कला साहित्य और वर्तमान विसंगति
-अच्युतानंद मिश्र

दुःख, करुणा, प्रेम, बिडम्बना, विषाद, त्रासदी और नाटकीयता- ये साहित्य-कला के स्थायी और आदिम मूल्य रहे हैं। कह सकते हैं कि इन्हीं मूल्यों के फलस्वरूप कला का अविर्भाव हुआ है। ये सभी मूल्य उत्तरोत्तर मानवीय प्रवृत्तियों में ढल गए। सहज तौर पर हम जिसे मानवीयता (मानवीय गुण) कहते या समझते हैं, वह मनुष्य की कला रूचि का ही अभिप्राय है- जो इन मूल्यों द्वारा निर्मित और निर्धारित होता रहा है।
मनुष्यता का इतिहास अगर संघर्षों का इतिहास है, तो वह कला रुचियों के विकास और विस्तार का भी इतिहास है। वह संवेदनाओं के सूक्ष्म और व्यापक होने का भी इतिहास है। मनुष्य के विकास-क्रम में श्रम और संवेदना का द्वैत, सदैव विद्यमान रहा है। कहना न होगा कि यही द्वैत हमारा इतिहास-बोध निर्मित करता है। इस बात को समझना अधिक कठिन नहीं। हम जानते हैं कि लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य, मनुष्य नहीं था। वह अन्य प्राणियों की तरह ही था। वह पेड़ों पर रहता था। प्रकृति में बहुत कुछ संयोगवश घटित होता है। मनुष्य का पेड़ों से मैदान पर आना इसी तरह का एक संयोग था। पेड़ों पर रहने वाला मनुष्य अपेक्षाकृत लम्बाई में छोटा था। पर उनकी श्रवण और घ्राण शक्ति अधिक थी। मैदान पर जब मनुष्य आया तो सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि उसकी रीढ़ धीरे-धीरे लम्बवत होती गयी। फलस्वरूप उसके दो हाथ स्वतंत्र हो गये। मनुष्य का जन्म और हाथों की स्वतंत्रता परस्पर जुड़े हुए हैं। हाथों की स्वतंत्रता ने जहाँ मनुष्य को श्रमशील बनाया वहीँ वह अधिक संवेदनशिल भी हो सका। उसने अपने स्वतंत्र हाथों से एक की जगह दो फल तोड़े। एक उसने खुद खाया दूसरा साथी को दिया। दूसरे के मन में इस सहज प्राप्य के प्रति संवेदना उमड़ी। तब भाषा नहीं थी। यह संवेदना के जन्म का वृतांत है। कहना न होगा कि हाथों के स्वतंत्र होने ने श्रम और संवेदना के द्वैत को जन्म दिया। इस द्वैत ने भाषा और समाज को। यही द्वैत मनुष्यता का इतिहास है। इसी परिकल्पना को आत्मसात करना इतिहासबोध- जिसके मूल में श्रम और संवेदना का द्वैत है।
क्या यह इतिहास-बोध बाधित हो रहा है? कला साहित्य के प्रति जो हमारे भीतर आदिम राग रहा है- वह कहीं मंद तो नहीं पड़ रहा? हजारों वर्षों की मनुष्यता ज्ञान और संवेदना के उसी मार्ग पर बढ़ रही है? अगर नहीं तो यह नया पथ किधर जा रहा है? वर्तमान दौर में कला-साहित्य पर विचार करते हुए ये प्रश्न जरुरी जान पड़ते हैं, संभवतः इसलिए भी कि कला साहित्य का सामाजिक- सांस्कृतिक संदर्भ इधर तीव्र गति से बदला है। वह रूप अंतर्वस्तु की बहसों से दूर निकलकर एक व्यवसायिक उत्पाद का रूप ले चुका है।
हमारी वर्तमान संस्कृति ने बाहरी संसार में जिस तरह की एकरूपता को प्रसारित किया है, वह न सिर्फ भय उत्पन करता है, बल्कि अरस्तु के बहु-श्रुत, बहु-उद्धरित इस कथन पर -मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है- सवालिया निशान भी खड़े करता है। आज हम जिस मुकाम पर हैं, वहां इस बात के अवलोकन की बहुत अधिक जरूरत महसूस होती है कि उपभोक्ता के अतिरिक्त हमारी पहचान क्या है? उपभोग की बाहरी आकाँक्षाओं ने विवेक और दृष्टि के अन्तःसंसार को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। कला–साहित्य का अब हमारे बोध से क्या सम्बन्ध रह गया है? अगर अतिश्योक्ति न लगे और ठहर कर हम विचार करने की स्थिति में खुद को महसूस करें तो यह प्रश्न बहुत असंगत नहीं जान पड़ता कि बिक्री के लिए बाज़ार में तैयार माल से भिन्न कला –साहित्य का कोई स्वरुप, अब बचा रह गया है? यह बात बहुत निराशाजनक लग सकती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात समाज और संस्कृति में मूलभूत परिवर्तन देखे जा सकते हैं। समाज और संस्कृति के अन्तर्सम्बन्धों में भी बदलाव आया। कला-साहित्य का तो अवमूल्यन हुआ ही, मानवीय मूल्यों का भी विघटन भी हुआ। कहना न होगा ये दोनों ही बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
इन प्रश्नों का पीछा करते हुए यह बात हमारे लिए महत्वपूर्ण हो उठती है कि कला साहित्य के स्वभाव और मानवीय स्वभाव के बीच यह खाई कैसे विकसित हुयी? कला साहित्य के वर्तमान पर कोई मुकम्मल बातचीत इस प्रश्न को दरकिनार कर संभव नहीं।
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इन दिनों कला रूपों में अतिशय हिंसा, आक्रामकता और यौनिकता का प्रदर्शन हो रहा है। यह बात बार-बार कही जाती है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि लेखक या कलाकार समाज की वास्तविकता से, सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकता। उसे दर्ज करने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं। फिर इन घटनाओं के मूल में कोई राजनीतिक मंतव्य भी उजागर किया जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि जो कुछ हमारे इर्द गिर्द घट रहा है, वह एक राजनीतिक वास्तविकता है। कलाकार या लेखक का यह दायित्व है कि वह उसे दर्ज़ करे। यह लेखक, कलाकार की राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता को प्रदर्शित करता है। हम जानते हैं कि लेखन और कला, प्रकृति, समाज और मनुष्य के त्रिकोणात्मक सम्बन्ध-संघर्ष का प्रतिफल है। आधुनिकता ने समाज और राजनीति के बीच फांक को निर्मित और विकसित किया। ज्यों-ज्यों राजनीति ताकत की ओर उन्मुख होती गयी, त्यों-त्यों वह सामजिक चेतना से दूर होती गयी। अब यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि ताकत तो राजनीति के साथ मध्ययुग में भी रही है- लेकिन उस समय तक राजनीति और ताकत का सबंध बाह्य था। ताकत राजनीति की अन्तश्चेतना नहीं थी। आधुनिकता ने उसे राजनीतिक दृष्टिकोण में विन्यस्त कर दिया। क्या बीसवीं शताब्दी की तमाम सत्ताओं में ताकत का विकास या वर्चस्व की आन्तरिक चेतना का विकास सहज नहीं दिखाई देता?
