चौरी चौरा
विद्रोह और स्वाधीनता संग्राम

-सुभाष चन्द्र कुशवाहा

(प्रस्तुत आलेख मेरी पुस्तक-‘चौरी चौराःविद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन’ से लिया गया है, जो पेंग्विन बुक्स इंडिया प्रा. लि. से प्रकाशित हुई है। पूरी पुस्तक को मुख्यतः ब्रिटिशकालीन मूल दस्तावेजों के आधार पर तैयार किया है और ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता काल के सबसे महत्वपूर्ण विद्रोह का गहन विश्लेषण करते हुए, पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन और उसके नेतृत्वकारी ताकतों के वर्गचरित्र को विस्तार से पाठकों के सम्मुख रखा गया है)

इतिहास की कुछ तारीखें, जन आक्रोश का शैलाब बनती हैं और मजबूत से मजबूत गढ़ों को न केवल नेस्तनाबूद करती हैं, अपितु छद्म क्रांतियों का पर्दाफाश भी करती हैं। चार फरवरी, 1922, चौरी चौरा विद्रोह की तारीख कुछ ऐसे ही अमिट पन्नों को इतिहास में दर्ज करती है जिसे ‘चौरी चौरा का अपराध’ या ‘गुंडों का कृत्य’ करार देने से मिटाया नहीं जा सकता। चौरी चौरा कांड, तत्कालीन जागीरों के जुल्म और उनको संरक्षण देने वाली ब्रिटिश सत्ता की कहानी तो कहता ही है, असहयोग आंदोलन की दिशा और दशा पर सवालिया निशान भी लगाता है। जमींदारों, ताल्लुकदारों के सहारे चलाई जा रही जुल्मी शासन के प्रतिकार में जब जनता अपने तरीकों से आंदोलन की दिशा तय करने निकली तो उसे अपराधी या असामाजिक तत्व कह कर, किनारे लगाने की कोशिश किया गया।
जब प्रथम विश्वयुद्ध के बाद प्लेग, अकाल, बाढ़ से तबाह जनता कराह रही थी, तब ‘युद्ध कर’ अदा करने की वकालत राष्ट्रवादियों द्वारा की जा रही थी। जन आक्रोश की सघनता का मूल्यांकन किए बिना अहिंसा को हथियार बना कर शुरू किये गये असहयोग आंदोलन को जनता ने अपने तौर-तरीकों से बंबई से रंगून तक, लाहौर से मद्रास तक हिंसक स्वरूप में अपनाया। अहिंसा के बनिस्बत हिंसा का जन प्रयोग देख गांधीजी को 8 फरवरी, 1922 को असहयोग आंदोलन की पुनः शुरूआत को तीसरी भूल बताना पड़ा। उनके अनुसार पहली भूल अप्रैल 1919 में मद्रास का हिंसक विद्रोह था तो दूसरा, नवम्बर 1921 में बंबई की।
चौरी-चौरा का विद्रोह, देशव्यापी किसान विद्रोहों की श्रृंखला की एक कड़ी के बजाय, इतिहास की संकीर्ण मनोवृत्तियों का शिकार होकर, लम्बे समय तक आपराधिक कृत्य के रूप में जाना, समझा गया। देश के लिये अपना घर-बार, जवानी, बीवी-बच्चों का त्याग, फांसी के फंदे, कालेपानी की सजा और प्रांत के तमाम जेलों में सड़-गल जाने के बावजूद, अनपढ़, गंवार, अस्पृश्य समझे जाने वाले किसानों का बलिदान, बलिदान न समझा गया। अमूमन इस विद्रोह का संबंध, दो से तीन हजार की उग्र भीड़ द्वारा थाने को घेर कर, 23 पुलिस कर्मियों को जला देने मात्र से जोड़ा जाता रहा और इस कांड के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार, क्रूर उप निरीक्षक गुप्तेश्वर सिंह को तत्कालीन ‘द लीडर’ जैसा अंग्रेज परस्त समाचार पत्र ‘गोरखपुर का नायक’ घोषित करता रहा। उसके वैश्यगोत्र की कुलीनता का बखान कर, हाशिये के समाज को घृणित समझते हुये, उपनिरीक्षक के उस आपराधिक कृत्य के खिलाफ एक शब्द नहीं लिखा, जो चौरा के पास के जमींदार संत बख्श सिंह के मुण्डेरा बाजार में, 1 फरवरी, 1922 को भगवान अहीर जैसे क्रांतिकारी की चमड़ी उधेड़ने में किया गया था। 4 फरवरी, 1922 को किसानों के जलूस पर लाठियां बरसाने और जनता द्वारा ईंट-पत्थरों से जवाब देने पर गोली चलाने का कृत्य भी निंदनीय न रहा। यह और बात है कि जनता के साहस के सामने बीस चक्र गोलियां चला पाने का साहस खोकर, उसके दल-बल को 20-25 मिनट की गोलीबारी के बाद, भाग कर थाने में शरण लेनी पड़ी और उग्र भीड़ द्वारा मिट्टी का तेल छिड़कर जला देना सुगम जान पड़ा। उसके तुरंत बाद एक बार फिर गांधीजी, राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन को स्थगित करते हैं और थाना जलाने की निंदा करते हुये प्रायश्चित स्वरूप पांच दिनों के उपवास पर चले जाते हैं।
अजीब बिडम्बना है कि गांव के सपूतों का निःस्वार्थ विद्रोह, जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा पूर्वांचल में चलाये गये दमन चक्र को विगत कई दशकों से बर्दास्त किया था, जिन्होंने कोड़े, बेंतों की मार और गालियों को सहा था, अंग्रेजों के पिट्ठू जमींदारों के जबरिया लगानों को भूख-अकाल की विभीषिका के बावजूद, अपने कलपते बच्चों की अनदेखी कर चुकाया था, उनकी प्रतिक्रिया, गुंडों की प्रतिक्रिया कही गई।
तत्कालीन क्रांतिकारियों ने चौरी चौरा विद्रोहियों की पीड़ा को समझा था। वे कतई उनके संघर्ष को कमतर नहीं मान रहे थे। तभी तो देश के बाहर जहां एम.एन. राय ने इसकी तीखी निंदा की वहीं सुभाष चन्द्र बोस ने चौरी चौरा कांड के पश्चाताप के नाम पर असहयोग आंदोलन वापस लेने पर लिखा-‘जब जनता का जोश उबल रहा था तब पीछे हटने का बिगुल बजा देना, राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी दुर्घटना है।’ असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा सुन, जेल में बंद देशबंधु चितरंजन दास की आंखें क्रोध से लाल हो चुकी थीं। नेहरू ने जेल में लिखा-‘चौरी चौरा कांड के बाद आंदोलन के मुल्तवी कर दिये जाने से गांधीजी को छोड़कर कांग्रेस के बाकी तमाम नेताओं में बहुत नाराजगी थी।’
यह साहस और शोध का विषय होना चाहिये था कि गांव के सबसे निचले पायदान के लोग, जिनमें अधिकांश दलित और अल्पसंख्यक थे, जो गांव में चौकीदार के आ जाने पर दरवाजा बंद कर लेते थे, वे एकाएक ऐसी स्थिति में कैसे पहुंच गये कि थाना और वहां तैनात सिपाहियों को फूंक दिये? चौरी चौरा का थाना फूंका जाना कोई सामान्य घटना नहीं थी। इसने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य को हिला दिया था। लंदन ‘हाउस आफ कॉमन’ में चौरी चौरा का कांड, फ्रांसिसी क्रांति की शुरूआत सदृश्य समझा गया। फ्रांस की राजशाही के अत्याचार से उबी जनता ने 14 जुलाई, 1789 को बेस्टाइल दुर्ग पर, जहां गोला-बारूद रखा हुआ था, कब्जा जमा लिया था। घंटों लड़ाई के बाद गवर्नर मर्किस बर्नार्ड डे लोने का सिर काट लिया गया था। चौरी चौरा कांड के बाद ब्रिटश सरकार को लगने लगा था कि अब भारत की जनता उसी रास्ते पर बढ़ रही है और यहां अब बहुत समय तक टिक पाना संभव न होगा लेकिन असहयोग आंदोलन को वापस लेते ही एक नौकरशाह ने कहा था- ‘धन्यवाद प्रभु, अब हम सुरक्षित हैं।’
चौरी चौरा की घटना, अकेली घटना न थी जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया हो। 17 नवम्बर, 1921 को जब ब्र्रिटिश युवराज बुंबई पधारे, बीस हजार की भीड़ हिंसा पर उतर आई थी। तब भी सरकार ने गोली चलाई थी जिसमें 45 असहयोग आंदोलनकारी सहित कुल 53 लोग मारे गये थे और 400 के लगभग घायल हुये थे। गांधी जी ने तब भी इस घटना की निंदा की थी, उपवास पर चले गये थे और 23 नवम्बर को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। चौरी चौरा कांड के अगले ही दिन 5 फरवरी, 1922 को बरेली में 5000 की भीड़ ने टाउन हाल को घेर लिया था। भीड़ द्वारा चौरा थाने पर अपनाई गई नीति के अनुसार ही ईंट और कंकड़ों की बरसात की गई थी जिससे कलक्टर और पुलिस अधीक्षक घायल हो गये थे। वहां भी पुलिस ने गोली चलाई थी। चौरी चौरा की तरह सरकारी सूचना के अनुसार वहां भी दो लोग मारे गये थे लेकिन गैर सरकारी सूचनाओं के अनुसार मारे गये लोगों की संख्या, दोनों ही जगहों पर इससे कहीं ज्यादा थी।
चौरी चौरा की गरीब जनता ने, साम्राज्यवादियों द्वारा जुल्म की इंतहा करने पर, खिलाफत और असहयोग आंदोलन के अंदर एकजुट हो, विरोध का स्वर बुलंद किया था। उनका विद्रोह गुंडों का नहीं, आजादी की आकांक्षा का विद्रोह था। तभी तो विद्रोह की रात, चौरी चौरा रेलवे स्टेशन और डाकघर पर तिरंगा फहरा कर कुछ समय के लिये ही सही, चौरी चौरा को आजाद करा लिया गया था। ब्रिटिश सेना को पहुंचने से रोकने के लिये न केवल रेलवे पटरी और टेलीग्राफ तार को काटा गया अपितु पूरी तैयारी के साथ चालीस किलोमीटर दूर तक के स्वयंसेवकों को बुला कर, सुनियोजित नीति से साम्राज्यवाद को चुनौती दी गई थी। इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व डुमरी खुर्द निवासी नजर अली, चौरा निवासी लाल मुहम्मद, भगवान अहीर, राजधानी चुड़िहार टोले का अब्दुल्ला ने किया था। खेद का विषय यह है कि आज भी चौरी चौरा के शहीद परिवारों को जिन्हें 1972 में जाकर स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा मिला था, दाने-दाने को मोहताज हैं। 1983 में जब उन्हें पेंशन देने का निर्णय लिया गया तब तक अधिकांश के वारिसों की मृत्यु हो चुकी थी।
लोक ने इस विद्रोह का, बड़ा ही मार्मिक वर्णन, लोकगीतों में किया है। यहां कुछ गीतों को दिया जा रहा है।

दिहले अगिया हो लगाय, जरि गइले गोरवा,
चौदह अंगरेज जरि तेजले परनवा,
थाना से फरार भइले हिन्द के जवनवा,
दिहले पापी लालच हो धराय, मरी गइले गोरवा।

1931 में बुलंदशहर निवासी पी.एस. वर्मा ने आल्हा लिखा –
दोहा-
गोरखपुर में सुना, चौरी चौरा ग्राम।
बिगड़ी पब्लिक एक दम, रोकि न सके लगाम।

आल्हा

भड़के लोग गांव के सारे,
दई थाने में आग लगाय।
काट गिराया थानेदार को,
गई खबर हिन्द में छाय।
अनुमान लगाया कुछ लोगों ने,
अग्नि कहीं भड़क न जाए,
खबर सुनी जब गांधी जी ने,
दहशत गई बदन में छाय।
फैली अशांति कुछ भारत में,
आंदोलन को दिया थमाय।
सोचा कुछ हो शायद उनसे,
गलती गए यहां पर खाय।
मौका मिली फेरि गोरों को
दीनी यहां फूट कराय।
मची फूट फेरि भारत में,
रक्षा करें भगवती माय।
खूब लड़ाया हम दोनों को,
मतलब अपना लिया बनाय
बने खूब हम पागल कैसे
जरा सोचना दिल में भाय।

