अंग्रेजी से अनुवाद : आनंद बहादुर

 

अल्बैर कामू का जन्म अफ्रीका के एक छोटे से गुलाम देश अल्जीरिया में 1913 में हुआ जहां फ्रांस का क्रूर शिकंजा था। इस शिकंजे के बीच कामू का रचनात्मक मानस निमिॅत हुआ। कामू में ज्यां पाल सार्त्र जैसी प्रतिबद्धता थी बावजूद इसके कामू समय – समय पर प्रतिबद्धता के ख़िलाफ़ मुखर होते रहे और उसे ज़ुबान देते रहे। कह सकते हैं , कामू के समूचे लेखन पर उनके गुलाम देश,अल्जीरिया के चप्पे-चप्पे के कराह की अनुगूंजें हैं। इन्हीं अनुगूंजों में ज़िन्दगी के बुतुकेपन ,एब्सडिॅटी की तल्खी थी जिसके मद्देनज़र उन्हें ,उनके छोटे से उपन्यास Outsider के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । गुलाम देश के एक रचनाकार को ,वह भी युवा जो मात्र 45 वर्ष का था – अल्जीरिया की आज़ादी के लिए संघर्षरत जनता को समपिॅत था। कुछ ही वर्षों के अंतराल में मात्र 47 वर्ष की आयु में कामू की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई। क्या यह जीवन की तुच्छता का बोध नहीं जिसे कामू वैचारिक प्रतिबद्धता के बाद भी ज़ुबान देतु रहे। बहरहाल यहां हम अल्बैर कामू के 10 दिसम्बर 1957 को दिए गए नोबेल पुरस्कार वक्तव्य को प्रस्तुत कर रहे हैं जो गुलाम देश की जनता की पीड़ा को स्वर देता है। यहां एक बात ग़ौरतलब है और भरोसा है, पाठक इसे महसूस करेंगे जिसे अलग से बताने की ज़रूरत नहीं। कामू ने पुरस्कार प्राप्ति पर अपने एक शिक्षक को ख़त लिखा : प्यारे जरमां , अपने चारों तरफ़ आजकल मची इस खलबली के कुछ कम हो जाने की प्रतीक्षा करने के बाद आपको आज मैं सच्चे हृदय से यह पत्र लिख रहा हूं। मुझे अभी हाल में बहुत बड़ा सम्मान दिया गया है जो न मैंने कभी चाहा था , न प्राप्त करने की कोशिश की थी। लेकिन जब मुझे यह ख़बर दी गई , मां के बाद पहला ध्यान मुझे आपका आया। आपके बिना , आपके उस प्यार भरे सहारे के बिना जो आपने उस छोटे से ग़रीब बच्चों को जो उस समय मैं था , दिया, बिना आपकी शिक्षा और आदर्श के , यह कुछ भी संभव नहीं था। मैं इस सम्मान को कोई बहुत बड़ी बात नहीं मानता। लेकिन कम से कम इससे मुझे आपको यह बताने का कि आप मेरे लिए कितने महत्त्वपूर्ण थे और आज भी हैं, मौक़ा मिला है ,और यह विश्वास दिलाने का कि आपकी कोशिशों , आपकी मेहनत , और वह उदार हृदय जो आपने उसमें लगाया , आज भी आपके उन छोटे- छोटे स्कूल के बच्चों में से एक इस एक के मन में अभी तक जिंदा है, इस लम्बे अंतराल के बावजूद हमेशा अपने आपको आपका कृतज्ञ छात्र मानता रहा है। मैं अपनी समस्त आत्मीयता से आपसे गले मिलता हूं – अल्बैर कामू।वक्तव्य का अनुवाद डॉ. आनंद बहादुर ने किया है, मैं उनके आत्मीय सहयोग का आभारी हूं, साथ ही सम्पादक और सहचर कवि नरेश अग्रवाल का भी जिनके सम्पादन सहयोग के बिना यह और अभी तक की सारी प्रस्तुतियां संभव न हो पातीं। -हरि भटनागर

 

