प्रेमरंजन अनिमेष आज की कविता के परिचित नाम हैं।अनिमेष छोटे-छोटे विषय-बिम्बों में कवित्त रचते हैं जिसमें अतिरिक्त कुछ नहीं , सिर्फ़ अनुभूतिजन्य विचार हमें ठिठका देता है। अनिमेष ख़ामोशी में यक़ीन रखते हैं जो जीवन के गहरे अर्थों को रूप देता है।
यहां हम अनिमेष की कई सारी कविताएं दे रहे हैं जो उपरोक्त कथन पर खरी उतरती हैं।
-हरि भटनागर

कविताएँ :

1. नवान्न

नये कवि तुम्हारे पास नया क्या है ?

नयी है मेरी कलम
इसकी रोशनाई
नया यह कोरा पन्ना

नया है नयी आँखों के नये पानी में तिरता सपना
नये पंखों में भरी नयी हवा
नये तिनके सजावट इनकी नयी

नयी मिट्टी के नये गन्ने का नया रस
पाग जो बन रहा कबसे अभी अभी पका है
अभी अभी मैंने इसे चखा है

नयी है मेरी बेचैनी मेरी छटपटाहट
मेरी हूक मेरी कूक मेरी चहक नयी

नया है मेरा अदेखा मेरा अजाना मेरा अनकहा

दुख तो वही बरसों बरस पुराना हजार बाँहों वाला
पर अभी अभी जनमा है मेरे यहाँ
उसकी धमक नयी है
उसकी किलक नयी…

2. आमंत्रण

आना
अगर हो सके
न हो सके
तब भी आना

आना
अगर किसी से मिलने आओ
किसी से न मिल पाओ
तो चले आना

आना
अच्छे मौसम में
अच्छे मौसम के लिए
आना

आना
जब रास्ते खुले हों
कोई रास्ता न हो
तब भी आना

आना
अगर याद रहे
भूल जाओ
तो भूले भटके

आना
दुनिया देख कर
दुनिया देखे
इस तरह आना

आना
जो हो कोई बात
कुछ भी न हो साथ
तो यों ही
खाली हाथ

क्या है मेरे कहने में
मगर आना
जो रहा अनकहा
उसी के लिए

आना
मैं राह देखता
यहीं रहूँगा

बिना बताये
बगैर खबर किये
आना
एक दिन

उस समय
जब मैं
नहीं रहूँगा…

3. चौखट पर अजनबी पवाइयाँ

सीढ़ियाँ चढ़ते
दरवाजे के पास दिखती
जोड़ी चप्पलों की
नयी सी
अपने यहाँ की नहीं

ओहो
तो मेरे पीछे
घर में
कोई आया है !

बहुत प्यारी सी
लग रहीं
शकुन पाखियों की जोड़ी जैसी
नयी संभावनाओं से भरतीं
पवाइयाँ अपरिचित

इनमें अपने
पाँव डालने का मन कर रहा
इनका कुछ करने का
जी हो रहा

दस्तक देता हूँ
अंदर की आहट सुनने की
कोशिश करता लगाकर कान
जैसे एक नये घर में आया हूँ

कौन होगा ?
कोई भी आया हो चलो !
चलो तो भीतर

ऊपर दरवाजे पर लगे
किसी नामपट्ट से ज्यादा
संकेत देतीं ये
भीतर उपस्थित मनुष्यता का

चौखट के आगे खुली
इन चप्पलों से
पता चलता
बसेरे के बसे होने भरे होने का
और मिलता
नया उल्लास
अपने घर प्रवेश का

जब तक आगम का
उछाह है भीतर
तभी तक हम हैं कोई है घर में
और घर
है घर

जल्दी से
उतारता अपनी चप्पलें
बगल में इन नवपरिचित पवाइयों के
एक बार साथ निहार कर उन्हें
अंदर जाते जाते रुकता हूँ
नयी जोड़ी की एक पवाई
जल्दी से छुपा देता हूँ
कुछ देर के लिए कहीं…

4. छाता

जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास जो छाता है
उसमें कोई एक ही आता है

इसलिए
सोचता हूँ
मैं लूँगा
तो लूँगा आसमान
कि जिसमें सब आ जायें

और बाहर खड़ा भीगता रहे
बस मेरा अकेलापन

बराबर लगता है
छाते
रिश्ते नाते हैं
बरसात में काम आते हैं
और अकसर
छूट जाते हैं !