कला को अनिवार्य तौर पर सामाजिक मूल्यों का निर्वाह करना चाहिए। परन्तु समाज और राजनीति को ज्यों का त्यों रख देना- क्या एक तरह का प्रकृतवादी नजरिया नहीं? दूसरे यह कि हमारे देखने का नजरिया अनिवार्य रूप से राजनीतिक ही क्यों रहता है? कहीं इसके पीछे सामाजिक मूल्यों की अवहेलना का प्रश्न तो नहीं? सामजिक राजनीतिक विलगाव के इस दौर में ये प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो उठे हैं।
पिछली सदी के लेखन में राजनीतिक दृष्टिकोण केंद्रीय हुआ है। क्या लेखक की जवाबदेही कला के प्रति, कला मूल्यों के प्रति नहीं होनी चाहिए? दुर्भाग्य से कला मूल्यों को नकारात्मक अर्थों में बीसवीं शताब्दी में रूढ़ किया गया। कला मूल्यों को समाज-मनुष्य के विरोध के रूप में उभारा गया। और इस तरह कला का ही अवमूल्यन कर दिया गया।
क्या लेखक की जवाबदेही राजनीति के प्रति ही होनी चाहिए? क्या लेखक को इस बात को स्वीकार नहीं करना चाहिए कि हर तरह की राजनीति अगर ताकत के सृजन में खर्च हो रही है तो लेखक का काम मूलतः उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण पैदा करना है? आखिर लेखक राजनीति का प्रवक्ता ही क्यों हो? औपनिवेशिक दौर से गुजर चुके समाज में इसे एक खतरनाक प्रश्न माना जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि यह कलावादी दृष्टि है। इसलिए यहाँ स्पष्ट करना जरुरी जान पड़ता है कि मैं लेखक या कलाकार की कला मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता की बात कर रहा हूँ न कि कलावादी मूल्यों की। कला मूल्यों से मेरा तात्पर्य उन मूल्यों से है जो मनुष्य को कला रचना के प्रति उद्धत करते हैं। यहाँ उस मूल्य की बात कही जा रही है, जिसके तहत मनुष्य प्रकृति का रूपांतरण करता है। यहाँ मनुष्य और समाज के अन्तर्सम्बन्धों की जटिलता और सतत गतिशीलता की ओर इशारा किया जा रहा है, जो कला की प्रेरणा है। लब्बो-लुबाब यह कि प्रकृति और समाज से जिस रिश्ते को किसी देश काल में मनुष्य विकसित करता है, आत्मसात करता है- वही उसे कला में प्रेरित करती है, लेकिन जब वह समाज को एकायामी और अवधारणात्मक दृष्टिकोण का प्रतिफल मानता है यानी अपनी अन्तश्चेतना और आलोचनात्मक विवेक की अवहेलना करते हुए ताकत प्रसूत राजनीति द्वारा दी हुयी दृष्टि एवं अवधारणा को ही सही मानने लगता है ,तो वह सामाजिक मूल्यों की सतत गतिशीलता को, सूक्ष्मता को नज़रंदाज़ करने लगता है। यहीं से लेखन या कला कर्म एक छद्म सामाजिक यथार्थ का, विभ्रम का, शिकार होने लगता है।
यहाँ लेखक या कलाकार से राजनीति के मुखालफ़त की बात नहीं कही जा रही, बल्कि उसे ही कला मूल्य मान लेने से पैदा हुए विभ्रम की बात कही जा रही है। कला-साहित्य यथार्थ का रूपांतरण है, और जब जब रूपांतरण की प्रक्रिया शिथिल होगी, कला मूल्य निरस्त होंगे और ऐसे में लेखन या कला अपनी मूल प्रस्थापना(गतिशील समाज और प्रकृति के अंतर्सबंध) का निर्वाह नहीं कर सकेंगे।
वस्तुतः हम जिस समय-समाज में रह रहे हैं- उसपर राजनीति हावी है। हम यह महसूस करते हैं या करने लगते हैं कि राजनीति समस्त परिवर्तनों की जननी है। एकमात्र राजनीतिक परिवर्तन से सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। हर तरह की विचारधारा अपनी कार्यनीति को इसी रूप में देखने दिखाने की कोशिश करती है। दुर्भाग्य से लेखक या कलाकार भी मानने लगता है कि समाज से, सामाजिक परिवर्तन से जो उसका रिश्ता है- उसे सिर्फ राजनीतिक परिवर्तन के परिणाम के रूप में या राजनीतिक क्रियाशीलता के रूप में देखा जा सकता है। वह साहित्य को, कला को, राजनीति के द्वितीयक उत्पाद के तौर पर मानने लगता है। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा दुष्परिणाम है- कला मूल्यों के प्रति लेखक का विलगाव। वह कला के प्रयोजन को राजनीतिक परिवर्तन के निमित्त के तौर पर ही देखता है, इस प्रक्रिया में वह जिस बात को विस्मृत कर बैठता है -वह है कला मूल्यों की सामाजिक प्रतिबद्धता। वह राजनीतिक प्रतिबद्धता को ही निर्णायक मानने लगता है। वह कला के प्रति किसी तरह का उत्तरदायित्व महसूस नहीं करता। कला रचना उसे वह आनंद नहीं देती। वह अपने कार्य के प्रति अर्जित तादात्म्य को खो बैठता है। कलाकार के रूप में वह अपनी किसी भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं मानता। कला के प्रति उसकी बढती अनास्था उसके आत्म के विघटन तक चली जाती है। वह मानने लगता है कि कला एक फुर्सत का या एक गैर जरुरी काम है। इस सबका परिणाम यह होता है कि वह रचनात्मकता को दोयम दर्जे की चीज़ मानने लगता है। वह कवि, कलाकार, लेखक, मूर्तिकार, चित्रकार आदि के रूप में अपनी सामाजिक उपादेयता को स्पष्ट नहीं देख पाता। वह अपनी मुख्य भूमिका किन्हीं और रूपों में देखता है। स्पष्ट है कि ऐसे में रचना के संसार से तीव्र गति से सामाजिकता का क्षरण होने लगता है। कला एक सामाजिक वस्तु नहीं रह जाती।
राजनीति को कला रचना के केंद्र में मान लेने से एक दूसरी समस्या भी उठ खड़ी होती है। बीसवीं शताब्दी में राजनीति के माध्यम से समाज पर ताकत की अजमाइश को संभव किया गया। राजनीति का चरम उद्देश्य ताकत का सृजन रह गया है। ऐसे में लेखक और कलाकार की राजनीति पर एकांगी निर्भरता, उसे ताकत के सृजनात्मक पक्ष की ओर मोड़ देती है –अब कलाकार या लेखक होने का एक अवांतर दृष्टिकोण उसके समक्ष स्पष्ट होता चलता है। कला सृजन के रास्ते वह समाज में ताकत अर्जन करने के निमित्त कलाकार के रूप में अपनी भूमिका विकसित करने लगता है। कला सर्जन के आदिम स्वरुप से लेकर वर्तमान तक हम देख सकते हैं कि उसका मूल उद्देश्य ताकत की आलोचना का रहा है। लेखक-कलाकार अन्तःकरण से सृजनात्मक स्वभाव या गुणों के फलस्वरूप ताकत या सत्ता के प्रति आलोचनात्मक रहा है। हम कह सकते है यह कला का सृजन का नैसर्गिक गुण है। प्रकृति की ताकत के विरुद्ध मिथकों की रचना में भी यह चेतना देखी जा सकती है। हम यह कह सकते हैं कि ताकत का प्रतिपक्ष होना- कला को सौन्दर्यात्मक बनाता है। आदि कवि वाल्मिक की करुणा में ताकत की ही आलोचना विन्यस्त है। समस्त ग्रीक मिथकों में हम ताकत की आलोचना देख सकते हैं, लेकिन ज्यों ही कलाकार, लेखक राजनीति को एकमात्र परिवर्तक के रूप में देखने लगता है, वह स्वतः ही ताकत की आलोचना के कार्य से विमुख होकर ताकत की उपासना की ओर प्रवृत हो जाता है
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अब उस पुरानी बात की तरफ लौटते हैं कि कला साहित्य में जो इधर हिंसा बढ़ी है, भाषा और अभिव्यक्ति के स्तर पर भी जिस तरह की क्रूरता में इजाफा हुआ है- वह किन्हीं साहित्य कला मूल्यों के तहत नहीं हुआ। कला को जब हम छद्म सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया या बाह्य सामजिक यथार्थ तक सीमित कर देखने पर बल देते हैं तो यह समस्या उठ खड़ी होती है। सामाजिक यथार्थ कला को समाज की भीतरी तहों से जोड़ती है। वह समाज के कार्य-कारण सम्बन्धों को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करने पर बल देती है, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वह घटित को ज्यों का त्यों रख दे। कलाकार सामाजिक यथार्थ को रूपांतरित करता है-ताकि वह एक कला वस्तु में ढल सके। रूपांतरण की प्रक्रिया ही उसे कला मूल्यों से जोडती है। बगैर रूपांतरण के जब हम सामाजिक यथार्थ की बात कला में कहते हैं, तो वह एक बाह्य, भौंडा और छद्म यथार्थ बन जाता है। इधर जिस राजनीतिक अंतर्वस्तु को कला अभिव्यक्ति में प्रदर्शित किया जा रहा है, वह इसी छद्म, भौंडे और बाहरी यथार्थ पर बल देता है। इसमें जो बात सिरे से गायब रहती है- वह है सामजिक इतिहास की चेतना, समाज के कार्यकारण सम्बन्धों का बोध। इस तरह से कहें तो सामाजिक यथार्थ के नाम पर जो कला अभिव्यक्ति का इधर चलन बढ़ा है, जिसे राजनीतिक वास्तविकता के रूप में प्रदशित किया जाता है- वह समाज की एकहरी व्याख्या को सामने रखती है। वह उस समग्रता को नकारती है, जो वास्तविक अर्थों में समाज के रूपांतरण को अभिव्यक्त करता है।
