-वैभव सिंह

गैब्रियल गार्सिया मार्खेज कोलंबिया के नोबल पुरस्कार प्राप्त लेखक थे जिनका विगत 17 अप्रैल 2014 निधन हो गया। स्पेनी भाषा में लिखने वाले मार्खेज के लेखन को जादुई यथार्थवाद के नाम से जाना जाता है पर जादुई शब्द का अर्थ यह नहीं है कि वह सचमुच किसी भ्रमजाल को खड़ा करते थे जैसा कि जादू शब्द से ध्वनित होता है। या वह जादू के नाम पर कौतुकपूर्ण गतिविधियों व क्षणिक मनोरंजन का सहारा लेते थे। इसका अर्थ यह था कि वह वास्तविकता को परिचित कराने के लिए यानी सत्य पर छाए भ्रमजाल को छिन्नभिन्न करने के लिए अपने देश के लोकविश्वासों, अतिकथनों और जन मान्यताओं का प्रयोग करते थे। इसमें समय की एकरेखीय नहीं बल्कि चक्रीय प्रवृत्ति, घटनाओं का सृजनात्मक दोहराव, चरित्रों की हैरतअंगेज समानता या पहेलीनुमा वर्णनों का उपयोग करके भी जटिल यथार्थ को अभिव्यक्त किया जाता है। उनके लेखन को यथार्थवाद की अन्य श्रेणियों जैसे आलोचनात्मक यथार्थवाद, समाजवादी यथार्थवाद या आंचलिक यथार्थवाद के माध्यम से नहीं समझा जा सकता था और इसीलिए उसे जादुई यथार्थवाद के नाम से संबोधित किया गया। जादुई यथार्थवाद की अवधारणा में जादुई से ज्यादा यथार्थवाद शब्द पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता रहती है। लैटिन अमेरिकी देशों में तानाशाहों की सत्ता, ड्रग माफियाओं के अपराधों, बड़ी कंपनियों की लूटपाट और बर्बर नरसंहारों की सामाजिक दशा के बीच इस शैली के यथार्थवाद ने वास्तविकता का अधिक सफल संप्रेषण करने में सफलता प्राप्त की है। इस जादुई यथार्थवाद में पाठक की चेतना मिथकों, मौखिक परंपरा से आई कथाओं और अतिलौकिक चित्रण के माध्यम से यथार्थ की विषमता को ग्रहण करती है। इसे अभिव्यक्ति की देसी और मौलिक शैली के रूप में देखा जाता है और पाश्चात्य शैलियों के अनुकरण के विरोध की तरह भी पहचाना जाता है। मार्खेज के उपन्यासों में जिस प्रकार से चरित्रों के जीवन में अनगिनत गृहयुद्धों, सामाजिक हिंसा के अनुभव उपस्थित हैं, वह यह अहसास दिलाते हैं कि किस प्रकार कोलंबिया जैसे देश में मनुष्यता के लिए कठिनाइयों का अंबार लगा दिया जाता है और आम इंसान समाज के शक्तिशाली वर्गों के हाथ का खिलौना बना रहता है। कोलंबिया में तानाशाहों ने बर्बर हिंसा के माध्यम से लोगों की अभिव्यक्ति को बाधित कर रखा था और अभिव्यक्ति की नई शैलियां ईजाद करना अनिवार्य हो गया था। ऐसे ही दौर में मार्खेज ने लेखन व यथार्थवाद की मौलिक शैलियों का प्रयोग कर कोलंबिया के वास्तविक हालात से लोगों को अवगत कराया।
