नेहल शाह इधर की कविता में एक चिर परिचित नाम है। नेहल सीधी सरल कविताएं लिखती हैं जिसमें समकालीन जीवन के विविध रंग सांसें लेते दीखते हैं। यहां हम नेहल की बिम्बों के मार्फत विषमतापूर्ण जीवन को रूप देने वाली और कुछ प्रेम के बहाने जीवन के अधूरेपन को प्रश्नांकित करने वाली कविताएं दे रहे हैं जिनमें नैराश्य का नहीं बल्कि जीवन से गहरा प्रेम उमंगे लेता दीखता है। यह सादगी का शिल्प है जिसमें क्लिशे का कोई रोल नहीं।
– हरि भटनागर
कविताएं:
1. त्योहार का एक दृश्य
कहानी
कल्पना में रची जा रही थी
यथार्थ में
गढ़ी जा रही थी
मिट्टी की प्रतिमा
जिसकी गोद में एक बच्चा खेल रहा था
एक रात पहले उस मोहल्ले में
बहुत चुहल थी
स्त्रियां अपनी चर्चाओं के बीच
सड़क पर खेलते अपने बच्चे
देख रही थीं
कुछ दूरी पर सूखी लकड़ियों के ढेर लगे थे
नियमानुसार, दाह केवल पुरुष दे सकते थे
उन कलाकृतियों के तर्पण से
सदियों से मूर्तिकारों के
चूल्हे जल रहे थे
अगले ही दिन-
चारों ओर शोर था
लोग उल्लास से भरे थे
प्रतिमाओं के रंग
सड़कों पर बिखरे पड़े थे
लकड़ियों के ढेर
स्त्री-प्रतिमा को साथ लेकर
जल चुके थे
उसी राख के ढेर में
जला हुआ एक चेहरा पड़ा था
जो बच्चे की हल्की सी छुअन से
बिखर गया
बच्चा ज़ोर-ज़ोर से हँसता रहा।
2. हरारत
कभी कभी कैसा तो
बुखार सा लगने लगता है
जो मापने पर निकलता नहीं
मन कुछ भारी सा होता है
सब मन का होने के बाद भी
कुछ चुभा सा महसूस होता है
छाती के ठीक बीचों-बीच
जो बाहर से दिखता नहीं
आज किताब पढ़ते हुए
अचानक कांपने लगा मेरा हाथ
जिसे रोकाना पड़ा मुझे
अपने दूसरे हाथ से
न्ना! किताब में
बाहर से अलग
कुछ भी नहीं था
एक कहानी थी
जिसमें कॉलेज के पांच छात्रों को गोली लगी थी
कहीं थोड़ी हिंसा भड़की थी
कुछेक बलात्कार के दृश्य
और कोई कुछ कहते-कहते
बिछड़ गया था
फिर मुझे वो दोपहर याद आने लगी
जब तुम कहना चाहते थे कुछ
और बिन कहे ही चले गए
लेकिन तुम्हें गए हुए तो काफी दिन बीत गए
अब तक तो
धुंधली हो जानी चाहिए थी
याद उस बात की
या मुझे आदत हो जाना चाहिए थी
उस अनकहे संवाद की।
3. तुम्हारी पीठ
कभी- कभी एक रम्य साध की तीव्र अभिलाषा
दिमाग को कुंद कर देती है
जैसे अंधेरे से पटा सघन अरण्य
जहाँ रात की लंबाई अधिक होती है
दिन के बनिस्बत
खयालों की जमीं
बन जाती है
सुंदरबन का दल-दल
और विचार धंसते जाते हैं
गहराई तक
समूची देह पर
शून्य हो जाता है
मस्तिष्क का नियंत्रण
तर्क, ज्ञान, बुद्धि, स्मरण,
विचार, व्यक्तित्व, निर्णय का नियमन छूट जाता है
केवल एक स्वप्न
तैरता हुआ शेष रह जाता है
जैसे किसी डोर से छूटी हुई
अनियंत्रित पतंग
क्या कोई स्वप्न पर संयम
रख सकता है?