गंभीरता, समग्रता और जटिलता को इसलिए नकार दिया जाता है- क्योंकि वे गहरे में उतरने पर बल देते हैं। राजनीतिक बोध समय की गतिशीलता के सामानांतर प्रवाहित होता है। वह समकालीनता से अधिक तात्कालिकता पर बल देता है। चीज़ों के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया उसका अनिवार्य गुण है। राजनीतिक अंतर्वस्तु सतह पर चीजों के सरल अर्थ को कला अभिव्यक्ति मानती है। सरलीकरण इसका सबसे बड़ा मूल्य बन जाता है। जबकि साहित्य कला में समकालीनता और सर्वकालिकता का द्वंद्व रहता है। लेखन या कला में जब सामाजिक सम्बन्धों की जटिलता का प्रवेश होता है, अभिव्यक्ति की जटिलता बढती है। राजनीतिक दृष्टि के पक्षधर अक्सर उसे कलावादी मूल्य कहकर नकार देते हैं। यह बताया जाता है कि साहित्य की भूमिका छापामार दस्ते की तरह है। साहित्य ,कला का लक्ष्य तो अनिवार्य रूप से सामाजिक परिवर्तन है। मगर वह राजनीतिक परिवर्तन के लिए कैटेलिस्ट भर नहीं है। वह सामाजिक परिवर्तन को सौन्दर्बोध और कल्पना से जोडती है। अगर वह ऐसा न करे तो वह अनिवार्य रूप से कला नहीं है।
सामजिक यथार्थ का साहित्य कला से गहरा सम्बन्ध है। सामाजिक यथार्थ सिर्फ वर्तमान में घटित होने वाली घटनाएँ नहीं है, बल्कि उसमें इतिहास चेतना, स्मृति, आकांक्षा और कल्पनाशीलता भी है। जैसे ही साहित्य कला के सरोकार सतह पर घटने वाली राजनीति से सम्बद्ध हो जाते हैं, उसमें सत्ता और ताकत की वास्तविक आलोचना की दृष्टि लुप्त होने लगती है। दिलचस्प है कि इस तरह के कला और साहित्य को सामाजिक यथार्थ मान लिया जाता है। सामाजिक विभाजन को तीव्र हिंसा, आक्रामकता और शक्ति प्रयोग के रूप में दिखाया जाता है। यह सब कुछ एक राजनीतिक कथ्य का सतही और भौंडा रूपांतरण भर होता है। हम इस सतही और छद्म गतिशीलता को सामाजिक गतिशीलता और इसपर आश्रित साहित्य को, कला को सामाजिक यथार्थ मान बैठते है लेकिन इसका मूल उद्देश्य होता है पाठक दर्शक श्रोता में छद्म सामाजिक चेतना का प्रसार और साहित्य कला के व्यवसायिक महत्व का निर्माण।
व्यवसायिक चेतना, मूलतः दृष्टि को तुलनात्मक बनाती है। ताकि दो भिन्न से लगते दृष्टिकोणों में से एक को चुनना सहज जान पड़े। उतरोत्तर यह एक आन्तरिक अनिवार्यता में बदलती जाती है। तुलनात्मक दृष्टिकोण से हमारा तात्पर्य यह कि हम कला के मूल्याङ्कन में सृजनकार को महत्व देते हुए उनकी परस्पर तुलना करें। जैसे तोल्स्तोय और दोस्तोवोस्की की या प्रेमचंद और प्रसाद की तुलना। ऐसा करते हुए हम साहित्य की उस व्यापक भूमिका से दूर होने लगते हैं- जहाँ कला का काम मनुष्य की संवेदनात्मकता को बहुआयामी दृष्टि के साथ रखना होता है- ताकि वह श्रम और संवेदना के इतिहासबोध को आत्मसात किये रहे। दरअसल जब हम दो कलाकारों की तुलना करते हैं तो उसके पीछे व्यवसायिक उद्देश्य हावी रहते हैं- कहीं कला दीर्घा में किसी कलाकार के चित्रों को बेचने का, कहीं किसी उपन्यास के पाठकों की संख्या बढ़ाने का तो कहीं श्रोताओं के तौर पर संगीत के उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि का। साहित्य कला किसी भी तरह के वस्तुगत विभाजन को अंतिम मानने की दृष्टि का प्रतिरोध रचती है। आत्मगतता को भावुकता या विवेकहीनता की तरह प्रस्तुत किया जाता है। जैसे ही साहित्य कला का व्यवसायीकरण होता है, वह दो भिन्न सी प्रतीत होते दृष्टिकोणों को आत्मसात करने लगती हैं। जीवन-चर्या को इस तरह व्यवस्थित-विस्तृत किया जाता है कि यह महसूस हो कि साहित्य कला के लिए समय नहीं बचा। समय एक व्यवसायिक अवयव है- यह धारणा प्रबल होने लगती है। हम बोलचाल की भाषा में, हल्के- फुल्के या गंभीर संवादों में इस वाक्य को रखते हैं कि –‘समय पैसा पैदा करता है’। समय का सदुपयोग जैसे पद का हम जब उपयोग करते हैं, तो हमारे जेहेन में, वह समय के दुरूपयोग की तरह आता है, जिस क्षण हम पैसा पैदा नहीं कर रहे होते। मनुष्य एक पैसा बनाने की मशीन है, जिसमें समय रूपी इंधन का इस्तेमाल होता है- कमोबेश इस तरह की धारणा, हमारे भीतर जगह बनाने लगती है। इस तरह की धारणा में जहाँ एक ओर बाह्य संसार को वस्तुपरक विभाजन में बदलने पर जोर रहता है, वहीँ अन्तःसंसार को नकारने पर भी बल दिया जाता है। अन्तःकरण की बात करना समाज में एक हास्यास्पद चीज़ बन कर रह जाती है।