उनका जन्म 6 मार्च 1927 को हुआ था। कोलंबिया में कैरेबियन तट पर बसे छोटे से गांव अराकतका में हुआ था जहां उनके पिता टेलीग्राफ आपरेटर की नौकरी करने आए थे। वहीं उनके पिता ने एक स्थानीय अभिजात परिवार की लड़की से प्रेम विवाह किया पर लड़की के परिवार को यह विवाह नापसंद होने के कारण उन्हें उस गांव को छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा। लेकिन मार्खेज के जीवन के आरंभिक वर्ष अराकतका में ही बीते और उनके नाना कर्नल निकोलस मार्खेज, जोकि सेना में कर्नल थे, वह उदारवादी विचारों के थे और उनका काफी सम्मान था। उन्होंने कोलंबिया में 1899 से 1902 के बीच चले ‘वार आफ थाउसेंड डेज’ के नाम से प्रसिद्ध रूढ़िवादियों व उदारपंथियों के बीच के लंबे युद्ध में हिस्सा लिया था जिस युद्ध ने कोलंबिया की अर्थव्यवस्था को लगभग कंगाल बना दिया था। मार्खेज के लेखन को समझने, उसकी पृष्ठभूमि से परिचित होने के लिए उनके ऊपर ननिहाल के इन प्रभावों का विश्लेषण करना अनिवार्य है क्योंकि अराकतका गांव, कोलंबिया में चले युद्ध और कर्नल के पद से सेवानिवृत्त हुए नाना से जुड़े किस्सों का उनके ऊपर गहरा असर बाद तक दिखता रहा। मार्खेज के जन्म के समय भी कोलंबिया में काफी राजनीतिक अस्थिरता थी। गृहयुद्ध की स्थितियां गंभीर हो चली थीं। केले व खनन व्यवसाय में मजदूरों की हड़तालें होने पर उन्हें बर्बरता से कुचला जाता था और सैकड़ों जानें चली जाती थीं। इन सब घटनाओं का, जिसे मार्खेज को अन्य लोगों से सुनने का मौका मिलता था, उनके मन पर गहरा असर पड़ता था। उनके उपन्यासों जैसे ‘वन हंड्रेड इयर्स आफ सालिट्यूड’, ‘लव इन द टाइम आफ कालरा’ या ‘नो वन राइट्स टू कर्नल’ में इन सभी घटनाओं की साफ अनुगूंज मौजूद है।
अपने आरंभिक वर्ष अराकता में व्यतीत करने के बाद मार्खेज ने अपनी पढ़ाई कोलंबिया की राजधानी बगोटा के पास बसे एक संस्थान में की। लगभग 20 वर्ष के आसपास उन्होंने लघु कहानियां लिखना आरंभ कर दीं और उनकी कहानियों पर फ्रांजा काफ्का, विलियम फाकनर और अर्नेस्ट हैमिंग्वे की छायाएं दिखती थीं। 1948 में कोलंबिया एक बार फिर तब गृहयुद्ध में फंस गया जब वहां राष्ट्रपति पद के वामपंथी उम्मीदवार जार्ज गैटेन की हत्या करा दी गई। इसके बाद दक्षिणपंथियों व वाम-उदारपंथियों के बीच खूनी संघर्ष हुआ और उसे ‘द वायलेंस’ का नाम से पुकारा गया। इसमें तीन लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इन घटनाओं के प्रतिबिंब भी उनके सर्वाधिक चर्चित उपन्यासों पर नजर आ जाता है।
मार्खेज ने कानून की पढ़ाई को चुना था पर लेखकीय अंतःवृत्तियों ने शीघ्र ही उन्हें पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया। कोलंबिया के प्रसिद्ध पत्र ‘अल हेराल्डो’ में उन्होंने चार वर्ष तक स्तंभ लेखन का कार्य किया और बाद में एक पत्र के संवाददाता की हैसियत से यूरोप चले गए और जिनेवा, रोम और पेरिस में रहे। यूरोप प्रवास के दौरान ही उन्हें स्वयं के भीतर एक लैटिन अमेरिकन लेखक की उपस्थिति का अधिक तीव्र बोध भी हुआ। प्रवासी दिनों ने उन्हें अपने देश की संस्कृति व सामाजिक स्थितियों का अधिक गहरा अहसास दिलाया। पेरिस में बसे अर्जिटिना, मैक्सिको, ग्वाटेमाला, बोलविया या ब्राजील के लोगों से उनका अधिक गहरा भावनात्मक