ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं
1
माँ की ढोलक
ढोलक जब बजती है
तो जरूर पहले
वादक के मन में बजती होगी.
किसी गीत के संग
इस तरह चलती है
कि गीत का सहारा हो जाती है
और गीत जैसे नृत्य करने लग जाता है..जिसके पैरों में
घुंघरू जैसे बंध जाती है ढोलक की थाप.
ऐसी थापों के लिए
माँ बखूबी जानी जाती है,
कहते हैं ससुराल में पहली बार
ढोलक बजाकर
अचरज फैला दिया था हवा में उसने.
उन दिनों रात में
ढ़ोलक -मंजीरों की आवाजसुनते सुनते ही
सोया करते थे लोग.
दरअसल तब लोग लय में जीते थे.
जीवन की ढ़ोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को
खुशी खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले.
अब यहाँ जैसा हो रहा है
मैं क्या कहूँ
उत्सव में हम सलीम भाई को
बुलाते हैं ढ़ोलक बजाने
और कोई नहीं सुनता.
इधर माँ पैंसठ पार हो गई है
उसकी गर्दन में तकलीफ है
फिर भी पड़ौस में पहुँच ही जाती है
ढ़ोलक बजाने.
हम सुनते हैं मधुर गूँजें
थापें अपना जादू फैलाने लगती हैं
माँ ही है उधर
जो बजा रही है
डूबकर ढ़ोलक.
2
नाम छिपाना
जितनी भी पूँजी है दुनिया में
इनकी लालसा है कि भरा जाए इनके बैगों में
ये वासना से भरे हैं संपत्ति पाने के लिए
अंधे हैं ये दीगर मसलों को देख पाने के लिए
जिनके हिस्से का ये कमा ले रहे हैं ये धन
वे भाग्य को कोस रहे हैं
ईमानदारी की किताबें पढ़ रहे हैं
कविताएं और आयतें पढ़ रहे हैं
वक्त गुजार रहे हैं
समझ नहीं ही नहीं पाते अपने शोषक को
उधर ये हस्ताक्षर करके
बड़ा विनिमय कर लेते हैं मुनाफ़े का
हमारी मेहनतें,हमारी जरूरतें
इच्छाएं और सपने खरीद लेंगे ये लोग एक दिन
कोई नहीं इस्तीफा देगा इस चिंता में कि
हमारी पसंदों की चीजें
हमारे ही सामने बोली लगाकर कोई खरीद ले जाएगा
हम चयनकर्ता नहीं रह सकेंगे
धीरे धीरे हमारे हिस्से में बस समझौते आएंगे
फिर हमारी राजनीतिक तारीफें आएंगी
काले मंसूबों से
इन लोगों ने बहुत धन कमाया है
ये विश्व में अब्बल हैं
इनकी दुकानों की नाम पट्टियां
पूरा नक्शा ढंप रहीं हैं देश विदेश का
हम चाहते हैं यहां से वहां तक
एक रस्सी बांध कर
उन पर टांग कर अपने कपड़े
छिपा दें
इन काले नामों को
नाम छिपाना भी एक मार हो शायद
इन पूंजीपतियों के लिए
ब्रज श्रीवास्तव
3
एक भी दिन
धरती के बच्चों के लिए बड़ी मुसीबत है
जीवन को यहां इस तरह चलना पड़ रहा है
जैसे जंगल में हिरन
शेर की आहट लिए हुए
एक विलोम यहां
एक शिकारी की तरह घूम रहा है
हाथ में बंदूक और हृदय में
हिंसा लिए हुए,भूख लिए हुए
इतने साल हुए सभ्य हुए
आज़ाद हुए भी गुज़र गया अच्छा समय
अब भी मनुष्य ने मनुष्य को मार डालना
नहीं छोड़ पाया
इतने सक्रिय रहे नीति वचन और सूक्तियां
असफल हुए यातायात के नियम
सावधानियां चूक गईं
कि बस मनुष्य ही खोते रहे अपना जीवन
कभी वाहनों की टक्कर में
कभी घृणा के हत्यारे बनने में
और कभी बदले की भावना को अंजाम देने में
सूरज नहीं दे पा रहा धरती को
एक भी अच्छी ख़बरों से भरा दिन
इस अधूरे मनुष्य की नीयत के कारण।
4
बरगद
बरगद के तने को निहारेंगे
प्रेमी की आंख से
उसके एक पत्ते पर रखकर
गुड़ चने खाएंगें
बच्चों की तरह
उसके नीचे के समतल को कुरेदेंगे
पूछेगें मिट्टी के डीले से
हाल चाल
समझदारों की तरह
उसकी शाख पर जाकर बैठेंगे
और चिढ़ाएंगे
कोटर में बैठे उल्लू को
शरारती की तरह
बलबूटे को छीलकर खाएंगें
झांकेंगे नीचे और कौतुक दिखाएंगे
दोस्तों को
एक टहनी को तोड़कर
निकालेंगे एक गाढ़ा द्रव
उसे दूध कहकर
चखाएंगे मित्रों को
एक और टहनी को देखेंगे
वे ऊपर से चली आईं नीचे जमीन तक
उनकी लटों को देखकर
केवल चकित होंगें
चकित होते हुए
हम बरगद से प्यार करेंगें
उसे छोड़कर आएंगे
तो मुड़ मुड़कर देखेंगे.