महसूस करना- एक नकारात्मक और अव्यवहारिक मूल्य बन जाता है। साहित्य कला की भूमिका को सबसे पहले नकार दिया जाता है –क्योंकि वह प्रत्यक्ष तौर पर पैसा पैदा नहीं करता। उसे समय की बर्बादी मान लिया जाता है। साहित्य कला के साथ जो पद जोड़ा जाता है वह है- फुर्सत के लम्हें। फुर्सत का समय एक गैर व्यवसायिक और अनुपयोगी समय है। यही कला साहित्य का समय है। आम आदमी के जीवन को इस तरह नियंत्रित किया जाता है कि फुर्सत का समय बचे ही न। साहित्य कला उनके लिए काम की रह जाती है, जो फुर्सत के लम्हों को खरीदने की हैसियत रखते हों। यह जो खरीदा हुआ समय है, इस समय के अनुरूप कला साहित्य की भूमिका का पुनर्संयोजन किया जाता है। पुनर्संयोजन को इस तरह अंजाम दिया जाता है कि कला का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन हो जाता है। मनोरंजन को मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति से जोड़कर दिखाया जाता है, लेकिन जोर इस पर रहता है कि सामग्री हल्की-फुल्की और अगंभीर बनी रहे ताकि वह किसी किस्म का मानसिक व्यायाम न कराये। गंभीर कला को अनिवार्य रूप से नकार दिया जाता है। मनोरंजन को साहित्य कला के केंद्र में रखकर व्यवसायिक कला का एक दायरा पूरा होता है। कला में मनोरंजन का उद्देश्य है- हास्य पैदा करना। हल्की-फुल्की अगंभीर और असंगत विचारों को रूप, रंग, रौशनी और भाषा के माध्यम से व्यवस्थित किया जाता है। रूप, रंग, रौशनी और भाषा का प्रभामंडल इतना व्यापक और उत्तेज़क होता है कि श्रोता, पाठक या दर्शक उसमें फंस कर रह जाता है।
हास्य को अनिवार्य रूप से फूहड़ होना चाहिए। कला साहित्य को फूहड़ हास्य में बदलने पर जोर देखा जा सकता है। पिछली शताब्दी में इस तथ्य को गढ़ा गया कि मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए हंसने की जरूरत है। इसके उलट, अगर हम विचार करें तो उपभोक्तवाद और हास्य के बीच एक सामंजस्य बनता हुआ देख सकते हैं। इस तरह के वाक्यों को कि ‘हंसना ही जीवन है’ बाज़ार के रास्ते, विज्ञान, चिकित्सा के रास्ते हमारे भीतर बिठाया गया। इन वाक्यों में मौजूद अगम्भीरता और सतही तार्किकता पर हमारा स्वतः ध्यान नहीं जाता। हम इसे मानवीय संकल्पना की अनिवार्यता से जोड़कर देखते हैं और इसपर आलोचनात्मक दृष्टि के साथ विचार करने की बात सोच ही नहीं पाते। जब यह बात स्थापित हो जाती है कि हंसना मनुष्य के लिए अनिवार्य है, समाज के स्वास्थ के लिए अनिवार्य है, तो कला साहित्य को हास्य में बदलकर उसकी समूची भूमिका को ही बदल दिया जाता है। जहाँ गंभीर कला को समय की बर्बादी के रूप में दिखाया जाता है, वहीँ हल्की-फुल्की मनरोंजन और हंसाने वाली कला को स्वस्थ मनुष्य और स्वस्थ समाज से जोड़कर सार्वभौमिक बना दिया जाता है। हम मान बैठते हैं कि कला-आस्वाद को अनिवार्य रूप से मनोरंजक ही होना चाहिए और इसलिए बाजार में हंसने हंसाने की वस्तुओं की प्रचुरता बनी रहती है। इस तरह कला साहित्य का स्वतः वस्तुकरण हो जाता है।
साहित्य कला का एक बाजार विकसित होने लगता है। हंसने हंसाने की वस्तु के तौर पर जब कला का अवमूल्यन हो जाता है, तब आस्वाद की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से उपभोग में बदल जाती है। पुस्तक पढने, किसी चित्र को देखने और रेस्तरां में खाने के बीच कोई मूलभूत अंतर नहीं रह जाता। उपभोग की प्रक्रिया हर तरह के अनुभव को एकायामी अनुभव में बदल देती है। उपभोग की एकायामिता अनुभूति के वैविध्य को नष्ट कर चेतना को कुंद कर देती है। साहित्य या कला से जिस विरेचन या आत्म चेतस होने का बोध जगता था वह धीरे-धीरे नष्ट होता होता जाता है।