संबंध भी स्थापित हुआ। पेरिस में उन्हें काफी आर्थिक संघर्षों का सामना भी करना पड़ा पर वहीं रहते हुए उन्होंने अपना उपन्यास ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ भी लिखा जो 1961 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में भी लैटिन अमेरिकी अस्मिता बनाम यूरोपीय अस्मिता का द्वंद्व दिखता है और एक स्थान पर घटनाओं का वर्णनकर्ता (नैरेटर) कहता है- ‘यूरोपीय जन के लिए दक्षिण अमेरिका के लोग मूंछ वाले, गिटार बजाने वाले और बंदूक लेकर चलने वाले लोगों से अधिक कुछ नहीं..वे असल समस्याओं को समझ ही नहीं सकते हैं।’
1959 में ऐतिहासिक क्यूबा क्रांति ने, जिसमें फिदेल कास्त्रो ने तानाशाह जनरल बतिस्ता का तख्तापलट दिया, अन्य लेखकों-बुद्धिजीवियों की तरह मार्खेज की मस्तिष्क पर भी सकारात्मक प्रभाव डाला। उसके बाद कुछ समय तक उन्होंने कोलंबिया में रहकर क्यूबा समाचार एजेंसी के लिए काम किया लेकिन जल्द ही उससे भी मुक्त होकर अमेरिका के दक्षिणी हिस्से की लंबी यात्रा पर निकल गए। माना जाता है कि वह अमेरिकी लेखक विलियम फाकनर से बेहद प्रभावित थे और अमेरिका के उन हिस्सों को स्वयं भी देखना चाहते थे जिसने फाकनर की संवेदनाओं को समृद्ध किया था। इसके बाद लंबे समय तक वह मैक्सिको सिटी में ही बस गए और फिल्मों के लिए पटकथाएं लिखीं। मैक्सिको सिटी में ही अपने स्टूडियो में डेढ़ साल के एकांतवास में उन्होंने रोजाना 8-10 घंटे तक काम कर अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ पूरा किया जिसने उन्हें संसार के चोटी के लेखकों में स्थान दिलाया। यह उपन्यास 1967 में अर्जंटिना में प्रकाशित हुआ और उसके बारे में माना गया कि गुस्ताव फ्लाबेयर के ‘मादाम बावरी’ के बाद यह दूसरा ऐसा उपन्यास था जिसने प्रकाशन के तत्काल बाद व्यापक लोकप्रियता अर्जित कर ली और साढ़े तीन साल में इसकी 5 लाख प्रतियां बिक गईं। लेखक के तौर पर अपनी व्यापक ख्याति व सम्मान के बीच मार्खेज ने अपने वामपंथी विचारों के लिए कभी समझौता नहीं किया। बर्सिलोना (स्पेन) में रहकर उन्होंने वाम पत्रिका ‘अलटरनेटिवा’ की स्थापना और संपादन किया। 1975 में उनका उपन्यास ‘द आटम आफ द पैट्रियार्क’ का प्रकाशन हुआ जो स्पेन के लोगों के भयंकर शोषण तथा वेनेजुअला में तानाशाह के जीवन को सामने रखकर लिखा गया था। लैटिन अमेरिका में उपन्यास की खास शैली प्रचलित है जिसे ‘डिक्टेटरशिप नावेल’ के नाम से पहचाना जाता है और मार्खेज का यह उपन्यास उसी परंपरा के अनुकूल था और उसे समृद्ध करता था।