5. मदद

पाँच साल की उम्र
पीठ पर बस्ता
बस्ते की उम्र उससे अधिक

टुक टुक जा रहा था बच्चा
सड़क को जलतरंग सा बजाता
कि खुल गया उसके जूते का फीता

माँ ने कहा था
राह में मदद लेना
किसी अच्छे आदमी से
वह सीधा गया चौराहे पर
लिखा था जहाँ
प्रशासन आपकी सेवा में

सिपाही ने बहुत दिनों से
बाँधा नहीं था
किसी बच्चे के जूते का फीता
सो देर लगी उसे

ठिठका रहा तब तक
चारों तरफ का यातायात

किसी बच्चे की तरह
चाहता हूँ मैं
ताकत झुके तो इस तरह
रास्ता रुके तो इस तरह…

दस वाक्य जो बच्चे ने गाय पर लिखे

चार पाँव उसके जैसे चारपाई के
पर गाय नहीं जानती चारपाई न चारपाई गाय को

हाथ नहीं कोई
भारी सिर हिलाकर हलकी पूँछ डुलाकर उड़ाती मक्खियाँ
दो ऑंखें बड़ी बड़ी हमेशा गीली कीची भरी

थन उसका खुला हुआ
और एक मन जो नहीं दिखता

दूहा जाता पूजा जाता उसको

कुछ भी खाकर गोबर करती पावन

दूध से भी मीठी
कंठ में सीधी गिरती
उसकी पहली धार की गुदगुदी

बड़ी भली खड़ी ऐसे ही

देखने लायक सबसे मगर
खूँटा तुड़ाकर साधे सिर
भागती गाय

देखनेवाला लेकिन उसके रस्ते में ना आय

निर्णय वही करे सही गलत का
शिक्षकों से आग्रह है

यह लिखायी
गाय को सुनायी जाय
और गाय से अनुरोध है
कि वह उस समय न पगुराय… !

 

6.  लिखावट

यह उनकी भी होती है
जिन्हें लिखना नहीं आता

खड़िया पेंसिल सरकंडे किनारे कर
जो शुरू से महीन रंगीन लेखनियों के पड़े पीछे
गयी उनकी लिखावट

और जिन अभिभावकों को बड़ी फिक्र रही
कि उनके बच्चे न बिगड़ें
उन्होंने हाथ पकड़कर लिखना
कभी नहीं सिखलाया

अजीब भेद है इसमें
वह जो कुछ कह नहीं पाता ठीक से
कैसे मोती उतार देता पन्नों पर
और कलम लिये
कागज पर टिकने से पहले
कााँपता है बुरी तरह जो हाथ
वही कितना सध जाता लिखते हुए

लिखावट
बनानी पड़ती है
हाथ फेरना होता शुरू शुरू में
किसी अच्छी लिखावट पर

जैसे इस अँधेरे में
उँगलियों से महसूस करता मैं
अक्षर तुम्हारे

और याद करता
कि इस दुनिया में
स्रष्टा की लिखाई को
दुहराना था हमें
उतना ही सुघड़ रचने के लिए

पर हमारे सीखने का ढंग
कि वे इबारतें भी
धूमिल पड़ गयीं

एक दूसरी भाषा की चिट्ठी
रहती हमेशा
दिल के पास वाली जेब में
जब तब निकाल कर
पढ़ता उसकी लिखावट

अपराधियों तक पहुाँचने में जब
काम आ सकती है लिखावटें
तो अपनापन तलाशने के लिए क्यों नहीं

पढ़ने में
लिखा हुआ ही नहीं
लिखावटों को पढ़ना भी शामिल है

जिनकी लिपि की कुंजी नहीं अभी
ऐसी कई सभ्यतायें
खुल सकती हैं
इस पहचान से…


प्रेम रंजन अनिमेष

जन्म  : 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में।

भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार  तथा ‘एक मधुर सपना’ और ‘पानी पानी’ कहानियाँ ‘हंस’ व ‘कथादेश’ शीर्ष सम्मान से सम्मानित।

कविता संग्रह : मिट्टी के फल,  कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल, माँ के साथ, स्त्री सूक्त, ‘कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र और कुछ साक्ष्य’, ‘जीवन खेल’।

‘अच्छे आदमी की कवितायें’, ‘अमराई’ एवं ‘साइकिल पर संसार’ ई पुस्तक के रूप में ( ‘हिन्दी समय’, ‘हिन्दवी’ व ‘नाॅटनल’ पर उपलब्ध)।

कहानी संग्रह :  ‘एक स्वप्निल प्रेमकथा’ नाॅटनल’  तथा  ‘एक मधुर सपना’ पुस्तकनामा से प्रकाशित। ‘लड़की जिसे रोना नहीं आता था’, ‘थमी हुई साँसों का सफ़र’, ‘पानी पानी’, ‘नटुआ नाच’, ‘उसने नहीं कहा था’, ‘रात की बात’, ‘अबोध कथायें’ शीघ्र प्रकाश्य ।

उपन्यास : ‘माई रे…’, ‘स्त्रीगाथा’, ‘परदे की दुनिया’, ‘ ‘दि हिंदी टीचर’। बच्चों के लिए कविता संग्रह’माँ का जन्मदिन’ प्रकाशन विभाग से प्रकाशित, ‘आसमान का सपना’ प्रकाशन की प्रक्रिया में।

ब्लॉग : ‘अखराई’ (akhraai.blogspot.in) तथा ‘बचपना’ (bachpna.blogspot.in)

वर्तमान पता : 11 सी, आकाश, अर्श हाइट्स, नाॅर्थ ऑफिस पाड़ा,  डोरंडा, राँची 834002

ईमेल : premranjananimesh@gmail.com

दूरभाष : 9930453711, 9967285190

 


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