पता नहीं क्या चाहता होगा बरगद
प्यार चाहता होगा या परवाह
भोजन चाहता होगा या हमारा साथ
पानी हमसे चाहेगा या बादलों से
छांव के बदले में वह
गांव से प्रशंसा पत्र चाहेगा
या उसके लिए उपवास
हम इस तरह जाएंगे
एक शीतल छांव में
बरगद के तने को
बांहों में भींच लेंगें
इस तरह हम हर वृक्ष को
बचाएंगे
कुल्हाड़ी से
5
नरेंद्र जैन उज्जैन से
दो नगरों के संबंधों के रक्त में
अभी तक उष्णता है
शिल्प और स्थापत्य के पत्थर
अभी तक पिघल रहे हैं
व्यापार के मार्ग मौर्य काल की तरह
रौनक भरे भले न हों
संवेदनाओं के मार्ग में
अभी भी रोशनी दमक रही है
नदियाँ आपस में बातें करती हैं
दो स्त्रियों की तरह
गये दिन जब भरी होतीं थीं
नीले और गहरे पानी से
ये दो शहरों की जीवन धाराएं हैं
अभी तक आ रहे हैं मेघा
कालिदास के अभिज्ञान
शाकुन्तल के श्लोक से
कुछ बातें समय के पार होतीं हैं
जैसे हवाएं
जैसे कविताएं
कवि भी उज्जैन से
चले आते हैं विदिशा
जैसे नरेंद्र जैन
चले आते हैं हवा के झौंकों की तरह
उज्जैन से विदिशा आना
उनके लिए
दोनों शहरों के बीच की दूरी को
दूरी न होना साबित करना है
नरेंद्र जैन
विदिशा की धरती को चूमने
चले आते हैं अक्सर
लोगों से कम
यहां के स्थानों से मिलकर
चले जाते हैं वापस उज्जैन
6
पौधे के लिए
एक पौध जन्म लेती है
तो बताशे नहीं बंटते
मुंह मीठा नहीं कराते लोग
उनके माता-पिता कहीं दूर
वायु को साफ कर रहे होते हैं
छांव दे रहे होते हैं।
कोई संस्कार नहीं होता एक
पौधे के लिए
जब वह अपने काम पर लग रहा होता है
गड़ रहा होता है मिट्टी में।
जबकि उसके बारे में तय है
कि वह धरती पर अपने
हिस्से के काम को
पूरा करेगा ही।
7
एम्बुलेंस
हट जा नाउम्मीदी रास्ते से हट जा,
मौत को मार डालने के लिये
घायल हुई जिंदगी जा रही है.
उसके पास वक्त की कमी है
तेज तेज जाना पड़ रहा है उसे
किसी के हिस्से का वक्त बचाने के लिये.
भूल जाओ अभी कुछ सोचना ,कुछ बोलना
सुनो ये सायरन की आवाज़
और बस दुआ करो
एक जरूरी
बहुत ज़रुरी आशाघोष करती हुई
एम्बुलेंस जा रही है.