1973 में चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे की हत्या कर अगस्ट पिनोशे ने दक्षिणपंथी सरकार की स्थापना कर दी और इस घटना ने मार्खेज की संवेदनशील चेतना को झकझोर कर रख दिया। इसके बाद उन्होंने यह शपथ ली की जब तक चिली में तानाशाह की सत्ता रहेगी, वे लेखन नहीं करेंगे। पर बाद में उन्होंने अनुभव किया कि लिखकर ही वह सबसे सार्थक विरोध कर सकते हैं। लोकतंत्र के हत्यारों के लिए अपनी कलम को नहीं छोड़ा जा सकता है। इसलिए उन्होंने अपनी शपथ को तोड़ दिया और 1981 में उनका एक अन्य प्रसिद्ध उपन्यास ‘क्रानिकल्स आफ ए डेथ फोरटोल्ड’ प्रकाशित हुआ। इसके बाद अगले ही साल यानी 1982 में उन्हें साहित्य का सर्वोच्च सम्मान नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ और उन्होंने अपने भाषण में लैटिन अमेरिकी जनों के दुःसह और त्रासद एकांत की चर्चा की जो अस्तव्यस्त सामाजिक जीवन के बीच जन्म लेता है।
मार्खेज ने जब लिखना आरंभ किया उस समय भी 1910 से 1950 के मध्य लैटिन अमेरिका के अधिकांश लेखक अपने गल्प के लिए यथार्थवादी शैली का ही अनुकरण करते थे। वे समस्याओं का सीधा चित्रण करने, गद्य शैली की सरलता तथा सामाजिक समस्याओं की निंदा करते हुए लिखने का प्रयास करते थे। उनके लेखन में स्वप्नदर्शिता, अतिलौकिकता, प्रहसन या दुविधा-द्वंद्व जैसे रचनात्मक तत्वों का अभाव देखा जाता था और एक ठोस तथ्यात्मकता का प्रभाव रहता था। इस तरह के लेखन में ऐसी धारा भी थी जो लैटिन अमेरिकी समाज की संस्कृति पर विशेष बल देती थी और यथार्थवाद के साथ क्षेत्रीय संस्कृति या कहें कि आंचलिकता को जोड़ने की पक्षधर थी। इस श्रेणी के लेखन ने मार्खेज या जादुई यथार्थवाद के अन्य लेखकों के विकास में गहरा योगदान भी दिया। मार्खेज को आधुनिकतावाद के विशाल आंदोलन का अंग भी माना जाता है। ऐसे सभी लेखकों को साहित्य में आधुनिकतावादी कहने का चलन रहा है जिन्होंने पांरपरिक शैली, भाषा व परंपरा से भिन्न साहित्य में नए प्रयोग किए और यूरोप से जब यह शब्द बाहर निकला तो उसने लैटिन अमेरिका और एशियाई लेखकों को भी अपने भीतर शामिल कर लिया। पर यूरोपीय लेखकों से भिन्न, जोकि महायुद्धों से उपजी पीड़ा और त्रासदी बोध के कारण विखंडित और मोहभंग से ग्रस्त चरित्रों, मनोविश्लेषणों तथा तनावग्रस्त कथानकों को गढ़ रहे थे, मार्खेज जैसे लेखकों की अपने ही परिवेश से टक्कर थी। यह परिवेश लैटिन अमेरिकी देशों का था जिन्होंने पहले स्पेन और बाद में अमेरिका के बड़े हस्तक्षेप के कारण हमेशा ही राजनीतिक व्यवस्था अस्थिर बनी रहती थी। मार्खेज पर यूरोपीय लेखकों से ज्यादा बोर्गेस, कारपेंटियर या अस्तूरियास जैसे लेखकों का ज्यादा प्रभाव दिखता है।
मार्खेज की कृतियों में ‘एकांत के सौ वर्ष’ को उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति माना जाता है जिसमें उनके लेखन को गहराई और परिपक्वता, दोनों प्राप्त होती दिखी। जादुई यथार्थवाद जैसी अवधारणा के लिए इसी उपन्यास को सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है। इस उपन्यास से पहले उनके लीफ स्टार्म (1955), न वन राइट्स टू कर्नल (1961), बिग मामा फ्यूनरल (1961) और इन इविल आवर (1962) जैसे उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे।