कला साहित्य में व्यवसायिकता एक छद्म द्वैत खड़ा करती है। हास्य मनोरंजन पर आधारित कला साहित्य के बरक्स वह राजनीति केन्द्रित साहित्य कला का विकल्प सामने रखती है इस तरह विकल्पों का एक द्वैत खड़ा किया जाता है। दरअसल दोनों तरह की कला के केंद्र में उपभोग की अनिवार्यता बनी रहती है, लेकिन बाह्य स्तर पर ये एक छद्म विरोध या वैपरीत्य निर्मित करते हैं। इसलिए जहाँ एक तरफ हास्य मनोरंजन एवं हल्की-फुल्की सामग्री को परोसा जाता है, वहीँ दूसरी तरफ हिंसा, गाली-गलोच और यौनिकता को विकल्प के रूप में रखा जाता है। दोनों ही प्रारूप कला साहित्य की मूल चेतना को नकारते हैं। दोनों ही प्रारूपों में समाज का सामाजिक सम्बन्धों का, मनुष्य और प्रकृति के अन्तर्सम्बन्धों का सरलीकरण किया जाता है। दरअसल इसके पीछे एक उद्देश्य रहता है कि संस्कृति के रास्ते, कला साहित्य के रास्ते लोगों को अविवेकशील, अकर्मण्य और आपराधिक बनाया जाए। सामाजिकता का, सामाजिक मूल्यों का आम तौर पर मजाक बनाया जाता है। उसे दकियानूसी या पिछड़ापन साबित किया जाता है। नायक या खलनायक, हास्य या हिंसा, अश्लीलता या दमन इस तरह की कोटियाँ बनाई जाती हैं। सिनेमा या उपन्यास में जेनर के रूप में जो विभाजन हमें देखने को मिलता है, उसके पीछे यह दृष्टि काम करती है। पाठक श्रोता या दर्शक खुद को इसी तरह की कोटि में बाँट कर देखने लगता है। किसी को हिंसक कला पसंद है, किसी को हास्य, किसी को यौन चित्रण में आनंद आता है। ये तमाम विविधताएँ महज़ बाहरी हैं। इनका समाज की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता, लेकिन ये धीरे-धीरे समाज को इस तरह रूपांतरित करती हैं।
उपभोक्तावादी कला साहित्य के अनुभव और दृष्टिकोण के अनुरूप समाज भिन्न कोटियों में बंट जाता है। लोग इस तरह महसूस करते हैं कि जो इन कलाओं में व्यक्त हो रहा है – वह समाज का नंगा यथार्थ है। कला साहित्य से अर्जित इस नंगे और छद्म यथार्थ को वे समाज पर आरोपित करने लगते हैं। इस तरह कला साहित्य के माध्यम से धीरे -धीरे एक अनुकूलन विकसित होने लगता है।
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राजनीति ही समाज को बदलती है। बाह्य यथार्थ ही कला है। यह दृष्टिकोण उत्तर औद्योगिक समाज में या सूचना समाज में विकसित होता गया। जो कुछ है -बाह्य है। अन्तःकरण से प्रस्तुत आलोचनात्मकता और कल्पनात्म्कता को नकार दिया गया। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप कला साहित्य का दृष्टिकोण यांत्रिक होता गया। जब हम रंगों और कूचियों से तस्वीर खींचते हैं, तो बाह्य दृश्य के साथ-साथ अंतर्मन पर अंकित दृश्य को भी उसमें शामिल करते हैं। बाह्य संसार में जो है, उससे इतर का संसार भी हम अपनी कल्पना से प्रस्तुत कर पाते हैं। यहाँ कल्पना और आलोचना दोनों की दृष्टि महत्वपूर्ण हो जाती है। क्या कैमरे से खींचे गये दृश्यों में प्रसूत कल्पना या आलोचना को जोड़ना संभव है? लम्बे समय तक जब कैमरे का साहचर्य बना रहता है, तो कल्पना और आलोचना का दृष्टिकोण नष्ट होने लगता है। हम देखते हैं कि वर्तमान समाज में सच्चाई को सिर्फ बाह्य यथार्थ मान लिया गया है, वहां कल्पना और आलोचना की कोई गुंजाईश नहीं बची रह गयी है ।
उत्तर-औद्योगिक सभ्यता, मनुष्य की कल्पनाशीलता या आलोचनात्मकता को नकार देती है। हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि एक अकेला कैमरा एक दिन में दस हज़ार या बीस हज़ार तस्वीरें खींच सकता है। इतनी तस्वीरों को एक दिन में बनाने के लिए इतने ही मनुष्यों की आवश्यकता होगी। यानी कैमरे के पास जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, वह है- गति। उत्तर औद्योगिक समाज में कल्पना और आलोचना को गति के द्वारा बदल दिया जाता है। ठहरकर सोचना, विचार करना- कला कृतियों को, साहित्यिक पाठों को -आलोचना की दृष्टि से देखना, अर्थहीन बता दिया जाता है। एक तरह से देखें तो मात्रा के आतंक में हर तरह की अर्थवत्ता को समाप्त मान लिया जाता है। कलाकृति एक उत्पाद का रूप अख्तियार कर लेती है। बोरियों में बंद आलू और पेटियों में बंद किताबें एक ही रूप-आकृति और चेतना में ढल जाती हैं। अर्थ का वैविध्य समाप्त हो जाता है।
कल्पनाशीलता का नष्ट होना एक बड़ी परिघटना है। साहित्य कला में मौजूद कल्पना सामजिक यूटोपिया को बनाये रखता है। लेकिन ज्योंही कला साहित्य में हम वर्तमान को ही पूर्ण मानने लगते हैं, भविष्य के प्रति कल्पनाशील होने की संभावना नष्ट होने लगती है। क्या भविष्य की परिकल्पना के बगैर साहित्य या कलाबोध की कोई प्रासंगिकता बची रह जाती है?