आपकी स्वतंत्र अकादेमी के द्वारा सम्मानित होने पर जब मैंने यह विचार किया कि किस प्रकार यह प्रतिष्ठा मेरी समस्त व्यक्तिगत उपलब्धियों की तुलना में बहुत अधिक है, तो मेरी कृतज्ञता और भी बढ़ गई है। हर व्यक्ति स्वीकृति चाहता है, और हम समझ सकते हैं कि यह बात कलाकारों पर और भी अधिक लागू होती है। इसलिए मैं भी चाहता हूं। फिर भी मेरे लिए यह असंभव था कि अपनी इस थोड़ी-सी योग्यता के परिप्रेक्ष्य में आपके निर्णय के अप्रत्यक्ष परिणामों का आकलन न करूं। यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति जो अभी अपेक्षाकृत युवा ही हो, जिसके पास सिर्फ उसकी दुविधाएं हों, जिसका कार्य अभी अधूरा ही हो, और जो अपने कार्य और मित्रता की एकांतता में रहने का अभ्यस्त हो— क्या ऐसा संभव है कि वह ऐसे किसी चयन से घबराए बिन रह जाए जिसने हठात् सारा ध्यान इस बेरहमी के साथ उसके ऊपर केंद्रित कर दिया हो कि वह और भी अधिक अकेला और अंतर्मुखी हो जाने को विवश हो जाए? फिर यह प्रश्न भी उठता है कि एक ऐसे समय में, जब यूरोप के अन्य लेखक, जिनमें कई महानतम विभूतियां हैं, चुप करा दिए गए हों, और जब उसकी मातृभूमि एक दीर्घकालिक वेदना को झेल रही हो, कोई लेखक ऐसे सम्मान को किस भावना से स्वीकार कर सकता है?

तो मैंने उस धक्के और उस असमंजस को महसूस किया है। संक्षेप में, मानसिक शांति को वापस पाने के लिए उस अत्यधिक मेहरबान नियति के प्रति खुद को अनुकूलित करना पड़ा है। और जहां तक मेरी खुद की क्षमता का प्रश्न है, जब भी कोई ऐसी परिस्थिति सामने आई जिसका सामना करना कठिन था, मैंने बस उस एक चीज पर भरोसा किया जिसने कठिन से कठिन परिस्थिति में मेरा साथ निभाया है: अपनी कला और लेखक की अपनी भूमिका के बारे में मेरी सोच। तो कृपया मुझे अपनी कृतज्ञता तथा मित्रता को अभिव्यक्त करने के लिए सबसे सरल शब्दों में यह बताने का अवसर दें कि वह सोच सचमुच में आखिर क्या है।

मेरे लिए लेखन एक ऐसी चीज है जिसके बगैर मैं जिंदा नहीं रह सकता। इसके बावजूद मैंने कभी उसे सर्वोपरि नहीं माना। बल्कि यह इसीलिए तो मेरे लिए अनिवार्य है क्योंकि यह किसी को निष्कासित नहीं करता, और मुझे अन्य लोगों के साथ समानता के एक साझा धरातल पर जीने देता है। मेरे लिए लेखन कोई एकांत प्रमोद नहीं, बल्कि सुख दुख की बेहतर छवि के सृजन का माध्यम है, जो वृहत्तर जनसमूह को प्रभावित करता है। इसीलिए, यह कलाकार को अलग-थलग हो जाने से रोकता है। यह उसका सामना एक सर्वाधिक उदार तथा सार्वभौम सत्य से कराता है। और यदि किसी व्यक्ति ने, जैसा कि अक्सर होता है, लेखन का रास्ता इसलिए चुना क्योंकि उसे अपनी भिन्नता का एहसास था, तो उसे बहुत जल्द समझ में आ जाता है कि दूसरों के साथ अपनी समरूपता को स्वीकार करके ही इस का पोषण किया जा सकता है। इस तरह एक कलाकार सदैव एक अंतहीन तरीके से स्वयं तथा अन्य के बीच झूलता रहता है। सौंदर्य जिसके बगैर वह जीवित नहीं रह सकता तथा समाज जिसे खुद से काट कर अलग नहीं कर सकता, के बीचोंबीच। तभी तो, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे सच्चा कलाकार नापसंद करे। वह अभिमत देने के बजाय चीजों को समझ सकने के लिए बाध्य होता है। और यदि उसे कोई पक्ष लेना पड़ जाय, तो वह ऐसा उसी समाज में रह कर कर सकेगा जहां, नीत्से के अर्थपूर्ण शब्दों में, निर्णायक सर्जक के आगे झुका हुआ हो, चाहे वह फिर कोई श्रमिक हो, अथवा बुद्धिजीवी।