‘एकांत के सौ वर्ष‘ में कर्नल औरिलिएनो ब्योंडिया और काल्पनिक मोकोंदो नामक गांव का जिक्र है। कर्नल और उसकी वंश परंपरा के माध्यम से पूरे उपन्यास में कथानक की रचना की गई है। ढेर सारे मिलते जुलते नामों और चरित्रों की भारी भीड़ के कारण लोगों को उपन्यास बोझिल भी लगा पर बोझिलता के आरोप को झेलकर भी यह उपन्यास विश्वप्रसिद्ध अमर कृतियों में शुमार किया गया। इसमें 1820 से लेकर 1927 तक के कालखंड का चित्रण है और इस प्रकार लगभग 100 साल की परिस्थितियों का वर्णन है जिसमें पीढ़ी दर पीढी लोग खास तरह के एकांत के शिकार हैं। इस कई पीढ़ियों वाले परिवार में सगे संबंधियों के मध्य विवाह तथा प्रेम संबंधों की भरमार है और अंधविश्वास भी है कि इस परिवार का अंतिम वंशज सुअर की पूछ के साथ पैदा होगा और उसी के साथ पूरा वंश समाप्त हो जाएगा। एक कूट भाषा में लिखा वंश-पत्र यानी पर्चामेंट (perchment) भी है जिसके डिकोड होने के साथ ही वंश की समाप्ति होनी है। उपन्यास के अधिकांश पात्र भीषण एकांत के शिकार हैं और इसका एक कारण यह भी है कि वे किसी से प्रेम करने में अक्षम साबित होते हैं। वे प्रेमहीन विवाह संबंधों को निभाते हैं या फिर विवाह की संस्था के बाहर ही रहने के लिए स्वयं को विवश पाते हैं। मोकोंदो नामक पूरा गांव शेष जनजीवन व समाज के कटा व अलग थलग बसा हुआ दिखाया जाता है। उपन्यास के पृष्ठभूमि में कोलंबिया के हिंसक गृहयुद्धों का भी वर्णन है जिसमें ढेरों लड़ाइयां लोकतांत्रिक-उदारवादियों और दक्षिणपंथियों के मध्य जोरदार तरीके से लड़ी गईं। उपन्यास का मुख्य पात्र कर्नल ब्योंदियो भी उदारपंथी समुदाय की ओर से इन लड़ाइयों में शामिल रहा लेकिन उसे सारी ही लड़ाइयों में पराजय का सामना करते दिखाया गया है। मार्खेज के उपन्यासों और कथाओं की सर्वाधिक ध्यानाकर्षक बात यह भी है कि वह कठोर इरादों और दृढ़ इच्छाशक्ति वाली स्त्रियों को चित्रित करते हैं। उनके स्त्री पात्र पुरुषों की तुलना में अधिक व्यवहारिक होते हैं और विपरीत स्थितियों में असहायता का प्रदर्शन नहीं करते हैं। इस उपन्यास में भी ऐसे ही कई स्त्री पात्र उपस्थित हैं। कहानियों की बात करें तो ‘ट्यूजडे सिएस्ता’ (Tuesday Siesta) जैसी कहानियां भी उन्होंने लिखी हैं जिसमें एक चोर की मां अपने बेटे की मृत्यु के बाद उसके कस्बे में आती है जहां हर कोई चोर से नफरत करता है। वह पादरी से कब्रिस्तान की चाबी लेती है, बेटे की कब्र पर फूल चढ़ाती है और बड़े आत्मसम्मान के साथ वापस चली जाती है। एक सार्वजनिक घृणा के शिकार चोर की मां का यह स्वाभिमानी और हिम्मती चरित्र निश्चित ही पाठकों की स्मृति में भीतर तक अटक जाता है।