8
मैं ही वंचित रहा
जब बाढ़ आई नदियों में
मैंने बादल और पानी को दी
कारण बताओ की चिट्ठी
जब भूकंप आया तो
मैंने डाँट दिया धरती को
जब झुलसे लोग गर्मी में तो
मैं झल्लाया सूरज पर
इनमें से किसी ने नहीं की कोई प्रतिक्रिया
करते रहे अपना काम बेखौफ़ सब
मैं ही वंचित रहा प्रकृति के खेल देखने से
स्वप्न में मिली नियंता की नौकरी को
गँवा दिया मैंने यूँ ही
9
करने के लिए
करने के लिए अभी बहुत कुछ बचा है
होने के लिए भी,
पक्षी को घोंसले में रखना है कुछ और तिनके वृक्षों को देना है कई उपहार हवा के लिए
सूरज को आराम के अलावा सब कुछ करना है चंद्रमा को बने रहना है
अंधकार के बीच की सबसे सुंदर और दीप्त चीज़
धरती को अपने परिक्रमण के दौरान देखना है उसके त्याग और मेहनत के बदले में कोई देना तो नहीं चाहता कोई कीमत
समुद्र को करना है कुछ उपाय
कि नदियों का उसके घर में भी रहे वज़ूद
एक एक करके सबके भीतर बैठना है उम्मीद को खुशियों को सबके लिए हर वक्त होना है सुलभ
रास्तों को पहनना है और मजबूत कपड़े
इतिहास को रहना है तटस्थ
दुनिया को बदलना है अपने कमरों का सामान
अच्छी चीज़ों को बढ़ाना है अपनी बिरादरी
हर आवाज़ को बनना है सुरीली
दिनों दिन बढ़ाना है मुझे अपनापा
संसार की आँखों से
जो चमक रही है हर एक शब्द में
———
ब्रज श्रीवास्तव
विदिशा में 5 सितंबर 1966 को जन्म।
समकालीन हिंदी कविता का चर्चित नाम।
तमाम गुमी हुई चीज़ें,घर के भीतर घर,ऐसे दिन का इंतज़ार ,आशाघोष, समय ही ऐसा है, हम गवाह हैं सहित,अब तक छः कविता संग्रह प्रकाशित।एक कविता संग्रह ‘कहानी रे तुमे’ उड़िया में भी प्रकाशित।अनुवाद और समीक्षा सहित कथेतर गद्य में अन्य प्रकाशन।माँ पर केंद्रित कविताओं का संचयन‘धरती होती है मांँ’,पिता पर केंद्रित कविताओं का संचयन ‘पिता के साये में जीवन’एवं त्रिपथ सीरीज के अब तक तीन संग्रहों का संपादन। साहित्य की बात समूह का संचालन। कुछ काम कैलीग्राफी और चित्रकला में भी। संगीत में दिलचस्पी।
विदिशा में शासकीय हाईस्कूल में प्राचार्य की पद पर कार्यरत।
फोन -7024134312
वाट्स एप -9425034312
ईमेल -brajshrivastava7@gmail.com
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बेहतरीन कविताएं… माँ की ढोलक ने गुम हुई देशी थाप गूंज गई..
धन्यवाद
अद्भुत कविताएं
बहुत बधाई
धन्यवाद
अति सुन्दर अभिव्यक्ति से परिपूर्ण कविताएंँ !
अति सुन्दर अभिव्यक्ति से परिपूर्ण कविताएंँ !
व्रज श्रीवास्तव जी और रचना समय दोनों को हार्दिक शुभकामनाएंँ और बधाइयाँ।
अति सुन्दर अभिव्यक्ति से परिपूर्ण कविताएंँ !
व्रज श्रीवास्तव जी और रचना समय दोनों को हार्दिक शुभकामनाएंँ और बधाइयाँ। साहित्यिक यात्रा निरन्तर यू़ँ ही चलती रहे।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
आपकी कल्पना शक्ति इतनी मजबूत और व्यापक है आपकी कविताओं को पढ़ने से समझ आता है
हर कविता का अपना एक रंग, अलग ढंग और भावों से भरा उमंग
बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं आपको और आपकी कलम को
माँ की ढोलक, बरगद, पौधे के लिए, एम्बुलेंस, मैं वंचित ही रहा जैसी तमाम कविताएँ ब्रज की संवेदनशीलता, समय के साथ कदमताल करते हुए समय से आगे देखने की क्षमता का परिचायक है। बधाई बेहतरीन कविताओं के लिए।
धन्यवाद
शुक्रिया
ब्रज श्रीवास्तव जी आपकी कविताएं से मे बहुत प्रभाबित हूँ आशा करता हूँ की आप सदा ऐसी कविताओं एवं लेख मुझे प्रेषित करते रहेंगे आपकी अभिव्यक्ति बहुत ही सुन्दर व श्रेष्ठ है l
Bahut sundar kavitayen
Maa ki dholak
Podhe ke liye
Bahut achchi lagi
अति उत्तम कविताएं है ब्रज भाई की।बहुत बहुत हार्दिक बधाई ।
आदरणीय ब्रज जी को बहुत दिनों बाद बड़ी सिद्धत से पढ़ा और मेरा यकीन मानिए मैं स्तब्ध हूं। आज मैं एक नए ब्रज श्रीवास्तव से मिला, जिनमें बिना किसी मिलावट की सुस्पष्ट छवि को मैं देख रहा था।
उनकी कविता में आत्मीयता दिखी एक गांव के बरगद से, माँ का प्रेम पगा मिला मां की ढोलक में, खुद से इतर दूसरों के लिए सोचने का मद्दा नजर आया एंबुलेंस वाली कविता में साथ ही साथ अन्य सभी कविताओं में गहन चिंतन है जो नितांत आवश्यक हो गया है आज….!