विद्रोह का केन्द्र, डुमरी खुर्द गांव में मुहर्रम के अवसर पर गाए जाने वाले जारी गीत-
1
सन रहले बाइस अंगरेज के जमनवा, भारत मोरे रोवे अंसुवन धरवा हो ना
गांव मोरे डुमरी, जिला गोरखपुरवा, दोनों पड़े यू.पी. के दरमियनवा हो ना
डुमरी ही गऊंवा में सभवा बनवले, सभा बनि भइले तइयरवा हो ना
लइनिया उजारि-उजारि फेंक दिहले, काटि दिहले टेलीफोन तरवा हो ना
ड्रमवा के ड्रम तेल ले के चलि भइले, जाई पहुंचे थानवा समनवा हो ना
तेलवा छिरकि-छिरकि अगिया लगवले, भइले खूब तंग दुशमनवा हो ना
दुई ललनवा के फांसी दियवले उहो रहले डुमरी के ललनवा हो ना

2

गांधी बाबा आंधी उठवले, देश में मचल सोरवा
बिकरम, नजर झंडा उठवले घूमले चहूं ओरवा
गउंवा-गउंवा वोटियर बनवले मांगी के चुटिकिया
गउंवा-गउंवा चिट्ठी भेजवले, डुमरी में सभा होई
डुमरी से जब सभा उठल जाइ चौरा तैयार भइल
टंकी-टंकी तेल मंगा के चौरा के फुंकवा दिहले
फूंक-ताप के कोयला कइले ले भड़गां धमसा दिहले
अइलन कंपू हरि ले गइले सून मोर कइले देशवा
जिन-जिन गइले बहुरि ना अइले कइसन होला देसवा
ल हो अम्मा लोटा डोरी खोजन जइबू बचवा।
(वोटियर-वालंटियर्स, भड़गां-लाठी या लबदा, कंपूः ब्रिटिश सेना, कैम्प में रहने वाली ब्रिटिश सेना के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है )

चौरी चौरा विद्रोह का क्रांतिकारी मूल्यांकन करने में जब देश का अभिजात्य वर्ग संकोच और सतर्कता बरत रहा था तब सेशन कोर्ट, गोरखपुर द्वारा 9 जनवरी, 1923 को 172 किसानों को फांसी की सजा सुना देने पर दुनिया भर में उबाल आया हुआ था। विद्रोहियों के पक्ष में बहुत कुछ कहा और उनके बचाव के लिए किया जा रहा था। वैसे समय में आजादी के संघर्ष का चोला पहनी हुई देशी शक्तियां, मूक-बधिर बनी रहीं। विदेशी धरती से, महान वामपंथी क्रांतिकारी एम.एन.रॉय से लेकर ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ तक ने आवाज उठाई पर भारत भूमि पर कोई भूचाल नहीं आया। इतिहासकारों ने कभी इस सामाजशास्त्र पर विचार नहीं किया कि फटेहाल गरीब किसान, जिनमें से अधिकांश बेहद भूखे और मजबूर थे, वे किस प्रकार की गुंडई करने चौरा थाना गए थे? आखिर गुंडई करने का उद्देश्य क्या था? क्या वे अपने निजी स्वार्थ के लिए गुंडई कर रहे थे या जुल्मी शासकों को सबक सिखाने के लिए हिंसक हो गये थे? दरोगा को मारना, पीटना या थाना जलाना ही उनका उद्देश्य था तो उनका जलूस चौरा थाने के द्वार से आगे, चौरा बाजार की ओर क्यों निकल गया था? उन्हें तो थाने पर पहुंचते ही थाने को घेर लेना चाहिए था या उस रणनीति पर कार्य करना चाहिए था, जिससे उनका मकसद, बिना गोली खाये आसानी से पूरा हो जाता? अगर उनकी योजना पूर्वनियोजित थी तो पहला आक्रमण उन्हीं की ओर से होना चाहिए था या आक्रमण की तैयारी पहले से की जानी चाहिए थी न कि थाने पर पहुंच कर मिट्टी का तेल, लाठी, लबदा, चैला, कोरो या खर का इन्तजाम करना चाहिए था। ऐसे सवालों का उत्तर इतिहासकारों के वर्गाधार पर निर्भर करेगा।
तत्कालीन हाईकोर्ट इलाहाबाद के न्यायाधीश की नजर में स्वयंसेवकों का जलूस पूर्व नियोजित और दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ता जमावड़ा था, जिसके पास लाठी जैसा ‘राष्ट्रीय हथियार’ था। चौरी चौरा विद्रोह पर ^Outlaws I Have Known And Other Reminiscences of an Indian Judge-Sir Theodore Piggott* पुस्तक लिखने वाले तत्कालीन न्यायाधीश ने इस तथ्य पर विचार ही नहीं किया कि डुमरी खुर्द से थाना चौरा की ओर बढ़ती भीड़ के पास पहले से उनका ‘राष्ट्रीय हथियार’ लाठी भी नहीं थी। इस तथ्य को चौरी चौरा के लाला हलवाई के बेटे हरिहर प्रसाद ने अभियोजन पक्ष की गवाही में स्वीकार किया था। जज भी इस तथ्य को जानते थे लेकिन उनका कहना था कि जलूस के आगे-पीछे या बीच में जो दस-बारह झंडे थे, वे डंडों में ही थे। वे डंडे वक्त-जरूरत, अस्त्र का काम करने के लिए पर्याप्त थे। बात कितनी हास्यास्पद है कि सशस्त्र पुलिस से निबटने के लिए पूर्व योजनाकारों ने झंडों के डंडों को पर्याप्त समझा था? ब्रिटिश विद्वानों और राष्ट्रीय नेतृत्वकारी शक्तियों ने इस तथ्य को क्यों नहीं स्वीकार किया कि भीड़ का हिंसक होना, परिस्थितिजन्य घटना थी जिसके लिए दरोगा गुप्तेश्वर सिंह जिम्मेदार था। जब किसानों के जीवन-मरण की स्थिति पैदा हो गई तब उन्होंने सोचा कि जब मरना ही है तो ऐसे आतताइयों को मार कर मरें। उपद्रव के पूर्व भीड़ निहत्थी थी। उपद्रव के समय उसके हाथों में जो डंडे आये, वे तत्काल जुटाये गए थे। थाने के अंदर बांस की बाड़ से बांस खींचा गया था। जलते थाने से कोरो खींचा गया था। जलौनी के लिए चीरी गई लकड़ी के चैलों का प्रयोग किया गया था और कुछ लबदों को पास के गांव से भीड़ ने जुटा लिया था। हाईकोर्ट जजों के शब्दों में ही कहें तो फेंकी जा रही असंख्य ‘मिसाइलें’ यानी कंकड़ों की बौछार तो थाने से सटे रेलवे लाइन की वजह से उपलब्ध हो गयी थीं, किसानों ने इनकी पूर्व व्यवस्था नहीं की थी। इस प्रकार हिंसा के लिए उत्प्रेरित करने का काम दरोगा का था, इसे जजों ने कुछ हद तक माना भी था। लेजिस्लेटिव एसेम्बली में के. अहमद ने 27 फरवरी, 1922 को कहा था कि दरोगा के पिछले व्यवहार (1 फरवरी, 1922 की मुण्डेरा बाजार की घटना) के कारण ही यह प्रकरण (4 फरवरी, 1922 का दंगा) पैदा हुआ।
चौरी चौरा की धरती जमींदारों के जुल्म से आक्रांत थी। चौरी चौरा क्षेत्र में जंगल, उपजाऊ जमीन, गन्ने की प्रचुर पैदावार, अरहर की बड़ी दाल मंडी और रेल आवागमन की सुविधा से भोपा, चौरा और मुण्डेरा जैसे विकसित बाजारों की अर्थव्यवस्था, जमींदारों के अनुकूल थी। जमींदारों को हर हाल में लगान और कर चाहिए था। जमींदारों के जुल्म से आजिज किसान पहले से ही विद्रोह पर उतारू थे। पुलिस की भूमिका जमींदारों के हितों का संरक्षण करना तथा उभरते स्वर को दबाना मात्र था। चौरी चौरा विद्रोह के पूर्व भी, जनवरी, 1922 में चौरा थाने के राम सरन सिपाही को भइसहां में किसानों का विरोध झेलना पड़ा था। ऐसे में चौरी चौरा किसान विद्रोह, गरीबों के जीवन-मरण के प्रश्न और अन्य किसी विकल्प के अभाव में घटित हुआ था।
लम्बे समय तक चौरी चौरा विद्रोहियों को गुण्डे, गंवार, जाहिल या चोर-उचक्के जैसे उपमाओं से नवाजा जाता रहा। बेशक चौरी चौरा क्षेत्र के गांव वालों को किसी क्रांतिकारी विचारधारा का पाठ नहीं पढ़ाया गया था और न वे सामान्य कांग्रेसी स्वयंसेवक होने के अलावा, किसी अन्य क्रांतिकारी विचारधारा से लैस थे, फिर भी उन्होंने जीवन-मरण के प्रश्न से जूझते हुए आगे बढ़ने का निर्णय लिया और उससे पूर्व सिर्फ अपने आत्मबल पर भरोसा किया था। रूसी क्रांति के बारे में उनके पास सुनी-सुनाई बातें थीं। उनका संपर्क किसी वामपंथी संगठन से नहीं था। राष्ट्रीय स्वयंसेवकों को सिखाई-बताईं गईं कुछ सामान्य बातें, जैसे धरना-प्रदर्शन के समय गेरुआ वस्त्र (एक प्रकार का लाल रंग का कपड़ा) पहनना, कवायद करना और सीटियों की ध्वनि का अनुसरण करना या चंदा-चुटकी, मुठिया या खलिहानी वसूलने के अलावा, ‘गांधी के स्वराज्य’ का मतलब अपना राज्य, जहां लगान नाममात्र का हो, जहां अपना थाना और अपना न्याय तंत्र हो, जैसी परिकल्पना मन में थी। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध या मजदूरी कर देश-विदेश से लौटे साथियों के संस्मरणों द्वारा ही विश्वस्तर पर घटित होने वाले कुछ विद्रोही स्वरों के समाजशास्त्र को अपने विवेक और मन से तपाया था। वे महात्मा गांधी के बारे में प्रचारित चमत्कारिक किस्से-कहानियों और मिथकों से अति उत्साहित थे परन्तु उन्होंने उन मिथकों के भावार्थ अपने संघर्षों के अनुरूप गढ़े थे। उन्होंने बिना ऊपरी नेतृत्व के निर्देश के, स्वराज्य पाने की अकुलाहट में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का सिद्धांत अपना लिया था। देशी जमींदारों के शोषण के कारण, उनके पास खोने के लिए कुछ बचा नहीं था। ऐसे में देश और समाज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने का माद्दा, उनका अंतिम विकल्प था। वे बेशक हिंसक विद्रोह को अंजाम देने के बाद, व्यापक औपनिवेशिक दमन से दबा दिए गए या डरा दिए गए लेकिन उन्होंने उसके बावजूद ब्रिटिश सत्ता को ऐसा डराया कि बड़े-बड़े सेनाधिकारियों और महामहिमों के सपने में चौरी चौरा का खौफ समाया रहता।