मार्खेज का एक अन्य उपन्यास ‘लव इन द टाइम आफ कालरा’ वर्ष 1985 में प्रकाशित हुआ था। मार्खेज के आलोचकों का मत है कि यदि ‘एकांत के सौ वर्ष’ को नोबल पुरस्कार न मिलता तो इस उपन्यास को तो अवश्य ही यह पुरस्कार मिल जाता। इस उपन्यास में पहले के उपन्यासों जैसी जादुई यथार्थवादी शैली के ढांचे को उपन्यासकार ने नहीं अपनाया बल्कि एकरेखीय व ठोस घटनाओं का उन्होंने सहारा लिया है। उपन्यास खास तरह के त्रिकोणीय प्रेम संबंधों को चित्रित करता है। इसमें फ्लोरेंटिनो नाम अठारह साल का युवक फर्मीना नामक 13 साल की लड़की को प्रेम पत्र लिखता है। लड़की का पिता इस संबंध के खिलाफ है और वह युवक की गरीबी से भी घृणा करता है। युवक अपनी मां की अवैध संतान होने के कारण भी लोगों की उपेक्षा का शिकार होता है। उधर लड़की भी युवक से चार साल तक लगातार प्रेम पत्रों के आदान प्रदान के बाद घोषणा कर देती है कि वह उससे प्रेम नहीं करती है। लड़की कालरा की महामारी का शिकार होती है और जो डाक्टर उसका इलाज करने आता है, वह उससे प्रेम करने लगता है। लड़की के पिता को यह संबंध पसंद आता है और दोनों का विवाह कर देते हैं। उधर युवक फ्लोरंटिनो को अपनी पारिवारिक स्थिति पर क्रोध आता है जिसके कारण उसका विवाह न हो सका और वह सफल व्यक्ति बनने का संकल्प ले लेता है। वह लड़की कई वर्षों तक ऊबा हुआ सुखी वैवाहिक जीवन बिताती है पर उसका डाक्टर पति एक अश्वेत स्त्री के इश्क में पड़ जाता है तो वह दो साल के लिए उसे छोड़कर चली जाती है। डाक्टर की मृत्यु के बाद वह घर लौटती है तो वहां उससे वही युवक मिलने आता है जिससे वह किशोरावस्था में प्रेम पत्र का आदान प्रदान करती थी। अब वह 72 साल की है और वह युवक 77 साल का हो चुका है। एक बार फिर वही युवक फ्लोरेंटिनो उसे पत्र लिखना आरंभ कर देता है और 72 साल की फर्मीना को महसूस होता है कि प्रेम करने के लिए कभी कोई उम्र नहीं होती। उसकी अपनी बेटी उसे समझाने की चेष्टा करती है कि इस आयु में प्रेम करना सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं है। परिवार की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचेगा और लोग अपमानजनक प्रपंच करेंगे। पर वह बड़े संकल्पपूर्ण स्वर में कहती है- They can all go to hell. उपन्यास का कथानक सीधी रेखा में नहीं चलता है बल्कि फ्लैक बैक, छलांग लगाती घटनाओं और कथासूत्रों की नाटकीय आवृत्तियों के रूप में सामने आता है। यह उपन्यास प्रेम संबंधों पर तो आधारित है पर प्रेमियों का किसी भी प्रकार से आदर्श चरित्र नहीं प्रस्तुत करता है। नायिका किसी अन्य से विवाह कर वर्षों तक अपने पहले प्रेमी को भूली रहती है। समाज के ऊंचे वर्गों के अनुकूल जीवन जीने का प्रयास करती है। प्रेमी भी अव्वल दर्जे का अय्याश और सुखोपभोगी दिखाया गया है। वह अपनी काम वासनाओं की पूर्ति तथा अकेलेपन से बचने के लिए करीब 600 वेश्याओं तथा विवाहित स्त्रियों के साथ संसर्ग करते दिखाया गया है। एक 14 साल की रक्त संबंध वाली लड़की के साथ संबंध रखता है और एक विवाहित स्त्री की तो उसके कारण जान भी चली जाती है। शारीरिक संबंधों के दौरान वह उसके शरीर पर कुछ अश्लील बातें लिख देता है और वह