविता पाठ और विचार-विमर्श होता। नियमित मुलाकातों से इन युवाओं के चिंतन और दृष्टिकोण में परिपक्वता आने लगी थी। उनकी साहित्यिक अभिरुचि और परस्पर संवाद में महज़ किशोर वय का भावुकतापूर्ण आवेग नहीं था। उसमें बौद्धिक सजगता भी थी। जीवन-जगत को देखने-समझने की दृष्टि निरंतर बहसों से निखरती जा रही थी।
बौद्धिक-साहित्यिक साहचर्य
वहीं उनकी मुलाकात शांति प्रसाद वर्मा से भी हुई। वीरेंद्र से वह पहले से ही परिचित थे। वीरेंद्र उन्हें अपना बौद्धिक चिंतन-गुरु और अपने बड़े भाई की तरह मानते थे। शांतिप्रसाद गद्यकाव्य लिखा करते थे, जो उन दिनों एक लोकप्रिय विधा बन गई थी। वह विचारशील और तेजस्वी युवा साहित्यकार थे। उन्होंने रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गांधी, टॉलस्टॉय, रोम्याँ रोलाँ और चार्ल्स मॉर्गन के विचारों का गहन अध्ययन किया था। वीरेंद्र उनकी बौद्धिकता से बहुत प्रभावित थे। उनके विचारों में निहित उदात्त आदर्शवाद से वीरेंद्र प्रेरित हुए। शांतिप्रसाद वर्मा के विचार वीरेंद्र के रोमानी स्वभाव के अनुरूप थे। इसलिए भी वह वीरेंद्र के लिये दोस्त और मार्गदर्शक की तरह थे। मुक्तिबोध, वीरेंद्र और माचवे तीनों शांतिप्रसाद के साथ हुए संवाद से लाभान्वित हुए। यूँ भी तीनों विचारवान, प्रबुद्ध और जाग्रत युवा थे। उनके बौद्धिक क्षितिज का क्रमशः विस्तार हो रहा था। कविता और दर्शन उनके प्रिय विषय थे। ज़्यादातर उन्हीं विषयों पर बातचीत होती। हिंदी के तत्कालीन साहित्य-परिदृश्य से उनका परिचय सघन हो रहा था। वे विश्व-साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों की भी चर्चा करते थे। उन दिनों मुक्तिबोध अँग्रेज़ी और फ्रेंच कथा-साहित्य के अलावा रूसी उपन्यासकारों दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में रमे हुए रहते थे। तीनों की उस कवि-मंडली के बीच ऑस्कर वाइल्ड की भी बड़ी चर्चा होती थी। ख़ास कर वीरेंद्र तो उसके दीवाने थे। ऑस्कर वाइल्ड के कलावाद का नारा ‘कला के लिए कला’ उन्हें प्रेरक जान पड़ता था। माचवे ने वाइल्ड की कई लघुकथाओं और कविताओं के सुंदर हिंदी अनुवाद भी किये थे। माचवे से प्रेरित होकर मुक्तिबोध ने दर्शन के ग्रंथों का भी अध्ययन प्रारंभ किया। बर्गसाँ, रसेल, शॉ के दार्शनिक विचारों की ओर वह आकृष्ट हुए।
वीरेंद्र, माचवे और मुक्तिबोध की आपसी साहित्यिक-बौद्धिक चर्चाओं में जैनेंद्र कुमार और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ पर भी बातें होती थीं। अपनी इस मित्र-त्रयी के बारे में वीरेंद्र को लगता था ‘वात्स्यायन की कला की सूक्ष्म सघनता हम तीनों की सृजन-प्रकृति के साथ बहुत सामंजस्य रखती थी।’ वह सोचते थे, ‘प्रारंभिक तरुणाई में ही हम लोग एक ख़ासा बौद्धिक और कलाकाराना तेवर रखते थे। सो विचार चिंतन और मूल्यों की संचेतना भी हमें तीनों में उत्तरोत्तर गहराती चली गयी। हम सब अपने को आर्टिस्ट समझते थे और उसी अंदाज़ से घूमते और वर्तन करते थे।’
मुक्तिबोध की सृजनात्मक मनोभूमि के निर्माण की दृष्टि से उनके लिए यह महत्त्वपूर्ण दौर था। आपसी चर्चाओं में तीनों मित्र एक-दूसरे की बौद्धिक संगति में परस्पर आदान-प्रदान के ज़रिये बहुत कुछ जान-सीख रहे थे। अब वीरेंद्र के मन में मुक्तिबोध के प्रति दुराव नहीं रह गया था। वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर दोनों बहुत क़रीब आ गये थे। उस समय का स्मरण करते हुए वीरेंद्र अनुभव करते थे कि ‘मुक्तिबोध में और मुझमें सौंदर्य, सृजन, चिंतन, दर्शन और जीवन को लेकर पड़ी दुर्दम्य संवासना थी। हमारी अनुभूतियों में समान रूप से तीव्रता, प्रगाढ़ता और सूक्ष्मता थी। समयातीत रूप से हम एक-दूसरे में घुलते चले जाते थे।’
इंदौर में उसी दौरान माचवे ने मुक्तिबोध का परिचय क्रिश्चियन कॉलेज के एक हमउम्र छात्र प्रभाकर उध्वरेषे से कराया। प्रभाकर उध्वरेषे विज्ञान के छात्र थे। एक वर्ष विज्ञान पढ़ने के बाद उन्होंने कला संकाय की कक्षा में प्रवेश ले लिया था। साहित्य में उनकी रुचि थी। मराठी साहित्य वह पसंद करते थे। कभी-कभार मुक्तिबोध की उध्वरेषे से भी मुलाक़ात हुआ करती थी। अक्सर माचवे के हॉस्टल के कमरे में ही उध्वरेषे उनसे मिलने आ जाया करते थे।
पुनः यायावरी
मुक्तिबोध की सांध्यचर्या उज्जैन की तरह इंदौर में भी जारी रही। शाम होते ही घर से निकलने को वह बेचैन हो उठते। कभी-कभी शाम होने का भी इंतज़ार नहीं करते, और फ़ुर्सत होते ही किसी भी समय निकल पड़ते। अक्सर वीरेंद्र के साथ इंदौर के जाने-अनजाने अनेक रास्तों पर बातें करते हुए कई-कई घण्टों तक सब कुछ भूल कर भटकते थे। कभी शाम होते ही दोनों मिलते। फिर कहीं भी और किसी भी दिशा में बातचीत करते हुए चल पड़ते। कभी किशनपुरा की चंद्रभागा नदी की तरफ़ चल देते, जैसे उज्जैन में क्षिप्रा किनारे घूमते थे; या जूनी इंदौर के टूटे-फूटे पुलों की ओर, या शहर के पुरातन देवालयों, दरगाहों, मस्जिदों, खंडहरों, वीरान रास्तों में वार्त्तालाप करते घूमते थे। न समय का पता चलता, न दिशाओं का। बस चलते चले जाते थे। कभी इमली के पुराने पेड़ों-तले गुज़रते हुए किसी विषय पर गंभीर बहस में उलझे रहते। कभी-कभी बौध्दिक चर्चाओं से अलग, बारीक़ निगाह से प्रकृति का अवलोकन कर दोनों मित्र हर चीज़ में छिपे सौंदर्य के जाने कितने आयामों का अन्वेषण और अनावरण करते। मुक्तिबोध स्वभाव के अनुसार अपनी सहज विश्लेषक बुद्धि से प्रकृति के कार्यकलाप का सूक्ष्म निरीक्षण और विश्लेषण करते चलते थे। तब वीरेंद्र उन्हें एकाग्र हो कर सुनते थे। दोनों अपनी रचनाओं पर भी चर्चा करते, अपने रचनात्मक स्वभाव की बारीकियों को रेखांकित करते और उनके भीतर समानता अथवा भिन्नता का विश्लेषण करते। कभी पेड़ों, ढूहों, तालाबों और खेतों में उगी फ़सल के बीच प्राकृतिक सुषमा को मगन हो कर निहारते, या कभी राह चलती मालवी स्त्रियों, लड़कियों, पनिहारिनों और रास्ते में आने वाले पनघटों से झलकते सौंदर्य की आंचलिकता से अभिभूत होते और उस सौंदर्य की बारीक़ियों में डूबते-उतराते। उन्हें मालवा की प्रकृति ही नहीं, वहाँ के लोक-जीवन का विलक्षण सौंदर्य भी चकित करता। इस घुमक्कड़ी में कभी-कभार माचवे भी साथ होते।
कभी ऐसा भी होता कि अवकाश होने पर दोनों लगभग सारा दिन घूमते रहते। यह घुमक्कड़ी वीरेंद्र के लिए कला-यात्रा थी। सुबह निकलते तो दिन-भर इधर-उधर भटकते, घूमते, बहस करते शाम को घर लौटते। अपनी दिन-भर की इन कला-यात्राओं में उन्होंने इंदौर का कोना-कोना छान लिया था। शायद ही कोई अच्छा रेस्तराँ बाक़ी रहा हो, जहाँ ये तरुण मालवी साहित्यकार चाय-नाश्ते के लिये न गए हों। रास्ते में पड़ने वाली कोई गुमटी भी न बची होगी, जहाँ उन्होंने चाय न पी हो। दिन-भर में कई प्याली चाय हो जाती, कभी-कभी सिगरेट भी। वीरेंद्र उन दिनों ख़ुशबूदार ज़र्दे के साथ पान खाने लगे थे। मुक्तिबोध सिगरेट या बीड़ी कभी-कभी पी लेते। मगर चाय वह बेहिसाब पीने लगे थे। एक ही बैठक में कई-कई बार। चाय के मामले में वह अब और ज़्यादा बेकाबू हो चले थे। थोड़ी-थोड़ी देर में उसकी तलब उन्हें सताती। इस तलब का अंत नहीं था। चाय के प्यालों के दौर चलते थे। वीरेंद्र उनकी तरह चायपान के बहुत ज़्यादा शौकीन नहीं थे। वह सब-कुछ का उपभोग करते थे, लेकिन उपभोग में संयम भी रखते थे। यह उनका स्वभाव था। माचवे भी निहायत ही प्योरिटन मिज़ाज के और मर्यादित तरीक़े से व्यवहार करते थे। उनमें आत्मसंयम का विलक्षण गुण था। स्वभाव से वह अपेक्षाकृत गम्भीर थे। माचवे ने मित्रों से हँसी-मज़ाक़ की एक स्वनियंत्रित सीमारेखा भी तय कर ली थी। वीरेंद्र चाय-पान आदि के सेवन में संयत थे, लेकिन वह निहायत चुलबुले और शरारती क़िस्म के थे। उनके स्वभाव में रुमानियत थी। अपनी ही प्रकृति का विश्लेषण करते हुए उन्हें लगता कि सौंदर्य के प्रति उनमें विशिष्ट आग्रह है। स्वयं उन्हें लगता था कि उनके सौंदर्य-बोध में अँग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों की तरह का अंदाज़ है। प्रकृति और जीवन के सौंदर्य को वह उन्हीं की तरह सूक्ष्म निगाह से देख कर आवेगपूर्वक उसका वर्णन करना पसंद करते हैं। वह मुखर होकर निस्संकोच किसी स्त्री की सुंदरता का वर्णन कर सकते थे। उसमें कीट्स की तरह विदग्धता, शैली की तरह की स्वप्निलता और बायरन के सदृश आवेग और उद्दाम प्रवाह होता। इस कौशल से वीरेंद्र किसी भी लड़की के सौंदर्य का गुणगान कर सकते थे।