देश के इतिहासकारों और प्रबुद्धजनों के सामने चौरी चौरा विद्रोह एक प्रश्न चिह्न बन खड़ा है। 91 साल बाद भी आज देश की पीढ़ी को गलत इतिहास पढ़ाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा 1972 में छापी गई पुस्तक-‘स्वतंत्रता संग्राम में गोरखपुर-देवरिया का योगदान’ में भी गलत जानकारी उद्धृत है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर यही बताया गया है कि चौरी चौरा विद्रोह के विद्रोहियों की फांसी 2 जुलाई, 1923 को हुई जबकि हकीकत यह है कि इस कांड के जिन 19 लोगों को फांसी हुई, वह विभिन्न तिथियों में हुई जो 2 जुलाई, 1923 से प्रारम्भ होकर 11 जुलाई तक चली। दूसरी बात जिसने मुझे चिंता में डाला, वह यह कि आजाद भारत में आज भी चौरी चौरा ‘शहीद स्मारक’ कहने से स्पष्ट नहीं हो पाता कि इसका तात्पर्य थाने पर आक्रमण करने वाले स्वयंसेवकों के शहीद स्मारक से है या गोली चलाने वाले ब्रिटिश पुलिस के शहीद स्मारक से। दोनों के नाम एक ही हैं। दोनों पास-पास, एक रेलवे लाइन के उत्तर और दूसरा दक्षिण में स्थित हैं। ब्रिटिश पुलिस शहीद स्मारक पर बाकायदा ‘जय हिन्द’ लिखा हुआ है। इस स्मारक पर लिखे मृत सिपाहियों के नामों के क्रमांक 4 पर रघुबीर सिंह का नाम भी है। रघुबीर सिंह ने 22 सितम्बर, 1922 को सेशन कोर्ट, गोरखपुर में अपनी गवाही दर्ज कराई थी और बताया था कि वह 4 फरवरी, 1922 की दोपहर, निजी कार्य से मुण्डेरा बाजार गया था और जब थाने पर वापस आने लगा तो रास्ते में पता चला कि सारे सिपाही और चौकीदार जला दिए गए हैं। यह सुन वह हीरा लाल के बागीचे में जाकर छिप गया। रात के 10 बजे उप निरीक्षक लक्ष्मन सिंह ने उसे वहां से बाहर निकाला था।
स्वयंसेवकों के शहीद स्मारक के मुख्य द्वार पर एक बड़ा-सा काला ग्रेनाइट पत्थर लगा है जिस पर चौरी चौरा विद्रोह का संक्षिप्त मगर झूठा इतिहास दर्ज है। सबसे ऊपर लिखा है कि ‘1920 में गांधी जी ने गोरखपुर के बाले मैदान में एक विशाल जन-समूह को संबोधित किया था’ जबकि गांधी जी 8 फरवरी, 1921 को गोरखपुर पधारे थे। इतना ही नहीं, समाज का अभिजात्यवर्ग, इतिहास को किस तरह अपने स्वार्थ और महिमामंडन में मोड़ लेता है, इसका उदाहरण स्मारक पर खुदे पत्थर पर देखा जा सकता है। इस पत्थर पर लिखे इतिहास में डुमरी खुर्द गांव का नाम नहीं है, जहां से चौरी चौरा विद्रोह की सारी गतिविधियां संचालित हुईं। सारे ब्रिटिश अभिलेख, जिनमें से एक 956 पृष्ठों की गवाही को भी धता बताते हुए यहां दर्ज है कि-‘लोगों ने ब्रह्मपुर में स्थापित कांग्रेस कार्यालय से चौरा की ओर प्रस्थान किया। चौरी चौरा थाने के सामने पहले जत्थे के पहुंचते ही सिपाही, आर्म्ड गार्ड, घुड़सवार, चौकीदार उनके ऊपर टूट पड़े।’ यह पूरा कथन सफेद झूठ के सिवा कुछ नहीं है। यह सही है डुमरी खुर्द सभा में ब्रह्मपुर से भी कुछ स्वयंसेवक आए थे। डुमरी खुर्द से थाने की ओर प्रस्थान किए गए जलूस के हर पल का विवरण सारे ब्रिटिश अभिलेखों में मौजूद है और वहां यह भी मौजूद है कि ब्रह्मपुर के दूबे जमींदार की वजह से ही कई स्वयंसेवकों को अभियुक्त बनाया गया था। यह इतिहास की बिडंबना ही कही जायेगी कि सरकारी नियंत्रण में खुदे इस पत्थर पर दर्ज इतिहास का अतिक्रमण कर लिया गया है और डुमरी खुर्द गांव का नाम ही गायब कर दिया गया है जहां के मुसलमानों, चमारों, अहीरों सहित तमाम निम्न जातियों की अगुवाई में चौरी चौरा विद्रोह ने दुनिया में अपना नाम दर्ज कराया। यहां घुड़सवार पुलिस का भी अनावश्यक जिक्र है जबकि दरोगा गुप्तेश्वर सिंह के अलावा और किसी के पास घोड़ा था ही नहीं। दरोगा ने भी अपना घोड़ा, घोड़ावान को थमा रखा था। इसलिए इस स्मारक पर खुदे गलत इतिहास को दर्ज करने की जवाबदेही तय होनी चाहिए और हमेशा की तरह हाशिए के समाज के साथ गद्दारी करने वालों को क्षमा मांगनी चाहिए।

अमूमन इस विद्रोह का संबंध, उग्र भीड़ द्वारा थाने को घेर कर, 23 पुलिस कर्मियों को जला देने मात्र से जोड़ा जाता है जबकि मुण्डेरा बाजार जैसी घटना का उल्लेख कम होता है। किसानों पर किए गए अपराध की अनदेखी और उनकी प्रतिक्रिया का
अपराध समझने की प्रवृत्ति, जमींदारी और ताल्लुकदारी व्यवस्था की संस्कृति रही। इस कांड के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार, स्थानीय जमींदारों और उनका संरक्षक, क्रूर उप निरीक्षक गुप्तेश्वर सिंह, जो स्वयं आजमगढ़ के एक जमींदार खानदान का था, को ‘द लीडर’ जैसा अंग्रेज परस्त समाचार पत्र, ‘गोरखपुर का नायक’ घोषित करता रहा। अखबार ने उप निरीक्षक गुप्तेश्वर सिंह के उस आपराधिक कृत्य के खिलाफ एक शब्द भी नहीं लिखा जो उसने जमींदार के कारिंदों के उकसाने पर, मुण्डेरा बाजार में 1 फरवरी, 1922 को अकारण, भगवान अहीर की चार घंटे तक चमड़ी उधेड़ी। 4 फरवरी, 1922 को जब किसान, अपने साथी के अकारण पीटे जाने का कारण पूछने थाने पर गए तो वह उसे नागवार लगा और उसने किसानों के जलूस पर लाठी बरसाने के बाद, एकाएक गोली चलवाने का आदेश दे दिया था।

चौरी चौरा की गरीब जनता ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन के अंदर एकजुट हो, विरोध का स्वर बुलंद किया था। उनका विद्रोह गुंडों का नहीं, आजादी की आकांक्षा का विद्रोह था। ग्रामीण आबादी के सबसे नजदीक ब्रिटिश सत्ता के केन्द्र के रूप में थाना ही था जहां वे अपना विद्रोह जता सकते थे। 4 फरवरी, 1922 को उन्होंने उस सत्ता को न केवल चुनौती दी अपितु विद्रोह की रात, चौरी चौरा रेलवे स्टेशन और डाकघर पर तिरंगा फहरा कर, अपने संघर्ष का मकसद समाज के सामने रखा।

स्वयंसेवकों ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए इस विद्रोह को अंजाम देने के लिए एक हद तक रणनीति भी बना ली थी। 4 फरवरी की सभा को सफल बनाने के लिए मात्र दो दिन की तैयारी में 40 किलोमीटर की परिधि के लगभग 60 गांवों के स्वयंसेवकों को बुला कर एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत की थी। मुख्यालय का नेतृत्व न मिलने के बावजूद उन्होंने अपना नेतृत्व विकसित किया और उसके निर्देशों का पालन भी किया। उन्होंने रणनीति के अंतर्गत ही ब्रिटिश सेना और प्रशासन को घटना स्थल पर पहुंचने से रोकने के लिए रेलवे और तार लाइन को काट दिया।

असहयोग आंदोलन को तेज करने के लिए 8 फरवरी, 1921 को महात्मा गांधी का गोरखपुर आगमन हुआ था। चौरी चौरा विद्रोह का मुकदमा-‘अब्दुल्ला और अन्य बनाम एम्परर’ में उच्च न्यायालय इलाहाबाद के तत्कालीन जज सर थियोडोर पिगॉट ने अपनी पुस्तक में लिखा है -‘1921 के फरवरी महीने में महात्मा गांधी एक व्यक्तिगत दौरे पर गोरखपुर आये थे। स्पष्ट है कि वे अपने पीछे एक गहरी छाप छोड़ गए थे। हिन्दू किसानों ने उन्हें एक आदर्श ‘तपस्वी’ और ‘सन्यासी’ के रूप में भगवान का अवतार माना। उन्होंने (किसानों ने) पूरी ईमानदारी से अलौकिक शक्तियों को उनके (गांधी के) नाम के साथ जोड़ दिया। वह (गांधी जी) अपने साथ शीघ्र नये युग के सूत्रपात, ग्रामीण स्वर्णिम युग के शुभारम्भ का आश्वासन लेकर आये थे। उन्होंने अपने समर्थकों और असन्तुष्ट मुसलमानों में गठजोड़ स्थापित करने में कम से कम इस सीमा तक सफलता पाई कि विगत के दो भिन्न ‘खिलाफत वालंटियर्स’ और ‘कांग्रेसी वालंटियर्स’ के स्थान पर एकल संगठन, ‘नेशनल वालंटियर्स’ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक) की अवधारणा स्थापित हुई।’
गोरखपुर जनपद में स्वयंसेवकों की गतिविधियों के बारे में सर पिगॉट ने आगे लिखा है ,‘सत्ता द्वारा दमनकारी कार्यवाही किए जाने के पूर्व, ये स्वयंसेवक गोरखपुर के गांवों में विगत नौ माह से शांतिपूर्वक (चौरी चौरा विद्रोह के पूर्व) प्रभाव बनाये हुए थे। नवम्बर, 1921 के अंत में सरकार ने प्रांतीय गजट में एक अधिसूचना प्रकाशित की कि-1908 का कानून जो सरकार को सार्वजनिक सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए कुछ विशेष अधिकार देता है, के अंतर्गत ‘खिलाफत स्वयंसेवक’, ‘कांग्रेस स्वयंसेवक’ तथा ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक’ नाम के संघों को गैर कानूनी संघ घोषित किया जाता है। इस बात से कभी इन्कार नहीं किया गया कि तकनीकी तौर पर यह घोषणा, प्रांतीय सरकारों के अधिकार क्षेत्र में थी। राष्ट्रवादियों ने दावा किया कि 1908 के कानून के अंतर्गत विशेष अधिकार की व्यवस्था ऐसे संगठनों के विरूद्ध लागू नहीं होती जो अहिंसक गतिविधियों में संलिप्त हों। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवकों की भर्तियां जारी रहीं तथा उसके बाद एक विशेष प्रपत्र भरा जाने लगा, जिसमें इस तथ्य का उल्लेख होता था कि स्वयंसेवक को गजट (नवम्बर, 1921 के गजट) के कानूनी परिणामों की पूर्ण जानकारी एवं समझ है।
इस प्रकार गांधी के आगमन के बाद गोरखपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवकों की भर्ती का काम तेजी से हुआ। जैसे-जैसे स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ती जा रही थी जनपद में विरोध प्रदर्शनों, जलूसों का क्रम बढ़ता जा रहा था। गोरखपुर में यूरोपिय लोगों को सहयोग न मिलने के कारण ब्रिटिश सरकार को, गन्ना मिलों और व्यावसायिक खेती के लिए खतरा महसूस होने लगा था। रायबरेली, फैजाबाद, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर की जनता में बढ़ती बेचैनी और प्रतिरोध की प्रवृत्ति देख राजद्रोही सभा कानून (Seditious Meeting Act) लागू कर दिया गया। धारा 144 और 108 में कई गिरफ्तारियां हुईं। इसी बीच नजफ दरगाह (इराक) पर बमबारी किए जाने से शिया समुदाय में एक बार फिर ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध नाराजगी फैली।
चौरी चौरा विद्रोह के मुख्य नायकों के बारे में भी कई तरह की भ्रांतियां रही हैं। यह बात सही है कि इस विद्रोह के एक से अधिक अगुआ रहे लेकिन शुरू में इस विद्रोह को उभारने वालों में नजर अली और लाल मुहम्मद का नाम मुख्य है। डुमरी खुर्द सभा के साथ लाल मुहम्मद, नजर अली, भगवान अहीर, अब्दुल्ला, इन्द्रजीत कोइरी, एक चिमटे वाला सन्यासी और श्यामसुन्दर भी नेतृत्वकारी भूमिका में थे। शुरू में कुछ हद तक शिकारी ने भी सक्रिय भूमिका निभाई थी लेकिन उसके सरकारी गवाह बन जाने के कारण मूल्यांकन की पूरी स्थिति बदल गई।
चौरा गांव के लाल मुहम्मद, पुत्र हाकिम शाह, उम्र 40 वर्ष, डुमरी खुर्द गांव के नजर अली, पुत्र जीयन चुड़िहार, उम्र 30 वर्ष, भगवान अहीर पुत्र रामनाथ अहीर, उम्र 24 वर्ष और राजधानी गांव के चुड़िहार टोले का अब्दुल्ला साईं उर्फ सुखई पुत्र गोबर, उम्र 40 वर्ष चौरी चौरा विद्रोह को आजादी की लड़ाई का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने वाले रणबांकुरे थे। शिकारी पुत्र मीर कुर्बान सैयद, उम्र 24 वर्ष का स्थान भेदिए के रूप में स्थापित हो जाने से वह जनमानस में घृणा का पात्र बना। चौरी चौरा विद्रोह के तीनों रणबांकुरों ने परदेश की आबोहवा में सांस लिया था और औपनिवेशिक सत्ता के प्रति हर कहीं उबल रहे गुस्से को करीब से देखा था। वे तीनों पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन देश-परदेश घूम आने के कारण, उनमें अनुभवजन्य समझदारी पैदा हो गई थी। अब्दुल्ला, 1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में अपनी सेवायें दे चुका था। वहां वह बोल्शेविक क्रांति से परिचित होने के बाद जब गांव आया और कांग्रेसी स्वयंसेवक के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया तब भी उसके दिलो-दिमाग में एम.एन.रॉय का पर्चा और किसान-मजदूर राज का सपना घूमता रहा।
भगवान अहीर मूलतः कहीं और का रहने वाला था लेकिन चौरा गांव में किसी रिश्तेदार के यहां रहता था। वह 18 वर्ष की उम्र में ही ब्रिटिश सेना की कुली या मजदूर टुकड़ी (labour Corps) में रह चुका था तथा प्रथम विश्वयु़द्ध को उसने करीब से देखा था। वह मेसोपोटामिया यु़द्ध में बसरा मोर्चे पर तैनात रहा था। उसने मात्र दो वर्ष की सेवा की थी। 1918 में विश्वयुद्ध समाप्त होते ही अन्य हजारों सैनिकों की तरह उसकी भी सेवा समाप्त कर, पेंशन दे, छुट्टी कर दी गई। युद्ध के र्मोचे पर जर्मनी में रह रहे भारतीय वामपंथियों ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ उकसाने का प्रयास किया था। जब ये सैनिक अपने-अपने घर वापस गए तो उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आंदोलन को तेज किया। जब कांग्रेस ने स्वयंसेवकों की भर्ती प्र्रक्रिया शुरु की तो उनके कवायद के लिए प्रशिक्षण देने का काम सेवानिवृत्त सैनिकों से लिया गया। भगवान अहीर भी मेसोपोटामिया यु़द्ध में भाग लिया सेवानिवृत्त सैनिक था। रुपए 5 मासिक पेंशन भोक्ता होने के बावजूद उसने स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देने, कवायद कराने का काम बखूबी किया। कोर्ट ने अपने फैसले में उसे ड्रिल इन्स्ट्रक्टर (Drill Instructor) कहा है।
नजर अली, अब्दुल्ला की तरह चुड़िहार था और शिकारी के कथनानुसार दोनों आपस में रिश्तेदार भी थे। जवानी के दिनों में क्षेत्र के नामी पहलवानों में उसका भी नाम था। उसकी पत्नी कोइला खातून की लगभग पच्चीस वर्ष की उम्र में मृत्यु हो जाने के बाद, नजर अली को चूड़ी बेच कर गुजर-बसर करने में मुश्किल हुई तो वह रंगून चला गया। इस क्षेत्र के तमाम लोग रोजी-रोटी की तलाश में बंगाल, असम, कलकत्ता, हाबड़ा और रंगून तक जाया करते थे। नजर अली, अब्दुल्ला की ही तरह चौरा का जहूर नामक व्यक्ति, कलकत्ता कमाने गया था। डुमरी खुर्द के बिहारी के दो लड़के, परताप और रघुनाथ, विद्रोह के समय रंगून में मजदूरी करने गए थे। सामान्य वर्षों में लगभग 10,000 और मूल्यों के बढ़ने या खेती की तबाही के दिनों में लगभग 30,000 लोग रोजी-रोटी की तलाश में बाहर चले जाते थे। नजर अली ने रंगून में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध जन आंदोलनों के उभार को देखा था। वहां से लौटकर, डुमरी खुर्द में बसने के बाद, उसके मन में भी विद्रोह की ज्वाला धधक उठी थी।
लाल मुहम्मद का कारोबार, गाढ़ा कपड़ा बेचने का था। उसके पास खेती नहीं थी। उसका परिवार उसके व्यापार पर निर्भर था। वह भोपा बाजार में जानवरों की खाल तथा असक्त और बिगड़ैल घोड़ों को खरीदने और बेचने का भी काम करता था। वह बीमार और कमजोर घोड़ों को खरीदता, उनकी देख-रेख करता और तंदुरुस्त होने पर बेच देता। लाल मुहम्मद भी जाने-माने पहलवानों में था और जवानी के दिनों में अखाड़े में लड़ने जाता। देखा जाए तो उम्र और अनुभव के हिसाब से अब्दुल्ला और लाल मुहम्मद के बाद नजर अली का स्थान आता था लेकिन नेतृत्वकारी शक्ति उसके पास ज्यादा थी। हाटा सभा (1 फरवरी, 1922) और डुमरी खुर्द सभा (4 फरवरी, 1922) में उसी ने मुख्य भाषण दिया था। डुमरी खुर्द सभा के मुख्य नेतृत्वकर्ता के रूप में नजर अली का ही नाम आता है। नजर अली की तुलना में भगवान अहीर और शिकारी मात्र 24 वर्ष के युवा थे। ये दोनों भी पहलवान थे और दंगलों में हाथ आजमाया करते थे।
डुमरी कला के सरदार जागीरदार ने शिकारी को कुश्ती में इनाम स्वरूप जमीनें भी दी थीं जो आज भी उसके परिजनों के पास है। शिकारी पर सरदार जागीरदार के मैनेजर, हरचरन सिंह का प्रभाव था तभी वह विद्रोह के बाद आसानी से सरकारी गवाह बनने को तैयार हो गया। परिपक्वता और सांगठनिक प्रतिबद्धता की कमी के कारण तमाम उल्टे-सीधे आरोपों को अपने ही साथियों पर लगाया। यहां तक कि सेशन कोर्ट को भी मानना पड़ा था कि यह व्यक्ति अपने जीवनदान के लिए बढ़-चढ़ कर और पुरानी दुश्मनीवश, अपने साथियों के विरुद्ध गवाही दे रहा था। यही कारण है कि आज डुमरी खुर्द और आस-पास के गांवों में उसे गद्दार कह कर पुकारा जाता है।
चौरी चौरा किसान विद्रोह में मुख्य हिस्सा लेने वाली जातियां, डुमरी खुर्द और चौरा गांव की थीं। ब्रिटिश अभिलेखों में भी वे निम्न जाति के रूप में दर्ज की गई हैं – The persons affected were largely tenants and agricultural, many of them of low castes.