स्वप्न में तुम्हारा साथ है
तंत्रिकासूत्रों के हर आवेग में बस तुम हो
स्वप्न के बाहर तुम कहीं नहीं
जहाँ तुम नहीं
वहाँ मैं होकर भी क्या करूं?
क्या करूं इस बिन रौशनी की गुफा का?
यहाँ कोई खिड़की नहीं
रोशनदान नहीं
केवल अपारदर्शी सी घुटन है
एक दरवाजा है
जो खुलता नहीं है भीतर से
एक गहरा गड्ढा
गुफा के बीचों बीच
जिसमें कूद कर दम तोड़ते हैं सपने
उन घायल सपनों पर
सर्प पलते हैं
रेंगते हैं, फुफकारते हैं
मुझे ढूंढते हैं
और मैं हजारों सर्पों से एक साथ
डसी जाती हूं
आह! कितनी पीड़ा है
कितना विष भर चुका है मेरे भीतर
कि अब कोई विचार जिलता ही नहीं
बस एक तुम्हारा खयाल है
तुम्हारा नाम पुकारती हूँ में
बची-खुची अपनी आवाज में
तुम्हारी ओर देखती हूँ
दर्द भरी नीली आंखों से
देखने को तुम्हारा चेहरा
जो अब दृश्य नहीं है
और दिखाई देती है
केवल
तुम्हारी पीठ।
4. तुम्हारे प्रेम में होने से पहले
तुम्हारे प्रेम में होने से पहले
समय से गुज़रता था समय
तुम्हारे प्रेम में होने के बाद
सब- कुछ रुक गया है
मेरे आस-पास
अब नहीं चाहते
कमरे के परदे हिलना
खिड़कियां खुलना
पढ़ी जाना किताबें
मकड़ियां बदलना
पुराने अपने जाल
घड़ी नहीं चाहती है
दिखना घूमते हुए बार-बार
न दस्तक देना चाहता है दिन
घर के भीतर,
न रात चाहती है
टहलना कुछ देर
घर से बाहर निकल कर
और बहुत कुछ
नहीं होना चाहता हुआ
हो रहा है
क्योंकि, मेरे साथ
तुम्हारे प्रेम में पड़ गया है
मेरा आस-पास।
5. बदल जाता है प्रेम
अब तक मैं तुम्हारे बारे में
लगभग सारी बातें जान चुकी हूँ
कहने को अब हमारे बीच में
कुछ भी जैसे नया नहीं है
मिलने के आकर्षण का
रंग धुंधला गया है
स्नेह प्रीति की बातों का
अब समय नहीं है
प्रेम मेरे तुम्हारे बीच का
एक अमूर्त चित्र है
जिसके एक ओर का रंग
गहरा गया है
बीच के हिस्से में एक अदृश्य नदी बहती है
जिसमें हम आधे-आधे डूबे हुए हैं
चित्र के दूसरी ओर कोई रंग नहीं है
तुम उस कोरे हिस्से में कभी कोई आकृति उकेर देते हो
जिसे नदी अपने संग बहा ले जाती है
और तुम खीझ उठते हो
वहां मुझे कुछ भी उकेरने की
अनुमति नहीं है
इजाज़त नहीं है
तुम्हारा मन संवारने की
फिर भी, आदतन, मैं साफ करती हूँ
तुम्हारी प्रिय किताबों की अलमारी
जिसे दीमक ने घेर रखा है
कागज़ का वह नन्हा पुर्जा संभालती हूँ
जिसमें तुमने एक नई कविता को शुरू किया है
और संभालते हुए तुम्हारी मेज़ की दराज से
मुझे मिल जाता है
उस पंछी का पर
जिसे उठाकर तुमने जमीन से
ज्यों ही मेरी हथेली पर रखा था
वह धूप से भीगा हुआ
पुर ताज़ा गुलमुहोर हो गया था
इस कमरे की
कई बरस पुरानी
ऊबी हुई व्यवस्था से इतर
जहां बिस्तर की चादर पर
सिलवटों की लहरें
तकिए पर छूटे हुए अधूरे सपने
और कुर्सी पर टिकी हुई संघर्ष की यादें
दिखाई देती हैं
जब यादों में नहीं बदलता
तो फिर हकीक़त में क्यूँ बदल जाता है प्रेम?