मुक्तिबोध में भी सौंदर्यात्मक रुझान था। वह रसिक थे, लेकिन मुखर होकर सौंदर्य-वर्णन करने की बजाए अपने स्वभाव के अनुरूप सौंदर्य का विश्लेषण करने में उनकी सहज रुचि थी। उनका रुझान विश्लेषण-प्रधान अधिक था। वीरेंद्र में अनुभूति की तीव्रता और उसका जुनून था। जुनून और आवेश मुक्तिबोध में भी कम नहीं था। इसी से उन दोनों की अभिव्यक्ति तीव्र व्यंजनात्मक और तलस्पर्शी हुआ करती थी। दोनों हमउम्र थे। इसलिए उनमें विचार और अनुभूति का प्रायः समान धरातल था। इस धरातल पर जीवन, कला, काव्य, सौंदर्य, दर्शन और आध्यात्मिक चेतना का प्रगाढ़ साहचर्य वीरेंद्र और मुक्तिबोध के जीवन में संभव हुआ था। वैसे वीरेंद्र मुक्तिबोध के प्रति आत्मिक स्तर पर सहचर होने का गहन भाव अनुभव करते थे। वे उन्हें एकमात्र, मित्र, हमजोली और आत्मीय सखा के रूप में देखते थे। शुरुआत का दुराव अब गहरे अंतरंग भाव में तब्दील हो चुका था। माचवे स्वभाव से कुछ अधिक गम्भीर और रचना-प्रौढ़ थे। इसी के फलस्वरूप वह कुछ अलग जान पड़ते थे। मुक्तिबोध और वीरेंद्र के बीच संबंधों में अपेक्षाकृत अधिक तरलता थी। माचवे से अलग उन दोनों का साहचर्य अधिक एकात्म धरातल पर एक भिन्न तरीक़े से विकसित हुआ था। वीरेंद्र मुक्तिबोध से अब भावात्मक स्तर पर जुड़ चुके थे।
मुक्तिबोध स्वभाव से घुमक्कड़ थे ही। छुट्टी के दिनों में इंदौर की कलाभिरुचि-संपन्न मित्र-मंडली के साथ वह प्रकृति-निरीक्षण के लिए इंदौर के आसपास के खुले खेतों में और मालवा के मैदानों में, महू के आसपास पातालपानी कालीसिंध के जलप्रपात और विंध्य में बहती मंथरा चोरल के किनारे चले जाया करते थे। उन दिनों की मित्र-मंडली में माचवे के भांजे मुकुंद वडालकर, चित्रकार बेंद्रे, मनोहर जोशी, मराठी कवि भालचंद्र लोवलेकर, वीरेंद्र कुमार जैन, शांति प्रसाद वर्मा, ईश्वर चंद्र जैन इत्यादि ‘साहित्यिक गुरुबंधु’ होते थे।
वीरेंद्र और मुक्तिबोध घुमक्कड़ी में मशगूल रहने के अलावा साथ साथ मिल कर कुछ प्रयोग भी करने लगे थे। मसलन दोनों अलग-अलग ऋतुओं के अनुभव को समझने की कोशिश करते, ख़ास तौर पर उनके मानसिक प्रभाव और सौंदर्यात्मक पहलू की सूक्ष्म पड़ताल के कौतुक में आनंदित होते। कभी-कभी तो वे उसमें मगन हो जाते। इसी तरह दिन के विभिन्न पहरों की अनुभूतियों को भी समझने की चेष्टा करते। वे तरक़ीब भिड़ाते कि कैसे इन अनुभूतियों के विविध रंगों, छवियों और उनके मिले-जुले प्रभाव को सौंदर्यात्मक रूप से आत्मसात किया जा सकता है। उनके ये प्रयोग विभिन्न ऋतुओं और दिवस या रात्रि के अलग-अलग चरणों में मनुष्य के मन पर पड़ने वाले शास्त्रीय संगीत के सौंदर्यात्मक और अनुभूतिमूलक प्रभाव के समानांतर थे। क्या कविता संगीत की तरह मनुष्य की मनःस्थिति पर असर डाल सकती है? इस सवाल का उत्तर पाने के प्रयत्न में दोनों घंटों तक माथापच्ची करते।
साहचर्य और समभाव
आपसी रिश्तों में आत्मीयता और अनुराग विकसित हो चुकने के बाद उनमें अनौपचारिक और निश्छल मैत्री-संबंध बन गये थे। कविता के प्रति वीरेंद्र के समर्पण और लगाव को देखकर मुक्तिबोध बेतकल्लुफ़ हो कर परिहास करते। इस परिहास में वीरेंद्र के प्रति उनका लगाव और अंतरंगता झलकती। मुक्तिबोध कहते—’तुम सिर से पैर तक कवि हो। बहुत नफ़ीस और फ़ाइन आदमी हो। मैं अनगढ़ और खुरदरा हूँ, सभी बातों में।’ यह कह कर वे ठहाका मारकर हँस पड़ते। फिर आत्मीयता जताते हुए वीरेंद्र के गले में हाथ डाल कर बड़े लाड़ से अपने से सटा लेते। मुक्तिबोध के इस अंदाज़ से वीरेंद्र अभिभूत हो उठते। वीरेंद्र भी मुक्तिबोध की लगन और कविता के प्रति अनुराग की मन-ही-मन प्रशंसा करते। सोचते, ‘मुक्तिबोध सरापा और प्रतिक्षण कवि हैं। सोते-जागते, रात-दिन ख़ालिस कलाकार हैं।’ ख़ुद अपने बारे में सोचते हुए वीरेंद्र को ऐसा ही लगता। मुक्तिबोध के साथ वह सिर्फ़ साहचर्य का नहीं, समभाव का अनुभव करते।
वीरेंद्र यह भी महसूस करते थे कि मुक्तिबोध में सौंदर्य की गहरी प्यास है। जीवन को लेकर तीव्र जुनून है, जो उनकी रचनाओं में, सृजन-दृष्टि में, चिंतन में, और वैचारिक-बौद्धिक जिज्ञासाओं में प्रकट होता था। ऐसा ही वे स्वयं अपने लिए भी अनुभव करते थे। दोनों की बौद्धिक गति और मानसिक-संवेदनात्मक बुनावट में वीरेंद्र को समानांतरता का अनुभव होता था। उन्हें लगता था, दोनों की अनुभूतियों में समान रूप से तीव्रता, प्रगाढ़ता और सूक्ष्मता है। दोनों के रचनात्मक व्यक्तित्त्व समान आकुलता लिए मानो एक-दूसरे में घुलते चले जाते थे। दोनों में ही बौद्धिक विकलता और प्रबल दार्शनिक जिज्ञासा भी समान रूप से पनप चली थी। वे लगभग एक सरीखी संवेदनात्मक तीव्रता के साथ एक नये आवेश में रचनाएँ करने लगे थे। दोनों ही में प्राण की ऊर्जा का एक ओजस्वी आवेग था। मुक्तिबोध अपनी पुरानी रौ से टूट कर यानी छायावादी भावाकुलता की ज़मीन छोड़ कर धीरे-धीरे अपनी मौलिक काव्य-प्रकृति और निजी मुहावरा विकसित करने की दिशा में अग्रसर हो रहे थे। वे अपने स्वयं के बहुत ही मौलिक संवेदन से प्रस्फुरित हो कर, नायाब अंदाज़ में रचना करने लगे थे। वीरेंद्र भी महसूस करते थे कि मुक्तिबोध की तरह वे स्वयं भी उसी क़िस्म के आवेग के साथ सृजनरत थे। दोनों मित्र छंदों पर बहस करते और सोचते कि छंद तो बंधन हैं, भाव की स्वाभाविक गति और लय को तोड़ देते हैं। दोनों अपनी रचनाओं में छंदों की इन बंदिशों को तोड़ने का अभ्यास करते। अपनी अनुभूति के अनुरूप अतुकांत मुक्त छंद और लय में रचना करने के प्रयास में लगे थे। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। मुक्तिबोध कोशिश करते थे, लेकिन घूम फिर कर वैयक्तिक अनुभूतियों के दायरे में यानी छायावाद की मूल भूमि पर लौट आते थे। 1936-37 के दौरान लिखी उनकी कविताओं में यही ऊहापोह दिखाई देता था। छायावाद के संकीर्ण विषय-वृत्त को तोड़कर दोनों ने जीवन-जगत के हर पहलू को अपनी कविता में आयत्त करने का भरसक प्रयत्न किया। लेकिन मुक्तिबोध का आरंभिक प्रशिक्षण उसी भूमि पर हुआ था। उसे छोड़ कर कविता के नये इलाक़ों तक पहुँचने में ख़ासी मशक्क़त करनी पड़ रही थी। इसी प्रयत्न में मुक्तिबोध ने ‘जीवन-यात्रा’ शीर्षक कविता लिखी। यह कविता रोमानी आत्मानुभूति की उनकी परिचित भंगिमा से किंचित विचलन को प्रकट करती थी, यद्यपि उसकी असल ज़मीन रुमानियत की ही थी। उस कविता में वह एक दार्शनिक अनुभव की ओर उन्मुख होते हुए जान पड़ते थे।
मुक्तिबोध और स्वयं के वैचारिक रुझान के बारे में वीरेंद्र कहते कि ‘हम दोनों ही में प्रबल दार्शनिक पृच्छा-जिज्ञासा भी समान रूप से पनप चली थी एक नये ही उन्मेष-आवेश में हम नव नूतन रचनाएँ करने लगे थे।’ ज़ाहिर है, अपने समय के प्रचलित काव्यबोध की सीमाएँ लांघ कर नये काव्य-मुहावरे के संधान की कशमकश से मुक्तिबोध और वीरेंद्र दोनों गुज़र रहे थे—बेशक अपने-अपने तरीक़े से।
काव्य-बोध का पुनर्संस्कार
मालवा के ये तरुण छायावाद की ज़मीन पर खड़े थे, लेकिन अपने तईं उसे चुनौती देने और उसके लोकप्रिय भावबोध या उसके सुपरिचित मुहावरे का अतिक्रमण करने के लिए तैयारी भी कर रहे थे। इसलिये लगातार वे इस मुद्दे पर बहस करते। वीरेंद्र इस विषय में ख़ासे गम्भीर थे। उन्हें भरोसा था कि अपनी कविताओं में वह ऐसा कर पाने में सफल हुए हैं। लेकिन मुक्तिबोध अभी इसे लेकर आश्वस्त नहीं थे और इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील थे। छंद और भावबोध, दोनों स्तरों पर उन्हें नये रास्ते की तलाश थी।
वीरेंद्र मुक्तिबोध के सृजन-संस्कारों और रचनात्मक मनोभूमि के बारे में विचार करते और स्वयं के काव्य-बोध से तुलना करते तो उन्हें लगता था कि “मेरी खोज दार्शनिक से अधिक आध्यात्मिक थी, बौद्धिक से अधिक बोधात्मक थी, यानी अनुभूतिमूलक थी। मैं दुनिया की समस्या को सुलझाने के पहले अपने को सुलझाना, समझना और जानना चाहता था। मेरी वेदना आत्मज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के लिए थी। मैं अपने को, अपने निजत्व को खोज रहा था। अपने ज्ञाता-दृष्टा ‘मैं’ की अतश्चेतना के केंद्र में पहुँचना चाहता था। वहाँ पहुँच सकूँ तो जगत के आधार को रियलिटी (सत्ता) को पा लूँगा और तब उसके प्रकाश में स्व-पर, व्यक्ति-समाज के सही संबंधों का निर्णय आपों-आप ही होता चला जाएगा।” मुक्तिबोध में की कविताओं में भी अनुभूतिपरकता थी। लेकिन निजत्व की तलाश की बजाए उनमें सम्बोध्य के प्रति प्रबल आकर्षण और दैन्य भाव अधिक था। प्रेम की तीव्रता उनके यहाँ आत्मपरक प्रतिक्रियाओं में विसर्जित हो उठती थी। वीरेंद्र की तरह मुक्तिबोध की कविताओं में भी अंतर्मुखता थी।