जिस समय चौरी चौरा क्षेत्र में स्वयंसेवकों द्वारा धरना-प्रदर्शन शुरू किया गया, आसपास के जमींदार सतर्क हो गये थे। मुण्डेरा बाजार के जमींदार बाबू संत बख्श सिंह 13 जनवरी, 1922 से ही विशेष सतर्क थे जब से डुमरी खुर्द में असहयोग आंदोलन का मंडल कार्यालय खोला गया था। वैसे तो वह ज्यादातर, अपनी बिशुनपुरा की कोठी में ही रहते लेकिन अपने कारिंदों के माध्यम से मुण्डेरा बाजार और आसपास की हर गतिविधि पर नियंत्रण रखते थे। हाटा की सभा से लौटते हुए स्वयंसेवकों का जत्था जैसे ही 1 फरवरी, 1922 को मुण्डेरा बाजार के उत्तर में ‘दानी-भवानी तालाब’ के किनारे पहुंचा था, संत बख्श सिंह के आदमियों तक स्वयंसेवकों के इरादों की जानकारी पहुंच चुकी थी। संत बख्श सिंह के आदमियों की चेतावनी के बाद उस समय स्वयंसेवक चले गए मगर उनके आदमी फिर भी सशंकित रहे। दुबारा, दोपहर बाद जैसे ही संत बख्श सिंह के आदमियों ने भगवान अहीर और उसके कुछ साथियों को बाजार में देखा, दरोगा को तत्काल सूचित कर दिया।
भगवान अहीर और उसके दो साथी, अपने निजी कार्य से बाजार में आये हुए थे। यहां दो तरह के तथ्य सामने आ रहे हैं जिनमें बहुत कुछ समानता है। सरकारी गवाह शिकारी के साक्ष्य को आधार बनायें तो पता चलता है कि बाबू संत बख्श सिंह की वजह से भगवान अहीर और उसके साथियों को पकड़ कर छावनी में बंद कर दिया गया था जहां आकर दरोगा ने उन्हें पीटा। उच्च न्यायालय के फैसले में भी शिकारी के इस बयान का उल्लेख है। दूसरा तथ्य यह है कि सूचना पाते ही उप निरीक्षक गुप्तेश्वर सिंह तत्काल कार्यवाही करने के लिए पुलिस बल के साथ मुण्डेरा बाजार में संत बख्श सिंह की छावनी (कार्यालय) पर पहुंचा। उसने देखा कि संत बख्श सिंह के आदमी बेहद गुस्से में थे। उसने तुरंत सिपाहियों को बाजार में भेजकर भगवान अहीर, रामरूप बरई और महादेव को पकड़वा लिया। जैसे ही भगवान अहीर और उसके साथियों को दरोगा के सामने पेश किया गया, दरोगा उनसे बेरुखी से बोला (spoke roughly)। उसका क्रोधोन्माद मुख्यतः भगवान अहीर के प्रति था। वह पहले से ही भगवान अहीर से चिढ़ा हुआ था। उसका मानना था कि जब भगवान अहीर सरकारी खजाने से पेंशन पा रहा है तो गैर कानूनी संगठन में काम क्यों कर रहा है। उसने भगवान अहीर द्वारा असहयोग आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने पर गाली दी। उसके अनुसार इस आंदोलन का एक मात्र मकसद सरकार को उखाड़ फेंकना था। यद्यपि कि दरोगा के पास ऐसा कोई साक्ष्य नहीं था जिससे वह कह सके कि भगवान अहीर का मकसद सरकार को उखाड़ फेंकना था, फिर भी उसने भगवान अहीर को कहा कि तुम जिस सरकार का नमक खा रहे हो, उसी के खिलाफ गद्दारी कर रहे हो। कोर्ट का मानना था कि संत बख्श सिंह के नौकर रघुबर दयाल ने ही भगवान अहीर के खिलाफ दरोगा को भड़काया था। दरोगा ने अपना आपा खो दिया था (Sub-Inspector thoroughly lost his temper) और उसने तीनों स्वयंसेवकों को बेंत और थप्पड़ से बुरी तरह मारा था। भगवान अहीर के पीठ पर दो घाव बन गए थे। शेष दो को सामान्य चोटें आईं थीं।
साक्ष्य बताने को पर्याप्त हैं कि दरोगा ने मुख्यतः भगवान अहीर को मार-मार कर उसकी पीठ को लहूलुहान कर दिया था। विगत कुछ माह से गुप्तेश्वर सिंह का स्वयंसेवकों के प्रति व्यवहार अत्यंत हिंसक था। 4 फरवरी, 1922 के चौरा थाने की आगजनी के बाद गांधी जी के सुपुत्र देवदास गांधी की अध्यक्षता में जो गैर सरकारी जांच समिति आई थी, उसकी रिपोर्ट के अनुसार-‘पुलिस द्वारा 16 जनवरी, 1922 को सरदार नगर के पास, सरैंया गांव के स्वयंसेवकों के नाम-पते की जानकारी लगाई जा रही थी। इसके विरोध में स्वयंसेवकों ने उसी दिन एक सिपाही की पिटाई कर दी थी। इस घटना के बाद पुलिस उद्वेलित हो गई थी और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ अत्यधिक कठोरता का व्यवहार करने लगी थी। उसी की प्रतिक्रिया में दरोगा ने 1 फरवरी को कुछ स्वयंसेवकों को पीटा था, जिनमें मुख्य रूप से भगवान अहीर ही था।
1 फरवरी, 1922, बुधवार की शाम को शिकारी के घर पर एक आवश्यक बैठक हुई थी जिसमें चौरा के महादेव पुत्र ठग, खेली भर, भगवान अहीर, लाल मुहम्मद सेन, मुण्डेरा बाजार के रामरूप बरई और डुमरी खुर्द के नजर अली तथा कुछ अन्य लोग भाग लिए थे। नजर अली ने बैठक में उपस्थित स्वयंसेवकों से जानना चाहा कि 1 फरवरी को दोपहर बाद, मुण्डेरा बाजार में क्या हुआ? लाल मुहम्मद ने दरोगा द्वारा भगवान अहीर, रामरूप बरई तथा महादेव को अकारण पीटे जाने की जानकारी दी, जिसकी पुष्टि भगवान अहीर, रामरूप बरई और महादेव ने की। उसी मीटिंग में यह तय किया गया कि दूसरे मंडल के स्वयंसेवकों के पास इस आशय का पत्र भेजा जाना चाहिए कि वे एक बड़े समूह में एकत्र होकर 4 फरवरी को डुमरी खुर्द आएं, जिससे हम स्वयंसेवकों के साथ चलकर दरोगा से पूछें कि उसने हमारे आदमियों को क्यों मारा और अकारण क्यों मारता रहता है?
4 फरवरी के दिन डुमरी खुर्द की प्रातःकालीन सभा में जुटने वाली संभावित भीड़ के मद्देनजर व्यापक तैयारियां की गई थीं। डुमरी खुर्द मंडल कार्यालय के पदाधिकारी और चौरी चौरा किसान विद्रोह में शामिल सक्रिय स्वयंसेवक, शिकारी द्वारा सेशन कोर्ट में बतौर सरकारी गवाह दिए बयान के अनुसार प्रातःकालीन डुमरी खुर्द सभा के लिए लाल मुहम्मद दिशा निर्देश दे रहा था। तैयारी की पहली कड़ी में 3 झंडे तैयार कर लिए गए थे। लाल मुहम्मद और पहाड़ी भर जलपान हेतु गुड़ इकट्ठा करने की जिम्मेदारी निभा रहे थे। इनके अलावा बहुत सारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक घर-घर से गुड़ मांग कर जमा कर रहे थे, जिनमें शिकारी, बिहारी पासी,
साधो सैंथवार, नकछेद कहार (अभियुक्त नहीं) और नजर अली मुख्य थे। सूरज उगने के कुछ समय बाद, शिकारी के दरवाजे पर 2 टोकरियों में गुड़ इकट्ठा किया गया था जिसे सभा की कार्यवाही शुरू होने के पूर्व, बिहारी पासी के घर के सामने स्थित खलिहान पर भेज दिया गया। खलिहान की खाली जमीन पर ही सभा का आयोजन किया गया था। नेताओं (ऑफीसरों) को पहनाने के लिए माला बनाने के वास्ते फूल जुटाये गए थे। कुल 15 या 16 मालाएं बनाई गयीं। ये सारे काम 7 से 8 बजे सुबह तक कर लिए गए थे। जब सुबह 8 बजे के लगभग 500 से 600 स्वयंसेवक जमा हो चुके तब नजर अली खड़ा हुआ और भाषण देने लगा। उसने स्वयंसेवकों को बताया कि हम लोग एक साथ, एक समूह में सबसे पहले चौरा थाना चलेंगे। हम दरोगा से पूछेंगे कि उसने भगवान अहीर और 2 स्वयंसेवकों को क्यों पीटा? उसके बाद हम मुण्डेरा बाजार चलेंगे और वहां जहरीली चीजों, मांस और मछली की बिक्री पर रोक लगायेंगे। हमें इन मुद्दों को पक्के तौर पर पूरा करना है और रास्ते में आने वाली हर बाधा का पूरी ताकत के साथ मुकाबला करना है। उसके बाद वह सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवकों को शपथ दिलाने लगा। उसने कहा कि जिन्हें अपने परिवार की चिंता है वे चले जाएं। वे हमारा साथ न दें और वे लोग जो थाना पुलिस की गोली से पीछे हटेंगे, अपनी मां-बहन की इज्जत पर बट्टा लगायेंगे। उसने कहा कि जो लोग हमारा साथ देना चाहते हैं, हाथ उठायें। यह सुनकर वहां उपस्थित सभी लोगों ने अपना हाथ उठाया। सभी ने एक स्वर में बोला ‘जय’। सभी लोगों ने अंतिम समय तक साथ देने का वादा किया। उसके बाद नजर अली ने कहा कि जो लोग वादे से मुकरेंगे या बीच रास्ते से स्वयंसेवकों को छोड़कर भागेंगे, वे अगर हिन्दू होंगे तो गाय का और मुसलमान होंगे तो सुअर का मांस खाया समझे जाएंगे। शपथ लेने के बाद बिहारी के घर के सामने के खलिहान से प्रस्थान करने के पूर्व स्वयंसेवकों की संख्या 1,000 के लगभग हो चुकी थी।
लगभग 12 बजे के आसपास, जलूस ने थाने की ओर प्रस्थान किया। इस बीच जमींदारों के आदमियों ने भरसक प्रयास किया कि स्वयंसेवकों का जलूस न निकलने पाये। उन्होंने गरीब किसानों को डराया-धमकाया। गोरखपुर से पहुंचे सशस्त्र पुलिस बल का भय दिखाया परन्तु स्वयंसेवक झुकने को तैयार न हुए। जब जलूस गोरखपुर-देवरिया मार्ग पर स्थित लाला हलवाई की फैक्ट्री के पास पहुंचा तब सरदार हरचरन सिंह ने एक बार फिर जलूस को समझाने का प्रयास किया। स्वयंसेवकों के नेताओं ने हरचरन सिंह को आश्वस्त किया कि वे थाने पर आक्रमण करने नहीं जा रहे हैं। वे दरोगा से केवल वार्ता करेंगे और जानना चाहेंगे कि उन्होंने हमारे साथी को मुण्डेरा बाजार में क्यों मारा? उसके बाद वे शांति पूर्वक आगे बढ़ जायेंगे और मुण्डेरा बाजार में जाकर मांस, मछली, गांजा और शराब, की दुकानों पर धरना देंगे।
स्वयंसेवकों की भीड़ नारा लगाते हुए थाना परिसर के दक्षिण-पूरब कोने से उत्तर दिशा में मुड़कर, आगे बढ़ रही थी। उसे चौरा बाजार, बाले गांव होते हुए मुण्डेरा बाजार की ओर पंक्तिबद्ध बढ़ते जाना था। जलूस का अगला हिस्सा रेलवे क्रॉसिंग तक पहुंच चुका था। इससे सिद्ध होता है कि स्वयंसेवकों का थाने पर आक्रमण करने की कोई पूर्व योजना नहीं थी और न उनके नेताओं द्वारा ऐसा निर्देश मिला था। वे लगातार थाना द्वार के आगे शांतिपूवर्क बढ़ रहे थे जबकि उनके नेता अभी पीछे थे। अधिकांश स्वयंसेवक रेलवे क्रॉसिंग पार कर चौरा बाजार तक चले गए थे लेकिन थाना गेट के सामने लगभग 300 स्वयंसेवक अभी भी रुके थे। सरदार हरचरन सिंह और दरोगा गुप्तेश्वर सिंह थाना परिसर में स्थित कुएं के पास खड़े थे। उन्होंने आगे आकर स्वयंसेवकों से रुकने का कारण पूछा। सवयंसेवकों ने कहा कि वे मामले का हल चाहते हैं। दरोगा और सरदार ने पूछा कि आप लोग किस मामले का हल चाहते हैं। इस पर श्यामसुन्दर ने ऊंची आवाज में दरोगा से पूछा कि आपने मुण्डेरा बाजार में हमारे भाइयों को क्यों मारा? दरोगा ने कहा कि भगवान अहीर सिर्फ आप का ही भाई नहीं है, पेंशन प्राप्त करने वाला भूतपूर्व सैनिक होने के नाते मेरा भी भाई है। इस हक से मैंने उसे मारा। यह सुन ज्यादातर स्वयंसेवक संतुष्ट दिखे और आगे बढ़ गए परन्तु नजर अली और कुछ अन्य नेता अभी भी थाना गेट पर रुके रहे। सरदार हरचरन सिंह के अनुसार, दरोगा 5-6 कदम पीछे हटा और हवा में हाथ उठा कर बोला कि वह जलूस को गैर कानूनी घोषित कर रहा है। दरोगा का हाथ उठाना देख स्वयंसेवकों ने घोषित कर दिया कि दरोगा ने माफी मांग ली है और वे प्रसन्न होकर आगे बढ़ गए। इसके बाद स्वयंसेवकों में आपस में कुछ वार्ता हुई और तालियां बजने लगीं। इसे दरोगा ने अपना अपमान समझ लिया और उसके आदेश पर चौकीदारों ने लाठी चार्ज कर दिया।
सरदार हरचरन सिंह की बात से ऐसा लगता है कि दरोगा ने माफी नहीं मांगी थी परन्तु सच्चाई यह है कि दरोगा ने भीड़ को गैर कानूनी घोषित करने के पूर्व स्वयंसेवकों के नेताओं से माफी मांग ली थी जिसके फलस्वरूप स्वयंसेवक आगे बढ़ने लगे थे परन्तु बाबू संत बख्श सिंह का कारिंदा अवधू तिवारी ने दरोगा से कहा कि कैसे ठाकुर हैं? निम्न जातियों से माफी मांग रहे हैं? आप हमें हुक्म देते तो हम इनसे निबट लेते? यह सुन दरोगा उत्तेजित हो गया और उसने चौकीदारों को भीड़ भगाने के लिए लाठीचार्ज का हुक्म दे दिया। जैसे ही चौकीदारों ने भीड़ पर लाठियां चलानी शुरू की, भीड़ में भगदड़ मच गई।
हरचरन सिंह के अनुसार चौकीदारों द्वारा की गई कार्यवाही के बाद स्वयंसेवक भाग कर रेल पटरी के किनारे खड़े हो गए। तभी उनमें से किसी एक ने खतरे की सीटी बजा दी। खतरे की सीटी सुन, चौरा बाजार तक गए स्वयंसेवक पलट पड़े। रेल पटरी के किनारे खड़े स्वयंसेवक 2 मिनट तक शांत रहे लेकिन जैसे ही चौरा बाजार की ओर से पलट कर स्वयंसेवकों की भीड़ उनके पास आई, उन्होंने थाने और सिपाहियों पर रेल पटरी पर बिछे पत्थरों की बौछार शुरू कर दी। सरदार हरचरन सिंह, उप निरीक्षक, सशस्त्र बल और कुछ कांस्टेबल, उप निरीक्षक के बंगले में बरामदे के पूर्वी किनारे पर चले गए। सरदार के अनुसार पहले हवाई फायरिंग हुई। बाद में गोली चलनी शुरू हुई। कुछ देर की फायरिंग के बाद एकाएक गोली चलाने की गति कम हो गई। उसके बाद रुक-रुक कर फायरिंग होने लगी। शायद गोली खत्म हो रही थी। 2 सिपाही कुएं के पास से और 4 सिपाही सरदार के पास से गोली चला रहे थे। सश़़स्त्र गार्डों द्वारा रुक-रुक कर गोलियां चलाई जा रही थीं लेकिन स्वयंसेवकों को इसकी परवाह नहीं थी। वे लगातार कंकड़ों की बौछार जारी रखे हुए थे। इनमें से कइयों को छर्रे लगे, कुछ मरे भी, इसके बावजूद, चारों ओर से कंकड़ों की बौछार के साथ उनका थाने की ओर बढ़ने का क्रम जारी रहा। कंकड़ों की मार से बचाव का विकल्प न होने के कारण सिपाहियों ने थाना भवन में जा छिपना मुनासिब समझा। जब ज्यादातर सिपाही थाना भवन में जा छिपे तो स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने थाना भवन को घेर लिया। भयभीत सिपाहियों ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। स्वयंसेवकों का उत्साह और बढ़ा और उन्होंने आग लगाने की रणनीति पर काम किया।
तत्कालीन चौरा पोस्ट ऑफिस के सब पोस्ट मास्टर (Sub Post Master) बी. चुन्नीलाल पुत्र गनपत सहाय, कायस्थ, उम्र 28 वर्ष के अनुसार, उनके पोस्ट ऑफिस के सामने से यह जलूस अपराह्न 1.40 से 2.40 के बीच गुजरा था। पोस्ट ऑफिस थाने से डेढ़ फर्लांग पश्चिम और रेलवे स्टेशन से 100 कदम दक्षिण में स्थित था। स्वयंसेवकों के थाने की ओर भारी संख्या में आने की सूचना पर दरोगा गुप्तेश्वर सिंह घबरा गया। वह अपराह्न 1.30 बजे, जिला मुख्यालय को टेलीग्राम भेजने के लिए पोस्ट ऑफिस पहुंचा लेकिन पिकेटिंग की स्पेलिंग अस्पष्ट होने के कारण, फार्म भरने के बाद लौट गया था। 1.40 बजे उसने दूसरा टेलीग्राम फार्म भरा था जो विलम्ब से 2.40 बजे अपराह्न को भेजा जा सका था। गुप्तेश्वर सिंह का भतीजा बनवारी सिंह जो उसी के साथ रहता था तथा गौरी चीनी मिल में काम करता था, वह एक और टेलीग्राम करने के लिए अपराह्न 3.50 बजे डाकघर आया, जिस पर उसी ने हस्ताक्षर किए थे। किशन सहाय, रेलवे स्टेशन मास्टर के अनुसार, दरोगा का एक लड़का (नौकर) अपराह्न 2.40 बजे दौड़ता हुआ टेलीग्राम करने रेलवे स्टेशन भी आया था लेकिन 2 स्वयंसेवकों ने रेलवे स्टेशन मास्टर को धमका कर ऐसा करने से रोक दिया था। रेलवे स्टेशन मास्टर स्वयंसेवकों का रौद्र रूप देख, भाग कर अपने घर चला गया था और शाम 7 बजे वापस लौटा था।
पुलिस की गोली से कई स्वयंसेवक मारे जा चुके थे तथा सैकड़ों घायल थे। यह देख भीड़ उग्र हो गई। लगभग साढ़े तीन बजे के आसपास स्वयंसेवकों ने मिट्टी का तेल छिड़क कर थाने में आग लगा दी । जिन सिपाहियों ने भागने का प्रयास किया उन्हें बांस के डंडे से पीट कर मार दिया और जलते थाने में फेंक दिया। दरोगा, गोवर्द्धन हलवाई के मकान में छिपा हुआ था। भीड़ तुरंत उधर मुड़ी। दरोगा हाथ में तलवार लिए पीछे के दरवाजे से निकला और दक्षिण से उत्तर दिशा में, रेलवे क्रॉसिंग की ओर भागने लगा। वह खाकी हाफ पैंट और कोट में था। एक आदमी चिल्लाया -‘मारो, मारो, दरोगा उत्तर की ओर भाग रहा है। नजर अली ने उसे रेलवे क्रॉसिंग और शीशम पेड़ के पास पकड़ लिया और वहीं पटक दिया। नजर अली के साथ बहुत सारे लोग दरोगा पर टूट पड़े और पीटने लगे। दरोगा को सबसे पहले नजर अली ने थप्पड़ मारा था, फिर पैर से और उसके बाद डंडे से पीटना शुरू किया था। कुछ लोग बांस से तो कुछ लबदे और चैले (कुल्हाड़ी से फाड़ी हुई लकड़ी) से दरोगा को पीट रहे थे। कुदई तिवारी कोरो से दरोगा को मार रहा था। देखते ही देखते जुल्म का प्रतीक दरोगा, रेलवे क्रॉसिंग पर मारा जा चुका था। उसके शव को 8-10 लोग खींच कर जलते थाने के पास लाये और उसे भी वहीं आग में फेंक दिया, जहां सिपाहियों के शव डाले गए थे।
थाना भवन में दरोगा सहित 22 पुलिस वालों और चौकीदारों की मृत्यु उसी दिन हो गई थी। एक थाना कर्मी (चौकीदार) बेहोशी की हालत में अपने घर ले जाया गया था जहां उसकी मृत्यु हो गई थी। इस प्रकार दरोगा गुप्तेश्वर सिंह, उप निरीक्षक सशस्त्र बल, 15 कांस्टेबल और 6 चौकीदारों सहित कुल 23 लोगों की चौरी चौरा विद्रोह में जान चली गई।
दरोगा को मारने के बाद नजर अली ने चिल्लाकर कहा था कि, ‘दरोगा मारा जा चुका है तथा थाना जल रहा है। अब हमें यहां से चलना चाहिए और टेलीग्राफ तार काट देना चाहिए, रेल पटरी उखाड़ देनी चाहिए नहीं तो सरकार आकर हम सभी को गिरफ्तार कर लेगी।’ नजर अली के साथ बहुत सारे लोग पोस्ट ऑफिस गए। पोस्ट ऑफिस पहले से बंद था। उप डाक मास्टर के घर जाकर नजर अली बात करने लगा तथा दूसरे लोग तार काटने में लग गए। तार को ऐंठ कर लोगों ने तोड़ दिया था। तार काटने के बाद स्वयंसेवकों का जत्था नजर अली के साथ रेलवे क्रॉसिंग होते हुए पश्चिम स्थित रेलवे स्टेशन गया और रेलवे गुमटी (गेट हाउस) के पहरेदार से गुमटी खुलवाकर औजार ढूंढने का प्रयास किया परन्तु वहां कुछ मिला नहीं। उस समय थाने के पास, पूर्वी गेट हाउस, हरनंदन और इन्द्रजीत के नियंत्रण में था तथा पश्चिमी गेट हाउस मदरन और सत्यनारायण के नियंत्रण में। 40-50 स्वयंसेवकों के जत्थे ने सत्यनारायण से गुमटी की चाबी मांगी तो उसने नहीं दिया और रेलवे चौकीदार सुखारी पुत्र निरंजन अहीर, हरिहंस, सीवान, छपरा को चाबी पकड़ा दी। रेलवे चौकीदार ने गुमटी खोल कर स्वयंसेवकों को दिखा दिया, उसमें घरेलू सामानों के अलावा पटरी खोलने वाले औजार न थे। तब नारायण लोहार ने कहा कि कोई बात नहीं, वह बोल्ट खोलने का जुगाड़ कर लेगा। करमहा गांव के पास बरही में जाकर स्वयंसेवकों ने पहले रेलवे पटरी के नीचे बिछे लकड़ी के मोटे पटरों और नीचे की गिट्टी हटानी शुरू कर दी। 200 से 250 स्वयंसेवकों ने पटरियों को ऊपर उठाकर मोड़ दिया और लकड़ी के पटरों को निकाल दिया। उसके बाद स्वयंसेवक गांवों की ओर भाग चले। स्वयंसेवकों द्वारा चौरी चौरा रेलवे स्टेशन और पोस्ट ऑफिस पर तिरंगा झंडा फहरा दिया गया था।
इस प्रकार देखें तो कुछ घंटों के लिए चौरी चौरा क्षेत्र, ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हो चुका था। आजादी की लड़ाई की यह पहली घटना थी जब ब्रिटिश कार्यालयों पर तिरंगा फहराया गया था। स्वयंसेवकों ने न केवल रेल पटरी उखाड़ी थी अपितु सिगनल तार भी काट दिए थे। पटरियों के बोल्ट निकाल लिए थे। चौरा थाना जलाने के बाद अपने-अपने घर या छिपने के स्थानों पर जाते हुए स्वयंसेवक कहते हुए जा रहे थे कि, ‘थाना जल गया, अब महात्मा जी का स्वराज आ गया।
उत्साह में ब्रिटिश हुकूमत को सबक सिखाने वाले स्वयंसेवक, थाना भवन जलाने और सिपाहियों को मारने के बाद, संभावित खतरे से पूरी तरह वाकिफ थे। इसलिए वे अपने-अपने घर जाने के बाद, परिवार से विदा ले, जंगलों या रिश्तेदारों के यहां जा छुपे। दंगे के समय, चौरा थाने पर तैनात कांस्टेबल सिद्दिकी पुत्र शेख फेंकू ने अपनी वर्दी उतार कर फेंक दी और भाग निकला। उसे भागता देख, चौरा का रामदास कलवार और कुछ औरतें चिल्ला कर कह रही थीं-‘सिपाही भाग रहा है।’ यह सुन कर कुछ स्वयंसेवकों ने सिद्दिकी का पीछा किया मगर वह हाथ न आ पाया। भागते हुए सिद्दिकी ने सुना था कि स्वयंसेवक गौरी थाना जलाने की भी बात कर रहे थे। वह सायं 6 बजे, 7 मील दूर थाना बरही (गौरी) बदहवास हालत में जा पहुंचा था और चौरा थाना जलाये जाने का समाचार दिया। उसकी सूचना के आधार पर इंचार्ज, थाना गौरी ने एक रिपोर्ट सादे कागज पर तैयार की और कुसम्ही रेलवे स्टेशन से 2 टेलीग्राम मुख्यालय भेजे। गौरी थाने का दरोगा सायं 7 बजे थाने पर पहुंचा था और 2 सिपाहियों को लेकर चौरा के लिए प्रस्थान किया था। गौरी दरोगा के साथ सिद्दिकी भी चौरा लौट आया था।