इस मानक पर कस कर देखते हैं तो समझ में आ जाता है कि अपने दुष्कर कर्तव्य से भाग कर लेखक होना संभव नहीं। इस परिभाषा से, लेखक का कार्य उन लोगों का हित साधना नहीं जो इतिहास को रचते हैं, बल्कि उसे ऐसे लोगों के पक्ष में खड़ा होना है, जो इतिहास से उत्पीड़ित हैं। वर्ना वह अलग-थलग पड़ कर अपनी कला से वंचित हो जाएगा। जुल्म ढाने वालों की सारी सेनाएं अपने करोड़ो सैनिकों के साथ एक लेखक की तन्हाई को आबाद नहीं कर सकतीं— खास कर तब, जब वह स्वेच्छा से उनके साथ कदमताल करने की कोशिश करे। लेकिन दुनिया के दूसरे छोर पर शर्मिंदगी झेल रहे एक अज्ञात कैदी की खामोश चीख उसे उसके निर्वासन से खींच कर वापस ले आने के लिए काफी है, खासकर तब, जब आजादी के सुविधाओं के बीच वह खामोशी उससे भुलाई न जा सके, और वह अपने लेखन के माध्यम से उसकी प्रतिध्वनि पैदा करने को विवश हो जाए।हममें से कोई भी इतना महान नहीं कि पूरी तरह इसे साध सके। फिर भी चाहे वह अज्ञात हो अथवा क्षण भर के लिए प्रसिद्ध हो जाए, चाहे तानाशाही द्वारा जकड़ा हुआ या अस्थायी तौर पर खुद को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र, एक लेखक अपने जीवंत समाज की भावनाओं को इस प्रकार पुनर्सृजित कर सकता है कि उसके लेखन को औचित्य मिले। मगर यह तभी संभव है जब वह शक्ति भर उन दो आस्थाओं को उनकी पूर्णता में स्वीकार करे जिनमें उसकी कला की मर्यादा निहित है : सत्य की सेवा तथा स्वतंत्रता की सेवा। चूंकि उसका लक्ष्य अधिकाधिक लोगों को एक सूत्र में पिरोना है, वह झूठ और गुलामी से समझौता नहीं कर सकता, क्योंकि ये जहां कहीं भी हों, अकेलेपन को जन्म देते हैं। हमारी व्यक्तिगत कमजोरियों के बीच, हमारी कला की महानता हमेशा इन दो प्रतिबध्दताओं में निहित रही है जिनको निभाना बहुत कठिन है: हम जो जानते हैं उसके बारे में झूठ बोलने से इंकार करना और उत्पीड़न का प्रतिरोध करना।

बीस से अधिक वर्षों के विक्षिप्त इतिहास के दौरान, जब अपनी उम्र के अन्य लोगों की तरह अपने युग की उथल-पुथल के बीच खोए हुए, मैंने कुछ अस्पष्ट प्रतिछायाओं से यह भरोसा ग्रहण किया कि लेखन एक सम्मानजनक कार्य है जो हमें सिर्फ लिखने भर की बाध्यता से कहीं अधिक व्यापक एक बंधन में बांधता है। खासकर जैसा मैं था और जितनी मेरी ताकत थी उसके बरअक्स, इसने मुझे अन्य साथियों के साथ— अपने दौर की उथल-पुथल और आशा को साझा करते हुए— एक अटूट बंधन में बांधा। वे जो प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत में जन्मे थे, जो ठीक उस समय बीस की वयस में पहुंच रहे थे जब हिटलर सत्ता पर काबिज हो रहा था, और जब पहले पहले क्रांतिकारी अदालतों की सुनवाईयां चालू हुई थीं; वे जिन्होंने स्पेन के युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, कंसन्ट्रेशन कैम्पों की सत्ता, और यंत्रणा और कारागारों वाले यूरोप का सामना करते हुए अपना अध्ययन पूरा किया था। और आज उनके सामने आणविक विनाश से संत्रस्त एक दुनिया में अपने बच्चों का लालन-पालन के साथ साथ अपनी कृतियों को पूर्णता देने की चुनौती है। इतने कुछ के बाद अब उनसे आशावादी होने की अपेक्षा कौन रखेगा? मैं तो यहां तक महसूस करता हूं कि जो लोग हताशा की पराकाष्ठा को छू रहे हैं, जो दूसरों को अपमानित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं, और जो अपने आप को वर्तमान समय के नकारवाद में डुबो चुके हैं, ऐसे लोगों के खिलाफ संघर्ष को विराम दिये बिना हमें उनकी गलती को समझना चाहिए। पर सच तो यह है कि आज मेरे देश और यूरोप के अधिकांश लोग उस नकारवाद को अस्वीकार कर चुके हैं और अपने लिए वैधता ढूंढ रहे हैं। इस विनाशकारी समय में उन्हें जीने की कला को गढ़ना पड़ा रहा है, ताकि वे इतिहास की इस आत्मघाती प्रवृत्ति से संघर्ष करने के लिए नया जन्म ले सकें।