उधर माचवे भी छंदों में और प्रचलित मुहावरे को तोड़ने में बड़ी कुशलता से और मज़बूती के साथ सशक्त काव्य-प्रयोग कर रहे थे। वीरेंद्र तो माचवे की प्रतिभा से लगभग अभिभूत थे। उन्हें लगता था कि माचवे में एक प्रातिभ विस्फोट-सा है। वे ऐसी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे कि आधी रात उठाकर उनसे कुछ भी लिखवा लीजिए। मुक्तिबोध को माचवे के इस गुण से भी बड़ा रश्क होता था। माचवे चित्रकार भी थे और अपनी नोटबुक में बहुत सुंदर रेखांकन किया करते थे।
घुमक्कड़ी और बहस मुक्तिबोध के स्वभाव का हिस्सा बन चुकी थी। वीरेंद्र सोचते थे कि मुक्तिबोध में प्रखर बौद्धिक और भावात्मक उन्मेष एक साथ था। वे तार्किक दृष्टि से चीज़ों को देखने के अभ्यस्त हो चुके थे। उनकी विश्लेषण-क्षमता प्रबल थी। वीरेंद्र यह भी महसूस करते थे कि ‘बहस उनके मिज़ाज में थी; बहुत तेज़ और तीखा बोलते थे; इसमें समाधान समन्वय और मिलन उपलब्ध नहीं हो पाता था, जो कि साहित्य की फलश्रुति होनी चाहिए। सरगर्मी के सिवाय और कुछ पल्ले नहीं पड़ता था।’ वीरेंद्र यह भी अनुभव करते थे कि इससे ‘भिन्नता और प्रतिस्पर्धा उभरती थी जो कि मेरा अभीष्ट नहीं था। बौद्धिक विश्लेषण की बजाय मुझे संश्लेषण और एकत्व की भावात्मक भूमिका ही अधिक प्रिय थी। मुक्तिबोध जाने-अनजाने अपने सुपीरियॉरिटी (श्रेष्ठत्व) स्थापित करने की चेष्टा में रत रहते थे। हारना उन्हें पसंद नहीं था। मेरा लक्ष्य हार-जीत नहीं, समाधान था, सम्मेलन था।’ दरअसल मुक्तिबोध बौद्धिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर अत्यंत संवेदनशील थे। जीवन-जगत के प्रति उनके दृष्टिकोण में ऐसी वजह से तीव्र उद्वेग हुआ करता था। इंदौर के अध्ययन-काल में उनके भीतर का आंतरिक द्वंद्व क्रमशः उत्कट हो रहा था। छायावादी भावाकुलता और बौद्धिकता के इस द्वंद्व में उनकी काव्य-संवेदना और तर्कदृष्टि पुनर्संघटित हो कर धीरे-धीरे निखर रही थी। वे अँदरूनी तौर पर बदलाव से गुज़र रहे थे। यूँ भी अपने निजी-पारिवारिक जीवन में विशिष्ट स्थिति के कारण या ख़ुद को हमेशा ज़्यादा तवज्जो मिलने के कारण बचपन से ही उनके स्वभाव में एक तरह का ज़िद्दीपन आ गया था। शायद यह भी कारण रहा हो कि अपनी बात को सही साबित करने के लिये वह तर्क-के-ऊपर-तर्क रखते हुए उस पर ज़ोर डालते थे। इसी वजह से वीरेंद्र को लगता था कि बहस में मुक्तिबोध को हारना पसंद नहीं है।
सघन आत्मीय संवाद
दोनों के बीच संवाद अब सहज-सघन रूप से और आत्मीय धरातल पर होने लगा था। तकल्लुफ़ की दीवारें उनके बीच ढहती चली गयी थीं। वे प्रायः नित्य मिलते और साहित्य-चर्चा में मगन हो जाते।
कभी-कभी उज्जैन के मित्र विलायती राम से भी भेंट होती, हालाँकि बहुत कम। विलायती राम मुक्तिबोध के बचपन के साथी थे। इंदौर में दोनों के संबंधों में अंतरंगता तो बरकरार थी, लेकिन कॉलेज के बाहर उनसे कभी-कभार ही भेंट हो पाने के कारण उनके बीच परस्परता कमज़ोर पड़ने लगी थी। उज्जैन में शाम की यायावरी में, या माधव कॉलेज में, या शहर में कहीं भेंट होने पर विलायती राम से मुक्तिबोध की साहित्य-चर्चा हुआ करती थी। इंदौर आने पर यह सिलसिला टूट गया।
अक्सर खंडवा से मित्र प्रभागचंद्र शर्मा इंदौर आ जाया करते थे। वह शाजापुर के थे। अच्छे कवि थे। खंडवा में ‘कर्मवीर’ के सहकारी संपादक के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी के सहयोगी थे। ‘कर्मवीर’ में मुक्तिबोध, वीरेंद्र और माचवे की कविताएँ छपती थीं। तीनों से प्रभागचंद्र शर्मा की मित्रता थी। मुक्तिबोध से उज्जैन के दिनों से ही उनकी अंतरंगता थी। वह इंदौर आते तो उनकी शामें चहकने लगतीं। बाजार में घूमते, गपियाते और फिर माचवे के कमरे में बौद्धिक बहस करते-करते समय कब बीत जाता, पता ही नहीं चलता। वे निरंतर साहित्य, दर्शन, समाज और राजनीति की चर्चाओं में डूबे रहते। प्रभाग लौट जाते तो लगता, शामें सूनी हो गयी हैं। इंदौर आने के पहले वह पत्र के द्वारा मुक्तिबोध को सूचित किया करते थे। कभी ऐसा भी होता था कि उन्हें इंदौर से कहीं आगे जाना होता तो मुक्तिबोध को वह रेलवे स्टेशन पर बुला लिया करते। जितनी देर ट्रेन रुकी रहती, दोनों मित्र अंतरंग वार्तालाप में लीन रहते। समय तेज़ी से बीत जाता और ट्रेन चल पड़ती। दोनों की आत्मीयता ऐसी थी कि किसी कारणवश मुक्तिबोध अगर रुष्ट हो जाते तो प्रभाग पत्र भेज कर उन्हें मनाने का प्रयत्न करते। 11 सितंबर 1936 के पत्र में प्रभागचंद्र ने लिखा—
‘प्यारे मुक्तिबोध, मस्त हो न! यह पत्र किस लिए लिख रहा हूँ, जानते हो? उस दिन मैंने एक पत्र लिखा था। शायद उसने तुम्हारे ह्रदय को दुखी किया होगा। पर मैंने इरादतन किया था और सिर्फ़ यही देखने को कि वह कितने दिन तक तुम्हारा मुँह फुलवाए रख सकता है। परिणाम स्वाभाविक हुआ। तुम रूठ गए। भैय्या, स्नेह में फटकार सुहानी और उपेक्षा मादक होकर रहती है। पर तुम्हें दूसरी ही तरह अनुभव हुआ। ख़ैर, रूठे रहना। मनना मत कभी हाँ, समझे। तुम स्नेहमय हो, यह क्या मेरे मुँह से सुनना चाहते हो? अच्छा तो लो– तुम मेरे अपने हो। बस इतना ही। प्रसन्न हूँ।’
यह स्नेह से भीगा हुआ पत्र था। प्रभागचंद्र मुक्तिबोध को बहुत मानते थे। ‘कर्मवीर’ में मुक्तिबोध की कविताएँ छापते थे। कभी अन्य पत्रिकाओं में भी उनकी कविताएँ भेज देते थे।
इंदौर का कॉलेज जीवन उनके बौद्धिक-सृजनात्मक विकास की दृष्टि से बहुत उल्लेखनीय समय था। वीरेंद्र कुमार जैन, प्रभाकर माचवे, मुकुंद वडालकर और प्रभाग चंद्र शर्मा से साहचर्य में सघन आत्मीय संवाद का एक छोटा-सा वृत्त इंदौर में विकसित हुआ था। उसमें मुक्तिबोध गहरी आत्मतुष्टि और रचनात्मक समृद्धि का अनुभव करते थे।
इंदौर में शरच्चंद्र
एक शाम वीरेंद्र जब मुक्तिबोध से मिलने महाराजा तुकोजीराव अस्पताल परिसर में बुआ के क्वार्टर पहुँचे तो देखा एक किशोर वहाँ उनके साथ बैठा था। मुक्तिबोध ने परिचय कराया—’शरच्चंद्र, मेरा छोटा भाई।’ बातचीत के दौरान वीरेंद्र को यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई कि शरच्चंद्र भी हिंदी में कविताएँ और कहानियाँ लिखा करता है। शरच्चंद्र ने वीरेंद्र को अपनी रचनाएँ दिखायीं। पढ़ कर वीरेंद्र चकित हुए। उन्हें रचनाएँ अच्छी लगीं। वे अत्यंत मार्मिक रचनाएँ थीं। किशोर वय के रचनाकार की उन परिपक्व रचनाओं से वीरेंद्र सहज प्रभावित थे। उन्होंने खूब प्रशंसा की।
शरच्चंद्र छुट्टियों में बड़े भाई और बुआ से मिलने अक्सर इंदौर आया करता था। उसकी नयी रचनाएँ पढ़ कर वीरेंद्र मुग्धभाव से उसके प्रशंसक हो गये। भेंट होने पर वीरेंद्र मुखर हो कर उसकी प्रशंसा किया करते। शरच्चंद्र की ग़ैर मौजूदगी में भी मुक्तिबोध से वह उसकी निस्संकोच तारीफ़ करते थे। मुक्तिबोध छोटे भाई की यह प्रशंसा पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे। वह लेखन की ओर शरच्चंद्र की अभिरुचि से मन-ही-मन प्रसन्न तो होते थे लेकिन उसके प्रति स्कूल मास्टर वाली कड़ी आलोचना-दृष्टि रखते थे। नतीजा यह हुआ कि अपनी रचनाओं के बारे में शरच्चंद्र बड़े भाई से आतंकित था। वह उनके सामने सहमा-सा रहता। लेकिन चूँकि वीरेंद्र उसके प्रति सहानुभूति और वात्सल्य-भाव रखते थे और खुल कर उसे सराहते थे, इसलिये उनसे वह सहज हो कर अपनी रचनाओं के विषय में बातचीत करता था। वीरेंद्र उसे प्रोत्साहित किया करते। इस कारण वह उनके प्रति विशेष लगाव, आदर और श्रद्धा भाव रखता। वीरेंद्र को शरच्चन्द्र की हिंदी कहानियाँ पसंद थीं, जो उसने शुरुआत में अभ्यास के तौर पर लिखी थीं। उन्होंने उन कहानियों को लेकर उसे मार्गदर्शन भी दिया। वीरेंद्र अक्सर बुआ के क्वार्टर में आया करते। शरच्चन्द्र वहाँ आये होते तो उससे भेंट हो जाया करती। वीरेंद्र के लौटने के बाद मुक्तिबोध उनकी बहुत तारीफ़ करते—’अरे साहब, वीरेंद्र का किसी से क्या मुक़ाबला! बस, पूछिये मत!’