चौरी चौरा थाना जलाने की सूचना मिलते ही जिलाधिकारी मि. कोलेट ने, कार्यवाहक पुलिस अधीक्षक मि. गनपत सीताराम खेर और पुलिस लाइन्स के आरक्षित उप निरीक्षक उमा दत्त को साथ लिया तथा 40 सशस्त्र सिपाहियों के साथ चौरा की ओर प्रस्थान किया। रेलवे लाइन टूटी होने के कारण विशेष रेलगाड़ी कुसम्ही जंगल स्टेशन पर रुक गई। जिलाधिकारी को चौरा थाने तक पहुंचने में कुछ दूरी पैदल तय करनी पड़ी थी और वह रात 10 बजे के बाद थाने पर पहुंच पाये थे। उस समय थाना भवन जल रहा था।
जिलाधिकारी के निर्देश पर विद्रोहियों की धर-पकड़ के लिए 4 फरवरी, 1922 को पूरी रात तलाशी अभियान जारी रहा। 5 फरवरी की सुबह, लाल मुहम्मद को उसके घर से गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के समय वह चारपाई पर कपड़े में ढंका पड़ा हुआ था। उसके बाएं गाल पर छर्रे का जख्म था। लाल मुहम्मद का बेटा कई दिनों से गंभीर रूप से बीमार था, इसलिए लाल मुहम्मद ने दंगे के बाद भागने की जरूरत नहीं समझी थी। लाल मुहम्मद ने अपनी गिरफ्तारी के बाद कुछ स्वयंसेवकों के छिपे होने की जगहों के बारे में जानकारी दी थी। 5 फरवरी की रात को उप पुलिस अधीक्षक रामपुरा गए और वहां से जमना पासी, बलदेव कमकर को गिरफ्तार कर लिया था।