शेष शुभकामनाएं!
कवि आशीष मोहन
ब्रज श्रीवास्तव की कविताएँ
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इर्द-गिर्द दिखती नकारात्मकता को अँगूठा दिखाकर अपने पुरखों की तरह हम “लय में” जीने की आदत डालें और अपनी उल्लास-कामना से लोगों में “अचरज फैला” दें, इस चाहना के साथ लिखी गयी कविता ‘माँ की ढोलक” ब्रज जी की एक बहुपठित कविता है। इस कविता में एक व्याख्यातीत अंतरंगता है जो अपनी तमाम भंगिमाओं के साथ पाठक तक पहुँचती है। ढोलक, जो हमारी संस्कृति और हमारी सामाजिकता को घर-घर ध्वनित करती रही है और हमारी जीवनातुरता को सातत्य और सौन्दर्य प्रदान करने में अग्रणी रही है, को सामने रखकर ब्रज जी समकाल की जटिलता और अननुकूलता को एक गहरे काव्यबोध के साथ व्यक्त करते हैं। “अब यहाँ जैसा हो रहा है, मैं क्या कहूँ” इस अभिव्यक्ति पर ग़ौर फ़रमाने की ज़रूरत है। इधर हम जिन संकटों से घिरते चले जा रहे हैं, अपनी असह्यता के कारण वे दिनानुदिन अकथनीय हो रहे हैं अर्थात् एक मुकम्मिल और सम्पूर्ण शैली में उनका ज़िक्र करना मुश्किल-सा होता चला जा रहा है। ढोलक, जो अपनी थापें सहजता और बेहद आत्मीयता से हमारे अन्दर उतार देती है, हमारी इन उलझनों का एक स्वानुभूत विलोम है। कवि, जिसने ढोलक पर माँ के हाथों की थापों को बचपन से सुना है, अपने इस आह्लाद को पिपासुओं की तरह याद करता है। उसकी यह पिपासा जाने-अनजाने पाठक को भी तृष्णाकुल करती है।
दूसरी कविता ‘नाम छिपाना’ ग़ुस्से की कविता है। यह ग़ुस्सा मूल्यों को परे रखकर अन्धाधुन्ध धनार्जन में लिप्त वर्ग की मानसिकता के लिए है। एक तरह से ये लोग, जो अपने भौतिक उत्थान और आर्थिक उत्कर्ष के अलावा सब कुछ भूल चुके हैं, औरों के हक़ और जीवनोल्लास का हनन कर रहे हैं और अपने व्यावसायिक हितों को गगनचुंबी बनाने के लिए भाँति-भाँति के दुष्प्रचार में संलग्न हैं। मनुष्यता की पीड़ाएँ क्या हैं और आम आदमी भूख और तंगहाली से किस क़दर जूझ रहा है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। स्थिति यह है कि हमारी ज़रूरतें ही नहीं, हमारी इच्छाएँ और हमारे सपने तक वे बाज़ार में पहुँचा चुके हैं। हम, जिन्हें अपनी क़िस्मत को कोसने की आदत पड़ चुकी है, दुर्भाग्यवश उन तत्वों की शिनाख़्त नहीं कर पा रहे जो हमारा शोषण और उत्पीड़न करके एक दुन्दुभि-नाद के साथ आगे बढ़ रहे हैं और रौंदे हुए लोगों की तरफ़ मुड़कर देख तक नहीं रहे। कवि की कोशिश है कि वह ऐसे धनान्ध, स्वार्थान्ध और इच्छान्ध पूँजीपतियों को इतिहास के अँधेरे में पटक दे जहाँ उनका नामोनिशान तक शेष न रहे।
तीसरी कविता ‘एक भी दिन’ हर दिन बुरी ख़बरें लाने वाले समय के बारे में हैं। यहाँ निर्दोषिता उतनी ही ख़तरे में है जितना हिंस्र पशुओं से भरे जंगल में कोई हरिण होता है। हिंसक ताक़तें निर्भीक और दुस्साध्य होती चली जा रही हैं और जब चाहती हैं, इच्छित आखेट पर झपट पड़ती हैं। कवि इस बात को एक तिलमिलाहट के साथ बताता है कि मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन है और हालात इतने जटिल और डरावने हो गये हैं कि कुछ भी महफ़ूज़ नहीं लगता। नीति वचनों, सूक्तियों और नियमों की भरमार है, परन्तु उनमें कोई असर नहीं बचा। ज़्यादातर लोग एक दर्दनाक अपूर्णता में जी रहे हैं जिनके पास निश्चिन्तता और सुरक्षा के अतिरिक्त सब कुछ है। कविता आद्योपान्त मनुष्य की जिजीविषा और मनुष्यता की बेहतरी के पक्ष में खड़ी दिखायी देती है।