‘निर्दोष बालिका-स्वरूप’ छवि
बुआ के क्वार्टर के बरामदे में या बाहर नीम के झाड़-तले खटिया पर बैठकर मुक्तिबोध और वीरेंद्र घंटों चाय के प्यालों पर रचना-पाठ और बौद्धिक चर्चा किया करते थे।
एम. टी. अस्पताल और स्टाफ़ क्वार्टर के आसपास का वातावरण प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध था। ख़ूब हरियाली फैली हुई थी। ‘घर के पड़ोस में सेमल का ऐसा विशाल शतभुज वृक्ष था, जिस पर हज़ारों कव्वे बैठे रहते। सुबह आँख खुलते ही कव्वों की विचित्र काँव-काँव कानों में समा जाती। शाम को जब आसमान की लाली सँवलाने लगती तो उसकी पुकार में एक अजीब उदास तेज़ी आ जाती। लगता कि मन के भीतर जो बहुत-कुछ दबा है, वह सब सम्मिश्र, अस्पष्ट, औघड़, कर्कश शब्द-स्वरों में बाहर एकदम निकला चाहता है।’
शाम के समय दिन-भर का संचित आवेग और द्वंद्व बाहर निकलने को होता। यह उन्मुक्त हो कर भावात्मक और बौद्धिक संसार में विचरण का, खुले संवाद का, और निर्विघ्न आनंद का समय होता। ऐसी ही एक शाम वीरेंद्र और मुक्तिबोध कॉलेज से बुआ के क्वार्टर में लौटे। क्वार्टर के आसपास बहुत-से पेड़-पौधे थे। बुआ के क़्वार्टर के आंगन में नीम के पेड़ के नीचे दोनों मित्र खाट पर बैठे थे। ठंडी-सुहावनी हवा चल रही थी। हवा में नीम के पत्ते सरसरा रहे थे। प्यास लग आयी थी। मुक्तिबोध ने एक लड़की का नाम पुकार कर पानी लाने को कहा। थोड़ी ही देर में पेटिकोट और ब्लाउज़ पहने, स्वस्थ, सुडौल और सुंदर-सी किशोरी पानी का गिलास ले कर आयी और झटपट दोनों को एक-एक गिलास थमा कर लौट गयी। मुक्तिबोध बहस में अपनी बात बड़ी तन्मयता और आवेग के साथ रख रहे थे। अक्सर किसी विषय में डूब कर जब वह बोलने लगते तो सब-कुछ मानो भूल जाते। एक साँस में गिलास का पानी पी कर मुक्तिबोध फिर उसी तेज़ी से बोलने लगे। वह बोले जा रहे थे लेकिन वीरेंद्र को जैसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था। अकस्मात उस किशोरी के आने से उनका ध्यान भंग हो उठा था। उस क्षण उसका आना इतना आकस्मिक था कि वीरेंद्र को कुछ सूझ न पड़ा। उसके शांत, स्निग्ध और निर्दोष बालिका-स्वरूप निश्छल सौंदर्य से पल-भर के लिये वह अभिभूत हो गये। उन्हें ध्यान न रहा कि बहस में मुक्तिबोध कितनी दूर जा चुके हैं। आख़िर कुछ क्षण बाद वीरेंद्र प्रकृतिस्थ हुए। मगर मुक्तिबोध अपनी रौ में थे और उससे अब भी बेपरवाह हो कर बहस में खोए थे। हाथ में ख़ाली गिलास लिए वीरेंद्र चुपचाप सुनते रहे।
मुक्तिबोध जब अपनी बात कह चुके तब वीरेंद्र ने पूछा—’अभी जो बालिका पानी लेकर आयी थी वह कौन है?’ मुक्तिबोध ने बताया—‘वह शांताबाई है। पड़ोस में रहती है।’ वीरेंद्र ने आगे कोई पूछताछ नहीं की। मगर उनके मन में शांताबाई की ‘निर्दोष बालिका-स्वरूप’ की छवि अंकित हो गयी। दोनों फिर बहस में लग गये।
शांताबाई की माँ मनुबाई मुक्तिबोध की बुआ आत्याबाई के यहाँ रसोई बनाती थीं। पास के क्वार्टर में रहती थीं। पहले वह महू की छावनी में रहती थीं। वहाँ शांताबाई के पिता माधवराव मोरोपंत मिरीकर रिसालदार थे। उनका आकस्मिक निधन हो जाने के बाद माँ-बेटी बेसहारा हो गयीं। शांताबाई की बड़ी बहन कृष्णाबाई कुलकर्णी इंदौर में महाराजा तुकोजीराव अस्पताल में ही नर्स थीं। वह विधवा माँ और तेरह-चौदह साल की छोटी बहन को अपने साथ ले आयीं। आत्याबाई के निवास के बगल का क्वार्टर कृष्णाबाई को मिला था। उसमें वह माँ और छोटी बहन के साथ रहने लगीं। मनुबाई भी महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थीं। इसलिये आत्याबाई के यहाँ भोजन बनाने का काम उन्हें सहज ही मिल गया। इस काम के सहारे और कृष्णाबाई की मदद से माँ-बेटी का गुज़र-बसर होने लगा।
आत्याबाई के यहाँ रसोई के लिये मनुबाई आतीं तो साथ में कभी-कभी शांताबाई भी आ जाती। मुक्तिबोध उन्हीं दिनों इंदौर पहुँचे थे। उन्होंने शांताबाई को घर आते और रसोई के काम में अपनी माँ का हाथ बटाते देखा। मुक्तिबोध उम्र के उस मुकाम पर थे जहाँ लड़कियों के प्रति एक सहज उत्सुकता होती है। कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति में शांताबाई भी थी। दोनों के बीच एक-दूसरे के लिए महज़ उत्सुकता का सम्बन्ध था। मगर थोड़े ही दिनों में शांताबाई जानने लगी थी कि मुक्तिबोध कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं, कि वह बड़े बुद्धिमान हैं, कविताएँ लिखते हैं, दोस्तों के साथ ख़ूब घूमते और उनसे बहस करते हैं। शांताबाई चौदह बरस की थी और मुक्तिबोध उन्नीस बरस के।
मुक्तिबोध कॉलेज से लौटते तो थोड़ी देर बाद शांताबाई चाय लेकर हाज़िर हो जाती। वह रसोई के छोटे-मोटे काम में माँ की मदद करती। प्रारंभ में मुक्तिबोध ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। उससे यूँ ही थोड़ी-बहुत पूछताछ कर लिया करते। उसने बताया कि वह पाँचवी कक्षा तक पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी थी। मुक्तिबोध की उत्सुकता तो शांत हुई, लेकिन अब वह शांताबाई को लेकर किंचित सजग हो उठे थे। घर में उसके आने पर उनका ध्यान शांताबाई की तरफ खिंच जाता। कॉलेज से लौटते ही चाय का कप लेकर वह आती तो मुक्तिबोध को अच्छा लगता। अब वह अपने लौटने पर चाय के साथ शांता के प्रकट होने की उम्मीद करने लगे। धीरे-धीरे यह रोज़ का अभ्यास बन गया। शांता कैशोर्य के उत्साह और उत्सुकतावश मुक्तिबोध की सेवा करते हुए ख़ुशी का अनुभव करती। उस सरल-ह्रदय निश्छल बालिका ने जैसे इस कार्य में आनंद का अमूल्य स्रोत पा लिया था। शुरू-शुरू में मुक्तिबोध उसकी मौजूदगी से थोड़ा अचकचाए, असहज हुए थे। लेकिन धीरे- धीरे उन्हें शांता की उपस्थिति का अभ्यास हो गया। बल्कि किसी कारणवश शांता न आ पाती तो वह बेचैन होने लगते। यह चाय की तलब के वक्त तुरंत चाय न मिलने की बेताबी नहीं थी। बल्कि उससे कहीं ज़्यादा कुछ था जो उनके भीतर एक रिक्तता उत्पन्न कर देता था। वह इस रिक्तता को महसूस तो करते थे, लेकिन इसे लेकर गंभीर नहीं हुए। शांता से रोज़ की इस मुलाक़ात का नतीजा यह हुआ कि मुक्तिबोध उसके आदी होते गये।
अध्ययन का रुझान
मुक्तिबोध का रुझान कथा-साहित्य की ओर था ही, इधर उन्होंने प्रभाकर माचवे के साथ अंग्रेज़ी, फ्रेंच और रूसी भाषा के अनेक उपन्यास पढ़े थे। माचवे के साथ पश्चिमी दर्शन का भी अध्ययन शुरू किया। उनसे दर्शन पर चर्चा भी करते थे। धीरे-धीरे उनका रुझान दर्शनशास्त्र की ओर भी होने लगा था।
मुक्तिबोध निरे कवि नहीं थे। जीवन की समझ, ख़ास तौर पर मानव-मन और उसकी प्रवृत्तियों की जानकारी और समाज को समझने का एक व्यापक नजरिया उन्हें दार्शनिक ग्रंथों से ज़्यादा उपन्यासों के अध्ययन से प्राप्त हुआ था। शरच्चंद्र के साथ चर्चा में भी वह उपन्यासों और उनके पात्रों का ज़िक्र किया करते थे। दोनों भाइयों का उपन्यास के प्रति ऐसा अनुराग था कि तमाम औपन्यासिक पात्र उनके अंतरंग संसार का हिस्सा बन गए थे। उनके बारे में वे इस तरह बातें करते थे, गोया ये पात्र उनके मित्रों, आत्मीय जनों और सुपरिचित लोगों में से कोई हों। अक्सर पियरे, एदमोशा, दाहान, प्रिंस मुदश्किन, श्रोगोजिन, किरिलोव, स्टीपान आदि का उल्लेख हुआ करता था। लगता था, ये शांताराम, घई, वीरेंद्र या माचवे की तरह उनके मित्र हों। उपन्यासों में चित्रित आभासी जीवन के साथ मानो उन्होंने अपने जीवन का विलय कर लिया था।
मुक्तिबोध के भीतर अत्यंत तीव्र जिज्ञासा-वृत्ति थी। छोटी-सी उम्र में उन्होंने व्यापक अध्ययन कर लिया था। उनकी रुचि के विषयों में दर्शन और साहित्य के अलावा समाजविज्ञान, सामयिक राजनीति, और मनोविज्ञान आदि शामिल थे। उन्होंने समूची मानव-जाति के विकास-क्रम, उसकी स्थिति-गति और नियति को लेकर उनमे प्रबल जिज्ञासा थी। विभिन्न देशों के इतिहासों को भी उन्होंने पढ़ा था। विज्ञान विषयक साहित्य में भी उनकी दिलचस्पी जाग गयी थी। दर्शन विषयक ग्रंथों में सर्वपल्ली राधाकृष्णन के ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन फ़िलॉसफ़ी’ के खण्डों को उन्होंने पढ़ लिया था।
इसी बीच मुक्तिबोध ने एक कहानी लिखी—‘खलील काका।’ यह उनकी पहली कहानी थी। उन्हें भरोसा हुआ कि वह कथात्मक गद्य भी लिख सकते हैं। कविताएँ तो वह लिख ही रहे थे। इसके कुछ ही दिनों बाद उन्होंने ‘वह’ और ‘आखेट’ शीर्षक कहानी लिखी। दरअसल कहानी की ओर उनका झुकाव सहज जिज्ञासावश हुआ था। यह उनके लिये प्रयोग था। कहानी लिखना शुरू करते ही उन्हें अनुभव हुआ कि ‘कथा-तत्त्व मेरे इतना ही समीप है, जितना काव्य।‘ मगर रुचि होने के बावजूद वे कहानियाँ कम लिखते थे। अलबत्ता काव्य के प्रति उनकी अभिरुचि और जिज्ञासा गहरी थी। 25 जनवरी 1936 के ‘कर्मवीर’ (खंडवा) में ‘तू और मैं’ कविता माखनलाल चतुर्वेदी ने प्रकाशित की थी। उसके बाद ‘कर्मवीर’ में ही ‘कोकिल’ (14 मार्च 1936), ‘तुम’ जिसे बाद में ‘प्रेयसी’ शीर्षक दिया गया (15 अप्रैल 1936), ‘कविते’ (8 मई 1936), तुम (7 जून 1936), सजन (१७ अक्टूबर 1936) आदि कविताएँ प्रकाशित हुईं। इन कविताओं के छपने से मुक्तिबोध का आत्म-विश्वास बढ़ा। उन्होंने ‘1935 में काव्य आरम्भ किया था, सन 1936 से 1938 तक काव्य के पीछे कहानी चलती रही।’ इस बीच उन्होंने एक वैचारिक लेख भी लिखा–’अतीत’, जो ‘कर्मवीर’ के 9 जनवरी और 16 जनवरी, 1937 के अंकों में दो किस्तों में प्रकाशित हुआ।
बाबूसाहब, देह तप रही है, तुम्हें तो बुख़ार है!