शायद प्रत्येक पीढ़ी अपने कंधे पर दुनिया का पुनर्सृजन करने का दायित्व उठा लेती है। लेकिन मेरी पीढ़ी जानती है कि वह दुनिया का पुनर्निर्माण नहीं करेगी। उसका काम शायद और भी बड़ा है, क्योंकि उसे खुद को बर्बाद कर लेने से इस दुनिया को बचाना है। एक सड़े गले इतिहास के वारिस के रूप में, जिसमें सड़ी गली क्रांतियां और लक्ष्यच्युत तकनीकें मिली हुई हैं, जिसमें मृत देवता और फटी पुरानी मान्यताएं गूत्थम गुत्था हैं, जहां आज दोयम दर्जे की शक्तियां किसी भी चीज को चाहें तो नेस्तनाबूद कर सकती हैं, पर जीत नहीं सकतीं, जहां बुद्धि घृणा और शोषण की दासी बन गई है, वहां इस पीढ़ी को कुछ नहीं वरन् खुद अपने ही नकार से प्रारंभ कर, भीतर और बाहर दोनों जगह, जीवन तथा मृत्यु के सम्मान की पुनर्स्थापित करने के लिए लड़ना पड़ा है। बर्बादी के कगार पर खड़ी इस दुनिया के सामने, जहां हमारे मौत के महान फरिश्ते हमेशा के लिए मृत्यु का साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं, यह पीढ़ी तन कर खड़ी हो गई है। और वह ये जानती है कि, समय के विरुद्ध एक पागल दौड़ में, उसे राष्ट्रों के बीच ऐसी शांति की स्थापना करनी है जो दासत्व पर आधारित न हो, कि उसे श्रम और संस्कृति के बीच एक सामंजस्य स्थापित करना है, और सारी मानवता के सहयोग से ‘आर्क आव काॅवनेन्ट’ की पुनर्रचना करनी है। संभव है कि उस महान उद्देश्य को वह कभी प्राप्त न कर सके, पर निश्चित तौर पर सारी दुनिया में अभी से वह सत्य और स्वतंत्रता की दुहरी चुनौती को स्वीकार कर आगे बढ़ रही है और कभी मौका आया तो नफरत किये बगैर जान कैसे दिया जाता है, इसकी मिसाल पेश करने को भी तैयार है। यह पीढ़ी जहां कहीं भी है, आदर और प्रोत्साहन की हकदार है, खासकर जहां जहां वह खुद को कुर्बान कर रही है। इस कार्यक्रम में, आपकी पूरी सहमति से, मैं यह सम्मान इस पीढ़ी को सौंपना चाहता हूं जो आपने मुझे दिया है। मगर इतना करना ही काफी नहीं होगा, एक लेखक के कार्य की महत्ता को रेखांकित करते हुए, मुझे उसे उसकी सही जगह पर रखने का प्रयास भी करना चाहिए। वो जैसा है, वैसा ही दर्शाते हुए, एक ऐसा व्यक्ति जिसके अधिकार संघर्ष के उसके साथियों से अलग कतई नहीं। वह कमजोर है मगर हठी, अन्यायी पर न्याय को उत्सुक, अपनी कृतियों का सृजन, बिना किसी शर्मिंदगी या गर्व के सार्वजनिक दृष्टि में करता, वेदना तथा सौंदर्य के बीच निरंतर द्विभाजित, और अपनी दुहरी प्रकृति के भीतर से ऐसी कृतियां गढ़ कर सामने लाता हुआ जिन्हें उसने इतिहास की विनाशकारी उथल-पुथल से ढीठाई के साथ खींच कर बाहर निकाला है। इसके बाद कौन है जो उससे बने बनाए समाधानों तथा सुंदर नैतिक नियमों की अपेक्षा रखेगा? सत्य हमेशा रहस्यमय, फिसलनदार और नए सिरे से उद्घाटित किये जाने योग्य होता है। आजादी खतरनाक है, यह जितनी उत्तेजनापूर्ण है इसके साथ जीना उतना ही कठिन। हमें कष्ट के साथ मगर दृढ़ता से अपने इन दो लक्ष्यों की ओर चलना है, यह निश्चित मानते हुए कि इतनी लंबी राह में हम कमजोर पड़ेंगे और पांव डगमगाएंगे। तो फिर, कौन सा ऐसा लेखक है जो साफ अन्तरात्मा के साथ नैतिकता की शिक्षा देने वाला उपदेशक बनने का दुस्साहस करेगा? जहां तक मेरा सवाल है, तो मैं एक बार पुनः दुहराना चाहूंगा कि मैं इन सभी बातों से बहुत दूर हूं। मैं उस धूप को, जीवन के उस सुख को और उस आजादी को भुला नहीं पाया हूं जिनमें मैं बड़ा हुआ। इसलिए यूं तो यह अतीतवेदना मेरी बहुत सारी कमियों और गलतियों की वजह रही है, फिर भी इसने निस्संदेह मेरे जीवन-लक्ष्य से मेरा परिचय कराया है। और यह अभी भी मुझे उन सभी गूंगे भाइयों के बगल में खड़ा होने को विवश करती है जो दुनिया भर में उस जीवन को झेल रहे हैं जो उन पर थोपा गया है, क्योंकि वे सुख के मुक्त क्षणों को याद रखना जानते हैं या उन्हें कभी कभी, क्षणांश के लिए ही सही, उसका पुनराभास होता है।