चौथी कविता ‘बरगद’ पर्यावरण के क्षरण और प्राकृतिक सौन्दर्य के ह्रास की वेदना की कविता है। बरगद, जिसे एक बुज़ुर्ग की तरह प्यार और सम्मान देने की संस्कृति हमने पुरखों से पायी है, इस कविता का नायक है। कवि जिस चापल्य और शैशवोचित खिलंदड़ेपन के साथ बरगद से अपनी निकटता या अंतरंगता प्रकट करता है, वे पाठक को जीवन्तता और आह्लाद के गहरे अहसासों से जोड़ते हैं। कविता की भाषा श्वासों और धड़कनों से भरी हुई है और ख़ुद को एक प्रवहमान तन्मयता-भाव के साथ पढ़वाती है।
अगली कविता ‘नरेन्द्र जैन उज्जैन से’ एक भिन्न तेवर की कविता है जो उज्जैन और विदिशा को कविता (सृजन) की दृष्टि से एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़ती है। इस कविता में जो अतीत-बोध है, वह इसे दिलचस्प और गरिमापूर्ण बनाता है। जीवन के कुछ स्फुरण ऐसे होते हैं जो हमारी चेतना से कभी विलीन नहीं होते। यह कविता, जिसकी व्याख्या किञ्चित् कठिन प्रतीत होती है, ऐसी ही अ-विलीन (या सतत् विद्यमान) स्मृतियों को एक स्पृहणीय भावनात्मक गरमाहट के साथ सहेजने का काम करती है।
छठी कविता ‘पौधे के लिए’ एक पौधे के बारे में है, मगर हमें लगता है जैसे कवि उसके बहाने मनुष्य की किसी बड़ी जीवनेच्छा का आविष्कार कर रहा है और हमारे अन्दर पृथ्वी के सतत् विकास और सहज अभ्युत्थान की आकांक्षा से आप्यायित मन रोप रहा है। जैसे किसी बच्चे को दुलारकर उसके उमगने का मार्ग प्रशस्त किया जाता है, कवि उसी भाव और उसी वैचारिक सौकुमार्य से पौधे के बारे में बतियाता है। कविता अभिव्यक्ति की तरलता की वजह से हमारे भीतर बार-बार स्फुरित होती है।
सातवीं कविता ‘एम्बुलेंस’ की अन्तर्ध्वनियाँ भिन्न हैं। जीवन, जो विपदाओं से आच्छन्न है, बचा रहे, इस बात को कवि एक तेज़ भागती एम्बुलेंस के माध्यम से व्यक्त करता है। कवि की यह फ़िक्र, जिसे वह आशा-घोष कहता है, नाउम्मीदी और हताशा का विपर्यय है।
आठवीं कविता ‘मैं ही वंचित रहा’ बाढ़ और भूकम्प जैसी आपदाओं में भी ध्वंस और बर्बादी के स्थान पर युयुत्सा और जीवनाकुलता देखती है और समृद्ध या तार्किक मन से इन दैवी संकटों के निहितार्थ ढूँढती है।
अन्तिम कविता ‘करने के लिए’ एक तृषा की गहराई से यह बताती है कि हमने बहुत-से ज़रूरी और महत्वपूर्ण कार्यों को अधूरा छोड़ दिया है। इन कार्यों का लेखा-जोखा कवि के अन्दर घुमड़ती कोमलताओं और सहज उदारताओं को दर्शाता है। यह कविता ही है जिसकी परिधि में सारी पृथ्वी की व्यथाएँ और आवश्यकताएँ एक केन्द्र-बिन्दु की भाँति जगमग-जगमग होती हैं।
इन कविताओं के लिए ब्रज जी बधाई के पात्र हैं।
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
लखनऊ (उ. प्र.)