1937 के मार्च का अंत आते तक मौसम बदलने लगा था। एक दिन जब कॉलेज से लौटे तो मुक्तिबोध के गले में थोड़ी ख़राश महसूस हुई। चाय की तलब तो थी ही। शांता को पुकारा। जल्दी चाय लाने के लिये आवाज़ दी। वह गरम चाय लेकर आयी। मुक्तिबोध ने गटागट चाय कंठ में उड़ेल ली। उन्हें कंठ की सिंकाई होने से थोड़ी राहत महसूस हुई। एक कप और चाय की इच्छा हुई।। शांता पास में ही खड़ी थी। कहा—’क्या एक कप गरम चाय और मिल सकेगी?’ मुक्तिबोध का चेहरा कुछ क्लांत और बुझा हुआ-सा लग रहा था।
—’थके हुए हुए लगते हैं, बाबू साहब। तबीयत तो ठीक है न?’ शांता ने चिंता व्यक्त की।
—’तबीयत ठीक है। बस थोड़ी ख़राश और हल्का-सा दर्द है गले में। गरम चाय पीने से अच्छा लगेगा।’
—’अच्छा, अभी लायी।’ शांता कप-बसी उठा कर तुरंत लौट गयी। थोड़ी देर में चाय लेकर फिर हाज़िर हुई।
मुक्तिबोध धीरे-धीरे चुस्की लेकर चाय पीने लगे। हर चुस्की के साथ वह चाय को गले की सिंकाई करते हुए भीतर उतार ले रहे थे। शांता पास ही एक कुर्सी खींच कर बैठ गयी थी। वह बाबू साहब को चाय पीते हुए निहारने लगी।
लेकिन मुक्तिबोध अपने-आप में उलझे हुए थे। चाय से उन्हें बड़ा सुकून मिला था। शांता की मौजूदगी से उदासीन वह अपनी थकान को भूल कर कुछ सोचने लगे। याद करने लगे, आज कॉलेज से छूट कर वीरेंद्र के साथ वह दूर निकल गये थे। फिर लौटते हुए खजूरी बाज़ार की एक गुमटी में दो-तीन प्याली चाय पी। देर तक वहाँ वीरेंद्र के साथ अपनी कविताओं पर बहस करते रहे।
शांता के साथ कमरे का निर्विघ्न एकांत गहराता जा रहा था। मुक्तिबोध को चाय की गुमटी में वीरेंद्र के साथ हुई बातचीत की याद आने लगी। वह उस पर मनन करने लगे।
मुक्तिबोध और वीरेंद्र दोनों पिछले दिन कॉलेज से छुट्टी होने के बाद चंद्रभागा नदी की ओर निकल गये थे। वहाँ एक टीले पर देर तक बैठे रहे। आख़िर में उन्होंने एक-दूसरे को अपनी नयी कविताएँ सुनाईं। फिर वे उठ कर घर की ओर लौट गये। लौटते हुए चाय की गुमटी में वीरेंद्र ने मुक्तिबोध से सुनी कविताओं की बात छेड़ दी।
मुक्तिबोध की कविताओं के बारे में वीरेंद्र का विचार था कि उनमें एक तरह का आरोपित अमूर्त्तन है जो उनके अध्यापक रमाशंकर शुक्ल ‘हृदय’ के सान्निध्य में स्वतः विकसित हुआ है।
—‘तुम्हारी कविताओं में पीलेपन का बाहुल्य है। एक हॉण्ट करती हुई पीलेपन की इमेज। सच कहूँ तो यह तुम्हारे काव्य-चिंतन में चोर-रास्ते से दाख़िल हो गयी मॉर्बिड प्रवृत्ति का प्रभाव मालूम होता है। मेरी कविताओं में भी इस क़िस्म का नैराश्य भाव जड़ें जमाने लगा था लेकिन मैं इससे सचेत हो गया। भरसक उससे बचने की कोशिश की। लेकिन तुम्हारी कविताओं में उसकी गहरी छाया है।’ वीरेंद्र ने साफ़गोई से कहा।
मुक्तिबोध किंचित विचलित हुए। बोले कुछ नहीं। आहत भाव से वीरेंद्र को देखने लगे। वीरेंद्र ने कहना जारी रखा—’तुम्हारी कविता में छायावादी अमूर्त्तता है। शुरूआती समय में छायावाद की ज़मीन पर काव्य की रचना करने के अभ्यास के कारण उसके वायवीय संसार के भीतर तुम्हारे काव्य-संस्कार निर्मित हुए हैं। प्रत्येक कवि स्वभावतः अपने युगबोध की परिधि के भीतर सृजन करता है। धीरे-धीरे वह अपनी प्रतिभा और संवेदन-तंत्र के सहारे जब उसकी सीमाओं को पहचान लेता है, तब उन सीमाओं को लाँघने और निजी काव्य-व्यक्तित्व अर्जित करने को बेचैन होता है। वह बेचैनी तुम्हारे भीतर कम ही दिखाई देती है। कुछेक कविताओं को छोड़ दें तो तुम अब भी वहीं-के-वहीं खड़े नज़र आते हो।’
सुनकर मुक्तिबोध स्तब्ध रह गये। इस समस्या को लेकर वह स्वयं सजग थे, बल्कि उससे जूझ ही रहे थे। सोचने लगे कि वीरेंद्र को ऐसा क्यों लगता है कि मेरी कविताओं में छायावादी अमूर्त्तन है। यदि ऐसा है तो इस मकड़जाल से मुक्त होने के लिये विशेष यत्न करना होगा। मन-ही-मन मुक्तिबोध इस पर विचार करने लगे। वीरेंद्र उनकी आँखों में आँखें डाल कर बोल रहे थे। वह उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहते थे। मुक्तिबोध को थोड़ी देर तक शांत देख कर लगा कि वह अपने में सिमटने लगे हैं।
वीरेंद्र ने आगे कहना जारी रखा—’निस्संदेह तुम्हारी कविताओं में अंतर्वस्तु और संवेदनात्मक गठन की दृष्टि से परिपक्वता है। अभिव्यक्ति भी प्रांजल है। मुकम्मल तौर पर तुम्हारी कविताएँ एक धारा में हैं। निस्संदेह तुम आज की कविता में रसे-बसे हुए हो। लेकिन ज़रा सोचो, क्या छायावाद की ऐकांतिकता से उपजी अनुभूति में सम्बोध्य की उपस्थिति अतिशय चेतनामूलक और बेठोस नहीं जान पड़ती? मैं तुम्हारी कविताओं का प्रशंसक हूँ। बेशक वे मुझे अच्छी भी लगती हैं, बल्कि सच कहूँ तो उन्हें सुनकर मैं मुग्ध हुआ। लेकिन मुझे यह लगा कि जिसे तुम्हारी कविता सम्बोधित है, वह कहीं वास्तविकता की ओट में अवगुंठित अलक्ष्य सत्ता जान पड़ती है; मूर्त्त, प्रत्यक्ष और यथार्थमूलक नहीं। उसकी उपस्थिति अतीन्द्रिय और स्वप्निल है।’
मुक्तिबोध एकाग्रचित्त हो कर सुन रहे थे। वीरेंद्र ने फिर उनकी ओर ठहर कर देखा। कोई प्रतिक्रिया न होने पर कहना जारी रखा—’ज़रा सोचो, अमूर्त्त के पीछे सम्मोहित होने की बजाए हाड़-माँस के व्यक्ति के साथ नेह-संबंध व्यक्त होने से क्या कविता में विश्वसनीयता और स्वीकार्यता नहीं आ जायेगी? जिस प्रिय की स्मृति तुम्हारी कविताओं में व्याप्त है, वह वेदना और पीड़ा की सघन अनुभूति तक सीमित रह जाती है। उसके साथ जीवंत और ठोस रिश्ता नहीं बन पाता। सब-कुछ चेतना के स्तर पर घटित होता है, ऐन्द्रिक धरातल पर नहीं। इसके परिणामस्वरूप प्रिय से मिलन की आकांक्षा में अर्थात एक रूमानी स्वप्न में कवि-चेतना विसर्जित हो जाती है। यह एक गढ़ी हुई रुमानियत है। प्रिय के प्रति आकुलता और आत्मपीड़न के छायावादी स्वर से अब आगे जाने की आवश्यकता है। प्रणय-भाव में समर्पण और आत्म-विसर्जन के साथ ही व्यक्तित्व का स्वतंत्र स्थापन भी अभीष्ट है। प्रिय के मांसल और वास्तविक स्वरूप के बिना यह संभव नहीं है।’
वीरेंद्र कुछ ठहर गये। उन्हें लगा, मुक्तिबोध के चेहरे पर कोई घना बादल उमड़ आया है। वीरेंद्र ने अपने को सम्हाला। पता नहीं इस साफ़गोई से मुक्तिबोध कैसा अनुभव कर रहे होंगे। वीरेंद्र ने अनुमान लगाने की कोशिश की। मगर वह उनकी मनःस्थिति को थाह नहीं पाये।
अपने को संयत कर वीरेंद्र ने कहा–—पहली बार जब तुम्हारी कविताएँ मैंने सुनी थीं, तब यह देख कर मैं अभिभूत था कि तुमने आज की कविता का प्रचलित मुहावरा पा लिया है। तुम्हारे डिक्शन और शब्द-प्रयोग के कौशल से मैं हैरान हुआ। तुम आज की कविता के लिहाज से धारा में थे और इस दौर के कवियों का एक शिल्पगत मँजाव-संस्कार और मुहावरे को पा गए थे। सच कहूँ तो मुझे तुमसे ईर्ष्या हुई थी।
‘हिंदी के केंद्र से दूर मालवा-जैसे उपेक्षित अंचल में रह कर यदि हम हिंदी के ख्यात कवियों की टक्कर में खड़े हो पा रहे हैं, तो इसका कारण वह संवेदनात्मक और बौध्दिक ऊर्जा है, जिसे हमने परिश्रम के साथ अर्जित किया है। यह कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसे बरकरार रखने के लिये हमें धारा में रहते हुए भी उससे अलग जाने का प्रयास करना होगा। वरना हम उपेक्षित ही रहेंगे।’ वीरेंद्र ने अपना दर्द बयान किया।
फिर वह कहने लगे—’हम जानते हैं कि पिछड़े प्रदेश मालवा में रहने के कारण हमें यथेष्ट प्रकाशन सुलभ नहीं है। संयुक्त प्रांत की पत्रिकाओं से अक्सर हमारी रचनाओं के बंडल लौट आया करते हैं। बल्कि इसी निराशा से छटपटा कर कलम के योद्धा माचवे चुनौती के साथ आलोचनाएँ लिख रहे हैं। वे बड़ी निर्भीकता से छायावादी लाजवंती स्त्रैणता और जड़ता पर व्यंग्य प्रहार कर रहे हैं। इसलिये हमें अपना अलग रास्ता बनाना ही होगा।
मुक्तिबोध ने गहरी साँस ली। हमेशा लगातार बोलने वाले मुक्तिबोध चुप थे। बहस में अक्सर वह पूरे आवेग के साथ अपनी बात कहते थे। लेकिन आज वीरेंद्र की बातें सुन कर बिल्कुल ख़ामोश रहे। शायद वीरेंद्र ठीक कह रहे हों—मुक्तिबोध सोचने लगे। कुछ अनमने-से हो गये। इसी मनःस्थिति में घर लौटे। वह सब-कुछ मानो भूल गये। मन में वीरेंद्र की बातें गूँज रही थीं।
चैतन्य हो कर कुर्सी पर बैठे तो गले में ख़राश का अनुभव हुआ।
चाय पीने से ताज़गी का एहसास हुआ। ध्यान आया, पास में बैठी शांता देर से उन्हें निहार रही है। अन्यमनस्क अवस्था मे मुक्तिबोध को देख कर वह चिंतित थी। मुक्तिबोध तनिक सचेत हुए तो शांता का स्वर सुनाई दिया—’बाबू साहब! कहाँ खो गए?’
—‘कुछ नहीं, बस, यूँ ही कुछ सोच रहा था। मैं ठीक हूँ, शांता। ज़रा थकान-सी लग रही है। अच्छा, तुम जाओ, अब मैं थोड़ा आराम करूँगा।’
शांता धीरे से उठी और कमरे से बाहर चली गयी।
लेटते ही मुक्तिबोध की नींद पड़ गयी। बाहर अँधेरा घिरने लगा था। रात आठ बजे के क़रीब बुआ ने आवाज़ दी। मुक्तिबोध गहरी नींद में थे। बुआ कमरे में आयीं। उन्हें जगाया—’उठो, बाबूसाहब! खाना लग गया है।’
रसोई में जाकर मुक्तिबोध भोजन के लिए बैठे। खाने की इच्छा बिलकुल भी नहीं हो रही थी। फिर भी बुआ के कहने पर थोड़ा-सा खाया। बुआ ने पूछा—’क्यों, खाना ठीक से क्यों नहीं खा रहे? क्या तबीयत अच्छी नहीं लग रही है?’