इस प्रकार, मैं जो कुछ भी हूं, अपनी सीमाओं, अपने दायित्वों और अपने कठिन आदर्शों में, उसकी परिणति में मैं और भी अधिक आजादी के साथ आपकी उस उदारता की प्रचुरता को दर्शाना चाहूंगा जिससे आपने मुझे नवाजा है। और भी आजादी के साथ आपको बताने के लिए, कि इस सम्मान को मैं उन सभी लोगों के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में ग्रहण करना चाहूंगा, जो इस संघर्ष के बरोबर के हिस्सेदार होते हुए भी, पुरस्कृत नहीं हो सके, बल्कि बदले में उनके हाथ केवल यातना तथा उत्पीड़न ही लगे। और अंत में, इतना ही कहना शेष रह जाता है कि मैं हृदय की गहराई से आपको धन्यवाद देता हूं और व्यक्तिगत रूप से इस कृतज्ञता को व्यक्त करने के लिए निष्ठा की वह युगों पुरानी शपथ सार्वजनिक रूप से लेता हूं, जिसे हर कलाकार प्रतिदिन मन ही मन दुहराता है।

 


आनंद बहादुर
जन्म- 17 जुलाई 1961 देवघर, झारखंड

शिक्षा- अंग्रेजी में एम. ए, पीएच डी के लिए डी एच लाॅरेंस पर शोध।

कृतियाँ- कहानी संग्रह ‘ढेला’ (सेतु प्रकाशन) और ‘बिसात’ (सूर्य प्रकाशन मंदिर), कविता संग्रह ‘समतल’ (किताबवाले) और ‘नीले रंग की एक चुप’ (पेनमैन प्रकाशन), ग़ज़ल संग्रह ‘मौसम खुशबू रंग हवाएं’ (किताबवाले) ई-बुक ग़ज़ल संग्रह ‘सीपियाँ’ (नाँटनल), मेटामोरफ़ोसिस और अन्य कहानियाँ,
(फ्रैंज़ काफ़्का की कहानियों का हिंदी अनुवाद, शिवना प्रकाशन)

हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, रचना समय, साम्य, पहल, वसुधा, साक्षात्कार आदि पत्रिकाओं में कविता, ग़ज़ल, कहानियाँ, आलेख और अनुवाद प्रकाशित।

संगीत में रुचि, शौकिया वायलिन वादन।

अनुवाद-
विश्व प्रसिद्ध लेखकों- अल्बैर कामू, फ्रांज़ काफ़्का, सिमोन द बोउवार, जार्ज लुकाच, गाय दी मोपासां, थियोडो अडाॅर्नो, टेरी ईगलटन, चार्ल्स बाॅदलेयर, जेम्स जाॅयस, जाॅर्ज ऑरवेल, कैथरीन मैन्फील्ड, डिंग लिंग आदि की महत्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद। मनमोहन पाठक के उपन्यास ‘गगन घटा घहरानी’ का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशनाधीन।
पेशे से अंग्रेजी के प्राध्यापक, छत्तीसगढ़ उच्च शिक्षा विभाग में कार्यरत।
फोन- 8102272201
ईमेल- anand.bahadur.anand@gmail.com


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