मोबाइल 9918165747
आभार सर
New poem is best poem,
बहुत ही बड़िया कविताएँ सर जी l बहुत प्रभावित करती हैं आपकी कविताएँ l आगे भी आप और सुंदर कविताएँ लिखे और पोस्ट करे 👍👏
धन्यवाद
बहुत ही बड़िया कविताएँ सर जी l👍👏
बहुत ही बड़िया कविताएँ सर जी l
Ati sundar kavita
क्या बात,लाजवाव,बहुत खूब,बेहतरीन रचनाएं
धन्यवाद
क्या बात, बहुत बहुत खूब ,बेहतरीन रचनाये सर
बृज भाई सुप्रभात
आपकी लिखी गई 9कविताएं निश्चय ही आपका चिंतन एवं समसामयिक विषयों पर आपका गहन विचार कविता के माध्यम से हम सभी के बीच समाज को हर व्यक्ति को उत्प्रेरित करते हैं और एक दिशा प्रदान करते हैं हम सभी आपके लेखन चिंतन एवं विचारों को पढ़कर आग्रह करते हैं की आप इसी प्रकार लेखन के माध्यम से अपने कवि हृदय को उद्वेलित करते रहे धन्यवाद
ब्रज का अपना अंदाज है। अब यह बृज शैली भी कही जा सकती है। सभी कविताओं का चयन बहुत ही अच्छा है। सत्येंद्र जी की समीक्षा में बहुत कुछ शामिल हो गया । बृज को बधाई।
बहुत ही तार्किक,बहुत ही शानदार
बहुत ही उम्दा संरचना,,
दिनों दिन बढ़ाना है मुझे अपनापा, संसार की आंखों से
जो चमक रही है हर एक शब्द में
ब्रज जी की कविता की ये पंक्तियां उन्हें जोड़ती है नदियों ,शहरों ,गाँवो,वृक्षो, और संस्कारों से ,जो वे अपनी कविताओं के माध्यम से बताते हैं।लोगो की विध्वंसक सोच और पुरानी होती माँ की ढोलक के बहाने छुटती जा रही पुरानी यादों को बखूबी अपनी रचना में उकेरा है।
आपको शुभकामनाएं
बेहतरीन कविताएं…
माँ की ढोलक – माँ की ढोलक की आबाज़ माँ के जाने के बाद ज्यादा याद आती है .
बरगद – पेड़ों की उपयोगता की सिद्ध करती तथा पर्यावरण बचाने की गुहार लगाती शानदार कबिता
बरगद के तने को / बांहों में भींच लेंगें / इस तरह हम हर वृक्ष को / बचाएंगे / कुल्हाड़ी से
एम्बुलेंस – जीवन का आशाघोश
मैं ही वंचित रहा – बेहतर रचना है मैं ही वंचित रहा प्रकृति के खेल देखने से
ब्रज श्रीवास्तव की कविताओं में जीवन के विभिन्न पहलुओं और मानवीय संवेदनाओं का गहन चित्रण मिलता है।
1. माँ की ढोलक – यह कविता मातृत्व और पारिवारिक जीवन का बिंब रचती है, जिसमें माँ का संघर्ष और उसकी ढोलक का प्रतीकात्मक चित्रण है।
2. नाम छिपाना – यह व्यंग्यात्मक कविता पूंजीवादी समाज की असमानताओं पर प्रहार करती है, जहाँ पहचान और अस्तित्व की चुनौतियाँ छिपी हैं।
3. एक भी दिन – जीवन की रोजमर्रा की भागदौड़ और उसमें खोए हुए संबंधों की चर्चा करती है, जो व्यक्तिगत संघर्ष और सामाजिक दबावों को दिखाती है।
4. बरगद – यह कविता प्रकृति और मानव के सहअस्तित्व को दर्शाती है, जहाँ बरगद का वृक्ष स्थायित्व और आश्रय का प्रतीक बनकर उभरता है।
5. मेरे आसपास – यह कविता रोजमर्रा के जीवन और समाज की तस्वीर खींचती है, जहाँ कवि अपने आसपास के लोगों और घटनाओं को ध्यान से देखता है और उसमें छिपी संवेदनाओं को पकड़ता है।