—’नहीं, तबियत ठीक है। ज़रा सुस्ती लग रही है।’
—’अच्छा, जाओ। आराम करो। अच्छी नींद लोगे तो सुबह तरोताज़ा होकर उठोगे।’
मुक्तिबोध कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गये। मन अस्थिर था। वीरेंद्र से हुई बातचीत फिर याद आने लगी। देर तक वह उस पर सोचते रहे। नींद नहीं आ रही थी। मन विचलित था। बार-बार वीरेंद्र की बातों की ओर चला जा रहा था। कहीं एक कसक भीतर कुरेद रही थी। उससे मुक्त होने के लिये वह आलमारी से कोई पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगे। उठे तो अपनी कविताओं का पुलिंदा दिख गया। मुक्तिबोध बड़े आकार के काग़ज़ पर कविताएँ लिखते थे। उन्हें डायरी में कविताएँ उतारने की आदत नहीं थी। उस पुलिंदे को निकाल कर थोड़ी देर पढ़ते रहे । वीरेंद्र की बातों को ध्यान में रख कर उन कविताओं पर सोचने लगे। गले में ख़राश तो दोपहर से थी। अब रात में गले का दर्द बढ़ गया। वह कविताएँ पढ़ते रहे और वीरेंद्र की कही बातों पर सोचते रहे। फिर पढ़ते-पढ़ते कब नींद लगी, पता ही न चला। तब तक काफ़ी रात बीत चुकी थी। नींद तो आयी। मगर मन में चैन नहीं था। नींद में भी बेचैनी थी।
सुबह थोड़ी देर से नींद खुली। सुस्ती बरक़रार थी। देह टूट रही थी। बिस्तर से उठने की हिम्मत नहीं हुई। गले का दर्द बढ़ गया था। बुआ कमरे में आयीं। देर से उठने का कारण पूछने लगीं—’बाबूसाहब, तबीयत ठीक नहीं लग रही?’ उन्होंने माथा छुआ। मुक्तिबोध को बुआ के स्पर्श में स्नेह और शीतलता का एहसास हुआ। बुआ चिंतित हुईं—’बाबूसाहब, देह तप रही है। तुम्हें तो बुख़ार है।’ मुक्तिबोध ने आँखें खोलीं। बुआ ने कहा, ‘तुम दातौन-कुल्ला कर कुछ नाश्ता कर लो। फिर मैं दवा देती हूँ।’ बुआ ने मनुबाई को जल्दी नाश्ता तैयार करने के लिये कहा। मनुबाई झटपट नाश्ते की तैयारी में जुट गयीं। थोड़ी देर बाद मुक्तिबोध को नाश्ता परोसा गया। लेकिन खाने का मन नहीं हुआ। बुआ के आग्रह पर थोड़ा-बहुत खाया। मन भारी था। शरीर में टूटन थी। ज्वर तेज़ होने लगा था। बिस्तर पर लेटे हुए मुक्तिबोध ने गहरी साँस ली। आँखों में जलन थी। गले की ख़राश बढ़ गयी। कुछ चुभ रहा था। सूखा-सूखा-सा कुछ रगड़ने का एहसास था। दस बजे के क़रीब मुक्तिबोध बुआ के साथ अस्पताल गये। डॉक्टर ने जाँच कर दवाएँ लिख दीं। लौट कर मुक्तिबोध बिस्तर पर लेट गये। बुआ दवा लेकर आयीं। उन्हें खिलाया। फिर सिर पर हाथ फेरकर स्नेह जताया और ड्यूटी पर अस्पताल चली गयीं।
थोड़ी देर बाद शांता आयी। पास से स्टूल खींच कर बैठ गयी। मुक्तिबोध ने आहट होने पर शांता की ओर एक नज़र देखा। शांता के होठों पर तैरती मुस्कान के जवाब में मुस्कुराने की कोशिश की। चेहरा क्लांत था। कोशिश करने पर भी होंठ सिकुड़े रहे। एक कमज़ोर और थकी-सी मुस्कान होंठों पर ज़ोर मार रही थी।
— ‘कैसा लग रहा है, बाबूसाहब? सिर दबा दूँ?’ शांता ने आग्रह किया।
— ‘नहीं, मैं ठीक हूँ।’
— ‘चेहरा तो मुरझाया हुआ है, देख कर कौन कहेगा कि आप ठीक हैं।’
— ‘कुछ नहीं, बस गले में ज़रा दर्द और बुख़ार है। डॉक्टर ने दवा दी है? ठीक हो जायेगा।’
— ‘ठीक क्यों नहीं होगा? लेकिन ठीक होने के लिए आपको आराम करना चाहिये। आप तो किताब लेकर पढ़ने लगे। बीमार होने पर कोई भला किताब पढ़ता है? दिमाग़ पर ज़ोर डालेंगे तो जल्दी कैसे ठीक होंगे?’ शांता कमरे में आयी थी तो मुक्तिबोध लेटे हुए पढ़ रहे थे।
शांता ने उठकर मुक्तिबोध के हाथों से किताब ली और ताखे पर उसे रख दिया। इतने दिनों में शांता मुक्तिबोध की आदतों से भलीभांति परिचित हो चुकी थी। वह जानने लगी थी कि उनके सिर्फ़ तीन व्यसन हैं—घुमक्कड़ी, किताब और चाय। इससे पहले कि मुक्तिबोध कुछ कहें, शांता ने मानो उनके मन की बात जान ली—’चाय पियेंगे?’ शांता को देखते ही मुक्तिबोध को चाय की तलब होने लगी थी। शांता ने स्वयं चाय के लिये पूछा तो उन्हें हैरानी हुई कि उसने कैसे जान लिया कि चाय की इच्छा हो रही है। क्या वह मेरे भीतर की इबारत को पढ़ना जानती है? शायद इसीलिये वह रोज़ शाम कॉलेज से मेरे लौटते ही चाय लेकर हाज़िर हो जाती है।
शांता चाय लेकर लौटी तो मुक्तिबोध को ताख पर रखी किताब को उठा कर बिस्तर पर लेटे पढ़ते हुए पाया।
—‘अरे! आप कहना क्यों नहीं मानते? फिर किताब पढ़ने लगे? इसे रखिये और गरमागरम चाय पीजिये।’ उसने मुक्तिबोध के हाथ से क़िताब ली और वापस उसे ताख पर रख दिया।
—’ज़्यादा चाय पीना भी सेहत के लिये अच्छा नहीं होता। लेकिन अभी आपको इसकी ज़रूरत है। इसलिये पिला रही हूँ। गले में गरमाहट पहुँचेगी तो आपको राहत मिलेगी।’
मुक्तिबोध ने उठ कर प्याला थाम लिया और चाय पीने लगे।
—’अच्छा बाबूसाहब, आप इतनी ज़्यादा चाय क्यों पीते हैं?’
मुक्तिबोध के पास इस सवाल का भला क्या जवाब होता। उनकी मुखाकृति बोल रही थी कि वह खीझ पड़े हैं। लेकिन खीझ को प्रकट करने की ताक़त ज़बान में नहीं थी। उन्हें कुछ भी बोलने-बताने या पूछने की तबीयत नहीं हो रही थी। वे चुप थे। मगर शांता लगातार बोले जा रही थी। अपने बचपन की बातें। नीमच छावनी में बिताये अपने जीवन के बारे में। पिता के बारे में। अपनी माँ की दृढ़ता और हालात से लड़ने के उनके हौसले के बारे में। मुक्तिबोध चुपचाप सुन रहे थे। पितृविहीन शांता के दुःखों से उन्हें सहानुभूति हो रही थी। उनका मन पिघलने लगा। कैसी अभागिनी है शांता। किशोरवय में क़दम रखते ही जिसके पिता का साया सिर से उठ गया हो, उसके दुर्भाग्य को क्या कहा जाए। मुक्तिबोध शांता की पीड़ा के साथ प्रवाहित होने लगे। वह स्वयं अपना कष्ट भूल गये। शांता और मनुबाई का दुःख याद रहा।
शांता की कहानी अब भी पूरी नहीं हुई थी। मुक्तिबोध की देह का ताप बढ़ रहा था। शांता ने देखा, उनकी आँखें बंद हैं। ज्वर और नींद ने उन्हें घेर लिया था।
शांता कप-बसी और गिलास उठा कर धीरे-से रसोईघर की ओर चली गयी।
अगली सुबह बुआ ने बाबूसाहब का माथा छुआ तो जेठ के महीने में पठारी भूमि की तरह तप रहा था। वह चिंतित हुईं। उन्हें ड्यूटी पर जाना था। लेकिन भतीजे की हालत देख कर सोच में पड़ गयीं। मनुबाई को अपनी चिंता बतायी। वह बोलीं, ‘आप फ़िक्र न करें। मैं सब सम्हाल लूँगी। आप ड्यूटी के लिए जाइये। बीच-बीच में आकर उन्हें देखते रहियेगा।’ सुनकर बुआ आश्वस्त हुईं। मनुबाई को सब बातें समझा कर और ज़रूरी हिदायत देकर वह अस्पताल चली गयीं।
बुआ के जाने के बाद मनुबाई रसोई के काम में जुट गयीं। हिदायत के मुताबिक पथ्य तैयार करना, समय पर दवा देना आवश्यक था। शांता भी इस बीच आ गयी। मनुबाई सब तैयारी करतीं। मुक्तिबोध की ज़रूरत की चीज़ें कमरे में लाकर उन्हें देने और दवा खिलाने का काम शांता ने सम्हाल लिया। वह हर ज़रूरत के लिये खड़ी रहती। उसने मुक्तिबोध का पूरा ख्याल रखा। पूरे दिन वह आत्याबाई के क्वार्टर में रही।
तीसरे दिन भी बुख़ार नहीं उतरा तो आत्याबाई ने अस्पताल से डॉक्टर को बुलवा लिया। उन्होंने जाँच की और दवा लिख दी।
चौथे दिन बुख़ार उतरा। मगर खाँसी कम न हुई। मुक्तिबोध सात दिनों तक बीमार रहे, तब कहीं जाकर खाँसी कम हुई। गले से बलगम निकला, हालाँकि पूरी तरह से साफ़ नहीं हुआ था। कमज़ोरी थी। जीभ में स्वाद नहीं रह गया था। अजीब-सी थकान और उदासी ने मुक्तिबोध को घेर रखा था। न पढ़ने की इच्छा होती, न कुछ करने की। सारा दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे कमरे की छत को ताकते रहते। बीच-बीच में नींद आ जाती। फिर सहसा चौंक कर उठ जाते। उनके मन में अनजानी आशंकाएँ उठतीं और भीतर से उन्हें बेचैन कर देतीं।
दस दिन तक शांता मुक्तिबोध की तीमारदारी में लगन से जुटी रही। वह ज़रा भी परेशान न हुई। उनकी सेवा में उसने कोई भी कोर-कसर बाक़ी नहीं रहने दिया। मुक्तिबोध पल-पल उसकी ज़रूरत महसूस किया करते। शांता के मुस्कुराते स्निग्ध चेहरे को देख कर वह अपनी तकलीफ़ भूल जाते। शांता समय पर दवा और पथ्य देती। बार-बार हिदायत देती। न मानते तो रोष प्रकट करती। एक अव्यक्त अधिकार उसकी हिदायतों में झलकता था। मुक्तिबोध को शांता का बरजना और हिदायतें देना बुरा नहीं लगता था। उनके भीतर पुलक की महीन डोर धीरे-से रेंगने लगती। वह उस डोर से खिंचे चले जा रहे थे।
पहली नज़र जब देखा था
उन्हें वह क्षण याद आया जब पहली बार बुआ के इसी क्वार्टर में शांता अपनी माँ के साथ आई थी। पहले तो उसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की, लेकिन न जाने क्यों मन उसकी ओर खिंचा जा रहा था। मुक्तिबोध सोचने लगे, ‘मैंने जब इसे प्रथम देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह कुछ देर तक मेरे देखने के लिए मेरे सामने खड़ी रहे। मुझे अब तक इसकी हरी साड़ी याद आती है।’ हरी साड़ी में लिपटी शांता की मधुर छवि मुक्तिबोध के मन में हिलोरने लगती, जब शांता उनके सामने नहीं होती।