स्त्री जब बाद में पति के सामने कपड़े उतारती है तो पति उन चीजों को पढ़कर क्रोध में उसकी हत्या कर देता है। गरीबी और अमीरी के विषय को भी उपन्यास में प्रेमियों के दो भिन्न वर्गों के रूप में दिखाया गया है। उपन्यास में कालरा को कोलंबिया की आंतरिक अस्थिरता तथा निरंतर बने रहने वाले हिंसा की अवस्था के रूप में दिखाया गया है और कालरा की महामारी किसी अपशकुन की भी प्रतीक है। पर फिर भी उनके पूर्व के उपन्यास की तुलना में यह कृति अधिक आशावादी संकेतों के साथ समाप्त होती है। अंत में दोनों वृद्ध प्रेमी एक नदी में लंबी यात्रा पर जाते दिखाए जाते है। पूरे उपन्यास में प्रेम की विषयवस्तु केंद्र में है और मानवता को विभिन्न संकटों से बचाने के लिए प्रेम के मार्ग को ग्रहण करने के संदेश को प्रदान करती है।
मार्खेज का एक अन्य प्रसिद्ध उपन्यास है ‘क्रानिकल्स आफ ए डेथ फोरटोल्ड’ (1981)। यह उपन्यास उन्होंने कई साल पहले वास्तव में घटित हुए एक हत्याकांड के आधार पर लिखा था। उपन्यास आरंभ ही होता है इस सूचना के साथ कि मुख्य औपन्यासिक पात्र सैंटियागो नासर शीघ्र की मार दिया जाएगा। जिस कस्बे की कथा है वहां हर कोई जानता है कि यह हत्या होनी है पर केवल सैंटियागो ही इससे बेखबर है। असली कथा यह है कि दो भाई अपनी बहन का विवाह एक संपन्न व प्रतिष्ठित इंसान से कर देते हैं। लेकिन जिससे विवाह करते हैं, वह अपनी पत्नी को विवाह के पाँच घंटे के बाद ही वापस घर भेज देता है। वह आरोप लगाता है कि उसकी पत्नी अक्षतयोनि यानी कुंवारी नहीं है। दोनों आपस में प्रेम नहीं करते थे और आदमी केवल इसलिए विवाह करता है ताकि वह अपनी संपत्ति का प्रदर्शन कर सके और किसी सौंदर्यवान युवती से विवाह का अपना सपना पूरा कर सके। विवाह के पाँच घंटे के बाद जब युवती घर लौटती है तो उसकी मां घंटो उसे पीटती रहती है और अंत में उससे उगलवा लेती है कि किसके साथ उसने संभोग किया था। उस व्यक्ति का नाम सैंटियागो है और युवती के दोनों जुड़वा भाई अपनी इज्जत के लिए उसकी हत्या करने के लिए योजना बनाने लगते हैं। उपन्यास के अंतिम अध्याय में वह उसकी हत्या करते दिखाए भी जाते हैं। पर बीच में यह भी घटित होता है कि 17 साल बाद वही युवती उसी को पसंद करने लगती है जिससे विवाह होता है और जिसने विवाह के बाद उसे कुंवारी न होने के आरोप में घर से निकाल दिया था। यह उपन्यास पत्रकारिता, जासूस रोमांच कथा और यथार्थवाद के रोचक मिश्रण के रूप में देखा गया था।
उनका एक अन्य आरंभिक उपन्यास ‘नो वन राइट्स टू कर्नल’ भी बेहद संवेदनशील कथानक को निर्मित करता है। इसमें फौज में रह चुके कर्नल की आर्थिक दुरावस्था का चित्रण है जो अपनी पत्नी के साथ अकेला रहता है। उसका इकलौता बेटा गृहयुद्ध में मारा जा चुका है। कर्नल लंबे समय से एक पत्र की प्रतीक्षा कर रहा है और हर रविवार को पोस्ट आफिस जाकर अपने पत्र के बारे में पता करता है। जब पोस्टमास्टर