6. गुलाब और काँटे – यह कविता सुंदरता और संघर्ष का प्रतीकात्मक चित्रण है, जहाँ गुलाब और काँटे साथ-साथ होते हुए भी जीवन के विभिन्न संघर्षों का प्रतिबिंब बनते हैं।
7. रास्ते की रेत – जीवन के संघर्षों और रास्ते की कठिनाइयों को दर्शाने वाली यह कविता कठिन हालातों में भी चलते रहने की प्रेरणा देती है।
8. रात की बारिश – यह कविता रोमांस और उदासी का संगम है, जहाँ रात और बारिश का चित्रण इंसानी भावनाओं और समय के प्रवाह के प्रतीक के रूप में उभरता है।
9. पुराने गीत – यह कविता नॉस्टैल्जिया और बीते समय के गीतों के माध्यम से स्मृतियों को जीवंत करती है, जहाँ पुरानी यादें आज के संघर्षों के साथ जुड़ती हैं।
ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं जीवन की साधारण घटनाओं और गहरी मानवीय भावनाओं का संतुलित मिश्रण हैं। उनका प्रतीकात्मक और सरल भाषा में लिखा गया काव्य पाठक को सोचने पर मजबूर करता है।
ब्रज श्रीवास्तव जी की कविताओं में समाज की चिंता, शोषितों के प्रति हमदर्दी, पर्यावरण की सुरक्षा एवं पारिवारिक मूल्यों को सहेजने की भावना दृष्टिगत होती है।
वर्तमान समय में जब संस्कृति में फ्यूजन की भरमार है तब *माँ का ढोलक बजाना* बरबस ही आकृष्ट करता है और संस्कृति को बनाये और बचाये रखने का सिलसिला बना रहता है।
2 नाम छिपाना
कविता शोषण के विरुध्द नए प्रतिमान गढ़ती दिखाई देती है जहां कवि अलग तरीके से पूंजीपतियों को सजा देने की बात कहता है।
3 एक भी दिन
कविता प्रतीकों के माध्यम से
समय के बदलते चक्र और मनुष्यता के खत्म होने पर चिंता व्यक्त करती कविता है।
सूरज को ज्ञान और दिशा का प्रतीक है वह भी अच्छी खबर देने में असमर्थ रहा है।
4 बरगद एवं 6 पौधे के लिए
बरगद संयुक्त परिवार का प्रतीक है। जिस पर कई पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते हैं। प्रकृति की रक्षा करने का निश्चिय लिए कविता पर्यावरण को सुरक्षित करने के लिए संकल्पित है।
5 नरेंद्र जैन उज्जैन से
ब्रज जी कविताएँ विविध विषयों पर लिखी गयी हैं।
काव्य शिरोमणि नरेन्द्र जैन जी पर यह कविता आधारित है।
7 एम्बुलेंस
यह एक अछूता विषय है।
एम्बुलेंस की आवाज सुनकर ही व्यक्ति की धड़कन बढ़ जाती है। बाद में इस कविता आया नाम ब्रज जी ने अशाघोष रख दिया था।
ब्रज जी की कविताएँ समकालीन परिदृश्य को भलीभाँति चित्रित करती हैं, पाठक के मन में कई सवाल उत्पन्न कर उसे समाधान की ओर अग्रसर करने की क्षमता रखती हैं।
*पद्मा शर्मा*
ग्वालियर
धन्यवाद पदमा मैम
ब्रज जी की कविताएँ ढोलक पर पड़ती एक थाप से सस्वर बोल पड़ती हैं कि “मैं हूँ और मुझे पढ़ा,जाना,समझा जाए ।”
नौ रंग अपना पूरा विस्तार लिए ऊँचाइयों की ओर बढ़ते रहते हैं ।
आदरणीय सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी जी की विस्तृत टिप्पणी के बाद बहुत कुछ कहने के लिए बचता नहीं ।बहुत बधाई ब्रज जी उत्तम सृजन के लिये 💐💐