6. अफवाहें
कितनी बैचनी है
कि सब समाप्त कर देना चाहता है मन
और कुछ शुरू भी नहीं कर पा रहा
मेरे कानों में कोई भंवर अटक गया है
तुम्हारी आवाज गुम हो गई है
कहीं फंस कर
अब लगभग बीच में आ चुकी हूं मैं
जिंदगी के एक छोर से आगे निकल कर
जहां विरोधी ताकतों के खिलाफ़
बनता है कुछ संतुलन
अब सही समय है
यह अफवाह फैल जानी चाहिए
कि सब सुधर रहा है
कोई खराबा कहीं नहीं है
वतनपरस्त खुश मिजाज़ हैं
अराजकतावाद स्वीकार कर लिया गया है
संसद लाइब्रेरी में तब्दील हो गई है
युवा विमर्श कर हैं
विज्ञान तरक्की पर है
वक्त बदल रहा है
तामील हो रहे हैं
कुछ ऐसे नियम
जिनसे बंधकर टूट जायेगा
चाकरी का भरम
अब सब व्यवस्थित है
इतना, कि व्यवस्थाओं से लगने लगा है डर
सवाल रास्ता भटक गए हैं
जवाब बिखरे पड़े हैं हर तरफ
पृथ्वी जानकारी से पट गई है
जिज्ञासाऐं दम तोड़ चुकी हैं
हर तरह का डिटॉक्स यहां उपलब्ध है
यह आसानियों से भरा एक मुश्किल वक्त है
7॰ तुम्हारे घर का रास्ता
आज तुम्हारे घर आते हुए
अलग दिख रहा है
तुम्हारे घर का रास्ता
अब यहां घने पेड़ों की छांव नहीं है
कच्ची सड़क के दरमियां
समा जाता था जिनमें प्रेम कभी
आखिरी बूंद तक बरसता हुआ
मुझसे मिलोगे तो चौंक जाओगे यह जानकर
कि मुझे अब भी दरकार है
प्रथम दौर नारीवाद के सवालों के जवाबों की
जिन पर उलझ जाया करते थे हम
जबकि जान चुकी हूं मैं कि, स्त्री होने का गौरव मिथ्या है
और मेरे बस में नहीं, कि अफसोस करूं मैं अपने स्त्री होने पर
समंदर अब भी मुझे पूर्ववत रूचता है
कोई माप नहीं सकता इसका दायरा एक नज़र देखकर
वह अपने मन की कसमसाहट फेंक देता है
बाहर धकेल कर
मुझे अब हासिल है
बहुप्रतीक्षित मेरा कमरा
जहां टेबल कुर्सी अलमारी के साथ प्राप्त हैं
मुझे हर मौसम की हानियां
खिड़की के कांच जब तब टूट जाते हैं
बाहरी हवाएं तेजी से घुस आती हैं
आकर मुझ पर ठहर जाती हैं
और आज भी मैं
प्रकृति को बचाने की जिरह में
अपनी बुक्शेल्फ में बिछाती हूं
खूबसूरत विज्ञापनों से पटे चिकने अखबार
यहां मेरे पास अव्यवस्थाओं का सुख है
लंबी गहरी रातें और सूर्य ग्रहण है
फिर भी इस अंधकार में चाहती हूं मैं
चमचमाते जगनुओं की दमक
और मेरा तुम्हारा साथ
जो सहज संभव नहीं है
जैसे संकोच और अवसाद के बीच प्रेम का भाव
तुम करते हो वादे आदतन
जिन्हें अगले ही क्षण भूल जाते हो
में स्वभावतः प्रतीक्षारत, पढ़ती हूं
पॉजिटिव टॉक्सीसिटी पर
इंतजार को कम करने के नुस्खे ढूंढती हूं
लेकिन सब व्यर्थ
यह भी जानती हूं
नहीं पुकार सकती तुम्हें बार-बार
आज भी मिलने आई हूं यह सोच कर
कि ना मिले तुम तो एक पल
भी नहीं रुकूंगी तुम्हारे दरवाजे पर।
8. जागृत खिड़कियां
इन खिड़कियों में
कहीं कोई द्वार नहीं है