जैसे ही गांधी जो को चौरा थाना जलाये जाने की सूचना प्राप्त हुई, उन्होंने स्वयंसेवकों को गुंडा और असामाजिक तत्व कह कर निंदा की। उन्होंने तत्काल असहयोग आंदोलन स्थगित करने का मन बना लिया था। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को पूरे देश में स्थगित करने के निर्णय को सही साबित करने के लिए नीति, धर्म, और मानवता जैसे तमाम मानकों का सहारा लिया। उन्होंने इस संबंध में न केवल लेख लिखे अपितु कारागार में बंद, दूसरे नाराज नेताओं को समझाने का प्रयास किया। गांधी जी ने 8 फरवरी को बारदोली से बंबई जाते हुए गुजराती में एक लेख लिखा था, ‘गोरखपुर का अपराध’ जो नवजीवन में 12 फरवरी, 1922 को प्रकाशित हुआ। अमूमन इसी आलेख को गांधी जी की चौरी चौरा विद्रोह पर प्रथम प्रतिक्रिया माना जाता है। एक ओर जहां वायसराय को लिखे पत्र में गांधी जी ने पंजाब, संयुक्त प्रांत, बंगाल, असम, दिल्ली, बिहार, उडी़सा आदि जगहों पर निहत्थी जनता पर ढाये जा रहे सरकारी दमन, लूट और अत्याचार को रेखांकित किया था वहीं चौरी चौरा विद्रोह के गरीब स्वयंसेवकों के जुल्मों का न तो संज्ञान लिया और न पुलिस द्वारा अकारण गोली चलाने की निंदा की थी। उनकी नीति के अनुसार हर हाल में सारा दोष गोरखपुर का था।
गांधी जी द्वारा ऐसे समय में असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने से, जब पूरा देश अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध उबल रहा था, तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। जिन लोगों ने अब तक के असहयोग आंदोलन के कारण अपनी नौकरियां छोड़ दी थीं, स्कूली बच्चों ने स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार किया था, वे ठगे महसूस कर रहे थे। केवल जमींदार और ब्रिटिश सरकार, उनके निर्णय से खुश थे क्योंकि वे लगातार इस प्रयास में थे कि असहयोग आंदोलन स्थगित हो और जो किसान लगान रोक दिए हैं, देना शुरू करें। ‘द लीडर’ में 11 फरवरी का समाचार जो 13 फरवरी के अंक में छपा था, के अनुसार किदवई (रफी अहमद किदवई, बाराबंकी जनपद के जमींदार और राष्ट्रीय नेता) ने गांधी को तार भेज कर कहा था कि अवध क्षेत्र में जो वर्तमान में स्थिति है, उसको देखते हुए असहयोग आंदोलन को जारी रखना असंभव है। न तो जनता अहिंसक आंदोलन के लिए तैयार है और न बारदोली से इसको नियंत्रित किया जा सकता है। हाकिम अजमल खान (जामिया मिलिया के संस्थापक और अहमदाबाद अधिवेशन में चुने गए अध्यक्ष) और डॉ. अन्सारी (मुख्तार अहमद अन्सारी, राष्ट्रीय नेता, गांधी जी के करीबी) ने भी इसी प्रकार का तार भेजा था। विद्रोह के बाद पूरे संयुक्त प्रांत में जमींदारों के विरुद्ध भड़की हिंसा के कारण भी गांधी पर असहयोग आंदोलन वापस लेने का दबाव था।
गांधी जी ने अपने करीबियों द्वारा 8 फरवरी को, जैसे ही चौरी चौरा विद्रोह के बारे में सुना, तभी असहयोग आंदोलन स्थगित करने का मन बना लिया था। उन्होंने 10 फरवरी को कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बारदोली में इस तथ्य की घोषणा की थी। गांधी द्वारा 11-12 फरवरी को बुलाई गई कार्यसमिति की बैठक, महज असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने के खुद के निर्णय को संगठन का निर्णय बताने का प्रयास मात्र था। यहां हिंसा और अहिंसा के प्रश्न से ज्यादा महत्वपूर्ण, जमींदारों को लगान देने का था। गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जमींदारों का नुकसान हो रहा था। लगान देने या न देने से हिंसा नहीं हो रही थी। मामला उस वर्ग हित का था जिसको इस आंदोलन से नुकसान हो रहा था और गांधी जी कतई नहीं चाहते थे कि जमींदारों के हितों पर कुठाराघात हो। कांग्रेसियों को इस बात का अनुमान ही न था कि असहयोग आंदोलन में जनता इतनी व्यग्रता से भाग लेगी कि जमींदारों को खतरा महसूस होने लगेगा।
चौरी चौरा विद्रोह के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन स्थगित तो कर दिया लेकिन उससे कांग्रेस के लगभग सभी वरिष्ठ नेता क्षुब्ध हो गए थे। उस समय गांधी जी तो कारागार के बाहर थे, किंतु जवाहरलाल नेहरू, लाला लाजपत राय और मोतीलाल नेहरू सहित अधिकांश वरिष्ठ नेता कारागारों में थे।
चौरी चौरा घटना का जिक्र करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘अचानक ही फरवरी, 1922 के शुरू में हमने कारागार में बड़ी हैरानी और तकलीफ के साथ यह खबर सुनी कि गांधी जी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया है। हमने पढ़ा कि यह इसलिए हुआ, क्योंकि चौरी चौरा नामक गांव में ग्रामीणों की एक भीड़ ने थाने को आग लगा दी, जिसमें करीब डेढ़ दर्जन पुलिसवाले जल कर मर गए।’
‘…..चौरी चौरा घटना के बाद आंदोलन को अचानक ही स्थगित कर दिए जाने से, मैं समझता हूं कि करीब-करीब सभी बड़े कांग्रेसी नेता नाराज थे-एक गांधी जी को छोड़कर। मेरे पिता जी को भी इससे बहुत तकलीफ पहुंची थी। युवा लोग तो और भी ज्यादा निराश थे। हमारी आशाएं धूल में मिल गयी थीं और यह मानसिक प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। इससे भी ज्यादा परेशानी स्थगन के कारणों और उनसे उपजने वाले परिणामों को लेकर थी। माना कि चौरी चौरा की घटना निंदनीय थी और अहिंसक आंदोलन की भावना के पूरी तरह खिलाफ थी लेकिन क्या एक दूर-दराज के गांव और वहां के कुछ उत्तेजित लोगों की भीड़ के कारण समूचा राष्ट्रीय आंदोलन, भले ही कुछ समय के लिए, रुक जाने वाला था? अगर हिंसा की एक छिटपुट वारदात का यही अर्थ था, तो अहिंसक लड़ाई के फलसफे और तकनीक में कहीं कोई कमी जरूर थी। क्योंकि हमें लगता था कि इस तरह की कोई छिटपुट हिंसा न होने की गारंटी देना नामुमकिन था। क्या हमें आगे बढ़ने से पहले करीब 30 करोड़ हिंदुस्तानियों को अहिंसा के सिद्धांत और अभ्यास का प्रशिक्षण देना होगा? अगर ऐसा करें, तब भी पुलिस द्वारा बहुत ज्यादा उकसाये जाने पर हम पूरी तरह शांत कैसे रह सकेंगे? और अगर हम इसमें सफल हो भी जाएं, तो अंग्रेजों के एजेंटों, सरकारी पिट्ठुओं द्वारा आंदोलन में घुस कर खुद हिंसा करने या दूसरों को हिंसा के लिए उकसाने की संभावना से हम कैसे बच सकते हैं?’