उसे बताता है कि कोई चिट्ठी नहीं आई है तो वह बुड़बुड़ाते हुए कहता है- नो वन राइट्स टू कर्नल। वह दरअसल अपनी पेंशन की चिट्ठी का इंतजार कर रहा है लेकिन देश में मार्शल ला लगे होने के कारण दफ्तरों में सरकारी कामकाज अलग ही तरीके से चल रहा है। कर्नल और उसकी पत्नी की आर्थिक स्थिति काफी बुरी है। कर्नल को लगातार बुखार रहता है जबकि उसकी पत्नी अस्थमा की मरीज है। भुखमरी से बचने के लिए कर्नल की पत्नी घर की पुरानी चीजें बेचने लग जाती है जो उस छोटे से कस्बे में बड़ी मुश्किल से बिकती हैं। पूरा उपन्यास गृहयुद्ध व मार्शल ला के बीच फंसे देश में एक कर्नल दंपति के माध्यम से यथार्थ के सबसे कुरूप पक्षों को चित्रण करता है।
मार्खेज का लेखन केवल उनकी कल्पनाओं या फैंटेसी का लेखन नहीं है बल्कि पूरी बीसवीं सदी में कोलंबिया जैसे बिखरे, टूटे और गरीबी से त्रस्त देश की चेतना को व्यक्त करने वाला लेखन है। उनके पात्रों का अकेलापन और संघर्ष आंतरिक युद्धों के बीच गुजर रहे सामान्य नागरिक की स्थिति का सूचक है। ये सामान्य लोग राजनीतिक कलह में पिस रहे हैं और शीतयुद्ध के सबसे भयंकर दुष्परिणामों को झेल रहे हैं। उस समय सेना के जनरल, राजनेता और संघर्षशील योद्धा ही सामाजिक जीवन में प्रमुख थे और मार्खेज इन्हें कथापात्र बनाते हुए भी हिंसाग्रस्त देश की ही विडंबना का उदघाटन करते हैं। उनकी कथाओं में स्वप्नदर्शी और यथार्थवादी पात्रों का बड़ा कोलाज भी मौजूद है जो कथाओं में उत्सुकता को बढ़ाता है। उनके पात्रों के नाम कई बार वास्तविक घटनाओं से जुड़े होते हैं और पत्रकारिता व औपन्यासिकता को वह सफलतापूर्वक जोड़ते हैं। मार्खेज को पढ़ना केवल कोलंबिया के उपन्यासकार को पढ़ना नहीं बल्कि ऐसे रचनाकार को भी पढ़ना है जिसकी कृतियों में सार्वजनीनता और साझी मनुष्यता की चिंताएं भी मौजूद हैं।


वैभव सिंह
जन्म- उन्नाव, उत्तरप्रदेश
शिक्षा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई के बाद पीएचडी तक की शिक्षा जेएनयू, नई दिल्ली से।

प्रमुख कृतियाँ-
इतिहास और राष्ट्रवाद
भारतीय उपन्यास और आधुनिकता शताब्दी का प्रतिपक्ष
भारतः एक आत्मसंघर्ष
कहानी- विचारधारा और यथार्थ, रवीन्द्रनाथ टैगोर: उपन्यास, स्त्री और नवजागरण। जवाकुसुम (कहानी संग्रह)
इसके अतिरिक्त टेरी ईगलटन की पुस्तक का अनुवाद ‘मार्क्सवाद और साहित्यालोचन’ तथा पवन वर्मा की पुस्तक का अनुवाद ‘भारतीयता की ओर’ के नाम से किया। कुछ पुस्तकों का संपादन- अरुण कमलः सृजनात्मकता के आयाम, दिव्या- एक पुनर्पाठ, रवींद्रनाथ टैगोर के निबंधों का संचयन। एक उपन्यास भी शीघ्र प्रकाश्य।
सम्मान- देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथालोचना सम्मान
कार्यक्षेत्र- विभिन्न मीडिया-संस्थानों से जुड़ाव तथा विभिन्न प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन।


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