चेतनाएँ यहाँ
बे-रोक-टोक भ्रमण करती हैं
अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई के
गलियारे से अनेक खिड़कियाँ
आसमान की ओर देख रही हैं
मौन साझा करती हुई इनकी शांति
हृदय में मंत्र सी बस जाती है
चिकित्सा यंत्रो के कोलाहल के बीच
उन लोगों की अंतश्चेतना तक पहुँचती है
जो इन खिड़कियों के सहारे से
खड़े, बैठे, जागते दिखाई देते हैं
दिन भर और रात भर
उनिंदी आँखें लिए
खिड़कियों के बाहर देखते हैं
आकाश की ओर
उड़ेल कर खामोशियां
जागृत चेतनाओं के समक्ष
उन्हें जागने जो कई दिनों से
मूर्छित पड़े हैं।
9. परिभाषाएँ
रात
वह माँ है
जिसके गर्भ से
स्वप्न का जन्म होता है
सुबह
वह बेटी है
जिसकी निर्दोष हँसी पर
किसी का ध्यान नहीं जाता
दिन
वह बेटा कि
जिसके होने से
कभी न पूरी होने वाली आशाएं है
शाम
वह पिता है
जो ढ़लती उम्र में
जीवन के गंभीर गणित के हिसाब में है
शांत है….
10. दीमक का घर
तुम्हारे बहुत दिन घर से दूर रहने पर
दीमक ने अपना घर बना लिया है
मैं घर का इलाज करा रही हूं
लेकिन वे याद करा गए हैं
कि थोड़ा भी यदि बाकी रह गया दीमक
तो दोबारा फैल सकता है घर पर
यूं मुझे तुम्हारी वह बात याद आती है
जब तुमने कहा था
कि तुम्हें मुझ पर भरोसा है
निन्यानवे प्रतिशत तक।
डॉ. नेहल शाह
जन्म मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने फ़िज़ियोथेरेपी में स्नातक, कार्डियोथोरेसिक फ़िज़ियोथेरेपी में स्नातकोत्तर और सिंबायोसिस विश्वविद्यालय, पुणे से पीएच-डी. की डिग्री प्राप्त की। हिंदी कविता में रुचि के कारण उनकी कविताएँ प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। रेनर मारिया रिल्के और टी एस इलियट के हिंदी अनुवादों ने उन्हें पहचान दिलाई। प्रभाकर प्रकाशन से प्रकाशित उनके काव्यसंग्रह का नाम है ‘और इन सब के बीच’। उनकी कविताएँ राजपाल प्रकाशन से राजेश जोशी और आरती द्वारा संपादित ‘इस सदी के सामने’ एवं सूर्य प्रकाशन मंदिर से प्रकाशित, रुस्तम सिंह द्वारा संपादित ‘एक अलग स्वर’ संकलन में में भी शामिल हैं। चित्रकला में उनकी रुचि है, और ‘आर्ट फॉर कॉज़’ द्वारा जारी की गई शीर्ष 50 महिला आर्टिस्ट की सूची में उनका नाम शामिल किया गया। चिकित्सा क्षेत्र में उनके शोधपत्र अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। डॉ. शाह को 2022 में ‘युवा वैज्ञानिक’ और 2023 में ‘स्वाभिमान सम्मान’ और ‘पुनर्नवा नवलेखन पुरस्कार’ से नवाजा गया। वे वर्तमान में भोपाल स्मारक अस्पताल में क्लिनिकल कार्डियोथोरेसिक फ़िज़ियोथैरेपिस्ट के रूप में कार्यरत हैं और स्वतंत्र लेखन भी करती हैं।
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