चौरी चौरा विद्रोहियों को सजा दिलाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी। पंडित महेश बाल दीक्षित, कमिटिंग मजिस्ट्रेट (Committing Magistrate) के रूप में कार्य कर रहे थे। पुलिस और मजिस्ट्रेटों ने अभियुक्तों की पहचान कर घटना के 7 सप्ताह बाद, दिनांक 25 मार्च, 1922 को मामला निचली अदालत के सुपुर्द कर दिया। ठाकुर महेन्द्रपाल सिंह और सोहन लाल श्रीवास्तव ने जांच पूरी कर दिनांक 24 मार्च, 1922 को 273 अभियुक्तों का चालान कर सूची कमिटिंग मजिस्ट्रेट को सौंपी थी। 273 अभियुक्तों में से एक की मृत्यु हो गई। शेष 272 में से 228 अभियुक्तों के खिलाफ, निचली अदालत ने भारतीय आचार संहिता की विभिन्न धाराओं, यथा 120 (सम्राट के विरूद्ध आपराधिक षड़यंत्र), 147 (दंगा), 149 (समान उद्देश्य के लिए गैर कानूनी सभा के प्रत्येक सदस्य का समान अपराध)/ 302 (हत्या का अपराध), 149/395 (डकैती), 435 (आगजनी), 332 (सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाना), 149/412 (चोरी का माल रखने का अपराध), 125 (टेलीग्राफ एक्ट) और 126 (रेलवे एक्ट) के अंतर्गत मुकदमा चलाने के योग्य पाया था और उन्हें सेशन कोर्ट के सुपुर्द किया था और शेष 44 लोगों को अपने स्तर से मुक्त कर दिया था सेशन कोर्ट में मुकदमा प्रारम्भ होने के पूर्व ही 2 अभियुक्तों की कारागार में मृत्यु हो चुकी थी तथा एक अभियुक्त के पुलिस मुखबिर हो जाने के कारण सरकार ने उसके ऊपर से मुकदमा उठा लिया था। लिहाजा सेशन कोर्ट में मात्र 225 अभियुक्तों पर मुकदमा चला। सेशन कोर्ट के जज एच. ई. होल्मस ने अपनी कार्यवाही पूर्ण कर 9 जनवरी, 1923 को 430 पृष्ठों में निर्णय सुना दिया। 225 अभियुक्तों में से, 1-पुरन्दर पुत्र भवानी दीहल अहीर की 14 नवम्बर, 1922 को मृत्यु हो चुकी थी। इसके अलावा 2-नारायन पुत्र लोचई लोहार, डुमरी खुर्द, 3-फकीरे पुत्र बंशू भर, बाले और 4-कुदई पुत्र पारेश्वर तिवारी, धरसी, गोला की भी मुकदमे के दौरान मृत्यु हो चुकी थी। बचे हुए 221 अभियुक्तों में से 47 ऐसे थे जिनके बारे में सत्र न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि उनका आरोप सिद्ध नहीं हो पा रहा है, लिहाजा उन्हें रिहा करने का निर्णय लिया गया। बाकी 174 अभियुक्तों में से 2 ऐसे थे जो घटना पूर्व घायल थे, जिन्हें लघु अपराध का दोषी पाया गया और 2-2 साल की सजा सुनाई गई। इस प्रकार 172 अभियुक्त ऐसे थे जिन पर विभिन्न आरोपों के अलावा सबसे मुख्य आरोप था-दंगे के दौरान थाना कर्मियों/चौकीदारों की हत्या करना। इन 172 अभियुक्तों को सेशन कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी और उन्हें उच्च न्यायालय में अपील करने के वास्ते मात्र 7 दिन का वक्त दिया था। फैसला सुनाते समय सेशन कोर्ट ने कहा था-यह अत्यंत दुखद दुर्घटना सविनय अवज्ञा आंदोलन का परिणाम था। यदि यह आंदोलन न शुरू हुआ होता तो संभवतः यह घटना न हुई होती।
जिला कांग्रेस कमेटी, गोरखपुर ने अभियुक्तों की फांसी की सजा के विरुद्ध पंडित मदन मोहन मालवीय के सहयोग से उच्च न्यायालय में अपील दाखिल किया। उनके सहयोगी वकील देवी प्रसाद ने क्रिमिनल अपील संख्या 51/1923, ‘अब्दुल्ला और अन्य बनाम साम्राट’ मामले में मुलजिमों की ओर से पैरवी की। इस मामले में सेशन कोर्ट में अभियुक्तों के वकील के. एन. मालवीय, गोकुल दास, एन. के. सन्याल, डी. एन. मालवीय, के.सी. श्रीवास्तव और ए.पी. दूबे ने सहयोग प्रदान किया था। हाईकोर्ट में जिन 172 अभियुक्तों के मामले पर विचार किया जाना था उनमें से 2 अभियुक्तों – नस्सू पुत्र साहिबदीन पठान की 13 जनवरी, 1923 को तथा छपरा के रहने वाले राम नगीना पुत्र शिवनंदन की 16 जनवरी, 1923 को कारागार अस्पताल में मृत्यु हो चुकी थी। इस आशय का एक पत्र लेफ्ट. कर्नल डब्लू. मैकमुलेन पीयर्सन. आई.एम.एस.
सुपरिटेंडेंट कारागार, गोरखपुर, ने अपने दिनांक 17 एवं 20 जनवरी, 1923 के पत्रों द्वारा सेशन जज को जानकारी दी थी। इस प्रकार हाईकोर्ट में मात्र 170 अभियुक्तों के संबंध में ही अपील की सुनवाई हुई थी और उनके बारे में सुनाया गया फैसला इस प्रकार था-
1-38 अभियुक्तों को कोर्ट ने दोषमुक्त कर दिया था।
2- 3 अभियुक्तों के बारे में भारतीय दंड संहिता की धारा 147 के अनुसार केवल दंगे में भाग लेने का दोषी पाया और दूसरे सारे आरोपों से बरी करते हुए मात्र 2-2 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई जो सेशन कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए गए तिथि, जनवरी 9, 1923 से ही प्रभावी मानी जानी थी।
3-129 अभियुक्तों में से, 19 अभियुक्तों को जिनमें नजर अली, लाल मुहम्मद, भगवान, श्यामसुन्दर और अब्दुल्ला शामिल थे, को कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302/149 के अंतर्गत थाने पर आक्रमण करने, सिपाहियों और उप निरीक्षकों की हत्या के लिए मुख्य और नेतृत्वकारी अपराधी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई थी।
4-शेष 110 अभियुक्तों में से 14 अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता 302/149 के अंतर्गत अभियोग सिद्ध मानते हुए भी जजों ने फांसी से कुछ कम सजा का हकदार मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
5-19 अन्य अभियुक्तों को हाईकोर्ट ने सश्रम 8 साल के कारावास की सजा सुनाई जो सेशन कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए गए तिथि, जनवरी 9, 1923 से ही प्रभावी मानी जानी थी।
6-57 अभियुक्तों को हाईकोर्ट ने सश्रम 5 साल के कारावास की सजा सुनाई जो सेशन कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए गए तिथि, जनवरी 9, 1923 से ही प्रभावी मानी जानी थी।
7-अंतिम 20 अभियुक्तों को, जिनमें से ज्यादातर 16 से लेकर 21 वर्ष तक के नौजवान थे और न्यायालय की नजर में ये कम सजा के हकदार थे तथा एक 53 वर्ष तथा दो 60-60 वर्ष के वृद्ध थे, उनके खराब स्वास्थ्य के कारण हाईकोर्ट ने सश्रम 3 साल की कारावास की सजा सुनाई जो सेशन कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए गए तिथि, जनवरी 9, 1923 से ही प्रभावी मानी जानी थी।
किसानों पर गोली चलाने वाले और चौरी चौरा विद्रोह में मारे गए ब्रिटिश सिपाहियों के लिए स्मारक का उद्घाटन फरवरी, 1924 में पुराने थाने की जगह, संयुक्त प्रांत के ले. गवर्नर सर विलियम मारिस द्वारा किया गया। आज भी वहां साफ-सफाई के लिए तैनात व्यक्ति को ‘वार फंड’ से रुपए 600 प्रतिमाह मिलते हैं। यह फंड किस शासनादेश के द्वारा मिलता है, इसकी जानकारी न तो वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कार्यालय को है और न जिलाधिकारी कार्यालय को। इस संबंध में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत मांगी गई सूचना के संबंध में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गोरखपुर ने अपने पत्र संख्या ज.सू.से.गो. 137/2013 दिनांक 09 अप्रैल, 2013 द्वारा किसी भी प्रकार की जानकारी से अनभिज्ञता जाहिर की। उन्होंने यह भी अवगत नहीं कराया कि ब्रिटिश सिपाहियों के स्मारक पर ‘जय हिन्द’ क्यों लिखा हुआ है? जिलाधिकारी कार्यालय, गोरखपुर के प्रभारी अधिकारी (राजनैतिक पेंशन) कलेक्ट्रेट ने अपने पत्र संख्या 71/पी.पी.सी.-13 दिनांक 29 जून, 2013 द्वारा अवगत कराया है कि वार फंड से प्रतिमाह रु. 600 भुगतान के शासनादेश के संबंध में कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं है। यानी कि यह भुगतान अवैध तरीके से हो रहा है। इस स्मारक में बैठने के लिए पत्थर के चबूतरे हैं जिन पर गोरखपुर के 2 जमींदारों, सैयद मोहम्मद अली नासिर खां और बाबू पुरूषोत्तम दास के नाम खुदे हैं, जो सदा ही ब्रिटिश सरकार के प्रति भक्त बने रहे।
उत्तर प्रदेश जनसंपर्क एवं सूचना विभाग द्वारा 1972 में प्रकाशित पुस्तक-‘स्वतंत्रता संग्राम में गोरखपुर-देवरिया का योगदान’ में, जिसे चौरी चौरा विद्रोह के पचास साल पूरे होने के अवसर पर प्रकाशित किया गया था, में इस विद्रोह में सजा पाये लोगों को स्वतंत्रता सेनानी माना गया लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि सरकार ने इस विद्रोह के क्रांतिकारियों को आधिकारिक रूप से स्वतंत्रता सेनानी मान लिया हो। कम्युनिस्ट नेता और सदस्य विधान सभा, गुरू प्रसाद ने 1981 में इसके लिए 3 जून, 1981 को तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, 30 अक्टूबर, 1981 को गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह और 3 जून, 1981 को उ.प्र. के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को पत्र लिखे थे। गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने दिनांक 30 अक्टूबर, 1981 को उनके पत्र का जवाब भी दिया था और कहा था कि चौरी चौरा विद्रोह के सेनानी या उनके आश्रित, पेंशन के लिए आवेदन कर सकते हैं। तब तक आम जनता को इतना ही पता था कि 2 जुलाई को चौरी चौरा के कैदियों को फांसी की सजा दी गई थी लेकिन यह फांसी किन-किन कारागारों में दी गई थी, किसी को पता न था। गुरू प्रसाद लगातार कारागार अधीक्षक एवं सरकार से इसकी जानकारी मांग रहे थे। 1981 तक चौरी चौरा विद्रोह को राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का हिस्सा नहीं माना गया था। संसद सदस्य कामरेड झारखंडे राय और गुरू प्रसाद के अथक प्रयासों के बाद ही इस विद्रोह के क्रांतिकारियों को स्वतंत्रता सेनानी माना जा सका।
फांसी की सूली पर चढ़े चौरी चौरा के 19 क्रांतिकारियों के अलावा, आजीवन, 8 साल, 5 साल या 3 साल की सजा भोगने वाले भूखे, गरीब स्वयंसेवकों में से कुछ ने तो कारागारों में ही दम तोड़ दिया था और जो बचे हुए थे, वे कारागारों की अमानवीय यातनाओं के बाद इस कदर टूट चुके थे कि जल्द ही दुनिया से सिधार गए। उनके परिवार दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर थे लेकिन आजाद भारत की सरकार के यहां अभी भी सुनवाई होनी बाकी थी। अनु सचिव, मुख्यमंत्री, ने दिनांक 11-3-1986 को अपने अर्द्ध शा. पत्रांक 476/85-490/85-492/85-495/85 पीड़ित, उत्तर प्र्रदेश शासन, मुख्यमंत्री कार्यालय, अनुभाग-3, लखनऊ द्वारा गोरखपुर के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखा था और मुख्यमंत्री पीड़ित सहायता कोष से चौरी चौरा के मात्र 29 लोगों को या उनके आश्रितों को प्रति व्यक्ति रुपए 325 की एकमुश्त आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए रुपए 9,425 का एक चेक भेजा था।
फांसी की सजा पाये 19 में से 6 शहीदों, भगवान अहीर, बिकरम अहीर, महादेव, सम्पत पुत्र मोहन, सहदेव पुत्र जीतू और श्यामसुन्दर के किसी भी आश्रित के नाम पेंशन स्वीकृत नहीं हुई और 8 शहीदों के आश्रितों को मात्र रस्म-अदायगी हेतु कुछ माह से लेकर कुछ सालों तक पेंशन मिली और उन आश्रितों की मृत्यु के बाद बंद हो गयी। फांसी की सजा पाये बिकरम और उनके बेटे नेऊर, जो सेशन कोर्ट से बरी हो गए थे, स्वतंत्रता सेनानी माने तो गए लेकिन पेंशन केवल नेऊर के उत्तराधिकरी को स्वीकृत हुई। बिकरम के त्याग के बदले, उनके किसी अन्य उत्तराधिकारी को पेंशन नहीं मिली। आजीवन कारावास की सजा पाये 14 स्वतंत्रता सेनानियों में से केवल चार के आश्रितों को पेंशन स्वीकृत हुई थी। जिसमें से केवल 2 को पेंशन मिल रही है और 2 की मृत्यु के बाद पेंशन बंद हो चुकी है। शेष आजीवन सजा पाये 10 शहीदों के आश्रितों को पेंशन मिली ही नहीं। कुछ मामले ऐसे हैं, जिनके बारे में बता पाना संभव नहीं हैं कि उन्हें पेंशन क्यों मिल रही है? बलेसर पुत्र टेकधर की पुत्री तिलेसरी को पेंशन मिल चुकी है जिन पर न तो लोअर कोर्ट में और न सेशन कोर्ट में मुकदमा चला था। इसी प्रकार रघुबर पुत्र मुन्नर के पौत्र प्रभु को, मोहर पुत्र दीनदयाल के पुत्र हीरा को भी पेंशन मिल रही है लेकिन इन दोनों पर न तो लोअर कोर्ट में और न सेशन कोर्ट में कोई मुकदमा चला था। प्रभारी
अधिकारी (राजनैतिक पेंशन) कलेक्ट्रेट, गोरखपुर इस बारे में अपने पत्र संख्या 71/पी.पी.सी.-13 दिनांक 29 जून, 2013 द्वारा कुछ भी बता पाने की स्थिति में नहीं है।
अब्दुल्ला चूड़िहार की उत्तराधिकारी और पोती सुबुर्तन, जो आज भी गांव-गांव घूमकर चूड़ी बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पालती हैं, अपनी उपेक्षा और आक्रोश को व्यक्त करने से न चूकीं लेकिन जब मैंने व्यक्तिगत प्रयास से उनके पानी पीने के लिए एक इंडिया मार्का हैंड पम्प, आयुक्त गोरखपुर से अनुरोध कर लगवाने में सफल रहा तो वह कुछ हद तक शांत हो र्गइं और अपनी दर्द भरी व्यथा सुनाने लगीं। खेद का विषय है कि उसी बीच आयुक्त का स्थानान्तरण हो गया और संबंधित अधिकारियों ने लगे हैंड पम्प के पास चबूतरा बनवाने से पल्ला झाड़ लिया।
विद्रोह के 60 साल बाद, 6 फरवरी, 1982 को चौरी चौरा विद्रोह में शहीद हुए किसानों की याद में स्मारक निर्माण का शिलान्यास इंदिरा गांधी ने किया लेकिन इसका उद्घाटन, 10 वर्ष बाद 19 जुलाई, 1993 को प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा हो सका। स्मारक से सटे एक संग्रहालय का निर्माण 1998 में कराया गया। संग्रहालय में एक पुस्तकालय के अलावा सेशन कोर्ट में हुई गवाही की उर्दू और अंग्रेजी प्रतियां रखी गईं। सेशन कोर्ट के फैसले की एक प्रति भी यहां रखी गई। फांसी की सजा पाये शहीदों कीे मूर्तियां स्थापित की गईं लेकिन इस पूरे संग्रहालय की देखरेख की समुचित व्यवस्था नहीं की गई। संग्रहालय इतना घटिया बना था कि थोड़े ही समय में सीलन से खराब होने लगा। खिड़कियों के शीशे टूट गए तो फिर न लगे। लिहाजा बंदरों ने मूर्तियां को गिरा कर किसी सेनानी के कान तो किसी की नाक तोड़ डाली है। गवाही की उर्दू प्रति के दूसरे भाग को बंदरों ने नोच दिया है। यह सब होने के बावजूद, प्रशासन ने इस ओर झांकना, मुनासिब न समझा। यहां तैनात चौकीदार को विगत 13 सालों से वेतन नहीं मिला है। ऐसे में संग्रहालय की उपेक्षा का अनुमान लगाया जा सकता है।
तो इस प्रकार चौरी चौरा क्रांतिकारियों के प्रति हमने जो उपेक्षा और हिकारत का भाव अपनाया, वह आजादी के लिए बलिदान हो गये गरीबों की उपेक्षा है। देखा जाये तो पूर्वांचल के अधिकांश विद्रोहों में दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों ने ही अपनी कुर्बानी दी परन्तु इतिहास के पन्नों में मलाई खाने वाले चालाक और धूर्त लोग ही रहे।