धीरे-धीरे वर्तमान का बोध हमारी चेतना पर हावी होने लगता है। कला साहित्य में कालबोध का संकुचन वस्तुतः दृष्टि और दृष्टिबोध का संकुचन है। हम प्रकट या वर्तमान समय की चौहद्दियों में इस तरह मशरूफ हो जाते हैं कि उसके बाहर भी कोई समय है, संसार है- यह मान ही नहीं पाते। जहाँ यह एक ओर हमारी जिजीविषा को सीमित करता है, वह वही संघर्ष की चेतना और सौंदर्य दृष्टि को भी विरूपित करता है। कला -साहित्य का समय के साथ जो सम्बन्ध रहा है, वह समय की प्रचलित अवधारणा से इतर, समय की काल-क्रमिकता से बाहर जा सकने की संभावना के विकास और विस्तार का रहा है। यह सिर्फ साहित्य कला में ही संभव है कि हम एक ही कला रूप या पाठ में अतीत वर्तमान और भविष्य को जोड़ सके। कला साहित्य के बाहर यह संभव नहीं। लेकिन जैसे कला साहित्य का आधार बाह्य यथार्थ होने लगता है, प्रकट समय के बाहर जा सकने की उसकी क्षमता नष्ट होने लगती है। वह बिन्दुओं में महासागर की खोज का उपक्रम बन कर रह जाता है। और वास्तविक सागर के अवलोकन के बोध को गँवा देता है।
इस प्रक्रिया को संभव करने में आधुनिक टेक्नोलॉजी की भूमिका महत्वपूर्ण है। वह साहित्य कला के बोध को हर तरह के विस्तार से रोकती है। टेक्नोलॉजी जो सबसे बड़ा संकट पैदा करती है, वह है कला बोध को नष्ट करना। क्या आधुनिक तकनीक से निर्मित और सम्पादित कला साहित्य अनुभव की अटूट क्रमिकता को बचा पाती है? क्या कला निर्माण में मनुष्य की चेतना टेक्नोलॉजी से प्रतिस्पर्धा महसूस करती है? क्या टेक्नोलॉजी-कृत कला साहित्य के प्रति मनुष्य उसी तरह आलोचनात्मक हो पाता है, जैसे वह पहले रहता आया है? फेसबुक पर लिखी हुयी एक कविता हमारे जेहेन में क्या अंकित करती है? प्रतक्रिया की जगह पर पसंदगी और नापसंदगी का द्वित्य क्या आलोचना की संभावनाओं को नष्ट नहीं कर देता? धीरे-धीरे न सिर्फ हम आलोचना को भुला बैठते हैं, बल्कि अगर कहीं वह हो भी तो उसे बर्दास्त नहीं कर पाते। कला साहित्य में प्रस्तुत आलोचना और आलोचना का बोध एक तरह से हमारे आत्म के विस्तार को दिखाता है, लेकिन ज्योंही ही आलोचना को दरकिनार करते हैं आत्म का संकुचन होने लगता है। यह संकुचन सामाजिकता के ह्रास के परिणामस्वरूप हिंसक होने की संभावनाओं को प्रश्रय देता है।
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हम जानते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ बाह्य संसार को उन्मुख होती हैं। इन्द्रियों द्वारा संचित ज्ञान और अनुभव- चेतना का निर्माण करते हैं। इन्द्रियानुभव ज्ञान और संवेदना का मार्ग निर्मित करती हैं, जो कला के मानवीय बोध को, सृजनशीलता के मानवीय आयामों को संभव बनाती हैं। इन्द्रियातीत भी इन्द्रिय अनुभव का प्रतिफल हैं। इसलिए कला- साहित्य चेतना का कोई भी अर्थ इन्द्रियबोध से परे नहीं होता, नहीं होना चाहिए। परन्तु जब हम कैमरे की निगाह से चीज़ों को देखते हैं, तो वह देखना किंचित भिन्न होने लगता है। उसे हम पूर्णतः इन्द्रियानुभव नहीं मान सकते। मानवीय बोध अपनी इन्द्रियों की सीमाओं में रहकर सुंदर और कल्पनाशील बनता है, लेकिन जैसे ही हम उसे इन्द्रियों की बजाय तकनीक से सृजित करने लगते हैं तो उसकी बोधगम्यता मानवीय नहीं रह जाती। आँखों की हद से जो छूटता है, कल्पना उसे संभव बनाती है। जो दृश्य में नहीं आता उसे रस, गंध, ध्वनि और स्पर्श से पूर्ण किया जाता है। यह कलात्मक पूर्णता है। मानवीय पूर्णता है। इस पूर्णता में मनुष्य होने का आत्मविश्वास समृद्ध होता है।
किसी दृश्य को देखते हुए हम आँखें बंद कर लेते हैं। इन बंद करने में नकार का एक बोध रहता है। यह बोध इन्द्रियों के नकार द्वारा विकसित होता है लेकिन जैसे ही हम अपनी आँख और दृश्य के मध्य कैमरे को लाते हैं- यह नकार का बोध, अस्वीकार का बोध विकृत और विलुप्त होता जाता है। नकारने की, अस्वीकार करने की, छोड़ने की, समर्पण की मानवीय संवेदनाओं का अंत होने लगता है।
तकनीक गति का सृजन तो करती है, लेकिन वह नकारने का, अस्वीकार करने का सृजन नहीं कर सकती। इसलिए तकनीक द्वारा सृजित कला की पूर्णता, मानवीय पूर्णता नहीं है। वह अमानवीय और हिंसक पूर्णता है। जहाँ मानवीय बोध के लिए जगह सीमित होने लगती है।
उत्तरोत्तर हम गति को ही कला मान लेते हैं। सूक्ष्मता का यांत्रिक बोध विवेकशून्य सूक्ष्मता में परिणत हो जाता है। यह कला, ज्ञान को संवेदना में नहीं, प्रतिस्पर्धा में बदल देती है। ज्ञान के संवेदनात्मक मार्ग का अवरुद्ध होना एक बड़ी परिघटना है। संवेदनहीन ज्ञानात्मक कला सिर्फ यांत्रिक उत्पादन की प्रक्रिया बनकर रह जाती है। यह कला की सामाजिक भूमिका का नकार है।
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आज कला साहित्य के समक्ष दो बड़े प्रश्न हैं। राजनीति आश्रित कला चेतना का वर्चस्ववादी पक्ष और सूचना तकनीक प्रसूत कला का ज्ञानक्रांत संवेदनहीन पक्ष। ये दोनों ही पहलू मनुष्यता के समक्ष, मानवीय बोध के समक्ष, मानवीय स्मृति और संवेदना के समक्ष एक चुनौती हैं। किसी भविष्य की परिकल्पना के बगैर मनुष्यता का विकल्प क्या होगा? समस्त संघर्ष किस अंतहीन वर्तमान के लिए? कला साहित्य विहीन मनुष्य- क्या मनुष्य होने के अर्थ को खो नहीं देगा? इस सतत उपभोग के पार क्या है?