शांता की सुश्रुषा से मुक्तिबोध स्वस्थ हुए। उनकी बीमारी के समय की तरह अब वह दिन-भर आँखों के सामने नहीं होती। बीच-बीच में आती है। मुक्तिबोध भी अब कॉलेज जाने लगे। वीरेंद्र और माचवे से भी मुलाकातें होने लगीं। लेकिन जब भी वह एकांत में होते, उनका हृदय शांता को पुकार उठता। मन व्याकुल होने लगता, जैसे पीड़ा की कोई मीठी-सी लहर उमड़ रही हो। शांता जब आती तो लहर शांत पड़ जाती। हृदय अव्यक्त उमंग में तरंगित हो उठता। उन्हें लगता, शांता इसी तरह सामने मुस्कुराती खड़ी रहे। कल्पना में भी मुक्तिबोध उसकी छवि एकटक निहारने लगते।
शांताबाई को भी नहीं मालूम था कि आखिरकार मुक्तिबोध में ऐसा क्या है जो उन्हें खींच रहा था। जब भी आमने-सामने होते वे दोनों एक-दूसरे को भरपूर निगाह से देखते। जब मुक्तिबोध एकटक शांता को देखते हुए कुछ असहज हो उठते तो नज़रें नीची कर लेते। वह थोड़े शर्मीले थे। स्त्रियों के संपर्क में आने पर अक्सर असहज हो उठते थे। मगर नज़रें नीची करने के बाद मन न मानता तो कनखियों से शांता को देखते। वह महसूस करते शांता की नज़रें उन पर टिकी हैं। उन नज़रों में झाँकते अनुराग को वह भीतर तक महसूस करते। थोड़ी देर इस तरह बीत जाने के बाद शांता चली जाती। अपने घर में भी शांता अवसर की ताक में रहती। जब भी मुमकिन होता, दौड़कर मुक्तिबोध के पास आत्याबाई के घर चली आती थी। वह मुक्तिबोध से मिलने पर कभी असहज नहीं हुई।
शांता का ख़्याल आता तो मुक्तिबोध सोचने लगते—’मैं बहुत शरमानेवाला आदमी हूँ । मैं स्त्रियों से बहुत कम मिलता हूँ, मानो वहॉं मेरे लिए कुछ ख़तरा हो।’ अनजान स्त्रियों का सान्निध्य होने पर मुक्तिबोध अक्सर कतराते होते और अपने भीतर कहीं सिमट जाया करते। वह याद करने लगे। पहली बार जब शांता को उन्होंने देखा था, तो उनका हृदय धड़कने लगा था। बाद में जब भी वह आती, मुक्तिबोध के भीतर किंचित पुलक की तरंग लहराने लगती। वह शांता के आने पर पहले की तरह अब संकुचित नहीं होते। कुछ दिनों बाद तो वह शांता के साथ वह बाहर भी जाने लगे। अब कोई दुराव या संकोच नहीं रह गया था। लेकिन अपने शर्मीले स्वभाव और शांता के साहस के बारे में सोचने पर उन्हें लगता था कि ‘यह स्त्री मुझसे अधिक चतुर और निडर थी। मुझसे इसने कबसे बोलना शुरू कर दिया, मुझे मालूम नहीं। मैं इसके साथ झेंपता हुआ बाज़ार जाया करता था, वह गर्दन नीची किए। न मालूम कहाँ-कहाँ की गप्पें सुनाया करती, मेरे साथ चलते हुए।’ मुक्तिबोध चुप्पी साधे बगल में होते। उनसे कुछ बोलते न बनता।
शांता से मुक्तिबोध प्रायः नित्य ही मिलते थे। मुक्तिबोध अपने कॉलेज के बारे में या मित्रों के बारे में बताया करते, या कभी-कभी अपनी कविताओं की चर्चा करते। शांता को कविताओं की बातें क्या समझ आतीं, मगर मगन हो कर वह उनकी बातें सुनती। जब बोलना शुरू करती तो लगातार बोलती रहती। उसकी बातें जीवन के सहज दैनंदिन अनुभवों से जुड़ी होतीं। उन बातों में रुचि न होने पर भी मुक्तिबोध शांत भाव से उन्हें सुनते।
मिलन की अकुलाहट
नवंबर 1936 में मुक्तिबोध कुछ दिनों के लिए उज्जैन लौटे। उनका मन उज्जैन के मित्रों से मिलने के लिये व्याकुल हो रहा था। मगर दूसरी तरफ़ शांता से दूर जाने का ख़्याल कर वे विचलित भी थे। शांता ने जब उनके उज्जैन जाने के बारे में सुना तो उसकी भी यही दशा थी। अल्पकाल के लिये ही सही, मगर दोनों एक-दूसरे से बिछुड़ना बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। मन दोनों का व्याकुल था। लेकिन माँ ने बुलाया था। उज्जैन के मित्रों का पुराना संग-साथ भी पुकार रहा था। मुक्तिबोध उज्जैन जाने के लिये स्टेशन पहुँचे तो देखा शांता अपने भाई के साथ उन्हें विदा करने के लिये वहाँ मौजूद थी। शांता को देख कर उन्हें प्रसन्नता हुई। जब गाड़ी चलने लगी तो उन्होंने देखा, शांता की आँखों में जल उमड़ आया था। स्वयं उनके हृदय में पीड़ा की एक लकीर गुज़रने लगी।
उज्जैन में माता-पिता और छोटे भाइयों को देख कर मुक्तिबोध को बहुत अच्छा लगा। शांताराम और अन्य मित्रों से भी भेंट हुई। शांताराम के साथ शाम-रात की यायावरी का टूटा हुआ सिलसिला फिर शुरू हुआ। उज्जैन में परिवार और मित्रों के बीच मुक्तिबोध का समय पहले की तरह गुज़रने लगा। लेकिन शांता की बेतरह याद आती थी। मन बार-बार इंदौर की दिशा में भाग रहा था। घर पर अकेले होते तो शांता का ख़याल उन्हें घेर लेता। इंदौर स्टेशन पर उन्हें पहुँचाने आयी शांता का चेहरा आँखों में घूमता रहता। आख़िर कुछ दिन उज्जैन में बिताने के बाद वह इंदौर लौट गये।
शांता मिली तो पहले का क्रम फिर चलने लगा। कॉलेज जाना, शाम की घुमक्कड़ी, वीरेंद्र और माचवे के साथ बौद्धिक चर्चाओं, काव्य रचना और अध्ययन-पठन में अगले कुछ महीने किस तरह गुज़र गये, पता ही न चला। परीक्षा का समय नज़दीक आ गया। मुक्तिबोध पढ़ाई में जुट गये।
परीक्षा समाप्त हो जाने के बाद 1937 की गर्मियों में मुक्तिबोध उज्जैन लौटे। शांताराम के साथ घुमक्कड़ी और पढ़ने-लिखने में मन लगाने की कोशिश करते। लेकिन मन तो शांता में अटका हुआ था। उसकी याद मुक्तिबोध को बरबस खींच लेती। किसी काम में मन नहीं लगता था। शांता के प्रति अनुराग तीव्र हो उठा था। इंदौर से लौटे अभी कुछ ही दिन हुए थे। मगर इंदौर वापस जाने की इच्छा मन में अकुलाने लगी। उनका ह्रदय शांता को पुकार रहा था।
दीवानगी का आलम
एक शाम मुक्तिबोध घर से निकले। फ्रीगंज में शांताराम मिले। शांता की यादों में बेचैन मुक्तिबोध को शाम की तफ़रीह भी नहीं सुहाती थी। वह व्याकुल थे। जैसे कोई सनक सवार हो, और ख़ुद पर क़ाबू न रह गया हो, अचानक ही उन्होंने शांताराम से कहा—’इंदौर जाना है। तुम भी चलो।’ शांताराम ने पूछा—’कब?’ शांताराम को अप्रत्याशित उत्तर मिला—’अभी। शाम की गाड़ी से चलेंगे।’ अपने साथ इंदौर चलने के लिए इतने आकस्मिक तरीक़े से मुक्तिबोध ने कहा कि एकबारगी शांताराम चौंक गये। कहा—’लेकिन अभी चलेंगे तो देर रात पहुँचेंगे।’ ‘हाँ, लेकिन पहुँच तो जायेंगे’—शांताराम के प्रश्न का मुक्तिबोध के पास दो-टूक जवाब था। शांताराम भी मनमौजी क़िस्म के थे। आगे उन्होंने कुछ नहीं पूछा। यह भी नहीं पूछा कि रात को इंदौर जाने का मकसद क्या है। बेखटके हामी भर दी—’ठीक है, चलो।’ मुक्तिबोध पर शांताराम को पूरा विश्वास था।
तुरंत दोनों स्टेशन की ओर रवाना हो गये। घर मे भी किसी को बताया नहीं। स्टेशन पहुँचते तक अँधेरा घिर आया था। स्टेशन पर टिकट ख़रीदने के लिये जेब टटोली तो पता चला कि जेब ख़ाली है। उन्हें इस बात का ख़याल ही न रहा कि रेल में सफ़र करने के लिए टिकट खरीदना पड़ता है। वह तो इंदौर जाने और शांता से भेंट होने की मधुर कल्पना में खोए हुए थे। प्रेम की स्मृतियों में लीन उनका बावला हृदय दुनियादारी से ग़ाफ़िल था। शांताराम के पास भी पैसे नहीं थे। प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ी खड़ी थी। गाड़ी खुलने का समय हो चुका था। इससे पहले कि शांताराम पैसों की व्यवस्था के बारे में कुछ कहते, मुक्तिबोध ने बाँह पकड़कर उन्हें खींचा और प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी रेलगाड़ी की तरफ़ बढ़ गये। मुक्तिबोध ने फ़ैसला कर लिया। उन्होंने दुस्साहस का परिचय दिया। दोनों बिना टिकट उसमें सवार हो गए। गाड़ी सीटी देकर बढ़ चली थी। बिना टिकट यात्रा, ऊपर से दोनों की जेब मे फूटी कौड़ी नहीं। शांताराम घबराये। फिर इस यात्रा का मक़सद तक उन्हें पता न था, न मुक्तिबोध ने कुछ बताया। वह तो अनजानी धुन में सवार थे। टीटी के आने की आशंका में शांताराम सोचने लगे कि सचमुच अगर वह आ गया तो क्या बहाना करेंगे। पालिया स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो आशंका सच साबित हुई। टीटी डिब्बे में आ गया। टीटी संयोगवश महाराष्ट्रीयन मालूम पड़ता था। उसकी ज़बान में मराठी का असर बिल्कुल साफ़ महसूस होता था। सो, पक्का यक़ीन हुआ कि वह मराठीभाषी है। उसके सामने दोनों ने मराठी में बहाना लगाया कि हमारा एक साथी पानी पीने उतरा था, गाड़ी चल पड़ी, वह दूसरे डिब्बे में होगा। टिकट उसी के पास है। लेकिन टीटी होशियार था। वह सब कुछ समझ गया। दोनों नौजवानों के अनाड़ीपन और मासूमियत ने अपने आप सचाई बयान कर दी थी। वह इसलिए हँसता रहा, दूसरी बातें करने लगा। शायद मराठीभाषी होने के कारण या फिर झूठ बोलने में नाकामी और अकुशलता और पकड़े जाने की लाचारी में छिपी निरीहता के चलते टीटी ने मुस्कुरा कर उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया।
आधी रात गुज़र रही थी तब गाड़ी इंदौर पहुँची। अब समस्या थी, बिना टिकट प्लेटफ़ॉर्म से निकल कर गेट से बाहर कैसे जाएँ। पकड़े गये तो जुर्माना भरना पड़ेगा, जबकि जेब बिल्कुल ख़ाली थी। पकड़े जाने पर घर में ख़बर पहुँच गई तो और मुश्किल। बिना बताये जो आये थे। सोच-विचार कर इसका हल भी निकाल लिया गया। दोनों प्लेटफ़ॉर्म के छोर तक पहुँच गये। वहाँ एक सँकरा रास्ता था जिससे एक-एक कर वे निकले और स्टेशन के बाहर आ गये। खुली हवा में दोनों ने चैन की साँस ली।
शांताराम अपने मित्र का साथ दे रहे थे। मित्रता में भरोसा ऐसा था कि भय और आशंका में हुई इस दुस्साहसिक यात्रा की मंज़िल तक पहुँचने पर भी शांताराम ने इंदौर आने का कारण नहीं पूछा। अब मुक्तिबोध ने शांताराम को बताया कि हमें मनुबाई के यहाँ इस तरक़ीब से पहुँचना है कि बुआजी को भनक तक न लगे। दोनों पैदल ही स्टेशन से एम. टी.अस्पताल की ओर लंबी डग भरते हुए तेज़ी के साथ चल पड़े। चोर की तरह छिपकर रात के साढ़े बारह बजे मनुबाई के यहाँ पहुँचे। दरवाज़ा खटखटा कर मनुबाई को जगाया। माँ-बेटी दोनों बाहर आयीं। आधी रात को इस तरह चोरी-छिपे आने से दोनों हैरान थीं।