सुभाष चन्द्र कुशवाहा
जन्म तिथि – 26-04-1961
जन्म स्थान – ग्राम जोगिया जनूबी पट्टी, फाजिलनगर, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा – स्नातकोत्तर (विज्ञान) सांख्यिकी।
प्रकाशित पुस्तकें: काव्य संग्रह-
1-आशा, 1994
2-कैद में है जिंदगी, 1998, साहित्य सदन, इलाहाबाद।
3-गाँव हुए बेगाने अब, 2004 (ग़ज़ल संग्रह), मेधा बुक्स, नई दिल्ली।
कहानियाँ संग्रह
4-हकीम सराय का आखिरी आदमी, 2003, प्रकाशन संस्थान/यात्री प्रकाशन नई दिल्ली।
5-बूचड़खाना, 2006, शिल्पायन।
6-होशियारी खटक रही है, 2009, अंतिका प्रकाशन।
7-लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियाँ, 2015, पेंगुइन बुक्स, भारत।
8-लाल बत्ती और गुलेल, हिन्दयुग्म प्रकाशन,नोयडा, 2020

संपादित पुस्तकें
9-कथा में गाँव, (कहानी संग्रह), 2006, संवाद प्रकाशन, मेरठ, मुंबई।
10-जाति दंश की कहानियाँ, 2009, सामायिक प्रकाशन, दिल्ली।
11-लोकरंग-1 (लोक संस्कृतियाँ), 2009, सहयात्रा प्रकाशन।
12-लोकरंग-2 (लोक संस्कृति), 2011, सहयात्रा प्रकाशन।
13-लोकरंग-3 (लोक संस्कृति), 2017, लोकरंग।
14- लोकरंग-4 (लोक संस्कृति), 2022, लोकरंग।
15- प्रेमचंद की बहुजन कहानियां, 2020, फॉरवर्ड प्रेस, दिल्ली।

इतिहास की पुस्तकें
16-चौरी चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन, 2014, पेंगुइन बुक्स इंडिया; पंजाबी और अंग्रेजी भाषा में भी प्रकाशित।
17-अवध का किसान विद्रोह (1920-22), 2018, राजकमल प्रकाशन; पंजाबी और अंग्रेजी में भी प्रकाशित।
18-भील विद्रोह:संघर्ष के सवा सौ साल, हिन्दयुग्म, 2020। नियोगी प्रकाशन इसे अंग्रेजी में प्रकाशित कर रहा है।
19-टंट्या भील: द ग्रेट मून लाइटर ऑफ़ इंडिया , हिन्द युग्म, 2021।
20- कबीर हैं कि मरते नहीं, 2020, अनामिका प्रकाशन, हिन्दयुग्म प्रकाशन, 2024।
संपादित पत्रिकाएँ 1- कथादेश का किसान अंक: ‘किसान जीवन का एहसास: एक फोकस’ 2- 1998 से ‘लोकरंग’ वार्षिक पत्रिका का संपादक। देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में लगभग 350 सामयिक लेख और 70 कहानियाँ प्रकाशित। सिंघली, उड़िया, पंजाबी, मराठी और अंगेजी में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान- 1- ‘सृजन सम्मान’ समन्वय संस्था, सहारनपुर 2- प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान, शबरी समाजशास्त्र अनुसंधान केंद्र, बांदा द्वारा, कहानी संग्रह- ‘हकीम सराय का आखिरी आदमी’।
3 – 18वां आचार्य निरंजननाथ सम्मान-2013, साहित्यिक पत्रिका ‘संबोधन’ एवं आचार्य निरंजननाथ स्मृति संस्थान, कांकरोली, राजसमंद, राजस्थान, कहानी संग्रह- ‘लाला हरपाल के जूते’। लोक कलाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन की दिशा में विगत 18 वर्षों से कार्यरत।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सृजन
बी 4/140 विशालखंड,
गोमतीनगर, लखनऊ 226010

 


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