लाखों वर्ष पूर्व जब मनुष्य- मनुष्य नहीं था। वह पेड़ों पर रहता था। तब भाषा, समृति, इतिहास, भविष्य कुछ भी नहीं था। समाज भी नहीं था। एक नितांत वर्तमान। इस निरे वर्तमान में अन्य पशुओं की तरह रहने को वह अभिशप्त। और एक दिन वह नीचे जमीन पर आ गया। यह संयोगवश हुआ। यह संयोग तमाम धर्मग्रन्थों में किसी न किसी रूप में हम देखते हैं। उसने देखा कि उसके हाथ मुक्त हैं। मनुष्य का जन्म इसी मुक्ति के साथ हुआ। मुक्ति की आकंक्षा इसलिए उसके जीने की, बने रहने की अनिवार्य शर्त है। इसी के विरुद्ध वह सतत विद्रोह करता है। और उस दिन उसने मुक्त हाथों से एक नहीं दो फल तोड़े। एक उसने खुद खाया दूसरे अपने साथी को दिया ।दूसरे ने श्रम के बगैर फल को पाया ।लोभ, लालसा के साथ साथ करुणा संवेदना का भी जन्म हुआ। यहीं से मनुष्य के मनुष्य होने की कथा का विस्तार हुआ। उस साथी ने अपने इस अनाम मित्र को धन्यवाद कहना चाहा होगा लेकिन तब शब्द नहीं थे, भाषा नहीं थी स्पर्श था, उसने अपने मुक्त हाथों से उसके हाथों को स्पर्श किया होगा। यह स्पर्श एक नया स्पर्श था। यह स्पर्श पहला शब्द, पहली कला, पहली संवेदना। इसी ने भाषा को जन्म दिया। मनुष्य का यह विद्रोह उसकी कला के मूल में है -यह विद्रोह उस प्रकृति के विरुद्ध था, जहाँ उसने दी गयी परिस्थितियों को अपने श्रम से रूपांतरित किया। एक समांनातर संसार को गढ़ा। क्या भाषा और समाज की रचना मनुष्य की इस अपूर्व और अद्वितीय कला चेतनाको, सृजनशीलता को नहीं साबित करती? और आज जब उसका समाज -बोध खतरे में है, भाषा खतरे में है तो कला और साहित्य और उसकी सृजन चेतना भी खतरे में है तो क्या वह विद्रोह नहीं करेगा ?
लोग क्या एक दिन अचानक, अपने आत्मबोध से वशीभूत होकर सबकुछ नकार देंगे? इस हाहाकारी वर्तमान से किनारा कर लेंगे? सुंदर के नये स्वपन को साकार करने की मानवीय प्रेरणा से संचालित हो नये भविष्य के निर्माण में जुट जायेंगे? क्या कोई इकेरस फिर अपने स्वप्न के वशीभूत आत्मोत्सर्ग के मार्ग पर जाएगा? क्या फिर कोई गैलिलियो ताकत और सत्ता के समक्ष सच कहने की दृढ़ चेतना को अंगीकार करेगा? ऐसे अनेकों प्रश्न हैं, जो इस वर्तमान के भीतर कुलबुला रहे हैं। अमरीकी कथाकार फ्रेडरिक ब्राउन ने एक लघु कथा लिखी थी जिसकी पहली दो पंक्तियाँ हैं –
‘संसार का आखिरी मनुष्य कमरे में अकेला था। अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुयी’।
क्या हम अचानक की किसी भी संभावना से रिक्त हो चुके हैं? क्या मनुष्य इस अप्रत्याशित की उम्मीद में नहीं बैठा हुआ? क्या जाने, वह एक दिन इस दस्तक का पीछा करते हुए एक नये भविष्य, एक नये संसार, एक नई मनुष्यता की खोज में किसी असमाप्त यात्रा पर फिर से निकल पड़े ?


 

अच्युतानंद मिश्र

कविता और आलोचना दोनों में समान रूप से सक्रिय अच्युतानंद मिश्र का जन्म 11अगस्त 1982 को बोकारो (झारखंड) में हुआ।
दो कविता संग्रह चिड़िया की आंख भर रोशनी में और आँख में तिनका ।उत्तर मार्क्सवादी चिंतकों पर केंद्रित विचार और आलोचना की पुस्तक बाज़ार के अरण्य में प्रकाशित। कविता पर केंद्रित आलोचना की पुस्तक कोलाहल में कविता की आवाज़ ।
प्रेमचंद: साहित्य संस्कृति और राजनीति शीर्षक से प्रेमचंद के प्रतिनिधि निबंधों का संकलन। साहित्य की समकालीनता शीर्षक के अंतर्गत साहित्य और समय के अन्तर्सम्बन्धों पर केन्द्रित लेखों का संकलन एवं संपादन. कबीर की कविता पर लेखों का संकलन-संपादन तथा प्रसिद्ध अफ्रीकी उपन्यासकार चिनुआ अचेबे के उपन्यास Arrow Of God का हिंदी में देवता का बाण शीर्षक से अनुवाद।
कविता के लिए वर्ष 2012 में शब्द साधक युवा सम्मान एवं वर्ष 2017 में भारतभूषण अग्रवाल सम्मान।
आलोचना के लिए दिया जाने वाला प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान वर्ष 2021में कोलाहल में कविता की आवाज़ को।
सम्प्रति: श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कालडी (केरल ) में अध्यापन।
मो.-9213166256
Email : anmishra27@gmail.com

 


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