शांताराम ने ग़ौर किया कि मनुबाई मुक्तिबोध के इस तरह आने से ख़ुश नहीं थीं, लेकिन कुछ बोली नहीं। मुक्तिबोध के सामने वह निरीह मालूम पड़ती थीं। कुछ बोल नहीं पाती थीं। मुक्तिबोध ने आते ही मनुबाई को चेता दिया कि इस बारे में वह बुआ जी को कुछ न बताएँ। उन्होंने हामी भरी। लेकिन आशंका और किंचित भय की धुँध उनके चेहरे पर तैरने लगी थी। शांताराम को उनकी स्थिति कुछ अच्छी नहीं जान पड़ी। मनुबाई को अनुमान हो गया कि शांताराम मुक्तिबोध के गहरे भरोसेमंद मित्र हैं। इसलिये शांताराम के प्रति आश्वस्त होकर वह बोलीं, ‘देखो भाई, यह मानते नहीं हैं। ताई (मुक्तिबोध की माताजी) सुनेंगी तो क्या कहेंगी।’ मनुबाई घबरायी हुई थीं। उन्हें मुक्तिबोध और अपनी बेटी शांताबाई के रिश्तों को लेकर आपत्ति नहीं थी। लेकिन वह जानती थीं कि इस रिश्ते को न आत्याबाई स्वीकार करेंगी, न ही मुक्तिबोध की माताजी। मनुबाई अपनी हैसियत को ध्यान में रख कर ही आशंकित थीं।
मुक्तिबोध ने अपने प्रेम-प्रसंग के विषय में शांताराम को पहले कुछ नहीं बताया था, न शांताराम को कुछ अनुमान हुआ। मनुबाई की बातों को सुनकर जब उन्हें इस बारे में जानकारी हुई तो वह हैरान हुए। थोड़ी देर में मनुबाई भीतर चली गयीं।
वहाँ शांता के साथ मुक्तिबोध कुछ देर तक बातें करते रहे। शांताराम चुपचाप वह सब देख रहे थे, मगर कुछ पूछा नहीं कि माजरा क्या है। उन्हें अब समझ में आया था। कुछ देर बाद मुक्तिबोध ने कहा कि हम घूमने चलते हैं। शांताराम तुम भी साथ चलो। तीनों चलने लगे। रास्ते में शांताराम को एक जगह बैठा कर वे दोनों बिस्को पार्क की ओर निकल गए। शांताराम रात के उस सन्नाटे में अकेले चुपचाप बैठे रहे। शांता के प्रति मुक्तिबोध की दीवानगी से वह अचंभित थे। बिस्को पार्क की ओर से वे दोनों घंटे भर बाद वापस आए। मुक्तिबोध को लग रहा था, रात इसी तरह आसमान में टँगी रहे। मगर शांताराम को सुबह की प्रतीक्षा थी।
सुबह होते ही मुक्तिबोध पहली गाड़ी से उज्जैन लौट जाना चाहते थे। देर होने पर बुआजी को जानकारी होने का डर था। अब समस्या यह थी कि जेब में पैसे न थे। सुबह सात बजे मनुबाई ने अपनी बचत के पैसे टिकट के लिये दिये। दोनों स्टेशन पहुँचे और उज्जैन के लिए रवाना हुए। रास्ते में मुक्तिबोध ने शांताराम को अपने प्रेम-प्रसंग का खुलासा किया और सारी दास्तान सुनाई कि वह एक बार बीमार हो गए थे और शांता ने उनकी बहुत सेवा की थी, कि वह उससे बहुत प्रभावित हैं और उससे अलग रहने पर मिलने की चाह बनी रहती है। यह सब बताते हुए मुक्तिबोध का मुखमण्डल दमक रहा था। उस पर यात्रा और रात-भर के जागरण का कोई आभास नहीं था। शांताराम की पलकें भारी होने लगी थीं। वह कुछ देर बाद गाड़ी की सीट पर पसर गये। उनकी नींद उज्जैन आने पर ही खुली। मगर मुक्तिबोध स्वप्न में खोए हुए थे। उनकी आँखों में न नींद थी, न थकान।
सुबह नौ बजे के क़रीब दोनों उज्जैन पहुँचे। मुक्तिबोध प्रसन्न थे। उन्हें यह चिंता नहीं थी कि घर पहुँच कर जब माताजी हमारे रात-भर ग़ायब रहने का कारण पूछेंगी, तो क्या जवाब देंगे। वह इसकी ज़िम्मेदारी शांताराम पर छोड़ चुके थे। शांताराम के ऊपर माँ का बहुत विश्वास था। घर में शांताराम ने बढ़िया-सा बहाना पेश कर दिया। माँ को ज़रा भी संदेह नहीं हुआ। मुक्तिबोध भी बच गए।
शांताराम ने मुक्तिबोध के प्रेम-प्रसंग को गंभीरता से नहीं लिया था। उसे वह लड़कपन के कौतुक की तरह मान रहे थे। उज्जैन के किसी भी मित्र से उसकी चर्चा नहीं की। मुक्तिबोध की माताजी से वह बहुत हिले-मिले थे। उनसे भी इस बारे में कुछ न कहा। एक दिन मुक्तिबोध ने शांताराम को शांता के साथ खिंचवाया हुआ एक फ़ोटो दिखाया। वह बहुत खूबसूरत था। शांताराम का ध्यान फ़ोटो में शांताबाई की चप्पल की ओर गया। वह एक जगह से उखड़ा हुआ था और फ़ोटो में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। फ़ोटो देख कर और मुक्तिबोध की मनोदशा पढ़ कर शांताराम को यक़ीन हुआ कि शांताबाई के प्रति मुक्तिबोध कितने संजीदा और समर्पित हैं, और प्रेम उनके लिये कौतुक-भर नहीं है।
अपने प्रेम-प्रसंग के बारे में शांताराम को मुक्तिबोध ने सीधे-सीधे कभी नहीं बताया था। इंदौर की दुस्साहसिक यात्रा के बाद उन्हें अपने आप पता चला था। लेकिन इंदौर में अपने सहपाठी विलायती राम से उसकी चर्चा की थी, कि वह लड़की किस क़दर उन्हें प्यार करती है। मुक्तिबोध ने बताया कि शांता दीवानगी की हद तक उन पर अनुरक्त है। वह दरवाज़े पर नमक से अल्पना बना कर वह जूनूनी ढंग से अपने प्यार को प्रकट करती है।
इम्तिहान में नाकाम
बी.ए. के इम्तिहान का नतीजा आया। लेकिन मुक्तिबोध पास न हो सके थे। वीरेंद्र बम्बई में थे। वह पास हो गये थे। शरच्चंद्र से उनका संपर्क बना हुआ था। दोनों में ख़तो-किताबत चल रही थी। उसी से उन्हें मुक्तिबोध के पास न हो पाने की ख़बर मिली। वीरेंद्र का ख़याल था कि उन दिनों मुक्तिबोध का ‘प्रणय-पर्व पराकाष्ठा पर चल रहा था और वह पढ़ाई नहीं कर सके थे।’ इम्तिहान में नाकामी की ख़बर खंडवा में प्रभागचंद्र शर्मा को मिली तो वह दुःखी हुए। पत्र लिख कर मुक्तिबोध को ढाढस बँधाया। लिखा कि ‘अब अच्छी तैयारी करो और इस बार डिवीज़न लो।’
पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ने में जी न लगने का कारण शांता के ख़यालों में उनका डूबे रहना था। इससे उबर पाते, उसके पहले ही इम्तिहान सिर पर आ गये थे। इम्तिहान के दिनों में मुक्तिबोध रात में किताबें खोल कर बैठते, फिर थोड़ी देर में ऊँघने लगते और गहरी नींद में डूब जाते। नित्य ही बड़ी भोर शांता उठती और उन्हें जगाने के लिये बाहर से आवाज़ देती—’बाबू साहब, उठिए, इम्तिहान के लिए जाना है।’ मुक्तिबोध जाग पड़ते और तैयार होकर इम्तिहान के लिये कॉलेज चल देते।
गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने पर मुक्तिबोध उज्जैन से इंदौर लौट गये। परीक्षा में विफलता से वह निराश थे। मगर शांता के सान्निध्य ने उन्हें बड़ी राहत दी। वीरेंद्र बी. ए. पास करने के बाद अपनी ननिहाल बंबई में रुक गये। अब मुक्तिबोध अपने घनिष्ठ मित्र के संग-साथ से वंचित हुए। अगले सत्र की परीक्षा के लिये तैयारी का संकल्प ले कर वह दुबारा जुट गये। कुछ समय तक इस संकल्प की याद रही। लेकिन पढ़ाई का ख़याल धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ने लगा। रोमांस और कविता उनकी प्राथमिकताओं में थे। कहानी भी संग-साथ चल रही थी।
जय प्रकाश
23 दिसंबर 1959 को राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में जन्म। बी.एससी., एम. ए., पीएच.डी. तक शिक्षा। साहित्य-संस्कृति से संबंधित विभिन्न विषयों पर विगत चार दशकों से लेखन। हिंदी की अनेक महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित। दो पुस्तकें ‘कहानी की उपस्थिति’ और ‘लोक का अंतःसंसार’ प्रकाशित। ‘कथादेश’ नई दिल्ली में हिंदी कहानी पर एकाग्र स्तंभ साहित्य जगत में चर्चित रहा। छत्तीसगढ़ी लोक-संस्कृति पर एकाग्र पत्रिका ‘लोक मड़ई’ के लिए छत्तीसगढ़ की लुप्तप्राय लोकगाथा ‘दसमत कैना’ और ‘कुँवर अछरिया’ पर एकाग्र अंकों सहित छह अंकों का संपादन। छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य गम्मत पर केंद्रित पत्रिका ‘गम्मत’ का संकलन एवं संपादन। मुक्तिबोध सम्मान (2010) और अखिल भारतीय वनमाली कथा-आलोचना सम्मान (2017) से सम्मानित। रज़ा फाउंडेशन फ़ेलोशिप के अंतर्गत हिंदी के मूर्द्धन्य साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की विस्तृत जीवनी ‘मैं अधूरी दीर्घ कविता’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। वर्तमान में शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, दुर्ग, छत्तीसगढ़ में अध्यापन।
कर्मचारी नगर सोसायटी के पास, ए-63 के पीछे, सिकोला भाठा, दुर्ग (छत्तीसगढ़), 491001
फोन : 9981064205
ई-मेल jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
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मुक्तिबोध का प्रेम प्रसंग इतने रोचक ढंग से सामने आना बहुत ही पुलक से भर देता है। बहुत ही रोचक प्रसंग है। साथ ही वीरेंद्र कुमार जैन के साथ उनके संबंध और कविता को लेकर बातचीत आज की पीढ़ी को सोचने के लिए वय्थित करती है कि आज हमारे पास इस तरह चर्चा कर सकते के लिए कोई मित्र नहीं।
वीरेंद्रजी और मुक्तिबोध के जीवन के अछूते संस्मरण। एक रईस, रंगमिजाज़ तो दूसरा शहर कोतवाल का सरल, फक्कड़ , बेतरतीब बेटा! जिसकी अर्थपूर्ण पंक्तियाँ मन में बैठ गईं – ’वर्ग-विभाजित समाज में व्यक्ति का मन भी विभाजित होता है, चाहे वह इसे स्वीकार करे, चाहे न करे। मन के इस विभाजन के रूप अनेक हो सकते हैं। वे प्रच्छन्न भी रह सकते हैं ।’